वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 139
From जैनकोष
चतुरावर्त्तत्रितयश्चतु: प्रणाम: स्थितो यथाजात: ।
सामायिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसंध्यमभिवंदी ।।139।।
अर्थ―जो चारों दिशाओं में क्रमश: तीन-तीन आवर्त और चार प्रणाम, दो आसन करने वाला यथा जात मुनि की तरह स्थित तीनों योगों से शुद्ध व तीनों कालों में वंदना करता है वह सामायिक नामक तृतीय प्रतिमाधारी है ।
सामायिक प्रतिमा व सामायिक की विधि―देश संयत गुणस्थान में तीसरा दर्जा अर्थात् प्रतिमा सामायिक प्रतिमा है । श्रावक सामायिक की विधि के अनुसार सामायिक करता है । सामायिक की विधि यह है कि पहले पूर्वदिशा की ओर मुख करके खड़े होकर 9 बार णमोकार मंत्र पढ़े, पश्चात् 3 आवर्त करके अर्थात् दोनों हाथों को जोड़कर तीन बार परिक्रमासी देकर यह उच्चारण करे मन में कि ऊपर और नीचे जो चैत्यालय विराजमान हैं, जीव अजीव मंगल हैं उनको हमारा मन, वचन, काय से नमस्कार हो । ऐसे घुटने टेक कर पंचांग से नमस्कार करता हुआ कहे । फिर खड़े होकर उसी दिशा में 9 बार णमोकार मंत्र पढ़कर आवर्त करता हुआ ऐसा कह कर नमस्कार करे कि पूर्व दिशा में जितने चैत्यचैत्यालय हैं, जीव और अजीव मंगल हों, गुरुराज आदिक विराजमान हों, उन सबको मन, वचन, काय से नमस्कार हो । फिर दक्षिण की ओर मुख करके 9 बार णमोकार मंत्र पढ़कर आवर्त करता हुआ ‘‘दक्षिण दिशा में विराजमान समस्त जीव अजीव मंगलों को नमस्कार हो । ऐसा उच्चारण करता हुआ नमस्कार करे, फिर पश्चिम दिशा की ओर मुख करके खड़े होकर 9 बार णमोकार मंत्र पढ़कर पश्चिम दिशा में जितने जीव अजीव मंगल हैं उन सबको नमस्कार हो, ऐसा कहकर तीन आवर्त करता हुआ नमस्कार करे, फिर इसी तरह उत्तर दिशा की ओर खड़े होकर 9 बार णमोकार मंत्र पढ़कर उत्तर दिशा में जीव अजीव मंगलों को नमस्कार हो, ऐसा कहते हुए तीन आवर्त कर के नमस्कार करे । फिर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठ जाय आसन से अथवा खड़ा रहे, अब किसी मंत्र का जाप करे, बारह भावना आदि का मन में पाठ करे, वस्तुस्वरूप का विचार करे, वंदना स्तुति भी करे और कुछ समय सर्व विकल्पों को छोड़कर ज्ञाताद्रष्टा रहने का पौरुष करे । सामायिक की क्रिया व काल पूरा होने पर फिर पंच नमस्कार मंत्र पढ़कर नमस्कार करता हुआ विसर्जन करे । सामायिक की इस विधि में चारों दिशावों में तीन-तीन आवर्त हैं, चार प्रणाम है और एक प्रारंभ का संकल्प प्रणाम है । सामायिक में यह श्रावक बालकवत् निर्विकार सरल आत्महित का चिंतन करता हुआ रहे । मन, वचन, काय को सिद्ध करे, ऐसी सामायिक प्रात:, मध्याह्न और सायंकालजो करता हैं वह श्रावक सामायिक प्रतिमा का धारक कहलाता है ।
सामायिक में मुख्य ध्यातव्य तत्त्व―सामायिक में मुख्य ध्यान परमात्मा का और सहजात्मा का होता है । जो वीतराग सर्वज्ञ हुआ है वह आत्मा परमात्मा कहलाता है । जब तक शरीर सहित है तब तक वह अरहंत है, जब शरीर रहित हो जाता है तो वह सिद्ध भगवंत होता है । सो अरहंत और सिद्ध के आत्मा के स्वरूप का ध्यान धरे तथा आत्मा के सहज स्वरूप का ध्यान रखे ये दो ध्यान सामायिक में मुख्य हैं । जाप जपने के लिए अनेक प्रकार के मंत्र हैं । ‘‘ॐ’’ इतने एक अक्षर से भी जाप कर सकेंगे, सिद्ध इस प्रकार दो अक्षरों के पद का भी ध्यान धर सकेगा, अरहंत ऐसा जपकर चार अक्षर के मंत्र से भी अपना ध्यान धरा जा सकता है, ऐसे ही 5-6-16-35 आदि अक्षरों युक्त मंत्रों को यह भक्ति पूर्वक जपता है । इन सब जापों में निर्दोष आत्मा का ध्यान है । सामायिक में ऐसी वैराग्य भावना से वासित होना चाहिए कि इस समय उपसर्ग उपद्रव भी आये तो मन विचलित न करे । उस समय कर्मों के उदय का विचार करें । कर्म दो प्रकार के होते हैं―पुण्य और पाप । तो पुण्य के फल तो सुहावने रहते हैं, जिनके लिए दृष्टांत दिए गए हैं गुड़, खांड, शक्कर और अमृत । पाप प्रकृतियों को उसका फल बुरा है, सो जितने भी दुःख होते हैं वे सब पाप के उदय में होते हैं । संसार के सुख यद्यपि पुण्य के उदय में होते हैं फिर भी उस पुण्य से क्या गुजारा चलेगा जो मिट जाने वाले हैं और फिर संसार में जन्ममरण कराने वाले हैं । पाप पुण्य दोनों से रहित जो आत्मा का सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप वृत्ति है वही आत्म कल्याण करने में समर्थ है । सामायिक में इतना समता भाव होना चाहिए कि लाभ अलाभ, शत्रु मित्र, संयोग वियोग, तृण कांचन ये एक समान उसकी दृष्टि में रहें । अब श्रावक की चौथी प्रतिमा प्रोषध है, उस प्रोषध प्रतिमा का स्वरूप कहते हैं । प्रोषध व्रत द्वितीय प्रतिमा में भी कहा था वही प्रोषध इस प्रतिमा में निरतिचार पाला जाता है―