वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 98
From जैनकोष
मूर्धरुहमुष्टि-वासो-बंधं, पर्य्यंक-बंधनं चापि ।
स्थानमुपवेशनं वा, समयं जानंति समयज्ञा: ।। 98 ।।
जो परमागम को जानने वाला है वह (1) मूर्धरुह याने केश का बंधन रखता है । सामायिक के समय चोटी वगैरह यदि बिखरी रहे और उसका कोई बाल कान में आये तो विक्षेप हो गया इसलिए सामायिक में बैठने से पहले अपनी चोटी का बंधन लगा लेगा । आजकल तो ऐसी फैशन चल गई कि चोटी रखाने की कुछ जरूरत ही नहीं रही । चोटी ही बिल्कुल साफ कर दिया । शायद वें लोग इस सामायिक की इज्जत रख रहे हैं (हंसी) अरे उनका सामायिक पर ध्यान कहां? सामायिक करने से पहले अपनी पूरी तैयारी बना लेना चाहिए । चोटी में गांठ लगाना, और (2) मुष्टिबंधन, चाहे पूरी मुट्ठी न बांधे पर सहज जो बैठे हुए में या खड़े हुए में रहते हैं, उसमें बिल्कुल खुले हुए हाथ नहीं रहते हैं । कुछ मुडे हुए कुछ मुट्ठी जैसी बंधी रहती है । कसकर मुट्ठी न बांधे मगर रूपक हो जाता है मुट्ठी जैसा । तो मुष्टि बंधन यह एक प्रक्रिया है सामायिक से पहले की जाने वाली । (3) वस्त्र बंधन―जिस वस्त्र को पहने या ओढ़े वह फैला छितरा हुआ न हो उसको बंधन में कर लिया । नहीं तो उसमें विक्षेप संभव है । सामायिक में चित्त को विक्षेप न हो सके इसके लिए यह तैयारी है―वस्त्र का बंधन बनाये । (4) पर्यंक बंधन, पद्मासन से या जिस आसन से बैठे तो वहाँ एक बंधन रूप हुआ । पैर बंध गए या कायोत्सर्ग से खड़े हुए तो वह भी आसन है । इस तरह से प्रक्रिया में रहकर सामायिक व्रत का पालन करें और वहाँ रागद्वेषादिक रहित जो शुद्ध आत्मा है उसका मनन करें ।
सामायिक में आत्मा का सत्य आराम विश्राम―सामायिक मायने सच्चा आराम करना । जैसे कोई मजदूर बहुत-बहुत परिश्रम करके थक जाता है तो थकने के बाद वह घंटा दो घंटा आराम करता है और अगर अधिक थक गया तो उसके आराम की पद्धति क्या होती है कि लेट गए ढीला ढाला शरीर करके, कड़ा शरीर करके लेटने में ठीक विश्राम नहीं होता, न थकान मिटती, वह शरीर को बिल्कुल ढीला करके लेट गया । क्या करे, बड़ा परिश्रम करके वह अत्यंत थक गया था सो वह विश्राम कर रहा है । विश्राम करने के भी कुछ आसन होते हैं । जैसे 84 आसनों में एक आसन योग का ऐसा होता कि जिसकी वजह से पैरों की सारी थकान मिट जाती है । उसमें पहले पैर पर थोड़ा जोर पड़ता है और फिर उस आसन लेने के बाद थकान का पता नहीं पड़ता । जैसे थककर लोग दूसरों से हाथ पैर दबवाते हैं उस तरह से दबवाने की जरूरत नहीं पड़ती उस आसन से । तो यह ज्ञानी पुरुष विकल्प करके बहुत थक गया, दूकान में था वहाँ विकल्प, रास्ते में आ रहा वहाँ विकल्प, कहीं जा रहा वहाँ विकल्प, गोष्ठी में बैठा वहाँ विकल्प । विकल्प करके आत्मा थक गया, आत्मा का थकान विकल्प के कारण होता है, तो अब वह सामायिक में बैठा मानो अपनी पूरी थकान खतम कर रहा और अपने विश्राम में आया तो यह विश्राम तब मिलेगा जब कि किसी प्रकार के विकल्प न चलें । उसकी यह प्रक्रिया है, और उसका सीधा साक्षात् उपाय शुद्ध आत्मस्वरूप का मनन है । सारी थकान खतम हो जाय, इष्ट अनिष्ट की आशंका रखकर, मेरे तेरे की भावना रखकर, राग विरोध की वासना रखकर ही तो भगवान आत्मा को थकाया जाता है, ऐसा कोई थक गया तो वह थकान मिटे कैसे? उसका उपाय है सामायिक । पर अनेक लोग तो सामायिक में थकान और घबड़ाहट महसूस करते हैं, मन नहीं लगता । ध्यान इधर-उधर जाता, बार-बार घड़ी देखते, अब कितने बज गए । और थकान मिटने की बात तो दूर जाने दो, सामायिक में विकल्प और थकान बढ़ा लेते हैं, लोग कहते भी तो हैं कि जब हम सामायिक में बैठते तो न जाने कितने-कितने विकल्प मन में उठा करते हैं, तो वहाँ सामायिक उन्होंने किया, कहां अपनी थकान मिटाने का उद्देश्य बनाया ही कहां? जिसका उद्देश्य थकान मेटने का बना उसकी वृत्ति लगी शुद्ध आत्मस्वरूप के ध्यान में । कभी कार्य परमात्मा के शुद्ध स्वरूप का ध्यान करें तो फिर कारण परमात्मस्वरूप की शुद्धता का ध्यान करें ।
कारण समयसार की शुद्धस्वरूपता का दिग्दर्शन―कैसी शुद्धता है इस कारण समयसार की, यों मानो कि जब मैं हूँ, मेरी सत्ता है तो अपने आप ही सत्ता है या किसी दूसरे की दया पर उसकी सत्ता है? किसी दूसरे की दया पर किसी अन्य पदार्थ की सत्ता नहीं हुआ करती । जो सत् है वह स्वयं है, स्वत: सिद्ध है, अपने आप सत् है । तो जो मैं आप सत् हूँ सो स्वयं अपने आपके सत्त्व से क्या मेरा स्वरूप है उसको निरखें तो कारण समयसार के स्वरूप का अनुभव बनता है । जो परपदार्थ के संबंध से बात बने पर के संबंध से जो बात घटित हो उसे न निरखना । किंतु मात्र अपने सत्त्व से जो अपने आप में सहजस्वरूप है उसके दर्शन करना है । देखिये―इस अलौकिक अपने अंदर की दुनिया से बाहर सर्व कुछ मेरे लिए बेकार है, अनर्थ है, असार है, सही बात यह है, सभी के लिए है यह बात । कुछ वहाँ ऐसा नहीं है कि इस धर्म वाले के लिए यह बात है, इस संप्रदाय वाले के लिए यह बात है । और जितने भी जीव हैं सब आत्मा हैं । जितने मनुष्य है उन सबका आत्मा एक स्वरूप का है, वहाँ भेद नहीं है स्वरूप में । और जब स्वरूप सबका एक ही स्वरूप है, वही धर्म है और उस ही धर्म की कोई दृष्टि कर सके वही धर्मपालन है । तो इस प्रकार अनादि अनंत अहेतुक इस सामान्य कारण समयसार की दृष्टि पहुंचने का इस जीवन में प्रयत्न करना, बाकी सब बातें बेकार और अनर्थ है । बाह्य लगाव में अपने को वर्तमान में भी व्याकुल करना है और पाप का बंध करना है जिससे आगामी काल में भी इसको बेचैनी ही मिलेगी ।
व्यवहारोचित धर्म कर्तव्यों के करते हुए भी ज्ञानी के लक्ष्य का अनवरत परिपोषण―भैया, काम तो करिये शक्ति प्रमाण, बनेगा भी वही, मगर लक्ष की श्रद्धा रखे पूर्णतया जिससे कि भीतर में धुन बने । धर्म कार्य भी कर रहे, जैसे बहुत से कार्य हैं―पूजा किया, विधान किया, सभी मंदिरों के दर्शन को जा रहे, या अनेक कार्य हैं धर्म संबंधी पर वहाँ भी यह ध्यान रखें कि जो हम अनेक कार्य कर रहे हैं धर्म के लिए, यह मेरा उद्देश्य नहीं है, यह मेरा लक्ष्य नहीं है, मेरा लक्ष्य तो है एक कारण समयसार की दृष्टि । वहाँ ही मग्न होने का लक्ष्य है । ज्ञानी के लक्ष्य 50 न होंगे, लक्ष्य उसका धर्म में एक है, और उस ही लक्ष्य के पान के लिए ये उपलक्ष्य अनेक हो रहे है । सोचते तो है कि आज मैं अमुक जगह दर्शन करने जाऊंगा, अब प्रवचन में जाऊंगा, अब पूजा करुंगा, यों प्रोग्राम बनाये तो जाते हैं, चित्त में तो रहता है, पर प्रोग्राम बनाकर भी ज्ञानी की प्रतीति में यह बसा हुआ है कि ये सारे के सारे काम मेरे लक्ष्य नहीं है, ऐसा करने के लिए ही मैं यह नहीं कर रहा हूँ, किंतु मेरा लक्ष्य है सहज चैतन्यस्वरूप की दृष्टि । उसकी ओर ही अभिमुख रहना और इसी लक्ष्य की सिद्धि के लिए हम ये-ये प्रोग्राम करते हैं । तो जिस ज्ञानी संत को अविकार सहज परमात्मस्वरूप का ज्ञान द्वारा दर्शन हुआ है सामायिक उसके पलती है, और वहाँ ये बाह्य विकल्प हटते हैं, रागद्वेष रहित होकर समता परिणाम रखना यह उसका मतलब है । देखिये जैन शासन पाया तो इतना तो भीतर लक्ष्य बना लें । (1) चूँकि बाहर सर्वत्र आग ही आग है । जितने जीव है सबके अपनी-अपनी कषाय है । यदि मैं यह चाहूं कि बाहर में मेरी मनचाही बात बने, यह तो हो न पायगा इसलिए इसकी आशा ही छोड़ दें और अपने आपके स्वरूप में मग्न होने का एक प्रोग्राम रखें और इसके लिए अगर बाहर में अपमान है तो कुछ नहीं, बाहर में कुछ उल्टी चाल है किसी की तो कुछ नहीं । उस सबको दृष्टि से ओझल करना चाहिए ऐसा भीतर में साहस बने तो वह समता परिणाम पाने का अधिकारी है ।