वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 189
From जैनकोष
अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमओ अणण्णमओ ।
लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं ।।189।।
कुंदकुंददेव सीधे सरल शब्दों में कह रहे हैं कि जो आत्मा अपने आत्मा को अपने द्वारा पुण्य पापरूप सभी योगों को रोककर दर्शन ज्ञान में स्थित होता हुआ अन्य वस्तु की इच्छारहित और सर्व संगों से मुक्त होता हुआ आत्मा के ही द्वारा आत्मा को ही ध्याता है तथा कर्म नोकर्मों को नहीं ध्याता, सो आप चेतता हुआ चेतनारूप होने से उस रूप के एकत्व का अनुभव करता है वह जीव दर्शन ज्ञानमय हुआ, और अन्यरूप नहीं हुआ करता है, सो आत्मा का ध्यान करता हुआ थोड़े ही दिनों में कर्मों से रहित आत्मा को प्राप्त होता है ।
आत्महित के अर्थ प्रथम कर्त्तव्य―भैया ! क्या किया इसने? अपने आत्मा को पुण्य और पाप दोनों योगों से रोका । यद्यपि पुण्य और पाप में मुकाबलेतन पुण्यभाव भला है क्योंकि पाप में तो विषय और कषायों की तीव्रता रहती है और उन परिणामों से रहा सहा पुण्य भी बर्बाद हो जाता है । पाप सर्वथा वर्जनीय है । पाप की अपेक्षा पुण्यभाव शुभ है किंतु जिसको सदा काल के लिए स्वाधीन शांति चाहिए, और स्वाधीन शांति का जिसने कदाचित् दर्शन किया है ऐसे पुरुष का उपयोग न पाप में फंसता है और न पुण्य में फंसता है । वह तो सीधा साक्षात् ज्ञानस्वभाव रूप धर्म में उपयोग को लगाता है । तो ज्ञानी जीव सर्वप्रथम क्या करें कि पुण्य पापरूप योगों को अपने आत्मा से रोके ।
योगनिरोध का परिणाम―पुण्यपाप योगों को रोककर हितार्थी शुद्ध ज्ञानमात्र अनुभव करें यही हुआ ज्ञान और दर्शन में स्थित होना । जैसे कभी किसी दुकान की चिंता हो या विदेश में कोई आपका कारखाना हो और उसकी आप चिंता करते हुए बैठे हो तो बातें करने वाला या वक्ता यह पूछता है कि इस समय तुम कहाँ हो? तो वह बीती बात का जवाब देता है कि हम बंबई में थे । याने बंबई की सोच रहे थे कामकाज के बारे में तो वह कहाँ स्थित हुआ? बांबे में स्थित हुआ । अपने प्रदेश की बात नहीं कह रहे हैं । वह अपने असंख्यात प्रदेशों में ही स्थित है किंतु उपयोग द्वारा बांबे में स्थित है । अच्छा समस्त परद्रव्यों का विकल्प त्यागकर यदि कोई आत्मा के उस शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप में अपना उपयोग लगाये तो बताओ कि अब वह कहाँ स्थित है? वह दर्शन ज्ञान में स्थित है । तो इस प्रकार पुण्यपापरूप दोनों योगों को रोककर दर्शन और ज्ञान में स्थित होता हुआ अन्य पदार्थों की इच्छा से विरक्त होकर जो पूर्व योगों से मुक्त हुआ अपने आत्मा का ध्यान करता है वह जीव उस शुद्ध आनंदमात्र अपने परिणमन को प्राप्त करता है ।
आंतरिक आनंद का बल―इस स्वाधीन आनंद के अनुभव में ही वह सामर्थ्य है कि भव-भव के बाँधे हुए कर्मों का क्षय कर सकता है । आनंद तो सभी लोग चाहते हैं, पर आनंद के उपाय में जरा हिम्मत करके चलना चाहिए । आनंद का उपाय है निज शुद्ध ज्ञानस्वरूप की दृष्टि रखना । अन्य सब धोखा है, मायाजाल है । किससे स्नेह करते हो? गृह में जो 4-6 सदस्य आए हैं उनमें भी लगिए यह गृहस्थ धर्म है, सद्व्यवहार करो, रक्षा करो किंतु अंतर में यह संस्कार बसाना कि ये लोग मेरे हैं, ये मेरे सर्वस्व है यह तो मिथ्या परिणाम है और जहाँ ऐसा मिथ्यात्व अध्यवसान हो जाता है वहाँ निराकुलता का दर्शन नहीं होता । वह जीव अंतर में आकुलित ही बना रहता है । क्या होगा अब, कैसे इनकी रक्षा हो, कैसे इनका खर्च चले, कैसे यह सब गाड़ी खिंचे? अरे यह सब कर्माधीन है । तुम तो अंतर में ज्ञान सुधारस चखो ।
निर्णयानुसारिणी चेष्टा―ज्ञानी पुरुष तो कायदे कानून के अनुसार अपना काम करते हैं, अत: ज्ञानी के चित्त में कोई दुःख नहीं होता । क्या कायदा कानून है गृहस्थों का? धर्म, अर्थ, काम तीन पुरुषार्थ हैं । धर्म में पुण्य करना, सुबह उठना, पूजा, भक्ति करना है, अर्थ में धन कमाने के समय अपनी दुकान आफिस आदि का कार्य करना, फल क्या मिले? उस फल में अपना अधिकार न जमाओ । जो भवितव्य में हैं, जो कर्मोदय से प्राप्त होता हो होने दो । कर्तव्य यह है कि जो प्राप्त हुआ है उसमें ही अपना विभाग बना लो । सोचते हैं लोग व्यर्थ में कि मेरा गुजारा इतने में नहीं होता । अरे कदाचित इससे आधा या चौथाई ही होता तो क्या उतने में गुजारा न होता? अवश्य होता । अन्य लोगों को देख लो गुजारा चलता है कि नहीं चलता है । काम का मतलब पालन, सेवा, भोग उपभोग है । मोही पर्यायबुद्धि भी छोड़ना नहीं चाहते, विषय कषाय भोगने की आसक्ति भी दूर नहीं करना चाहते और चाहते हैं कि शांति प्राप्त हो, सो नहीं हो सकता है । कर्तव्य यह है गृहस्थ का कि त्रिवर्ग का समान सेवन करें ।
गृहस्थ का लक्ष्य―गृहस्थों का मुख्य ध्येय धर्म धारण करना है, जिन खटपटों में उनका समय अधिक लगता है उनका ध्यान नहीं हैं । हालांकि गृहस्थ धर्म ऐसा है कि अधिक समय बाहरी कामों में उपार्जन में जाता है पर लक्ष्य उसका उपार्जन है ही नहीं । उसका लक्ष्य तो केवल एक है कि कब कैवल्य अवस्था हो? मैं केवल रह जाऊँ, सहज ज्ञानस्वभावमात्र ही अनुभऊँ । ऐसा ज्ञानस्वरूप हमारी दृष्टि में बसा रहे । ऐसी दृष्टि बिना यह धर्म का अधिकारी नहीं हो पाता है । धर्म कहीं क्रियाकांडों से नहीं मिलता है । क्रियाकांड तो धर्म करने का वातावरण बनाया करते हैं । धर्म तो आत्मस्वभाव जो ज्ञानमात्र है उसका अनुभवन है । पूजा करते हुए में हमें यह अवसर आ सकता है क्योंकि प्रभु के गुणों पर हमारी दृष्टि जा रही है ना । और कैसा ही स्वरूप मेरा है तो ऐसा अवसर आता है कि हम अपने स्वरूप का अनुभव कर सकें । गुरुसत्संग, शास्त्र स्वाध्याय तो ऐसे वातावरण हैं कि जो विषय कषायों से दूर रख कर मुझे एक ज्ञानस्वरूप का स्पर्श करा सकेंगे । इसलिए ये सब बाह्य क्रियाकलाप हमारे धर्मधारण करने के प्रयोजक हैं, पर ये क्रियाकलाप स्वयमेव धर्म नहीं हैं । धर्म तो आत्मा का शुद्ध परिणाम है । भैया ! आत्मस्वभावरूप इस धर्मभाव में स्थित होना यह गृहस्थ का लक्ष्य होता है । यद्यपि गृहस्थ रहता है निम्न पद में पर देखता है उच्चपद को, यह है गृहस्थ का उन्नतिकारक साधन ।
संवरोपयोगी कार्यत्रितय―ज्ञानी पुरुष संवरतत्त्व के लिए पुण्यपाप रूप दोनों योगों को रोकता है और शुद्ध ज्ञानस्वरूप में स्थित होता है । और अन्य द्रव्यों की इच्छा से विरक्त होता है । भैया ! तीन चीजें यहाँ कही गई हैं, सर्वप्रथम पुण्य-पाप योगों से उपेक्षा करना, द्वितीय बात अपने दर्शन ज्ञानस्वरूप में स्थित होना और तीसरी बात समस्त इच्छा विकल्पों को दूर करना । ये सब बातें हैं, वैसे तीनों बातें एक हैं एक ही आत्मा में, यों तीनों बातें स्वयं आ जाती हैं ज्ञानानंद स्वभावमात्र आत्मतत्त्व की दृष्टि से । इस प्रकार यह जीव शुभ अशुभ योगों से दूर हुआ इससे दर्शन ज्ञान में स्थित होता है । इससे रागद्वेष मोह संतान रुकते हैं, नवीन कर्मों का आस्रव रुकता है, अपना ही पथ विशद होता है ।
दृष्टि का प्रताप―जो जीव शुभ अशुभ योग में प्रवर्तमान अपने आत्मा को दृढ़तर भेदविज्ञान के द्वारा आत्मा में ही ठहराता है और शुद्ध ज्ञानदर्शनात्मक निज आत्मद्रव्य में ही प्रतिष्ठित करता है तथा परद्रव्यों की इच्छा को त्यागकर समस्त परिग्रहों से विमुक्त होता है, सो अत्यंत निष्प्रकंप होता हुआ रंच भी कर्म और नोकर्म को न छूकर आत्मा का ध्यान करता हुआ एक निज एकत्वस्वरूप को चेतता है, वह शीघ्र ही सकलकर्म विमुक्त होता हुआ आत्मा को प्राप्त कर लेता है । किसी चीज को पाने का उपाय केवल दृष्टि है । आत्मा के हाथ पैर नहीं, किसी पदार्थ को छू सकता नहीं, यह तो केवलज्ञान दर्शनात्मक है और ज्ञानदर्शन की परिणति करता है । वह दृष्टि से ही छूता है, तो जिसकी दृष्टि सहज शुद्ध ज्ञानमात्र स्वरूप पर है उसने शुद्ध आत्मा को पाया और जिसकी दृष्टि औपाधिक विकाररूप अपने को मानने की है उसने अशुद्ध आत्मा को पाया । अशुद्ध आत्मा के पाने में ये शुभ अशुभ योग आया करते है जो कि रागद्वेषमोह मूलक हैं । किसी पदार्थ संबंधी रागद्वेष या मोह हो गया तो शुभ या अशुभ योग ही तो हुआ करता है । ऐसे शुभ अशुभ योग में वर्तमान आत्मा को अथवा योगों से हटकर अपने आत्मा को रोकना यह ही संवर का उपाय है ।
विजय का कारण उपेक्षा―एक कहावत में कहते हैं कि “बड़ी मार करतार की दिल से दिया उतार ।” घर में 10 आदमी रहते हैं । उनमें एक भाई प्रमुख है जो सबकी व्यवस्था करता है, वह अकृपा करे तो सब लोगों की उपेक्षा कर देता है । जिसकी उपेक्षा की जाती है वह यह सोचता है कि इससे तो भला यह था कि मार लेता, पीट लेता, गाली दे देता पर यह उपेक्षा की जाना असह्य है । बरबादी का प्रबल कारण उपेक्षा है । रागद्वेष या कर्मादिक इनका विनाश उपेक्षा से होता है । इनकी उपेक्षा कर दें, ये अपने आप मिट जायेंगे । उपेक्षा कब होगी जब परम आनंदमय अत्यंत विविक्त चैतन्य चमत्कार मात्र आत्मस्वरूपदृष्टि में हो । जिस बच्चे को खेलने की आदत है उसको खिलौना दे दो तो वह अपने खिलौने को खेलता रहेगा । आप उसे खिलौना न दोगे तो दूसरे के खिलौने पर ललचायेगा, रोवेगा । मुझे तो खिलौना चाहिए । इसी प्रकार इस जीव को रमण करने की आदत है, चारित्रगुण है इसमें, तो कहीं न कहीं रमेगा । यदि परम आनंदमय निज स्वरूप इसके उपयोग में रहे तो वह अपने उपयोग में खेलेगा और अपने आपके शुद्ध स्वरूप का पता न हो? तो बाहरीपदार्थों में खेलेगा । इन्हीं बाहरी पदार्थों को कहते हैं विषय, विषयों में लगेगा । तो यहाँ यह ज्ञानी जीव चैतन्य चमत्कारमात्र आत्मा को उपयोग में लेता है । तो ऐसा शुद्ध, पर से विविक्त ज्ञानदर्शनात्मक आत्मद्रव्य को प्राप्त करता हुआ समस्त परद्रव्यमयता को अतिक्रांत करके अपने को किसी भी अन्य भावमय न मान करके सकल कर्मो से रहित रागद्वेष विकारों से रहित, ज्ञप्ति परिवर्तन क्रिया से रहित आत्मा को प्राप्त कर लेता है, यही कर्मों के संवर का उपाय है ।
इस प्रकरण में पूज्य श्री अमृतचंद्रजी सूरि एक कलश में कहते हैं:―
कलश
निजमहिमरतानां भेदविज्ञानशक्त्या भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वोपलंभ: ।
अचलितमखिलान्याद्रव्यदूरेस्थितानां भवति सति च तस्मिन्नक्षय: कर्ममोक्ष: ।।
अक्षय कर्ममोक्ष के अधिकारी―जो अपनी महिमा में रत है, अपने सहज ज्ञानज्योतिर्मय स्वरूप का परिचय लेने से अगाध, गंभीर, शुद्ध प्रकाश में रत है, इस जीव के भेदविज्ञान के बल के द्वारा शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि नियम से होती है । और इस ही कारण समस्त अन्य द्रव्यों से दूर अचलित स्थित भव्यों के अक्षय कर्मों का मोक्ष होता है । ऐसा मोक्ष होता है कि उस मोक्ष का फिर कभी क्षय नहीं होता है । स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को छुट्टी प्यारी होती है । छुट्टी तो हो गई चार बजे, मगर उस छुट्टी का क्षय हो जायेगा, यह उनको दुःख है । फिर दूसरा दिन आयेगा 10 बजे, फिर स्कूल जाना पड़ेगा । तो बच्चों की छुट्टी का तो क्षय है, किंतु सिद्धभगवान को जो छुट्टी मिल गई उसका क्षय नहीं है । उन्हें छुट्टी मिली है तो अनंतकाल के लिए मिली है । वे छूट गए ।
भैया ! सिद्ध देवों के भी हमारी जैसी संसारावस्था थी, तब झगड़े रहते थे, परेशानी रहती थी उन भावों की आत्मीयता की कल्पना में । परेशानी करने वाला कोई दूसरा नहीं था । कोई दूसरा द्रव्य तो आत्मा को छूता भी नही हैं और, और जिन परद्रव्यों का निमित्तनैमित्तिक संबंध है, एक क्षेत्रावगाह है वे द्रव्य अब भी स्वयं नहीं छू रहे, किंतु ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि जिस जीव ने रागादिक विकार परिणाम किया उस जीव के एक क्षेत्र में अनंत कार्माण वर्गणाएं बद्ध और स्पृष्ट रहती हैं और नवीन भी बँध जाती हैं । बँध रही इस हालत में भी, आत्मा के स्वरूप को छुआ नहीं है, निमित्तनैमित्तिक बंधन जरूर है । जब उन्हें छुट्टी नहीं मिली थी सिद्ध भगवंतों को तब क्या हालत थी? पीड़ित थे, परेशान थे, विकारों को अपनाते थे । जन्म किया, मरण किया, किस-किस गति में भ्रमण किया करते थे, कैसे-कैसे कष्ट सहे । उन सब कष्टों से सिद्ध भगवंतों को छुट्टी मिल गई । उनके अक्षय कर्ममोक्ष हुआ है । तो जो अपनी महिमा में रत हैं ऐसे पुरुषों को शुद्ध आत्मतत्त्व को उपलब्धि होती है ।
सामान्य उपयोग की महिमा―सामान्य व्यापक चीज है, विशेष व्याप्य चीज है, अपने आपके सहज ज्ञानस्वभाव का जब उपयोग होता है तो यह भरा और असीम हो जाता है, और जहाँ अपनी महिमा से च्युत हुआ और किन्हीं बाहरी पदार्थों में उपयोग दिया तो यही संकुचित हो जाता है । जैसे फूल खिल जाये और रात्रि आये तो वह मुंद जाये । दिन आये तो फिर खिल जाये । इसी प्रकार यह उपयोग अथवा आत्मा जब शुद्ध सामान्यतत्त्व का उपयोग करता है उस काल में यह खिल जाता है, व्यापक हो जाता है, अत्यंत आनंदमय हो जाता है । और जब अंधेरा छाता है विशेषोपयुक्त हो जाता है, उस शुद्ध सहजस्वरूप के अवलंबन से चिगता है, बाहरी पदार्थों में स्थित होता है तो यह बुझ जाता है, संकुचित हो जाता है । इस संकुचितपने की हालत में यह जीव दु:खी रहता है, और खिले हुए की हालत में असीम व्यापक सामान्यरूप होने की हालत में यह आनंदमय रहता है । इस प्रकार संवर के प्रकरण में यहाँ ज्ञानी संतों की महिमा गाई जा रही है कि वे अपनी महिमा में रहते हैं, इस कारण उन्हें शुद्धतत्त्व की प्राप्ति होती है और समस्त परद्रव्यों से दूर स्थित होने के कारण कर्मों का अविनाशी मोक्ष होता है । अब प्रश्न किया जा रहा है कि यह संवर किस क्रम से होता है? इसके उत्तर में कहते हैं:―