वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 74
From जैनकोष
‘‘सम्मत्त विणा रुई भक्तिविणा दाणं दयाविणा धम्मो।
गुरू भक्ति हीण तव गुण चारित्तं णिफ्फलं जाण।।74।।’’
सम्यक्त्व विना रुचि की तरह भक्ति विना दान की तरह गुरू भक्ति विना तप गुण चारित्र की निष्फलता―सम्यक्त्व से रहित पुरुष ने ये सब बातें व्यर्थ जाना है। क्या रूचि? कुछ प्रीति भी बनी हो धार्मिक कार्य के लिए मगर सम्यक्त्व रहित है वह पुरुष तो उसके बिना यह रूचि व्यर्थ है। भक्ति के बिना दान व्यर्थ है, मन, वचन काय ये तीन चीजें हैं मनुष्य के पास धन तो चिपका नहीं फिरता है। धन है, इससे यह धनी है ऐसा कोई चेहरे से निर्णय नहीं कर सकता है नियम रूप से। तन मन और वचन ये तीन मनुष्य के एक वैभव से। वचन से यह शांत रहने और वचन से ही अशांत रह ले, ये सब कलायें वचन में हैं। वचन से ही दूसरों के द्वारा कहो पिट ले या वचन से ही अपनी रक्षा बना ले। तो वचन मनुष्य का बहुत बड़ा वैभव है। और विवेकी उदार पुरुष वह है जो किसी भी स्थिति में दुःखी भी जो जाय तो भी दुर्वचन न बोले। किसी में इतनी क्षमता नहीं है और दुर्वचन मुख से निकल जाते हैं तो उस कमजोरी को छिपाने के लिए यों भी कहना पड़ता कि भाई मैं तो बिल्कुल साफ हूँ। मेरे तो जो कुछ मन में है सो ही वचन से निकल आता। मैं क्या करूँ। तो यह ठीक वृत्ति नहीं है। मन को उतना कंट्रोल में नहीं रख सकते क्या कि हम दूसरे को दुःख प्रेरक वचन न बोलें बताओ इसमें दोष नहीं है क्या कि मन में जो है सो कहते फिरें। अरे इस मन में तो न जाने क्या-क्या बातें आया करती हैं। न जाने कितनी ही पाप की बातें भी मन में आती हैं। गृहस्थ हों तो उनके मन में भोग संबंधी बातें नहीं आती क्या? लेकिन वे उन सब बातों को इधर उधर कहते फिरते हैं क्या? नहीं कहते। तो न कहना दोष नहीं, और कभी-कभी परबधकार सत्य भी बोले तो वह भी दोष करने वाला बताया गया है। यह सब परिस्थितियों से फैसला चलता है। मनो नियंत्रण की व वचन नियंत्रण की महत्ता―एक भैया एक गुण यह होना चाहिए खास कि अपने मन वचन पर कंट्रोल रहे। कम बोलना। बोलने की आवश्यकता हो तब ही बोलना। तो ऐसा वचनों पर अपना नियंत्रण हो। मन पर नियंत्रण हो। कितना भी किसी से कष्ट मिले पर उससे बदला लेना न सोचे, उसकी बुराई न सोचे, उसका विनाश न सोचे। कषाय के बेग में लोग उसका अनिष्ट सोचने लगते हैं। किसी का अनिष्ट सोचना यह पापबंध करने वाला भाव है। क्यों अनिष्ट सोचना किसी दूसरे का? कोई कहे कि इसने मेरा बिगाड़ किया इस कारण अनिष्ट सोच रहे, तो प्रथम बात तो यह है कि कोई किसी का बिगाड़ करता नहीं है। तब फिर क्यों किसी का बुरा विचार करना। सब सुखी होने की भावना रखता है। वह तीर्थंकर बनता है दर्शन विशुद्धि भावना के बल से। तो सही बोलना, प्रामाणिक बोलना, सत्य बोलना यह एक इस मनुष्य जीवन में गुण होना चाहिए। यहाँ किसके लिए क्या करना। आँखें मिचीं कि सब कुछ खेल तमाशा खतम। आँख मींचने पर क्या? ―राजा भोज के समय की एक घटना है कि एक बार एक कवि को बहुत दिनों से इनाम नहीं मिल पाया सो वह बड़ा गरीब हो गया और बड़ा दुःखी रहा करता था एक दिन उसने सोचा कि इस तरह से भूखों कहाँ तक मरें, कहीं चोरी करना चाहिए। पर चोरी भी किसी छोटे गरीब के यहाँ क्या करना, चलो राजा के यहाँ चोरी करना चाहिए। सो वह किसी तरह से राजा के महल में पहुँच गया। उसी रात्रि को कोई 1॰-11 बजे के करीब में कोई ऐसी आहट मिली कि जिससे उसको कहीं छिपने की जरूरत थी। सो उसे सबसे अच्छा छिपने का स्थान मिला राजा के पलंग के नीचे। अब वह राजा अपने पलंग पर पड़ा हुआ कोई रचना कर रहा था। वह रचना इस प्रकार थी चेतो हरा युवतयः सुह्दोनुकूला। सद्वांधवाः प्रणतिगिरश्च भृत्याः। गर्जंति दंति निवहास्तरलास्तुरंगाः यों तीन चरण तो उस छंद के बन गए मगर चौथा चरण नहीं बन रहा था। बार-बार उन्हीं तीन चरणों को वह राजा दुहरा रहा था। उन तीनों चरणों का अर्थ इस प्रकार था कि मेरे चित्त को हरने वाली प्रसन्न करने वाली मेरी स्त्री है, और मेरे अनुकूल चलने वाले मेरे मित्र जन है, और बंधु, नौकर, सेवक ये सभी मेरे आज्ञाकारी है, घुड़साल में घोड़े हींस रहे, हाथियों की शाला में हाथी हींस रहे . . . . इस प्रकार से वह अपने वैभव का वर्णन कर रहा था। तो जब राजा से वह चौथा चरण नहीं बन रहा था तब राजा के पलंग के नीचे छिपा हुआ चोर कवि सहसा ही वह चौथा चरण बोल उठा वह चौथा चरण इस प्रकार था ‘सम्मीलने नयनयोनहि किंचिदस्ति’ इस चौथे चरण का अर्थ है कि जब नेत्र मींच जायेंगे तो कुछ भी नहीं है, मायने मृत्यु हो जायेगी तो कुछ नहीं है। तो चौथा चरण सुनकर राजा एकदम से उठा कि कहाँ से यह आवाज आयी और साथ ही वह कवि (चोर) भी नीचे से उठा उसे देखकर राजा ने उसको गले से लगा लिया और बोला कि आज तो तुमने मेरी नींद खोल दी ऐसे ही समझलो कि जो लोग बचपन से लेकर अब तक अपना सारा समय व्यर्थ के कार्य में खो रहे धर्म की बात सुनने पढ़ने की फुरसत नहीं मिलती। इसकी सम्हाल, उसकी सम्हाल बस इसी में लगे रहते सारे ठाठबाठ बनाते, पर आंखें मींच जाने पर इनका कहीं कुछ नहीं रहता। चार देहातियों की तुंकबंदी वाली कविता की रहस्यपूर्णता―राजा भोज के संबंध में एक बात बहुत प्रसिद्ध है कि वह कवियों को बहुत पुरस्कार दिया करता था। और उसकी यह चर्चा गांव व गांव में फैल गई तो एक गांव के चार देहातियों ने सोचा कि अपने लोग भी चल कर राजा को कविता सुनायेंगे। और भारी पुरस्कार प्राप्त करेंगे सो चल दिये चारों देहाती। अब वे क्या जाने कविता बनाना, पर कुछ दूर चलने पर उनमें से एक ने देखा कि एक जगह कोई बुढ़िया बैठी हुई―सूत कात रही थी, उसकी चूँ चूँ चरमरर की आवाज भी आ रही है, उस दृश्य को देखकर एक देहाती बोला मेरी तो कविता बन गई तो बाकी सभी लोग बोले अच्छा भाई सुनाओ अपनी कविता तो वह बोला चनर मनर रहटा भन्नाय। यह है मेरी कविता अब बाकी तीन से कविता बने नहीं कुछ आगे चलकर क्या देखा कि एक तेली का बैल (कोल्हू का बैल) खली भुस खा रहा था तो वह दृश्य देखकर दूसरा देहाती बोला मेरी कविता बन गई अच्छा सुनाओ सुनो तेली का बैल खली भुस खाय। यह है मेरी कविता। अब बाकी दो से कविता बने ही नहीं। कुछ आगे बढ़ने पर क्या देखा कि एक जगह कोई धुनिया अपने कंधे पर रुई धुनने का पींजना लिये हुए चला आ रहा था, वह देखने में ऐसा लग रहा था कि मानो कंघे पर तरकश (धनुष) रखे हो तो उस दृश्य को देखकर तीसरा देहाती बोला मेरी भी कविता बन गई। अच्छा सुनाओ सुनो वहां से आ गए तरकश, यह बंद मेरी कविता है अब चौथे देहाती से कोई कविता बने ही नहीं तो सभी बोले तुम भी अपनी कविता सुनाओ तो वह बोला कि हम योंही कविता न बनायेंगे―-हम ते आशुकवि की तरह तुरंत ही कविता―बना लेंगे। खैर पहुँचे वे चारों देहाती राजा भोज के दरबार में और पहरेदार से खबर पहुँचाया कि कह दो राजा से जाकर कि आज चार महाकवीश्वर आये हैं। पहरेदार ने राजा को खबर दी तो राजा ने बड़े आदर से बुलाया। वहाँ पर कवि जनो की अपार भीड़ थी। सभी ने अपनी-अपनी कवितायें सुनाई और राजा ने उन चारों देहातियों से भी अपनी-अपनी कविता सुनाने को कहा तो वे चारों एक साथ क्रमशः अपनी कविता सुनाने के खड़े हो गए। तो उनमें से चौथे देहाती ने क्या कविता सुनाया था, इसे भी हम इस कविता में बोल देते हैं जो चौथा चरण होगा वही उस चौथे देहाती की कविता थी।
चारों देहाती क्रम क्रम से बोले ‘चनर मनर रहट भन्नाय। कोल्हू का बैल खली भुस खाय वहाँ से आ गए तरकस बँद। राजा भोज है मूसरचंद।।
चार देहातियों की तुकबंद वाली कविता का तथ्यपूर्ण अर्थ―अब इस प्रकार की अटपट कविता को सुनकर राजा भोज दंग रह गये और अन्य कविजनों से बोले कि भाई आप लोग इन चारों कवीश्वरों की कविता का अर्थ बताओ। तो किसी ने कुछ अर्थ बताया किसी ने कुछ पर उनमें से एक वृद्ध विद्वान कवि बोला महाराज इसका अर्थ हम समझाते हैं। देखो पहले कवीश्वर ने तो यह बोला की चनर मनर रहटा भन्नाय तो इसका अर्थ यह हुआ कि यह मनुष्य रात दिन रहटा की भाँति चनर मनर भनाता रहता है अर्थात कभी कुछ किया कभी कुछ, यहाँ गए वहाँ गए, कभी कुछ कहा कभी कुछ कभी चैन नहीं पाता रहटा की भांति भन्नाता रहता है और दूसरे कवीश्वर ने यह कहा कि कोल्हू का बैल खली भुस खाय, अर्थात यह मनुष्य ये सब खटखट बाजी करके भी कभी विश्राम नहीं पाता बड़ी भाग दौड़ मचाकर अनेक द्वंद्व फंद करके आता और जो भी रूखा सूखा जल्दी सो मिल गया उसे खाकर फिर भागा। जिस प्रकार से कोल्हू का बैल रात दिन पिसता रहता और जो भी रूखा सूखा भुस मिल गया उसी को खाकर मौज मानता ऐसे ही यह संसारी प्राणी रात दिन बड़ी भागदौड़ मचाकर हैरान होता रहता, यह अर्थ है दूसरे कवीश्वर की कविता का और तीसरे कवीश्वर ने कहा कि ‘‘वहाँ से आ गए तरकस बंद’’ अर्थात् इतनी भाग दौड़ मचाकर यह प्राणी होता है इतने में ही वृद्ध अवस्था आ जाती है। याने मरण काल, जिसे लोग कहते यमराज यह तीसरे कवीश्वर की कविता का अर्थ है तो चौथे कवीश्वर ने कहा कि ‘‘राजा भोज है मूसर चंद’’ अर्थात ये सब बातें होते हुए भी राजा भोज इतने मूसर चंद बने बैठे है कि इन्हें अपना कुछ होश नहीं इस प्रकार मार्मिक अर्थ सुनकर राजा भोज को एक सही विवेक जगा और उन चारों देहातियों को भी भारी पुरस्कार देकर विदा किया। अपने बारे में हित अहित चिंतन की आवश्यकता―देखिये यहाँ हम आप सभी ‘‘राजा भोज है मूसर चंद’’ इस प्रकार की बात को सुनकर हँस पड़े पर अपने खुद का नाम लेकर भी तो एक बार हँसी आ जाना चाहिए कि अमुक लाल है मूसरचंद अमुक चंद है मूसरचंद बताओ ऐसा करना चाहिए कि नहीं मान लो इस दुर्लभ मानव जीवन को पाकर बाहरी-बाहरी क्रियायें बहुत करते रहे पर आत्म उपासना का कार्य न किया तो उन सब बातों से आत्मा को लाभ क्या? आत्मा की उपासना करने के लिए इन सारी बाहरी बातों का कोई संबंध नहीं है तो अपने आप में एक ऐसी दृष्टि जगनी चाहिए कि मैं अपने आप को ऐसा मानकर रह जाऊँ कि मैं एक अविकार ज्ञान स्वरूप हूँ अन्य कुछ नहीं। यदि इस प्रकार की दृष्टि बन जाय तो उसे फिर बाहरी पदार्थों की ओर दृष्टि हीन रहेगी तो ये सब कुबुद्धियाँ और स्वच्छंदतायें गुरुभक्ति के बिना आ जाया करती है। इसलिए गुरुभक्ति एक बहुत रक्षा करने वाला भाव है।