वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 97
From जैनकोष
आसमयमुक्ति मुक्तिं, पंचाद्यानामशेष-भावेन ।
सर्वत्र च सामयिका:, सामयिकं नामशंसंति ।। 97 ।।
सामायिकनामक द्वितीय शिक्षाव्रत का स्वरूप―सामायिक नाम है समता परिणाम रखने का । फिर जो अपने उन दो चार-छह: घड़ी के अंदर सामायिक के लिए नियत समय है उसमें भले ही वह जाप करे, भावना बोले या स्तवन करे । करे तो वह दोष के लिए नहीं है क्योंकि प्रयोजन तो यह है कि किसी प्रकार रागद्वेष की वृत्ति मेरे में न जगे, मगर इसका उत्कृष्ट रूप है समता परिणाम रहना । तो जिसके समतापरिणाम है ऐसे गणधर देव ने सामायिक नाम द्वारा इस व्रत की बड़ी प्रशंसा की है । सामायिक करने में उसने अपने शरीर प्रमाण के क्षेत्र से बाहर के क्षेत्र का विकल्प ही छोड़ दिया है, जितना सामायिक का समय है, आसन लगाकर ध्यान किया जा रहा है तो अधिक से अधिक वहाँ क्षेत्र उतना होता जितना कि शरीर का विस्तार है । मानो सामायिक ही कर रहा, खड़े कर रहा, किसी ने धक्का दे दिया या बेहोश होकर पड़ गया तो आखिर शरीर प्रमाण क्षेत्र से अधिक तो नहीं घेरा और फिर ऐसा अवसर कब होता? बहुत कम उस समय तो वह अपना शरीर जितने क्षेत्र को घेरे हुए बैठा है उतने ही क्षेत्र में हैं उसकी सब कुछ मर्यादा और निश्चयत: शरीर प्रमाण जो आत्मप्रदेश हैं उस क्षेत्र में उसकी मर्यादा है, तो उससे बाहर क्षेत्र में मन वचन काय से, कृत कारित अनुमोदना से सामायिक के काल तक समग्र पापों का त्याग करना सामायिक है । अब सामायिक में किस प्रकार वह 5 पापों का त्याग कर के ठहरता है । उसका वर्णन करते हैं ।