वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 51
From जैनकोष
अज्जवसप्पिणी भरहे पंचमयाले मिच्छपुव्वया सुलहा।
सम्मत्त पुव्वसायारणयारा दुल्लहा होति।।51।।
पंचमकाल में मिथ्यामतियों की सुलभता व सम्यग्दृष्टि श्रावक व मुनियों की दुर्लभता―यहाँ दुर्लभता की बात बतला रहे हैं कि इस पंचम काल में मिथ्यादृष्टि जीव तो सुलभ हैं पर सम्यग्दृष्टि मुनि हों अथवा गृहस्थ हों, वे विरले हैं, दुर्लभ हैं। जब तक अपने आत्मा के सहज स्वरूप का बोध नहीं होता तब तक धर्म का प्रारंभ नहीं है। धर्म का नाम लेकर धर्म करने वाले भी बहुत मिलेंगे। पर्व आया तो सारा समय देना और पर्व खतम हुआ तो कुछ भी समय न देना। बताओ ये धर्मरुचि के लक्षण हैं क्या? जिसको धर्म से रुचि है उसे म्याद नहीं पड़ी है कि इन 1॰ दिनों में मैं खूब धर्म करुँ और बाकी समय तो छुट्टी है। धर्मरुचि वाले के चित्त में रोज-रोज ही प्रभु का स्मरण, आत्मस्वरूप का ध्यान जो-जो भी स्वाध्याय आदिक धर्म के साधन हैं, कभी कम हुए कभी अधिक हुए, ये तो होते मगर धर्म प्रेमी के धर्म साधना बारहों महीने ही चलती है। और फिर आत्मा के सहज स्वरूप के ज्ञान बिना धर्म का प्रारंभ ही नहीं है। भले ही धर्म के लिए बड़ी उमंग करे, बड़े समारोह करे, तो उनमें मनका ही बहलावा हुआ। मगर जिसे कहते हैं मुक्ति का रास्ता, संसार के संकटों से छूटने का उपाय वह अणु मात्र भी नहीं बनता जिसको आत्मा के सहज स्वरूप की सुध नहीं है। यह कितने महत्त्व की चीज है। अपने आत्मा का सही परिचय पाना, इस यथार्थ परिचय का साधन है ज्ञान उत्पन्न करना। ज्ञान के साधन सुहाना, ज्ञान की बात सुहाना। ज्ञान के लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर देना। इतना अंदर में उत्साह है तो वह भव्य संसार समुद्र से पार हो सकने वाला है। अकलंक निकलंक देव का बाल्य काल से ही ज्ञान प्रभावना का पौरुष―अकलंक निकलंक देव हुए उन्होंने बचपन में ही ब्रह्मचर्य धारण किया, ज्ञान के लिए सब तरह के प्रयत्न किया। वे जानते थे और उस समय में लोगों को सन्मार्ग पर लाना था, दुर्भावनाओं से लोगों को हटाना था। और घटना भी हुई ऐसी कि जब वे बौद्धशाला में पढ़ रहे थे तो वहाँ अचानक ही उनके गुरु जो दर्शनशास्त्र पढ़ा रहे थे, वहाँ स्याद्वाद का एक प्रकरण आया। उस प्रकरण में कोई शब्द अशुद्ध था जिसकी वजह से अर्थ नहीं लग रहा था, तो वह गुरु उस पुस्तक को बंद करके कक्षा से बाहर चला गया। मौका पाकर अकलंक निकलंक ने उस पुस्तक में वह शब्द सुधार दिया। दूसरे दिन फिर वह गुरु आया, उस प्रकरण को देखा तो उसमें वह शब्द सुधरा हुआ था। यह सुधार की सूझ गुरु के दिमाग में भी न थी और अकलंक निकलंक बच्चों के चित्त में थी। अकलंक तो एक बार ही पाठ को पढ़ ले या सुन लें तो याद हो जाय और निकलंक दो बार सुन लें तो याद हो जाय। तो गुरु को वह घटना देखकर संदेह हुआ कि हमारी इस पाठशाला में कोई कुशाग्रबुद्धि वाला जैन बालक रहता है। उस समय बौद्धों का इतना जोर था कि जैन का नाम सुन लें तो उसको जेल में रख दें। मानो धर्म का मींसा चल रहा था, उसको प्राणदंड दे दिया जाता था। तो गुरु ने परीक्षा करने के लिए अनेक उपाय किए। अकलंक निकलंक का परीक्षण व उपद्रवग्रस्तपना―जैन को पकड़ने के लिये एक उपाय तो यह किया कि एक जिनेंद्र देव का प्रतिबिंब लाया गया और सब लड़कों से कहा कि इस प्रतिमा को उल्लंघ जावो। तो अन्य सभी लड़कों को उसके लाँघने में कोई दिक्कत ही न थी। दिक्कत तो अकलंक निकलंक के सामने थी। सो अन्य सब तो झट लाँघ गए उस प्रतिमा को पर अकलंक निकलंक ने क्या उपाय किया कि उस प्रतिमा पर एक सूत का धागा डालकर उसे रागी समझकर उसको लाँघ गए। उस पर सूत डालकर यह समझ लिया कि अब यह दिगंबर मूर्ति नहीं है, यह परिग्रह वाली मूर्ति हो गई, उसमें उस प्रतिमा की अवज्ञान कहलायी। और-और भी परीक्षायें गुरु ने की। उनमें एक परीक्षा यह भी थी कि जब विद्यार्थी लोग प्रातः काल चार बजे अपना पाठ याद करने के लिए उठते थे उस समय ऊपर की छत से बहुत तेज आवाज करने वाली थालियाँ गिरवाया, इस प्रयोजन से कि थालियों की अचानक ही भारी आवाज को सुनकर विद्यार्थी लोग सहसा ही जग उठेंगे और भय के मारे अपने-अपने इष्ट देव का स्मरण करेंगे, उस समय पता पड़ जायगा कि इनमें से कौन विद्यार्थी जैन बालक है। बस वह पकड़ में आ जायगा। आखिर थालियों की उस आवाज को सुनकर सभी विद्यार्थी घबड़ा कर जगे और अपने-अपने इष्ट देव का स्मरण करने लगे अकलंक निकलंक णमोकार मंत्र का पाठ करने लगे, क्योंकि अचानक ही नींद खुल जाने पर उन्हें कुछ याद न रहा कि क्या होगा इसका परिणाम। आखिर वे दोनों बालक अकलंक निकलंक पकड़ में आ गए, जेल में बंद कर दिए गए, जेल में बंद कर दिए गए, फाँसी का आर्डर दे दिया गया। रात्रि व्यतीत हुए बाद बस फाँसी ही होनी थी। वहाँ जेल में पड़े हुए वे दोनों बालक चिंतन कर रहे थे कि अब क्या होना चाहिए। अपने मर जाने का तो कुछ भय नहीं मगर जो जैन शासन की प्रभावना करना सोच रखा है वह फिर कुछ न कर सकेंगे। बस उसी चिंता में उन्हें रात्रि भर नींद न आयी। तो एक देवी प्रकट हुई और कहा कि तुम दोनों बालक कुछ चिंता न करो हम अपनी माया से इन पहरेदारों को सुलाये देते हैं, अब मौका पाकर तुम दोनों निकल जावो। आखिर पहरेदारों को नींद आ गई और मौका पाकर वे दोनों बालक जेल से बाहर निकल गए। जब प्रातः काल हुआ, दोनों बालक जेल के अंदर न दिखे तो राजा ने क्रोध में आकर जल्लादों को आदेश दिया कि तुम लोग अपनी नंगी तलवारें लेकर चारों और निकल पड़ो और जहाँ कहीं वे दोनों बालक दिखें उनका शीश काटकर मेरे पास लावो। सो वे जल्लाद चारों ओर नंगी तलवारें ले लेकर घोड़ों पर बैठकर निकल पड़े। अकलंक निकलंक देव का बलिदान व आत्मशिक्षण―वे दोनों भाई कुछ ही दूर पहुँच पाये थे कि कुछ जल्लाद लोग उनके पास पहुँच गए और समझ गए कि ये ही वे दोनों बालक हैं। उस समय उन दोनों बालकों में यह सलाह हुई कि हम तुम दोनों में एक भाई पास के इस तालाब में छिप जावे और एक भाई अपने प्राण इन जल्लादों को दे-दे क्योंकि ये मानेंगे नहीं। आखिर वे बालक एक दूसरे से कहे कि आप छिप जावें और दूसरा कहे कि आप छिप जावे। दोनों ही अपने मरण और दूसरे को जीवित रहने की इच्छा रख रहे थे। बहुत-बहुत कहा जाने पर विवश होकर अकलंक को सरोवर में छिपना पड़ा और डर के मारे निकलंक आगे भगा। उस निकलंक को भगते देखकर एक धोबी का लड़का भी उसके साथ भगा। जब जल्लाद लोग आये तो उन दोनों बालकों का शीश काटकर ले गए। तो आप देखो कि जिस जैन शासन की वृद्धि और प्रभावना के लिए निकलंक ने अपना बलिदान किया और उससे भी अधिक बलिदान किया अकलंक ने जो आँखों देख रहा था कि भाई गुजर रहा और जैन शासन की प्रभावना के लिए बचना पड़ा। अकलंक देव के ग्रंथ जैन शासन में न्याय से लेकर इतने उच्च कोटि के हैं कि बड़े-बड़े दार्शनिकों ने अकलंक देव का स्मरण किया है। तो धर्म प्रभावना के लिए अपने प्राण तक का भी समर्पण किया, किसने? अपने ही कुल में उत्पन्न हुए पुरुषों ने और यहाँ धर्म के लिए साहस नहीं, समय नहीं, पौरुष नहीं करते। जैसा जीवन अभी तक चला आया उसमें कोई फर्क डालने की मन में वा´छा भी नहीं तो ऐसे पुरुष इस पंचम काल में बहुतेरे मिलते हैं। पर जिनमें आत्महित की अभिलाषा है और आत्महित के लिए जो अपना सर्वस्व समर्पण करने का साहस रखते हैं ऐसे पुरुष इस जगत में बिरले हैं। यही बात इस गाथा में कहीं जा रही है कि इस अवसर्पिणीकाल में भरत क्षेत्र में पंचमकाल में मिथ्यादृष्टि जन सुलभ हैं किंतु सम्यग्दृष्टि जन गृहस्थ अथवा मुनि, ये मिलना दुर्लभ है।