वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 50
From जैनकोष
अज्जवसप्पिणि भरहे पउरारुद्दट्ठज्झाणचादिट्ठा।
पाठा दुट्ठा कट्टा पापिट्ठा किण्हणीलकाऊदा।।50।।
अवसर्पिणी पंचमकाल में भारत क्षेत्र में रौद्रध्यानी व आर्तध्यानी लोगों की प्रचुरता―आज अवसर्पिणी काल में इस भरत क्षेत्र में ऐसे लोग अधिकतर देखे जाते हैं कि जो रौद्रध्यानी और आर्तध्यानी हैं। आर्त कहते हैं क्रीड़ा के प्रसंग में जो ध्यान बनता है उसे कहते हैं आर्तध्यान। किसी को इष्ट का वियोग हुआ तो उसमें उस इष्ट की बारबार याद करना और उससे मिलने की भावना करना और उस ही स्मरण में दुःखी होना यह आर्तध्यान है। किसी अनिष्ट पदार्थ का संयोग हो जाय, अपने को न रुचे तो उस संयोग में दुःखी रहना और वियोग हो जाय तो उस इष्ट वस्तु का ध्यान बनाये रहना, शारीरिक पीड़ा हो जाय तो उसमें वेदना का अनुभव बने और नाना प्रकार की आशायें बढ़ाकर अपने को आकुलित रखना, मैं परभव में धनिक बनूँ, देव बनूँ राजा बनूँ आदिक वासनायें बनाना ये सारे आर्तध्यान कहलाते हैं, तो इनकी प्रवृत्ति आजकल बहुत देखी जाती है। रौद्रध्यान क्या है कि कोई हिंसा करता हो तो उसमें मौज मानना, खुद हिंसा करे उसमें मौज मानना, दूसरे ने हिंसा की तो उसमें अनुमोदना करना ऐसा मौज मानने को रौद्रध्यान कहते हैं। आशय क्रूर है और उसमें वह सुख मान रहा है। झूठ बोलने में आनंद मानना, झूठ बोलने का प्रसंग बनाये, यह सब रौद्र ध्यान हैं। चोरी करने में आनंद मानना, नाना प्रकार के विषयों की रक्षा करने में, परिग्रहों के जोड़ने में आनंद मानना यह सब रौद्र ध्यान हैं। आज इस पंचम काल में आर्तध्यान और रौद्रध्यान का बहुत जोर है। प्राचीनकाल व सांप्रतिक काल में अंतर―जैसा कि पुराणों में सुनते आये कि किसी भी समय किसी राजा को वैराग्य हुआ तो सब राज्य पाट छोड़ने में उसे देर न लगती थी, ऐसी अनेकों घटनायें हो जाती थीं, लेकिन आज इस समय में ऐसा वैराग्य कहाँ दिख रहा जो अंदर से ही आत्महित की भावना से हो। और, यह बात वहाँ मालूम पड़ती है जब कि कोई विद्वान या धनी त्यागी होता हो, साधु होता हो तो वहाँ परिचय होता है कि इसके अवश्य वैराग्य होगा, अन्यथा इतने बड़े धन वैभव को छोड़कर न आता। इसी प्रकार पढ़े लिखे पंडित व्यक्ति जो हर तरह से अपनी बुद्धि से अनुभव कर रहे हों। कोई वैराग्य ही हुआ अन्यथा यह न आता। यद्यपि यह नियम नहीं है कि कोई गरीब या कम पढ़ा लिखा व्यक्ति त्याग मार्ग में आये तो वह कोई ढंग का न होगा, ऐसा कोई नियम नहीं बना रहे मगर प्रायः करके इन दो बातों में सत्यता अधिक विदित होती हैं। आज यह परंपरा नहीं हैं, न ही ऐसा वैराग्य है। वृद्धावस्था हो जाती है तो भी अपने हाथ से तिजोरी की चाभी नहीं देता। अपने नाम से जायदाद हो तो वह जिंदा में नहीं छोड़ सकता। आजकल कहाँ वह वैराग्य है जो कि पहले था, बल्कि आर्तध्यान और रौद्रध्यान का जोर है। यही तो पंचम काल कहलाता है कि जहाँ खोटे ध्यान का प्रभाव अधिक रहे और अच्छे ध्यानों का समागम न मिले पाये या विरक्त रहे यही तो यह पंचमकाल हैं। तो यहाँ आर्तध्यान, रौद्रध्यान वाले बहुत देखे जाते हैं। नष्ट दुष्ट कष्ट पापिष्ठजनों की पंचमकाल में बहुलता―दुष्ट अभिप्राय के लोग जिनमें द्वेष भरा हुआ हैं, क्या-क्या कपट, क्या-क्या सोचना, सारे विश्व को पालूँ ऐसी भावना वासना रहा करती है। सब पर मैं अपना शासन जमाऊँ, मैं सब में उच्च कहलाऊँ आदिक अनेक वासनायें बनती हैं। इस पंचम काल में ऐसे भाव वाले बहुत हैं जिनके पापों में ही चित्त बसा रहता है। व्यसन छोड़े नहीं जाते और उच्च कुल में उत्पन्न होकर भी मदिरापन बीड़ी सिगरेट तो मामूली सी चीजें हैं। दुराचार की ओर प्रगति रहती है ऐसा यह काल है आजकल यह बड़े खेद की बात है कि उच्च कुल में उत्पन्न हुए लोग भी अथवा जैन कुल में उत्पन्न हुए भी आज लोग बताते हैं कि मद्यपाइयों की संख्या कई परसेन्ट हो चुकी है, आज बालक या जवान बुजुर्गों के कहने में नहीं रहे, सब अपनी-अपनी स्वच्छंदता में लगे हुए हैं। कोई नियंत्रण, सामाजिक बंधन या धर्म की श्रद्धावश दुराचार से बचे ये बातें आज प्रायः लुप्त हो रही हैं और ऐसी स्थिति है तो उसका परिणाम स्पष्ट है कि बस पतन की ओर ही समाज या संग है। पंचमकाल में ऐसे खोटे ध्यान के लिए बड़ा भाव रहा करता है। जिस किसी को आत्महित की इच्छा हो उसको अपना जीवन सात्विक रखना चाहिए, मायने जो खोटी चीजें हैं मदिरा सिगरेट वगैरह इनसे बचकर रहना चाहिए क्योंकि उनसे बचकर रहने में स्वास्थ्य का लाभ है। बुद्धि काम करती है, और वह आत्मा के ज्ञान का पात्र है, सो भले ही विरले लोग हैं पर हैं आज भी कि जो अपने आत्महित की साधना में लगे हुए हैं। पर बहुत संख्या तो आर्तध्यानी, रौद्रध्यानी, कष्ट में पड़े हुए, नष्ट से हो रहे, पापों में जिनका चित्त रम रहा, ऐसे पुरुष अधिक हैं। पंचम काल में कृष्ण नील कापोत लेश्यावालों की बहुलता―कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, और कापोत लेश्या इनका अधिक आदर हैं लोगों के चित्त में। ये तीन अशुभ लेश्यायें हैं कहलाती हैं। एकेंद्रिय हों, दो इंद्रिय हों तो विवशता कही जाय कि क्या कहा जाय, ये जीव संज्ञी नहीं हैं, ये शुभ लेश्या कर ही नहीं सकते हैं। जिनके मन है, उच्च कुल में उत्पन्न हुए हैं वे अपनी शुभ लेश्याओं में न आयें, और इतने से कुछ नहीं बनता, सम्यक् अध्ययन में स्वाध्याय में न आयें, ज्ञानसाधना में न आयें तो इस मनुष्य जीवन को पाने का कोई अर्थ नहीं है, कृष्ण लेश्या के लक्षण हैं जो प्रचंड क्रोधी हो, जो एक दूसरे से वैर बाँधे, दुश्मनी न छोड़े, भंड वचन बोले, दुष्ट स्वभाव हो, दया धर्म उसके चित्त में नहीं है, विषयों की आशक्ति है, ये सारी बातें खोटी लेश्यावों में होती हैं। नील लेश्या में आये तो वहाँ भी खोटे ही भाव हैं। विषयों से प्रीति, परिग्रह की बुद्धि, ये सारी बातें वहाँ आती हैं। कापोत लेश्या में हो तो अपनी कीर्ति के लिए सब कुछ करना, प्रशंसा में खुश होना आदिक बातें वहाँ भी रहती हैं ऐसे स्वभाव वाले इस काल में प्रचुर हैं।