वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 16
From जैनकोष
दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलै: ।
प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञै: स्थितीकरणमुच्यते ।।16।।
सम्यक्त्व और चारित्र से चलित हो रहे स्व पर को सम्यक्त्व व चारित्र में स्थित करने की ज्ञानी की वृत्ति―ज्ञानी पुरुष स्व और पर के अंत: स्वरूप को जान चुका । मैं हूँ यह ज्ञानमात्र अपने स्वरूपास्तित्त्व से परिपूर्ण और अन्य द्रव्य अनंतानंत शेष जीव, अनंतानंत सभी पुद्गल एक धर्मद्रव्य एक अधर्मद्रव्य एक आकाशद्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य, ये सब पर द्रव्य हैं । एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में प्रवेश कभी नहीं होता । निमित्त नैमित्तिक व्यवस्था तो ठीक है परंतु एकद्रव्य का सत्त्व दूसरे में विलीन हो गया हो, यह कभी नहीं हुआ अथवा एक पदार्थ का दूसरा कुछ लग गया हो स्वामी हो गया हो यह कभी नहीं हो सकता । मैं अपने आप में अपने आपको करता हूँ । अपने द्वारा करता हूँ । अपने लिए करता हूँ । अपने में करता हूँ । यही हमारा वास्तविक व्यवसाय है । ऐसे ही सब द्रव्यों का अपना व्यवसाय है । तो। ऐसा परिचय हो जाना शांति का आधार है । सो इस ज्ञानी का अपने आप में यह निर्णय बना है कि हम को अपने दर्शन ज्ञान चारित्र से स्खलित न होना चाहिए क्योंकि अपने स्वरूप की दृष्टि से अलग होकर किसी बाह्य पदार्थ में उपयोग रखेंगे, उसी को अपना सर्वस्व मानेंगे तो उसमें सिवाय आकुलता के और कुछ नहीं है । यह बात प्रसिद्ध है । ऐसा निर्णय करने वाला जीव भी इसी धर्म से संबंधित अन्य समारोह में, प्रबंध में, व्यवस्था में लगता है पर ध्येय उन सब व्यवस्थावों का यही है कि मेरा रत्नत्रय स्वरूप मेरे को प्रकट हो । तो अपने आपकी इस रत्नत्रय से स्खलित न करना चाहिए और दूसरे सम्यग्दृष्टि ज्ञानीजीव किसी कारण से यदि वे अपने धर्म से चलित हो रहे हों तो हर उपायों से उन्हें धर्म में स्थिर करना यह कहलाता है स्थितिकरण अंग ।
धर्मवत्सलता हुए बिना यथार्थ स्थितिकरणाडग की अनुत्पत्ति―यह स्थितिकरण तब तक नहीं हो पाता जब तक कि धर्मवत्सलता प्रकट न हो । वह रत्नत्रय धर्म जिसको प्रिय है वही दूसरे आत्मावों से प्रेम कर सकता है । जैसे कि सिनेमा देखने जाने वाले लोग अन्य देखने जाने वाले लोगों से अपनी मित्रता बना लेते हैं और एक दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर सिनेमा देखने जाते है, ऐसे ही मोक्ष मार्ग में जाने वाले ज्ञानी पुरुष दूसरे साधर्मी बंधुवों से अपनी मित्रता बनाकर चलते हैं वे सब परस्पर में एक दूसरे का कल्याण चाहते हैं । ज्ञानी जीव ने अपूर्व वैभव पाया है अपने सहज आत्मस्वरूप का दर्शन । सहज आत्मस्वरूप का ज्ञान । सहज आत्मस्वरूप में रमण । यही कला उसको इस संसार समुद्र से पार करने वाली है । तब इस ज्ञानी जीव को अन्य सब बाह्य चीजें अनुपादेय लगती हैं जैसे कहते है कि काक बीटसम गिनत है सम्यग्दृष्टि लोग । यहाँ यह न समझना कि पुण्यभाव को काकबीट कहा, वह काकबीट समान नहीं है किंतु वह कथंचित उपादेय है और उसी के सिलसिले में पुण्यभाव छूटकर धर्मभाव आता है । आचार्यों ने बतलाया है कि अशुभोपयोग अत्यंत हेय है । शुभोपयोग हेय नहीं है और शुभोपयोग अत्यंत उपादेय है । इन तीन शब्दों में क्या बात आयी कि अत्यंत हेय है अशुभोपयोग, शुभोपयोग अत्यंत हेय नहीं । किंतु शुभोपयोग की परिस्थिति में जब शुद्धोपयोग की योग्यता बने तब शुभोपयोग हेय है । जैसे कि प्रवचनसार में व्रत धारण करते समय भक्त क्या कहता है: कि हे समिति हे व्रत, हे तप, मैं कब तक तुम को ग्रहण करता हूँ जब तक कि तुम्हारे प्रसाद से मैं शुद्धोपयोग को न प्राप्त होऊं । कोई-कोई लोग तो प्रभु की भक्ति करते समय यह कहते हैं कि हे प्रभो, मैं भव-भव में तुम्हारा दास रहूं । मगर विवेकी पुरुष की यह आवाज निकलती कि हे प्रभो, तुब पद मेरे हिय में ममहिय तुब पुनीत चरनन में । तब लौ लीन रहे जब लौ प्राप्ति न मुक्ति पद की होय कहीं ऐसा सोचने से भक्ति में हीनता न समझिये किंतु वस्तुस्वरूप की यथार्थ पकड़ समझिये ।
भक्ति और भक्ति का प्रभाव―भक्ति दो प्रकार की है । भक्त भी दो प्रकार के मिलते हैं एक तो प्रभु से डर मानकर प्रभु से आशा मानकर भक्ति करना । ऐसे भक्त मिलेंगे ईश्वर सृष्टिकर्तावादी, जो मानते हैं कि हम को ईश्वर स्वर्ग में ले जाता, नरक में पटकता, तो वे डर मानकर ईश्वर की भक्ति करते । कहीं यह ईश्वर मुझे नरक में न पटक दे सुख से हटाकर दुःख में न डाल दे, इस कारण ईश्वर की भक्ति करते । तो एक तो इस तरह के भक्त हुए । दूसरे वे भक्त होते जो प्रभु के गुणों से अपने गुणों का परस्पर में मिलान करके भक्ति करते । गुण के मायने प्रकट दशा न लेना किंतु शक्ति लेना । शक्ति याने प्रभु का जो स्वरूप है उस शक्ति को और अपनी स्वरूप शक्ति को एक समान मानते हैं । जब एक समान जानना और अंतर रहा पर्याय का―मैं वह हूँ जो हैं भगवान जो मैं हूँ, वह हैं भगवान । अंतर यही ऊपरी जान, वे विराग यह राग वितान । यह ऊपरी अंतर है कि वे वीतराग हैं और यहाँ राग का फैलाव है । ऊपरी अंतर क्यों कहा? अंतर तो सब भीतरी है । परिणामों में अंतर क्यों आया? पर स्वरूप में अंतर नहीं है यह बात जताने के लिये ऊपर शब्द डाला है । कहीं स्वरूप में अंतर न जानना । स्वरूप स्वभाव एक है । तो ऐसा एक स्वरूप देखकर जो भगवान के स्वरूप की ओर खिंचाव होता है वह विशुद्ध खिंचाव है, विशुद्ध भक्ति है, और जो किसी आशा और भय से भक्ति होती है उसमें भीतर का अभेदभाव नहीं है भक्ति में एक रसपना नहीं है । वह डर और आशा के कारण भक्ति है । एक रसपने की भक्ति तब ही हो सकती है जब द्रव्यत: गुणंत: समान पर्यायत: अंतर यह बात समझ में आये तब प्रभु के गुणों में एक रसरूप से भक्ति बनेगी । तो प्रभु की भक्ति कहो या आत्मस्वरूप की भक्ति कहो, दोनों में अधिक अंतर नहीं है । क्योंकि वह प्रभु स्वरूप क्या है? जो आत्मा का वास्तविक रूप है वही विकसित हुआ है । जैसे पत्थर की प्रतिमा बनाने में कोई बाहरी चीज ला-लाकर नहीं बनायी जाती किंतु जिस पाषाण में से प्रतिमा बनाना है उस पाषाण के अंदर वह प्रतिमा स्वयं विद्यमान है । किंतु उसको ढाकने वाले, आवरण करने वाले पत्थरों को हटाने की जरूरत है । मूर्ति ज्यों की त्यों प्रकट हो जायगी, तो ऐसे ही सिद्ध स्वरूप होने के लिए हमें अपने आत्मा में बाहर की कोई चीज नही लगाना है किंतु इस स्वरूप के बाधक जो विषय कषाय आदिक आवरण हैं उन्हें हटाना है उनके हटते ही वह स्वरूप स्वयं प्रकट हो जायगा । तो ऐसा अपने स्वरूप का परिचय पाये हुए ज्ञानी संत स्थितिकरण अंग का पालन करते हैं । वे दूसरों का स्थितिकरण कैसे करते सो सुनो―कोई पुरुष काफी आर्थिक संकट में पड़ा है । जिसका साधारण ढंग का भी गुजारा नहीं चल पाता उसको प्रकार से सहयोग देकर स्थिर कर देता है । किसी के चित्त में दुविधा आयी है तो उसे सत्यार्थ स्वरूप सुना सुनाकर उसके चित्त को बदलता है, स्थिर करता है । जो भी उपाय बने उन सब उपायों से ज्ञानी जीव दूसरों को धर्म में स्थिर करता है । यह है ज्ञानी पुरुष का स्थितिकरण अंग । और भीतर में स्वयं अपने लिए निरखता है कि मैं इस बाहरी स्वरूप से अलग हूँ, कितना मैं अपने धर्म से च्युत हुआ, कितना मैं अटपट क्रियावों मे लग गया हूँ । उसे निरखकर वहाँ से हटकर अपने आप में आने का वे पौरुष करते हैं ।
ज्ञानमात्र, ज्ञानधन च आनंदमय के संचेतन के तीन आत्मक्रांतिकारी कदम―जो अभी मंगल तंत्र में आपने तीन विशेषण पढ़े थे―(1) मैं ज्ञानमात्र हूँ (2) मैं ज्ञानधन हूँ (3) मैं सहज आनंदमय हूँ । तो यहाँ तीन विशेषण―ज्ञानमात्र, ज्ञानघन, और आनंदमय इनका एक क्रम बन जाता है । अपने आप में रमने के लिए इस क्रम ने कितनी मदद की । जब यह आत्मा बाहर की चीजों में बहुत भटक गया । देश में, क्षेत्र में, काल में बहुत बाहर चला गया कल्पनाओं द्वारा कल्पनाओं से उन चीजों को अपना मानने लगा तो वह पुरुष एक ही झटके में मैं ज्ञानमात्र हूँ । ज्ञानस्वरूप के अतिरिक्त जितने भी परपदार्थों का समूह है उसको एक झिटके में झिटक देता है । जिसे कहेंगे आऊं । बाह्य पदार्थों में मैं बहुत भटक गया था । अब वहाँ से हटकर आऊं, रम लूं, ऐसा कहो, या ज्ञानमात्र, ज्ञानघन, आनंदमय ऐसा कहो । सब पदार्थों से अलग होकर अपने स्वरूप तक पंहुचने के लिए बहुत विशेषणों द्वारा उसने झिटक दिया-ज्ञानमात्र, और फिर अपने ही ज्ञान में संतुष्ट रहने के लिए ज्ञान से बाहर अब कभी न जाने के लिए उसने भीतर में अनुभव किया कि मैं ज्ञानघन हूँ । घन कहते हैं वही वहीं, ठोस परिपूर्ण । अधूरा जरा भी नहीं, अपनी पूरी सत्ता लिए हुए हूँ, और वह है सब ज्ञान ज्ञानरूप । तो इसी को कहते है उतरूं । मैं अपने इस ज्ञानस्वरूप में उतर जाऊं, इस ही में रहकर संतुष्ट होऊं, तो जब यहाँ तक आये तो अब इतना भी ख्याल छोड़ने की जरूरत है कि मैं ज्ञानरूप हूँ ज्ञानघन हूँ यह भी विकल्प छोड़ने की जरूरत है । तो वह तीसरी उपमा में यों अनुभव करता कि मैं आनंदमय हूँ । यह सब ज्ञान निज का है, निज की ही चेष्टा है, इस निज की वृत्ति में निज की क्या दुविधा? जब ही एक दृष्टि की और एक अपना समग्र आत्मस्वरूप उसने दर्शन में लिया, इस काम को करने न आयेंगे । भगवान के गुणों का चिंतन कर मैं अपने गुणों का पोषण कर रहा हूँ । तो भगवान निमित्त भर हुए और करना अपने को ही है ।
संसार में मोहवश विभ्रांतियों के कारण विडंबितपना―इस संसार में इस जीव ने अनंतभव धारण करके अन्य तो सब कार्य किया विषय संबंधित किंतु अपने आत्मस्वरूप की उपासना का कार्य अब तक नहीं किया । इसका प्रमाण क्या है कि अब तक संसार में रुल रहा है । इससे अधिक और प्रमाण क्या? कोई पुरुष किसी शराब बेचने वाले की दुकान पर गया । दुकानदार से बोला कि मुझे शराब चाहिये, क्या आपके पास अच्छी शराब होगी? हां-हां अच्छी है । अजी नहीं बहुत अच्छी चाहिए । हां-हां बहुत ही अच्छी है, इसका प्रमाण क्या है सो चलकर साक्षात् देख लो । यह कहकर ले गया दुकान के पीछे और बताया कि देखो ये जो तुम्हारे चाचा बाबा नापदान में बेहोश होकर पड़े हैं । जिनके मुख पर कुत्ते भी मूत रहे हैं उन्हें देखकर अंदाजा कर लो कि हमारे यहाँ की शराब अच्छी है या नहीं । तो ऐसे ही संसार में देख लो―इस जीव ने अब तक ज्ञानसुधारस का पान नहीं किया इसका प्रमाण साक्षात् यही है कि यह जीव अभी तक इस संसार में रुल रहा है । इस जीव ने अनादि से अब तक न जाने कितना दुःख सहा । बहुत गौर से देखिये―जिस क्षण खाने का आनंद मान रहे है या अन्य विषयों का आनंद समझ रहे हैं उस समय भी जरा भीतर में अनुभव करके तो बताओ कि उन विषयों का सुख भोगने में इस जीव को कितना क्षोभ होता, कितनी आकुलता मचानी पड़ती । इसलिये ये वैषयिक सुख दु:ख रूप ही हैं । केवल कल्पना में लख मान रहा है । सुख के भोगने में भी क्षोभ है । दुःख पाने में क्षोभ है यह तो स्पष्ट ही बात है । तो यह जानकर कि मेरे आत्मस्वरूप के अतिरिक्त अन्य कुछ भी तत्त्व ऐसा नहीं हैं जिसमें मैं अपने मन को रमाऊँ और कृतार्थ होऊं ।
आत्मज्ञान बिना अपनी अव्यवस्थितता―जग में कुछ भी पदार्थ नहीं है ऐसा कि जिसमें मुझे रमना चाहिए । घर में सी पुत्र मित्रादिक जो भी रह रहे हैं उनसे राग करना पड़ता है । राग किये बिना घर में रह नहीं सकता, इसलिए राग किया जा रहा किंतु अंत: यह समझना चाहिए कि जैसे पड़ोस के या अन्य भव के जीव भिन्न है ठीक उसी तरह से घर में रहने वाले सभी जीव मेरे से अत्यंत भिन्न हैं । इसमें रंच भी गल्ती नहीं हैं । ठीक उतना ही अंतर है जितना भिन्न अन्य जीव हैं क्योंकि उनका परिणाम उनमें हैं । उनका अनुभव उनमें हैं, उनके कर्म उनमें हैं । उनका उदय उनके साथ है । मैं उनमें कुछ परिणति कर नहीं सकता, वे मुझ में कुछ परिणति कर नहीं सकते । केवल राग वश ही ऐसी बातें की जाती हैं कि तुम हम को बहुत प्रिय हो । तुम्हारे बिना तो प्राण भी नहीं टिक सकते । तो यह तो ऐसी बात है कि उष्ट्रानां विवाहेषु गीत गायंति गर्दभा; परस्परं प्रशंसंति अहो रूपमहो ध्वनि: । कहीं ऊंटों का विवाह हो रहा था; उसमें गीत गाने के लिए गधे बुलाये गये थे । तो वहाँ गधे गीत गा रहे थे―अहो ऊंट तुम कितने सुंदर हो । तुम्हारा रूप बड़ा सुंदर है तो ऊंट कहते―अहो गधे―तुम्हारा बोल कितना सुंदर है तुम बड़ा सुंदर राग अलाप करते हो । अब देख लो न तो सुंदर रूप ऊंटों का और न सुंदर आवाज गधों की फिर भी दोनों एक दूसरे की प्रशंसा करके मौज मानते हैं ठीक ऐसी ही बात यहाँ समझिये । वास्तव में यहाँ कोई किसी से प्रीति नहीं करता, रागवश ही सब एक दूसरे से प्रीति का व्यवहार करते हैं । तो यह राग परिस्थितिवश करना पड़ता है । जैसे कोई रोगी औषधि से राग करता है औषधि पीना छूटने के लिए । वह नहीं चाहता कि मुझे यह औषधि जिंदगी भर पीना पड़े किंतु वह तो यह चाहता है कि कब मुझे औषधि पीने से छुट्टी मिले । औषधि पीने से छुट्टी मिले मायने मेरा रोग कब दूर हो इसके लिए वह औषधि से राग करता है और उसका पान करता है । उस रोगी को जैसे उस औषधि से मोह नहीं है ऐसे ही अपने आपके आत्मा को थोड़ा सम्हाल तो लीजिए अपने ज्ञानबल से और ज्ञान में ही अपने आत्मा को नियंत्रित रखिये और स्पष्ट भीतर प्रकाश पाइये कि मैं मात्र आत्मा हूँ, मेरा सर्वस्व मुझ में हैं, मेरे से बाहर मेरा कुछ नहीं है, ऐसा करने के बाद फिर घर की वे सब व्यवस्थायें करें । करनी पड़ेगी । तो उन व्यवस्थावों के करते हुए न तो आकुलता मचेगी और न व्यामोह होगा ।
आत्मसुध बिना अन्य समागम की विडंबना―भैया, सर्वश्रेष्ठ धन है अपने आत्मा का ज्ञान । इसके बिना सब बेकार । एक घटना राँची की है । काफी दिन पहले जब हम वहाँ गये थे तो एक जगह क्या देखने में आया कि यहीं का कोई वैष्णव भाई जो कि बहुत बड़ी संपत्ति का मालिक था उसका बहुत दिनों से दिमाग खराब हो गया, उसको खाने के लिए एक होटल में इंतजाम कर दिया गया, रही सारी संपत्ति उसके ही नाम से, मगर क्या रहा अब उसके लिए? वह सब संपत्ति उसके लिए बेकार । वह तो ज्यों का त्यों दरिद्र रहा । तो जिसका ज्ञान अपने में स्पष्ट नहीं है, व्यवस्थित नहीं है उसके लिए यहाँ का सब कुछ बेकार है और जिसका ज्ञान व्यवस्थित है । साथ ही आत्मज्ञान है तो फिर उसकी शान की कहना ही क्या? वह तो अपने में एक गौरव अनुभव करता है, निराकुलता अनुभव करता है और फिर घर की व्यवस्था भी वह बड़ी उत्तम बनाता है । मान लो परिवार में कोई बड़ा मोह करके रह रहा स्त्री पुत्रादिक परिजनों से तो उसका क्या हाल होगा, सो तो जानते ही हो । वह तो उनके पीछे निरंतर दुःखी रहेगा और जो निर्मोही बनकर परिवार के बीच रहेगा उससे सब भय मानेंगे कि कहीं ऐसा न हो कि वह घर छोड़कर कब चल दे इसलिए घर के सब लोग उसकी आज्ञा में रहेंगे । तो घर की व्यवस्था के नाते भी आप देख लीजिए परिवार में निर्मोह बनकर रहने में घर की अच्छी व्यवस्था बनती है ।
आत्मज्ञान का माहात्म्य―आत्मज्ञान का बड़ा अद्भुत माहात्म्य है । उसके फल में इस भव में भी आनंद पाये और परभव में भी पाये । यहाँ का पाया हुआ सारा समागम तो इस ही भव में छूट जायेगा, यहाँ का कुछ भी समागम साथ न देगा । यह मैं आत्मा अपने आप में अकेला ही हूँ, स्वतंत्र हूँ । जो मुझ में मेरा स्वरूप है वह अनादि से है, अब भी है । कभी छूटेगा नहीं मुझ से । उसमें दुःख का क्या काम । जो सत् है वह कभी नष्ट नहीं होता । सत् का कभी विनाश नहीं होता । मेरे में कोई अपूर्णता ही नहीं है फिर घबड़ाने की क्या बात मान लो वैभव मेरे घर में न रहा, अन्यत्र कहीं चला गया तो उससे मेरे आत्माराम का क्या बिगाड़ हो गया? अथवा परिवार का कोई गुजर गया तो उससे मेरे आत्माराम का क्या बिगाड़ हो गया । किसी भी पर पदार्थ के परिणमन से इस मुझ आत्मा का कुछ भी बिगाड़ अथवा सुधार नहीं होता । मैं ही उनके प्रति नाना प्रकार की कल्पनायें करके स्वयं दुःखी अथवा सुखी होता हूँ । पर पदार्थ के पीछे संकल्प विकल्प करने से तो निरंतर आकुलता है कष्ट है अत: अपना कर्तव्य यह है कि अपने ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व को सम्हालूँ उसको ही निरख निरखकर संतुष्ट रहूँ तो यह अभ्यास यह संस्कार जैसे-जैसे दृढ़ होता जावेगा वैसे ही वैसे इसका विकास होता चला जावेगा । तो जरूरत है इस बात की कि जिस काम को अभी तक नहीं किया वह काम कर लें । अन्य सभी काम तो कितने ही बार अब तक कर लिया होगा । न जाने कितने बार अब तक संसार में जन्ममरण करके चतुर्गतियों में परिभ्रमण किया होगा, वहाँ क्या-क्या काम नहीं किया । सब कुछ किया, सभी जीवों का समागम कितने कितने ही बार अब तक किया, चाहे किसी भी रूप में किया हो । पर वे सब बातें नि:सार रही, लाभ कुछ न मिला, उनसे इस जीव का कल्याण नहीं है । इन सबसे निराला जो अपना आत्मतत्त्व है उसको सम्हालिये और निर्मोह होने का साहस बनाइये, और वह है क्या साहस? भीतर ज्ञान से ज्ञान में सोचना भर हैं बाहरी श्रम करने की जरूरत नहीं । दूसरों से किसी प्रकार की आशा करने की जरूरत नहीं । अपने ज्ञान से अपने ज्ञान में अपने ज्ञानस्वरूप को निरखिये, यह मैं हूँ पूरा अविनाशी तत्त्व । ऐसा लखने वाला पुरुष रत्नत्रयभाव से चलित नहीं होता ।