वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 81
From जैनकोष
कंदर्पंकौत्कुच्यं मौखर्यमतिप्रसाधनं पंच ।
असमीक्ष्याचाधिकरणं व्यतीतयोऽनर्थदंडकृद्विरते: ।। 81 ।।
अनर्थदंडव्रत के पांच अतिचारों में प्रथम कंदर्पनामक अतिचार―अनर्थदंड विरति के ये 5 अतिचार हैं, दोष हैं, व्रती श्रावक इन दोषों को नहीं करता । (1) पहला है कंदर्प―रागभाव की अधिकता से हास्य मिश्रित भंड वचन बोलना नामक अतिचार है, जिसमें हंसी बसी हो, दुर्भाव बसा हो ऐसे भंड वचन बोलना जो भले पुरुषो के सुनने लायक भी नहीं है वे सब कंदर्प अतिचार कहलाते है । गाली के शब्द जो प्रसिद्ध हैं इकहरे-इकहरे खैर उनका इतिहास अलग है, वे वास्तव में गाली नहीं हैं, किंतु प्रशंसा के शब्द हैं । अब जिसके वे शब्द बोले गए वह उतना योग्य नहीं इसलिए वे शब्द गाली रूप समझ लिए गए । आजकल जो लोग गाली के बड़े-बड़े वाक्य भी बोलते हैं, जिनमें माँ, बहिन, बेटी आदि के प्रति गंदी-गंदी बातें भरी होती है । तो व्रती जनों को या अव्रती श्रावकजनों को भी ऐसे वचन न बोलना चाहिए । जैसे―मान लो एक भाई ने अपने ही भाई को बहिन की गाली दी तो उस का अर्थ क्या हुआ कि उसने अपनी ही बहिन को गाली दी, पर इसका भी उसे विवेक नहीं । पशुवों को भी लोग गाली देते तो कभी-कभी ऐसा भी बोलते कि तेरा मालिक मर जाय, अब बताओ मालिक खुद बने बैठे हैं और गाली दे रहे । पर उन्हें यह पता नहीं कि यह गाली तो हम पर लग रही । तो जब रागभाव बढ़ा, हंसी की बात हुई तो ऐसे वचन निकलते कि वह कुछ सोचना ही नहीं कि इसका क्या अर्थ है । और जहाँ फिर हास्य भरे हुए वचन हों, जैसे पहले समय में विवाह शादी के मौके पर ऐसे ही हास्य मिश्रित वचन बोला करते थे, आज तो इतनी फुरसत नहीं है कि तीन-तीन दिन का समय विवाह में दें, घंटा दो घंटे का विवाह रह गया, तो उसमें कहां मिलता कि हास्य भरी बातें बोले । मगर जिनकी बड़ी उम्र है वे जानते हैं कि पहले जमाने में 5-5 दिन की बारात रहती थी, तो दिन भर वे और क्या करते रहते थे? हां थोड़ा सुबह या समय विधान सभा का भी काम करते थे और बाकी समय जैसा जिसे भावे वैसा हंसी की बातें करते थे, यह सब कंदर्प है ।
अनर्थदंडव्रत के कौत्कुच्य व मौखर्य नाम के अतिचार―दूसरा अतिचार है कौत्कुच्य । तीव्र राग के उदय से हास्यरूप वचन तो है ही पर शरीर की भी चेष्टा करते थे हाथ से कुछ बुरा इशारा करना या आंखें मटकाना आदिक, कितनी ही काय की चेष्टायें करें यह कौत्कुच्य नाम का अतिचार है । तीसरा अतिचार है मौखर्य बिना प्रयोजन असार बकवाद करना मौखर्य है । कितने ही लोगों की आदत होती कि वे बुरे बोल बोलते हैं, बकवाद करते हैं, उनका तन भी खराब मन भी खराब और वचन भी खराब होते हैं । उन्हें पीछे पछताना पड़ता है और दुनिया की दृष्टि में वे गिर भी जाते हैं । बुरा बोलने की आदत बढ़िया नहीं होती । समझे, सुने, अर्थ लगाये, उसकी पूर्वापर बात विचारे, अगर वहां किसी का हित होता हो तो थोड़े वचन बोल देना यह तो ठीक है मगर बहुत बकवाद करना यह मौखर्य है । उचित नहीं है ।
अनर्थदंड व्रत के असमीक्ष्याधिकरण नामक अतिचार―चौथा अतिचार है असमीक्ष्याधिकरण बिना विचार किए, विवेक किए, मन, वचन, काय की प्रवृत्ति करना यह अनर्थदंड का अतिचार है । कुछ प्रयोजन ही नहीं फिर भी मन, वचन, काय की चेष्टा बढ़ा रहे, बना रहे यह अनर्थ दंड का अतिचार है । जैसे रागद्वेष वर्द्धक कवितायें बनाना, देखा होगा कि कविसम्मेलनों में ऐसी-ऐसी गंदी कवितायें सुनने को मिलती जो कामवासना बढ़ाती हैं, कव्वालियां भी बहुत सी ऐसी ही होतीं । ये सब अनर्थदंडव्रत के अतिचार हैं, रागद्वेषवर्द्धक छंद शास्त्र का चिंतन करना ऐसा मन खोटी प्रवृत्ति वाला कहलाता है । पाप की कथा करके दूसरे मन, वचन, काय को बिगाड़ने वाली वाणी कहना यह वचन का असमीक्ष्याधिकरण है । कुछ प्रयोजन नहीं पर गमन कर रहे, बिना प्रयोजन जहाँ चाहे बैठना दौड़ना, पटकना फैंकना, जो चाहे चीज जहाँ चाहे ढकेलना । पत्ता पुष्प आदिक का छेदन करना, किसी को विष देना, शस्त्र देना, कोई चीज छोटी भी है तो भी उसे घसीटकर ही उठाना, कोई बहुत बड़ी चीज है और मान लो नहीं है उस समय कोई दूसरा साथी सहयोगी तो कभी मान लो थोड़ा सरका लिया, देख लिया, चीटियां नहीं हैं यद्यपि-वह भी दोष है मगर ऐसी आदत बन जाना कि छोटी भी चीज हो तो उसे सरका देना, जैसे थाली धरी है, दूर है तो उसको उठाकर धरने की आदत न हो तो उसे भी सरका देना, यह तो बिना प्रयोजन काय की चेष्टा है । यह काय का असमीक्ष्याधिकरण है ।
अनर्थदंड व्रत के अतिसंग्रहनामक अतिचार―पांचवां अतिचार है अतिप्रसाधन―जितने भोगोपभोग के साधनों से निर्वाह हो जाय उससे अधिक बिना प्रयोजन संग्रह करे तो वह अतिसंग्रह अतिचार है । जैसे 20-30 ताले पढ़ें हैं, टूटी फूटी जो कुछ घर में चीजें पुरानी हो गई उनको रखते जा रहे, बाजार गए, सस्ती चीजें मिली तो उन्हें खरीदकर भर रहे, चाहे वे जिंदगीभर काम न आयें मगर एक शौक होता है ऐसी व्यर्थ की चीजों का संग्रह करने का । खैर बच्चे लोग भी ऐसा खेल खेलते कि माचिस के खोलों का संग्रह करते, उनमें कंकड़ या इमली के बीज भरते और उनका खेल खेलते तो कम से उनका यह तो प्रयोजन होता कि उनसे खेल खेलना और दिल बहलाना, पर इन बड़े लोगों का तो प्रयोजन ही समझ में नहीं आता । व्यर्थ ही ऐसी हजारों चीजों का संग्रह करते जो कुछ काम नहीं आती, फायदा जिनसे कुछ नहीं, बल्कि उनके खरीदने में हजारों रुपये का नुकसान होता है ।
विचित्र अनर्थदंड―गुजरात में एक काम सुनने में आया कि कहीं-कहीं कुछ ऐसा रिवाज है कि किसी-किसी अवसर पर स्त्रियों के केश गूँथे जाते हैं, जिसे कहते हैं, जूड़ा चोटी करना, तो बताते है कि वे पांच-पांच सौ रुपये तक के जूड़े गूँथे जाते हैं, पता नहीं उनमें क्या खास बात है? है तो यह फिजूल का ही काम । ऐसे कामों को तो अनर्थ दंड कहेंगे । अरे क्या प्रयोजन पड़ा है केवल जूड़ाचोटी करने का 500) खर्च करनेका? न उसका आजीविका से संबंध न धर्मसाधना से । उसके संबंध में क्या अधिक विचार करना कि ऐसे केश सम्हालना ऐसा जूड़ा चोटी करना । कपड़ों के संबंध में भी ऐसी ही बात है । क्या उसका विशेष ध्यान देना कि ऐसी डिजाइन के चाहिए, ऐसा-ऐसा कलर चाहिए, ऐसा फैशन चाहिए...अरे ये सब व्यर्थ के खर्च की बातें हैं और इन से रागद्वेष भी बढ़ता है तो ऐसे अनर्थ दंडों से यह व्रती श्रावक दूर रहता है । और देखिये जिन बच्चों का भवितव्य अच्छा है वे अधिक शौक शृंगार में नहीं पड़ते, सीधे सादे वस्त्र पहनते, क्या रखा है फिजूल के शौक शृंगार में? आजकल देखने में आता कि बहुत से लड़का लड़की अपने अंगूठे का नाखून रखा लेता शोभा के लिए, कोई-कोई तो चार-पांच अंगुलियों में भी नाखून रखा लेते, यह कैसा फिजूल का काम है कि जिससे कुछ लाभ नहीं बल्कि सारी हानि ही हानि है । आखिर है तो वह नाखून मल ही । उससे क्या शोभा मानना, कहीं लिहाफ चद्दर आदि में फंस जाय तो वह भी फट जाय या स्वयं को बड़ी पीड़ा पहुँचे । क्या लाभ उनसे? ऐसा भी तो नहीं है कि किसी से लड़ते समय वह चाकू जैसा काम कर सके । जिन में कुछ काम काज नहीं करना । बैठे रहते फाल्तू वे ही इस तरह का शौक करते । जो लोग अपनी पांचों अंगुलियों के नाखून बढ़ा लेते उन्हें तो पंचानन कहना चाहिए । पंचानन कहते हैं सिंह को । जैसे सिंह के पंजे बड़े पैने होते, वे अपने पंजों के द्वारा दूसरे जीवों का घात कर सकते ऐसे ही ये भी दूसरों को अपने तेज नाखूनों से कष्ट दे सकते और स्वयं भी कष्ट उठा सकते । तो कुछ फायदा नहीं इस प्रकार के व्यर्थ के कामों से । ये सब धर्म विरुद्ध काम हैं, इनका तो त्याग कर ही देना चाहिए ।