वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 99
From जैनकोष
एकांते सामायिकं, निर्व्याक्षेपे वनेषु वास्तुषु च ।
चैत्यालयेषु वापि च परिचेतव्यं प्रसन्नधिया ।। 99 ।।
सामायिक करने के योग्य स्थानों का दिग्दर्शन―इस छंद में सामायिक करने योग्य स्थान का वर्णन किया है । जिस स्थान में चित्त को क्षोभ करने के कारण न हों ऐसे एकांत स्थान में सामायिक करना चाहिए । जहाँ असंयमी जीवों का आना जाना न हो, लोग जहाँ वाद-विवाद न करें, कोलाहल जहाँ न हो, स्त्रियों का, नपुंसकों का जहाँ आवागमन न चल रहा हो । नजदीक में गायन नृत्य बाजा आदि का प्रचार प्रसार न हो रहा हो, तिर्यंच पशु पक्षी आदिक भी जहाँ न चल रहे हों, ऐसे स्थान में प्रसन्नचित्त होकर सामायिक करना चाहिए । जैसे लौकिकजनों का खाने पीने का प्रोग्राम प्रधान है । उसके लिए ही सारा प्रयत्न है, कमायी है । तो ज्ञानी पुरुष के लिए सामायिक कल्याणकारी है, सर्वत्र है, जो विपत्तियों से घबड़ाया है, विकल्प आपत्तियां जिस पर पड़ती रहती है उन सब विपत्तियों से बचने और एक अलौकिक आनंद लेने के लिए सामायिक में बैठता है । सो आत्मीय स्वानुभव का अलौकिक आनंद आये यह ही तो प्रयोजन सामायिक का है । तब ऐसे स्थानपर सामायिक करना चाहिए कि जहाँ क्षोभ के कोई कारण न बनते हों । जिस भूमि पर डाँस मच्छर कीड़ा कीड़ी आदिक अनेक प्रकार के इन जीवों की बाधा न होती हो, ऐसा विक्षेप रहित एकांत स्थान होना चाहिए, वह चाहे जंगल हो या बाग बगीचे का जीर्ण-शीर्ण मकान हो अथवा घर हो या चैत्यालय हो, स्थान ऐसा होना चाहिए जहाँ चित्त को क्षोभ न आये । तो ऐसे स्थान पर प्रसन्नचित्त होकर सामायिक करने में अपना सर्वस्व शरण भगवान आत्मा से मिलने जा रहा हो, मैं अपने अंत: प्रकाशमान सहज तत्व का अनुभव करुंगा, ऐसी उमंग के साथ सामायिक करना चाहिए । इस सामायिक की और भी सामग्री बताते है ।