वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 17
From जैनकोष
स्वयूथ्यान् प्रति सद्यावसनाथापेकैतवा ।
प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ।।17।।
सम्यग्दृष्टि का वात्सल्य अंग―वात्सल्य अंग―रत्नत्रयधारियों के प्रति निष्कपट अनुराग जगना वात्सल्य कहलाता है। । इसमें यह निर्णय किया कि यह जगत बसने के काबिल नहीं है । इस संसार में चतुर्गतियों में निरंतर अपवित्रता है और दुःख ही दुःख है । चाहे बड़े से बड़े वैभव का समागम हो लेकिन उसके आश्रय में शांति नहीं मिलती । किसी भी परतत्त्व के आश्रय में शांति नहीं मिलती । कहीं दुःख कम हो जाता है तो लोग उसे सुख कहने लगते हैं । जैसे तेज बुखार वाले का बुखार यदि हल्का हो जाय तो वह कहता है कि अब तो हम बड़े सुख में है । तो ऐसे ही जो कठिन दुःख है वह दुख न रहा, उपयोग बदल गया विषयों के उपभोग में तो वह ऐसा सोचता है कि मैं सुख पा रहा हूँ, पर भीतर जो विधि है जो मुद्रा बन रही है वह तो क्षोभ की है आकुलता की है । संसार में कहीं भी सुख नहीं है । यह जगत् रहने के योग्य नहीं । यहाँ का समागम पकड़े रहने के योग्य नहीं । जिसका यह निर्णय हुआ है उसे धर्मात्मा में और धर्मात्माजनों में प्रेम जगता है । संसार में, संसार के साधनों में प्रेम रहे और धर्म-धर्म धर्मात्मावों में भी प्रेम रहे ये दो बातें एक उपयोग में नहीं रहती । तो जिसने आनंदमय ज्ञानस्वरूप सबसे निराले इस गुप्त अविकार अंतस्तत्त्व का परिचय पाया है वह अपने गुणों में अनुरक्त रहता है । यहाँ ही श्रद्धान रहता है और बार-बार इस ज्ञानमात्र अंत: स्वरूप का अनुभव करके प्रसन्नता पाता रहता है ।
स्वरूपपरिचयी पुरुष का स्वरूप में वात्सल्य और उसका प्रभाव―स्वरूपपरिचयी पुरुष को अपने साधर्मीजनों को निरखकर, मोक्षमार्ग में चलने वाले महान पुरुषों को देखकर बहुत प्रसन्नता उत्पन्न होती है । बहुमान होता है क्योंकि यह जान रहा कि यह भी सर्व की उपेक्षा करके एक मुक्ति के मार्ग में चल रहा है । तो जिस बात को हम चाहते थे वही बात जो कोई दूसरा चाहे तो वहाँ गाढ़ अनुराग हो ही जाता है । तो यहाँ निश्चय से तो है अपने आपके गुणों में वात्सल्य और व्यवहार से कहा जाता है । धर्मात्माजनों में वात्सल्य व्यवहार से कहा जाता, इसका यह अर्थ है कि मैं आत्मा जो कर सकता हूँ सो अपने प्रदेशों में ही कर सकता हूँ । बाहर कुछ नहीं कर सकता हूँ फिर भी बाहरी आश्रय लेकर विषय बनाकर जो अपने में परिणाम बनाता हूँ तो बाहर की बात कहना । वात्सल्य करते हैं ऐसा कहना यह व्यवहार से कहा जाता है । उसे प्रेम अपने आपके रत्नत्रय में और रत्नत्रय के स्वरूप में रत्नत्रयधारी में निश्छल हुआ करता है । इसके लिए उदाहरण दिया गया है गौवच्छ प्रीतिसम । जैसे गाय बछड़े के प्रति प्रीति रखती है क्योंकि गाय को बछड़े से रंच भी आशा नहीं रहती कि यह बछड़ा बड़ा होकर मेरी सेवा करेगा फिर भी उस बछड़े को देखकर गाय को इतना गाढ़ अनुराग होता कि कदाचित वह बछड़ा नदी में गिर जाय तो वह गाय उस बछड़े को बचाने के लिए नदी में कूद जाती है । इतना अधिक अनुराग होता गाय को अपने बछड़े से । तो निश्छल अनुराग की समानता से गाय बछड़े का उदाहरण दिया, कहीं सुनने बनाने के लिए नहीं । ऐसे ही अपने रत्नत्रयधारियों के प्रति यथायोग्य आदर और यथायोग्य वात्सल्य होता है ।
धर्मात्मा को सर्वत्र त्वरित धर्म का दर्शन―यह सम्यग्दृष्टि जीव अंतरंग में तो अपने शुद्ध ज्ञानस्वरूप में अनुराग रखता है और बाह्य में धर्म के आयतन में अनुराग रखता है तो अन्य मिथ्यादृष्टि जनों से द्वेष नहीं करता । कैसी समता है कि गुण और गुणी में अनुराग है किंतु मिथ्यादृष्टि जनों के प्रति द्वेष न उत्पन्न होना चाहिए । वहाँ भी यही देखना है कि यह जीव भी सहज आत्मस्वरूप है । ज्ञानी जीव को सभी जीव एकदम प्रथम ही सहज आत्मस्वरूप के रूप से नजर आते है । पश्चात कर्मदशा के कारण हुए भेदों को निरखता है यह ज्ञानी जीव की एक परमार्थ कला है । कीड़ा मकोड़ा पशुपक्षी दरिद्र भिखारी किसी भी जीव को देखकर एकदम पहले यही ही निर्णय होता है कि यह भी सहज आत्मस्वरूप है पर कर्म का कैसा आक्रमण है कि यह ऐसी दुर्दशा को प्राप्त हो रहा है । जिसके चित्त में जो है वही बात उसको बाहर में सर्वत्र दिखती है । कोई पुरुष अगर रंज में है, घर का कोई इष्ट व्यक्ति गुजर गया है । उसके पीछे वह बड़े शोक में रहता है तो उसे सब जगह प्रथम शोक ही नजर आता है । कदाचित काई हंसने वाला व्यक्ति भी दिख जाय तो इसे यों लगता कि यह जबरदस्ती हंस रहा है । वहाँ उसे सुखी नहीं दिखता किंतु जैसे सिनेमा के पर्दे पर अनेक चित्रण होते हैं ऐसे ही यह भी एक हंसने का पार्ट अदा कर रहा है । यों शोकमय ही उसे निरखता है, और जो सुख में हो उसे सब जगह सुख ही सुख नजर आता है । कोई रंज में बैठा हो तो उसके प्रति सुखी व्यक्ति को यों लगता कि यह बनावटी रंज कर रहा है यह सुखी । तो जिसके चित्त में जो बात बसी है उसको सर्वत्र वैसा ही दिखता है । तो जिसको अपने सहज आत्मस्वरूप का परिचय है । सहज आत्मा का स्वरूप, ज्ञानमात्र, ज्ञानघन, आनंदमय जो स्वरूप इसने अनुभव किया है उस सहज आत्मस्वरूप का सर्वत्र दर्शन होता है । मूल में तो सत् यह है, पर हो रहा है यह । तो सहज आत्मस्वरूप का परिचय करने वाले ज्ञानी संत दूसरों में इन ही गुणों को तकते है और इसी कारण वात्सल्य जगता है ।
धर्मिवत्सल पुरुष का धर्मविरुद्धजनों में समभाव―धर्मी वात्सल्य होने पर भी किसी भी समय अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जनों पर इसके द्वेषभाव कतई नहीं आता । ज्ञाता दृष्टा रहता है । यह भी सहज आत्मस्वरूप है । आज इसका ऐसा परिणमन हो रहा है । यह जीव अनंतकाल से अनेक कुयोनियों में भ्रमण कर रहा मगर स्वरूप तो इसका अविकार ज्ञानमात्र है, इसमें मूल में दोष नहीं है । यह दोष प्राकृतिक आया । प्राकृतिक कहते किसे हैं । जैसे कोई शिमला पहाड़ पर पहुंच जाय और प्राकृतिक दृश्य देखे तो वह कहता है कि वाह यह तो प्राकृतिक दृश्य है, किसी का किया हुआ नहीं है । इसे कर कौन सकता है किंतु तथ्य क्या है कि वे सब दृश्य किये हुए है स्वाभाविक नहीं है । किसके द्वारा किये हुए हैं? जो शुभ अशुभ प्रकृतियां है कर्म की उन जीवों के साथ जो फूल हैं, वृक्ष है इन जीवों के साथ जो शुभ अशुभ प्रकृतियां लगी हुई है उनके विपाक से यह दशा बनी है । यह कर्मकृत दशा है, प्राकृतिक दशा है, प्रकृति का नाम सब लोग लेते है, यह प्रकृति से हुआ है पर प्रकृति का अर्थ क्या है? जिसे लोग प्रकृति कहते है और कर्म स्वरूप का निर्णय नहीं कर पाते वे कर्म है क्या चीज? उन्हें कर्म कहो अथवा प्रकृति कहो, एक ही चीज है । जो कषायवश कर्म बंधे हैं जीव के उनमें एक प्रकृति जुड़ी हुई है आदत पड़ी हुई है कि यह कर्म ज्ञान को ढाकेगा, यह कर्म दर्शन को ढाकेगा, यह कर्म साता का कारण बनेगा, इस प्रकार की उनमें प्रकृति पड़ी है उस प्रकृति का उदय है जो हम और आपकी ऐसी दशायें चल रही हैं । इस तथ्य को निहारने वाले पुरुष सर्व जीवों में मैत्रीभाव रखते हैं। रत्नत्रयधारियों में विशेष प्रमोदभाव रखते हैं । पर मित्रता उनके सर्व जीवों के प्रति है । मित्रता हुआ करती है समान लोगों में, छोटे में नहीं, बड़े में नहीं, छोटे में अनुराग, कारुण्य, आशीष और बड़े में विनय आदर और मित्रता समान में चलती है । तो चूंकि इस ज्ञानी ने सर्व जीवों को सहज आत्मस्वरूप में देखा है, समझा है, इस समानता के कारण सर्व जीवों में उसकी मौलिक मित्रता रहती है । सर्व जीव अपने आनंदमय स्वरूप को पायें, इन्हें दुःख न हों । दुःख क्या है? विकारभाव । अन्य और कुछ दुःख नहीं है । यह तो लोग मोह में कहते हैं कि मेरे को इतना घाटा पड गया, मैं बड़े कष्ट में हूँ । अरे घाटा पड़ने से कहीं कष्ट नहीं हुआ करता । मेरे अमुक का वियोग हो गया, मैं बड़े कष्ट में हूँ । किसी के मरण से, वियोग से कष्ट नहीं हुआ करता, किंतु खुद ही परवस्तु के विषय में कल्पनायें बनाकर खेद किया करते हैं ।
ज्ञानी का आंतरिक पौरुष―मैं परविषयक कल्पनाओं को हटाऊं और यह दृष्टि बनाऊं कि ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो, मेरे ज्ञान में ये सामने के जीव अजीव पदार्थ नजर आ रहे हैं, उपयोग में चित्रित हो रहे हैं उनके बारे में कुछ विचार करता रहता हूँ सो ये न जानूं । इनको छोड़कर मैं ज्ञान के स्वरूप को ही जानूं कि ज्ञान क्या कहलाता है । ज्ञान का स्वरूप है ज्योतिमात्र, प्रतिभासमात्र । यह मैं अंदर में सिर्फ प्रतिभास ही किया करता हूँ । वही तो स्वरूप है । तो उस प्रतिभास को ही, उस जानन को ही ज्ञान में लेवें काहे के द्वारा? इंद्रिय के द्वारा नहीं किंतु ज्ञान से । ज्ञान के ही द्वारा ज्ञान के स्वरूप को ज्ञान में लेवें यह स्थिति बनाना चाहिए । इस स्थिति से कल्पनाओं का एकदम विलय हो जायगा । कोई भी काम करें उसे विधि रूप से करना, इंद्रियरूप काम अपने आप हो जायगा । जैसे लोग कहते हैं कि विषयों से हटो, पापों से हटो, इन कर्मों से हटो, तो इसके लिए क्या उपाय करना है कि इन सबसे हटा हुआ जिसका स्वरूप है ऐसे अविकार आत्मतत्त्व पर उपयोग रखना ये सब अपने आप हटेंगे । कहते हैं कि अष्ट कर्मों को जलाने के लिए मैं उद्यम करता हूँ । अरे अष्ट कर्म हम सामने रखे रहें अपने उपयोग में और फिर उनको जलाने का स्वप्न देखें कि मैं इन्हें जला दूंगा दूर करुंगा । अरे जब परपदार्थों का आश्रय ले रखा है तो उनके दूर होने की बात कहां रही? अष्ट कर्मों को दूर करना है तो अष्टकर्मो से रहित ज्ञायकस्वरूप निज आत्मभगवान को उपयोग में लेना होगा । इस विधि के प्रयोग से परभावों के निषेध का काम बन जायेगा । तो हमारी आदत दृष्टि ऐसी बन जाना चाहिये, कि मैं क्षण-क्षण में थोड़े ही प्रयास में एक ही झलक में अपने अविकार आत्मस्वरूप को उपयोग में ले सकूँ । यह है अपने आपके गुणों के प्रति सच्चा वात्सल्य । अपने आपके बारे में मनन करते जाइये कि यह मैं सर्व गतियों में रहा पर किसी गति रूप नहीं बना । मैं उनसे निराला ही रहा । मैं अनेक भवों में चल रहा, पर किसी भव रूप नहीं बना । मैं उन सबसे निराला ही रहा । क्या रहा? यह चैतन्यमात्र । ज्ञानमात्र सबसे निराला । सब बाह्य परिग्रहों के बीच भी पड़ा रहा मगर इनसे मैं निराला ही रहा । आज भी मैं इस देह से निराला । इन बीती हुई बातों से निराला । मन वचन काय की चेष्टावों से निराला । केवल ज्ञान में ही आ सकने वाला यह मैं चैतन्यमात्र हूँ । इसका किसी भी पर पदार्थ से रंच संबंध नहीं, सो सबकी उपेक्षा करके अपने आपमें अनुराग होना लीन होना यह है अपना वात्सल्य ।
धर्मिवात्सल्य में समता की मुद्रा की व्यक्ति―ऐसा निजवात्सल्य रखने वाले पुरुष दूसरे धर्मात्माजनों पर सच्चा अनुराग रख सकते है ऐसा बाहर में विचार करें तो जानें कि भावी बलवान है, कर्मों के उदय हैं विचित्र । इन लोगों से क्या द्वेष करना । इनमें तो समता रखना और रत्नत्रय के धारी संत पुरुषों में अनुराग करना, प्रमोद करना यह कोई पक्ष नहीं किया जा रहा कि अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जनों से उपेक्षा और ज्ञानी चारित्रधारी मोक्षमार्गी पुरुषों के प्रति अनुराग, यह भी समता का ही रूप है । अज्ञानीजनों में द्वेष नहीं किया और उनके सहज आत्मस्वरूप की भावना, की इस ढंग की समता वहाँ जगी । यहाँ गुणीजनों में उस समान स्वरूप को देखकर और उसकी दृष्टि करने से जो उनमें विकास होता है, उनके प्रति जो अनुराग जगा वहाँ समता का यह रूप आया । ज्ञानी जीव की समता के ही ये सारे रूप हैं । जैसा कि दूसरी भावना में बताया है―सब में मैत्री, गुणियों में प्रमोद, दुखियों में कारुण्य और विरोधियों में माध्यस्थ ये चारों समताभाव के रूप हैं । ऐसा समता का आदर करने वाले ज्ञानीजन अपने गुणों में प्रीति रखते हैं और रत्नत्रयधारी अन्य पुरुषों में प्रीति रखते हैं ।