वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 152
From जैनकोष
परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेदि ।
तं सव्वं बालतवं बालवदं बेंति सव्वण्हू ।।152।।
अज्ञानतप से अज्ञानव्रत से आत्मसिद्धि का अभाव―जो जीव परमार्थ में स्थित नहीं है और तप को करते हैं, व्रत को धारण करते हैं तो उस व्रत को, तप को सर्वज्ञदेव बालतप और बालव्रत कहते हैं । बाल का अर्थ है अज्ञान । अज्ञान तप है और वह अज्ञान व्रत है । मोक्ष का कारण अज्ञान तप नहीं है, अज्ञान व्रत नहीं है । ज्ञान ही मोक्ष का कारण हैं, क्योंकि परमार्थभूत सहज शुद्ध तत्त्व का ज्ञान न हो और अज्ञान से व्रत और तपस्यायें खूब की जायें तो वह बंध का ही कारण होता । इस कारण वह तप और व्रत बाल शब्द से व्यपदिष्ट किया जाता है वह प्रतिषेध्य है, बालतप और बालव्रत किये जाने योग्य नहीं है । मोक्ष का हेतुपना तो केवल शुद्ध ज्ञान से ही होता है ।
झंझटों की कारण बहिर्मुखता―हम और आपको कितने झंझट लगे हैं? जरा झंझटों की तो एक दूसरे से पूछो सब न्यारी-न्यारी बातें बतायेंगे । कोई कहता है कि देवर जेठ से नहीं बनती, कोई कहता है कि पति से नहीं बनती, कोई कहेगा कि स्त्री से नहीं बनती, कोई कहेगा कि भाई से नहीं बनती, कोई कहेगा कि मित्र लोग खोटे हैं, हमारी इच्छा के माफिक नहीं चलते । आजकल रोजगार नहीं चलता, कितनी ही झंझटें बतावेंगे । इन सब झंझटों का मूल उपयोग का बहिर्मुखत्व होना है । नहीं तो आनंदनिधान इस आत्मा में झंझट क्या है?
वर्तमान में भी आवश्यक अनुकूलता―ज्यादह से ज्यादह आवश्यक यह झंझट जान जावो कि भूख और प्यास लगती है, उसके बिना नहीं रहा जा सकता है । तो जिन कर्मों के उदय में हम और आप मनुष्य हुए हैं और इतने विशिष्ट साधन पाये हैं, इतना अनुकूल कर्मोदय सभी मनुष्यों के है कि वे भूख और प्यास से नहीं मर सकते हैं । कोई लाखों में 2-1 ऐसे हैं कि जिनका उदय अत्यंत प्रतिकूल है कि वे भूखे और प्यासे मर जाते हैं । इच्छा कोई बढ़ा ले, हमारा तो खान-पान इस स्टेंडर्ड का होना चाहिए, हमारा तो रहन-सहन इस पोजीशन का होना चाहिए तो यह आपकी अत्यंत आवश्यकता में शामिल नहीं है । जो चीज अनावश्यक है उसका हठ कर लिया जाये यह तो बात दूसरी है । जो अत्यंत आवश्यक है उसकी भी चिंता करनी पड़े, ऐसी आपकी खोटी स्थिति नहीं है ।
अनेक झंझटों को मेटने का उपाय एक―भैया ! कितने झंझट लगा लिये गये हैं, कितने विकल्प और कल्पनाएं कर लिये गये हैं । जो आपके घर में चार छ: बच्चे हैं, स्त्री है उनको तो मान लिया कि ये ही मेरे सब कुछ हैं । मेरा जो तन, मन, धन है वह सब इनके ही लिए है । अरे ये शेष जीव भी मेरे ही समान हैं, ऐसी दृष्टि करके शेष जीवों में कौन तन लगाता है? अगर कोई लगाते भी हैं तो अपना बड़प्पन रखने के लिए, सभ्यता दिखाने के लिए लगाते हैं किंतु स्वरूप में स्वरूप मिलाकर अत्यंत निकट बनकर कोई किसी की सेवा करता हो, ऐसा बिरला ही जीव होता है । कितने झंझट लगा रखे हैं? इन सब झंझटों को दूर करने का उपाय केवल एक है । झंझट अनेक हैं । तो सही उपाय से चिगे कि झंझट बन गए । उनके मेटने का उपाय है, अपने आपके सत्त्व के कारण अपने आपका जो सहजस्वरूप है उस स्वरूप की दृष्टि करना । और एतावन्मात्र अपने को मान लो सारे झंझट समाप्त हो जायेंगे । झंझटों को समाप्त कर दो, संकटों को दूर कर दो, निर्वाण को प्राप्त कर लो―ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं ।
अज्ञानतप के दुःसह क्लेश―अज्ञान तप भी कितने कठिन-कठिन हैं । पंचाग्नि तप―चारों ओर अग्नि जल रही है और चेत, बैसाख, जेठ की धूप पड़ रही है । मैदान में बैठा हो, चारों ओर अग्नि हो और ऊपर से सूर्य की गर्मी, ऐसी गर्मी में कठिन तप करते हैं । कितने ही लोग वर्षों तक हाथ को ऊंचा ही उठाये रहते हैं, और हाथ ऊंचा किए रहने से उनका हाथ कमजोर हो जाता है, लक्कड़ जैसा हो जाता, क्षीण हो जाता है । कितने ही लोग वर्षों तक खड़े रहने का नियम ले लेते हैं । खायें तो खड़े ही खड़े, सोयें तो खड़े ही खड़े पेड़ों से टिक गए नींद ले लिया । जो कुछ करें सब खड़े ही खड़े करते हैं । कितने ही खड़े श्री महाराज होते हैं जो वर्षों तक खड़े ही रहते हैं, बैठते नहीं । कितने ही कांटों पर अपना आसन जमाते हैं, कितने कठिन-कठिन तप कर डालते हैं किंतु एक इस निज ज्ञानस्वभावी भगवान की भेंट के बिना वे सब क्रियाएं कर्मबंध की ही कारण हुआ करती हैं । सबसे उत्कृष्ट लाभ अपने आत्मा के शुद्धस्वरूप का परिचय है । यह जिन्होंने कर लिया उन्हें कोई न जाने या सब बुरा कहें, कुछ भी स्थिति गुजरे उसका तो भला ही भला है ।
कैवल्य का बाधक और साधक भाव―ये मायामय जीव जो खुद अशरण हैं, जो खुद विनाशीक हैं, मिट जाने वाले हैं, दुःखी व्याकुल हैं ऐसे मनुष्यों से आप अपने बारे में क्या कहलवाना चाहते हैं जिससे आपको निर्वाण मिल जाये । ऐसे इन बाह्य अर्थों की दृष्टि निर्वाण में बाधक है । निर्वाण का साधक निज सहज शुद्ध ज्ञान का अनुभवन है । इसकी प्राप्ति के लिए क्या-क्या नहीं करना पड़ता है? अपना सारा तन, सारा धन, सारा मन सब कुछ न्यौछावर हो जाये और एक निज आत्मस्वरूप का भान हो जाये तो समझ लीजिए कि हमने सर्वस्व पाया ।
समय की परख―अब सोच लीजिए कि आप आत्मबोध की प्रक्रिया के लिए कितना तो समय देते हैं, कितना श्रम करते हैं और कितना व्यय करते हैं? इन तीनों में आप देखो कि हम कितना समय देते हैं? 24 घंटों में से गप्पों में, दुकान में, मित्रों में, मोहियों में कितना समय गुजरता है और सत्संग में, भगवत्भक्ति में, पूजा में, प्रवचन में, स्वाध्याय में कितना समय लगाते हो? गप्पें हो रही हों चाहे 10 बज जायें, चाहे 11 बज जायें, पर आनंद आता है । 11 बज गए गप्पें करते-करते तो रात्रि खराब कर दिया, पर सत्संगति में बैठने पर 40 मिनट बाद तो अकुलाहट होने लगती है । जब कोई वक्ता हुआ तो लोग उसे कहते हैं कि इन्हें आज कुछ समय का ख्याल नहीं है, इन्हें घड़ी दिखा दो । अकुलाहट हो जाती है ।
तन, मन, धन, वचन के उपयोग की परख―श्रम कितना करते हैं परिवार के लिए, पसीना सिर से पैरों तक बहता है । और सत्संगति के लिए, गुरुजनों की सेवा के लिए आपका कितना श्रम हो रहा है? जितना धन कमाते हो शत प्रतिशत उन बाल-बच्चों और स्त्री के लिए है पर अपनी ज्ञानवृद्धि के लिए, लोगों के ज्ञानोपकार के लिए आपका कितना व्यय होता है? और तो बात क्या, ज्ञान के कार्य के लिए वचन तक की कंजूसी कर रहे हैं । तन से मदद नहीं कर सकते, धन से मदद नहीं कर सकते तो कम से कम वचन तो हर्षोत्पादक हों, वचन तो दूसरों के प्रेरणात्मक हों ।
ज्ञानी की उपेक्षा न करने की प्रेरणा―स्कूल और कालेज कितने ही खुलते जाते हैं पर वहाँ जिस उद्देश्य से मूल में खोला था धर्मज्ञान के लिए उसकी ओर भी उपेक्षा की जा रही है । अरे केवल वचनों तक की ही तो बात करनी है, काम तो हो ही रहा है, इस ज्ञान की प्रगति के लिए हम कितना तन, मन, धन, वचन चारों को कंजूस बना रहे हैं? भला करेगा तुम्हारा, तो एक ज्ञानभाव ही भला करेगा । ‘‘ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारण ।’’ सर्व जगह ढूंढ़ आवो सुख, क्या घर से सुख मिलेगा, क्या स्त्री से सुख मिलेगा, क्या बाल-बच्चों से सुख मिलेगा? खूब ढूंढ़ लो, और ढूंढ़ भी रखा होगा ꠰ मिला क्या? एक दिन ऐसा आयेगा कि खुद मरेंगे या उन इष्टों में से कोई पहिले मरेगा । तो वियोग से त्रस्त होकर पागल-सा बन जायेगा । यह फल और मिला मोह में । कुछ न कुछ पिटाई अंत में और होगी । इतना लाभ मिला मोह में । इस मोह से किसी का पूरा नहीं पड़ सकता ।
आत्मदर्शन से सिद्धि―भैया ! अपना आत्मतत्त्व देखिये, अपनी निर्मलता बनाइये । अपने उपयोग को विशुद्ध कीजिये पर-दृष्टि में मत उलझिये । सही बात है यह अपने कल्याण के लिए । करना पड़ता है सब कुछ, मगर अपने लक्ष्य से मत चिगो । सर्व प्राणियों में एक इसकी दृष्टि बनाओ ― कोई मुझसे जुदा नहीं है, सबका स्वरूप एक है । अपने स्वरूपास्तित्व पर दृष्टि देकर सोचो कि सब मुझसे जुदे हैं । चाहे वे घर के लोग हों, शरीर हो, कुछ हो मेरा तो अमूर्त ज्ञानस्वभावी यह मैं ही हूं । मेरा पूरा तो मेरे से ही पड़ेगा । दूसरों से मेरा पूरा न पड़ेगा ।
बाह्य से शरण पाने का भाव दूर करके ज्ञानस्वभाव के शरण लेने का भाव―आपके पुण्य की गाड़ी चल रही है इसलिए लोग आपको प्यार जता रहे हैं । आपके पुण्य की गाड़ी बिगड़ जाये, टूट जाये तो आपका प्यार जताने वाले यह सोचेंगे कि इनके साथ इसी जगह रहकर हम कब तक मरेंगे । आप किसी बैलगाड़ी में बैठे हों, देहात जा रहे हों, तीन चार मील जाना था । किसी की गाड़ी मिल गई है सो बैठ लिया । आप गाड़ी में बैठे चले जा रहे हैं और रास्ते में चका टूट जाये तो फिर आप उसकी गाड़ी में बैठे रहेंगे क्या? नहीं । आप यह सोचकर कि हमें तो जल्दी जाना है, तुरंत पैदल चल दोगे । ऐसा ही स्वार्थ भरा हुआ यह जगत है । जब तक किसी का स्वार्थ सिद्ध हो रहा है तो स्वार्थ सिद्ध होने के कारण वे दूसरे आपके उपकार के निमित्त बन रहे हैं । इस स्वार्थ सिद्धि के कारण ही सब आप से प्यार करते हैं । जब स्वार्थ सिद्ध नहीं होता, पुण्य की गाड़ी ढीली हो जाती है तब इसका तुम जानो, क्या करोगे, हमें तो अपने विषयों में स्वार्थों में वहाँ जाना है । यहाँ कोई किसी का सहायक नहीं है । एक अपने ज्ञानस्वभाव का ज्ञान ही सर्व संतोष को प्रदान करने वाला है । इसलिए सर्व उपाय करके किसी भी प्रकार अपने ज्ञानानंदमय चैतन्य ज्योति का सामान्योपयोग बनाकर दर्शन कर लें तो इसके प्रताप से सर्व संकट दूर हो जायेंगे ।
अब यह नियम बतलाते हैं कि ज्ञान तो मोक्ष का कारण है और अज्ञान बंध का कारण है ।