वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 101
From जैनकोष
उदरग्गिसमणमक्ख मक्खण गोयरि सब्भपूरणभमरं
णाऊण तप्पयारे णिच्चेवं भुंजए भिक्खू।।1॰1।।
साधुवों द्वारा उदराग्निशमन रीति से आहार ग्रहण―ज्ञानी पुरुष जीवन का ध्येय केवल ज्ञान स्वभाव आत्मा की दृष्टि बनाये रखना है वह जानता है कि जगत में किसी भी बाह्य पदार्थ में करने योग्य कुछ भी नहीं है किया ही नहीं जा सकता और बाह्य पदार्थ में कुछ बात बने भी तो उससे मेरा कुछ संबंध नहीं हे अतएव बाह्य पदार्थ में कुछ भी करने की श्रद्धा न रखना तो ऐसे कृतकृत्य की शुद्धि के लिए वे ज्ञानसाधना रखते हैं और ध्यान ज्ञान अध्ययन के लिए आहार लेते हैं तो उसमें उस मौज और राग का कोई काम नहीं। एक विवशता का काम है साधु तो इतने विरक्त होते हैं इंद्रिय विषयों से कि उनको आहार के लिए माता का काम विवेक करता है विवेक प्रेरणा देता है कि अरे मुढ़ मत बनो शरीर की स्थिति भी रहनी चाहिये अन्यथा संयम सब धरा जायेगा उठो विवेक प्रेरित करता है साधु तो भोजन को जाता है तो इस तरह भोजन करते कि जैसे उदराग्नि समन का भाव है जैसे किसी गृह में आग लग जाये तो आग बुझाने वाली दमकले हैं उनको चलाने वाला पुरुष यह नहीं सोचता कि कुंवे का जल लावे या हैंडपप्प का या नल का या साफ सा गंदा जो भी हो उसको उस आग लगे घर में डालने का प्रयोजन रहता है ऐसे ही वे मुनिराज यह नहीं सोचते कि कोई मीठा, सरस भोजन मिले, नीरस हो, रूखा हो, कैसा भी हो, उनका तो एक उदराग्नि के बुझाने का भाव है। हाँ चूँकि वह मुनिराज दयालु होते हैं इसलिए जीवदया के विरुद्ध काम नहीं करते। अशुद्ध आहार न लेंगे मगर शुद्ध आहार लेने में भी प्रयोजन यह है कि उदराग्नि का शमन चाहिए तो ये साधु उदराग्नि के समन के प्रयोजन से आहार ग्रहण करते हैं। साधुवों द्वारा अक्षम्रक्षणरीति से तथा गोचरी वृत्ति से आहार ग्रहण―दूसरा प्रयोजन है अक्षमृक्षण। जैसे गाड़ी चलती है तो उन पहियों में औंगन लगाना ही पड़ता है नहीं तो वे पहिया ठीक न चल सकेंगे। चलते-चलते उनमें आग भी लग सकती। तो जैसे गाड़ी के चक्के में औंगन लगाने की आवश्यकता होती है तब ही वह भली भाँति चल सकेगा, ऐसे ही इस शरीर में औंगन है आहर ताकि यह शरीर की गाड़ी चलती रहे और इसमें विराजमान आत्मा अपने इष्ट स्थान पर पहुँच जाय। तो साधु पुरुष केवल एक शारीरिक स्थिति कायम रखने के लिये, जो कि संयम का साधन है वे आहार ग्रहण करते हैं। साधुवों द्वारा अक्षम्रक्षणरीति से तथा गोचरीचृत्ति से आहार ग्रहण―साधुवों का तीसरा ढंग है गोचरीवृत्ति जैसे गाय को चाहे कोई सुंदर स्त्री घास डाले चाहे कुरूप स्त्री उससे उसे कोई मतलब नहीं होता उसे तो घास चाहिए, इसी प्रकार साधुजनों को चाहे कोई सुंदर स्त्री आहार दे चाहे कुरूप स्त्री उससे उन्हें कोई मतलब नहीं रहता। उन्हें तो आहार मिल जाने मात्र से मतलब रहता। साधुजनों को केवल एक शुद्ध आहार ग्रहण करने के लिए ही भाव रहता है, बाहरी रूप रंग वगैरह से कोई मतलब नहीं। तो ऐसी उनकी अक्षभक्षण या गोचरी वृत्ति रहती है। जिस तरह से गाय अपना भोजन ले लेती, घास देने वाली स्त्री के रूप सौंदर्य से अपना कुछ वास्ता नहीं रखती, इसी प्रकार साधु भी बिना किसी से कुछ वास्ता के आहार ले लेते हैं। साधुवों द्वारा गर्तपूरण रीति से भ्रामरी वृत्ति से आहार ग्रहण―चौथी विधि है गर्तपूरण जैसे किसी गड्ढे को भरने के लिए कोई यह नहीं सोचता है कि इसमें तो अच्छे-अच्छे मकराने के पत्थर भरे जायें। अरे जो भी चीज हो, कूड़ा करकट डाला, पत्थर, ईट, रोड़ा, धूल कीचड़ सब कुछ उसमें भरकर गड्ढ़े को पूर देते हैं। इसी प्रकार साधुजन भी आहार लेने में मिष्ट, सरस, व्यंजनों की वांछा नहीं करते, नीरस सूखा जो भी सुगमता से मिल गया उसको इस पेट रूपी गड्ढे में भरकर संतुष्ट रहते हैं, इस उदर का गड्ढा इसलिए भरते कि जीवन रहे और उस जीवन में ज्ञान ध्यान की साधना तो यह है उनका गर्तपूरण भाव। 5वीं वृत्ति है भ्रामरी वृत्ति। जिस प्रकार से भँवरा अनेक फूलों पर बैठता है और उन फूलों से कुछ गंध पराग लेकर उड़ जाता है उससे फूलों को कुछ बाधा नहीं होती है ऐसे ही साधुजन आहार लेते हैं तो उतना ही आहार लेते हैं जिससे गृहस्थों को कोई बाधा न हो। शारीरिक स्थिति कायम रखने के लिये वे आहार लेते हैं और आहार लेकर कहीं निर्जन स्थान में पहुंच जाते हैं। उनके द्वारा किसी को कोई बाधा नहीं होती। ऐसे ही और भी भाव ले सकते हैं। तो मतलब यह है कि साधुजन केवल ज्ञान ध्यान अध्ययन के निमित्त आहार ग्रहण करते हैं। उनकी दृष्टि ज्ञानसाधना की ही बनी रहती है। किसी भी बाह्य पदार्थ से उन्हें रागद्वेष नहीं होता है। क्योंकि करना तो काम वह है कि यह ज्ञान ज्ञान में समा जाय। ज्ञान में ज्ञान ही हो साधु का ध्येय तो यह ही होता है ना तो इस ध्येय में जो बढ़ रहा हो उसकी वृत्ति सर्व के सुख और हित के लिए ही हुआ करती। कहाँ तो यह जीव ज्ञान परमात्मस्वरूप परम पावन और कहाँ यह शरीर।