वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 61
From जैनकोष
उवसमतवभावजुदो णाणी सो भावसंजुदो होइ।
णाणी कसायसवसगो असंजदो होइ सो ताव।।61।।
ज्ञानी भावसंयमी की भी कषायवश संयमच्युति―ज्ञानी पुरुष मोह को उपशांत कर चुके हैं, दूर कर चुके हैं, तपश्चरण से युक्त हैं, ये भाव संयमी होते हैं, उन्होंने अपने अविकार ब्रह्मस्वरूप का अनुभव किया। मैं यह हूँ यह भावसंयम है। उनकी दृष्टि अपने अंतः प्रकाश पर ही पहुंचती है। ऐसा जब तक यह ज्ञानी होकर भी कदाचित कषाय के वश होता है तो वह असंयमी हो जाता है। भले ही भेद विज्ञान पाया; अपने अंतरंग स्वरूप का अनुभव किया, किंतु इसमें स्थिर भी तो होना चाहिए। स्थिर न होने देने वाला कर्म है कषाय। सो कषायों के उदय होते हैं और वह कषाय में व्यग्र हो जाय तो वह पुरुष असंयमी हो जाता है। इससे एक बार ज्ञान भी प्राप्त हो जाय तो यह प्रयत्न करना चाहिए कि यह मेरा सम्यग्ज्ञान स्थिर बना रहे, इस ज्ञानभाव से मैं न चिगूँ। इस जीव का शरण है तो यह ज्ञानस्वभाव की दृष्टि है। बाहरी पदार्थ का संग इस जीव का शरण नहीं है, मगर अज्ञान दशा में आ गया तो जैसे जिसका दिमाग पागल हो गया वह तो कोई अटपट बकेगा, उसको कोई मित्र नहीं बनता, ऐसे ही जिसकी बुद्धि बिगड़ गई, मिथ्या-ज्ञान में बस गया तो उसे भी कोई शरण नहीं दे सकता, तो मेरा शरण है केवल मेरी ज्ञानदृष्टि, तो मोह को शांत करके क्षोभ से मुक्त होकर भावसंयम बने और ऐसे ज्ञानस्वरूप का दर्शन करते रहने का अभ्यास करे तो वह पुरुष कर्मों का क्षय करने में समर्थ है, और जो बाहरी स्वरूप को देखकर ही क्षोभ में आ जाय और अपने आपके स्वरूप की सुध छोड़ दे वह पुरुष संसार के संकटों से मुक्त नहीं हो सकता। इससे अपनी दृष्टि इस प्रकार सहज स्वरूप में रहनी चाहिए जिससे कि अपना शरण अपना भगवान परमात्मतत्त्व अपने निकट रहे, क्योंकि शांति मिलेगी तो अपने ही ब्रह्मस्वरूप की सम्हाल से मिलेगी, बाह्य पदार्थों की सम्हाल में तो सैकड़ों झंझट बसे हैं। उन्हें करना क्या है? एक अपने आपके स्वरूप की सम्हाल। ऐसा अगर एक दृढ़ निर्णय हुआ हो तो यही है अच्छे होनहार की निशानी।
रयणसार प्रवचन ‘उत्तरार्द्ध’