वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 129
From जैनकोष
बहिरंप्पमेयं परसमयं भण्णए जिणंदेहि।
परमप्पा सगसमयं तब्भेयं जाण गुणट्ठाणे।।129।।
परसमय की वहिरंतरात्मभेदता व स्वसमय की परमात्मरूपता―अनंतर पूर्व गाथा में बताया था कि जो जीव द्रव्य गुण पर्यायों के द्वारा परसमय और स्वसमय के भेद को जानता है वह मोक्षमार्ग का नायक होता है। याने मोक्षमार्ग में गमन करने वालों में अग्रणी है। तो अब इस गाथा में बहिरात्मा और परमात्मा का स्वसमय और परसमय में अंतर्भाव बताते हुए उस ही का वर्णन कर रहे हैं। कुंदकुंदाचार्य देव यहाँ इस गाथा में बतला रहे हैं कि जिनेंद्र देव ने बताया है कि बहिरात्मा और अंतरात्मा ये दो भेद परसमय कहलाते हैं और परमात्मा स्वसमय कहलाता है और इसको गुणस्थान के अनुसार आगे की गाथावों में बताया जायेगा। यहाँ विचारणीय बात है कि कुछ लोगों में यह प्रसिद्धि बन गई कि जहाँ सम्यग्दर्शन हुआ व्रत भी वहीं हुआ अविरत सम्यग्दृष्टि ही रहा तो वह स्वसमय कहलाता है। यद्यपि सम्यग्दर्शन से विशुद्धि जगी है आत्मा में पवित्रता आयी है लेकिन इसके दोष भी तो बहुत चल रहे हैं। प्रत्येक मनुष्य दोष और गुण से भरा है। यदि अपने दोषों पर दृष्टि करे कि मैं इतनी गलती में हूँ तो इससे भला मार्ग पायेगा या अपने गुणों पर दृष्टि करे कि मेरे में तो गुण ही गुण हैं उससे भला मार्ग पायेगा। थोड़ा इस संबंध में विचार करके तो देखें। हम आप लोग विचारने की आदत वाले हैं और इस परिस्थिति में हैं कि अपने पाये हुए गुणों पर दृष्टि देवें तो इसके अहंकार बन जाता है और भला मार्ग तो पायगा ही कैसे? और यदि अपने आपके दोषों पर दृष्टि देते हैं कि मेरे में इतने दोष हैं तो वह नम्र रहेगा गुणों के बढ़ाने के लिए उत्सुक रहेगा ओर दोष के टालने का प्रयत्न करेगा। तो सम्यग्दर्शन से पायी हुई विशुद्धता के कारण उसे स्वसमय कहा जाता है चौथे गुणस्थान से लेकर जो ज्ञानी जीव हैं उनके तो चारित्रमोह के उदय से पर पदार्थ में जितना रहा व्यवहार कर रहा वह दोष ही तो है। उन दोषों की निगाह से उसे परसमय कहते हैं। तो एक दृष्टि से हम सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष को स्वसमय भी कह सकते, पर समय भी कह सकते। स्वदोष निरीक्षण से प्रगति प्रेरणा तथा शाश्वत गुणमय अनुभव से प्रगति―अब जरा यह तो विचारों के स्वसमय भी कह देने या अपने आप में स्वपना समझ लेने से वह उन्नति पायेगा या अपने में जो दोष शेष हैं उन दोषों पर दृष्टि रखकर अपनी उन्नति पायगा। अपने-अपने अनुभव से यह ही विचार सकते हैं गुणों पर दृष्टि दें तो उससे वहीं रम जाता है और उसमें एक अहंबुद्धि बन जाती है कि मैने खूब किया, ऐसा जानकर इतने में ही संतुष्ट हो जाता है और दोषों पर दृष्टि दें तो यह दोष है ये मिटने चाहिए। इनके मिटने का उपाय बनाता है उस ओर दृष्टि जायेगी। तो निष्कर्ष यह निकला कि अगर अपने गुणों को विचारना चाहते हो तो सही शाश्वत समीचीन आत्मा के स्वभाव गुण को विचारना यह बीच बिचौना जो कुछ तरक्की सी हुई है ज्ञान गुण का विकास या कुछ व्रत तप कर लेना या कुछ सामायिक आदिक व्रत क्रिया कर लेना इतने मात्र को गुण का जानकर और उन गुणों को निरखकर अपने में संतोष पाता है तो वह धोखे में है वह आगे उन्नति नहीं पा सकता है हाँ यदि आत्मा के उस शाश्वत गुण का चिंतन करे कि यह हूँ मैं सहज ज्ञान स्वरूप जो ज्ञान अपने आप अपने ही सत्त्व से अपने ही स्वरूप से तीन लोक अलोक त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को जान सकने वाला है। ऐसा यदि अपने शाश्वत गुणों पर दृष्टि दे तो इससे लाभ मिलेगा। मोह दूर होगा कषायें दूर होगी मगर थोड़ा बहुत तो कुछ अन्य छोटे जीवों की अपेक्षा तरक्की सी लग रही है और इसी को ही गुण मान बैठें तो यह यहीं का यहीं रह जायेगा आगे नहीं बढ़ सकता। तो यहाँ आचार्यदेव ने यह बताया है कि जिनेंद्रदेव ने यह कहा कि बहिरात्मा और अंतरात्मा में भेद तो पर समय के हैं और परमात्मा स्वसमय हैं। सर्वजीवों में स्वसमय पर समय तथा बहिरात्मा, अंतरात्मा व परमात्मा का विभागीकरण― जो दर्शन ज्ञान चारित्र में स्थिर होने से स्व को ही एक रूप से अनुभव कर रहा है उसे कहते हैं स्वसमय और जो अपने आप के स्वरूप को तो अनुभव नहीं कर रहा किंतु अनादि अविद्या के कारण पर को ही एक रूप से मान रहा है। वह है पर समय। इस लक्षण की दृष्टि से जैस कि समयसार में बताया है स्वसमय और परसमय का लक्षण देखने चलते हैं तो परसमय तो हुआ मिथ्यादृष्टि जीव और स्वसमय हुए भगवान। अब ये बीच के गुणस्थान न तो स्वसमय में आ रहे न परसमय में आ रहे हैं। तो क्या ऐसा ही है? ऐसा तो नहीं है। जीव या तो स्वसमय होगा या पर समय होगा समय मायने आत्मा के हैं। जो अपने आत्मा में मग्न होता है उसे कहते हैं स्वसमय और जो परभाव में परतत्त्व में पदार्थ में मग्न होता है उसे कहते हैं परसमय। तो चौथे गुणस्थान से 1॰वें 11वें 12वें गुणस्थान तक यह भाव करता है मगर स्वसमय की अपूर्णता पूर्णता के भेद बनावें तो कह लो स्वसमय। पर क्यों बनातें ऐसा भेद? एक ही तरह का निरखें कि मुझे स्वसमय होना है। ऐसी अगर आशय की बात है तो बहिरात्मा परसमय हुआ और अंतरात्मा भी 12वें गुणस्थान तक परसमय ही रहे यह इस ग्रंथ में यहाँ बताया जा रहा है। हाँ परसमय बताने पर भी इतना अंतर जानना कि बहिरात्मा में भी तर्तमभाव है और अंतरात्मा में भी तर्तमभाव है बहिरात्मा तो पहले गुणस्थान तक हैं और अंतरात्मा चौथे गुणस्थान से लेकर 12वें गुणस्थान तक है और परमात्मा 13वां 14वां गुणस्थान वाले और सिद्ध भगवान में परमात्मा कहलाते हैं। अब उन अंतरात्माओं में भी जघन्य अंतरात्मा तो अविरत सम्यदृष्टि है और मध्यम अंतरात्मा 5वें गुणस्थान से लेकर 12वें गुणस्थान तक हैं। यह सब निरखने का प्रयोजन क्या है? अपने आपके स्वरूप की सम्हाल होना। अपने मार्ग की सुध होना। मुझे अभी कितना मार्ग चलना है। इस समय में किस जगह पड़ा हुआ हूँ। उस ओर दृष्टि बने ये सब उमंगें इस तत्त्व के परिचय से मिलती हैं।