वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 125
From जैनकोष
किं बहुणा हो तजि बहिरप्पसरूवाणि सयलभावाणि।
भजि भज्ज्ञिमपरमप्पा बत्थुसरूवाणि भावाणि।।125।।
अंतरात्मत्त्व के उपाय से बहिरात्मत्व को छोड़कर परमात्मत्व के भजने का उपदेश―हे भव्य जीव, तुम बहिरात्मा स्वरूप को छोड़ो, इन समस्त विकारों को छोड़ों याने विकार को पकड़कर मत रहो। बहिरात्मा संबंधी समस्त भावों को छोड़कर यथार्थ अंतरात्मा बनो और परमात्मभावों का मनन करो। ‘‘बहिरात्मा हेय जानि तजि अंतर आतम हूजे।’’ पहला कदम तो यह है कि बहिरात्मापन को तो छोड़ो और अंतरात्मत्व पद को ग्रहण कीजिए। उसके बाद का पुरुषार्थ यह है कि ‘‘परमातम को ध्याय निरंतर जो निज आनँद पूजे।’’ उस परमात्मस्वरूप का ध्यान करें जो आत्मीय आनंद को पूजता है, प्राप्त कराता है तो यही बात इस गाथा में कही जा रही है कि बहिरात्म तत्व संबंधी सर्व भावों को तज दो तो सर्व भाव क्या? अचेतन वैभवों में अपने उपयोग को फंसाना। परिवार चेतन परिग्रह में उपयोग का लगाना। कर्मोदय के सान्निध्य में उपयोग में उन कर्मविपाक रसों का प्रतिफलित होना, उस कर्म रस छाया का लगाव रखना ये भी समस्त भाव हैं जो बहिरात्मपना पुष्ट किया करते हैं। सो हे भव्य जीव बहिरात्मा संबंधी समस्त भावों को छोड़कर यथार्थ अंतरात्मा बनो और परमात्मस्वरूप का भजन करो। वस्तु स्वरूप देखो यथार्थ जानो, पर को यथार्थ जानने की विधि यह है कि अपने आप पर के संबंध बिना जो कुछ भाव हो वह है उस वस्तु का सर्वस्व। स्कंधों में भी देखो जो ये दिख रहे हैं ये परमार्थ स्वरूप नहीं है। इन में जो एक अणु है एक-एक अणु ये सब परमार्थ स्वरूप है। अपने आपके बारे में विचार करें कि जो ये देहधारी मनुष्य पशु पक्षी आदिक दिख रहे ये कोई परमार्थ नहीं क्योंकि यह तो चेतन अचेतन दोनों प्रकार के पदार्थों के मेल से आकार बना है। उसमें एक को ही निरखिये तो परमार्थ स्वरूप का अवलोकन होगा। सो परमार्थ स्वरूप को देखिये तो यह माया सब ढल जायगी। उपयोग में केवल परमार्थ रूप स्व और परमार्थ स्वरूप ही पर रहेगा, सो ऐसे इकले-इकले पदार्थों को निरखिये, वहाँ मोह का कोई अवकाश नहीं रहता और जहाँ मोह की वृत्ति न जगे वह अपने इस आत्मीय आनंदरस को वह भोगता ही है, तो इस प्रकार बहिरात्मपन को छोड़कर अंतरात्मा होकर परमात्मा का ध्यान करके अपने आप का कल्याण करना, ऐसा यहाँ उपदेश किया है।