वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 66
From जैनकोष
‘‘सुहडो सूरत्त विणा महिला सोहग्गरहिय परिसोहा।
बेरग्गणाणसंजम हीणा खवणा ण किंवि लव्भंते।।66।।’’
शौर्यहीन सुभट की भाँति वैराग्यज्ञानसंयमहीन साधुवों की अशोभा―इस गाथा में बतला रहे हैं कि साधु की शोभा संयम से है। संयम हीन व्रत तप पालन, जीव दया पालन, सबका भला विचारना, कभी किसी का बुरा न विचारना यह सब संयम कहलाता है। संयम नहीं तो साधु क्या? संयमी की एक प्रगट मुख्य पहिचान है कि वह जूता पहिने बिना चलेगा। एक सीधी पहिचान बताया। जूता पहिने बिना भी चाहे साधु न हो, पर जो जुता पहिने वह साधु नहीं। जिस साधु के चित्त में दया है, सद्भावना है तो वह जूता कभी न पहिनेगा क्योंकि जूता पहिन लेने से कई बातें आती हैं। एक तो जीव दया का भाव नहीं रहता, क्योंकि चले जा रहे हैं सिर उठाये चोट लगने का भी डर नहीं, नंगे पैर हों तो चोट लगने के ख्याल से भी देख कर चलें। दूसरी बात वह नम्रता, सरलता नहीं रह पाती। उससे कुछ एक गर्व जैसी स्थिति होती है। अब आप देखना अगर कोई गृहस्थ जूता पहिन कर चलता तो उसकी गर्व जैसी स्थिति नहीं हो पाती क्योंकि गृहस्थों को तो जूता पहिनने का रिवाज है और रीति है, मगर साधु के पैर में जूता वगैरह हो तो वहाँ न कुछ चित्त में मद आ जाता है। तो पैर में जूता न पहनना यह संयमी पुरुष की एक सीधी पहिचान है। संयमी पुरुष के हृदय में सब जीवों के प्रति प्रीति है, नम्रता है, सरलता है, ऐसे ही साज शृंगार करना शरीर को सजा कर रखना या बड़ी अनोखी ढाल चाल से रहना ये बातें नहीं होती साधु में, दिखावट, बनावट, सजावट, ये तीन बातें साधु में नहीं होती। ये तीनों बातें तो गृहस्थों में कुछ होती है। और गृहस्थ लोग कहते भी हैं कि ऐसा किए बिना गृहस्थी में गुजारा नहीं चलता, करना ही पड़ता है। कोई विरक्त चित्त हो तो उससे कुछ कम रहता है मगर साधु के ये तीनों चीजें अगर रहें तो वहाँ साधुता नहीं है क्योंकि उसे क्या फिक्र? धर्म रुचि में अन्य सत्कार पुरस्कार की उपेक्षा रूचि―वेदांत की एक टीका में एक कथा आयी है कि कोई गुरु शिष्य थे, वे बड़े एकांत प्रिय थे। वे किसी पहाड़िया पर रहते थे। उनका चमत्कार कुछ ऐसा फैला कि पास पड़ोस के बहुत से लोगों का उनके पास आना जाना शुरु हो गया, यहाँ तक कि वहाँ का राजा भी हाथी पर सवार होकर एक बड़े समूह के साथ उनका दर्शन करने पहुँचा। वहाँ जब उन दोनों संन्यासियों ने देखा कि राजा आ रहा है तो आपस में सलाह किया कि अब तो अपने ऊपर एक आफत आ गयी, अपनी शांति में बड़ा भंग होगा। पर क्या करें? एक उपाय है कि जब राजा यहाँ आ जावे तो अपने दोनों परस्पर में रोटियों के विषय में लड़ने लगें वह दृश्य देखकर राजा वापिस लौट जायगा और अपने लोग तमाम झंझट से बच जायेंगे। ठीक है ऐसा ही किया जायगा। आखिर जब राजा वहाँ आया तो वे दोनों रोटियों के संबंध में झगड़ने लगे अरे तुमने आज कितनी रोटियाँ खाया? 1॰ रोटियाँ खाया...और तुमने? ...सिर्फ दो रोटियाँ खाया...अच्छा तो कल के दिन हम 1॰ रोटियाँ खायेंगे तुमको दो ही मिलेंगी। इस प्रकार की रोटियों के संबंध में वार्ता सुनकर राजा ने सोचा कि ये काहे के साधु जो रोटियों पर झगड़ते? झट लौट गया। बस फिर वे सन्यासी शांति पूर्वक रहने लगे, अनेक झंझटों से बच गए। तो ऐसा करने के लिए हम अनुमोदना नहीं कर रहे किंतु बात यह कह रहे कि साधुजनों के धर्मसाधना के प्रसंग में संकोच, लाज, ये सब नहीं रहते, उन्हें तो केवल अपने धर्म से ही प्रेम रहता है। साधुजनों में कोई दिखावट, बनावट सजावट का काम नहीं होता, वे संन्यासी होते हैं। तो जैसे शूरता के बिना योद्धा शोभा को प्राप्त नहीं होता इसी प्रकार संयम के बिना साधु शोभा नहीं पाता। शौर्यहीन सुभट की विडंबना की भाँति वैराग्य हीन साधु की विडंबना―जिसमें वीरता नहीं शूरता नहीं, उत्साह नहीं बल नहीं, साहस नहीं, वह योद्धा योद्धा ही क्या है वह सफल नहीं हो सकता, उसकी कोई शोभा नहीं। उसे कोई बड़े आदर से नहीं देखता और जिसमें शूरता, उत्साह आदि है उसको लोग बड़े आदर से देखते हैं। (यह एक लौकिक बात कह रहे) एक ऐसा ही महाभारत युद्ध संबंधित चुटकुला आया है कि कोई पुरुष रोज-रोज अपनी स्त्री से अपनी शूरता की डींग मारा करता था मैं ऐसा बहादुर हूँ...। जब महाभारत का युद्ध छिड़ा तो उस स्त्री ने कहा देखिये अब अपने सभी देशवासी लोग इस युद्ध में भाग ले रहे हैं तो तुम भी युद्ध में जावो और अपने देश की रक्षा करो। तो वह स्त्री के बार-बार कहने से युद्ध में चला तो गया और वहाँ जाकर किसी मुर्दा मनुष्य की टाँग (पैर) उठाकर ले आया और स्त्री से कहा देखो हमारी शूरता को, हम युद्ध में गए और एक आदमी का पैर काट लाये...। तो स्त्री बोली अरे पैर ही क्यों लाये? शूरता तो आपकी इसमें थी कि शत्रु का सिर काटकर लाते। तो वह पुरुष बोला--‘अरे यदि सिर होता तो उसकी टांग (पैर) काटकर मैं कहाँ से ला सकता था।’ तो शूरता बिना जैसे योद्धा शोभा को नहीं प्राप्त होता इसी प्रकार संयम के बिना साधु शोभा को नहीं प्राप्त होता। साधु में अगर ज्ञान और वैराग्य नहीं है तो उसकी साधुता नहीं निभती। वह तो इंद्रिय विषयों में अपने मन को लगायगा। कहाँ तक वह अपने मन को रोक सकेगा। जैसे किसी सभा में किसी स्त्री का कोई बच्चा रोने लगे तो उस बच्चे की माँ कहाँ तक उस बच्चे का मुख दबाये रहेगी? उससे कहीं उस बच्चे का रोना बंद न हो जायगा इसी प्रकार यदि वैराग्य नहीं है तो व्रत तपश्चरण आदिक बन नहीं सकते। वैराग्यहीन बाह्य वेश की विडंबनायें―भैया, क्या कारण है कि कितने ही लोग कोई अपराध अगर कर चुके हैं तो उसको छिपाने के लिए संन्यासी का रूप रखकर और किसी तीर्थ क्षेत्र में पहुँचकर वहाँ भी अनेक प्रकार की गड़बड़ बातें करना शुरू कर देते, किसी का धन छीना किसी स्त्री को धोखा दिया, ऐसी घटनाओं से अन्य सन्यासियों का भी अपवाद होने लगता। कितनी ही घटनायें ऐसी मिलती हैं। खैर उनकी बात उनके हाथ मगर वैराग्य के बिना साधुता नहीं निभ सकती। इसी तरह ज्ञान के बिना साधुता नहीं निभती, क्योंकि ज्ञान नहीं है तो वैराग्य टिकेगा कहाँ से? ज्ञान हो तो वह आत्मा में रमण करके दिन बिता ले और जिसको ज्ञान तो है नहीं अपने आत्म स्वरूप का और बाहरी चीजें सब छोड़ दी, साधु हो गया तो वह अपना समय कैसे काटेगा? ज्ञानी, साधु संत तो एकांत में बैठकर भी अपना समय निकाल लेते हैं। तो लोगों को यह आश्चर्य होता कि इन के पास कोई नहीं, धन भी नहीं, लोग भी नहीं ये कैसे चौबीसों घंटे अपना समय निकालते होंगे। पर मोहियों को यह पता नहीं है कि उनके साथ भगवान रह रहा, और वे भगवान को साक्षी करके अपना समय आनंद में बिता रहे। तो जैसे साधु के ज्ञान नहीं हैं तो वह साधु शोभा को प्राप्त नहीं होता इसी प्रकार संयम नहीं है तो भी उसको कोई शोभा नहीं। तो तीन बातें रहनी चाहिए साधु में वैराग्य, ज्ञान और संयम। धर्मवेश रखकर असंयमप्रवर्तन के अपराध कर कटुता―यह रयणसार ग्रंथ है, जिसे संस्कृत में कहेंगे रत्नसार इस में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का वर्णन है। तो चारित्र संबंधी बात यहाँ कही जा रही है कि चारित्र बिना साधु की कोई शोभा नहीं। यदि कोई संयम हीन, ज्ञान हीन, वैराग्य हीन साधु से अपराध बने तो उससे धर्म का भी अपवाद होता है और लोग कहने लगते हैं कि इस धर्म वाले साधु या व्रत तप करने वाले ये साधु ऐसे होते हैं, यह क्या धर्म है? यह धर्म तो दूसरों को धोखा देने वाला है यहाँ तक भी बोलने लगते, पर उन्हें यह पता नहीं कि धर्म कभी धोखा नहीं देता, किंतु धर्म की ओट में पाप क्रिया की जाती वह पाप अनर्थ करता है, धर्म अनर्थकारी नहीं, पर धर्मात्मा का रूप रखकर, फिर जो पापभाव किया जाता, पापक्रिया की जाती वह अनर्थ की चीज हैं, किंतु पाप इतना चालाक है कि यह अपनी चालाकी का पता ही नहीं लगने देता, ढोंग, माया, कपट ऊपर से अपनी सरलता की मूर्ति बनाना। जब जैसा मौका तके तब तैसा बन जाता, यह क्या है? पाप भाव। यह पाप भाव इतना चालाक है कि यह तो बच जाता है साफ और धर्म का नाम बदनाम कराता है। धर्म की ओट में पाप का प्रसार पर एक दृष्टांत―एक ऐसा ही कथानक है कि एक किसान के पास तीन बैल थे। सो दो बैलों को तो वह प्रतिदिन खेतों में काम करने के लिए ले जाया करता था और एक बैल को अपने घर की ही ऑगन में बाँध जाया करता था वही भींट में एक अलमारी थी। उस अलमारी के अंदर वह अपना खाना बनाकर रख जाया करता था। एक बार किसान तो अपने खेतों में काम कर रहा था, इधर एक बंदर धर में आया, अलमारी खोला और खाना खाया, बाद में कुछ खाना बैल के मुख में भिड़ा दिया और चला गया। किसान जब घर आया, बैल का मुख खाना से भिड़ा देखा और अलमारी के अंदर रखा खाना खत्म देखा तो समझा कि इस बैल ने मेरा सारा खाना खा लिया तो उसने बैल को काफी पीटा। दूसरे दिन फिर उस बंदर ने वैसा ही काम किया तो बैल फिर पिटा, यही काम कई दिन चला तो बैल को वह किसान प्रतिदिन खूब पीटता रहा। एक दिन कुछ लोगों ने उसे समझाया कि अरे इस बैल को क्यों पीटता? यह मर जायेगा तो तेरा सब काम बिगड़ जायेगा। और एक बात यह तो समझ कि अलमारी खोलकर यह बैल खाना खा जाय वह बात कुछ हमारी समझ में नहीं आती। तुम तो लुक छिपकर देखो कि यह काम कौन और कैसे करता? आखिर किसान की समझ में बात आ गई और एक दिन लुक छिपकर देखा तो क्या देखा कि एक बंदर आया, अलमारी खोला। खाना खाया और बाद में कुछ खाना बैल के मुख में पोत दिया तब किसान ने सारी बात समझ लिया और अपनी भूल पर उसे बड़ा पछतावा हुआ। तो जैसे वह बंदर बड़ा चालाक था अपनी चालाकी से खुद तो साफ बच जाता और बैल पिट जाता ऐसे ही यह पाप बंदर भी बड़ा चालाक है। खुद तो अपनी चालाकी से साफ बच जाता और इस धर्म की पिटाई कराता, मायने लोगों में एक ऐसी आस्था बनवा देता कि इस धर्म में कुछ नहीं है, इस धर्म वाले लोग यों किया करते हैं। ले भाई वह धर्म ही नहीं है, धर्म तो अहिंसा भाव है। विकारहीन भाव में अहिंसापन―अहिंसा भाव का अर्थ है अपने परिणामों में विकार न आना। जिसके परिणामों में विकार न आयेगा वह बाहर में किसी दूसरे को दुःख देने वाला काम कैसे करेगा? लोग तो बाहर की बातें देखकर कि इसको दुःख नहीं दिया तो इसने अहिंसा पाल ली पर इतने से अहिंसा नहीं पली किंतु अपने मन में विकारों को न आने देना यह अहिंसा का पालन है। अहिंसा का पालन हस्त पैरादिक की क्रियाओं से नहीं किंतु भावों से होता है। जिसके मन में विकार है, दूसरे के घात का भाव है उसको हिंसा हो गई और घात का परिणाम किया, हिंसा का भाव किया उसकी ऐसी चेष्टा हुई कि उससे दूसरे के प्राण नष्ट हो गए इसलिए पाप लगा। मगर उन्हें यह पता नहीं कि मन में घात का भाव आया, संकल्प विकल्प बुरे रहे इसलिए पाप लगा। कहीं दूसरे के प्राण जाने से या कष्ट पाने से पाप नहीं लगा। भीतर में जो एक वेग जगा उससे पाप लगा। जिसके भीतर में बेग जगता है उसके ऐसी चेष्टा होती है, इसलिए कहा जाता है कि इस चेष्टा से पाप का बंध होता वस्तुतः अपने परिणाम से ही बंध है, बाहरी प्रवृत्ति से बंध नहीं है। तो वैराग्य, ज्ञान और संयम से हीन साधु शोभा को प्राप्त नहीं होता। वैराग्य तो भावों की चीज हे, वह आँखों दिखने की वस्तु नहीं। अज्ञानी लोगों की दिखावा से प्रभावितता―दिखावा में वैराग्य नहीं है, राग है तब तो यह दिखा रहा है। दिख जाय लोगों को पता पड़े वह बात तो अलग है, मगर यह दिखावट बनाया तो समझों कि अवश्य राग है, इसी प्रकार ज्ञान की भी बात आज के समय में क्या कही जाय? उसकी तो मिट्टी पलीत सी हो रही, आजकल तो कोई ऊपरी-ऊपरी मन पसंद बातें सुनायें जो सुनने में प्रिय लगें, जिनसे दिल बहले, तो उसको लोग मानते कि यह बड़ा ज्ञानी है, बड़ा विद्वान है--और जो वास्तविक ज्ञान है उस ज्ञान की आज कोई कदर भी नहीं। तो कदर कैसे हो? ज्ञान को कोई जाने तो ज्ञान की कदर हो जब ज्ञान ही नहीं समझा थोड़ा अनुमान रूप कि इस-इस प्रकार के प्रभाव वाली चीज है, थोड़ा भी अनुमान हो बड़े ज्ञान का भी वह अनुमान कर सकता है। तो ज्ञान भी जो आज दिखता है उससे यह सही बात न मिल पायेगी कि सचमुच में यह ज्ञान है या अज्ञान है और संयम की भी बात ऐसी है। जो स्वयं सहज बने वह है संयम और जो भारी सोचकर कष्ट उठाकर विकल्प और ख्याल बढ़ाकर संयम की वृत्ति हो तो वह संयम क्योंकि उसको वह राग लगा है, और पर्याय बुद्धि लगी है, मैं साधु हूँ मुझे इस तरह से बोलना चाहिए, ऐसी भी भावना अगर आती है तो वहाँ तो सम्यक्त्व ही नहीं, संयम की चर्चा कौन करे? साधु के मन में यह भाव नहीं आता कि मैं साधु हूँ और साधु को ऐसा करना चाहिए, किंतु उसकी वृत्ति ही सहज ऐसी होती हैं कि जो साधु के द्वारा की जाने वाली होती है। मेरा तो मैं चैतन्य स्वरूप हूँ, ब्रह्म स्वरूप हूँ, प्रतिभास मात्र हूँ, यह बुद्धि रहती है, तो वैराग्य ज्ञान और संयम ये वास्तव में यदि हैं तो उससे साधु की शोभा है।