वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 87
From जैनकोष
‘‘वयारणसीलो मोक्ख पहाराहण सहा वजुदो।
अणवरयं धम्मकहा पसंगओ होइ मुणिराओ।।87।।’’
तत्त्वविचारणशील मुनि के धर्मकथा का वातावरण―मुनिजन, तत्त्व को चिंतन मनन करने वाले रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग की आराधना से युक्त होकर निरंतर धर्म कथा करते हैं मुनि कहते किसे हैं? जो अविकार अंतस्तत्त्व का निरंतर मनन करे सो मुनि जो आत्मतत्त्व की साधना करे सो साधु, जो अंतस्तत्त्व में लीन होने का यत्न करें सो यती, है सब एक ही पर्यायवाची शब्द मगर उस चमत्कार के किन-किन रूपों में दर्शन होते हैं यह शब्द बतलाते हैं। तो मुनिजन तत्त्व का चिंतन मनन करने वाले रत्नत्रय की आराधना से युक्त होकर निरंतर धर्मकथा करते हैं, तत्पश्चात् उसी को ही बोले, उसी को ही चाह करें, उसी में ही तत्पर हो, जिससे कि यह जीव बाह्य संग से मुक्त हो कर अपने आत्मतत्त्व को प्राप्त कर सके। संसार में बाहर सब उपद्रव ही उपद्रव हैं। धर्मकथा धर्म है आत्मा का स्वभाव, उस स्वभाव की कथा करना धर्म कथा है, मैं हूँ अपने आप हूँ, स्वतः सिद्ध हूँ, तो वह हूँ मैं ज्ञानमात्र, जहाँ विकार नहीं है स्वरूप में किंतु उपाधि का सन्निधान पाकर विकार जगा करते हैं, अविकार स्वभाव में ही बाह्य स्वरूप की आराधना करना चाहिए। हम आप भी सब ध्येय तो एक ही रखें। अनेक ध्येय नहीं हैं, परिस्थिति वश कुछ बात विचारनी भी पड़े तो भी ध्येय एक ही हो। मुमुक्ष का एक मात्र प्रधान ध्येय―जैसे कोई मकान बनवाने वाला पुरुष मुख्य ध्येय एक ही रख रहा है कि ऐसा मकान बनवाना है और उसके पीछे लगा है, रोज-रोज उसके पीछे न जाने क्या-क्या विचार चलते हैं, आज किसी कारीगर को लाये, ईंटें मंगाया, लोहा मंगाया, सीमेन्ट मंगाया, यों रोज नये-नये प्रोग्राम रहते हैं, विचार चलते हैं, मगर उद्देश्य उसका ये सब काम करना नहीं है। ये सब काम तो उसे बीच में परिस्थितिवश करने पड़ते हैं, एक तो होता है लक्ष्य और शेष होते हैं उपलक्ष्य, तो इसी प्रकार अपना लक्ष्य तो होना चाहिये मुक्तिलाभ और उपलक्ष्य हों अनेक बातें। षट् आवश्यक, तपश्चरण, समिति आदिक के ये सब होने चाहिए उपलक्ष्य। तो हम सब कुछ कार्य करते तो जायें मगर दृष्टि रहे तो एक आत्मस्वभाव की ओर, जैसे किसी को या तो ज्यादा खुशी को बात हो रही या ज्यादा दुःख की बात हो रही हो तो वहाँ केवल एक ही ध्येय रहे और बातें तो अनेक प्रकार बोलनी पड़ती हैं। मान लो किसी इष्ट का वियोग हो गया तो अब वह उसी इष्ट की ओर ध्येय लगाये रहता है, रिश्तेदार लोग मिलने आते हैं तो उनकी बात भी पूछता है, उनके भोजन आदि का प्रबंध भी करता है मगर ध्येय एक ही ओर रहता। जो बात चित्त में आयी है वही बात ध्येय में आती रहती है, तो ऐसे ही समझियेगा कि जो ज्ञानी पुरुष है, वस्तुस्वरूप की आराधना करके जिसको परम आनंद प्राप्त हुआ है उसकी दृष्टि में तो केवल अविकार चिन्मात्र ब्रह्म स्वरूप ही रहता है। ज्ञानी गृहस्थ भी हो तो वह कुछ घर की भी व्यवस्था बनाता, पर ध्येय उसका गृहव्यवस्था करने का नहीं रहता। वह तो परिस्थिति कराती है वह स्वाध्याय, पूजन, वंदन, सेवा, सत्संग ये भी सब कुछ करता मगर यह भी उसका उद्देश्य नहीं है, उद्देश्य है परम ब्रह्मस्वरूप में लीन होना। ज्ञानी मुनि का महाव्रत समिति आचार तप आचरण में भी मात्र एक अंतस्तत्त्व की आराधना का ध्येय―भैया और की तो बात क्या? वह चारित्र भी धारण करता है, महा व्रत ग्रहण करता है, पंचाचारों का पालन करता है, मगर ध्येय उसका यह नहीं है। ध्येय है अविकार ब्रह्म स्वरूप में लीन होना और वह स्वयं समझता है कि हे 12 प्रकार के तपों, हे 5 प्रकार के आचारों महाव्रत समिति आदिक मैं तुम को तब तक ले रहा हूँ जब तक कि तुम्हारे प्रसाद से मेरे को निर्विकल्प अवस्था न प्राप्त हो। उसके बाद वे छूट जायेंगे। इनके पालन के लिए मैं व्रत नहीं ले रहा हूँ, मैं महाव्रत पालने के लिए महाव्रत नहीं ले रहा, मैं ऐसा तपश्चरण करते रहने के लिए तपश्चरण नहीं कर रहा हूँ, कर रहा हूँ सब कुछ मगर इन सब व्यवहार धर्मों के प्रसाद से मैं इन सबसे छूटकर एक निश्चय तत्त्व में मग्न होऊं इसके लिए यह सब व्यवहार धर्म कर रहा हूँ। उसके भीतर श्रद्धा और वृत्ति रह रहती है, फिर अन्य और प्रसंग आशक्ति और परलीनता की बात ही कहाँ हैं? वे सब बातें तत्त्व विचार करने से मनन करने से यह सब एकदम स्पष्ट होते हैं। तो जो तत्त्व के विचार करने वाले हैं वे मोक्षपथ की आराधना के स्वभाव से युक्त होकर निरंतर धर्मकथा के संबंध से सहित रहा करते हैं, अन्य लोग इस आशा से कि मेरा दुःख मिटे, समता जगे, धर्म दृष्टि हो मुनियों के दर्शन को पहुँचते हैं। तो मुनि यदि तत्त्व विचार में बना रहता है, आत्म स्वरूप की धुन में रहा करता है, खुद शांत है, खुद निर्मल है, अंतः प्रसन्न है तो उसकी मुद्रा को निरखकर यह गृहस्थ जो अभिलाषा लेकर आये उसकी दृष्टि जगती है और शांति मिलती है, तो एक ही बात ध्यान में रखियेगा कि मुझे जो कुछ करना पड़े सो करूँगा, मगर ध्येय है मेरा इस ज्ञानमात्र आत्म स्वरूप में रम जाना सो यह बात तत्त्वविचार मनन से चलती है। इससे श्रुतज्ञान का अभ्यास बस बना ही रहे, सारे जीवन भर प्रसन्नता आयेगी, तो उस ज्ञानाभ्यास से आयेगी, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग से आयगी इसलिए अन्य प्रकार के लगाव चिंतायें त्यागकर एक ज्ञानाभ्यास के लिए ही अपने को प्रयत्न शील होना चाहिए।