वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 137
From जैनकोष
सम्यग्दर्शनशुद्ध: संसारशरीरभोगनिर्विण्ण: ।
पंचगुरुचरणशरणो दार्शनिकस्तत्त्वपथगृह्य: ।।137।।
दर्शनप्रतिमा के वर्णन का उपक्रम―जो पुरुष सम्यग्दर्शन से शुद्ध, है संसार, शरीर और भोगों से उदासीन है, पंचपरमेष्ठी गुरु के चरणों की शरण जिसने ग्रहण की है, सन्मार्ग में जो-जो आचरण बताए गए हैं उन आचरणों को पालने वाला है, मोक्षमार्ग में अवस्थित है वह दार्शनिक श्रावक कहलाता है । यहाँ दार्शनिक से अर्थ न्याय वाला नहीं, किंतु सम्यग्दर्शन की सिद्धि वाला श्रावक कहलाता है । सम्यग्दर्शन की अपूर्व महिमा है । जिस जीव के सम्यक्त्व है वह पवित्र जीव है । जिसके सम्यक्त्व नहीं वह धर्म के नाम पर कितनी ही क्रियाएँ चेष्टाएँ करता रहे किंतु वह धर्म के मार्ग में नहीं है, उसे तो एक अच्छा शौक लग गया है । जैसे किसी को बुरे शौक लगा करते है इसको अच्छा शौक लग गया है, पर सम्यग्दर्शन पाए बिना वह धर्म मार्ग में नहीं है ।
सम्यग्दर्शन के लाभ के उपाय में प्रथम उद्यम वस्तुस्वरूप का यथार्थ विज्ञान―सम्यग्दर्शन पाने के लिए प्रयत्न क्या होना चाहिए? सर्वप्रथम प्रयत्न यह है मनुष्यों का कि वे वस्तुस्वरूप का निर्णय करें । वस्तुस्वरूप के निर्णय के बिना सम्यक्त्व नहीं बनता । वस्तुस्वरूप का निर्णय होता है स्याद्वाद परमागम से । जैन शासन में दो चीजें ऐसी कही गई है कि जिनके स्वरूप का वर्णन जैन शासन में ही मिल पाता है और वह जीवन के उद्धार के लिए परमावश्यक है । वे दो बातें हैं स्याद्वाद और अहिंसा । स्याद्वाद से तो विचार शुद्ध होते हैं और अहिंसा से आचार शुद्ध होता है । यों भाषणों में सभी कोई कहते है कि अपना आचार विचार शुद्ध रखना चाहिए पर कहने से क्या होता है? आचार विचार किस तरह शुद्ध रह सकते है उसका उपाय भी तो होना चाहिए । उसका उपाय स्याद्वाद और अहिंसा ही है ।
स्याद्वाद के आश्रय से वस्तुस्वरूप का सुज्ञान―स्याद्वाद से विचार पवित्र बनते है । स्याद्वाद कहते हैं अनंत धर्मात्मक वस्तु में अपेक्षा से धर्म को निहारना । यह स्याद्वाद है, जैसे जीवद्रव्य नित्य है व अनित्य है, एक है व अनेक है, सत् है व असत् है, अनेक धर्म इसमें पाए जाते है । अब वे धर्म किस अपेक्षा से हैं, उन अपेक्षावों को पहिचानकर उन अपेक्षावों से उनमें उन सब धर्मो का परिचय करना, बताना यह स्याद्वाद कहलाता है । संसार में जो विरोध, विवाद, झगड़ा, विसम्वाद फैला है यदि स्याद्वाद का आश्रय लिया होता तो विवाद, झगड़ा, विसम्वाद न फैलता । जैनदर्शन का सारे विश्व के लिए कितना उपकार हैकि उसके बिना इस जीवन में भी झगड़ा न मिटेगा और सदा के लिए भी जन्ममरण का झगड़ा न मिटेगा । ऐसी अपूर्व देन इस जैन शासन से प्राप्त हुई । इसकी कृपा बिना जीव कभी भी सुखी नहीं हो सकता । जिन्होंने इस जैन शासन का वरदान पाया है उनका अंत: करण कह उठता है कि इस जिनवाणी के उद्धार के लिए मेरा तन लगे, मन लगे, प्राण लगे फिर भी मैं उससे उऋण नहीं हो सकता ।
अकलंक निष्कलंक का जिनशासन की भक्ति में विपत्तियों से संघर्ष―अकलंक और निष्कलंक देव ने इस जिनवाणी के प्रसार के लिए अपना कितना बलिदान किया । जब वे बौद्ध शाला में पढ़ते थे तो एक दिन गुरु पढ़ा रहा था । जब स्याद्वाद का प्रकरण आया तो वहाँ कोई शब्द अशुद्ध था । उस अशुद्ध के कारण गुरु जरा भी आगे न बढ़ सकता था तो यह कहकर छोड़ दिया कि इस प्रकरण को कल बताएँगे, शास्त्र बंद कर दिया और चला गया । यहाँ अकलंक निष्कलंक ने अकेले ही एकांत पाकर उस शास्त्र को खोला, उस स्याद्वाद के प्रकरण को पढ़ा, उसमें जो अशुद्धि थी उसको दूर कर दिया । केवल एक अक्षर शुद्ध करने की आवश्यकता थी और ज्यों का त्यों शास्त्र बंद करके वे अपने स्थान पर चले गए । छात्रावास में रहते थे, दूसरे दिन गुरुजी ने जब वह प्रकरण खोला और उसमें देखा कि एक अक्षर लिखकर शुद्ध किया गया है तो वह तुरंत ताड़ गया कि इन बालकों में कोई जैन बालक रह रहा है । इतनी बुद्धि और किसमें जगेगी कि जो एक अक्षर की अशुद्धि को शुद्ध कर दे । उस समय बौद्ध शासन का जोर था, बौद्ध राजा था । अन्य धर्म वाले यदि सिर उठाते थे, अपना प्रचार करते थे तो उनको दंड दिया जाता था, जेल भेजा जाता था, मृत्यु दंड भी दिया जाता था । गुरु ने खबर राजा को भेजी, पता लगाने का आर्डर दिया तो गुरु ने उन जैन बालकों का पता लगाने के लिए एक उपाय तो यह किया कि एक दिगंबर जैन मूर्ति कहीं से लाकर रख दी और यह आदेश दिया सब बालकों को कि इस मूर्ति को सब लांघेंगे । अकलंक निष्कलंक बड़ी परेशानी में आ गए, फिर भी जिनवाणी के प्रति इतनी भक्ति थी कि एक रास्ता निकाल लिया । चाहे उसमें थोड़ा अविनय भी हो तो भी जिनवाणी के प्रचार प्रसार करने के लिए उन्होंने वह चोट भी सही । सब बालक उस प्रतिमा को लांघ गए । जब अकलंक निष्कलंक की बारी आयीतो उन्होंने क्या किया कि अपने कपड़े का एक धागा निकाला और उस मूर्ति पर डालकर और कल्पना यह करके कि मैं देव की अविनय नहीं कर रहा हूँ । उस प्रतिमा को परिग्रही बना दिया, अब यह निष्परिग्रह न रहा, कोई उपाय तो करना ही था, सो वे भी उसको लांघ गए । गुरु को जैन बालक का कुछ पता न चला । तब गुरु ने एक काम और किया कि रात्रि के चार बजे जब वे बालक सोकर उठते थे उससे भी आधा घंटा पहले दूसरी मंजिल पर पचासों थाली रख दिए और एकदम चार बजे सब थाली गिरा दिया । बड़ी तेज पीड़ा हुई, सब बालक चौक गए, सभी अपने इष्ट का स्मरण करने लगे, सुगुतायनम: बुद्धाय नम: आदि । और अकलंक निष्कलंक भी एकदम से उठकर णमोकार मंत्र पढ़ने लगे । अचानक जब कोई विपत्ति आती है तो जैसा दिल होता है वैसी ही उनकी आवाज निकलती है । बस उन्हें पकड़ लिया गया और तत्काल ही जेल में बंद करा दिया गया ।
जिनशासन के प्रसार की शुभकामना में अकलंक निष्कलंक का अपूर्व बलिदान―दोनों भाइयों को जेल में दिनभर हो गया, रात भी आधी हो गई । अकलंक निष्कलंक बड़ी चिंता में पड़ गए । उन्हें प्राण जाने का खेद न था किंतु खेद था जिनवाणी के प्रसार प्रचार का कार्य न कर सकने का । सो वे उस चिंता में थे कि वहाँ चक्रेश्वरी देवी प्रकट हुई और उसने बताया कि ऐ बालकों तुम चिंता न करो, अभी 10-15 मिनट के अंदर ही तुम इस सींखचे से निकल जावो । उस देवी ने माया से पहरेदार को सुला दिया, जेल का फाटक खुल गया और अकलंक निष्कलंक आधी रात को ही वहाँ से चल दिए । जब सवेरा हुआ और देखा कि वे दोनों लड़के जेल में नहीं हैं तो राजा को खबर दी । राजा ने चारों दिशावों मे नंगी तलवारें लिए घुड़सवार भेजे और कहा कि जहां वे दोनों लड़के मिले, उनका सिर काटकर लावो । वे घुड़सवार चारों ओर दौड़ गए । 8, 9 बजे सुबह अकलंक निष्कलंक आगे बढ़ते चले जा रहे थे । पीछे से देखा कि बड़ी आवाज आ रही है, घोड़े दौड़े आ रहे हैं, तो मालूम पड़ा कि ये लोग हम दोनों का सिर काटने आ रहे है, तो उस समय अकलंक ने निष्कलंक से कहा कि देखो यह तालाब है, इसमें कमल वन है, इस कमलवन में तुम छिप जावो । तो निष्कलंक कहता है कि हे बड़े भाई आप ही छिप जावो । उन दोनों में होड़ हो गई, एक कहे कि तुम छिप जावो, दूसरा कहे कि तुम छिप जावो । तब निष्कलंक ने अकलंक के पैर पकड़कर और जिनशासन के प्रचार की भीख मांगकर कहा कि हे भाई आपको एक बार सुनने में ही विद्या आ जाती है और मुझे दो बार सुनने में विद्या आती है । अब मुझे भीख दो, आप इस कमलवन में छिप जाइए । अब देखो निष्कलंक ने उस समय कितना बड़ा त्याग किया अपने प्राणों की भी परवाह न कर के अपने प्राणविसर्जन के लिए तैयार हो गया और उससे भी अधिक अकलंक का त्याग कि अपनी आँखों देखते-देखते जिनशासन की भक्ति में अपने छोटे भाई का प्राण विसर्जन भी तक रहा है । दोनों बड़े त्यागी पुरुष, आखिर वह निष्कलंक आगे चला तो एक जगह एक धोबी का लड़का एक तालाब में कपड़े धो रहा था, सो डर के मारे वह भी साथ लग गया । वहाँ एक घुड़सवार आया और तलवार से दीनों का सिर उड़ा दिया । उसने उन दोनों को ही अकलंक निष्कलंक जाना । और सिर काटकर राजा के दरबार में पेश किया । आखिर तालाब में छिप जान से अकलंक बच गए । फिर अकलंक ने अपनी विद्या विज्ञान के बल से जो जैन शासन का प्रसार किया उसे तो विद्वज्जन जानते है जिन्होंने जैन शासन, जिनागम व जैन साहित्य का परिचय पाया ।
जिनागम के अनुराग का लाभ―प्रत्येक मंदिर में यदि कई हजारों का भी साहित्य रखा जाए, कोई भले ही उन्हें न पढ़े फिर भी आस्था से, विनय से ज्ञान के प्रति सद्भाव हो तो उससे भी जीव बड़ा फल प्राप्त करता है । प्रतिमा के भी हम दर्शन करते हैं या और कुछ कर लेते हैं । यदि मंदिर में जिनागम के हम केवल दर्शन ही कर पाए तो यह देवदर्शन से कम बात नहीं है और फिर जो लोग विद्वान हैं वे यदि एक ही ग्रंथ पढ़कर अपना सम्यक्त्व लाभ ले पाते हैं तो यह कितना बड़ा उपकार है जैन शासन का । इस जैन साहित्य में जिनको रुचि नहीं जगती उनको ऐसा ज्ञान कैसे प्राप्त होगा? जिनको आज विशेष ज्ञान है उन्होंने पूर्व भव में ज्ञान का समर्थन किया था । ज्ञान के प्रति भक्ति बनाया था, उसका फल हैकि आज ज्ञान मिला है । तो सम्यग्दर्शन का जो प्रारंभ करना चाहता है उसका कर्त्तव्य हैकि जिनागम का अध्ययन करें, वस्तुस्वरूप का परिचय बनाएँ । तो सर्वप्रथम स्याद्वाद द्वारा वस्तु स्वरूप का निर्णय करना इन मनुष्यों के लिए अतीव आवश्यक है ।
स्याद्वाद का प्रयोग―स्यात् का अर्थ है अपेक्षा और वाद का अर्थ है कहना । अपेक्षा से वस्तुस्वरूप का वर्णन करना स्याद्वाद कहलाता है । और अनेकांत जिस वस्तु में अनेक अंत है, (सभी वस्तुवों में अनेक धर्म है) सो वस्तु को कहते है अनेकांत । अनेकांत नाम है पदार्थ का और स्याद्वाद नाम है प्रतिपादन की शैली का । तो जैसे जीव नित्य है, अनित्य है वह अपेक्षा देखनी होगी कि एक ही जीव में नित्य और अनित्य, ऐसे दो विरुद्ध धर्म जो कहे जा रहे सो वह किसी अपेक्षा से ही संभव है । द्रव्यदृष्टि से देखने पर जीव सदा रहता है । नित्य है, एक रूप है, वह बदलता नहीं है, किसी अन्य द्रव्यरूप नहीं होता । परिणमनों को द्रव्यार्थिकनय नहीं देख रहा है और उस द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से जीव नित्य और पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से जीव अनित्य है । क्योंकि जीव में प्रति समय नए-नए परिणमन चलते हैं । अर्थात् नवीन परिणमन का उत्पाद पूर्व परिणमन का व्यय यह व्यवहार होता रहता है । तो पर्यायार्थिक दृष्टि से जीव अनित्य है, आज इसी बात को लेकर दार्शनिकों में विरोध छाया है, और जहाँ ऐसे पुरुषों में विरोध छाया है तो छोटे पुरुषों में भी विरोध आ गया और जिस विरोध का इतना खोटा परिणाम था कि आज चाहे धर्म की श्रद्धा न होने से समझ लीजिए कि समन्वय की दुहाई दी जा रही है । नहीं है विशेष ज्ञान तो कहते है कि अजी चाहे जिस धर्म को मानकर चलो, आखिर पहुंचना सबको एक ही जगह है । तो भाई मोक्ष पहुंचने के अनेक मार्ग नहीं है । उसका मार्ग तो केवल एक ही होता है ।
मोक्षमार्ग की आत्मनिष्ठता―मोक्षमार्ग किसी संप्रदाय से संबंध नहीं रखता, उसका तो आत्मा से ही संबंध है, और जितने पुरुष हैं वे सब आत्मा हैं, इसलिए मोक्ष का मार्ग निष्पक्ष होता है और आत्मा के नाते से होता है । कहीं कुल के नाते से, संप्रदाय के नाते से मोक्षमार्ग नहीं होता । वह मोक्षमार्ग क्या है? तो संक्षेप में यह समझ लीजिए कि मोक्ष के मायने हैं छुटकारा, आत्मा का छुटकारा । किससे छुटकारा? जिससे बंधन है उससे छुटकारा । किससे बंधन है? शरीर, कर्म और विकार ये तीन बंधन जीव के साथ लगे है । उन तीनों बंधनों से छुटकारा होने का नाम है मोक्ष, और ऐसा मोक्ष पाने का जो उपाय है उसे कहते है मोक्षमार्ग । क्या चाहिए? छुटकारा । छुटकारा चाहने वाले को यह तो श्रद्धा होनी चाहिए कि मेरा छुटकारा हो सकता है, ऐसा निर्णय करने वाले को यहां ही स्वरूप में छूटा हुआ नजर आना चाहिए । सो इन सब में मिला हुआ यह आत्मा अपने स्वरूप से सर्व से निराला है, स्वतंत्र सत् है, अपने आप इसकी सत्ता है । इसके स्वरूप में दूसरा कुछ मिला नहीं है इसलिए छूटा हुआ ही है, ऐसा अनादि मुक्त स्वभाव दृष्टि का मुक्त यहाँ नजर आया, तो परिणमन दृष्टि से मुक्त भी हो जाएगा । पर जिसको यहां ही अपने स्वतंत्र अस्तित्त्व का विश्वास नहीं है उसके स्वतंत्रता कभी हो ही नहीं सकती । तो मोक्ष का मार्ग है कि अपने आपके सहज स्वरूप का विश्वास हुआ ।
स्याद्वाद का सन्मार्गदर्शकता व रक्षकता―अपने सहजस्वरूप का विश्वास कैसे प्राप्त हो, इसके लिए चाहिए वस्तुस्वरूप का ज्ञान और वह ज्ञान होगा स्याद्वाद से । यही चौकी जिस पर हम बैठे हैं, पूछे कि बताओ यह चौकी कैसी है? तो कोई कहेगा कि यह चौकी ढाई फिट लंबी चौड़ी है । लंबी चौड़ी न कहकर यह तो ढाई तीन फिट की है । कोई कहेगा कि यह तो बस एक फुट की है । अब दोनों में झगड़ा शुरु हो गया । एक कहता कि तू झूठ बोलता है, दूसरा कहता कि तू झूठ बोलता है । तो अब उन दोनों का झगड़ा निपटायगा स्याद्वाद । वह समझायेगा कि लंबाई चौड़ाई की दृष्टि से साढ़े तीन फिट की है । ऊंचाई की दृष्टि से 1 फुट है । बस दोनों का विवाद खतम । तो स्याद्वाद का सहारा लिए बिना व्यवहार में भी झगड़ा नहीं निपटता । झगड़े की जड़ है स्याद्वाद के विरुद्ध चलना । कितने ही घरों में देखा जाता कि लोग बड़ी क्रूरता से एक दूसरे के साथ कैसे पेश आते है और कहो वे बड़े प्रेम के कारण ही वचन निकले हों । जो ऐसे आशयों को नहीं समझ सकते उनमें विरोध हो जाता है । समस्त विरोध को मिटाने वाला है स्याद्वाद । विश्व का रक्षक है तो स्याद्वाद । और देखिए स्याद्वाद के सहारे सब लोग जीवित रह रहे है फिर भी स्याद्वाद का आभार नहीं मान सकते । किन्हीं को तो ज्ञान ही नहीं है और जिनको ज्ञान है उनको अपने कुल धर्म का पक्ष है इसलिए स्याद्वाद के बल पर ही तो हम जीवित हैं । और उस स्याद्वाद का नाम लेकर चर्चा आये तो वह विरुद्ध जंचती है । तो यह स्याद्वाद विश्व का रक्षक आत्मा का रक्षक वस्तुस्वरूप का सही परिचय क्याकर मोक्षमार्ग में लगाने वाला है । इस स्याद्वाद के उपकार से हम कभी उऋण नहीं हो सकते ।
द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक दृष्टि से वस्तुस्वरूप का निर्णय कर सम्यक्त्व लाभ पाकर सदाचार की ओर
अभिमुखता―दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक का लक्षण कहा जा रहा है कि जिन्होंने सम्यक्त्व पाया है वे ही इस प्रतिमा के धारी अधिकारी बन पाते हैं । सम्यक्त्व पाने के लिए वस्तुस्वरूप का सही ज्ञान होना आवश्यक है, अन्यथा समस्त परद्रव्यों से हटकर, परभावों से हटकर निज सहज स्वभाव में मग्न होने की बात कैसे बनेगी? तो सम्यक्त्व के लिए वस्तुस्वरूप का निर्णय चाहिए । वस्तुस्वरूप का निर्णय स्याद्वाद से होता है । अत: स्याद्वाद के आश्रय से वस्तु का परिचय करना सम्यक्त्व लाभ के लिए प्रथम आवश्यक है, स्याद्वाद का अर्थ है अपेक्षा से कहना । वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक होता है । वस्तु सदा रहेगा, वह सत् सदैव रहेगा, इसे कौन मेट सकता है? और वस्तु का प्रतिसमय परिणमन चलता ही रहेगा, इसे भी कौन मेट सकता है? दो बातें पदार्थ में अत्यंत आवश्यक है और है ही, तभी पदार्थ की सत्ता है । यदि परिणमन न रहे तो पदार्थ ही क्या और पदार्थ? की सत्ता क्या? यदि वह वस्तु ही शाश्वत न रहे तो फिर अवस्था किसकी? तो पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक है । इसी कारण पदार्थ का निर्णय द्रव्यार्थिकनय और पर्यापार्थिकनय से होता है । यहाँ गुणार्थिक नय नहीं कहा गया, उसका कारण यह है कि गुण तो द्रव्यस्वरूप को समझाने के लिए समीचीन पद्धति से स्वभावत: भेद किया गया है । परमार्थत: वस्तु एक अखंड स्वभावरूप है, पर वह समझे क्या? उसे समझाया कैसे जाए? सो प्रभु ने अरहंत देव ने, गणधर देवों ने आचार्यों ने करुणा करके अज्ञ जनों को समझाने के लिए गुणभेद किया है । गुण के समझने के लिए द्रव्यार्थिकनय ही काफी होता है, क्योंकि गुण प्रतिपादन के लिए भेद किया गया मात्र है । कहीं गुणों की सत्ता नहीं है गुण वस्तु की तारीफ है । वस्तु एक अखंड है और उसका प्रतिसमय परिणमन भी अखंड है । जैसे गुण समझाने के लिए बताए गए हैं ऐसे ही पर्यायें भी समझाने के लिए एक समय में गुणपर्यायों की विशेषता से अनेक हैं । जैसे कि यह पुद्गल पीला है, खट्टा है, कोमल है, अनेक पर्यायों का भेद जो किया है गुणों के सहारे से वह भी व्यवहार से है । वस्तुत: द्रव्य अखंड है और प्रति समय का परिणमन भी अखंड है । अखंड-अखंड परिणमन प्रति समय होता चला जाता है । तो दो बातें माननी अतीव आवश्यक हुई जैसे कि वस्तुत: है, द्रव्य और पर्याय ।
स्याद्वादमुद्रा―द्रव्यसंबंधित धर्म द्रव्यार्थिक दृष्टि से जाने जाते हैं पर्याय संबंधित धर्म पर्यायपार्थिक नय से जाने जाते है । जब जैसे जीव द्रव्यार्थिकनय से नित्य ही है ऐसे ही पर्यायार्थिकनय से अनित्य ही है । स्याद्वाद की मुद्रा ‘‘भी’’ से नहीं बनती, किंतु ‘‘स्यात् और एव’’ से बनती है इस अपेक्षा से ऐसा ही है यह है स्याद्वाद की मुद्रा । जैसा आज भी प्रसिद्ध किया जाता है―जीव नित्य भी है, अनित्य भी है, यह स्याद्वाद की शुद्ध मुद्रा नहीं है । पर जो लोग समझ जाते है, भी के कहने से भी उन्होंने द्रव्यार्थिकनय के स्यात् एव को व, पर्यायार्थिकनय के स्यात् एव को समझ रखा है, (अन्डरस्टुड कर रखा है) तब उन्हें भी काम दे रहे है । यदि अपेक्षा से ही की बात उनके निर्णय में न हो तो ‘भी’ एकदम गलत है, क्योंकि वस्तु का स्वरूप अपेक्षा देकर अवधारण पूर्वक समझा जाता है । अगर अपेक्षा लगाकर ‘भी’ कहा जाए तो उससे तो बड़ा अनर्थ बनेगा । जैसे कहा जाए कि जीव द्रव्यार्थिकनय से नित्य भी है तो इसका अर्थ क्या होगा कि द्रव्यार्थिकनय से अनित्य भी होगा । यह कितना विरुद्ध हो गया । यदि कहा जाय कि पर्यायार्थिकनय से अनित्य भी है तो इसका अर्थ क्या बना कि पर्यायार्थिकनय से नित्य भी होगा । तो ‘भी’ की मुद्रा स्याद्वाद में न लेना और न शास्त्र में किसी जगह ‘भी’ का प्रयोग मिलता है स्याद्वाद में, पर प्रसिद्धि हो गई है और लोग ‘ही’ को तो भूल गए और ‘भी’ को प्रधान करके बताते हैं कि यह है स्याद्वाद ।
स्याद्वाद में संशयवाद की नितांत असंभवता―लोक कभी-कभी ऐसा संदेह करने लगते हैं कि स्याद्वाद तो संशयवाद है जहां भी का प्रयोग होता है वहाँ संशय को गुंजाइश हुआ करती है । तो भी के प्रयोग ने संशयवाद के संशय को बढ़ा दिया है । द्रव्य व पर्याय दोनों रूप से भली भांति समझना चाहिए, मौलिक ढंग से समझ करके फिर चाहे कोई ‘भी’ का प्रयोग करे तो भी वह अपना अनर्थ नहीं कर रहा, क्योंकि भीतर में इतना समझ रखा है कि इस भी के बीच में द्रव्यार्थिकनय का स्यात् एवं पड़ा है और पर्यायार्थिकनय का स्यात् एव पड़ा है, और इसी आधार पर ‘भी’ की प्रसिद्धि कुछ समय से चली आयी । पर स्याद्वाद की सही मुद्रा है ‘स्यात् एव’ इन दो शब्दों के बीच में नित्य का प्रयोग करना चाहिए या जो सिद्ध करना है । जैसे जीव: स्यात् नित्य एव, जीव किसी अपेक्षा से नित्य ही है, जीव: स्यात् अनित्य एव, जीव किसी अपेक्षा से अनित्य ही है, सो बिल्कुल स्पष्ट है । द्रव्य दृष्टि से नित्य ही है, पर्यायदृष्टि से अनित्य ही है । यदि [भी की मुद्रा यहाँ व्यवहार में भी लगाने लगे कोई तो बड़ी मजाक चल उठेगी । जैसे मानो घर में कोई तीन लोग हैं―(1) सुरेश, (2) नरेश और (3) महेश । सुरेश तो है बाबा, नरेश है लड़का और महेश है पोता । अब वहाँ कोई यदि इस तरह बोलने लगे कि यह महेश नरेश का पुत्र भी है तो क्या अर्थ निकला कि नरेश का बाप भी होगा । देखिए इतने में कितना अनर्थ हो गया । यह नरेश महेश का पिता भी है तो अर्थ निकलेगा कि नरेश महेश का पुत्र भी होगा बाबा भी होगा । एक मोटे रूप में ले लो बाबा पुत्र और पोता । पुत्र की पहिचान कराना है तो कोई कहे कि यह पोते का बाप भी है तो इसके मायने पोते का पुत्र भी होगा । यह इस तरह अपने बाप का लड़का भी है, तो इसके मायने हैकि वह अपने बाप का बाबा भी होगा । तो लोक व्यवहार में यदि स्याद्वाद के रूप में भी का प्रयोग किया जाए तो वहां तो मजाक चल उठेगा । स्याद्वाद में ‘भी’ का स्थान नहीं है किंतु ही का स्थान है और वह है अपेक्षा लगाकर ।
अपेक्षा और अवधारण की पूर्वापरता से स्याद्वाद की सम्हाल―स्याद्वाद एक बड़ी घाटी है, इस पर चढ़ना और उतरना यह खतरे से खाली नहीं है । जैसे किसी बड़ी तेज पहाड़ी पर, रेल जाती हो तो रेल जाने में और आने में आगे पीछे दो इंजन चाहिए तब बिना धोखे के पहुंच पाएगी गाड़ी । जब नीचे उतरती है तब तो दो इंजन बहुत ही आवश्यक हैं । नीचे का इंजन खींच रहा है तो ऊपर का इंजन अपनी ओर खींच रहा है ताकि इसका एकांत वेग न बन जाय, नहीं तो गड्ढे में गिरेगी । ऐसे ही वस्तु के किसी धर्म का निर्णय करने के लिए उसके पीछे स्यात् का इंजन लगता है और आगे एव का इंजन लगता है, बीच में वह धर्म का डिब्बा रखा जाता है―स्यात् नित्य एव । द्रव्यार्थिक दृष्टि से जीव नित्य ही है, पर्यायार्थिक दृष्टि से जीव अनित्य ही है, इसी प्रकार जीवों में जो भी सिद्धांत नाना दार्शनिक कहते हैं वे सब स्याद्वाद से प्रथम आधार में सिद्ध हो जाते हैं । पर एकांत होने के कारण उसका रूप बिगाड़ लेने से वह निर्णय की कोटि में नहीं रह पाता । जैसे कोई कहता हैकि जीव एक है, कोई दार्शनिक कहता है कि जीव अनेक हैं, एक ही जीव के बारे में बात कर रहे हैं अथवा कोई अनेक जीवों को एक कह रहा हो तो अब निर्णय देखिए स्याद्वाद से । जब अनेक जीवों को स्वरूप दृष्टि से देखा तो क्या उनका भिन्न-भिन्न सत्त्व दृष्टि में रहेगा? यद्यपि सत्त्व भिन्न-भिन्न है, किंतु जब केवल स्वरूपमात्र को ही निरख रहे हैं तो वहाँ भिन्न-भिन्न सत्त्व नजर नहीं आते । और यह भी नजर नहीं आता कि सबका मिलकर एक सत्त्व है, किंतु चैतन्यस्वभाव दृष्टि में आता है और इस स्वरूपदृष्टि से जब जीव का एकत्व ज्ञात हुआ सो ज्ञात तो हुआ, कहने में न आया । कहा गया बाद में कि वहां तो कोई विलक्षणता ज्ञात न हुई । तो स्वरूपदृष्टि से देखते हैं तो स्वरूप एक समान होने से एक है । एक का अर्थ समान भी होता है । संस्कृत कोष में एक-एक को भी कहते हैं और एक समान को भी कहते है । जैसे कहते हैं कि ये सब तो एक ही हैं तो क्या गिनती में एक है? सबका भाव एकसा है समान है । तो सब जीवों में एकपना जो दार्शनिक मानते हैं वे स्वरूपदृष्टि से चले और चलकर फिर उन्होंने अपना रूप बिगाड़ा, यों भी एक दर्शन बन गया । कोई दार्शनिक एक जीव में ही अनेक जीव मानते है । वे एक जीव नहीं है तो उसका आधार स्याद्वाद में क्या है? पर्यायार्थिकनय । जब एक जीव को पर्यायदृष्टि से निरखते हैं तो प्रति समय का पर्याय भिन्न-भिन्न है । तो पर्यायरूप से देखा हुआ वह तत्त्व सब भिन्न-भिन्न लक्षण वाला है । इस आधार से कोई चला और चलकर हठकर गया, और रूप बिगाड़ लिया तो वह ऐकांतिक बन गया, पर स्याद्वाद एक ऐसा मित्र है कि विश्व के समस्त दार्शनिकों को एक मंच पर आराम से बैठा देते हैं ।
पदार्थ में मौलिक दो निर्णयों की अपेक्षा का दिग्दर्शन एवं एक साथ कहना अशक्य होने से अवक्तव्यता―स्याद्वाद में मूल में दो निर्णय बताए गए, एक द्रव्यार्थिक दृष्टि का निर्णय और एक पर्यायार्थिक दृष्टि का निर्णय । पर कोई यह प्रश्न पूछे कि हमको तो तुम एक ही बार में, एक ही शब्द में बतला दो कि जीव कैसा है? आप पहले कहते हो कि द्रव्यार्थिक दृष्टि से नित्य है फिर कहते पर्यायार्थिक दृष्टि से अनित्य है, तो ऐसी दो बातें हम नहीं सुनना चाहते । आप हमको एक ही शब्द में, एक ही समय में वस्तु कैसा है यह बतलाइये । तो क्या यह बताया जा सकता है? दुनिया में कोई शब्द है क्या ऐसा कि जो वस्तु के स्वरूप को एक शब्द में बता दे? शब्द ही पक्षपात करते हैं पहले तो । अथवा शब्द वस्तु के स्वरूप में भेद बताते है । आप किस शब्द से पदार्थ को कहेंगे? आपने कह दिया जीव । तो जीव शब्द से वह पदार्थ जिसको हम चाहते क्या पूरा जान लिया गया? जीव के मायने तो यह है कि जो प्राणों से जीव सो जीव, पर जीव में क्या अन्य कोई विशेषताएँ नहीं है? सम्यक्त्व छोड़ दिया, सारी बातें छोड़ दीं उस जीव शब्द ने । तो जीव शब्द भी जीव को अच्छी तरह नहीं कह सकता । कोई कहे आत्मा, तो आत्मा का अर्थ है कि ‘अतति सतत गच्छति जानाति इति आत्मा’, जो निरंतर जानता रहे सो आत्मा । तो इस आत्मा शब्द ने क्या उस जीव पदार्थ को पूरा बता दिया, उसने तो जानने-जानने की ही बात कही, पर उसमें रमने की शक्ति है आस्था की आदत है । आनंद भी उसका धर्म है, यह तो आत्मा शब्द ने नहीं कहा । कोई शब्द नहीं है ऐसा कि जो वस्तु को पूर्णतया कह सके । तो द्रव्यार्थिक दृष्टि से नित्य और पर्यायार्थिक दृष्टि से अनित्य जिसके संबंध में कह रहे उस जीव को एक शब्द से बताया नहीं जा सकता इस कारण वह अवक्तव्य है । कोई कहे कि लो तुमने अवक्तव्य शब्द से तो बता दिया, अभी कह रहे थे कि कोई शब्द ऐसा नहीं है जो पदार्थ को ठीक बता सके । अरे भाई अवक्तव्य शब्द भी सही नहीं है जीव को बताने के लिए । कैसे? अवक्तव्य का अर्थ है जो कहा न जा सके, पर तुम तो अवक्तव्य-अवक्तव्य कह तो रहे हो । कैसे कहा जा सकता है कि अवक्तव्य शब्द इस जीव को पूरा बता सकता है?
स्याद्वाद में सप्तभंगी―इन तीन धर्मों द्वारा जीव को समझा, जीव नित्य है जीव अनित्य है, जीव अवक्तव्य है, जब ये तीन धर्म समझे गए तो इनका कोई संयोग कर के समझे तो चार पद्धतियां और बन जाएगी । इनमें सयोग दो का हो सकता है, तीन का हो सकता है, तब यह समझा गया कि जीव नित्य है, अनित्य है, अवक्तव्य है और नित्य अवक्तव्य है, अनित्य अवक्तव्य है, नित्यानित्य है और नित्यानित्य अवक्तव्य है । इसी को कहते हैं सप्तभंगी । जहाँ तीन बातें स्वतंत्र हों वहाँ उसके ढंग 7 बनते हैं । जैसे मानो खाने की तीन चीजें रख लो नमक, मिर्च, ककड़ी । इनमें आप केवल नमक का स्वाद ले सकते, केवल मिर्च का स्वाद ले सकते, केवल ककड़ी का स्वाद ले सकते, नमक ककड़ी का स्वाद ले सकते, मिर्च ककड़ी का स्वाद ले सकते, नमक मिर्च का स्वाद ले सकते और नमक मिर्च ककड़ी का स्वाद ले सकते । तो ऐसे ही जब इस जीव के तीन धर्म स्वतंत्र विदित हुए तो उनके 7 रूप बन गए जानने के लिए ।
प्रयोगात्मक पद्धति से आत्मा की चार परखें―उन सप्तभंगों में भी मुख्य प्रयोजन तीन से बन जाता है । द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य है, पर्यायदृष्टि से जीव अनित्य है । जब कुछ अनुभव करने बैठेंगे तो वह जीव न नित्य है, न अनित्य है अर्थात् अनुभव है । ऐसी तीन बातें अधिक हम आपके प्रयोग में आती हैं और साथ ही एक बात और समझना कि नित्य और अनित्य दोनों को समदृष्टि से परखा जायतो एक प्रमाण बन जाता है तो हम चार प्रकार से अपनी परख कर पाते है, जैसे आदमी के दो आंखें है । उनमें से दाहिनी आँख बंद करके बाईं आँख से ही देखें तो यह भी एक देखने की पद्धति है, बाईं आँख बंद करके दाहिनी आँख से देखे तो यह भी देखने की पद्धति है, कोई दोनों आंखें खोलकर देखे तो वह भी पद्धति है और कोई दोनों आँखों को बंद करके देखे तो वह भी देखने की पद्धति है, उसमें चाहे स्वरूप देखे या सामान्य प्रतिभास देखे । तो जैसे देखने की चार विधियां हैं ऐसे ही समझने की भी चार विधियां हैं । द्रव्यार्थिकनय से जानिए, पर्यायार्थिकनय से जानिये, इन दोनों से जानिये और इन दोनों को छोड़कर केवल अपने अनुभव से जानिये । तो स्याद्वाद से वस्तु को समझकर यही प्रक्रिया बनती है कि वस्तु तो असल में द्रव्य पर्यायात्मक है । यह तो प्रमाण से समझा, पर उसके अंतर्गत यह भी जानें कि द्रव्यात्मक तो द्रव्यार्थिकनय से है और पर्यायात्मक पर्यायार्थिकनय से है । तो अब क्या करना जानकर । भाई समझ गए और हर तरह से सर्व पदार्थों को जान लिया और साथ ही यह भी जान गए कि एक का दूसरे में कुछ भी नहीं हो सकता है, क्योंकि सब द्रव्य अपने-अपने द्रव्य पर्याय रूप हैं । तब सर्वपर का विकल्प छोड़कर और अपने आप में द्रव्यरूप हूँ, पर्यायरूप हूँ, द्रव्यपर्यायात्मक हूँ । ऐसे भी विकल्प को छोड़कर जो निर्णय किया है उस निर्णय में जो स्व जीव पदार्थ आया है बस विकल्प तजकर उसही को निरखता रहे, ऐसे अपने सहज स्वरूप को अनुभवने से सम्यग्दर्शन होता, अथवा यही तो सम्यग्दर्शन है । ऐसे स्वभाव का आश्रय करने से जो बात बननी है वह सहज बनेगी, सम्यक्त्वघातक 7 प्रकृतियां दुर्बल बनेगी, क्षीण होगी, नाश को प्राप्त होगी, सम्यक्त्व मिलेगा मगर करने का काम एक ही है, निजसहज स्वभाव को आत्मारूप से अनुभवना । तो यह सम्यग्दर्शन जहाँ प्राप्त हो गया है और उस आचरण में बढ़ने का प्रारंभ किया है वही दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है ।
दार्शनिक श्रावक के देवत्व का यथार्थ श्रद्धान―श्रावक के 11 दर्जों में पहला दर्जा है दार्शनिक श्रावक। इस प्रतिमा में सम्यग्दर्शन की मुख्यता है, चूँकि सम्यग्दर्शन के बिना कोई व्रत नहीं कहलाता । सम्यग्दृष्टि ही मोक्षमार्ग में गमन करता है, इस कारण प्रथम प्रतिमाधारी वही होता हैं जो सम्यग्दर्शन से संपन्न हो । इस सम्यग्दर्शन के लाभ के लिए क्या करना चाहिए? तो अभी बतलाया गया था कि वस्तुस्वरूप का सही ज्ञान करना चाहिए और केवल इतना ही नहीं किंतु देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान चाहिए । व्यावहारिक रूप से श्रद्धा तो होनी ही चाहिए तब सम्यग्दर्शन होगा, सो इससे संबंधित देव, शास्त्र, गुरु का थोड़ा वर्णन जानना आवश्यक है । देव वह कहलाता है जिसके आत्मा में गुण तो पूरे प्रकट हो गए हों और दोष रंचमात्र भी न रहा ही । भला बतलावो यदि यह कहा जाय कि आत्मा के गुण पूरे नहीं प्रकट हैं उसे देव कहते हैं, तो कोई मान लेगा क्या? यों तो हम आप सभी संसारी जीव हैं । आत्मा के गुण सबमें हैं और प्रकट हैं । पर पूर्ण प्रकट होना और अधूरे प्रकट होना इसमें बड़ा अंतर है । दूसरी बात सोचिए यदि कहा जाए कि आत्मा में दोष रंच न रहें इसकी क्या आवश्यकता? जिसमें बहुत से दोष न रहें वह हमारा देव है । तो इसे भी कोई नहीं मान सकता । जैसे किसी भी दूसरे लोगों से जो रागी द्वेषी देव मानते है यदि इस तरह पूछा जाए कि जिसमें गुण पूरे न हों वह देव होगा क्या? तो वह कहेगा नहीं । जिसमें दोष पूरे न हटें वह देव होगा क्या? तो उत्तर होगा?... नहीं । भले ही कुल धर्म के हठ के कारण रागद्वेष करने वाले के रूप में ही देव को माने और भक्ति करें पर लक्षणत: भक्ति की जाय तो सबको सही बात कहनी पड़ेगी । तो देव वह है जिसके गुण समस्त प्रकट हो, पूर्ण प्रकट हों और दोष रंचमात्र भी न हों, तो समस्त गुण प्रकट हो गए, उसका प्रतिनिधि विशेषण है सर्वज्ञ । जो सर्व को जानने वाला है वही आनंद वाला है, अनंत दर्शन वाला है, पूर्ण विकास है, तो पूर्ण विकास की बताने वाला प्रतिनिधि रूप विशेषण है सर्वज्ञ और दोष रंचमात्र भी नहीं है, इसको बताने वाला शब्द है वीतराग।
वीतरागता में समस्त रागद्वेष से रहितता का द्योतन―जहां राग न रहा वहाँ कोई दोष नहीं रहता, क्योंकि राग के अतिरिक्त जितने भी दोष हैं वे सब दोष राग मिटने से पहले खत्म हो जाते हैं । सभी दोषों के खतम होने के बाद राग का दोष खत्म होता है । तो जहाँ वीतराग कहा वहाँ पूर्ण निर्दोष अर्थ अपने आप है । दोष कहलाता है मोहनीय कर्म के प्रभाव का । सो सम्यक्त्वघातक कषाय और आशय 7वें गुणस्थान तक में समाप्त हो जाता है, फिर 9वें गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण कषाय संज्वलन क्रोध संज्वलन मान और संज्वलन माया समाप्त हो जाती हैं । और इतना सारा दोष खत्म हो गया सिर्फ संज्वलन लोभ रह गया । वह दशम गुणस्थान के अंत में समाप्त हो जाता है । तो जहाँ वीतराग कहा वहाँ पूर्ण निर्दोष अर्थ लेना चाहिए । तो जो वीतराग और सर्वज्ञ है वह देव है ।
मोक्षमार्ग में देवत्व के परिचय की अनिवार्य आवश्यकता―देव का परिचय करना क्यों जरूरी है आत्मकल्याण चाहने वालों को? वह इसलिए जरूरी हैकि आत्मकल्याण चाहने वाला पुरुष बनेगा क्या? अपने बारे में मैं क्या बनूँगा, कौनसा पद उत्तम है, जिसमें कि मैं निर्दोष और शांत आनंदमय रहूं? वह है अरहंत देव पद पश्चात् सिद्ध देव पद । तो जो मैं बनना चाहता हूँ, जो मैं बनूँगा उसकी ही जब जानकारी नहीं है तो इसकी प्रगति होना मुश्किल है । अपने बारे में कौन नहीं जानता । पूरा न जाने युक्ति से न जाने फिर भी अंदाज करते। काहे के लिए व्यापार करते? उसे पता तो है के मैं धनिक बनूंगा । काहे के लिए धर्म करते? मंदिर में आने की रोज-रोज तकलीफ क्यों उठाते? तो संसार में जो उत्तम पद है उस पद के पाने के लिए उस प्रद का ध्यान करते जाते हैं यह उसका उत्तर है । जो लोग धन, पुत्र, मुकदमा आदिक के अभिप्राय से देव की पूजा दर्शन करने जाते हैं उनके तो पाप का उदय है । उन्हें कौन समझाए? कैसे समझ में आए ? जब मोह पाप चल ही रहे हैं तो समझ में नहीं आ सकता । निर्वाच्छक होकर जो देव की भक्ति करेगा उसको ये बातें भी स्वयं प्राप्त होती हैं और जो असली चीज है कर्म क्षय, धर्मविकास सो वह होगा ही । जैसे किसान ऐसा कोई भी मूर्ख न मिलेगा कि जो भुस ही पैदा करने के लिए खेती करता है । किसी के आशय में यह बात नहीं रहती कि मुझे भुस पैदा करना है और वह मैं बेचूंगा, खेती करते हुए ऐसा किसी का अभिप्राय नहीं रहता । अभिप्राय यह रहता हैकि मैं अन्न पैदा करूंगा । तो अन्न उत्पन्न करने के भाव से खेती करने वाले किसान को भुस तो अपने आप प्राप्त होता है । ऐसे ही वांछारहित आत्मस्वरूप की श्रद्धा सहित जो देवों की उपासना करता है उसको जब तक संसार शेष है तब तक सारी समृद्धियां अपने आप होंगी और धर्ममार्ग मिलेगा । सो अंत में मोक्षपद प्राप्त होगा यह तो एक सर्वोत्कृष्ट पद है । तो देव की श्रद्धा सही होना बहुत आवश्यक है ।
धर्मसाधना में तत्त्वज्ञान की मूल आवश्यकता―भैया, श्रद्धा तो है अनेक मनुष्यों को कि मैं धर्म करूं और धर्म के लिए वे बहुत-बहुत परिश्रम भी करते हैं, पर चाहे उन परिश्रमों को आधा कर दें, किंतु तत्त्वज्ञान के अभ्यास में अपना उपयोग अवश्य लगाएँ, तो यह उनके लिए लाभकारी उपाय है । एक बात बिल्कुल निश्चित समझना कि जो मनुष्य अपना ज्ञान पाने के लिए उमंग रखता है, दूसरों को ज्ञान देने के लिए उमंग रखता है । ज्ञान के साधनों को बढ़ाने की जिनकी उमंग रहती है वे जीव क्रमश: इस ज्ञान विकास को पाकर केवल ज्ञान पायेंगे । मनुष्यभव में महत्त्व दीजिए एक ज्ञान को । बाकी औरभी काम करने पड़ते है धर्म के नाम पर, पर वे सब आनुषंगिक हैं, और सब प्रकार के त्याग दान करते जायें और एक ज्ञान का लगाव न हो, ज्ञान के लिए हर्ष और उमंग न हो तो वह मार्ग नहीं मिल सकता जिससे संसार के संकटों से सदा के लिए छूट सकते हैं, बाकी का फल इतना अवश्य होगा कि थोड़ा शरीर अच्छा मिलेगा, धन मिल जाएगा, इज्जत मिलेगी मगर रहेंगे संसार के ही संसार में । ज्ञान की प्रीति बिना संसार के संकटों से छूटना असंभव है । तो अब जीव का ज्ञान क्यों आवश्यक है? सो जो पद मुझे पाना है, धर्म के फल में जो बात मेरे में बनेगी उसका ज्ञान होने से उस काल में भी मदद मिलती है और मार्ग भी स्पष्ट होता है ।
ज्ञानस्वभाव का स्वरसत: विकास―देव वह है जो तीन काल की गुण पर्यायों से सहित समस्त लोकालोक को प्रत्यक्ष जानता है । केवल सर्वज्ञ ही कह दीजिए देव क्योंकि वीतराग हुए बिना सर्वज्ञ नहीं हो सकता । तो जहाँ आगे की बात कह दी तो पहले की बात तो आ ही गई । यह आत्मा ज्ञानस्वभाव वाला है, इस पर उपाधि का आवरण है, विधिपूर्वक आवरण दूर होगा, तो ज्ञान में विकसित होना ही पड़ेगा । दूसरा कोई चारा ही नहीं, स्वभाव ही है ज्ञान का जैसे दरवाजे के किवाड़ में स्प्रिंग लगे हैं तो वे मानों बंद रहते हैं, कमरा सुरक्षित रहता है उसके किवाड़ों को यदि खोला जायतो जब तक आप हाथ से पकड़े खेंचे हुए है तब तक तो किवाड़ खुले रहेंगे, पर वह आवरण हट जाए, हाथ की उपाधि हट जाय तो उन किवाड़ों को तो लगना ही पड़ेगा, वह कमरा सुरक्षित रहेगा ही । स्वभाव है आत्मा का जानना । इन इंद्रियों से जानना यह स्वभाव नहीं है । सामने की चीज जानना यह ज्ञान का स्वभाव नहीं है । केवलं पौद्गलिक चीज ही जानना यह ज्ञान का स्वभाव नहीं है । ज्ञान का स्वभाव है आत्मीय शक्ति से जानना, ज्ञान का स्वभाव है मन से परे जानना, तीन काल की जानना और सबको जानना । स्वभावानुरूप विकास के विरुद्ध जो वह अधूरा ज्ञान चल रहा है वह उपाधि के कारण अधूरा है । स्वभाव तो आत्मा का सर्व सबको जानने का है, सो जानता है सर्वज्ञ, यदि सर्वज्ञ न होता तो आज अतींद्रिय पदार्थ का ज्ञान हम आपको कहा से मिलता? आज आत्मा की चर्चा कर रहे हैं, द्रव्य की शक्तियों का परिचय बना रहे हैं, यह सब सर्वज्ञता के बिना नहीं बन पाता । कौन उपदेश करता? किस तरह जानना? इंद्रिय ज्ञान में यह सामर्थ्य नहीं हैकि वह अतींद्रिय पदार्थों को जान ले । तो सम्यक्त्व लाभ के लिए देव, धर्म और गुरु इन तीन का परिचय करना आवश्यक है ।
दार्शनिक श्रावक के धर्म के प्रति श्रद्धान―वीतराग सर्वज्ञदेव द्वारा बताया गया जो धर्म है वह कल्याणकारी है । धर्म पालनहार पुरुषों के भेद से दो प्रकार हैं । एकं परिग्रहसहित ज्ञानियों का धर्म और एक परिग्रहरहित ज्ञानियों का धर्म । परिग्रहसहित ज्ञानी श्रावक कहलाता है, परिग्रहरहित ज्ञानी मुनि कहलाता है । सो श्रावक का जो धर्म है वह इन 11 प्रतिमावों के रूप में कहा जा रहा है । और 11 प्रतिमा से पहले है सम्यक्त्व । तो श्रावक धर्म 11 प्रकारों में पड़ा है । सम्यग्दर्शन और 11 प्रतिमा, सम्यग्दर्शन सहित प्रथम प्रतिमा हो तो वह पंचम गुणस्थान में कहा गया है । जो ज्ञानी पुरुष उत्तम, क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन 10 धर्मों का धारी होता है, परिग्रहरहित है, सहज आत्मस्वभाव की ही जिसकी धुन है वह कहलाता है गुरु । ऐसे देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान होना व्यवहारत: श्रद्धान हुआ । चाहे गुरू आत्मस्वभाव के अनुभव के बिना हो किंतु हो यथार्थ ज्ञान का धारी तो वह गुरू आत्मस्वभाव के अनुभव कराने का कारण बनकर सही श्रद्धान हो जाता है । तो सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के प्रयत्नशील पुरुष देव गुरु धर्म में प्रीति रखते हैं वे सम्यक्त्व को पायेंगे ।
भव्य संज्ञी विशुद्ध परिणामी जागृत जीव के सम्यक्त्वलाभ की पात्रता―सम्यक्त्व को पाने वाला जीव किस परिस्थिति का होता है यह भी जानना ताकि अपने बारे में यह निर्णय बन जाए कि क्या हम सम्यक्त्व पाने की सामर्थ्य के अधिकारी है? कौन जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता है? सर्वप्रथम जिसको सम्यक्त्व प्राप्त होगा वह चारों गतियों में से किसी भी गति में सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है, होना चाहिए भव्य जीव । नारकी जीव भी सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है, तिर्यंच भी सम्यक्त्व प्राप्त करता है, मनुष्य और देव भी सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं । एक बात और जानना कि सम्यक्त्व पाने के लिए अध: करण, अपूर्व करण, अनिवृत्तिकरण परिणाम होता है और यह परिणाम वह जीव प्राप्त करता है जिसके क्षयोपशमलब्धि हो, देशनालब्धि हो, विशुद्धिलब्धि हो और प्रायोग्यलब्धि प्राप्त की हो । तो उपदेश मिला है जिसको, सम्यक्त्व वही पाता है मगर किसी को पूर्वभव में उपदेश मिला काम देता किसी को उसही भव में मिला उपदेश काम देता । अब आप जानें कि उपदेश सुनना कितना लाभकारी है । देशनालब्धि पाए बिना सम्यग्दर्शन किसी को नहीं होता चाहे पूर्वभव में देशनालब्धि मिली हो चाहे इस भव में । यथार्थ ज्ञान वाली बात सुनना समझना यह इस जीव के लिए बहुत लाभकारक बात है । यह संस्कार कभी काम देगा । तो सम्यक्त्व पाने के अधिकारी चारों गतियों के जीव है, भव्य हैं और वे संज्ञी हैं, असंज्ञी जीवों में उपदेश धारण करने का सामर्थ्य नहीं होती । वह पुरुष विशुद्ध है जिसको शुभ लेश्यायें हो, विशुद्ध परिणाम बढ़ रहा ही वह जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता है । टीकाकार ने बताया हैकि निद्रायें 5 होती है । दो निद्रा तो हल्की होती, निद्रा और प्रचला और तीन निद्रायें गहरी होती है, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि । ऐसी तीन महानिद्रावों में रहने वाला जीव सम्यक्त्व नहीं प्राप्त कर सकता । संस्कृत टीकाकार के इस स्पष्टीकरण से एक समस्या और सुलझ गई है । यहाँ बताया गया है कि मुनि की निद्रा अंतर्मुहूर्त होती है छठे गुणस्थान में, 7वें में निद्रा ही नहीं है । तो लोगे जब देखते हैं कि ऐसा कौन मुनि है जो दो चार सेकेंड नींद लेवे और फिर जग जाय? पर जिस निद्रा को बताया गया है वह तीव्र निद्रा है जो सम्यक्त्व में बाधक है, वह उच्च संयम में बाधक है ऐसा यह जीव जागृत दशा में सम्यक्त्व को प्राप्त करता है ।
भव्य, संज्ञी सुविशुद्ध जागृत जीवों में भी पर्याप्त निकटसंसारी के सम्यक्त्वलाभ की पात्रता―श्रावक की 11 प्रतिमावों में मूल आधारभूत प्रतिमा दर्शन प्रतिमा है, दर्शन प्रतिमा में जीव निरतिचार सम्यग्दर्शन और निरतिचार मूल गुण का धारी होता है, जिसमें यह सम्यग्दर्शन का प्रकरण चुल रहा है । सम्यक्त्व से उत्पन्न होने वाला जीव चारों गति का हो सकता है । भव्य हो, संज्ञी हो, परिणाम विशुद्धि बढ़ रही हो और महानिद्रावों में न हो और वह जीव पर्याप्त होना चाहिए । कोई जीव अपना भव छोड़कर दूसरा भव प्राप्त करता है तो चूँकि पहले शरीर छूट चुका सो अब रास्ते में विग्रहगति में यह जीव अपर्याप्त है ही, पर जिस जगह नया देह धारण करेगा उस जगह पहुंचने पर भी चूँकि नये आहार वर्गणावों को शरीर रूप बनाने में है । तो जब तक वह नयी आहार वर्गणा का पिंड को शरीर रूप बनने की शक्ति नहीं पाता तब तक वह अपर्याप्त कहलाता है । अपर्याप्त अवस्था में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं होती । पर्याप्त हुए बाद देव और नारकियों को तो अंतर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्व हो सकता है । तिर्यंचों को किसी को तीन दिन में किसी को और अधिक दिन में सम्यग्दर्शन हो सकता है, किंतु मनुष्यों को 8 वर्ष में सम्यक्त्व हो सकता है, नया सम्यक्त्व होना हो उसकी बात कही जा रही है । पंचेंद्रिय संज्ञी तिर्यंचों में जिनकी आयु बहुत छोटी होती है और वे तीन दिन में ही शरीर से यथासंभव पुष्ट हो जाते हैं इस कारण उन्हें जल्दी सम्यक्त्व हो सकता है । पर मनुष्यों के सम्यक्त्व 8 वर्ष की आयु होने पर उत्पन्न हो पाता है । तो ये 8 वर्ष गर्भ से निकलने के बाद नहीं किंतु जब से वह गर्भ में आया, तब से ही आयु वाला माना जाता है । जन्म उस समय हुआ जब जीव गर्भ में आया मनुष्य को तब ही से कहलाया । तो पर्याप्त होना चाहिए तब वहाँ सम्यक्त्व धारण करने की पात्रता होती है । यह जीव संसार के निकट है । जिसके सम्यक्त्व होता है वह कुछ ही समय बाद निर्वाण को प्राप्त करता है तो यही संसार की निकटता कहलाती है । तो जिस जीव का संसार निकट है वह जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता है ।
सम्यक्त्व होते ही अधिक से अधिक संख्या अर्द्धपुद्गल परिवर्तनकाल ही शेष―सिद्धांत में बताया गया है कि जब संसार अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन रह जाता है तब सम्यक्त्व होता है । पुद्गल परिवर्तनकाल भी बहुत बड़ा होता है, उसमें भी अनगिनते वर्षों का (सागरों का) काल रहता है । किंतु एक सीमा बन गई, अब यह जीव मोक्ष जाएगा ।
मोक्ष पाने के निश्चय का आदर―एक कथानक है कि एक श्रावक भगवान के समवशरण में वंदना के लिए जा रहा था, रास्ते में एक मुनि महाराज मिले तो मुनि की वंदना की । तब मुनि महाराज बोले कि तुम समवशरण में जा रहे हो तो वहाँ गणधर देव से इतना पूछ आना हमारे विषय में कि कितने भवशेष रह गए । तो वह श्रावक वंदना के लिए गया और गणधर देव से पूछा कि अमुक मुनिराज के कितने भव संसार में शेष रह गए? तो उत्तर मिला कि वह मुनि जिस वृक्ष के नीचे बैठा मिलेगा उस वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उनकी जितनी गिनती है उतने भव संसार में उसके बाकी रहे । तो यह बात सुनकर श्रावक बड़ा खुश हुआ और पहुंचा मुनि महाराज को खुश खबरी सुनाने के लिए । पहले तो वह मुनिराज एक छेवले के पेड़ के नीचे बैठे हुए थे, उसमें कुल 10-12 ही पत्ते थे, परंतु जिस समय वह श्रावक मुनिराज के पास पहुंचा उस समय वह इमली के विशाल पेड़ के नीचे बैठे हुए थे । इस दृश्य को देखकर वह श्रावक माथा धुनने लगा । भला बताओ एक विशाल इमली के पेड़ में कितने पत्ते होंगे, क्या कोई अंदाज लगा सकता? उस श्रावक को माथा धुनते देखकर मुनिराज ने पूछा―कहो, माथा क्यों धुनते? क्या बताया गणधर देवने मेरे भवों के बारे में? तो वह श्रावक बोला-महाराज गणधर देव ने तो यह बताया था कि मुनिराज जिस पेड़ के नीचे बैठे मिलें उतने भव शेष हैं, तो इमली के पेड़ के नीचे आपको बैठा हुआ देखकर मुझे दुःख हुआ कि आपके अभी अनगिनते भव शेष हैं । तो मुनिराज बोले―अरे खेद क्यों मानते? यह तो खुशी की बात है । इस अनंतकाल के सामने कम से कम कुछ काल की सीमा तो बन गई । अनंतकाल में तो भवों का अंत ही नहीं आता, पर अब मेरे भवों का अंत तो आ गया । तो कोई जीव सम्यक्त्व पाकर थोड़े ही मिनटों में मोक्ष जा सकता, पर ज्यादह संसार में रुलना पड़ेगा तो अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन तक रहेगा । वह संसार तट उसका निकट हो गया, ऐसा ज्ञानी जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है ।
सही ज्ञान व सम्यग्ज्ञान―बताया यह गया है कि सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यग्ज्ञान होता है, किंतु यह सोचे कि सम्यग्दर्शन होने से पहले जो ज्ञान होता है, जिस ज्ञान वाले को सम्यग्दर्शन होगा, क्या वह ज्ञान विपरीत है? क्या वह देह को जीव मान रहा है? नहीं, विपरीत तो नहीं है । ज्ञान उसका सही है, 7 तत्त्वों का यथार्थ बोध है । देव, शास्त्र, गुरु का सही स्वरूप जानता है । आत्मा के स्वरूप को भी जानता है । ज्ञानतो सब सही चल रहा है जिस जीव को सम्यग्दर्शन होगा, पर वह ज्ञान सही होकर भी सम्यग्ज्ञान क्यों नही कहा गया? उसका कारण यह है कि उस ज्ञान से जो जानना है, उसकी अनुभूति नहीं हुई है, अनुभूति रहित ज्ञान है, वह जो कि सम्यक्त्व से पहले है, मगर है सही । अनुभव हो जाने पर तत्काल सम्यक्त्व हुआ । तत्काल ही वह सम्यज्ञान कहलाने लगा, तो ज्ञानी जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है ।
सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण―अब तक सम्यक्त्व क्यों नहीं हुआ? उसकी कारण उपादान की ओर से तो यह है कि यह जीव विषय कषायों में लगा रहा, देह को अपना मानता रहा, इस कारण उसने सम्यक्त्व नहीं पाया, पर ऐसा भी करता क्यों रहा? यह भी तो प्रश्न किया जा सकता है । तो निमित्त दृष्टि का उत्तर दिए बिना समाधान न बनेगा । तो निमित्त की ओर से यह उत्तर है कि सम्यक्त्व का घात करने वाली 7 प्रकृतियां हैं उन 7 प्रकृतियों का उदय रहा । उपशम, क्षय, क्षयोपशम न हो सका इस कारण सम्यक्त्व न हुआ । किसी भी पदार्थ में कोई नए ढंग की बात होती है तो उसकी कोई परद्रव्य की दशा निमित्त कारण हुआ करती है । सम्यक्त्व घातक प्रकृतियां हैं मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ । इन 7 प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यक्त्व होता है और 7 प्रकृतियों के क्षयोपशम से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है व उनके क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है । क्षायिकसम्यक्त्व तो केवली भगवान के पादमूल में मनुष्यों को ही हो सकता हैं । कोई यदि श्रुतकेवली है तो उसको अपने आप क्षायिक सम्यक्त्व हो सकता है । उसे यह अनिवारित नहीं है कि केवली का पादमूल मिलने पर ही हो ।
सम्यक्त्व होते समय की निमित्तरूप कर्मदशा का निरूपण―उक्त तीन सम्यक्त्व में सबसे पहले उपशम सम्यक्त्व हुआ करता है । अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के 7 प्रकृतियों की सत्ता नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यक्प्रकृति का बंध नहीं हुआ करता, किंतु उपशम सम्यक्त्व होने पर तुरंत ही जो दबा मिथ्यात्व है उसके तीन टुकड़े हो जाते हैं―कुछ मिथ्यात्व रहता है, कुछ वर्गणायें सम्यग्मिथ्यात्व हो जाती हैं, कुछ कर्म वर्गणायें सम्यक्प्रकृति हो जाती हैं, तब 7 की सत्ता रहती है । सो अनादि मिथ्यादृष्टि के 5 प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यक्त्व होता है । अनुद्वेलितसादिमिथ्या दृष्टि के इन 7 प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यक्त्व होता है । ऐसा उपशम सम्यक्त्व कब होता है जब जीव के कर्मबंधन अंत: कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति का होता है वहाँ उपशम सम्यक्त्व होता है । यह स्थिति बहुत कम है मिथ्यादृष्टि जीव में, नहीं तो 70 कोड़ाकोड़ी सागर तक के कर्म बंधते हैं एक समय के खोटे भाव में । 70 कोड़ाकोड़ी न रहा, एक कोड़ाकोड़ी भी न रहा, उससे भी बहुत कम हैं । इतनी स्थिति के कर्म जब बंधने लगते हैं जब जीव को उपशम सम्यक्त्व होता है । इतनी छोटी स्थिति के कर्म बंधने का क्या कारण है! प्रायोग्यलब्धि । सम्यक्त्व पाने के लिए 5 लब्धियां हुआ करती हैं । क्षायोपशमिक लब्धि याने कर्म का हल्कापन आ जाना, विशुद्धिलब्धि परिणाम में निर्मलता जगना, देशनालब्धि में आचार्य आदिक उपदेशकों का उपदेश सुनने को मिलना और उस उपदेश का अर्थ समझ पाना और हृदय में अवधारण होना, प्रायोग्यलब्धि एक ऐसा विशुद्ध परिणाम है कि जिसमें कर्म की स्थिति का बंध हल्का होने लगता है और यहाँ 34 बार ऐसा अवसर आता है जिसमें इतना हल्का हुआ तो नरकायु न बंधेगी, और हल्का हुआ तो अन्य प्रकृतियां न बंधेगी । इस प्रकार 34 बार में ऐसी प्रकृतियों का भी बंध रुक जाता है कि उनमें से कई प्रकृतियां ऐसी हैं कि जिनका छठे गुणस्थान में तो बंध होने लगेगा पर सम्यग्दर्शन उत्पन्न करने वाले मिथ्यादृष्टि के बंध न हो सकेगा, इसको कहते हैं बंधापसरण, इसे सम्वर नहीं कहते । सम्वर तो सम्यक्त्व पाये बिना न हो पाएगा, पर उस मिथ्यादृष्टि जीव के भी इतने निर्मल परिणाम प्रायोग्यलब्धि में चले कि उस काल में अनेक प्रकृतियाँ बंध से रुक गई, और भले ही सम्यक्त्व होते ही बंधने लगेंगी । उसके भीतर की विशुद्धि निरखिये किस दर्जे की विशुद्धि है । बात भी ऐसी है कि सम्यग्दर्शन होते समय सम्यक्त्व होने पर जितना कर्म भार हट जाता है उसके बाद जो कर्म भार जीव के साथ रहा है वह समझिये कि एक लाख रुपये में एक रुपये बराबर जैसे किसी पर एक लाख रुपये का कर्जा हो और 99 हजार 999 का कर्जा चुका दिया, बस एक रुपये का कर्जदार रहा, तो उस भार के आगे यह क्या है ऐसे ही सम्यग्दर्शन होने पर जितने कर्म दूर हुए हैं, जो बोझ हटा है उस बोझ के सामने रहा सहा बोझ न कुछ चीज है फिर भी जब तक शेष कर्म है तब तक निरावरणपने का लाभ तो रुक जाता है । सम्यक्त्व होने पर यह जीव इतना विशुद्ध हो जाता है ।
पंचम गुणस्थान में प्रविष्ट जीव की स्थिति―कोई जीव मनुष्य या तिर्यंच उपशम सम्यग्दृष्टि हो और उसने प्रथम प्रतिमा का व्रत भी धारण किया हो तो वह पंचम गुणस्थान में आया हुआ कहलाता है । तिर्यंचों के भी व्रत तो होता है, पर जैसे मनुष्यों को कहा गया है कि सामायिक करें, प्रोषधोपवास करें और प्रतिमा पालें, इस तरह का तो नहीं होता, पर समझ लीजिए कि वह दर्शन प्रतिमा जैसा ही व्रत है । कितने ही तिर्यंच मांस खाना छोड़ देते हैं और ऐसी जगह का पानी पीते हैं जहाँ सूर्य की गर्मी रहती हो, ऐसे तालाब के किनारे पर ऊपर से पानी गिर रहा हो, ऐसी जगह में पानी पीते हैं, न करे जो फल मिलें उन्हें खाते हैं अथवा सूखी घास खाते हैं, मांस का त्याग कर देते हैं सो पंचेंद्रिय तिर्यंच भी श्रावक होते हैं, याने पशु पक्षी भी श्रावक होते हैं तो जितना काम पशुपक्षियों का श्रावक अवस्था में होता है उतना काम तो इस गृहस्थ को करना ही चाहिए । कितने ही जीव तिर्यंच या मनुष्यों में क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि होते हुए पहली प्रतिमा का व्रत पालते हैं । क्षयोपशम सम्यक्त्व का अर्थ है कि उन 7 प्रकृतियों में से अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व इन 6 प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय होता है, अर्थात् ये 6 प्रकृतियाँ उदय में तो आने को हैं मगर एक समय पहले से ही वे प्रकृतियाँ अन्य रूप बदल जाती हैं और उदय में आती है उदय के ठीक समय में उन 6 का अभाव है । और वे 6 प्रकृतियाँ सत्ता में तो पड़ी है ही । कहीं उनकी उदीरणा हो जाए तो सम्यक्त्व न रह सकेगा । तो जो सत्ता में 6 प्रकृतियाँ हैं वे उदीरणा में न आ सकें याने समय से पहले उदय में न आ सकें इसका नाम है उपशम सो इनका उपशम हो और सम्यक्प्रकृति का साथ में उदय हो तो वहाँ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है । मगर वह सम्यग्दृष्टि श्रेणी पर नहीं चढ़ सकता । क्षयोपशम सम्यक्त्व 7वें गुण स्थान तक ही होता है, पर उत्कृष्टतया रहता है यह 66 सागर पर्यंत । और किसी मनुष्यगति के जीव में सम्यक्त्व है और अष्टमूल गुण का निरतिचार पालन है वह भी पंचम गुणस्थान में आया समझिए ।
क्षायिक सम्यक्त्व की अविनश्वरता तथा सम्यग्दृष्टि की अंत: उमंग―इस जीव ने उपशम सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को अनगिनते बार भी प्राप्त किया, फिर भी मिट जाता । चाहे अन्य सम्यक्त्व होकर मिटे या मिथ्यात्व होकर मिटे, किंतु क्षायिक सम्यक्त्व जिसको हो जाय वह नहीं मिटता और नियम से उसका यथा संभव मोक्ष हो जाता है । उसे अधिक से अधिक समय रहना पड़ता है तो तीन चार भव तक ही । क्षायिक सम्यक्त्व पाये बिना किसी का निर्वाण नहीं होता। औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व तो भूमिका है । क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि ही क्षायिक सम्यक्त्व करता है । तो जिसको सम्यक्त्व हो गया उसकी क्या भावना बन जाती है, कैसी उसकी दृष्टि होती है वह लौकिकजनों से विलक्षण है । वस्तु को अनेकांतरूप में निरखता है । जो भी दिखते हैं वे सदा रहेंगे और उनकी क्षण-क्षण में नयी-नयी अवस्थायें बनेंगी । यह सभी वस्तुओं का स्वरूप है । ऐसा जानने से अपने बारे में भी यह उमंग बनती कि यह मैं आत्मा सदा रहूंगा और चूँकि मेरी समय-समय पर नई-नई परिणतियाँ हुआ करती है । तो मैं इस संसार परिणति को मेट सकता हूँ और शुद्ध परिणति को पा सकता हूँ । यदि मान लें कि यह जीव एकसा ही रहता, नई-नई पर्यायें नहीं रहतीं तो इस समय तो यह जीव भोंदू बना बैठा है । पर भोंदू बनकर सदा रहना यह वस्तु का स्वरूप नहीं है । जीव सदा रहेगा, पर नई-नई अवस्थायें पाता है, तो मैं संसार अवस्था को त्यागकर मुक्त अवस्था को प्राप्त कर सकता हूँ ऐसी उसकी उमंग रहती है ।
सम्यग्दृष्टि के सप्ततत्त्वविषयक श्रद्धान का संक्षिप्त दिग्दर्शन―सम्यग्दृष्टि जीव, जीव, अजीव, आश्रव, बंध, सम्वर, निर्जरा और मोक्ष इन 7 तत्त्वों का यथावत् श्रद्धान रखता है । मैं जीव हूँ, जीव के साथ अनादि से कर्मधारा चली आयी है, पौद्गलिक कर्म वे अजीव हैं उन पौद्गलिक कर्मों का उदय होने पर उनमें अनुभाग खिलता, पर उसका प्रतिफलन मुझ में होता है, यह भावाश्रव है और ऐसा होने से नये कर्म आते हैं यह द्रव्याश्रव है । जब यह मैं अपने सहज स्वभाव की सम्हाल कर लेता है तो यह है भावसंबर और उस समय नवीन कर्म का आश्रव नहीं होता यथायोग्य वह है द्रव्यसम्वर । जब यह जीव अपने आपके स्वरूप की सम्हाल में स्थिर रहता है तो अपने आप विकार विभाव ये झड़ने लगते हैं । संस्कार भी मिटने लगते, यह है भावनिर्जरा । और उस समय बंधे हुए कर्म झड़ते हैं, यह है द्रव्यनिर्जरा । भावनिर्जद्वा और द्रव्यनिर्जरा मानते-मानते जिस समय समस्त कर्मों का क्षय हो चुकता है और यह आत्मा समस्त कर्मो से छूट जाता है तो आत्मा का छूट जाना यह है मोक्ष, कर्मों का अलग हो जाना यह है द्रव्यमोक्ष । इस प्रकार सामान्य तौर से इसही को और विशेष रूप से यह जीव श्रद्धान करता है जिसके अनुसार आचरणभी बनता है और उस आचरण के प्रसाद से यह नवीन कर्मों को आने नहीं देता, पूर्वबद्ध कर्म झड़ने लगते, तो कोई काल आता हैकि यह संसार की सर्व विपदावों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है ।
सम्यग्दृष्टि के पुत्रकलत्रादि सर्वअर्थों में गर्व का अभाव―जिस भव्य आत्मा को अपने आपके सही सहजस्वरूप का अनुभव हुआ है, जिसका यह पूर्ण निर्णय हो गया हैकि मैं सहज ज्ञानस्वभावमात्र हूँ, मैं अमूर्त हूँ, रूप रस गंध स्पर्श से रहित हूँ, और सहज प्रतिभास मात्र हूँ, ऐसा अनुभव कर चुकने वाला जीव पुत्र स्त्री आदि के समस्त पदार्थों में गर्व नहीं करता । जिसको देह दृष्टि है और देह के नाते ही सारे नाते मान रखे हैं, यह मेरा पुत्र है क्योंकि यह मुझसे ही तो पैदा हुआ, मेरे ही कुल का है, मेरे ही घर का है । ऐसा कुछ भी विश्वास रखकर जो मानता हैकि यह मेरा है उसको गर्व होता है । मैं पुत्रवान हूँ, ऐसे कुटुंब वाला हूँ, ऐसा वह गर्व करता है लेकिन सम्यग्दृष्टि जीव अपने कुटुंबीजनों को निरखकर गर्व नहीं करता, क्योंकि वह जानता है कि ये सब जीव जुदे-जुदे हैं, अपने-अपने कर्म का फल भोगते हैं, इससे मेरा क्या संबंध है? ज्ञानी जीव यदि अकेला हो जाय, मतलब पुत्रादिक न हों अथवा स्त्री पुत्रादिक न हो, केवल अकेला रह जायतो वह उसमें एक बड़ी प्रसन्नता का अनुभव करता है, क्योंकि उसे अपना शरण परमात्मतत्त्व दृष्टि में आया है । यह हूँ सर्वस्व, मैं यह हूँ पूर्ण ज्ञानानंदमय । पर से जो लगाव रहता था, मोह रहता था वहतो निरंतर पाप का ही बंध चल रहा था और उसमें अनेक उलझनें रहा करती थीं । अब मैं स्वतंत्र हूँ । एक निज सहज परमात्मतत्त्व की उपासना में रहूंगा, उसे बाह्य संबंध का गर्व नहीं हो सकता ।
सम्यग्दृष्टि के बाह्य अर्थप्रसंगो से विवक्तता का अनुभव―यह ज्ञानी जीव तो अपने को तृणमात्र जानता है अर्थात् मैं कुछ नहीं हूँ बाहर के नाते से समझ रहा ऐसा । अंदर के नाते से तो जानता है कि मैं अनंत ज्ञानानंद का पुंज हूँ पर बाह्य नाते की दृष्टि से यह अनुभव करता कि मैं कुछ नहीं हूँ, तृणमात्र हूँ । साधारण लोगों को अपने कुल पर घमंड हो जाता, ज्ञान पर, धन पर घमंड हो जाया करता जिससे अपने को कुछ मानते हैं कि मैं खास हूँ, बड़ा हूँ, पर ज्ञानी जीव इन बाहरी संग प्रसंगों के कारण अपने को बड़ा अनुभव नहीं करता, वहतो अपने को तुच्छ तृणमात्र मानता है । ज्ञानीपुरुष अपने संतोष भाव में ठहरता है । यह पहली प्रतिमा का लक्षण चल रहा है जिसमें सर्वप्रथम यह बताया कि सम्यग्दर्शन से संपन्न हो और फिर निरतिचार मूल गुण हो तो वह पहली प्रतिमा का धारी होता है । वह हर बात की समझ रखता कि मेरी भलाई किसमें है । ज्ञानी पुरुष को किसी भी बात पर घमंड नहीं होता बाह्य संग प्रसंगों के कारण । यह सब मायाजाल है । ज्ञानावरण का क्षयोपशम मिले, अंतराय का क्षयोपशम हो तो कुछ संग प्रसंग की बात मिल गई, अब इसमें मेरा हित क्या है? मेरे आत्मा का कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं, ठेकेदार नहीं, यहाँ कोई भले ही अपने को स्त्री पुत्रादिक परिजनों का या दुनिया का ठेकेदार माने, यह तो उसके कल्पना की बात है । पर-पर है कोई किसी का जिम्मेदार नहीं । जिस पर जैसा उदय आता है उसे वही केवल भोगता है । और अपने आत्मस्वरूप को सम्हाले तो वही कर्म का क्षय करके निर्वाण पाता है । यहाँ दूसरे का कुछ नहीं है मुझ में । मैं भी किसी दूसरे का कुछ नहीं हूँ । सर्व जीवों का अपनी-अपनी योग्यतानुसार योग्य निमित्त पाकर काम चलता रहता है, यह है पहिचान, सम्यक्त्व है अथवा नहीं, इसकी परख करने की ।
सम्यग्दृष्टि के मोहविलास के प्रति हेयत्वबुद्धि―यह ज्ञानी पुरुष अपनी करतूत के बारे में यह निर्णय रखता हैकि यह सब मोह का विलास है । इंद्रिय के विषयों में जो प्रवृत्ति होती रहती है, सुहावना स्पर्श छूना, अच्छा लगना, सुहावना स्वाद लेना, सुगंध का पसंद होना या दुर्गंध से बचना, रूप का अवलोकन करना, कर्णप्रिय राग रागनी के शब्द सुनना आदिक ऐसी जो कुछ वृत्तियां होती हैं वह सब मोह का प्रसार है, सार कुछ नहीं है । जो विषयों में आसक्त है उसकी तो संसार में जन्ममरण की परंपरा बनेगी । ज्ञानी जीव अपनी चेष्टावों के बारे में इस तरह देखता है जो कुछ मैने किया वह सब अज्ञान की चेष्टा हुई । यह जानता है ज्ञानी । अपने बारे में सोचो प्रात: काल जल्दी उठे, नहाये धोये, कुछ कुटुंबीजनों से बात हुई, फिर मंदिर गए, पूजा की, दर्शन किया, स्वाध्याय भी कर रहे, फिर लोगों से मिलने का भी काम कर रहे, अच्छे बुरे सभी काम करते, वह सब मोह की चेष्टा है, अज्ञान की चेष्टा है क्योंकि ज्ञान की चेष्टा तो केवल जाननहार रहना है । अपनी इन चेष्टावों में क्या आप मैं जाननहार ही रहे? क्या मैं जाननहार ही रहता हूं? उसमें कुछ इष्ट अनिष्ट की बुद्धि नहीं जगती क्या? जगती है, तो वह अज्ञानचेष्टा है । अज्ञान चेष्टा दो प्रकार की होती है―(1) मिथ्यात्व में होने वाली अज्ञान चेष्टा और (2) सम्यक्त्व होते हुए भी रागवश होने वाली चेष्टा । अज्ञानचेष्टा है । पहली ज्ञान की विपरीतता के कारण दूसरी ज्ञान की कमी कें कारण अज्ञान चेष्टा है ।
अपनी सर्वविकल्प चेष्टाओं को अज्ञानचेष्टा समझने वाले ज्ञानी का अंत: प्रसाद―अपनी सारी चेष्टावों में एक यही निर्णय रखिए कि यह अज्ञानचेष्टा है फिर देखिये कितना सुंदर समय व्यतीत होगा । किसी से विवाद विरोध कभी हो ही नहीं सकता । जो अपनी इन सारी चेष्टावों को अज्ञान चेष्टा मानता है―मेरा दुनियां में कोई विरोधी नहीं, भले ही इसका ठेका तो नहीं हैकि कोई इसे विरोधी माने या नहीं माने पर इसको कोई दूसरा अपना विरोधी नहीं जंचता । अपनी गलती स्वीकार कर रहा ज्ञानी । धर्म कायों में भी जो मन लग रहा है बाह्य साधनों में उन तक को भी जो मूल समझ रहा वह क्या अपनी गलती करके अपने को बुद्धिमान समझेगा? आप भाषण सुन रहे, मैं कुछ बोल रहा । बताओ यह ज्ञानचेष्टा है कि अज्ञानचेष्टा है? अज्ञानचेष्टा है । बड़े अच्छे भावों से बैठकर आप सुन रहे, मैं भी एक धर्मबुद्धि से बोल रहा हूँ मगर इस प्रसंग में भी जो मन चल रहा है, सोच रहे हैं, वचन बोल रहे हैं, शरीर की चेष्टायें हो रही है ये क्या ज्ञान चेष्टायें हैं? ये भी अज्ञान चेष्टायें हैं । कितना गहरा है यह चैतन्यस्वरूप कि मुनि भी हो गए, योग्य कार्य भी कर रहे और सही मुनि है, पर वह भी अपना विहार करने को आहार करने को, बोलने को, आवश्यक काम करने को, इन तक को भी समझता हैकि यह अज्ञान चेष्टायें है । और इसमें विशेष क्या समझाना, बस यह मात्र जाननहार रहे, रागद्वेष के कोई कण न आये इसे कहते हैं ज्ञानचेष्टा । अब अंदाज करना चाहिए कि हम आपकी रात्रि दिन की सारी चेष्टायें अज्ञान चेष्टायें हैं । और फिर उन चेष्टावों पर गर्व आये तो वह मिथ्यात्व का उदय समझिये । अज्ञानचेष्टा होने से कहीं सम्यक्त्व नहीं बिगड़ा, मगर अज्ञान चेष्टा होकर भी उस पर घमंड रहे तो उसका सम्यक्त्व बिगड़ गया समझिये । भैया, कितना अपने को सावधान रखना है? इस भीतरी प्रकाश को निरखकर निर्णय रखिये । वह इस सब मोह विलास को हेय मानता है । क्या ज्ञानी ऐसा सोचता है? लोग सुनने आते हैं, मैं बोलता हूँ, लोग बड़े भाव से सुनते हैं, बड़ा अनुराग रखते हैं, तो मैं ऐसा बोलता ही रहूं सदा, क्या ऐसा ज्ञानी पुरुष अपने चित्त में धारण करेगा? या मैं जो धर्मप्रसंग करता हूँ, समारोह किया, जलसा किया, यात्रा की तो क्या वह यह सोचता हैकि ऐसा ही मैं करता रहूं इस भव में?
ज्ञानी की समस्त शुभ अशुभ भावों से उपेक्षा―भैया, ज्ञानी की तो प्रभु पूजा में भी यही आवाज है कि ‘‘तव पादौमम हृदये, मम हृदयं तव पदद्वये लीनं । तिष्ठतु जिनेंद्र तावद्यावन्निर्वाणसंप्राप्ति: ।’’ हे प्रभु तुम्हारे चरण कमल मेरे हृदय में रहे, मेरा हृदय आपके चरणों में रहे जब तक कि मोक्ष की प्राप्ति न हो । कोई अगर यहाँ वहाँ ही आदमी सुनता होगा तो कहता होगा कि देखो यह प्रभु के आगे भी खुदगर्जी चाहने जैसी बात कर रहा । जब तक मुझे मोक्ष न मिले तब तक मेरी भक्ति आप में रहे, यह तो एक अपने स्वार्थ साधना की बात कहलायी । भला बतलाओ, इस प्रकार की बात सुनकर उसे कोई अच्छी निगाह से देखेगा क्या? यहाँ यह ज्ञानी भक्त प्रभु को कह रहा है कि आपके चरण मेरे हृदय में तब तक रहें जब तक कि मुझे मोक्ष प्राप्त न हो । यदि ऐसा कहे कोई प्रभु को कि हे प्रभो ! मैं भव-भव में सदैव इस संसार में आपकी ही मूर्ति का अभिषेक करूं और आपके ही आगे अष्ट द्रव्यों से मैं पूजा करता रहूं । बताओ यह सच्ची भक्ति है क्या प्रभु की? यह तो मिथ्यात्व की वासना है । भव-भव में चाहता है यह राग, प्रभु की पूजा, दर्शन यद्यपि यह मंद कषाय है, पर कषायरहित दशा नहीं है और लौकिक कार्य, लड़ाई-झगड़े, बोलचाल या घर में प्रेम रखना, अनुराग, यह अशुभ कषाय है, तीव्र कषाय है । कषाय तो सभी करते है, मगर प्रभु भक्ति, प्रभु पूजा मंद कषाय है । करेगा ज्ञानी प्रभु की भक्ति, मगर यह भाव न रहेगा कि मैं सदैव प्रभु का ऐसा भक्त रहूं, ऐसा यदि शुभ भाव का भी लगाव है तो वह अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है, उसको कुछ पता नहीं है । इसलिए ऐसी आस्था रख रहा है ।
ज्ञानमात्र संचेतन के अतिरिक्त अन्य चेष्टाओं की हेयता―अब आप समझिये अज्ञान चेष्टावों का कितना बड़ा फैलाव है? जैसे मान लो सारे काम एक करोड़ है । उस एक करोड़ में एक ज्ञाताद्रष्टा रहने का भी काम धर लो तो उनमें से एक काम तो है ज्ञान चेष्टा और 99 हजार 999 चेष्टायें अज्ञान चेष्टायें हैं । उस आंतरिक शुद्ध तत्त्व पर दृष्टि लाता है ज्ञानी और इसी कारण सब संग प्रसंगों को हेय मानता है । कोई रईस बीमार हो जायतो उसके बड़े शौक बढ़ा दिए जाते हैं । बड़ा अच्छा कोमल गद्दा होना चाहिए । सुगंधित पदार्थ अधिक होना चाहिए, दिन में दो-दो तीन-तीन बार डॉक्टर आना चाहिए । मित्रजनों का आने-जाने का तांता लगा रहता है, मित्रजन आ आकर बड़ी अच्छी वार्ता करते रहते हैं, यों बाहरी रूप से अगर देखा जाय तो उस बीमार रईस की बड़ी सेवायें हो रही हैं पर उस रईस रोगी के दिल से पूछो कि क्या आपको ऐसी सेवायें हमेशा मिलते रहना पसंद है । तो शायद वह यही कह उठेगा कि मुझे ऐसी सेवायें न चाहिए । मैं तो यह चाहता हूँ कि मैं प्रतिदिन मील दो मील घूम आऊं । देखिये कितने बड़े आराम के साधन जुटाये जाते हैं उस बीमार दशा में रईस रोगी के लिए खाने के लिए मना करता तो लोग उसे बहुत-बहुत मनायेंगे । अब आप देख लो कितना बड़ा आराम है बीमार बनने में? अब यदि हम आप से पूछें कि बताओ आप लोग ऐसा आराम चाहते हैं क्या? तो शायद आप यही कह उठेंगे कि मुझे न चाहिए ऐसा आराम । तो ऐसे ही दशा उस बीमार रईस की समझिये । वह उन सर्व आराम के साधनों को हेय मानता है । हेय मानता है, पर वह बड़े प्रेम से दवाई क्यों पीता है? वहतो हेय चीज है झुँझलाने का कारण है । उसे यह आस्था बनी हैकि मेरी दवा छूटेगी इस दवा के खाने से । वह दवा से छुटकारा पाने के लिए दवा पी रहा है, दवा पीते रहने के लिए दवा नहीं पी रहा है । इसका लक्षण देखिये―ज्ञानी सम्यग्दृष्टि को भी विषयों के प्रसंग आते है वह खाना खायगा तो स्वाद न आयगा क्या? आयगा तो फिर इसमें राग हुआ ना? राग तो हुआ फिर भी राग नहीं है । वह इन विषयों के प्रसंग से छूटने के लिए आ पड़े हुए विषयों की भोग रहा है ।
किसी परिस्थिति में विषय परिहार के प्रयोजन से विषयप्रसंग―कोई साधु यदि यह हठ करले कि यह भोजन, आहार, यह भीतो विषयसेवन है क्योंकि विषय सेवन तो पांचों ही इंद्रियों के व्यापार को कहते है । भोजन करना भी विषय सेवन है, फिर मैं क्यों भोजन करूं? यदि ऐसी हठ करके वह आहार जल का त्याग कर दे तो उसका तो संक्लेश मरण हो जायगा सो वह दुर्गतियों में जायगा । सो संयम का साधन बनाये रखने के लिए वह साधु आहार लेता है । आहार संयम का साधन बन रहा था मुनि अवस्था में और हाथ पैर भी चल रहे थे, पर वह विवश होकर करना पड़ रहा था । ये खाने-पीने आदिक की चेष्टायें अज्ञान चेष्टायें हैं, तो ऐसा जबरदस्ती कोई विषयों का त्याग करके संक्लेश से मरे तो क्या ये विषय छूट जायेंगे? अरे अगले भव में ये फिर मिलेंगे, तो ज्ञानी जीव इन विषयों से छुटकारा पाने के लिए ही उन विषयों के प्रसंग में रहकर भी ऐसी साधना भीतर में बना रहा है जो कि उसके भीतर के विषयों को एकदम खतम कर देगा । ज्ञानी का ऐसा लक्ष्य है कि सर्व संग प्रसंगों को वह ऐब मानता है ।
ज्ञानी को उत्तमगुण ग्रहणरति―दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक कैसा हुआ करता है उसका वर्णन यहां चल रहा है । उसके सम्यक्त्व है निर्दोष । इस कारण उसकी ऐसी ही वृत्ति है कि जो उत्तम पुरुष है उनके गुण के ग्रहण करने में अनुराग रहता है । अज्ञानी जीव गुणियों को देखकर ईर्ष्या करते हैं, घृणा करते हैं, उल्टा-उल्टा देखते हैं, क्योंकि उनका सब उल्टा हो रहा है काम । मिथ्यात्व का उदय है तो उल्टा ही दिखेगा । जिसको सम्यक्त्व हुआ है वह सर्व जीवों को निरपराध स्वरूप में निरखेगा और निर्णय रखेगा कि हमसे जो अपराध बनता है वह हमारे आत्मा का अपराध नहीं है । यह कर्मोदय की झांकी है, माया है, ऐसा सब जीवों में अंत: स्वरूप निरखने वाला पुरुष क्या उत्तम पुरुषों के गुणों में द्वेष रखेगा? अरे उसके तो उत्तम पुरुषों के गुणों के ग्रहण में अनुराग रहता है । ज्ञानी की यह पहिचान है । सम्यक्त्व जहाँ है वहां तो यह है ही पर मामूली रीति से थोड़ा यह समझना हो किं यह पुरुष ज्ञानी है या अज्ञानी । एक ही पहिचान कराया है यहाँ । यदि गुणवान पुरुषों का गुणों का वर्णन करने का अनुराग है? उनके गुणों का भक्त है तो समझिये कि वह ज्ञानी है । यदि गुणियों से द्वेष रखता है, दोष निरखता है तो समझिये कि वह अज्ञानी है । गुण और दोष सब पुरुषों में मिलते हैं, अंतर इतना रहता हैकि जिसमें गुण अधिक हैं, दोष कम हैं वह कहलाता है गुणी, और गुण कम हैं, दोष अधिक हैं तो वह कहलाता है अज्ञानी । तो गुणीजनों के गुणों में भक्ति होना यह है सम्यक्त्व की पहिचान ।
ज्ञानी का साधर्मियों में अनुराग―ज्ञानी पुरुष साधुसंत पुरुषों के विनय से युक्त रहता है जब साधुवों के गुणों में अनुराग रहा तो फिर वह उनकी विनय कैसे न करेगा? उसके मन, वचन, काय विनय के लिए आ ही जायेंगे । तो ज्ञानी इन चिह्नों से परखा जाता है कि साधुसंतों के विनय से युक्त हो और उनके गुणों के ग्रहण का प्रेमी हो तो वह है सम्यग्दृष्टि पुरुष । ज्ञानी पुरुषों को अपने साधर्मीजनों में अनुराग रहता है । जैसे घर के काम का एक लक्ष्य बना लिया, घर में व्यवस्था रखना और आजीविका चलाना और एक दूसरे के दुःख में शामिल होना एक लक्ष्य बना रखा है अपने घर के मेंबरों में तो कैसा मिल जुलकर आप काम करते है । किसी ने कम काम किया तो भी आप संतोष रखते हैं कि काम ही तो कर रहा यह, थोड़ा कर पाया तो क्या हुआ? जितना बताया उतना कर पाया, कोई विशेष काम करता है, मगर घर के सब लोग मिल जुलकर एक सूत में बंधे हुए मानो इस तरह से घर की व्यवस्था बनाते हैं । तो यह धर्म भी तो धर्म का जितना क्षेत्र है, कार्य है वह भी तो एक घर की तरह है । घर में आप दो-दो, चार-चार, सात-सात आदमी हैं, उनका एक घर है । ऐसे-ऐसे कितने ही घर उसमें शामिल है तो वह हुआ अपनी साधुता का घर । उसमें क्यों नहीं संतोष किया जाता कि जो कोई भी पुरुष धर्म के कार्य में जितना सहयोग दे रहा है जो जिस लायक है वह प्रभु की वाणी के प्रसार में, प्रभु के ज्ञान के प्रसार में वह सहयोग दे ही रहा है । उनमें भी प्रेम रहना चाहिए ।
ज्ञान की उपासना में धर्म का पालन―देखिये धर्मपालन के सिवाय ज्ञान के और दूसरी चीज का नाम नहीं है । कोई भी चेष्टा आप करें, मंदिर का और यहाँ वहाँ का धर्म के नाम पर, तो ज्ञान का लक्ष्य है और ज्ञान की भक्ति के लिए ही किया जा रहा है तो वह धर्म में शामिल होगा अन्यथा धर्म में नहीं शामिल होने का । क्योंकि आत्मा का स्वभाव ज्ञान है और स्वभाव का विकास ही परम पद है । तो ज्ञान और ज्ञानविकास इनसे संबंधित बात तो धर्म में आती है और केवल एक शौक में, शान में जिसे कहते हैं शौक लग गया किसी का किसी में, किसी का इस बात में शौक लग गया, मगर वह धर्म नहीं हुआ । धर्मपालन होगा जब ज्ञान का संबंध हो खुद के ज्ञान में, अन्य के ज्ञान में । ज्ञान की भक्ति में अगर आपका मन है तो यहाँ धर्म की बात चलेगी अन्यथा धर्म की बात न चलेगी । थोड़ा पुण्य हो गया सो ऐसा पुण्य तो अन्य कार्यों में भी हो सकता है, इसमें कुछ अधिक हो गया मगर संसार के संकटों से छूट जायें उसका प्रोग्राम न हो पाया । यह ज्ञानी जीव जानता है कि ये सब उस ज्ञान के अनुरागी हैं जिस ज्ञान की भक्ति करने से निकट काल में केवलज्ञान मिलेगा । उसके उपासक हैं तो उसमें अनुराग बनता है । तो साधर्मीजनों में अनुराग करना यह सम्यक्त्व होने वाली चेष्टा है ऐसा सम्यग्दर्शन से युक्त जो भव्य आत्मा निरतिचार अष्ट मूल गुण पालन करता है उसको दार्शनिक श्रावक कहते हैं ।
जीव को निज ज्ञान द्वारा देह से भिन्न निरखने की ज्ञानकला―दर्शन प्रतिमाधारी सम्यग्दर्शन से संपन्न है, इस संबंध में वर्णन चल रहा है । जिस जीव को अपने सहज चैतन्यस्वभाव का ज्ञान द्वारा अनुभवहो जाता है उसे कहते है सम्यग्दृष्टि । सम्यग्दृष्टि का क्या चिंतन रहता, निर्णय रहता, यह यहाँ बतलाया जा रहा है । यह ज्ञानी पुरुष देह से मिले हुए भी जीव को ज्ञान गुण के द्वारा भिन्न मानता है । जिस पदार्थकाजो परिणमन है वह परिणमन उसी पदार्थ में देखा जायतो ऐसी निरख से असाधारण स्वरूप का परिचय मिल जाता है और मित्रता भी ज्ञात हो जाती है । शरीर का परिणमन क्या है? रूप, रस, गंध, स्पर्श बदलना, कठोर होना, हल्का भारी होना, ये सब देह के परिणमन है किंतु क्या ये परिणमन जीव के भी होते? जीव में काला, पीला, नीला आदिक रंग होते हैं क्या? जिसमें रंग होते है वह जानने का काम कभी नहीं कर सकता । मैं जानता हूँ, मैं रंग रहित हूँ, मुझ में खट्टा, मीठा ऐसा रस पड़ा हुआ है क्या? यदि रस पड़ा होता तो यह जाननहार न रहता । इसमें सुगंध, दुर्गंध परिणमन भी नहीं है । कोमल, कठोर, रूखा, चिकना, ठंडा, गरम आदि ये कोई परिणमन नहीं है । मैं हूँ केवल जाननहार । जो पुरुष अपने आपको मना करता है कि मैं कुछ नहीं हूँ । जीव कुछ नहीं है तो वहाँ यह तो पूछो कि जीव कुछ नहीं है, ऐसा मना कर कौन रहा है? जो मना कर रहा है वह कुछ जानता हुआ मना कर रहा है या न जानता हुआ मना कर रहा है? न जानता हुआ कोई भी पदार्थ मना नहीं कर सकता । निषेध की कल्पना कर जो मना कर रहा हो वही तो जीव है । जैसे कोई पुरुष कहने लगे कि मेरे मुख में जीभ नहीं है मैं बिल्कुल ठीक कह रहा हूँ तो आप उसकी बात मान लेंगे क्या? अरे जिसके द्वारा यह कह रहा है कि मेरे मुख में जीभ नहीं है वही तो जीभ है, यदि मुख में जीभ न होती तो वह ऐसा कैसे कह लेता? ऐसे ही कोई पुरुष अपने को मना करे कि जीव नहीं है, तो जिसमें ‘‘नहीं है’’ की कल्पना आयी वह ही तो जीव है ।
असाधारण निज चैतन्य स्वभाव की बेसुधी से कष्ट विडंबना―जीव का परिणमन है जानन । जाननपरिणमन होने से जानने की शक्ति सुनिश्चित है । जानने की जो शक्ति है वही असाधारण गुण कहलाता है, जीव का असाधारण गुण है ज्ञान शक्ति चैतन्यस्वरूप और शरीर का असाधारण गुण है मूर्तिकता । मूर्तिक कहने से रूप, रस, गंध, स्पर्श सब आ जाते है । तो इतना भेद है मुझ में और देह में । ऐसाजो असाधारण स्वरूप पर दृष्टि रखकर भेद समझता है वह पुरुष ज्ञानी है । जितना जीवों को दुःख है वह अपने असाधारण स्वरूप में आत्मीयता का अनुभव न कर सकने से दुख है । वैसे दुःख निकला हो, पर से मुझ में प्रवेश कर गया हो ऐसा होता है क्या कहीं? पर-पर की जगह है वह अपने ढंग से परिणम रहा है । उसे से मुझ में कुछ नहीं आ रहा, फिर दुःख का कारण कोई बाहरी पदार्थ कैसे कहलायगा? दुःख यही है कि जो अपने असाधारण स्वरूप का ज्ञान न होने से बाह्य पदार्थों में यह उपयोग भटकता रहता है, कष्ट इसका है । जिन परमेष्ठियों की हम वंदना करते हैं उन्होंने यह ही तो किया था अपने स्वभाव में अपने आत्मत्व का अनुभव किया था । संकट उनके खतम हो गये । यहाँ कैसा मोहविष चढ़ा है कि चित्त नहीं चाहता कि अपने को मैं सबसे निराला ज्ञानमात्र अनुभव कर लूँ । जब तक यह मोह विष चढ़ा रहेगा, सर्व से निराले ज्ञानमात्र अंतस्तत्व का अनुभव न कर सकेगा तब तक शांति का मार्ग मिलना असंभव है ।
कांचली से सर्प के विविक्तत्व की तरह देह से जीव की विविक्तता―यह सम्यग्दृष्टि जीव देह में मिला हुआ भी जीव को देह से निराला अपने ज्ञान गुण के द्वारा समझ रहा है । ज्ञानस्वरूप निरखकर मान रहा है । यह ज्ञानी जानता हैकि इस देह में यद्यपि जीव मिला है फिर भी यह देह कांचली की तरह है । जैसे सर्प पर कांचली चढ़ जाती है वह कांचली सर्प के अंग से ही बनी है, कोई बाहर के पदार्थ से नहीं बनी, पर उस कांचली के आवरण होने से वह सांप अंधा हो जाता है और उस कांचली को अंत में छोड़ता है, क्योंकि देह से कांचली ने मूल संबंध छोड़ दिया तो वह कांचली दूर हो जाती है, सर्प को दिखने लगेगा । तो जैसे सर्प निराला है, कांचली निराली है उससे भी अधिक असंबंध देह और जीव का है । कांचली तो उस सांप के ऊपर का चाम ही बन गया था पर देह तो जीव का कुछ नहीं बनता । इससे भिन्न बाहर आहार वर्गणाओं के परमाणु हैं फिर भी जैसे कांचली निराली है, सांप निराला है ऐसे ही यह शरीररूपी कांचली निराली है और यह मैं जीव निराला हूँ । जैसे कांचली से सांप निकलता है तो उसका भला होता है ऐसे ही देह से यह जीव अलग हो जायगा तो उसका भला होगा, मोक्ष होगा । यह मैं इस देह से अत्यंत पृथक हूँ ।
कार्यसिद्धि में आराध्य देव शास्त्र गुरु की आवश्यकता का चित्रण―यह ज्ञानी जीव चाह रहा है ज्ञान का शुद्ध विकास । तो जो जिस तत्त्व को चाहता है वह तत्त्व परिपूर्ण जिसे मिला है उसे तो आदर्श मानता है और उस तत्त्व के बताने वाले जो वचन हैं उसके ज्ञान से आगे बढ़ता है, और उस तत्त्व के पालनहार जो उसको संघ में मिलते हैं उन्हें अपना गुरु मानता है । प्रत्येक कार्य में देव, शास्त्र, गुरु की विधि बराबर बनी हुई है । चाहे रोटी बनाने का कार्य हो चाहे संगीत सीखने का कार्य हो या व्यापार करने का कार्य हो, उस-उस विषयक देव, शास्त्र, गुरु होते हैं । रोटी बनाने के कार्य में देव कौन है? जो बुआ, मौसी, आदिक बहुत बढ़िया रोटी बना लेती हैं वे उसके रोटी के देव हैं, शास्त्र कौन हैं? जो रोटी बनाने की बातें हैं―जैसे इस तरह आटा गूंथो, फिर उस पर पानी डालकर उसको फूलने दो । जब आटा इतना गूंथ जायकि उसे यदि उठाया जाय तो थाली भी साथ में उठ जाय, इतना उसमें लोच आ जाय, फिर उसकी लोई बनाकर उसको बेलने से पसारा जाय । बेलने के द्वारा गोलगोल रोटी ऐसी सरकती जाय कि उसे हाथ से न पसारना पड़े । इस तरह रोटी बनाओ फिर उसको गरम तवे पर डाल दो । पहले पर्त को जल्दी पलट दो, दूसरी पर्त को देर तक धरी रहने दो, और उसे आग पर धरकर तुरंत अदल-बदल करते रहो, यदि वह रोटी कहीं फूट जायतो उसे चीमटे से पकड़कर दाब दो । यों रोटी बनाने की विधि चाहे किसी किताब में लिखी हो या कोई मुख से बता दे, वे शास्त्र रोटी के कहलाये और जो कोई पास पड़ोस का सिखाने वाला हो तो वह गुरु कहलाया तो देव, शास्त्र, गुरु बिना तो रोटी भी न बना पाये वे रोटी के देव, शास्त्र, गुरु हुए । जैसे संगीत सीखना है तो संगीत सीखने वाले की दृष्टि उस व्यक्ति पर होती है जो कोई बड़ा संगीतज्ञ हो, उसकी इच्छा होती कि मुझे तो ऐसा बनना है । इस प्रकार का भाव हो जाता है संगीत सीखने वाले के । वहतो हुआ संगीत का देव । और संगीत सिखाने के जो वचन हैं सा रे ग म प ध नी सा, सा नी ध प म ग रे । सा रे ग, रे ग म आदि, आदिक संगीत के जो सरगम बताये गए वे सब शास्त्र हुए और जब मोहल्ले में या पास पड़ोस में कोई सिखाने वाला मिल जाय तो वह उसका गुरु हुआ । तो देव, शास्त्र, गुरु का सहारा लिए बिना वह संगीत नहीं सीख सकता । वे तो संगीत के देव शास्त्र गुरु हैं ।
धर्मविकास के लिए आराध्य देव―यहां धर्म का विकास कोई देव, शास्त्र, गुरु का प्रसंग पाये बिना कर लेगा क्या? धर्म का देव कौन है? जहाँ धर्म पूर्ण विकसित हो गया, धर्म मायने आत्मा का स्वभाव, चैतन्य स्वरूप, सहज ज्ञान स्वभाव, उसका जहाँ विकास हो चुका ऐसा आत्मा । जिसको अरहंत कहो, सकल परमात्मा कहो, निकल परमात्मा कहो, जिसके प्रति यह बुद्धि जगती है कि मुझे तो ऐसा बनना है, वे धर्म के देव हुए । धर्म के शास्त्र, जिन उपायों से धर्म विकास होगा उन उपायों की जो चर्चा है, जो शास्त्र में उल्लेख है वे सब शास्त्र कहलाते, जैसे ग्रंथ पढ़ते हैं, उपदेश सुनते हैं, तो यह सब शास्त्र की उपासना कहलायी । कैसे अपने आपको पहिचानना, यह असाधारण गुण है, प्रत्येक पदार्थ के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव उसी में ही रहते हैं, किसी भी बात को समझाया गया, वे सब शास्त्र हुए । और गुरु कौन? जो अपने गांव में नगर में साधु मिले, त्यागी मिले, जिससे वीतरागता का पाठ मिले वह कहलाया गुरु । तो सम्यग्दृष्टि जीव कैसे देव, गुरु, धर्म को मानता है यह निर्णय उसके बराबर ठीक है । देव वह है जिसमें गुण पूर्ण प्रकट हों और दोष रंच न रहा हो । अब इस रूप में किसी भी संप्रदाय वाले को कहा कि भगवान वह कहलाता, ईश्वर या देव वह होता जिसमें आत्मा के गुण पूरे प्रकट हुए हों और दोष रंच भी न हो तो कोई मना करेगा क्या? नहीं । वहतो मान जायेगा । हां अब इस आधार पर समझियेगा । जो दूसरे की चिंता करे, जो साथ में स्त्री रखे, जिसके लड़के बच्चे हुए हो, ऐसा भगवान होता है क्या? भले ही गृहस्थावस्था में पहले सब कुछ था मगर भगवान की अवस्था में ये कोई दोष नहीं होते । तो जिनका चारित्र निर्दोष है, जिनके आत्मा में दोष न रहा और इसी कारण सर्वज्ञ है, समस्त गुण परिपूर्ण विकसित हुए हैं वह है देव, वह है हमारा आदर्श मुझे बनना है यह । देव की श्रद्धा सम्यग्दृष्टि जीव के यथार्थ रहती है ।
धर्म विकास के लिए आश्रेय धर्म और गुरु―धर्म क्या है? जो दया से परिपूर्ण हो । अपनी दया भले प्रकार बन रही हो जिन उपायों से वे उपाय धर्म के उपाय कहलाते है । अपनी दया क्या है? अपने आपको अविकार स्वभावरूप में प्रतीति में लेकर इस स्वभाव के अनुकूल अपने ज्ञान की वृत्ति बनाना यह है अपनी दया । जिन्होंने अपनी दया की है उनके निमित्त से, सत्संग से अनेक जीवों की दया पल जाती है, यह उसके नीचे की दया पलती है वह सब आपेक्षिक है । उत्कृष्ट दया यह ही है कि अपने यथार्थ स्वरूप को मानकर विकारभाव का वमन कर दे और अपने की नीरोग अविकार अनुभव करे यह है अपनी वास्तविक दया । तो ऐसी दया से परिपूर्ण जो बताया है वह धर्मपालन कहलाता है । गुरु कौन होता है? जो समस्त परिग्रहों से रहित हो । परिग्रह का संग ही क्लेश का कारण होता है, ऐसा निर्णय रखने वाला यह श्रावक परिग्रह रहित आत्मसाधक आत्मा को गुरु मानता है । तो जो सम्यग्दृष्टि है वह यथार्थ देव, शास्त्र और गुरु की प्रतीति रखता है ।
मिथ्यादृष्टिथों की कुदेव कुधर्म कुगुरु में देवत्व धर्मत्व व गुरुत्व की श्रद्धा―जो इसके विरुद्ध आत्मावों में, उपायों में, देव, शास्त्र और गुरु की श्रद्धा रखते हैं वे खोटी दृष्टि वाले हैं । जो दोष सहित को देव मानते वे कुदृष्टि वाले है । यदि कोई भक्त भगवान से यह आशा रखता है कि ये भगवान मेरा काम सम्हाल देंगे, मेरा मुकदमा जीता देंगे, मुझे धनिक बना देंगे, इस प्रकार की जो आस्था रखते हो वे खोटी दृष्टि वाले हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, उन्होंने भगवान को कुदेव बना डाला । कहीं वे भगवान कुदेव नहीं बन जाते, वे तो जो हैं सो ही हैं । किंतु इसने अपनी दृष्टि में यह मान्यता जो कर ली है । कि ये महावीर भगवान मेरे को धन संपन्न कर देंगे । उसने भगवान का स्वरूप नहीं जाना और कुदेव के रूप में उसने जिनेंद्र देव की मूर्ति को जाना । वहतो खोटी दृष्टि वाला है । जो खोटे रूप वाले को देव मानता है, फिर जिसके विषय में यह धारणा बनी है कि यह भगवान हैं, यह इनकी भगवती हैं, ये इनके पुत्र हैं और इनकी जो भक्ति करता उनको ये भगवान सुख देते और जो भक्ति नहीं करता उनको दुःख देते, ये नरक स्वर्ग में भेजते । ये अपने ठाठ से घर में रहते, ऐसे रूप में जो किसी को देव माने, शस्त्र से सज्जित अनेक विचित्र वेषभूषाओं में जो देव को मानता है वह कुदृष्टि है । क्योंकि उससे फायदा क्या मिला? आत्मा को समस्त संकटों से बंधनों से छूटकर निर्वाण पाना है, यही कल्याण है । इस निर्वाण की शिक्षा ऐसे दोष सहित आत्मा से क्या मिल सकेगी? वे खुद संसार सागर में अटपट गिर रहे हैं । उनके तिरने की क्या आशा करना? जो जीव हिंसा में धर्म मानता है बलि प्रथा यज्ञों में जीव होमना या देवी मानकर पशुपक्षियों के गले काटना आदिक करते हुए भी जो धर्म मानते हैं उनका बड़ा क्रूर हृदय है, मिथ्या आशय है । वे विशेष पाप का बंध करते है । धर्म के नाम पर हिंसा करना, इसमें बहुत विकट पापबंध होता है । पहले तो हिंसा में ही पाप है, फिर उसको धर्म मानकर करोंतो वह महापाप है । धर्म कैसे हो सकता? इसी प्रकार जो परिग्रह में आसक्त है वे गुरु नहीं हो सकते । कितने ही संन्यासी बाना धारी लोग बड़ा आरंभ करते हैं उनके बाग बगीचे है और खेती में दिलचस्पी है, फूल फुलवाड़ी आदिक का खुद प्रक्रम करते हैं और केवल भेषभूषा रखकर अपने को संन्यासी गुरु प्रसिद्ध करते हैं, तो वे जो करेंगे वह उनका आशय है मगर ऐसे जीवों को जो गुरु मानता है वह मिथ्यादृष्टि है, सम्यग्दृष्टि जीव अपने आत्मा के स्वभाव को जान चुका, इस कारण स्वभाव के ही नाते से देव, शास्त्र, गुरु का निर्णय उसके बना है और मोही सम्यग्दृष्टि जीव ने अपना आत्मस्वरूप नहीं समझा तो वह बाह्य बातों में देव, शास्त्र, गुरु की कल्पना करता है ।
सम्यग्दृष्टि का दृढ़ निर्णय―सम्यग्दृष्टि जीव भले प्रकार निर्णय किए हुए है कि इस जीव की परिणति इस जीव के परिणमन से होती है । निमित्तनैमित्तिक बंधन भी चल रहा है । जीव जैसे शुभ अशुभ भाव करता है उसके अनुरूप शुभ अशुभ कर्मो का बंध होता है, उन बद्ध कर्मो का जब विपाक खिलता है तो उसका निमित्त पाकर जीव में सुख दुःख होता है । इस जीव के सुख-दुःख का देने वाला कोई दूसरा जीव नहीं है, इस ही जीव के वेदनीय कर्म के उदय के अनुकूल साता और असाता की सामग्रियां मिलती हैं, धन वैभव संपदा को कोई दूसरा नहीं दे सकता । कोई अन्य जीव इस जीव का न उपकार रूप परिणमन कर सकता, न अपकार कर सकता । अपने ही कमाये हुए शुभ अशुभ कर्म के अनुसार अपनी दशा बीतती है, ऐसा निर्णय रखकर यह जीव किसी दूसरे जीव से अपने सुख की आशा नहीं रखता । वह अपने स्वभावदृष्टि से ही अपने में आनंद पाता है । अन्य देव, कुदेव, कितनी भी भक्ति से पूजे जायें व व्यंतर आदिक देव पूजे जाये, यदि वे लक्ष्मी संपदा आदिक को देते हैं तो एक तो साक्षात् कोई देते नहीं मान लो निमित्त बन जाये जैसे मनुष्यों की मनुष्य धन देते है यो व्यंतर देव भी कहीं से लाकर दे दें, पर खुद के पुण्य का उदय हो, खुद को धर्म साधन किया हो तो ऐसा योग जुड़ जाता है । तो मूल बात तो अपनी पुण्यबंध हेतु भूत धर्मसाधना है । यदि यह धर्मसाधना और पुण्य अपनी गांठ में है तो अनेक लोग बाह्य कारण बन जायेंगे इस जीव के लौकिक सुख के लिए । यदि पाप का उदय है तो कुटुंबीजन भी इसके शत्रु बन जायेंगे । अनेक घरों में देखते ही हैं कि परस्पर में लोग एक दूसरे को दुःखी करते रहते हैं, तो वह उनके पाप का उदय है । तो अपने किए हुए शुभ अशुभ कर्म के अनुसार ही अपने पर बात बीतती है । ऐसा जानता है ज्ञानी, इस कारण किसी दूसरे से कुछ मुझे मिलता है, वह कुछ देता है इस आशा के त्यागने से वह अपने में प्रसन्नता का अनुभव करता है । ऐसे सम्यग्दर्शन से युक्त ज्ञानी जब निरतिचार मूल गुण का पालन करता है तो उसे कहते हैं प्रथम प्रतिमाधारी श्रावक ।
भविष्य की विधेयता व ज्ञेयता―सम्यग्दृष्टि जीव को आत्मस्वरूप के बारे में स्पष्ट निर्णय है―‘यह हूँ मैं अमूर्त ज्ञानमात्र’, जिसका स्वभाव है कि जगत में जितने भी त्रैकालिक वस्तु हैं उन सबको स्पष्ट झल का लेना और जब सब पदार्थ स्पष्ट झलक गए तब यह कहा जा सकता है कि जो बात जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से होना जिनेंद्र देव ने किया है वह सब बात उस देश में, उस काल में, उस विधान से ही होगी । उसका निवारण लिए न इंद्र समर्थ है, न कोई समर्थ है । यहाँ यह बात मुख्यता से जानना कि जो बात जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जिस योग में होनी होती है उसे प्रभु ने जाना है, प्रभु के ज्ञान के विषयभूत हैं समस्त पदार्थ, इस कारण से ज्ञान के होने में विषय रूप से कारण हैं ये पदार्थ और कार्य है ज्ञान । यद्यपि प्रत्येक वस्तु में स्वतंत्र अस्तित्व है और स्वतंत्रता से खुद का ही खुद में परिणमन होता है फिर भी विषय-विषयी के रूप से देखा जायतो विषयरूप से कारण है समस्त सत् और विषयीरूप से कार्य है प्रभु का ज्ञान । तब यह कहना होगा कि जिस विधान से जो कुछ होता है वही भगवान ने जाना है, अन्य प्रकार नहीं जाना । अब इसे कोई गौण करके और इसकी मुख्यता दे जो भगवान ने जाना है वही होगा, अन्य कुछ न होगा । (यद्यपि ज्ञप्ति की ओर से ऐसा निर्णय पूर्वक कहा जायगा), तो कारण कार्य के रूप से यह बात रंच भी नहीं कही जा सकती कि भगवान का ज्ञान कारण है और पदार्थो का इस प्रकार परिणमन होना कार्य है । यद्यपि बात ऐसी है कि भगवान ने जाना सब और अब कह सकते कि जो जाना सो ही होगा किंतु इसको ज्ञप्ति रूप से ही कहा जायगा, उत्पत्ति रूप से न कहा जायगा । उत्पत्ति रूप से तो यह कहा जायगा कि जैसा जिस विधान से जो कुछ होना है होता है और उसे भगवान ने जाना है, विषय किया है । पदार्थ सब स्वतंत्र है, न पदार्थ के परिणमन ने प्रभु का ज्ञान बनाया, न प्रभु के ज्ञान ने पदार्थ का परिणमन बनाया फिर भी विषय विषयीरूप कारण कार्य की दृष्टि से कहा जायगा, यों कि जो होगा वही भगवान ने जाना अन्य कुछ नहीं जाना । ज्ञप्ति की ओर से कहा जायगा कि जो प्रभु ने जाना सो ही होगा । इन दो प्रकार के विवेचनों में निमित्त नैमित्तिक भाव और वस्तु स्वातंत्र्य दोनों का एक साथ होना अविरुद्ध है यह बात जानना चाहिए ।
द्रव्य और समस्त पर्यायों को सम्यग्दृष्टि के यथार्थ निश्चय―सम्यग्दृष्टि जीव कैसी श्रद्धा रखता है, कैसा निर्णय रखता है जिसे के कारण वह निराकुल है और दर्शन प्रतिमा धारण करने का पात्र है । जो पुरुष यथार्थ तत्त्व को जानता है प्रत्येक द्रव्य अखंड सत् पदार्थ हैं और चूँकि वे द्रव्य हैं इस कारण निरंतर परिणमन करते रहते है । वस्तु अखंड है, एक है, प्रत्येक एक है और उसका परिणमन जो भी है वह भी अखंड है । अखंड परिणमन को हम किस रूप से किन शब्दों में लोगों को बतावें या कोई गुरुजन हमें बताये । कैसे बता सकते हैं? तो अखंड परिणमन को समझाने के लिए उसके शक्ति भेद करके, गुणभेद कर के इन गुणों की ये पर्यायें हैं, इस प्रकार समझाया जाता हैं । प्रत्येक पदार्थ अखंड है, उसका परिणमन प्रति समय अखंड है । यह तो वस्तु स्वातंत्र्य है और जितना विभाव परिणमन है जीव और पुद्गल का वह उपाधि का सन्निधान पाकर होता है यह है निमित्त नैमित्तिक भाव । सो उसके जो सुख होता, दुःख होता, शुभ अशुभभाव होते उनका निमित्त कारण कर्मदशा है । ये बाहरी पदार्थ ये मेरे परिणमन के कारण नहीं है, विभाव भी कर्मोदय का निमित्त पाकर होने वाले भाव है । यदि उपयोग बाह्य पदार्थो का आश्रय करे तो विकार व्यक्त हो जाता है, इस कारण किसी भी बाह्य पदार्थ से मेरे को कष्ट नहीं है । किसी भी जीव के किसी प्रकार के व्यवहार से मेरे को कष्ट नहीं है । कोई कैसा ही व्यवहार करे, आप पर का ममत्व छोड़ दो, कष्ट का रंच अनुभव न होगा । जो कष्ट हो रहा है, वह ममता का कष्ट हो रहा है न कि दूसरे जीवों की क्रियावों का कष्ट हो रहा है । जो इस प्रकार से तत्त्व को जानता है वह है सम्यग्दृष्टि और जो इसमें शंका रखता है वह है मिथ्यादृष्टि ।
विशेष तत्त्वज्ञान के अभाव में भी सहजात्मस्वरूप की, आस्था से सम्यक्त्व का अधिकार―कोई पुरुष ऐसे भी होते हैं कि जो तत्त्व को ऐसी गहराई से नहीं जानते, सिर्फ इतना समझते हैं कि प्रभु अरहंत देव सर्वज्ञ हैं और निर्दोष हैं, इस आधार पर यह निर्णय रखते हैं भव्यजन कि प्रभु ने जो कहा है सो यथार्थ है । क्या कहा है, कैसा कहा है, उसकी सिद्धि की क्या युक्ति है, इन बातों में नहीं पड़ता है कोई, तो इतनी ही श्रद्धा से कि जो कुछ प्रभु ने कहा उस सबका मैं आदर करता हूँ, और उसके प्रति सही है यह ऐसा निर्णय रखता हूँ, ऐसा भाव, ऐसा आदर बनाने वाला पुरुष भी सम्यग्दृष्टि हो सकता है । यह तो मनुष्यों की बात है । पशुपक्षी मेंढक मछली ये कहां 7 तत्वों के नाम जानते और कहां अरहंत जिनेंद्र का नाम जानते? पर भीतर में प्रकाश सब है । अपने स्वरूप को निहारकर, ऐसा कहीं व्यक्त परिणमन है कि यही मैं हूँ और इस स्वरूप की दृष्टि किये जावो―यह ही मोक्ष मार्ग में बढ़ने का उपाय है । इस तथ्य को वे जानते हैं, पर वे इन शब्दों से भी नहीं जानते । जैसे कोई पुरुष एक नई चीज देखे, तो दिख तो पूरी जायगी और उसका वे नाम तक भी नहीं जानते । ऐसे ही इन पशुपक्षियों को दिख तो पूरा जायगा, जो प्रयोजन भूत तथ्य है वह ज्ञान में तो पूर्ण आ गया मगर उसका नाम जानना या व्यवहार करना, दूसरों को समझाना, यह कुछ नहीं है, पर मनुष्य तो उनसे भी बढ़कर हैं । वे इतना समझते हैं, कि प्रभु निर्दोष है, वीतराग हैं, और उन्होंने जो कहा है वह सब सही है मैं उसका आदर करता हूँ, ऐसी आस्था वाला भी सम्यग्दृष्टि जीव है ।
सम्यक्त्व की महारत्नरूपता―जिस सम्यग्दर्शन से युक्त होकर यह भव्य जीव अणुव्रत का पात्र होता है वह सम्यक्त्व रत्न रत्नों में महारत्न है । रत्न नाम पत्थर का नहीं है, जैसे कि सफेद पीले-नीले लाल मणियों का रत्न का व्यवहार करते हैं । रत्न का अर्थ है जो जिस जाति में श्रेष्ठ है वह उस जाति में रत्न है, जैसे कोई किसी को पदवी देता है कि यह जैनरत्न है तो उसका अर्थ यह नहीं है कि वह जैन पत्थर है, किंतु उसका अर्थ है कि जैन समाज में यह श्रेष्ठ है । ऐसी कितनी ही घटनायें है कि जिन शब्दों का सही अर्थ न जानने से उपमा रूप में अर्थ समझ लेते हैं । कुछ लोग जैन रत्न का क्या अर्थ समझते है कि ये रत्न की तरह ऊंचे जन हैं, पर इस तरह लगाने की भी जरूरत नहीं । लौकिकजनों की दृष्टि में नहीं है रत्न का सही अर्थ । सीधा अर्थ है जैनों में श्रेष्ठ । जैसे एक सिंहासन शब्द है, लोग प्राय: कहते हैं कि सिंहासन बनवावो और उसके चार पाये शेर की तरह बनवा दो तो शेर कहलायगा और तख्त, चौकी की भांति सीधे पाये बना दिया तो कहते हैं कि यह क्या बना दिया यह अपना सिंहासन ? शब्द में सिंह का अर्थ सिंह नहीं है किंतु सिंह का अर्थ है श्रेष्ठ । सिंहासन का अर्थ है श्रेष्ठ आसन । आप कैसे ही आकार में बनावें शेर का पंजा बनाने की जरूरत नहीं है । शोभित होना चाहिए वही कहलाता है सिंहासन, ऐसे ही रत्न मायने श्रेष्ठ । समस्त रत्नों में महारत्न है सम्यग्दर्शन ।
योगों में उत्तम योग ऋद्धियों में उत्तम ऋद्धि सिद्धियों में उत्तमसिद्धि सम्यग्दर्शन―यह सम्यग्दर्शन समस्त योगों में उत्तम योग है । जितने पौरुष है, प्रयत्न हैं उन सबमें सर्वोपरि प्रयत्न है तो वह है सम्यग्दर्शन । जगत की जितनी भी ऋद्धियां हैं, ऋद्धि, सिद्धि, समृद्धि, सुख साता, यश को जो बढ़ाने वाली ऋद्धियां हैं उन ऋद्धियों में महाऋद्धि है सम्यग्दर्शन । लोग चमत्कार पर अधिक जाते हैं । किसी का कुछ चमत्कार सुना, हो भी चमत्कार अथवा न भी हो, अनेक चमत्कार तो माया से भी होते । जैसे इस तरह का कुर्ता बना लेना कि उसमें बारीक राख धर लेना और फिर हाथ छिड़कना उसमें राख निकलेगी तो लोग कहेंगे कि यह बाबा बहुत ऊंचे हैं, इनके हाथ से भभूत निकलती है, ऐसा चमत्कार । लोग चमत्कार पर आकर्षित होते हैं मगर सबसे ऊंचा चमत्कार है सम्यग्दर्शन, जिसके होने पर तुरंत भी आकुलता नहीं रहती और उसके प्रसाद से यह जीव सर्वसंकटों से मुक्त हो जाता है । सम्यग्दर्शन से बढ़कर कोई चमत्कार हो सकता है क्या? ऊपर चमकीले चमत्कार पर रंच भी आकर्षित न होना, किंतु जब दृष्टि अपने आपके सहज स्वरूप में लगी तो वह है ऐसा अद्भुत चमत्कार जिसके प्रसाद से 64 प्रकार की ऋद्धियां उत्पन्न हो जाती है । तपश्चरण भी थोड़ा चाहिए पर उस कोरे तपश्चरण से ऋद्धियां पैदा नहीं होतीं । सम्यग्दर्शन सहित तपश्चरण हो, वह ऋद्धियों को उत्पन्न करता है तो समस्त ऋद्धियों में महान् ऋद्धि है सम्यग्दर्शन और जितनी भी सिद्धियां हैं उन सबको करने वाला है सम्यग्दर्शन । ऐसे सम्यग्दर्शन से संपन्न भव्य जीव दर्शन प्रतिमा का अधिकारी होता है ।
सम्यग्दृष्टि की देवेंद्र नरेंद्रवंदितता―सम्यक्त्व चमत्कार जहाँ प्रकट हुआ है वह देवेंद्र, नरेंद्र, मुनींद्र आदिक के द्वारा आदरणीय है । सम्यक्त्व के साथ चारित्र है तो मुनींद्रों के द्वारा भी वंदनीक है । सम्यक्त्व के साथ चारित्र हो अथवा न हो तो भी वह देवेंद्र नरेंद्रों के द्वारा आदरणीय है । सम्यक्त्व की ऐसी महिमा है कि व्रत नहीं भी है और सम्यग्दर्शन है तो उस सम्यक्त्व के प्रताप से वह स्वर्ग के उत्तम सुखों को प्राप्त कर ही लेता है ।
(1, 2) सम्यग्दृष्टि की निःशंकितता व निःकांक्षितता―सम्यक्त्व के 8 अंग होते हैं वे 8 अंग आभ्यंतर में तो निश्चयरूप से बर्तते हैं और बाह्य में ये बहिरंग रूप से बर्तते हैं । अपने आत्मा के सहज स्वरूप में शंका न होना, और शंका नहीं है इसी कारण से सप्तभय न होना यह आभ्यंतर समृद्धि है । इस समृद्धि के प्रताप से जिन भव्य आत्मावों ने परमात्मपद पाया है उनसे जो उपदेश प्राप्त होता है वह निःसंदेह उत्तम है, निर्दोष है, यथार्थ है, इस प्रकार की आस्था होना यह नि:शंकित अंग है । सम्यग्दृष्टि जीव अन्य बातों को रंच भी नहीं चाहता है मूल में । यो तो सम्यग्दृष्टि पुरुष को भूख लग जायतो रोटी खाना तो चाहता है, चाह हुए बिना रसोईघर में कैसे पहुंचेगा? पर यह परिस्थितिवश चाह है, मौलिक चाह नहीं है । मौलिक अभिलाषा तो सम्यग्दृष्टि की यह है कि मैं सहज ज्ञानस्वरूप में उपयुक्त हो जाऊं, मग्न हो जाऊं, यह ही मूल में श्रद्धा है और यह भावना निरंतर है । परिस्थितिवश जो चाह होती है वह चाह निरंतर नहीं रहती । भूख लगी, खा लिया, पेट भर गया, उसके बाद भी क्या वह भोजन चाहता है? पर आत्मस्वरूप में मग्न होने की उसके 24 घंटे भावना रहती है, इस कारण कहा जाता है कि सम्यग्दृष्टि जीव नि:कांक्षित है । तो यहाँ भी परिस्थितिवश भोजन चाहेगा, दुकान करना चाहेगा, आमदनी चाहेगा, लेकिन धर्मधारण कर धर्म के एवज में कभी कुछ न चाहेगा । परिस्थितिवश इच्छा हो गई मगर धर्मपालन के एवज में कभी लौकिक सुख की भावना न जगेगी । जैसे मैं अमुक तीर्थ की वंदना करूं और मेरे को ऐसा लाभ हो, यह सम्यग्दृष्टि की भावना कभी नहीं हो सकती । दुःख चाहे कितना ही आ जाय वहतो समता से दुःख सहने का पौरुष करेगा । मैं अमुक तीर्थ पर वंदना कर आऊं तो मेरा अमुक दुःख टल जाय, यह भावना सम्यग्दृष्टि के कभी नहीं रहती । वह निःकांक्षित है ।
(3, 4) ज्ञानी पुरुष की निर्विचिकित्सतता व अमूढ़दृष्टिता―ज्ञानी पुरुष अपने पर आ पड़े हुए दुःख में अपने को ग्लान नहीं बनाता । क्या करूं बड़ी कठिन घटना आयी है, पता नहीं अब क्या होगा, ऐसी दुःखों में ग्लानता सम्यग्दृष्टि जीव के नहीं होती । कहते हैं ना क्यों ग्लान मन हो गया? दुःख को सहन करने की ज्ञानी जीव में अद्भुत शक्ति है । सो ऐसी शक्ति का अंदाज करके लौकिकजन तो आश्चर्य करते है, पर वहाँ आश्चर्य की कुछ बात नहीं, क्योंकि जिसने अविकार आत्मस्वभाव का परिचय किया है उसको ऐसा सहन कर लेना बिल्कुल आसान बात है । कोई मुझ आत्मा को पीट तो नहीं रहा । इस अमूर्त आत्मा में किसी पर का प्रवेश ही नहीं है, कष्ट की क्या बात है? हां ज्ञानी पुरुष यदि रोये, दुःख माने, तड़फे, विह्वल हो तो यह आश्चर्य की बात है, पर ज्ञानी समता से रहे, सुख दुःख में समान बुद्धि रहे और अपने अभिमुख रहे तो यह कठिन काम नहीं है, यह आसान काम है । किंतु इस आसान कामों को भी लौकिक पुरुष जब न कर स के तो उन्हें आश्चर्य दिख रहा । भगवान हो जाना, निर्दोष सर्वज्ञ हो जाना यह आसान काम है, और दुःख मानना पर पदार्थो का संग्रह करना यह बड़ा मुश्किल है । सकल परमात्मा हो जाना यह आसान इस कारण है कि इसमें किसी दूसरे से मिन्नत करने की जरूरत नहीं रहती । खुद हैं, खुद ने खुद को जान लिया और यह खुद-खुद हीं के पास उपयोग द्वारा रह रहा है, ऐसे काम में क्या कठिनाई आनी चाहिए? कठिनाई तो इस काम में है जो दुकान चलाते हैं, आमदनी होती है, कुटुंब का पोषण करते हैं, कुटुंब से रुचि रखते हैं । यह काम बड़ा कठिन हैं, क्योंकि इसमें पराधीनता बहुत है, यह खुद के अधिकार की बात तो नहीं है । ये सब काम कठिन हैं पर खुद-खुद में रम जाय, यह काम बहुत आसान है, पर कोई कठिन को तो आसान मानता तो उसके लिए यह आत्मा का आसान काम कठिन हो जाता, असंभव हो जाता । सम्यक्त्व गुण का ऐसा प्रसाद है कि यह स्वयं को स्वाधीन काम है, यह सब उसके लिए स्पष्ट और आसान काम हो जाता है । तो आभ्यंतर में यह ज्ञानी जीव अपने दुःख आदिक परिणतियों में रंच भी ग्लानि नहीं रखता मायने क्रोध नहीं करता और बाह्य में जो रत्नत्रयधारी साधुजन है उनकी सेवा में रहता हुआ रंच भी अशुचित शरीर को देखकर या उनके मलमूत्र निकलता हुआ रुग्ण है, उससे भी ग्लानि नहीं करता । एक मां को बच्चे से ममता होती है तो बच्चे की टट्टी उठाने में, नाक पोछने में मां कभी ग्लानि तो नहीं करती, क्योंकि उसका कारण है प्रेम, ममता । परंतु मां की ममता शुद्ध ममता नहीं है । वह विकार अज्ञान मोह, आशा के बल पर ममता है । उससे मेरा कुल चलेगा, यह बुढ़ापे में मेरी सेवा करेगा, ऐसी कितनी ही आशायें लगी होती हैं, उनसे मिलकर ममता बनती है । किंतु धर्मात्मा पुरुषों को धर्मात्मा के प्रति शुद्ध वात्सल्य है । तो ऐसे मौलिक प्रयोजन से अनुराग करने वाले धर्मात्माजनों की सेवा करने में रंच भी ग्लानि नहीं आती है । दृष्टि उसकी रत्नत्रय गुणों पर है । ये सम्यग्दृष्टि के पूर्ण विकास की बातें बतलायी जा रही हैं । जिसे आत्मप्रकाश मिला उसके कारण यह लौकिक चमत्कारी में मुग्ध नहीं होता । कोई ढोंगी पुरुष अपने को देव जैसे ढांचे में प्रकाशित करे पर ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष उसमें मुग्ध नहीं होता । वहतो वीतराग सर्वज्ञ को देव मानेगा, और ऐसे ही उपायों को वह शास्त्र मानेगा । तो ऐसा अद्भुत विकास से युक्त पुरुष दर्शन प्रतिमा का पात्र है ।
(5) सम्यग्दृष्टि का उपवृंहण संबंधित प्रयोग―मोक्ष पुरुषार्थ का पुरुषार्थी जो अभी पहली प्रतिमा को धारण कर रहा है उसका आशय कैसा होता है इसका निरूपण यहाँ चल रहा है, वह होता है सम्यग्दर्शन संपन्न । और इस सम्यक्त्व की विशेषता के कारण उसमें गुणों का विकास होता है जिसमें सम्यक्त्व के कुछ अंगों का वर्णन किया । सम्यग्दृष्टि में उपवृंहण की भी प्रकृति होती है । उत्तम, क्षमा, मार्दव, सरल रहना, तृष्णा न रहना, अपने इंद्रिय का संयम रखना, सत्य व्यवहार करना, लौकिक आकांक्षायें न होना, दान में बुद्धि रहना, त्याग की प्रकृति रहना, अपने स्वरूप को मैं सबसे निराला अमूर्त ज्ञानमात्र हूँ इस प्रकार निरखना और अपने ही स्वरूप में मग्न होने का पौरुष होना यह सब गुण और इसका यथाशक्ति प्रयोग सम्यग्दृष्टि पुरुष में होने लगता है और इसी से ही अपने आत्मा के धर्म की वृद्धि होती है और इसी प्रयोग को निरखकर दूसरे जन भी अपने धर्म में सावधान होते है । साथ ही अपने किसी साधर्मी पुरुष में कोई कदाचित् अज्ञान से, आसक्ति से दोष हो जायतो उस दोष को वे यत्रतत्र प्रकट नहीं करते, क्योंकि उसमें धर्म तीर्थ की ओर से लोगों की श्रद्धा हट सकती है, ऐसी स्वभावत: परिणति होती है सम्यग्दृष्टि जीव की ।
(6, 7, 8) सम्यग्दृष्टि का स्थितिकरण, वात्सल्य व प्रभावना से संबंधित प्रयोग―कभी यह ज्ञानी क्रोध, मान, माया, लोभ के वश होकर उस धर्म से खुद गिरे तो थोड़ी देर में अपने को संबोधन करके अपनी सम्हाल कर लेता है और दूसरे लोग धर्म से च्युत हो तो उन्हें भी इस तरह प्रतिबोधता है कि वह भी धर्म में शामिल हो जाय । ज्ञानी जीव को अपने साधर्मीजनों से विशिष्ट अनुराग रहता है । उसके लिए कुटुंबीजनों का इतना महत्त्व नहीं है पर अपने साधर्मीजनों का उसके दिल में बहुत महत्त्व है । जिसने संसार संकटों से छूटकर मोक्षपथ में अपने को लगाया है उसका प्रिय क्या होगा? तो मोक्षमार्ग में चलने वाले लोग प्रिय होंगे, दूसरा कोई प्रिय नहीं हो सकता । और इसी कारण साधर्मीजनों में उनका अपूर्व वात्सल्य रहता है । जैन शासन में सदैव अनुराग रहता है । जगत में सार एक ज्ञानविकास के अन्य कुछ नहीं है । जैसे गौ बछड़े से प्रीति रखती है उसी प्रकार निष्कपट अकृत्रिम स्नेह रहता है साधर्मीजनों में । धन्य है वह स्वच्छता, परिणामों की निर्मलता कि जिसके होने पर राग का काम करें तो ऐसा साधर्मी जनों में अनुराग का काम करता है । सम्यग्दृष्टि जीव के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यक्त्रय की वृत्ति से जैन शासन की प्रभावना होती रहती है । और अपने आत्मा में गुणों का विकास होता रहता है ।
वास्तविक धर्मप्रभावना―ज्ञान का प्रसार करके जैन शासन का उद्योत करना यह है वास्तविक प्रभावना । लोग जैन धर्म की प्रभावना के लिए बहुत आडंबर करते हैं । समारोह, रथयात्रा या अनेक बड़े-बड़े मंदिर बनाते, सब कुछ करते हैं लेकिन ज्ञान सार की कोई योजना न हो और ज्ञानप्रसार का कोई भी कार्यक्रम न हो तो वह सब प्रभावना में नहीं माना गया । इस बात को समंतभद्राचार्य ने प्रभावना अंग का स्वरूप बताते हुए बहुत स्पष्ट किया है । ‘‘अज्ञानतिमिरख्याप्तिमपाकृत्य यथायथं, जिनशासनमाहात्म्यप्रकाश: स्यात् प्रभावना’’ अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर के फिर अपनी शक्तिमाफिक जैन शासन के माहात्म्य का प्रकाश करना प्रभावना है । किसलिए बड़े जलसा धार्मिक समारोह चलना चाहिए? इसलिए चलना चाहिए कि धर्म की व्याख्या एकत्रित जनता को बतायी जाय और जनता को सम्यक्त्व का मार्ग मिले । यह बात अगर बनती है इसकी योजना है कार्यक्रम में तो वह प्रभावना का रूप रखता है, अन्यथा प्रभावना के बजाय विडंबना और विपत्तियां होती हैं । लोग यह जानने लगते हैं कि इस शासन के मानने वाले बहुत बड़े धनाड्य होते हैं । चांदी सोने का बड़ा सामान निकाला, लोगों ने देखा तो लोग फिर ईर्ष्या करने लगते हैं, विरोधी बन जाते हैं ऐसी घटनायें अनेक जगह हुई हैं और उपद्रव किया गया है । यदि साथ ही जैन शासन के सिद्धांतों को बताया जाता आम पब्लिक को, लोग इसके निष्पाप और महत्वशाली विवेचन की सुनते तो जनता कह उठती कि धन्य है यह जैनशासन । इस जैनशासन के पालन बिना हमारा गुजारा नहीं हो सकता, शांति प्राप्त नहीं हो सकती, यह बात जनता के चित्त में बैठ जाय तो वह प्रभावना होती और उसका सहयोग मिलता, इस कारण मूल बात है जैन शासन की प्रभावना में कि जैन तत्वज्ञान का प्रसार करना, इस प्रकार की वृत्ति ज्ञानी पुरुष की होती है ।
सम्यग्दृष्टि पुरुष का संवेग निर्वेद निंदागर्हा उपशम भक्ति अनुकंपा से संबंधित प्रयोग―ज्ञानी पुरुष में स्वभावत: धर्म में अनुराग होता है इसी कारण संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य होता है । वह सतत् अपनी निंदा करता है । जैसे जो धन का चाहने वाला पुरुष है, जिसके धन में तृष्णा लगी है वह कितना ही लखपति हो जाय फिर भी वह अपनी कमी को देखता है । अभी तो बहुत कमी है, गुजारा भी मुश्किल है । इस तरह का अनुभव करता है धन की तृष्णा वाला और जो धन जुड़ा है उस पर दृष्टि नहीं जाती कि यह अनुभव कर सके कि मेरे पास तो बहुत धन है । ऐसे ही जिसको धर्म की तृष्णा लगती है उसमें कितना ही गुणविकास हो जाय, वह अपने गुण विकास की दृष्टि नहीं रखता, मेरे में इतना हो गया महत्त्व, इतना विकास हो गया, बल्कि जो त्रुटियां हैं, जितनी कमी हैं याने कषाय जगती है उस पर उसकी निगाह होती है और वह अपनी निंदा करता रहता है, और इतना ही नहीं, गुरु के समक्ष भी अपनी निंदा करता है । सम्यग्दृष्टि के क्षमा परिणाम रहता है । कोई तत्काल अपराध करे तो उसको क्षमा रखता है । पहले अपराध किया हो तो क्षमा रखता है और आगे भी क्षमाशील रहता है । जिसने वस्तु स्वरूप का ज्ञान किया उसमें यह विवेक रहता है कि यदि दूसरे पुरुष ने गाली दे दी या निंदा कर दी तो क्या हुआ? वे भाषा वर्गणा के वचन थे । उसके उस प्रकार की कषाय थी, उससे उसकी भी प्रवृत्ति बनी, ये सब कार्य वहाँ ही तो हुए, मेरे अमूर्त ज्ञानमात्र आत्मा में क्या आया? वह क्षमाशील रहता है । देखिये―जब कोई किसी संकट में फंस जाता है मानो किसी सांप्रदायिक दंगे में वह फंस गया, वहाँ से गुजर रहा तो वह प्रत्येक बात को समता से सहन करता हुआ वहाँ किसी को कुछ उत्तर नहीं देता है । बड़ी कुशलता से उस क्षेत्र से निकल जाता है । ऐसे ही जहाँ संसार के अनेक संकट छाये हुए हैं, विचित्र कर्मबंध कषायवान लोगों का समागम, शारीरिक अनेक व्याधियां, अनेक प्रकार के जहाँ कष्ट हैं ऐसे इन दंगों में फंसा हुआ है यह जीव तो यह तो बड़ी कुशलता से सब को क्षमा करता हुआ सारी बातों को समता से सहता हुआ अपने आप में अपने बल को बढ़ाता हुआ वह इस संसार झंझटों से निकलना चाह रहा है । वह क्या दूसरे पर विरोध करेगा या द्वेष करेगा या गड़बड़ कार्य बनायगा । सम्यग्दृष्टि जीव के रत्नत्रय के धारी पुरुषों में और रत्नत्रय धर्म में भक्ति होती है, इनके प्रसाद से पार होऊंगा । पार होऊंगा तो इस निज निश्चय रत्नत्रय धर्म के प्रसाद से पार होऊंगा । सहजस्वरूप की भक्ति ही संसार शरीर भोगों से विरक्त रहने का कारण है । इस ज्ञानी पुरुष ने समस्त जीवों को अपने स्वरूप के समान निरखा है, परमात्मा के स्वरूप के समान देखा है । इस कारण सर्व प्राणियों में इसके दया का परिणाम रहता है । सो भी स्वदया के लिए पर दया और स्वदया का ज्ञानी पुरुष के लिए एक ही लक्ष्य है कि विषय कषाय मोह जाल से छूटकर निर्मोह अवस्था में पहुँचूँ यह ही भावना दूसरों के लिए है, यह ही भावना स्वयं के लिए है यह ज्ञानी पुरुष अपने साधर्मीजनों में वात्सल्य रखता हुआ धर्म के विकास के लिए प्रयत्नशील रहता है ।
सम्यग्दृष्टि का निर्दोष प्रवर्तन―सम्यग्दृष्टि पुरुष के चित्त में किसी भी प्रकार की शंका नहीं है । श्री जिनेंद्र देव ने उपदेश किया है वह यथार्थ है, वस्तु के अनुरूप है, ऐसा उसका दृढ़ निर्णय है । परिग्रह सहित मुनि भी मोक्ष जाता है या परिग्रह कपड़ा ओढ़ लिया तो क्या हुआ, भावों में भीतर निर्मलता जगे तो गृहस्थ भी मोक्ष जा सकता है, इस प्रकार को संशय इस ज्ञानी पुरुष के चित्त में नहीं रहता । उसका एक ही निर्णय है कि बाह्य और आभ्यंतर समस्त परिग्रहों से रहित पुरुष ही मोक्ष जा सकता है । ज्ञानी के चित्त में कभी कोई शंका नहीं । किसी प्रकार का आत्मस्वरूप में भय नहीं रहता । ज्ञानी पुरुष न इस लोक में किसी पदार्थ की वांछा रखता है, यह शरीर को अशुचि जानकर और आत्मा को शुचि जानकर यह बाह्य पदार्थो से हटकर निज आत्मस्वरूप में अपनी गति बनाता है और इसी कारण उसके कोई ग्लानि का परिणाम नहीं होता, दुःखी होने का परिणाम नहीं हैं । यह रत्नत्रय के विरुद्ध चलने वाले व धर्म के नाम पर अपने को गुरुदेव बताने वाले के प्रति कभी श्रद्धा नहीं जगती, न मन से उसके प्रति प्रशंसा का भाव रहता, किंतु यह ही निर्णय रहता है कि मोक्षमार्ग यह नहीं है । मोक्षमार्ग तो यह निश्चय रत्नत्रय भाव है और इसी कारण किसी भी मिथ्यादृष्टि देव गुरु रूप में प्रसिद्ध करने वाले जीव का प्रशंसा स्तवन का भाव नहीं रहता । ऐसा यह सम्यग्दृष्टि जीव दर्शन प्रतिमा धारण करने का पात्र होता है ।
धर्मतीर्थ को निर्दोष रखने का प्रयत्न―अब देखिये पहली प्रतिमा का व्रत लेने के लिए ही कितनी तैयारी चाहिए आत्मा की, फिर जो देखा देखी या किसी कारण से श्रावक के ऊंचे व्रत या मुनि के व्रत धारण कर लेता है तो भले ही अज्ञानी जनता उनका आदर करे दोष समझते हुए भी या न समझते हुए, जैन शासन को कलंकित करने का ही प्रयत्न है श्रावक का भी और उन व्रत धारण करने वालों का भी । यह कलंक आज न विकसित हो तो कुछ समय बाद विकसित होगा अतएव जैन शासन को अत्यंत पवित्र रखने के लिए श्रावक का यह कर्त्तव्य है जो शुद्ध वृत्ति से या उत्तम श्रावक की वृत्ति में रहना चाहता है वह यदि किसी मुनि दीक्षा के योग्य समझें तो समर्थन करें और दीक्षा योग्य न समझें तो वहाँ बराबर विरोध करें किं यह दीक्षा के योग्य नहीं है और हम इसमें शामिल नहीं हो सकते । एक बड़े विवेक की बात है, धर्म का प्रभाव होना मुनिधर्म होकर श्रावक धर्म दोनों को मानने वाले के आधार पर है ।
ज्ञानी जीव के इहलोकभय, परलोकभय, अरक्षाभय व अगुप्तिभय का अभाव―देखिये कितनी बड़ी तैयारी है, दार्शनिक श्रावक होने के लिए । मुझ आत्मा में इस लोक का भय नहीं है कि क्या होगा मेरे जीवन में, कैसे कटेगी जिंदगी? ज्ञानी को परलोक का भी भय नहीं है कि परलोक में मैं क्या बनूंगा । ये दोनों भय इस कारण से नहीं है ज्ञानी में कि उसने अपने को अमूर्त ज्ञानमात्रस्वरूप देखा और जाना कि इसमें भय का तो कोई काम ही नहीं है । जैसे अमूर्त आकाश है तो इसमें किसी दूसरे के द्वारा उपद्रव हो सकता क्या? ऐसे ही अमूर्त यह ज्ञानमात्र मैं आत्मा हूँ, मेरे स्वरूप में किसी दूसरे के द्वारा कोई उपद्रव हो सकता क्या? ज्ञानी के रंच भी भय नहीं हैं कि मेरी कौन पुरुष रक्षा करेगा? मैं बड़ा अरक्षित हूँ । ऐसा अरक्षा का भी भाव ज्ञानी पुरुष में हीं होता । वह जानता है कि मेरे को दूसरे से रक्षा की क्या जरूरत? मैं स्वयं आत्मा जब मैं सत् हूं तो अपने आप सुरक्षित हूँ । किसी सत् का विघात नहीं होता । रही जीवन के गुजारे की बात तो जिस जीव में इतना ज्ञान है उसके इतना पुण्य तो है ही कि उसके जीवन का निर्वाह अनायास चलता रहेगा । वह अरक्षा का भय चित्त में नहीं लाता । मेरी रक्षा के साधन अच्छे नहीं हैं । अच्छा घर नहीं, मजबूत किवाड़ नहीं, कैसे सुरक्षा रहेगी, ऐसी कल्पना ज्ञानी जीव के नहीं होती । जो है सो है । लोग तो व्यर्थ ही तृष्णा के भाव को बढ़ाते हैं । तृष्णा बढ़ाते जाइये उसके संपदा की घटती तो आ सकती है मगर बढ़ती नहीं आ सकती, क्योंकि तृष्णा स्वयं एक पाप है । तो उस पाप को रखते हुए उसके पुण्यरस नहीं बढ़ सकता, पापरस ही बढ़ेगा, और जिसको तृष्णा नहीं है योग्य कार्यों में, योग्य उपकार में, वह उदारता की वृत्ति रखता है, त्याग दान की वृत्ति रखता है तो उससे पुण्यरस बढ़ता है, पापरस घटता है और वह भविष्य में अनायास ही सुख सुविधा को प्राप्त करता है । जैसे कुवें में से जल न निकाला जायतो होगा क्या कि वह जल सड़ जायगा, उसमें कीड़े पड़ जायेंगे । और यदि वह जल काम में आता रहे तो उसमें स्वच्छता भी बढ़ती है और-और जल में वृद्धि भी चलती है । ठीक इस प्रकार का कर्मविपाक और आत्मनिर्मलता का प्रसार इसी तरह होता है । यह ज्ञानी पुरुष जानता है कि मेरी अगुप्ति नहीं ।
सम्यग्दृष्टि जीव के मरणभय का वेदनाभय का आकस्मिक भय का अभाव―ज्ञानी पुरुष को मरण का भय नहीं होता, क्योंकि वह जान रहा कि यहाँ मेरा कुछ नहीं है । मैं अमूर्त ज्ञानमात्र अकेला निज स्वरूप वाला हूँ । यह जगह छोड़कर दूसरी जगह जाऊं तो ऐसा ही पूरा का पूरा सर्वत्र हूँ । मेरा मरण क्या? मैं तो मैं ही हूँ । यहाँ से छोड़कर दूसरी जगह पहुंचा मेरा तो विघात होता ही नहीं है । कुछ थोड़ा जो कुछ मरण के समय में जीव कष्ट मानता है वह मोह राग के कारण कष्ट मानता है । यह छूटा, मेरा यह देह छूटा, अरे देह भी छूटा हुआ था पहले । तेरी सत्ता न्यारी, देह की सत्ता न्यारी, ये घर, मकान, दौलत छूटे हुए ही है तेरे । तेरे स्वरूप में इनकी दखल नहीं है । इसके लिए क्या छोड़ना है? और जितना छूटेगा लोक व्यवहार के नाते उससे कई गुना अभी ही एक सेकेंड में मिलेगा, पर वह ज्ञानी जीव न आगे के मिलने की वांछा रखता है न वर्तमान के छूटने का विषाद रखता है, उसकी दृष्टि में निज सहज शुद्ध आत्मा सदैव रहता है । शरीर में कोई वेदना हो जायतो उसका भी भय नहीं मानता । जो हुआ शरीर में हुआ यह आत्माराम तो इस शरीर से निराला अमूर्त ज्ञान स्वच्छता मात्र है इसको किस बात का भय? कुछ परिस्थितियाँ कभी होती है कि विकट ही रोग हो गया तो वह सहा नहीं जाता, ऐसा मानते हैं रोगी लोग । तो अत्यंत विरक्तता है और स्पष्ट निराले आत्मा को निरखा है तो शरीर पर कितनी ही वेदनायें आये, शस्त्रघात हो जाय, अग्नि में जल जाय इतने पर भी ज्ञानी आत्मा के उफ नहीं होता । भूले ही यह बात श्रावक दशा में नहीं हो सकती मगर यह अवश्य होने योग्य बात है । संत पुरुष कर सकता है, श्रावक भी अपनी शक्ति का प्रसार करता हुआ बराबर यह ही निर्भयता की स्थिति बनाता है । ज्ञानी जीव को कभी अटपट कल्पनायें नहीं होती, आकस्मिक भय नहीं होगा । कहीं यहीं बैठे-बैठे बिजली न गिर जाय, कहीं तुम न गिर जाय कहीं यह छत मेरे ऊपर न टूटकर गिर जाय, यो अटपट कल्पनायें कर के मोहीजन अपने को दुःखी अनुभव कर लेते हैं, किंतु ऐसी सनक ज्ञानी को नहीं हुआ करती ।
सम्यग्दृष्टि जीव के नि:शल्यपना होने के कारण गुण संपन्नता की समृद्धि―ज्ञानी पुरुष के न मिथ्यात्व का शल्य है, न मायाचार का शल्य है, न परभव में कुछ मैं चाहूं, पाऊं, संपन्न होऊं, इस भाव की शल्य है । ऐसा ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष दर्शन प्रतिमा धारण करने का अधिकारी होता है और ऐसी ही गुणसंपन्नता के कारण यह सम्यग्दृष्टि जीव देव, देवेंद्र, नरेंद्रों के द्वारा वंदनीय होगा । देवेंद्र हुए, सौधर्म आदिक इंद्र नरेंद्र हुए चक्रवर्ती आदिक । ऐसे महापुरुषों के द्वारा भी आत्मधुन रखने वाला और इसी कारण अपने आप ही योग्य सदाचार में रहने वाला पुरुष पूज्य होता है उसने चाहे व्रत भी न धारण किया हो, 12 प्रकार के व्रत न भी हों, यदि सम्यक्त्व सहित हो तो भी वह सबके द्वारा आदर के योग्य होता है । यदि साथ ही व्रत भी हो तो सम्यग्दृष्टि भी है, सम्यक्चारित्रवान भी है तो वह तो विशेषतया पूज्य पुरुष होता है । सम्यक्त्व के रहते हुए कोई आयु बंधती है तो देवायु ही बंधती है । हां यदि कोई नारकी देव सम्यग्दृष्टि है उसके कोई आयु बंधेगी तो मनुष्यायु ही बंधेगी, इसी कारण सम्यग्दृष्टि पुरुष के यदि कुछ भव शेष है तो उत्तम भव ही प्राप्त होते है । तो ऐसी अनेक प्रकार की सुख सुविधावों में रहता हुआ यह ज्ञानी पुरुष उनसे विरक्त रहकर अपने अंतरंग में प्रसन्नता का अनुभव करता है जिससे कि कर्म कटते है और इसका मोक्ष मार्ग क्षण-क्षण बढ़ता रहता है । ऐसे सम्यग्दृष्टि पुरुष दर्शन प्रतिमा का धारण करते हैं । तो उनके इस दर्शनप्रतिमा की क्या स्थिति होती है यह सब इस प्रतिमा के लक्षण में बताया जा रहा है ।
सम्यग्दृष्टि के तिरेसठ गुण―जो जीव सम्यग्दृष्टि होता है वही प्रतिमा का धारक हो सकता है । जिसने पहली प्रतिमा का धारण नहीं कर पाया, किंतु जो सम्यग्दृष्टि है उसमें कितनी विशेषतायें होती हैं, यह बात अभी बतलायी जा रही है । सम्यग्दृष्टि जीव में मूल गुण 48 होते हैं अर्थात् ये 48 बातें सम्यग्दृष्टि में होती ही हैं । आठ अंगों का होना तथा 8 मद, 6 अनायतन, 3 मूढ़ता इन 17 दोषों से रहित होना । यों ये 25 गुण है और इनके अतिरिक्त 8 गुण और होते हैं, सम्वेग निर्वेद आदिक जो कि अभी कहे गए थे । तो 25+8=33 हुए और उनमें 5 अतिचार नहीं होते । निरतिचार सम्यक्त्व होने से पूर्ण कहलाये । तो
33+5=38 हुए, और 7 भयों का त्याग, 3 शल्य न रहना, इस प्रकार 38+10=48 ये तो सम्यक्त्व के मूल गुण हैं । सम्यक्त्व होते ही इतना आचरण तो होता ही है, इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि में 15 उत्तर गुण होते हैं, अष्टमूल गुणों का पालन और सप्तव्यसनों का त्याग । दर्शन प्रतिमा में भी अष्टमूल गुणों का पालन बताया जायगा, पर वह है निरतिचार । तो निरतिचार होने के कारण वहाँ मर्यादित वस्तु का ही भक्षण होता है । तो इन मूलगुण और उत्तर गुणों से जो सम्यग्दर्शन के लिए बताया गया है उनसे अब यह अनुमान करिये कि मद्य, मांस, मधु के त्याग बिना, पंच उदंबर के त्याग बिना सप्त -व्यसनों के त्याग बिना मनुष्य को सम्यग्दृष्टि कैसे कहा जा सकता?
सम्यग्दृष्टि के दुर्गतिबंधहेतुभूत कर्मबंध का अभाव―जिस जीव में सम्यक्त्वगुण प्रधानतया है वह कल्याणार्थी पुरुषों के लिए आदर्श है । ऐसे पुरुष यदि आयु का बंध करते हैं तो देवायु का बंध करते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव दुर्गति के कारणभूत कर्मों का बंध नहीं कर पाता । खोटे कर्मों का बंध संक्लेश परिणाम से होता है, खोटे आशय में होता है, पर जिसने आत्मा के सहजस्वरूप का परिचय पाया है उसके खोटा आशय नहीं रहता । संक्लेश परिणाम भी नहीं रहता । यद्यपि सम्यक्त्व होने पर भी कुछ संक्लेश परिणाम रह सकता है, किंतु उसकी एक सीमा है । बताया गया है कि तीर्थंकर प्रकृति के बंध में अधिक से अधिक तीर्थंकर प्रकृति का स्थिति बंध वह जीव कर सकता है जो संक्लेश परिणाम वाला सम्यग्दृष्टि हो । तो वहाँ संक्लेश का अर्थ विशेष नहीं, यथा संभव है याने जो पुरुष सम्यग्दृष्टि षोडश कारण भावना भा रहे हैं जिसके दर्शन विशुद्धि भावना के साथ कुछ अन्य भावनायें भी चल रही हैं, वह यदि विशुद्ध परिणाम में है तो तीर्थंकर प्रकृति की स्थिति कम बनेगी और यदि संक्लेश परिणाम में है तो तीर्थंकर प्रकृति की स्थिति बहुत अधिक बनेगी । यद्यपि सुनने में ऐसा लगता होगा कि संक्लेश परिणाम से तो तीर्थंकर प्रकृति की स्थिति कम होनी चाहिए और विशुद्ध परिणाम से अधिक होना चाहिए । किंतु विचार करें कि तीर्थंकर प्रकृति की स्थिति अगर अधिक बने तो उसका अर्थ क्या होगा? इसे संसार में बहुत दिन रहना पड़ेगा और यदि उसकी स्थिति कम बंधी तो बिल्कुल स्पष्ट है कि वह संसार में थोड़े समय रहेगा और मोक्ष जायगा । तो ऐसा संक्लेश परिणाम भी संभव है सम्यग्दृष्टि के, किंतु वह सीमित है यों सम्यग्दृष्टि पुरुष दुर्गति के कारणभूत अशुभ कर्मों का बंध नहीं करता ।
सम्यग्दृष्टि के पूर्वानेक भवबद्ध दुष्कर्मों का क्षय―जो पहले भवों के बांधे हुए पापकर्म हैं उनका नाश कर देता है सम्यग्दृष्टि । देखिये कर्मों का नाश करने के लिए इस आत्मा को कुछ कर्म या यत्न नहीं करना पड़ता, यह तो अपने भावों को विशुद्ध बना रहा है । कर्म अपने आप झड़ जाते हैं, जैसे कोई धोती धोई गई फैलाते समय में वह धोती नीचे गिर गई, धूल में वह लिपट गई, तो उस धूल को अलग करने के लिए कुछ अलग से यत्न नहीं करना पड़ता, किंतु उस धोती को धूप में सुखाने के लिए फैला दिया, धोती सूख जायगी तो वह धूल जरा से झिटके में या बिना ही यत्न के वह अपने आप झड़ जाती है । यह एक मोटी बात कह रहे है, किंतु यहाँ आभ्यंतर में तो यह बिल्कुल ही सही है कि आत्मा तो अपने भावों को निर्मल करता है तो कर्म अपने आप झड़ जाते हैं । आशय अच्छा बनाना और कषायों को दूर करना बस यह ही एक पुरुषार्थ है जिससे जीव का उद्धार होता है ।
जिन में सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति नहीं ऐसी दुर्गतियों का निर्देश―दुर्गतियां कौन हैं जिनके कारण भूत कर्मों का बंध सम्यग्दृष्टि नहीं करते । ऐसी दुर्गतियां नीचे के 6 नरक हैं । यद्यपि पहला नरक भी दुर्गति है, किंतु वहाँ सम्यग्दृष्टि का उपपाद संभव है, क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर पहले नरक में उत्पन्न हो सकता है । इससे नीचे नरक में नहीं । तो यहाँ उन दुर्गतियों को बतला रहे हैं कि जिन दुर्गतियों के कारणभूत कर्मो को सम्यग्दृष्टि नहीं बांधता । यह नरकायु सम्यक्त्वोत्पत्ति से पहिले बंधी थी, भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देव ये दुर्गति कहलाते हैं, अथवा यों समझ लीजिए कि सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व में मरण करके जिन-जिन जगहों में उत्पन्न नही सकें वे सब दुर्गति कहलाती हैं । दुर्गति इसके अतिरिक्त और भी है, पर ये वे विशेष दुर्गतियां हैं कि जो संसार परंपरा के साधनों को बनाये रखती है । सम्यग्दृष्टि जीव स्त्री पर्याय में उत्पन्न नहीं होता नपुंसकों में उत्पन्न नहीं होता । स्थावर विकलत्रय असंज्ञी जीव कुभोगभूमियां म्लेच्छ देश आदिक में सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति नहीं होती । चाहे उनके व्रत भी न हो तो भी सम्यग्दर्शन का इतना माहात्म्य है कि सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला पुरुष दुर्गतियों में नहीं जाता । ऐसा ज्ञानी पुरुष दर्शन प्रतिमा का धारक हो पाता है । सम्यक्त्व ऐसा अद्भुत वैभव है कि जिसके समान वैभव तीन लोक तीन काल में कुछ हो ही नहीं सकता । ऐसा यह जघन्य पात्र सम्यग्दृष्टि का यह वर्णन चल रहा है फिर जो प्रतिमाधारी बनेगा वह मध्यम पात्र कहलाने लगता है, ऐसे सम्यग्दर्शन युक्त जीव दर्शन प्रतिमा को धारण करता है ।
दार्शनिक श्रावक के निरतिचार अष्टमूल गुणपालन तथा सप्तव्यसन त्याग―दार्शनिक श्रावक पद में इसका कितना सदाचार होता है अब यह बताते हैं । जो जीव बहुत त्रसों से युक्त पदार्थो को नहीं सेवन करता, मद्य, मांस आदिक पदार्थो को नहीं सेवता, निंदित द्रव्यों का सेवन नहीं करता वह पुरुष दर्शनप्रतिमा का धारक कहलाता है । दर्शन प्रतिमा के लक्षण में बताया गया है―सम्यग्दर्शन से संपन्न, संसार शरीर व भोगों से विरक्त, पंच परमेष्ठियों के चरणों की शरण लेने वाला जीव दार्शनिक श्रावक होता है । वह दार्शनिक श्रावक निरतिचार अष्ट मूल गुणों का धारी होता है । तो मांस आदिक जो निंद्य पदार्थ हैं, उनके भक्षण का तो प्रश्न ही नहीं, किंतु जिन पदार्थों में त्रस जीव उल्पन्न होने की योग्यता हो गई है ऐसे पदार्थों को भी नहीं खाता, अर्थात् चलितरस पदार्थों का भक्षण नहीं करता । अब कौन पदार्थ कितने दिनों में चलितरस हो जाता है, यह स्पष्टीकरण ग्रंथों में तो नहीं मिलता कुछ का ही मिलता है । पर जैसे प्रसिद्ध है और हिंदी भाषा ग्रंथ बनाने वालों ने लिखा है उसके अनुसार कुछ मर्यादायें कही गई हैं आटा आदिक, की ऐसी मर्यादा से बाहर का पदार्थ हो जाने पर उसमें त्रस जीव पैदा होने की योग्यता हो जाती है । जैसे कभी 15 दिन धरा रहे आटा तो वह सीड़ा हो जाता है व उसमें लट हो जाती है, तो यह बतलावो कि वह लट किस दिन पैदा हुई? उसमें जीव किस दिन पैदा हुए? जो चलते हुए लट नजर आये वे स्व ही रात में नहीं बन गए । उसमें जीवोत्पत्ति की योग्यता बहुत दिन से चल रही थी और जीव उत्पन्न होना प्रारंभ हो रहे थे यह तो शुद्ध तीर्थ प्रवृत्ति के लिए मानना ही होगा कि ये पदार्थ इतने दिन तक खाये जा सकते हैं इसके बाद नहीं । तो जो प्रसिद्धि है वह इस प्रकार है कि बरसात के दिनों में 3 दिन का, गर्मियों में 5 दिन का व सर्दियों में 7 दिन का ही खाया जा सकेगा । अन्य-अन्य पदार्थो की अन्य-अन्य प्रकार की मर्यादा हैं । यद्यपि सूक्ष्मतया यह भी पूरा घटित नहीं किया जा सकता । कोई शिमला वगैरह स्थान जहाँ गर्मी में भी ठंड रहती है तो शोधक लोग बता सकेंगे कि वहाँ कुछ अधिक दिन भी आटा चल सकता है । कोई मुल्क सदैव वर्षा वाले हों तो वहाँ बहुत कम म्याद रह सकती है । फिर भी कुछ म्याद बताये बिना लोग कैसे उस आचरण में चलें इसलिए यह म्याद बतायी गई है । तो दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक ऐसा ही भोजन करता है जैसा भोजन साधु संतों को दिया जा सकता है । इसके अब रात्रि भोजन का प्रसंग न रहेगा । यद्यपि रात्रि भोजन त्याग नाम की छठी प्रतिमा कही है फिर भी वहाँ मन, वचन, काय कृतकारित अनुमोदना से त्याग कहा है । यहाँ यह स्वयं नहीं करता । तो दर्शन प्रतिमा में रात्रि भोजन का त्याग है और अभक्ष पदार्थों का त्याग है । सप्त व्यसनों का त्याग है और इतना त्याग होने के कारण यह जीव मोक्षमार्ग में गमन करने वाला कहा जाता है ।
दार्शनिक श्रावक की दृढ़चित्तता, मायापाखंडरहितता―यह दार्शनिक श्रावक अपनी भावना में दृढ़ चित्त है, जो मद्य मांस आदिक का त्याग बताया गया है उस प्रतिज्ञा को नियमपूर्वक निभाव करता है । इसका मन चलायमान नहीं है क्योंकि अविकार ज्ञानस्वभाव के विकास का जिसके ध्येय बन गया है उसमें मायाचार कपट, पाखंड नहीं होता, मायाचार में सभी बातें आ जाती हैं, फिर भी विशेषतया यह जानना कि जो पाखंड मायाचार करता है वह उसका बहुत खोटा परिणाम है, ऐसा पुरुष प्रतिमाधारी नहीं हो सकता । त्यागी वती साधु श्रावक बहुत सरल होता है और सहज जो उसकी मुद्रा बनी, भेष बना उसके उठने बैठने बोलचाल का जो सरलतया ढंग बनता है बस वह है पाखंड से रहित । पाखंड तो सम्यग्दृष्टि ही नहीं करता । प्रतिमाधारी की बात तो विशेषतया है । जो पुरुष अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए किसी प्रकार का बाहरी काम, पाखंड का कार्य करता है जैसे कि अपने बारे में अपनी बुद्धि से बात फैलाना कि मैं दूसरों को सुखी करता हूँ, गंडा तावीज देना और इस बुद्धि से कि इसमें मेरा नाम यश फैलेगा, ये सब बातें पाखंड की हैं । पाखंड का काम इस प्रतिमाधारी के नहीं रहता । जिसको लौकिक यश की चाह हो वही पाखंड में पड़ता है । यह ज्ञानी जानता है कि मैं अमूर्त ज्ञानमात्र हूँ । इस मुझ को कोई नहीं जानता । जो लोग जानते हैं सो इस देह को जानते है और इस शकल से ही मेरे को समझते हैं, पर मैं यह शकल ही नहीं हूँ, यह शकल तो किसी दिन आग में जल जायगी । यह देह मैं नहीं हूँ, मैं अमूर्त ज्ञानमात्र हूँ । अब इसको लोक में यश की क्या जरूरत? आवश्यकता तो यह है कि इस मुझ अमूर्त ज्ञानमात्र आत्मा में यथार्थ ज्ञानप्रकाश हो और यह मैं अपने आपके स्वरूप में मग्न होकर रमता रहूं बस यह ही प्रयोजन है मुझे, अन्य कुछ बात न चाहिए । ऐसा जिसका मन दृढ़ है वह पुरुष पाखंड कैसे करेगा?
दार्शनिक श्रावक को निदानरहितता व संसार शरीर भोग निर्विण्णता―यह दार्शनिक श्रावक निदान से रहित है । न लोक में धर्म के एवज में सुख की अभिलाषा करता है, न परलोक में सुख की अभिलाषा करता है । जो हो सो हो । मेरे को तो अपना सहजस्वरूप निरखकर इस ही में उपयोग बसाये रहने का काम है, अन्य कुछ बातपर मेरा अधिकार नहीं । जो मेरे अधिकार की बात हैं, मेरे स्वरूप में है बस उस ही में रमता हूँ, यही वृत्ति होती है ज्ञानी पुरुष की और इसी कारण परलोक संबंधी कल्पना ही यहाँ नहीं करता और परलोक इहलोक है क्या? इहलोक मायने यह आत्मा, परलोक मायने उत्कृष्ट आत्मा । पर का अर्थ उत्कृष्ट भी है, पर का अर्थ दूसरा भी है । तो जो यह उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूप है यह ही तो मेरा लोक है यह ही परलोक है । तो जो अपने आपके सहज स्वरूप में निवास करता है उसको निदान नहीं हो सकता । यह दार्शनिक श्रावक संसार, शरीर, भोगों से विरक्त है । संसार रागद्वेष विकारभाव ये कर्म का निमित्त पाकर हुए हैं नैमित्तिक हैं, मेरे स्वभाव नहीं है, ऐसा जानने वाला विकार में राग नहीं रख रहा । यह शरीर अपवित्र है, हाड़, मांस आदिक का पिंड है, अत्यंत भिन्न है, ऐसे शरीर से क्या राग करना? ज्ञानी श्रावक को शरीर से राग नहीं होता । भोग पंचेंद्रिय के विषयों का उपभोग, ठंडा गर्म, सुहा गया, रूखा, चिकना, कोमल, कठोर सुहा गया, यह स्पर्श इंद्रिय का भोग । मीठा, खट्टा, इष्ट रस सुहा गया, यह रसना इंद्रिय का भोग है । सुगंध, इत्र, तेल फुलेल आदिक सुहा गये, यह घ्राणेंद्रिय का भोग है । सुंदर रूप, इष्ट रूप, सुहा गया, यह चक्षु इंद्रिय द्वारा भोग है, और सुंदर शब्द, राग रागनी के शब्द सुहा गए, यह कर्णेंद्रिय का भोग है और दुनिया में नाम हो, प्रशंसा हो, यश हो ऐसी भीतरी बात सुहा गयी, यह मन का भोग है । इन भोगों को- सम्यग्दृष्टि जीव क्या चाहेगा? जिसने अपने ज्ञान को ज्ञान में लेकर अनुभव कर के अलौकिक आनंद प्राप्त किया है वह इन असार पराधीन भोगों की कैसे चाह करेगा? यह दार्शनिक श्रावक भोगों से विरक्त है ।
दार्शनिक श्रावक की पंचगुरुचरणशरणता―दार्शनिक श्रावक शरण मानता है तो अपने आपके स्वरूप को शरण मानता है । और चूँकि अपने स्वरूप की सुध, अपने स्वरूप का विकास पंचपरमेष्ठियों के गुणों के स्मरण के निमित्त से होता, सो वह पंचपरमेष्ठियों के चरणों में वह शरण मानता है । कोई पुरुष यदि गुरुरहित है, ऐसा सोचता है कि मैं स्वयं बुद्धिमान हूँ, मेरा गुरु मैं ही हूँ, अध्यात्म में कहते है ना कि आत्मा का गुरु आत्मा ही है, और इस प्रकार किसी गुरु की छाया में न रहे और अपने को निर्गुरु रखकर जीवन बिताये तो उसमें वह आत्मसंयमन नहीं हो पाता है, और प्रगति की दिशा प्रेरणा नहीं मिल पाती है जिस कारण से वह आगे प्रगति नहीं करता । इसलिए गुरुवों के चरणों का शरण ग्रहण करना, कल्याणार्थी के लिए आवश्यक है । ऐसे गुरु उत्कृष्टतया ये आचार्य उपाध्याय साधु हैं और कोई केवल गुरुभक्ति तक ही सीमित रहे, उसके आगे कोई आदर्श न देखे तो भी वह आगे प्रगति नहीं कर पाता । मुझे क्या बनना है, कैसे लक्ष्य सिद्ध करना है, यह ही जिसकी दृष्टि में नहीं है वह प्रगति क्या करेगा? अच्छा मकान बनाने के लिए पहले अच्छे नक्शे ढंग से बनावाये जाते हैं ताकि यह तो याद रहे कि मकान बनाते हुए में ऐसा बनाना है आगे चलकर और जिसके चित्त में वह पूरा मकान बनवाये जाने का नक्शा नही तो वह कैसे मकान बनवायगा? भले ही वह हाथ पैर की क्रियायें कर रहा हो पर उसके दिशा भूल है ऐसे ही अरहंत सिद्ध प्रभु की सुध न होने के कारण धर्ममार्ग में प्रवृत्ति कर के आखिर मुझे बनना क्या है मेरी स्थिति क्या बनेगी, यह बात जब चित्त में नहीं है तो भी मोक्षमार्ग में प्रगति नहीं हो सकती । इस कारण यह दार्शनिक श्रावक, मोक्ष पक्ष में चलने वाला भव्य पंचपरमगुरु के चरण की शरण ग्रहण करता है । उसके शरण ग्रहण करने के मायने यह है कि उनके गुणों में अनुराग होना और गुरुजन जो मार्ग बतायें उस मार्ग के प्रति श्रद्धान रखना कि मेरा भला इसही मार्ग से चलकर होगा, यह ही उन पंच परम गुरुवों के चरणों की शरण ग्रहण करना कहलाता है । इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव निरतिचार अष्टमूल गुण पालता हुआ, निरतिचार सप्त व्यसन त्याग को धारण करता हुआ निरंतर आत्मा की धुन रखने वाला पंच परम गुरुवों के गुणों में अनुराग रखने वाला श्रावक दार्शनिक श्रावक कहलाता है ।