वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 147
From जैनकोष
गृहिृतो मुनिवनमित्वा गुरूपकंठे व्रतानि परिगृह्य ।
भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखंडधर: ।।147।।
अर्थ―जो घर से मुनि वन में जाकर और गुरु के निकट व्रतों को ग्रहण कर अनशनादि तपों को तपता हुआ भिक्षावृत्ति पूर्वक आहार ग्रहण करता है वह वस्त्र के एक टुकड़े का धारी उत्कृष्ट श्रावक है।
उद्दिष्टाहार विरत उत्कष्ट श्रावक―श्रावकों में उत्कृष्ट श्रावक, उत्कृष्ट त्यागी का इसमें वर्णन किया गया है । जो घर से चलकर मुनि वन में जाकर गुरु के समीप व्रत को ग्रहण करके भिक्षावृत्ति से आहार करता हुआ तपश्चरण में समय व्यतीत करता है वह उत्कष्ट श्रावक है और वह खंड वस्त्र का धारी है । इस छंद में मुख्यतया ऐलकपद का ग्रहण होता है । एक ही खंड वस्त्र लंगोटी जैसा वस्त्र धरण करने वाले पर गौण रूप से क्षुल्लक व्रत का भी ग्रहण होता है, क्योंकि वर्णन उत्कृष्ट ही करना चाहिये था और एक ही छंद में किया गया है । जहाँ अनेक छंदों में वर्णन है वहां तो खोला गया है कि क्षुल्लक का यह स्वरूप है, ऐलक का यह स्वरूप है, पर इस ग्रंथ में एक ही छंद में, एक ही विशेषण से जो वर्णन किया उससे उत्कृष्ट तो ऐलक का ग्रहण है और गौण रुप से क्षुल्लक का । मुनि वन जिस वन में मुनि रहें उसे भी मुनि वन कहते हैं और जो मुनियों का संग है वह भी मुनि वन की तरह है । वहाँ यह श्रावक खंड वस्त्र मात्र रखकर, बाकी सर्व परिग्रहों का त्याग करता । अनुमति त्याग प्रतिमा में बुलाने पर जाता था, पर यह बुलाना भी छूट गया । अब भिक्षावृत्ति से जायगा और जहाँ योग्य विधि मिलेगी वहाँ आहार ग्रहण करेगा ।
अनुद्दिष्ट आहार का तात्पर्य नवकोटि विशुद्ध आहार―अनुद्दिष्ट आहार वह कहलाता है कि जो केवल मुनि के लिए ही आहार न बने । यदि गृहस्थ मुनि का ध्यान करके कि हम इनको आहार देंगे और रसोईघर में समस्त आहार शुद्ध बनाया जा रहा है तो वहाँ उद्दिष्ट दोष नहीं आ पाता । उद्दिष्ट दोष का प्रयोजन है कि गृहस्थ को केवल साधु के लिए अर्जन न करना पड़े यदि साधु की बात मन में आये और उतने मात्र से उद्दिष्ट माना जायतो फिर अतिथि सम्विभाग व्रत नाम किसका? अतिथि सम्विभाग व्रत में मैं साधु को भोजन कराऊंगा, ऐसी उसकी प्रतिज्ञा रहती है और व्रती श्रावक है उसके लिए भी विधान है कि वह किसी भी दिन संकल्प कर सकता है कि मैं आज अतिथि को भोजन कराऊंगा । जैसे कि कोई किसी तिथि का नियम रखता है कि अमुक मास में अमुक तिथि को मैं अतिथि सम्विभाग करूंगा, ऐसा वर्णन है और फिर गृहस्थ को चाहे केवल मुनि के उद्देश्य से ही बनाये मानों तो प्रथम तो वह साधु देख लेगा कि केवल एक व्यक्ति के लिए आहार बनाया गया, तो वह न लेगा, और न मालूम पड़े बहुत सामग्री हो तो वहतो नवकोटि विशुद्ध रहेगा । उसे दोष न आयगा । जहाँ उद्दिष्ट आहार का त्याग बताया है उन छंदों में नवकोटि विशुद्ध आहार कहलाता है । इस विषय में अन्य ग्रंथों में स्पष्ट विवरण है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा में ये ही शब्द दिये है कि जो भिक्षावृत्ति से नवकोटि विशुद्ध आहार को करता है वह उद्दिष्टाहार विरत है । उद्दिष्टाहार विरत से मतलब केवल उद्दिष्टाहार से मतलब नहीं, किंतु उद्दिष्ट अन्य भी चीज हो, आसन शयन उपकरण आदिक वे सब गर्भित हैं, पर इन सब उद्दिष्टों की मुख्यता मुनिव्रत में है, यहाँ भी अभ्यास रूप निरखा जाता है ।
जो पुरुष नवकोटि विशुद्ध आहार करता है भिक्षावृत्ति से दूसरे घर पर भ्रमण करके तो वह उद्दिष्टाहार विरत कहलाता है । उस आहार में न मन में संकल्प होता कि ऐसा किया जाय, न मन से कराया गया हो, न मन से अनुमोदा गया हो, इसी प्रकार वह आहार न वचन से किया गया हो, न कराया गया हो, न अनुमोदा गया हो इसी तरह वह आहार न काय से किया गया हो, न कराया गया हो, ऐसे आहार को ग्रहण करने वाला साधु पुरुष उद्दिष्टाहार विरत कहलाता है । यह श्रावक मुनि की ही तरह श्रावक के घर जाकर भिक्षा भोजन करता है, श्रावकों के द्वार पर पहुंचकर भी वह मांगता नहीं कि मुझे भोजन दो, न आहार के लिए द्वारा खटखटाता है । जैसे मुनि के योग्य नवकोटि विशुद्ध आहार बताया गया वैसा आहार करता है । अन्न पवित्र होता हुआ वह दातार और पात्र को भी पवित्र करता है । दातार शुद्ध होता हुआ वह अन्न और पात्र को भी पवित्र करता है । पात्र पवित्र होता हुआ दातार और अन्न को भी शुद्ध करता है । इस प्रकार के नव कोटि का विशुद्ध आहार करने वाला उत्कष्ट श्रावक त्यागी कहलाता है ।
उद्दिष्टाहारविरत श्रावक के दो प्रकार―उद्दिष्टाहारविरत श्रावक के दो भेद हैं―(1) लंगोटी व एक वस्त्र रखने वाला, (2) केवल लंगोटी रखने वाला, अर्थात् क्षुल्लक और ऐलक । क्षुल्लक शब्द के साथ श्रावक शब्द न जोड़ना चाहिए । जैसे कोई कहे कि यह क्षुल्लक श्रावक बन गया है तो यह अनुचित प्रयोग है । क्षुल्लक का अर्थ है छोटा, तुच्छ, तो अर्थ हो जायगा तुच्छ श्रावक ‘‘क्षुल्लक शब्द के साथ मुनि शब्द जोड़ा जाता है―क्षुल्लक मुनि अर्थात् छोटा मुनि’’ । ऐलक श्रावक नहीं किंतु ऐलक मुनि, अर्थात् ईषत् वस्त्र वाला मुनि । णमोकार मंत्र में निर्ग्रंथ मुनि को ही ग्रहण किया गया है, पर क्षुल्लक शब्द का जो अर्थ है, उसके साथ श्रावक शब्द नहीं लगता । अगर उसे श्रावक शब्द से बोलेंगे तो उत्कृष्ट श्रावक कहेंगे । तो यह उत्कृष्ट श्रावक क्षुल्लक अपने केश उस्तरा से भी बनवाता है, कैंची से भी कतरवाता है और बैठकर हस्तपात्र में भी भोजन करता है अथवा बर्तन में भी भोजन करता है । वसुनंदी श्रावकाचार में दोनों बातें बतायी गई हैं,, वैसे रिवाज के अनुसार तो क्षुल्लक पात्र में ही भोजन करे, ऐलक हाथ में भोजन करे, एक नियम है, पर अभ्यास रूप की बात अलग है । यह चारों पर्वो में नियम से उपवास करता है । वह पर्व संबंधित तीन-तीन दिन में शाम की कुछ ग्रहण नहीं कर सकता । अर्थात् उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य किसी भी प्रकार का प्रोषध करता है ।
भोजन के मिलने और न मिलने में इस श्रावक को समता परिणाम रहता है, खेद खिन्न नहीं होता । यह बात उस महापुरुष के बन सकती है जिसको आत्मा की धुन है । आत्मानुभव को ही जो सर्वोत्कृष्ट वैभव मानता है और अन्य क्रियाकलापों को या संघ समागमों को वह बेकार समझता है उसमें ही ऐसी सहनशक्ति हो सकती है कि आहार न मिलने पर भी वह समता परिणाम रख सके । जिसके आत्मदृष्टि नहीं मिली उसको समता परिणाम ऐसी स्थिति में रखना बहुत कठिन है । दूसरे उत्कष्ट श्रावक की यानि ऐलक की भी वही क्रिया है किंतु नियम है यह कि केशलुंच करे, पिछी रखे और हाथ में भोजन करे । ये तीनों नियम आवश्यक हैं ऐलक में और ये तीनों नियम क्षुल्लक में आवश्यक नहीं । केशलुंच के बजाय बाल बनवा भी सकता है पिछी के बजाय कोमल कोई वस्त्र सूत के भी रख सकता है और पात्र में भी भोजन कर सकता है । उत्कृष्ट श्रावक को मुनि की तरह योग धारण करने का अधिकार नहीं अर्थात् उस प्रकार का तपश्चरण श्रावक को नहीं कहा गया है जिसे प्रतिमायोग कहते है । गर्मी में पर्वत के शिखर पर बैठना, बरसात में वृक्ष के नीचे खड़े रहना, शीत में नदी के किनारे रहना आदिक जो विशेष योग विधान है वे मुनि के लिए ही कहे गए हैं । मुनियों में भी विशिष्ट समर्थ मुनि करते है तथा जिन्हें आचार्य समर्थ समझते हैं उनको आज्ञा देते हैं ।
श्रावक के षट्कर्मों में प्रथम आवश्यक कर्म इज्या―श्रावकों में सामान्यतया जो घर में रहने वाले पुरुष है उनकी चर्या षट्कर्मों में बतायी गयी है । जिन षट्कर्मों को वसुनंदी श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है इज्या, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तप वैसे प्रसिद्ध रूप से षट्कर्म ये हैं देवपूजा, गुरुपास्ति की जगह वार्ता नाम का कर्तव्य रखा है । जिस वार्ता में अन्य अनेक बातें भी आती हैं और गुरुपास्ति भी आता है, तथा गुरुपास्ति इज्या में भी आ जाता है । इसलिए दोनों प्रकार के वर्णनों में कुछ विरोध नहीं है । पहला कर्त्तव्य है पूजा । उसके 5 भेद किए गए । नित्य पूजा, चतुर्मुख पूजा, कल्पवृक्ष पूजा, अष्टांग पूजा और इंद्रध्वज पूजा । जो प्रतिदिन शक्ति अनुसार घर से द्रव्य ले जाकर जिनलय में जिनेंद्र देव की पूजा करना अथवा चैत्यचैत्यालय बनवाना, उनके प्रबंध के लिए जायदाद आदिक लगाना और मुनिजनों की पूजा करना नित्य पूजा कहा है । चतुर्मुख पूजा मुकुटबद्ध राजावों द्वारा जो कोई पूजन का विधान होता है वह चतुर्मुख पूजा है । कल्पवृक्ष पूजा, याचकों को इच्छानुसार दान देकर तृप्त करता हुआ उदार भाव रखकर जो पूजन करता है जिनेंद्रदेव की, उसे कल्पवृक्ष पूजा कहते है । अष्टाह्निका पर्व में जो पूजा की जाती वह अष्टाह्निका पूजा है, और इंद्रादिक द्वारा जो जिनपूजा की जाती है वह इंद्रध्वज पूजा है ।
श्रावक का द्वितीय व तृतीय कर्त्तव्य वार्ता व दान―श्रावक का दूसरा कर्त्तव्य है वार्ता । इसमें मुख्यता है न्यायपूर्वक धन कमाने की । जो गृहस्थ के योग्य असि मषि कृषि आदिक कर्त्तव्य बताये गए है जो आजीविका के साधन हैं उन्हें न्यायपूर्वक करना यह वार्ता में मुख्य बात है, तीसरा कर्त्तव्य है दान । इस दान को चार भागों में बांटा गया है । (1) दयादान, (2) पात्रदान, (3) समदान और (4) सकलदान । जो प्राणी दया के पात्र है उनपर दया करके दान करना दयादान कहलाता है । जिस गृहस्थ के दयालुता है कि कोई भी मांगने आये, भूखा है, ठंड का सताया है तो उसको वस्त्रादिक दे, आहार आदिक दे, वह सब दयादान है । पात्रदान―तपस्वी साधु संतों को नवधा भक्तिपूर्वक निर्दोष आहार नवधा पूर्वक देना, कमंडल पिछी आदिक देना ये सब पात्रदान कहलाते है । समदान कहलाता है गृहस्थी में परस्पर बिरादरी में, साधर्मी बंधुवों में, जैसे कन्या देना, भूमि देना, धन देना, साधन जुटाना साधर्मी भाइयों को, यह सब समदान कहलाता है । और सकलदान वह कहलाता है कि अपने परिवार के किसी को या समाज के किसी व्यक्ति को सर्वस्व सौंपकर सबका त्याग कर देना यह सकलदान है । सकलदान का फल यह है कि वह फिर मुनि दीक्षा ले लेता है ।
श्रावक का कर्त्तव्य स्वाध्याय व संयम―चौथा कर्त्तव्य है स्वाध्याय । तत्त्वज्ञान का अध्ययन अध्यापन करना, जिसमें तत्त्व पर दृष्टि जाय, सहज आत्मस्वरूप पर दृष्टि की साधक भगवद्भक्ति अथवा वस्तुस्वरूप की चर्चा आदिक बने तो वह सब स्वाध्याय कहलाता है । 5वां कर्त्तव्य है संयम । इंद्रिय संयम प्राणिसंयम में बारह व्रतों का पालन करना यह गृहस्थ का संयम है और छठवां कर्त्तव्य है तप । इच्छा का निरोध, अपनी शक्ति के अनुसार विषय वांछा को दूर कर अपनी धर्मसाधना में लगना यह गृहस्थ के योग्य तप कहलाता है । तो ऐसे इन षट् कर्त्तव्यों को करता हुआ श्रावक अपना मनुष्य जीवन सफल करता है और जैसे-जैसे कषाय का उपशम होता जाता है आत्मबल बढ़ता जाता है वैसे ही वैसे वह प्रतिमावों में बढ़ता जाता है । और बढ़-बढ़कर फिर उसका अंतिम प्रतिमा का रूप कहलाता है उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा । यह उत्कष्ट श्रावक भगवद्भक्ति और आत्मस्वरूप की दृष्टि इन दोनों कार्यों को ही मुख्य समझता है । फिर चूँकि आहार करना आवश्यक है अथवा अन्य कोई धार्मिक क्रिया करना आवश्यक है सो करता है पर उन समयों में भी अपनी इस दृष्टि और प्रतीति को नहीं छोड़ता । उपदेश भी देगा तो उपदेश देता हुआ अपने आपके स्वरूप की दृष्टि की भी सम्हाल रखेगा । यह तो स्वाध्याय का भेद है उपदेश । स्वाध्याय वह कहलाता है कि जहाँ स्व का अध्ययन हो, आत्मतत्त्व का अध्ययन चले, तो उपदेष्टा जो भी उपदेश में कहता है वह अपने को भी सुनाता रहता है, दूसरों को भी सुनाता रहता है, उपदेश में भी अंतस्तत्त्व की दृष्टि स्वयं के अध्ययन की रहती है । कोई बात पूछता है तो केवल स्व की दृष्टि दृढ़ हो, कोई शंका न रहे मेरे में अथवा जो समझ रखी है वह पदार्थ मेरे में पुष्ट जंचे, इन भावों से पृच्छना चलती है । जो लोग आत्मदृष्टि की भावना को छोड़कर अन्य भावों से पूछते हैं, ग्रहण करते हैं कि मेरा इसमें बड़प्पन जाहिर होगा या वक्ता से उत्तर न बने तो मेरी इज्जत बढ़ेगी आदिक भावों से प्रश्न करते हैं तो वह स्वाध्याय में नहीं माना गया है, इसी प्रकार आम्नाय पाठ करना, भक्ति का पाठ, विनती का पाठ जो भी पाठ करना है उसका भी अर्थ समझता हुआ करे और उसको अपने पर घटाता हुआ करे तो वह स्वाध्याय है । अनुप्रेक्षा में तो अपने आत्मतत्त्व का चिंतन ही चलता है विशेषतया । तो जहाँ अंतस्तत्त्व दृष्टि की साधना बनती है ऐसे ये वाचना आदिक 5 प्रकार के स्वाध्याय ये स्वाध्याय कहलाते हैं ।
धर्म के साधनों में साधकों की एकमात्र प्रधान दृष्टि―केवल एक ही दृष्टि है । इन सब साधकों के मायने मुझे तो परमात्मपद पाना है अथवा यह भी नहीं सोचना है किंतु सहज आत्मा का जो स्वरूप है बस उसको निरखना है और इस ही रूप अपने की मानना है । इसका फल तो यह ही है कि मैं परमात्मा बनूँगा । तो परमात्मपद से पहले की जितनी भी स्थितियां है वे सब इसको बेकार लगती हैं और यहाँ तक भी चिंतन चलता है कि इस ज्ञानानुभूति के अतिरिक्त जो कुछ भी उसकी चेष्टायें होती हैं वे सब अज्ञान चेष्टायें है । अज्ञान, मिथ्याज्ञान को भी कहते हैं । अज्ञान, ज्ञान का पूर्ण विकास न हो, ऐसी स्थिति को भी कहते है । कषाय भी अज्ञान है, मिथ्यात्व भी अज्ञान है । तो जो-जो भी चेष्टायें हुई, हो रही है वे सब अज्ञान चेष्टायें हैं । ऐसा साधुजन भी ध्यान रखते है कि मेरी पहले जो चेष्टायें रहीं वे सब अज्ञान चेष्टायें हैं । ज्ञान चेष्टा तो ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो, इस तरह की जो वृत्ति है वही वास्तव में ज्ञान चेष्टा है । जैसे धनी पुरुष पाये हुए धन को देखकर संतुष्ट रहे, ऐसी वृत्ति नहीं कर पाता, ऐसे ही ज्ञानी पुरुष पाये हुए गुण विकास को देखकर संतुष्ट हो जाय, रम जाय ऐसा न करके अपनी त्रुटियों को सामने देखता है, उस कमी पर दृष्टि रखता है कि अभी यह भी हटाना है, यह भी हटाना है और इस प्रकार अपनी उन कमियों को हटाता है, गुण विकास होना तो स्वाभाविक ही बात है । तो कर्त्तव्य यह है कि परमात्मा होने का ध्येय बने, भले प्रकार निर्णय बने और कुछ वांछा न रहे, उसके लिए ही धुन बने और प्रयत्न बने, यह ही आत्महित प्राप्त करने का वास्तविक उपाय है।