वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 11
From जैनकोष
भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठीं हवइ जीवो ।। 11 ।।
486—भूतार्थ के आश्रयी के सम्यग्दृष्टित्व—व्यवहारनय का क्यों नहीं अनुसरण करना चाहिये इसका उत्तर इस गाथा में दिया है । व्यवहारनय को अभूतार्थ कहा गया है और शुद्धनय को भूतार्थ कहा गया है । जो अभूतार्थ का आलंबन लेता है, अभूतार्थ को ही परमार्थ सत्य समझता है वह तो सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर पाता और जो भूतार्थ का आश्रय लेता है अर्थात् परमार्थस्वरूप का आश्रय करता है, सहज सत्य तथ्यभूत यह आत्मतत्त्व है ऐसी समझ जब बनती है तब सम्यक्त्व की स्थिति होती है । व्यवहारनय सारा ही अभूतार्थ है । जो स्वयं सहज पदार्थ मैं नहीं हूँ, वह अभूतार्थ कहलाता है । जो उपाधि के संबंध से हो अथवा किसी दूसरे का मुकाबला करके तथा अपेक्षा करके जो धर्म बताया जाय वह सब अभूतार्थ है, किंतु शुद्धनय ही एक भूतार्थ है । वह भूत अर्थ को बताता है । शुद्धनय पदार्थ के सहजस्वरूप की ओर दृष्टि दिलाता है । अभूतार्थ में नर नारक तिर्यंच मनुष्य नाम वाला, पोजीशन वाला, धनी, ज्ञानी, पंडित, मूर्ख आदिक सभी परिणमन आ जाते हैं । ये ही परमार्थ स्वभाव हैं क्या, परमार्थ द्रव्य हैं क्या? नहीं हैं, क्योंकि ये सहज नहीं हैं । जो सत्त्व के कारण ही दूसरे की अपेक्षा लिए बिना अपने में ही अनादि अनंत स्वरूप मात्र हो वह है भूतार्थ का विषय । ऐसे उस आत्मतत्त्व पर दृष्टि हो, आलंबन हो, वैसा ही उपयोग लगे, तृप्ति बने, संतोष हो, प्रसन्नता बने तो यह है धर्मपालन का मार्ग । जो पुरुष भूतार्थ का आश्रय करता है वह सम्यग्दृष्टि है । 487-अभूतार्थ और भूतार्थ नय के आश्रयण का प्रभाव—जैसे गंदला पानी है तो गंदला यह देखना अभूतार्थ की दृष्टि है और उस गंदले में भी पानी का स्वभाव वह तो पानी रूप ही है स्वच्छ है, यों निरखना भूतार्थ की दृष्टि है । अथवा पानी गर्म हो गया, खौल गया ऐसा दिखा तो (एक दृष्टांतमात्र की बात है) अभूतार्थ और उसमें उसके स्वभाव को देखो तो वह भूतार्थ है । तो इसी प्रकार आत्मा में जो परिणमन हो गए हैं विभावरूप रागद्वेषादिकरूप उनको तकना सो अभूतार्थ का आश्रय है और अपने आत्मा में जो सहजस्वरूप बसा है उस पर दृष्टि होना सो है भूतार्थ का आश्रय । जो भूतार्थ का आलंबन लेता है वह सम्यग्दृष्टि है । जैसे गंदले पानी में कोई अपना व्यवहार करे—अर्थात् पीवे तो उसका जो प्रभाव हो सकता है दर्द करना, कोई रोग होना या वे स्वाद जँचना आदिक, होता है । विवेकी पुरुष होते हैं तो उसमें औषधि डालकर उसकी गंदगी अलग करते और उसका स्वभाव उसके शुद्ध स्वरूप के जल को अलग करके पी लेते हैं उसी तरह इस हालत में जब वह अशुद्ध और विकाररूप परिणमन चल रहा है इस हालत में अलग भी क्या किया जा सकता । अलग करना केवल ज्ञान के द्वारा ही होगा । भेदविज्ञानरूप औषधि को उन स्वभाव विभाव की संधि में डाल दिया जाय तो उपयोग में विभाव से विविक्त स्वभाव दिखेगा । फिर उस स्वभाव का ही आश्रय करके उपयोग में ले ले तो उसका फल होगा, विशुद्धआनंद का अनुभव, सम्यक्त्व आदिक वे सब प्रभाव प्रकट हो जाते हैं । 488—एकांत अभिनिवेश में व मूढ़ भाव में एकत्व के दर्शन का अनवकाश—कुछ लोग विद्यावान होकर भी किसी आशा यश, कषायवश अभूतार्थ के पोषण में ही समय गुजारे और अभूतार्थ की महिमा बड़प्पन ही सिद्ध करने में रात-दिन ग्रंथों का उलटफेर करे तो इसका क्या प्रभाव होगा खुद के आत्मा पर । किसी भी क्षण भूतार्थ के विषयभूत शुद्ध ज्ञायकस्वभाव का आदर न जगेगा, उसकी आदेयता विदित न होगी, उसका दर्शन न होगा और शुद्ध स्वरूप के अनुभवन बिना, ज्ञान बिना, परिचय बिना यह सब बेकार है । कोई पुरुष ऐसे ही कषायवश अथवा अपने सम्मान आदिक वश अपनी किसी भी आशा से जितना जो कुछ यथार्थ निमित्त नैमित्तिक संबंध है या जो कुछ कार्य कारणभाव है उसका निषेध करने के लिए शब्दों में यही खोजा करे और इस अभिनिवेश में यद्यपि कथन तो किया जायगा निश्चय का किंतु उसका अर्थ क्या है यह पता नहीं । वे शब्द बोल देने मात्र से वाच्य जो अंत: तत्त्व है उसका दर्शन और अनुभवन नहीं हो सकता क्योंकि उद्देश्य में अब दूसरी लौकिक बात आ गई है । व्यवहारनय से सब कुछ जानो पर जो वह क्षणिक है, औपाधिक है, प्रभाव है संबंध की बात है उससे तो उपेक्षा करना, चीज है वहाँ ऐसा मिलन है निमित्त नैमित्तिक संबंध, तो उस ज्ञान का निषेध तो न करना क्योंकि वह भी एक ज्ञेय है, व्यवहारनय से जाना गया है, सो व्यवहारनय का विरोध न करके मध्यस्थ होकर फिर निश्चय का आलंबन लेकर मोह को दूर करे तो यह शांतिलाभ की बात है । यह बात कही जाना चाहिये उनके बीच, जो इस तत्त्व के रुचिया हों और वहाँ ही कल्याण के लाभ की बात प्राप्त होती है किंतु जो पुरुष शरीर के आराम के लिए लोभी हुए हों अत्यंत आलसी हुए हों, अपने कर्तव्य में भी जिन्हें प्रमाद आये, ऐसे मोहयुक्त आशय वाले लोगों में भी इस भूतार्थनय के एकत्व की बात आ नहीं सकती । 489-एकत्वामृत व विषयविष की परस्पर प्रतिपक्षता—यह एकत्व ऐसा अमृत है कि इसकी रुचि, इसकी प्राप्ति के लिए तो तन, मन, धन वचन सब कुछ भी न्योछावर कर दिये जाये, ये क्या हैं? विनाशीक यह तन क्या सदा रहने वाला है जो शरीर से काम करने का कष्ट न हो ऐसा लोभ रखा जाय? क्या यह मन सदा रहने वाला है? जो मन किसी विद्या के आदर के लिए न चले, कल्याण की प्रीति के लिए न चले, केवल विषय साधनों की ओर चले? क्या ये वचन यहाँ वहाँ की गप्पें करने के लिए ही हैं? इनका उपयोग आत्मतत्त्व की चर्चा करने में उसकी वार्ता करने में करना चाहिये था । तो ऐसे अनेक पुरुष जो अभूतार्थ के हठी हैं, जो अभूतार्थनय का विरोध करके भूतार्थनय के हठी हैं जो अपने शरीर के आराम के लुब्ध हैं अथवा अपने कुटुंब के मोह में पड़े हुए हैं ऐसे अनेक पुरुषों को एकत्व की बात निश्चय की बात स्वप्न में भी नहीं समा सकती । कोई विधि होती है, कोई काम होता है तो किसी पद्धति से ही होता है । शरीर को ही माना कि यह ही मैं सब कुछ हूँ ऐसी जो पर्यायबुद्धि रहती है वहाँ यह एकत्व की बात चित्त में नहीं आ सकती क्योंकि मुक्तिमार्ग और संसार मार्ग इन दोनों का मुख जुदा-जुदा है । जैसा यह आत्मतत्त्व शरीर से निराला ज्ञान मात्र है, वह उपाधि संसर्ग में शरीर का बन जाय मोही तो उसे यह तत्त्व सूझेगा कहाँ? भूतार्थ के आश्रय लेने के लिए प्रथम व्यावहारिक योग्यतायें भी चाहिये । जो व्यवहार में ही अकुशल है, व्यवहार में ही कर्तव्यशील नहीं है ऐसे अकर्मठ पुरुषों में परभावशून्य शुद्ध ज्ञानतत्त्व की बात उठे यह बहुत कठिन बात है । ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व की रुचि और शरीर की रुचि इन दोनों भावों में विरोध है । ये दोनों भाव एक उपयोग में नहीं आ सकते हैं । 490-पराश्रयता की निवृत्ति में स्वप्रकाशवृत्ति की अनिवार्यता—भूतार्थ शब्द का अर्थ है—पर की अपेक्षा किये बिना, पर का संबंध पाये बिना, पर निमित्त हुये बिना स्वयं अपने आप पदार्थ में जो बात शाश्वत हो वह भूतार्थ है । अपने आत्मा में ऐसा भूतस्वरूप क्या है? ये क्रोधादिक कषायें ये विषयों की वांछायें ये आत्मा के स्वरूप नहीं हैं । आत्मा का स्वरूप वह है जो आत्मा के साथ शाश्वत रहता है वह है एक ज्ञानमात्र चैतन्यमात्र केवल ज्ञानस्वभाव, चैतन्यस्वभाव । किस स्वरूप वाला है इसका परिचय निर्विकल्प होने के उपाय से स्वयं आ जाता बाह्य पदार्थ जब समस्त भिन्न हैं, असार हैं, अहित है तो उनकी दृष्टि, उनके विकल्प क्यों करना? उससे कोई लाभ नहीं है । तो श्रद्धा के कारण जिस किसी भी क्षण समस्त पर द्रव्यों को उपयोग से हटा दिया जायगा तो यह उपयोग पर के आलंबन से हट गया किंतु स्व को कहाँ छोड़ेगा? उपयोग तो स्व के साथ लगा ही है, स्वयं आत्मा की परिणति है, पर तत्त्व की और उपयोग लगाने पर स्व का उपयोग होने पर भी अर्थात् आत्मा का ही परिणमन होने पर भी चूंकि उस परिणमन में अपना मुख बाहर गया है इस कारण वह स्व का आश्रय नहीं कर पा रहा, लेकिन जो उपयोग पर को अहित भिन्न जानकर समस्त पर का आश्रय तज दे तो पर तो छूट गया, पर का आलंबन तो किया नहीं तो फिर यह ज्ञान किसके आश्रय रहेगा? जिसके आश्रय था उसी के आश्रय रहेगा । जिसका आश्रय सदा काल था न जानता था सो अज्ञानी था, जानने लगा सो ज्ञानी है, किंतु उपयोग तो किसी पर के आधार से नहीं हुआ करता, किसी पर की परिणति नहीं हुआ करती । तो पर का आलंबन छोड़ देने पर यह उपयोग अपने आप में आ गया, अपने आपका आश्रय करने लगा, उस समय इसकी बाह्य विकल्पों से रहित अवस्था है और दुःख क्लेश के अनुभवन से रहित है । वहाँ जो एक विशुद्ध आल्हाद उत्पन्न होता है उस आल्हाद में स्वभाव का परिचय हो जाता है । मैं किसरूप हूँ, इसका उपमान बाहर में किसी भी जगह नहीं है जो कदाचित थोड़ी बहुत उपमा को भी बात बताई जा सकती है । जैसे भोजन किए जाने वाले अनेक पदार्थों में समता उपमा कुछ दी जा सकती है, अमुक का स्वाद अमुक की तरह है, लेकिन आत्मानुभव का जो कुछ भी प्रभाव है उसको किससे उपमा दी जाय । ऐसा कोई भी पर पदार्थ नहीं है या अन्य कोई परिणति नहीं है जिससे स्वानुभूति की उपमा दी जा सके । एक अनुपम अलौकिक और ज्ञान प्रकट होता है । 491-भूतार्थनय के अवलंबन की चर्चा—भैया ! जगत में रह रहे हैं इस मनुष्य पर्याय में रह रहे हैं, पर जिस जिसका लोभ है, जिसका मोह है जिसका राग है ये सब प्रकट भिन्न हैं, अपना कुछ है नहीं लेकिन विकल्प कर करके एक अपने को सताया जा रहा है, इस समय भी अपने को दुःखी किया जा रहा है और आत्मलाभ से भी अपने को वंचित बनाया जा रहा है । उस तत्त्व को देखो जो परमार्थभूत है अपने आप में विराजमान पदार्थ है वह स्वानुभव के बाद दृष्ट हो जाता है प्रतिभास में आ जाता है, इसको निहारने के अनेक उपाय हैं । उपाय वे सब तत्त्वज्ञानरूप । जो परिणमन हो रहे हैं सो उन परिणमनों का जब हम परिचय करते हैं तो वे नानारूप नजर आ रहे हैं । जब नाना परिणमन ध्यान में आ रहे हैं तो उन परिणमनों के आधारभूत जो शक्तियाँ हैं वे भी नाना गुणों के रूप में आ गयीं । जैसे जानन का आधार है ज्ञानशक्ति, विश्वास करने का आधार है श्रद्धाशक्ति । तो इसी प्रकार जो अनेक गुण भी अब समझ में आये नाना परिणमनों को निरखकर तो वहाँ गुण तो हैं नित्य और परिणमन है अनित्य । नित्य का श्रद्धान, नित्य का उपादान, नित्य का ग्रहण, नित्य का आकर्षण महत्त्वशाली है, अब उन समस्त गुणों को यों देखो कि वे सब किस आधार में समझे जा रहे हैं । कोई एक चेतन पदार्थ है जिसके आधार में ये सब गुण जाने जा रहे हैं । वह आधार अखंड है । मूल में वहाँ कुछ भी भेद नहीं पड़ा हुआ है । वह तो एक है, और जैसी उसकी अवस्थायें हुई हैं, जिस किसी भी क्षण में वे भी एकरूप । तो परिणतियों का आधार शक्तियाँ और शक्तियों का अभेद आधार द्रव्य । उस आत्मपदार्थ में अखंड पदार्थ की दृष्टि होना सो यह है भूतार्थनय का अवलंबन । जब लक्ष्य विशुद्ध हो जाता है तब ये सर्वप्रकार के ज्ञान भी हमारे लक्ष्य के साधक बन जाते हैं । 492-लक्ष्य की अविशुद्धि में मत्तता की स्थिति—जब लक्ष्य विशुद्ध नहीं होता तो सर्व प्रकार के ज्ञान भी कुछ अर्थ अथवा महत्त्व नहीं रखते । जैसे कोई उन्मत्त पुरुष बातें बहुत करे कभी-कभी बढ़िया व्याख्यान भी दे जाता है, सड़क पर डोलता हुआ पागल कभी-कभी बहुत ऊँची बात कह जाता है मगर वे सब संबंध रहित, लक्ष्य रहित बातें हैं, क्योंकि वह उद्देश्यहीन मनुष्य है । उद्देश्यहीन मनुष्य का ही नाम पागल मनुष्य है । जैसे पागल का कोई उद्देश्य नहीं है, कभी कुछ कहता, कभी कहीं बैठ गया, कभी कुछ भी करने लगा, तो जब ज्ञान इतना निर्बल हो जाता कि ज्ञान किसी उद्देश्य का निर्णय नहीं कर पाता तो वह फिर पागल कहलाने लगता है । इस दृष्टि से देखो तो ये मोही जन क्या पागल नहीं हैं? कभी किसी का राग-कभी किसी का ख्याल, कभी किसी का द्वेष यों जो परिवर्तन हो होकर आत्मा में बात चलती है तो क्या ये उद्देश्यहीन बातें नहीं हैं? आत्मा के लाभ में कौन-सा उद्देश्य पाया? यह तो विधेय है । पुत्र का राग किया, घर का राग किया, शरीर का लोभ किया, यह तो सब विधेय है । उद्देश्य तो ऐसा एक-एक होता है कि जिसके लिए हम अपना जीवन समझ जायें और सर्व प्रकार के श्रम जिनके लिए हम कर उद्देश्य तो बस होता है । उद्देश्यहीन मनुष्य, लक्ष्य भ्रष्ट मनुष्य, आत्मरुचि रहित मनुष्य, आत्मकल्याण की वांछा से शून्य मनुष्य केवल देह राग वाला ही मनुष्य तो नरकीट कहा गया है । अर्थात् मनुष्य के भेष में रहने वाला कीड़ा । तो हम जीते हैं किसलिये? सही उद्देश्य तो बनायें, इसलिए जीते हैं कि खूब खानपान आराम से हमारी परिणति गुजरे । इसलिए हम अपना एक सुंदर जीवन मानते हैं, यह कोई उद्देश्य नहीं है क्योंकि यह शरीर तो भस्म हो जायगा, जिसका लोभ किया जाता है । यह उद्देश्य नहीं है - शरीर के बंधन में पड़ गये हैं इसलिए कुछ शारीरिक वृत्तियाँ करनी पड़ती हैं ज्ञानी को तो करे बिना उन वृत्तियों में भी आत्मलाभ की रुचि के नाते पढ़ाने दूसरों को उपदेश देने उन सब बातों के करते हुए भी ज्ञानी पुरुष ऐसा आत्मा की ओर रहता है कि उसे शरीर का कभी-कभी भान भी नहीं रहता। 493-उन्नतिपथ में अपना कर्त्तव्य—अपने सहज ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व की रुचि जगना और उसकी दृष्टि से अपने आपको भाररहित अनुभव करना, कर्मजाल के भार को दूर करना ये सब वास्तविक अपने कर्त्तव्य हैं, और इन उद्देश्यों से चलकर ही हम अपना कल्याण प्राप्त कर सकते हैं । तो बनाना है जीवन में यह भाव और ऐसे ही प्रयोग के फलस्वरूप हमारी दृष्टि, हमारा लक्ष्य उस ज्ञानमात्र आत्म-स्वरूप पर पहुंचे, ओह मैं ऐसा ज्ञानमात्र आत्मा हूँ—और कुछ नहीं । यह देह तो जल जायगा । इस देह को क्या अपनाना? इस देह की प्रीति से ही अब तक जन्म मरण चल रहा है । जन्म मरण ही यदि प्रिय है तो उसका उपाय आचार्यों ने बताया है कि शरीर को यह मैं हूँ ऐसा अनुभव करते रहें तो जन्म मरण का कभी टोटा नहीं लग सकता है और जन्म मरण से दूर होना है तो यह तो पहिले ही ध्यान में लाना होगा कि यह देह मैं नहीं हूँ । कोई पुरुष मुख से तो यह कहे कि हमें स्त्री से किसी से रंच भी मोह नहीं है और कर्त्तव्य ऐसा करे कि अपनी स्त्री के लिए इस ढंग की व्यवस्थायें करता फिरे कि इसे रंच भी किसी भी प्रकार की तकलीफ न होने पावे, बड़े आराम में रहे । तो आप बतलावो—इसमें स्त्री के प्रति आशक्ति की बात बसी है या नहीं? बसी है । तो केवल कहने मात्र से बात नहीं होती । इसी प्रकार मैं इस देह से निराला हूँ, इतने कथनमात्र से बात नहीं बनती । ध्यान करे तो ऐसी रूचिपूर्वक करें कि अपने देह का भी भान छूट जाय, व्यवहार में आयें तो ऐसा न्यायपूर्वक आयें कि अपने कर्तव्य में प्रमाद न जगे, ये सब बातें इसकी सूचक हैं कि इसे देह का राग नहीं है । देह का राग छोड़कर, मोह छोड़कर, यहाँ तक कि जीवन का भी मोह छोड़कर, यदि आत्मतत्त्व की रुचि में ठहरना हैं, बढ़ना है तो वह भूतार्थनय का आश्रय कर लेने वाला पुरुष है । समस्त पर द्रव्यों से, पर भावों से निराले शुद्ध ज्ञायक स्वभावमात्र निज आत्मतत्त्व की रुचि जगना, आश्रय करना, यह है भूतार्थनय का आश्रय । जो इस स्वभाव का ध्यान करता है, चैतन्यस्वभाव-मात्र मैं हूँ, ज्ञानमात्र मैं हूँ, आकाशवत् निर्लेप अमूर्त केवल ज्ञानमात्र हूँ ऐसी जो अपनी श्रद्धा करता है और यहाँ ही अपनी प्रतीति दृष्टि जमाये हुए है वह पुरुष सम्यग्दृष्टि होता है । सम्यक्त्व जगे तो संसार के सारे संकट टल सकते हैं । यह बात भूतार्थनय के आलंबन से होती है इसलिए व्यवहारनय का अनुसरण न करें, उसके पीछे न चलें । एक निश्चयनय का आलंबन लें और सम्यक्त्व मिथ्यात्व भ्रम भूले समाप्त करें । 494-व्यवहार वैभव—व्यवहारनय को तो अभूतार्थ व शुद्धनय को भूतार्थ उपदिष्ट किया गया है । भूतार्थ का आश्रय कर लेने वाला जीव नियम से सम्यग्दृष्टि होता है । जो ढंग पहिले से चला आ रहा है उसमें ही रहने का स्वभाव संसारी जीव का हो गया है । उससे विलक्षण कुछ भी कथन सामने आ जाय तो वह कठिन-सा प्रतीत होता है । लेकिन 1 दिन तो उस कठिन को सरल बनाना ही पड़ेगा । व्यवहारनय अभूतार्थ है और निश्चयनय भूतार्थ है । भूतार्थनय का आश्रय जो लेता है वह सम्यग्दृष्टि होता है । व्यवहार खंड को या संयोगदृष्टि को कहते हैं । निश्चय अखंड या असंयोग दृष्टि को कहते हैं । जैसे आत्मा को ज्ञान दर्शन सहित कहना अथवा एकेंद्रियादि जाति, गुणस्थान, मार्गणारूप कहना सब व्यवहार है । द्रव्य में कुछ जोड़ना अथवा उसमें से कुछ तोड़ना यह सब व्यवहार है । पदार्थ सत् स्वरूप है, उससे हटकर संयोगरूप देखना व्यवहार है । फिर बाह्य संयोग को तो अपना मानना उपचरितोपचरितनय है । क्षेत्र अथवा काल से टुकड़े करना व्यवहार है । आत्मा को मतिज्ञानरूप आदि बताना व्यवहार ही तो है । जीव और कर्म में एक क्षेत्रावगाह संबंध चल रहा है, फिर भी उसमें से शुद्ध आत्मद्रव्य को जानना निश्चय है । क्योंकि आत्मा विभाग हीन हैं उसमें अनेक दृष्टि से अनेक रूप बताना क्या निश्चय कहला सकता है । अभूतार्थ का सहारा लेकर क्या कभी सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है? कभी नहीं । सिर्फ पूजन भक्ति करना ही व्यवहार नहीं है । मन वचन काय के अतिरिक्त और कुछ विलक्षण, अलौकिक तत्त्व समझ में न आये तो समझो पर्याय दृष्टि है । वस्तु, वह तो वह है, उसमें भेद क्या? इसलिये उस एक की दृष्टि भूतार्थ (सत्य) है, और दो पर दृष्टि अभूतार्थ है । 495-शांति के अर्थ भूतार्थ की ज्ञातव्यता—ऐसा सुंदर मनुष्यभव और संत समागम पाकर भी यदि कल्याण नहीं किया तो फिर क्या यह मनुष्यभव बार-2 मिल सकेगा? गंदे दिमाग से क्या कभी कल्याण हो सकता है? इन अत्यंताभाव वाले दूरवर्ती पदार्थों से क्या कभी आनंद हो सकता है । भगवान कुंदकुंद अध्यात्म के प्रकांड विद्वान थे, अध्यात्म विषय का इतना स्पष्ट कथन हमारे देखने में अभी और कहीं नहीं है । यह आत्मा केंद्र में पहुँच गया, फिर उसे कभी दु:ख का नाम भी नहीं छू सकता । इन अध्रुव पदार्थों में श्रद्धा करने से क्या मिल जायगा, ये पदार्थ तो नाश होंगे ही किंतु तुम्हारी आत्मा को भी बरबाद कर जायेंगे । इस अपवित्र शरीर से अपना बड़प्पन मानना संसार के दुख का बीज बोना है । यदि निर्णय करना है तो उस 1 आत्मा का करो, देखना और जानना है तो उसी आत्मा को जानो । ऊपर से संयुक्त दिखने पर भी असंयुक्त उस एक आत्मद्रव्य को जानना आत्मकल्याण की प्रथम सीढ़ी है । बरसात में कुछ देहाती दूसरे गांव को जा रहे थे, रास्ते में उन्हें प्यास लगी तो पोखरे का भरा हुआ मैला जल ही पी लिया । किंतु विवेकी तो छानकर अथवा फिटकरी से साफ करके ही पीते हैं । इसी तरह मोही राग द्वेष मोह को देखकर आनंद मानता है इसीरूप अपने को अनुभव करता है किंतु ज्ञानी इनसे भिन्न अपने को स्वच्छ निजाकार मानता है । एतदर्थ वह भेदविज्ञान का प्रयोग करता है । समयसार में बताया है और वास्तविक बात है कि अन्य पदार्थ का आश्रय किसी अन्य द्रव्य को नहीं । प्रत्येक द्रव्य को अपना ही आश्रय है । अपना आश्रय लिया यही निश्चय है, किंतु पर का आश्रय लेना व्यवहार है । व्यवहारनय सभी अभूतार्थ है, परंतु समझने का उपाय यही है । जिस प्रकार बच्चे से कहा जाय कि घी का घड़ा उठा लाओ तो वह मिट्टी का घड़ा जिसमें घी भरा है शीघ्र उठा लायेगा क्योंकि उसके इस प्रकार का प्रारंभ से संस्कार चल रहा है । यदि उसे समझाया जाय कि जिसे घी का घड़ा कहते हैं वह घड़ा तो मिट्टी का है, तो उसे समझ में आ जाता है । इसी प्रकार अनादिकाल से यह जीव व्यवहार से परिचित है । जीव के 2 भेद संसारी के 2 भेद त्रस और स्थावर आदि का उसे चिरकाल से परिचय है पर उसे ये पता नहीं कि त्रस भी जीव नहीं, स्थावर भी जीव नहीं, पर जीव मिलेगा उन्हीं में । जिस प्रकार सुनार की राख में सोना मिलता है, पर राख सोना नहीं, किंतु सोना मिलेगा उसी राख में । इस जीव को यह पता अभी तक नहीं कि शुद्ध जीव कहां है? मैं कौन हूँ? वह घर गृहस्थी धन पैसा को ही मानता है यह मैं हूँ, यह मेरा है । अपने अखंड ध्रुव स्वभाव का परिचय न होने से यह जीव निरंतर व्यवहार में ही उलझा रहता है, लोग कहते होंगे यह चर्चा बहुत गहरी है हमारी समझ में नहीं आती, किंतु तुम्हारा क्षयोपशम इतना है कि चाहो तो सब कुछ जान सकते हो । कितना लक्ष्य दुकानदारी, घर गृहस्थी में लगाते हो जो कितना पराश्रित काम है और अत्यंत कठिन है । अपना स्वभाव समझने के लिये किसी भी पराश्रय की आवश्यकता नही, कोई कठिनाई भी नहीं है । 496-भूतार्थ और अभूतार्थ दृष्टि—संयुक्ति दृष्टि अभूतार्थ है; असंयुक्त दृष्टि भूतार्थ है । यह आचार्यों का कथन है । पर्याय को छोड़कर द्रव्य को जानो, विशेष को छोड़कर सामान्य को जानो पर को छोड़कर केवल को जानो यही असंयुक्त दृष्टि कहलाती है । छोड़ने का अर्थ गौण करना है । पर्याय हमेशा बदलती रहती है किंतु उन सब पर्यायों में जो रहता है वह द्रव्य है । जैसे सीधी टेढ़ी आदि अंगुली की पर्याय में जो 1 अंगुली है वही अंगुली दृष्टांत में सामान्य वस्तु है । पर्याय के लक्ष्य से सम्यग्दर्शन नहीं होता किंतु भूतार्थ के विषय के लक्ष्य से सम्यग्दर्शन होता है । जैसे गंदला पानी पीने वाला अविवेकी ही कहलायेगा । विवेकी तो उस पानी को छानकर ही पीते हैं वैसे ही ज्ञेयमिश्रित स्वाद अविवेकी करते हैं ज्ञानी स्व का ज्ञानरूप अनुभव करता है । ज्ञान के 8 भेद; ज्ञान की 8 पर्याय ही तो हैं, वे सब शुद्धज्ञान नहीं । जिसने रागादि पर्याय को ही अपना माना, वह कभी भी संसार से नहीं छूट सकता है । ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव यदि सामायिक में बैठ गया, पूजा भक्ति कर ली, बस समझा उसने, धर्म कर लिया । किंतु सब कुछ करता हुआ भी वह कभी अपने को नहीं समझ सकता है । अरे भाई ! अज्ञान चेष्टा में तो अनंतकाल बिता दिया किंतु 1 भव यह अपनी ज्ञान चेष्टा में ही लगा दो । 1 बार यह अपना स्वभाव जान कर ही अपने आनंद को देख लो । प्रत्येक पदार्थ सामान्य और विशेषात्मक है, किंतु जिनकी सुदृष्टि है, उनकी दृष्टि में सामान्य है । उस सामान्य दृष्टि में ऐसा समता भाव आता है कि फिर वह सोचता है किस पर बिगड़े, किससे बुराई करें । किसके लिये मोह करें? कौन वस्तु मेरी है? कौन पराई है? आदि स्व-पर विवेक उसका जाग उठता है । वह सब संबंध को अपने से न्यारा समझता है । अभी तक अपने को नानारूप में अनुभव करते रहे हैं और यही गलती आगे भी करते रहे तो इस पर्याय पाने की क्या सार्थकता होगी । सम्यग्दृष्टि क्या करता है? जीव और कर्म को समझने के लिये बीच में 1 लकीर खींच देता है और अपनी बुद्धि का प्रयोग करके स्व-पर का ज्ञान कर लेता है । जितना प्रतिभास मात्र है वह मैं हूँ, बाकी राग, विचार, शरीर, कीर्ति, बड़प्पन सब पर हैं, पराये हैं वह इनमें कभी फंसता नहीं है कभी सुख दुख में हर्ष विषाद नहीं मानता है । वह तो सोचता है मैं प्रभु हूँ और ये पर्याय तो बिल्कुल अध्रुव हैं । इससे मेरा मेल तो खाता ही नहीं है । 497-शुद्ध होने का उपाय शुद्ध तत्त्व को विषय करने वाली दृष्टि—व्यवहारनय किसी अन्य की अपेक्षा रखकर होता है निश्चयनय किसी अन्य की अपेक्षा के बिना द्रव्यगुणपर्यायरूप पदार्थों को जानने से होता है । मनुष्य किसी बढ़िया चीज में घटिया चीज मिलाने को अच्छा नहीं समझता है । इसलिये जो श्रद्धा में व्यवहार को उपादेय मानकर ग्रहण करता है वह क्या विवेकी कहलायेगा? कभी नहीं । विवेकी तो वह है जो श्रद्धा में निरपेक्ष रहकर ठीक-ठीक से दोनों नयों को जानता है । कोई सबको तो छोड़ देवे किंतु वह कहे कि अन्य सब को तो छोड़ता हूँ किंतु मैं बच्चे का प्यार नहीं छोड़ सकता तो क्या वह निर्मोही कहला सकता वह तो आत्महानि में है इसी प्रकार श्रद्धा और ज्ञान के बारे में रंचमात्र भी कम, स्वरूप से रंच भी विपरीत श्रद्धा, ज्ञान हानिकर है । कोई पदार्थ आधा नहीं है सभी पूर्ण है और वे सभी अपने स्वभाव से स्वतंत्र परिणमन करते रहते हैं । एक पदार्थ की परिणति दूसरे में नहीं होती है । एक पदार्थ दूसरे पदार्थ में कुछ असर भी पैदा नहीं करता है । जैसे हाथ ने कुछ धक्का लगा दिया, दूसरी वस्तु गिर गई किंतु हाथ का असर हाथ में रहता है और वस्तु का असर वस्तु में रहता है । 498-स्व व पर के आश्रय का प्रभाव—परपदार्थ में कर्तृत्वबुद्धि से झगड़े होते हैं; क्रोध, मान माया लोभ कषाय उत्पन्न होते हैं । यदि श्रद्धा सच्ची हो तो इन विवादों से कुछ आकुलता नहीं होती । सम्यग्दृष्टि के सब व्यवहार होता रहेगा किंतु उसके आकुलता नहीं होती है । पदार्थों की स्वतंत्रता का मर्म जानना सम्यग्दर्शन की मुख्य सीढ़ी है । किन्हीं जीवों को किसी समय व्यवहारनय प्रयोजन वाला है । किंतु आगे चलकर तो उससे हटेगा तभी हित होगा । जो कर्मभाव को जानते तो हैं किंतु उसके कर्त्ता भोक्ता नहीं ऐसा परमार्थी जीव शुद्धनय हो जाता है । सच पूछो तो व्यवहारनय प्रयोजन वाला नहीं है, क्योंकि वह आखिर छोड़ना पड़ेगा । ऊपर चढ़ने के लिये जितनी भी सीढ़ियाँ हैं वे सब छोड़ने को हैं, कोई-कोई मूर्ख उन्हीं सीढ़ियों को पकड़कर रह जाय तो वह मूर्ख ही है । तथापि जो व्यक्ति विकल्पों में स्थित है उसे ही व्यवहार का उपदेश दिया जाता है । जिन्होंने वस्तु का पूर्ण परिचय नहीं किया, उन्हें उसका कुछ अनुभव भी नहीं होता है । जैसे गन्ना कहने से ही उसका स्वाद नहीं मिल जाता किंतु चूसने से ही उसका अनुभव होता है और जिस प्रकार गन्ना के ऊपर का भाग छीलते जाओ उतना ही गन्ना मीठा होता जायगा । इस प्रकार अनुभव करो जिसका अनुभव करना है वह भी तुम्हीं हो जो अनुभव करता वह भी तुम्हीं हो और जिससे अनुभव होता है वह भी तुम्हीं हो । शुद्ध सोने की परख वाला अशुद्ध सोने में भी वह उसी शुद्ध सोने को देखता है । जितना और जो सोना उसमें शुद्ध रूप में है । जिनको शुद्धात्मा का परिचय हो जाता है वे ही नाना पर्यायों में रहने वाले इस शुद्ध आत्मा का परिचय कर पाते हैं । नाना पर्यायें प्रयोजनवान नहीं हैं उन पर्यायों में रहने वाला अखंड आत्मा प्रयोजनवान है । श्रद्धालु जीव ऊपरी नाना प्रकार का असत् वातावरण रहने पर भी वह उनमें रंजायमान नहीं होता है । जिसने परम पारिणामिक भाव को जान लिया, उसने सब कुछ जान लिया है । जो पर्याय को देखता रहता है वह अपने आपको कभी नहीं देख सकता है और जो अपने आपको देखता है उसे पर्याय से मोह नहीं रह जाता है । जैसे बच्चों को चंद्रमा बताने के लिये मां अंगुली के इशारे से बताती है किंतु अंगुली चंद्रमा नहीं है, मात्र ज्ञान कराने में सहायक मात्र है, इसी प्रकार व्यवहार मात्र अपने जानने में जो उपयोगी है वह तो व्यवहार है बाकी सब व्यवहाराभास है । व्यवहार में जो भटक जाता है वह मोक्षमार्ग पर कभी नहीं चल सकता है व्यवहारनय परमार्थ विषय का निर्देशन करता है तो भी साक्षात् तो यों ही समझना कि व्यवहारनय से जैसा है वह परमार्थ से नहीं । व्यवहारनय सब ही अभूतार्थ होने से अभूत अर्थ को द्योतित करता है किंतु शुद्धनय ही एक भूतार्थ है अत: वह भूत अर्थ को द्योतित करता है । स्वयं सहजस्वरूप को भूतार्थ कहते हैं उससे अन्य को अभूतार्थ कहते हैं । 499-व्यवहार परमार्थ के अनुभव का दृष्टांत—जैसे गाढ़े कीचड़ के मिश्रण से जिसकी स्वच्छता तिरोहित हो गई है ऐसे जल का अनुभव (प्रयोग) करनेवाले पुरुष कीचड़ और जल के विवेक को न करते हुए बहुत से लोग उस अनच्छ (मलीमस) जल को ही अनुभवते हैं, यह सब जल ही है ऐसा जानते हुए पीते हैं । परंतु, कोई विवेकी पुरुष अपने हाथ से डाले गये कतकफलों के गिरने मात्र से पंक व पय का विवेक (भेद) हो जाने से अपने पुरुषाकार के प्रकट झलकने के लक्षित सहज एक अच्छता हो जाने से उस अच्छ (निर्मल) जल को ही अनुभवते हैं । इसी प्रकार प्रबल कर्म के संकलन से तिरोहित हो गया है सहज एक ज्ञायक भाव जिसका ऐसे मलीमस आत्मा का अनुभव करनेवाले पुरुष आत्मा व कर्म के विवेक को न करते हुए पुरुष (जीव) व्यवहार विमूढ़ होकर जिसमें अनेकविधता प्रद्योतमान है इस रूप से आत्मा को अनुभवते हैं । परंतु, भूतार्थदर्शी पुरुष अपने ज्ञान द्वारा पाड़े गये शुद्धनय के अनुबोधमात्र से आत्मा व कर्म का विवेक उत्पन्न हो जाने से स्वपुरुषाकार में प्रकट सहज एक ज्ञायकस्वभाव होने से प्रकट है एक ज्ञायकभाव जहाँ ऐसे शुद्ध आत्मा को अनुभवते हैं । 500-आनंदमयनिज की दृष्टि से आनंद की व्यक्ति—व्यवहार और निश्चय क्या है? सबसे पहले इसे समझलें तभी उनका सही उपयोग हम कर सकते हैं । इनके स्थूलरूप लो शरीर को बताना कि ‘शरीर मैं हूँ’ यह व्यवहार है । किंतु ‘शरीर मैं नहीं हूँ इस निषेध के साथ जो स्व की उन्मुखता है’ ये हुआ निश्चय । मैं ज्ञानदर्शन रूप हूँ ये व्यवहार हुआ मैं चैतन्यमात्र हूँ, ये निश्चय हुआ । मैं क्रोध, मानरूप हूँ यह व्यवहार हुआ, मैं इन रूप नहीं हूँ इस निषेध के साथ जो स्व की उन्मुखता है ये निश्चय हुआ । किसी भी पदार्थ में कुछ जोड़ना या तोड़ना व्यवहार है और अभेद या अखंडरूप वस्तु का ज्ञान निश्चय है । पर्याय सब व्यवहार है और अखंड द्रव्य निश्चय का विषय है । जब तक व्यवहार का अवलंबन रहता है तब तक आत्मा में क्षोभ और आकुलता रहती है । जो वस्तु जैसी है उसको वैसी जाने कुछ भी कम बढ़ न जाने तो आकुलता का नाम शेष भी न रहे । निश्चय के अवलंबन से सुख और शांति का अनुभव होता है । पर्याय में अहं बुद्धि होने से ही तो निरंतर सुखी दु:खी होता रहता है । किसी के 8 बच्चे हों और यदि उनमें से 1 बच्चा न रहे तो उसमें अपनापन होने से दु:खी होता है । उन 7 के होने का सुख नहीं मानता है । उसकी दृष्टि उस नष्ट पर जाती है । शरीर में ‘अहं’ भाव होने से शरीर के सुख दुःख में अपना सुख दुःख मानता है । 501-अ पर्यायबुदि्ध और द्रव्यदृष्टि का प्रभाव—पर्यायबुद्धि होने से ही यह मेरे अनुकूल नहीं, मैं इसे पालता हूँ, मैं इसे मारता हूँ, मैं दूसरे का कुछ अच्छा बुरा कर सकता हूँ, पर मेरा कुछ कर सकता है आदि भाव होते हैं । जिनसे यह जीव निरंतर दुःखानुभव करता रहता है जब यह दृढ़ श्रद्धा हो जाती है, ये शरीर मेरा नहीं, ये विचार मैं नही, यह पर्याय मैं नहीं हूँ, जो कुछ भी दीखता यह मैं नहीं हूँ, किंतु इन पर्यायों में रहनेवाला मैं ही ध्रुव चैतन्य हूँ । मैं हूँ और निरंतर रहूँगा । कषाय भाव भी मैं नहीं हूँ, राग-द्वेष आदि भी मैं नहीं हूँ । पर्याय तो आती और चली जाती है, जबकि मैं एक ध्रुव चैतन्य-मात्र हूँ । मैं पर का कुछ नहीं करता, परद्रव्य भी मेरा कुछ नहीं करता, ऐसा श्रद्धा होने पर फिर कृतकृत्य-सा हो जाता है । उसे कुछ करने को बाकी नहीं रहता है । फिर यह पश्यन्नपि न पश्यति अर्थात् देखता हुआ भी नहीं देखता है । ब्रुबन्नपि न ब्रूते अर्थात् बोलता हुआ भी नहीं बोलता है । गच्छन्नपि न गच्छति अर्थात् चलता हुआ भी नहीं चलता । खादन्नपि न खादति=खाता हुआ भी नहीं खाता है । चिन्मूरत दृगधारी की मोहि रीत लगत है अटापटी एक बार भी यह अपूर्व दृष्टि आने पर द्रष्टा सब संकटों से दूर हो जाता है । उसकी आत्मा में अपूर्व आनंद का प्रादुर्भाव होता है । फिर उसे यह संसार स्वप्नवत् दिखने लगता है । इसीलिये प्रबुद्ध पुरुषों ने कहा है—जबलों न रोग जरा गहे तबलो झटिति निज हित करो । जिसने भेद विज्ञान का व्यवहार जीवन में नहीं किया वह रोग और बुढ़ापा आने पर जब शिथिल हो जाता है तब अपना कल्याण कैसे कर सकता है । अपने बल का प्रयोग अपने उत्थान और कल्याण में लगाओ, अपने अनुभव और अपनी खोज में लगाओ । तभी मानव जीवन की सार्थकता है । अन्यथा अभी तक जैसे अनंतभव व्यर्थ चले गये उसी प्रकार यह अवसर भी हाथ से निकल जायगा । यहाँ से यदि अन्यपर्याय अथवा नीचगति में चले गये तो वहाँ कल्याण का मार्ग मिल सकना असंभव है । जिस परमार्थ का आश्रय करने से निर्मल पर्याय प्रकट होती है उस परमार्थ का (भूतार्थ का) जो आश्रय करते हैं वे सम्यग्दृष्टि जीव हैं अन्य और कोई नहीं । अत: प्रत्येक आत्मत्व के द्रष्टा जीवों को व्यवहारनय का अनुसरण नहीं करना चाहिये । 501-सुख शांति का पथ—परमभाव—जो अपने परमभाव को देखना है वह निश्चय का आश्रय है । अपरमभाव को देखने वाला व्यवहार का आश्रय लेकर चलता है । जो निश्चय का ज्ञान करे उसे तो व्यवहार का ज्ञान हो ही जायगा किंतु जो व्यवहार मार्ग को पकड़ता है उसे निश्चय पथ का ज्ञान हो और नहीं भी हो । चूंकि निश्चय तक पहुंचने में उसे व्यवहार मार्ग से तो गुजरना ही पड़ेगा । इसीलिये दोनों दृष्टियों को जान लेना आवश्यक है तभी मोक्षमार्ग चलेगा, सुख और शांति का अनुभव करेगा । अन्यथा मोक्षमार्ग चलना असंभव है । जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही समझकर उसकी वैसी श्रद्धा करो बस यही परमभाव है । उस केवल एक निजभाव को जान लिया तो वही परमभाव और वहाँ ज्ञेयभाव है, बाकी सबका ज्ञान तो यह जीव अनादिकाल से करता चला आ रहा है । दो अंगुली को देखकर यों तो जाना जा सकता है कि ये छोटी अंगुली है और ये बड़ी अंगुली है । किंतु उनमें से 1 को जाना जाय क्या ऐसा नहीं हो सकता है? यह तो हो जायगा कि वह छोटी बड़ी का भेद नहीं कर सकता इसी प्रकार जीव और कर्म की मिश्र अवस्था को तो जाना जा सकता है किंतु क्या ऐसा नहीं जाना जा सकता कि इन दोनों में जीव ये है? जीव में इस प्रकार की शक्ति है कि वह चाहे तो उस एक को जान सकता है । यही निश्चय का पथ है । एक भाव को जानना परमभाव है, दो की मिश्र अवस्थाओं को जानना ये व्यवहार है, सो ये तो हम सब निरंतर जानते ही रहे हैं । हम मनुष्य हैं हम पंचेंद्रिय हैं आदि पर्याय ज्ञान सब व्यवहार हैं । हम चाहें तो स्व की दृष्टि से अपने एक पदार्थ को जान सकते हैं, चाहे तो दों की दृष्टि से भी देख सकते हैं ।
502-शुद्धभाव में बंध का वियोग—बंध किसका स्वभाव है? ये दोनों हाथ हैं, इकट्ठे कर लिये, अब बताओ इन दोनों हाथों में किस हाथ का स्वभाव जुड़वरूप है । जुड़ना किसका लक्षण है? पदार्थ को देखो पर दो के संबंध से मत देखो क्योंकि दो एक पदार्थ नहीं । उनमें से 1-1 पदार्थ को जानो क्योंकि दो पदार्थ मिलकर भी एक तो हो नहीं जाते हैं देखो—दाहिना हाथ जुड़ने पर भी बाये हाथ रूप नहीं हो गया और बायां हाथ दाहिने हाथ रूप नहीं हो गया । यदि हमारी दृष्टि निरंतर संयोग पर रहती है तो उनमें से एक को जान लेना कठिन मालुम होता है । किंतु जो 2 को समझ सकता है वह 1 को जान सकता है । ऐसी दृष्टि में न पुण्य है न पाप है केवल संवर और निर्जरा है । पुण्य कितना भी बाँध लो पर उसमें कभी संवर और निर्जरा नहीं हो सकती है । किंतु जिनके अपरमभाव है वे व्यवहार से ही समझते हैं ।