वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 68
From जैनकोष
‘वत्थु समग्गो णाणी सुपत्तदाणी फलं जहा लहइ।
णाणसमग्गो विसयपरिचत्तो लहइ तहा चेव।।68।।’’
ज्ञानी पुरुष द्वारा फल की उपलभ्यमानता―पहले बताया गया था कि अज्ञानी जीव लोभी मनुष्यों की तरह कछ तप वगैरह अर्जन करके भी फल कुछ नहीं पाता अब यहां उसके विपरीत बतला रहे हैं कि जो ज्ञान से सहित हैं ऐसे विषय परित्यागी पुरुष साधु इस प्रकार फल को प्राप्त करते हैं जैसे कि सौभाग्यशाली सुविधाबानी ज्ञानी सुपात्रदान करने वाला गृहस्थ फल को प्राप्त करता है। इस रयणसार ग्रंथ में प्रथम तो श्रावक की मान्यता से आचार का वर्णन किया था, अब साधुजनों के लिए आचार की बात बतला रहे हैं। तो यहाँ पूर्व में जो बताया गया था श्रावकों के लिए कि सुपात्र का दान करता है कोई भक्तिभाव से तो वह अच्छी गति को प्राप्त होता है उत्तम फल पाता है। तो जैसे कोई श्रावक वस्तु समग्र वाला सुपात्रदान के प्रभाव से उत्तम लाभ पाता है इसी प्रकार विषयों का परित्यागी ज्ञानी साधु उत्तम फल प्राप्त करता है। जीव अमूर्त ज्ञान, दर्शन, शक्ति आनंदमय एक भाव स्वरूप पदार्थ है। वह अपने आप में भावों को ही करता है इसके अतिरिक्त कोई भी बाह्य पदार्थ कर्ता नहीं होता। तो बतला रहे कि जो विषयों का परित्यागी साधु वह ज्ञानबल से लाभ पाता है जिसके ज्ञान है वह विषयों को कहाँ तक लादेगा? जैसे कि जब ज्ञान प्रकाश होता है तो क्रोधादिक आश्रव निवृत्त होते ही हैं और जैसे-जैसे ज्ञानप्रकाश बढ़ता है वैसे ही वैसे आश्रव से निवृत्ति होती है, आश्रव से निवृत्ति जैसे-जैसे वृद्धयंगत होती है वैसे ही वैसे ज्ञान की पूर्ति भी होती जाती है। वह ज्ञान-ज्ञान नहीं जिसके होने पर आश्रव लौटते न हों। कल्याण को पाय लाभ की सुगमता व स्वाधीनता―जो ज्ञान ज्ञानस्वभाव को छू ले वह ज्ञान ज्ञान कहलाता है, कल्याण उपाय कितना सुगम है। उसमें अधिक पढ़े लिखे विद्यावान की भी बात नहीं है, ये पशु पक्षी कहाँ किसी पाठशाला में पढ़ते हैं किंतु उनमें भी जिनका होनहार भला है उन्हें ज्ञान स्वभाव का ज्ञान हो जाता है, सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं। तो पढ़ना लिखना तो भला है उससे और भी स्पष्टता होती है कषाय मंद हो, भाव विशुद्ध हों तो उसको ये सब लाभ प्राप्त होते हैं जीव में सबसे बड़ा दुर्गुण तो कषायों की हट रखने का है। कषाय तो ज्ञानी के भी होते। राग का राग मायने वह राग पसंद आ गया और ऐसा राग मुझे सदा काल मिलता रहे मैं बहुत भला हूँ ऐसा राग का सुहा जाना यह राग का राग है। यह प्रकट मिथ्यात्व है और राग हो रहा और सुध आ रही राग रहित स्वरूप की यह ज्ञानी की कला है। कैसी एक विचित्र घटना है कि दृष्टि तो स्वभाव पर जा रही है और परिस्थिति मन वचन काय की चेष्टा चल रहीं भिन्न ज्ञान का अपार बल होता। ज्ञानी की जलतें कमलवत् विवित्रता―जो स्वभाव दृष्टि कर रहा उस ज्ञानी की यह दशा है कि जलतें भिन्न कमल हैं जो ज्ञानी पुरुष है वही विषयों से मुख मोड़ सकता है सच्चे मायने में हर एक कोई नहीं। कैसा स्पष्ट निर्णय है अविकार ज्ञान स्वभाव की महिमा जिसने जाना और अविकार ज्ञान स्वभाव की अनुभूति के ही लिए जिसका दिल तरस रहा है, जिसका मन कर रहा, वही मात्र एक जीवन में कर्तव्य जिसको दिख रहा, ऐसा ज्ञानी पुरुष परिस्थितिवश कर्मक्रांत दशा में मन, वचन, काय की कुछ चेष्टायें भी करते तो भी वह जलतें भिन्न कमल हैं, इस प्रकार से रहता है। एक दृष्टि की तो बात है पहले समय में महिलायें कुवें से पानी भर कर लाती थीं और सिर पर दो तीन घड़े रखकर लाती थी। अब वे महिलाएं परस्पर वार्ता करती चली जा रही हैं, दो तीन घड़े सिर पर हैं, दो हाथ में भी लेकिन उन घड़ों को हाथ से छुवे भी नहीं है जो सिर पर रखे हैं मगर बात करती जायेंगी और बात करने में कुछ ओंठ भी फड़कते, थोड़ा सिर भी मटकता मगर वह इस तरह से मटकता कि वे घड़े नहीं गिर सकते हैं। ऐसी स्थिति में सब क्रियायें होते हुए भी उनकी मूलदृष्टि उन घड़ों पर होती ऐसे ही ज्ञानी पुरुष कर्म विपाक दशा में कुछ बोल भी रहे कुछ चिंता भी कर रहा, कुछ व्यापार में भी लग रहा मगर दृष्टि है सदा अपने आपके अविकार ज्ञान स्वरूप की। धर्मतत्त्व का आत्मा में परीक्षण―जो अपने में धर्मात्मा पन की बात सोचता हो उसको यह परीक्षा करना चाहिए अपनी कि मेरे को रात दिन के 24 घंटे में दो चार घंटे अपने अविकार ज्ञान स्वरूप की दृष्टि होती या नहीं। मैं यही मात्र रहूँ ऐसी भावना और परिणति बनती या नहीं। अगर भावनों ही नहीं बन रही तो व्यर्थ में धर्मात्मापन का अहंकार करके पाप क्यों कमाये जा रहे हैं? अपनी त्रुटि अपनी दृष्टि में रहे उसका तो भला हो जायेगा। त्रुटि होने पर भी अपने को महान समझे और उस पर गौरव माने तो उसको रास्ता नहीं मिलने का। तो अपने आप में यह खोज बनाना चाहिए कि मेरी अविकार स्वरूप पर कुछ कभी दृष्टि जाती है या नहीं जाती है। धुन जिसको अविकार ज्ञान स्वरूप की लग गई है उसकी है यह चर्चा कि चारित्र मोह के उदय में उसे सब कुछ करना पड़ रहा है। तो भी उससे निर्लेप है। तो ऐसा ज्ञानी पुरुष विषयों का परित्याग करने वाला उत्तम फल को प्राप्त करता है। जैसे कि सुपानदानी ज्ञानी पुरुष उत्तम फल को प्राप्त कर लेता है।