वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 67
From जैनकोष
‘वत्थु समग्गो मूढो लोही लब्मइ फलं जहा पच्छा।
अण्णाणी जो विसयारत्तो ण लहइ तहा चेव।।67।।’’
धनिक मूढ लोभी की भांति अज्ञानी वेशी की दशा―इस गाथा में यह बात बतला रहे हैं कि अज्ञानी पुरुष त्याग वृत्ति का फल नहीं प्राप्त कर सकते। देखिये धर्म का मूल है अपने आत्मा के सत्य स्वरूप का परिचय पा लेना। आत्मा का सत्य स्वरूप क्या है कि जो आत्मा में अपने आप बिना दूसरे के संबंध के स्वयं सहज बात हो, वह है आत्मा का स्वरूप। ये ख्याल, विकल्प, विचार, कषाय जो कुछ भी चल रहें हैं ये आत्मा के स्वरूप नहीं हैं। एक बार एक भाई ने हमसे कहा कि महाराज भी हमें यह बताओ कि साधुओं को गुस्सा क्यों झट आ जाता हैं? तो हमने कहा कि भाई तुम ही बताओ तो उसने वही बात कहा जो हमें भी कहनी थी क्या कि उस साधु के मन में यह भाव भरा रहता है कि मैं साधु हूँ, मुनि हूँ, मैं इन सब में ऊंचा हूँ, ऊंचे पद मैं हूँ, इन सब लोगों को इस तरह से विनय करता हूँ और मैं इसी लायक हूँ और यह ऐसा ही होना चाहिए, ये सारे विकल्प बसे हुए हैं, और ऐसा जब हो नहीं पाता तो उसको क्रोध जगता है। तो पर्याय बुद्धि तो साक्षात् अधर्म है चाहे वह कैसे ही भेष में हो, पर जिसको शरीर में आत्म बुद्धि है, यह हूँ मैं और शरीर के सहारे ही मैं अमुक हूँ, मैं साधु हूँ, मैं गृहस्थ हूँ आदि का कुछ भी एक श्रद्धा रूप में विकल्प रखे तो उसे ब्रह्मस्वरूप परिचय नहीं और वह धर्म धारण का पात्र भी नहीं। धर्म की बात समझने के लिए इतनी तैयारी होनी चाहिए कि जितनी तैयारी लोग धन कमाने के लिए करते हैं। अन्य कोई धन वैभव काम न देंगे और यह धर्म काम देगा? पर लोगों का तन, मन, धन, वचन सब कुछ इस धन कमाने के लिए लगा रहता है, धर्म के लिए तन, मन, धन, वचन में कुछ नहीं लगते, मानो कदाचित् ऊपरी बातें की, पूजा भी कर लिया, कुछ जाप कर लिया, कुछ भी किया तो उन बातों में धर्म तब ही है जब उसको अपने आत्मा के सहज स्वरूप का बोध है, और कोई ऐसा न भी कर सके और ज्ञान की रूचि हो तो उसको धर्म होगा। तो बतला रहे यह कि जैसे मूर्ख और लोभी मनुष्य संग्रह भर कर पाता है पर उसे भाग नहीं सकता प्राप्त किए गए पदार्थ का फल नहीं पा सकता क्योंकि वह लोभी है ऐसे ही अज्ञानी पुरुष तपश्चरण करे तो उसका फल नहीं और विषयों में आशक्त रहे तो उसका भी फल नहीं। केवल वह अभिलाषा ही करता रहता है।