वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 140
From जैनकोष
पर्वदिनेषु चतुर्ष्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य ।
प्रोषधनियमविधायी प्रणधिपर: प्रोषधानशन: ।।140।।
अर्थ―जो मास के चारों पर्व दिनों में अपनी शक्ति को न छिपाकर, शुभ ध्यान में रत हुआ एकाग्रता के साथ नियम से प्रोषधोपवास करता है वह प्रोषधोपवास नाम का प्रतिमाधारी श्रावक है ।
अष्टमी चतुर्दशी पर्व की शाश्वतता―इस छंद में समंतभद्राचार्य ने प्रोषधोपवास प्रतिमा का स्वरूप कहा है । माह में पर्व के चार दिन आते हैं प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी में । रवि व्रत आदिक जो भी व्रत के पर्व बताये गए हैं वे किसी कारण किसी दिन से किसी ने प्रारंभ कराये । वे पर्व अनादिनिधन नहीं हैं, किंतु अष्टाह्निका और अष्टमी चतुर्दशी ये पर्व अनादि अनंत हैं । इन दो के सिवाय शेष सभी पर्व किसी कारण से बने हैं । रक्षा बंधन, दीपावली और तीर्थंकरों के कल्याणक आदिक पर्व घटना के कारण हैं जिससे कि बने हैं । अष्टाह्निका पर्व अनादि निधन इस कारण हैं कि 8वें द्वीप में चारों दिशावों में 13-13 जिन मंदिर हैं, जिनकी रचना पूजा पाठों में भी बतायी जाती है । वहाँ भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिक, चारों प्रकार के देव कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ के अंतिम 8 दिनों में पूजा करने जाते हैं, वंदना करते हैं और चौबीसों घंटे वंदना होती रहती है । वहाँ रात दिन का भेद है नहीं, और प्राय: 6-6 घंटे एक-एक निकाय के देव वहाँ वंदन पूजन किया करते हैं । तो अष्टाह्निका पर्व यह अनादि से ही चला आया है, अनादि से ही देव होते आये है और वे वहाँ जाकर पूजन वंदन किया करते हैं । किंतु मनुष्यों की शक्ति नहीं है कि वे उस द्वीप में जाकर पूजन वंदन कर सकें । सो मनुष्य यहीं अपने ही मंदिरों में वहाँ की स्थापना करके, स्मरण कर पूजन किया करते है । अष्टमी चतुर्दशी पर्व भी अनादि निधन हैं, क्योंकि प्रतिमावों में इसी दिन प्रोषधोपवास की विधि बतायी गई है । तो यों एक माह में चार-चार पर्व के दिन आते हैं, सो उन दिनों में अपनी शक्ति न छिपाकर प्रोषध का नियम पालन जो करता है वह प्रोषधोपवास प्रतिमा का धारी है ।
शक्त्यनुसार पालन होने से प्रोषधोपवास के तीन प्रकार―प्रोषधोपवास के तीन प्रकार हैं―(1) उत्तम (2) मध्यम और (3) जघन्य । उत्तम प्रोषधोपवास में यह श्रावक सप्तमी और त्रयोदशी के दिन दोपहर के समय अर्थात् आहारोपरांत जिनमंदिर में जाकर सामायिक आदिक क्रियायें करके चारों प्रकार के आहारों का त्याग कर उपवास ग्रहण करता है, यह त्याग रहेगा नवमी और पूर्णिमा के दोपहर के आरंभ तक । इतने समय तक घर का धंधा काम काज आरंभ छोड़कर धर्मध्यान ही करता है रात और दिन । तो प्रोषध प्रतिमाधारी धर्मध्यान पूर्वक रात बिताकर प्रात: काल उठकर सामायिक आदिक क्रियाकर्म करता है । शास्त्र स्वाध्याय, तत्वचर्चा पूर्वक दिन व्यतीत करता है, इसी तरह रात भी व्यतीत करता है औंर नवमी व पूर्णमासी के सुबह पूजन विधान करके पात्र को पड़गाह कर किसी त्यागी व्रती साधुसंत को जो मिल सकें उन्हें आहार कराकर फिर आहार करता है तो यह उत्कृष्ट प्रोषध प्रतिमा के पालन का विधान है । जिसमें इतनी सामर्थ्य नहीं है वह अष्टमी और चतुर्दशी को प्रासुक जल भी ले लेता है । और जो अधिक असमर्थ हो वह अष्टमी चतुर्दशी को कुछ रस छोड़कर एकाशन करता है पर इस प्रतिमा में करीब 48 घंटे धर्म ध्यानपूर्वक रहने का कर्त्तव्य बताया गया है ।
प्रोषधपालन में मुनिव्रत पालन का अभ्यास―प्रोषध करना कर्तव्य इसलिए बताया कि रोज जो धर्मध्यान करते रहते हैं उस धर्मध्यान में कुछ विशेषता आनी चाहिए । सो प्रति सप्ताह अष्टमी चतुर्दशी
पर्व के निकट धर्मध्यान को बढ़ाता है और मुनियों के व्रतों को पालने की शिक्षा लेता । इसमें मुनिव्रत पालने की शिक्षा दो प्रकार से मिलती है । प्रथम तो प्रोषध प्रतिमाधारी तीनों दिन सप्तमी, अष्टमी, नवमी तथा तेरस, चतुर्दशी, पूर्णिमा, ऐसे तीन दिन शाम को जल नहीं लेता, एक बार ही जलपान करता । तो मुनि भी ऐसा ही किया करते हैं, तो एक शिक्षा तो यह मिलती है, दूसरी शिक्षा धर्मध्यान और समता परिणाम अधिक समय तक रखे, यह मिलती है । आत्मस्वरूप की धुन रखने वाला व्रती श्रावक उमंग पूर्वक सप्ताह में इन पर्व के दिनों में अपना धर्मध्यान बढ़ाता है । इस प्रोषध के फल में बहुत भवों के संचित कर्मभी लीला मात्र में नष्ट हो जाते है । प्रोषध प्रतिमाधारी प्रोषध के समय में आरंभ से विरक्त रहता है । जो पुरुष उपवास तो धारण करले परंतु मोहवश आरंभ को करे तो उसका वह उपवास केवल शरीर के सोखने के लिए ही है, उससे लेशमात्र कर्म नहीं झड़ते । प्रोषध में प्र उपसर्ग है और औषध शब्द लगा है । संधि होने पर गुणरूप आदेश होता है । इस प्रोषध का अर्थ है प्रकृष्ट औषध याने औषधि के समान अल्प आहार करना । आहार औषधि को विशेष समझता हुआ आहार करे । यह श्रावक इंद्रिय विषयों से तो विरक्त रहता ही है, पर कर्मविपाकवश मुनिजनों की भांति उनका त्याग नहीं कर पाता । तो वह पर्व के दिनों में प्रकृष्ट औषधि की तरह आहार लेता हुआ इन समयों में विशेष धर्मध्यान करता है ।
परमार्थ धर्मध्यान―धर्मध्यान में उत्कृष्ट धर्मध्यान है यह कि निज सहज ज्ञानस्वरूप में आत्मतत्त्व का अनुभव करे । जो जीव अपने सहज स्वरूप में आत्मस्वरूप का अनुभव कर लेता है उसको जगत में फिर कोई कष्ट नहीं रहता । समस्त परद्रव्यों को जब जान लिया तो उन अन्य पदार्थो का परिणमन कैसा ही हो, उसमें इष्ट अनिष्ट बुद्धि अथवा रागद्वेष नहीं जगता है । जीव अकेला ही है, कर्मवश होकर चारों गतियों में भ्रमण करता रहता है उन समस्त योनियों में एक यह मनुष्यभव ही उत्कृष्ट भव है कि जहाँ संयम का धारण हो सकता है । इसी भव में एक अपने मौज की लालसा से संयम से अलग रहे और भीतरी संयम से भी च्युत रहे । अटपट प्रवृत्तियां रहें तो इस मनुष्य जीवन के पा लेने से फिर कोई लाभ नहीं रहता । इस कारण इस मनुष्यभव को एक बड़ा जिम्मेदारी का भव समझना चाहिए । किसी भी प्राणी के संबंध में मेरा दुर्विचार न जगे । मुझ से जितना हो सके, दूसरे प्राणियों का उपकार भलाई तो हो पर मेरी किसी भी चेष्टा के कारण दूसरे को कष्ट न पहुंचे । ऐसा शांत परिणाम रहता है श्रावक का और सतत प्रतीति रहती है अमूर्त ज्ञानमात्र निजतत्त्व की । मैं रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित हूँ, अतएव बाह्य पुद्गल की भांति मैं पकड़ में नहीं आता हूँ । आकाश की तरह अमूर्त हूँ, पर उपाधि का संबंध होने से आज विचित्र दशायें हो रही है । जब मैं अपने स्वरूप की सम्हाल करूं तो ये सब विडंबनायें दूर हो जायेंगी और आत्मस्वभाव की भावना से अलग रहूं तो ये संसार के दुःख बने रहेंगे, बढ़ते रहेंगे । इससे सर्व पदार्थों को असार बेकार होने से निराला जानकर अपने आपके आत्मानुभव में तृप्त रहा करें यह ही अपने आत्मा पर वास्तविक दया कहलाती है । तत्त्वज्ञान करें, उसको अपने में प्रयोग रूप से अनुभवें, सम्यग्दर्शन पायें और यथाशक्ति व्रत, संयम पालन करते हुए अपने में प्रसन्नता का अनुभव करें और अंत समय में आत्मसावधानी रखते हुए इस शरीर को छोड़ें, तो यह उपाय है शीघ्र ही आत्म कल्याण पाने का मोक्ष मार्ग पा लेने का ।