वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 121
From जैनकोष
जेसिं अमेज्झभज्झे उप्पण्णाणं हवेइ तत्थ रूई।
तह बहिरप्पाणं बहिरिंदिय विसएसु होइ मई।।121।।
अमेध्योत्पन्न कीट की अमेध्य में रुचि की तरह बहिरात्मावों की बहिरिंद्रिय विषयों में रुचि की निंदा व मन को वश करने का उपाय―बहिरात्मा याने मोही जीव की रुचि का वर्ण चल रहा है। जैसे विष्टा में उत्पन्न हुआ कीड़ा विष्टा में ही राजी होता है उस ही प्रकार बहिरात्माओं की बाह्य इंद्रिय विषयों में ही रुचि होती है। यह अज्ञान एवं विषय रुचि ही जीव लोक का विघात करने वाला है। देखिये―मन बाह्य विषयों में क्यों रमता है? उसका कारण यह है कि रमने का जो उत्तम स्थान है अंतस्तत्त्व, उसका इस मूढ़ को परिचय नहीं है। यह मन बाहर-बाहर भ्रमता है तो इसके संयत करने का उपाय क्या है? उपाय तो केवल एक है अपने अविकार स्वभाव का, इस ज्ञानस्वरूप का अनुभव परिचय होना, मन को वश करने का लोग अनेक उपाय तलाशते हैं और सोचते भी हैं मगर यह मूलतः वश होगा तो एक अविकार ज्ञान स्वभाव के अनुभव से ही होगा। दूसरा उपाय कोई अमोघ नहीं है कि मन वश हो जाय, बाकी दबाना है। एक घटना है कि एक कोई संन्यासी 24 घंटे की अपनी समाधि की बात दिखलाता था। एक बार वह राजा के दरबार में पहुँचा और कहा महाराज हम समाधि लगाते हैं तो राजा ने कहा अच्छा ठीक है, तुम हमारे सामने समाधि लगाओ, फिर हम तुम्हें मनमाना इनाम देंगे। वहाँ समाधि लेने का क्या मतलब था कि जमीन के अंदर गड्ढा बनाकर घुस जाना और ऊपर से मिट्टी से गड्ढा बंद करा देना ताकि श्वास लेने के लिए हवा कहीं से न मिले तो वहाँ उस संन्यासी ने अपनी समाधि लगाने के पहले ही सोच लिया कि हमें राजा से क्या इनाम लेना है। क्या सोच लिया कि राजा के घुड़साल में एक बहुत ही सुंदर काला घोड़ा था, उसे लूंगा। सो वह समाधि में आया, गड्ढा खोदा गया, ऊपर से मिट्टी डाल दी गई। अब जो समय था समाधि से निकलने का उस समय संन्यासी निकला तो उसने निकलते ही कहा लावो काला घोड़ा। तो इसके मायने क्या कि उस समाधि के समय बराबर 24 घंटे उसके मन में वही काला घोड़ा बसा रहा। तो कहने को तो समाधि हुई पर मन पर विजय प्राप्त नहीं हुई। मन पर विजय हो ही नहीं सकती अज्ञानी द्वारा यदि कोई लोभ की बात हो कि मुझे स्वर्ग मिलेगा यदि इस तरह से घर को छोड़ दे, तो भले ही वह मन मार कर तपश्चरण भी करे, घर भी छोड़ देगा, पर मन का संयम न बन सकेगा, परिवर्तन हो जायगा मन के विषय का। मन को वश करने का अमोघ उपाय मात्र अविकार सहज ज्ञान स्वभाव में आत्मत्व की प्रतीति―मन को वश करने का एक ही उपाय है कि अपने आत्मा का सहज ज्ञानस्वभाव का अनुभव बने मैं क्या हूँ क्या अनुभव बने, सहज मैं चैतन्य प्रकाश मात्र हूँ अमूर्त अलक्ष्य स्वतः सिद्ध ज्ञानमात्र जिसकी कोई पहिचान ही नहीं है ऐसा यह ज्ञान द्वारा लक्ष्य में आ सकने योग्य चैतन्यमात्र यह मैं हूँ, जिसमें विकार का कही अवकाश ही नहीं है अपनी ओर से अपने स्वरूप से, ऐसा अविकार सहज ज्ञानस्वभाव मैं हूँ इसके अलावा अनेक उपाय बताये जाते हैं। भींट पर एक बिंदु लगा दें और लगातार उस भींट को ही देखता रहे और नेत्र की पलक गिरावे मत, निरखता ही रहे, ऐसा करके देख लीजिए। मन तो बदल जायगा, किसी एक में लग जायगा, लेकिन मन वश नहीं है, उसका भी ज्ञान सिवाय कोई उपाय नहीं है कि मन वश हो सके। अब लोग बहुत सी क्रियावों में प्रयोग करते हैं मन को वश करने का, सो क्रियायें ग्रंथों में बहुत लिखी हैं और कभी-कभी हम उन क्रियावों को पढ़ भी लेते हैं, पर उनमें हमारा चित्त नहीं लगता, न उन पर हम अधिक निगाह रखते, ध्यान नहीं देते उन का, हमारी तो केवल एक ही दृष्टि रहती है कि अपने में अंतः प्रकाशमान अविकार ज्ञानस्वभाव को देखें, उसमें सर्व सिद्धि है और इंद्रिय मन ठीक विधि से वश हो जाते हैं वही प्रयोग करना चाहिए। मन को वश करने का मौलिक उपाय व तात्कालिक उपाय―देखिये इस जीव को अनादि काल से एक अज्ञान संस्कार सताये रहता है, सो ज्ञानी होकर कई भी बार विचरित भी होंगे अपनी स्वरूप दृष्टि से मगर स्वरूप दृष्टि का जिसमें एक लक्ष्य बनाया है और उसके सिवाय अन्य कुछ भी उपाय इसके प्रयोजन में नहीं हैं। अन्य कुछ व्यवसाय इसके लक्ष्य में नहीं हैं तो वह पुरुष पुण्य है पवित्र है और वह अवश्य ही सफल होगा, पर दृष्टि बना एक ही हो कि मेरे को तो अपना सहज स्वतः स्वरूप समझना है, फिर अन्य उपाय बहुत से हैं जैसे किसी बच्चे को हुचकी आती है तो उसकी हुचकी बंद करने को कोई लड़का उस पर ऐब लगाकर बोलता है कि तू ने ऐसा क्यों किया याने एक ऐसे अचंभे में डाल देवे तो उसका उपयोग बदल जाता। हुचकी बंद हो जती, अगर कोई योग है तो एक दो मिनट बाद फिर होने लगता तो ऐसे ही मन को वश करने के उपाय बहुत लोगों ने अनेक बताये हैं और स्पष्ट ही है। शुभोपयोग में लक्ष्य लग जाय तो मन अशुभोपयोग से हट जायगा। मन वश करने का एक ही तो प्रयोजन है लोगों के चित्त में कि पाप कार्यों में मन न लगे, अशुभ विचारों में मन न लगे तो शुभोपयोग के कार्यों में आ जाये। अब कोई चाहे कि हम तात्कालिक वश भी न चाहे और समूल वश भी न चाहें और मात्र बिना प्रयोग के ही मन वश हो जाय तो यों तो वश नहीं होता। मौलिक उपाय तो अपने अविकार सहज ज्ञानस्वरूप की दृष्टि है, यह स्वरूप किस अलौकिक आनंद का धाम है? जो यहाँ वैभव है सो क्या बाहर कहीं है अपने आपका आनंद कल्याण पवित्रता सर्वस्व अपने आप में ही है अपने से बाहर अपना कहीं कुछ नहीं है ऐसा जिसका सम्यक् निर्णय बना, सानुभव निर्णय बना उसका मन वश में है। ज्ञानी की इंद्रियविषयों से विरक्ति व अज्ञानी की इंद्रिय विषयों में आसक्ति―सम्यक् ज्ञानी होकर भी पूर्व संस्कार वश उसे कुछ प्रवृत्ति करनी पड़े तो वह एक औषधि सा ही समझकर प्रवृत्ति करता है पर मन उसका भी वश में है। यदि मन वश न हो तो अविरत सम्यग्दृष्टि का या गृहस्थ देशसंयम का फिर मिथ्यादृष्टि की तरह आशक्ति सहित क्यों नहीं वृत्ति बनती? तो अब जैसे-जैसे निज ज्ञान स्वभाव पर दृष्टि करने की दृढ़ता बढ़ती जाती है वैसे ही वैसे मन वश होता जाता है। तो जिसको यह वा´छा है कि ये सांसारिक समागम ये सब दुःख के मूल हैं इन में मन को नहीं फंसाना है तो मौलिक कर्तव्यों से चलना चाहिए। अपने सहज स्वरूप का परिचय बनाये, उसके लिए ध्यान अध्ययन चर्चा उपदेश और गुरु सत्संग इन सब उपायों से उस अनुभूति की प्राप्ति करें। तो यह कला बहिरात्मा जीव में नहीं है, इसी कारण यह बहिरात्मा बाह्य इंद्रिय सुख में प्रवृत्ति करता है, सो जैसे विष्टा में उत्पन्न हुआ कीड़ा विष्टा में ही रमता है ऐसे ही बहिरात्मा जीव बाह्य इंद्रिय विषयों में ही रमता है।