वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 147
From जैनकोष
तम्हा दु कुसीलेहिं य रागं मा कुणह मा व संसग्गं ।
साहीणो हि विणासो कुसीलसंसग्गरायेण ।।147।।
कुशील के साथ राग व संसर्ग न करने का उपदेश―जब कि उक्त प्रकार से यह सिद्ध हो गया है कि पुण्य और पाप दोनों ही कर्म कुशील हैं तो यहाँ आचार्य महाराज उपदेश देते हैं कि पुण्य कर्म और पाप कर्म ये दोनों ही कुशील हैं । इन दोनों ही कुशीलों से राग न करो, संसर्ग न करो । राग होता है मन से और संसर्ग होता है वचन और काय से । जैसे जोर से बोलकर भगवान की पूजा करते हैं तो वे भगवान की पूजा नहीं करते, किंतु भगवान से संसर्ग करना चाहते हैं, क्योंकि वचन से और काय से बड़ी ऊँची चेष्टा कर रहे हैं । और कदाचित ऐसा नियम से हो जाये कि 5।। बजे सुबह से 7 बजे तक मंदिर की देरी पर जो पैर रखे उसे पूजन के टाइम तक मौन व्रत रखना होगा । सब लोग मौन से ही पूजा करें, दर्शन करने वाले मौन से ही दर्शन करें । उस समय के वातावरण का आनंद देखो कितना आ सकता है? यह बात एक बार सरहानपुर में चातुर्मास किया था, वहाँ एक बहुत बड़ा बाग है, बहुत बड़ी मूर्ति है । तो 15 दिन को नियम बनाया गया था कि यहाँ सुबह 5 बजे से लेकर 10 बजे तक (5 घंटे) जो मंदिर की देरी पर पैर रखेगा उसका मौन व्रत रहेगा । तो वहाँ पूजा करने वाले बस हाथ से चढ़ाते हुए नजर आते थे । बोली नजर नहीं आती थी । उस समय का दृश्य बड़ा शांतिमय रहता था । तो मौनपूर्वक पूजा बताया गया है । 7 स्थानों में मौन है, पर उस मौन का अर्थ लोगों ने यह कर लिया कि पूजा की बात के सिवाय और बात न बोलना सो मौन है ।
राग और संसर्ग की बंधकारणता―आप पुस्तकों में देख लो 7 स्थानों में मौन कहा गया है उसमें एक पूजा भी शामिल है । मौन से भक्ति करने पर भगवान में गुणानुराग बढ़ता है और चिल्लाकर फिर 10 के बीच चिल्लाकर भगवान का राग नहीं आता, किंतु उन 10 आदमियों का राग आ जाता है कि वे 10 आदमी सुन रहे हैं जरा अच्छे स्वर से बोलें । पहिले तो बोल रहे थे जल्दी-जल्दी ‘‘गुरु तेरी महिमा बरनी न जाय’’ और अब बिल्कुल मधुर स्वर से बोल रहे हैं, चार आदमी तनिक अच्छे आ गए सो ‘‘गुरु की महिमा बरनी न जाय’’ चार आदमी देख रहे हैं सो अपनी बोली की चाल बदल ली । तो राग होता है मन से और संसर्ग होता है वचन और काय से । यहाँ कह रहे हैं कि तुम इन कुशील कर्मों से न राग करो, न संसर्ग करो, अर्थात् न कुछ मन से विचारो इन कर्मों के लिये और न वचन, काय से चेष्टा करो । ये राग और संसर्ग प्रतिषिद्ध हैं, इन्हें न करना चाहिए । ये तुम्हारे बंधन के कारण हैं ।
राग व संसर्ग की बंधकारणता पर एक दृष्टांत―जैसे हाथी पकड़ने के लिए ऐसा षड़यंत्र रचते हैं कि जंगल में एक बड़ा गड्ढा बना लिया जाता है । उस पर बांसों के मंचें बिछा दी जाती है और उस मंच पर एक हथिनी की शकल बनती है । जब हाथी उस हथिनी की शक्ल को देखता है तो हथिनी समझकर वह दौड़कर उसके पास आता है । आप जानते ही हैं कि हाथी कितना वजनदार होता है । हाथी के वहाँ आते ही वह मंच टूट जाता है और हाथी गड्ढे में गिर जाता है । अब उस हथिनी को चाहे काली बना लो, चाहे पीली बना लो, चाहे जैसी सुहावनी बना लो, हाथी वहाँ जायेगा तो वह तो गिरेगा ही ।
इसी प्रकार इस संसार में यहाँ कुछ पुण्य का ठाठ दिखता है, कुछ पाप का ठाठ दिखता है, ये दोनों के दोनों ठाठ इस जीव के अहितकारक हैं । जो इनमें राग करेगा, संसर्ग करेगा उसकी गति खोटी होगी । इस कारण इन पुण्य और पाप कर्मों से राग और संसर्ग न करो । इस ही बात को कि ये दोनों प्रकार के कर्म प्रतिषेध्य हैं, आचार्य महाराज स्वयं दृष्टांत के द्वारा समर्थन करते हैं । यहाँ दो गाथाएं एक साथ चलेंगी ।