वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 297
From जैनकोष
पण्णाए घेतव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो ।
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेत्ति णायव्वा ।।297।।
आत्मग्रहण―इस प्रज्ञा के द्वारा ऐसा ग्रहण करना चाहिए कि जो यह चेतयिता है सो मैं निश्चय से आत्मा हूँ और इस चैतन्यभाव के अतिरिक्त अन्य जितने भी भाव हैं वे मुझसे पर हैं ऐसा जानना चाहिए । आत्मा को ग्रहण करना आत्मा को मानने के द्वारा होता है । यह हाथ पैर के द्वारा ग्रहण में तो आता नहीं । जान लिया जिस रूप से उस रूप से अपने को ग्रहण किया । जो लोग अपने को धनिक, परिवार वाला, पढ़े लिखे, इंसान आदिक रूप मानते हैं वे उसीरूप में अपना ग्रहण करते हैं । किंतु जिसरूप से ग्रहण कर रहे हैं वे वह स्वरूप आत्मा का नहीं है, इसलिए उस ग्रहण को आत्मा का ग्रहण नहीं कहते हैं । आत्मा का सहज स्वभाव क्या है, अर्थात किसी परद्रव्य के सन्निधान बिना अपने आप आत्मा का स्वभाव क्या है ? वह चैतन्यस्वभाव है । उसका ग्रहण स्वयं तैयार हो तो सकता है, निर्विकल्प वृत्ति में आए तो ग्रहण हो सकता है ।
आत्मग्रहण का बाधक विकल्प―जो चेतयिता है वह मैं हूँ । जो चेतना प्रकाशमात्र है वह मैं हूँ ऐसा प्रत्यय स्व की निर्विकल्प चिद्वृत्ति के पुरुषार्थ बिना नहीं हो सकता । मोटी बात यह जान लो अपने बारे में कि अपना ख्याल जब तक है तब तक आत्मा को नहीं समझा । ख्याल उर्दू शब्द इसीलिए दिया है । ख्याल और ज्ञान में अंतर है । ख्याल होता है विकल्प लगाकर और ज्ञान होता है जाननस्वभाव के कारण । अपना जब तक ख्याल रहे तब तक जानो कि हमने आत्मा का अनुभव नहीं किया । अपना ख्याल रहता है सबको । चींटी भी चलती-चलती यदि कहीं गरम अथवा प्रतिकूल बात मिल जाये तो उसके मुँह के आगे जो छोटी-छोटी दो मूँछसी लगी रहती है उसका स्पर्श होते ही लौट जाती है । तो उसे भी अपना ख्याल है और इस बुद्धिमान मनुष्य को भी अपने बारे में कुछ ख्याल आता है । जब तक अपना ख्याल है, विकल्प है, तब तक निर्विकल्प ज्ञानप्रकाश का अनुभवन नहीं होता है । यह एक मोटी बात कह रहे हैं जल्दी पहिचानने के लिए कि हम आत्मा के निकट पहुंचे या नहीं ।
शांति जड़ विभूति से असंबंध―भैया ! सबसे महान् पुरुषार्थ है आत्मा का ज्ञान करना । धन वैभव मकान आदि संपदाएं मिलना किस काम के हैं ? न इनसे वर्तमान में शांति है और न आगामी काल में ये शांति के कारण हैं । शांति का संबंध शुद्धज्ञान से है । शांति का हेतु यथार्थ ज्ञान हो, वैभव संपदा शांति का हेतु नहीं है । प्रथम तो वैभव संपदा उदय के अनुकूल है जोड़ते जावो―जोड़ते जावो । उदय की सीमा का उल्लंघन न होगा । सब जानते हैं―अपनी-अपनी उम्र के भीतर जो घटनाएं गुजरी हैं, और उदय अनुकूल होता है तो पता नहीं होता और कही से आ जाता है, किंतु लक्ष्मी आये या जावे―इससे शांति का संबंध नहीं है ।
विचित्र गर्त―इस जीव में आशारूपी गड्ढा इतना विचित्र है कि और गड्ढों में कूड़ा करकट भरते जावो तो वह भर जाता है पर इस आशा का गड्ढा ऐसा विलक्षण है कि इसमें धन वैभव का कूड़ा जितना भरते जावो उतना ही यह चौड़ा होता जाता है । जो इसके मर्म को नहीं जानते उनको बतावें तो कहेंगे कि क्या कोई ऐसा भी गड्ढा है कि जितना भरते जावो उतना ही बड़ा होता जाता है । यह आशा का गड्ढा ऐसा ही विचित्र है । सो जिसमें इतना साहस है कि जैसी भी स्थिति आए जो भी आय हो, क्या परवाह, उसका तो सीधा हिसाब है कि उस आय के भीतर ही अपने 6-7 हिस्से बनाना और दान पुण्य पालन पोषण आदि के लिए जो हिस्सा नियत किया है उसे भी करना व नियत हिस्से में गुजारा करना । तो अपनी नीति के अनुसार यदि यह जीव चलता है तो उसे कहीं आपत्ति नही है ।
स्वकीय प्रगति―भैया ! न शौक किया जाये तो इससे आत्मा का क्या घट जाता है? किंतु यदि ज्ञान का योग न मिला तो आत्मा का सब बिगड़ जाता है । सबसे उत्कृष्ट वैभव है आत्मज्ञान । आत्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ तीन लोक का वैभव भी आ जाये तो उससे इस आत्मा में क्या आता? जिनकी पर की ओर दृष्टि लगी है वे अन्य पुण्य वंतों के चाकर बने हुए है । क्यों न बनना पड़ेगा चाकर, उन दूसरों का पुण्योदय है ना, सो कुछ निमित्त तो बनना ही चाहिए । वहां यह मोही जीव निमित्त बनता है ।
सहज व बनावटी तोष का अंतर―लोक में सर्वत्र केवल दुःख ही दुःख बसा हुआ है । जो सुखी भी है वह भी अपनी कल्पना बसाये हैं । आप लोगों ने अंदाज किया होगा कि सहज शांति उत्पन्न होने से जो तृप्ति होती है, संतोष होता है वह तृप्ति और शांति किसी भी विषय के भोग में नहीं होती है । जब योगी अपने आत्मा का ध्यान करते हैं, स्थिर आसन करके सीधे बैठकर एक चित्त होकर तो उनके कंठ से अमृत झड़ने के साथ-साथ तृप्ति भी होती जाती है । देखो यह प्राकृतिक व्यवस्था बतला रहे हैं कि जब ध्यान स्वच्छ होता है तो कंठ तो वही है मगर उस कंठ से कुछ सहज ही ऐसा गुटका आता है, और कुछ रससा झड़ना है कि वह तृषा को शांत करती हुई तृष्णा को विश्रांत करती हुई आत्मा में एक तृप्ति ला देती है । विषयों के सुख के बीच कभी भी वह रस नहीं झड़ सकता । सुख तो जरूर मानते हैं मगर शांति रस नहीं आ पाता । वे आकुलित होते हैं ।
भ्रांति का संकट―भैया ! बड़ा संकट है जीव पर यह कि वह कुपथ पर चल रहा है और सुपथ मान रहा है । यही है सबसे बड़ा संकट जीव पर । एक गांव के बाहर बढ़ई रहता था तो मुसाफिर लोग उस रास्ते से जाते तो उससे रास्ता पूछते थे, अमुक गांव का रास्ता कहां से गया है? तो गया हो पूरब को और वह बताता था पश्चिम को । और साथ ही यह कह देता था कि इस गांव में मस्खरा लोग बहुत रहते हैं, उनसे तुम रास्ता पूछोगे तो वे उल्टा बतायेंगे, सो तुम उनकी एक न मानना । अब तो इस मुसाफिर पर बड़े संकट छा गए । गांव में पूछता है लोगों से तो वे पूरब की ओर बताते हैं । यह सोचता है कि सचमुच इस गांव के लोग बड़े मस्खरा है । ये सीधी रास्ता ही नहीं बताते, उल्टा ही रास्ता बताते हैं । तो जिसको उल्टा रास्ता सीधा जंच रहा हो, सीधा रास्ता उल्टा जंच रहा हो उसके बराबर क्या दुनिया में कोई संकट में है? नहीं है । घर में परिवारजनों से हिलना मिलना, प्रेम वचनालाप कर मन का बहलावा करना, इनसे यह जीव मानता है कि मैं बहुत सुखी हूँ । इस परिणाम में रहने वाला मनुष्य पीछे जब फल भोगता है तब उसे याद होता है कि अहो मैं बड़े ही धोखे में था ।
संसार क्लेश का उपनाम―अच्छा बतावो कैसा ही अधिक कोई आपका प्रियतम हो, उसका वियोग होगा या नहीं ? यह निर्णय कर लो । अवश्य वियोग होगा । तो जो संयोग में अधिक अनुराग करते हैं उन्हें वियोग में कितना क्लेश करना पड़ता होगा ? अनुपात लगा लो सब बातें एक सी पड़ जाती हैं । चाहे दो दिन डटकर हलुवा खा लो और फिर 12 दिन मूँग की दाल रोटी में रहो, हिसाब एक ही पड़ जायेगा । दो दिन में जो आनंद लूटा है वह घट करके 10 दिन के कष्ट में बराबर मामला रह जायेगा । भविष्य का खतरा और सिर पर रख लिया । संसार के यदि सुखों में आसक्त होकर सुख मानते हो तो उससे कितने ही कष्ट भोगने होंगे ।
भली विधि से जानन―जिसका आत्मा सावधान है, विवेक जागृत है, पर को पर जानता है, स्वयं के स्वरूप को स्वयं आत्मरूप जानता है वह पुरुष मोह को प्राप्त नहीं होता । जो कुछ हो जाये वही भला । जो होने को होता है सो होता है । जो होता है वह सब भले के लिए ही है । पापी लोग पाप करते हैं, पाप के फल में नरक जाना पड़ता है । क्या नरक जाना भी भला है ? हां नरक भी भला है । उन दु:खों को भोगकर यह आत्मा भाररहित हो जायेगा । जो होता है उसमें ऐसा ज्ञान जगावो कि आपको आप अपना और पर पराया दिखे, तो उसमें कुछ अनाकुलता मिलेगी और चाहे कुछ अनुकूल भी हो और ऐसा ज्ञान बनाया जाये कि जिससे विकल्प बढ़े, तो उससे कुछ हित नहीं है ।
भलापन का निष्कर्ष निकालते हुए जानन पर एक दृष्टांत―एक बार बादशाह और मंत्री जंगल में जा रहे थे । मंत्री की आदत थी कि प्रत्येक बात में वह यह कह देता कि यह भी अच्छा है । चलते-चलते गप्पें लग रही थी । बादशाह पूछ बैठा कि ऐ मंत्री मेरे एक हाथ में एक अंगुल नहीं है, मैं अंगहीन हूँ यह कैसा है ? तो मंत्री बोला कि यह भी अच्छा है । बादशाह ने सोचा कि मैं तो अंगहीन हूँ और यह कहता है कि यह भी अच्छा है । सो उसने मंत्री को कुए में ढकेल दिया । राजा आगे बढ़ गया । दूसरे देश का राजा नरमेघयज्ञ कर रहा था । यह किसी हत्यारे जमाने की प्रचलित चीज है कि मनुष्य को भी जलती आग में भून देते थे । उस राजा ने चार पंडे छोड़ दिये थे कि कोई बड़ा सुंदर हष्ट पुष्ट मनुष्य लावो, इस यज्ञ में होमना है । उन पंडों को मिला वही बादशाह जिसने मंत्री को कुवे में ढकेला था । पकड़ कर ले गए । अब उस राजा को एक खूंटे में बँधा दिया । जब मंत्र जपा जायेगा । स्वाहा होगा तब यह मनुष्य होमा जायेगा । तो अभी स्वाहा में 10-12 मिनट की देर थी एकाएक ही एक आदमी को दिख गया कि इसके एक अंगुली नहीं है, कहा―अरे यह आदमी होमने के लायक नहीं है । इससे तो यज्ञ बिगड़ जायेगा । सो पंडों ने दो चार डंडे जमाए और भगा दिया । हट, तू हमारी इस यज्ञ में होमने के योग्य नहीं है । वह बड़ा प्रसन्न होता हुआ चला आ रहा था । सोचा कि मंत्री ने ठीक कहा था कि तू अंगुलीहीन है, यह भी अच्छा है । यदि मेरी पूरी अंगुलि होती तो आज मेरे प्राण न बचते । खुश होता हुआ बादशाह आया, मंत्री को कुए से निकाला, और उसे गले से लगाया । बादशाह ने कहा मंत्री से कि तुम सच कहते थे―किस्सा सुनाया । यदि मैं अंगहीन न होता तो बच न सकता था । पर यह तो बतलावो मंत्री कि तुम्हें जो मैने कुवें में ढकेल दिया सो कैसा हुआ? मंत्रि ने कहा यह भी अच्छा हुआ । तुम तो अंगुलीहीन बच जाते और मैं होम में होम दिया जाता । तो यह भी अच्छा हुआ ।
ज्ञानविधि पर सुख दुःख की निर्भरता―सो भाई सब चीजें सामने हैं । उन चीजों को देखते हुए में तुम सुखी भी हो सकते हो, दु:खी भी हो सकते हो । उन वस्तुवों के विषय में ज्ञान की कला तुम जैसी खेल जावो तैसा ही सुख और दुःख तुम्हारे हाथ है । कौन सी घटना ऐसी है जिसमें आपको दु:खी होना पड़े ? कोई ऐसी घटना नहीं है । अपना ज्ञान औंधा, सीधा, उल्टा चला करता हो तो उसी से दु:ख है । अन्यथा कोई घटना ऐसी नहीं है कि जिसमें दुःखी होना ही पड़े । एक भी नहीं है । आप कहेंगे―वाह इतनी बड़ी जमींदारी छीन ली यह क्या कम घटना है? अरे यह कुछ नहीं है । तुम अपना ज्ञान सीधा बना लो―दुःख मिट जायेगा, और अगर उल्टा ज्ञान बनाया कि हमारी इतनी जायदाद थी और ऐसी रईसी में रहते थे, लोग मुझे ऐसा सिर नवाते थे, आज क्या हाल हो गया । ज्ञानक कला ही तो उल्टा खेली लो दुःख हो गया । अरे ज्ञान की सीधी कला यों क्यों न खेल जावो कि दुनिया में तेरे लिए कहीं कुछ नहीं है । तू अपने आपमें अकेला ज्ञानानंदनिधान प्रभु की तरह अकेला है । बड़े-बड़े राजा महाराजावों ने सब कुछ त्यागा, प्रभुता पायी, तब भगवान हुए, मुक्त हुए ।
ज्ञानकलिका―भैया ! ये सब कुछ समागम है अंततोगत्वा छोड़ने के लिए, ऐसा जानकर किसी क्षण तो सहज चित्प्रकाश की झलक आए साधुवों की तरह । बात यह है कि साधुवों को ऐसी झलक निरंतर आनी चाहिए, किंतु गृहस्थों को आत्मतत्त्व के स्पर्श करने वाली झलक रात दिन में यदि पाव सेकेंड को भी कदाचित् हो जाये तो शेष समय में कर्म विपाकवश पर में लगना भी पड़ता है तो भी अनाकुलता अंतर में रहती है । दूसरी बात यह है कि हम यथार्थ ज्ञान कर लें ज्ञान को तो कोई नहीं रोक सकता । चाहे गृहस्थ हो, चाहे साधु हो―ज्ञान तो आत्मा की वस्तु है । यथार्थज्ञान गृहस्थ को भी होता है, और गृहस्थ यथार्थ ज्ञान के बल से यदि निर्मोह अवस्था को धारण करता तो वहां ऐसा नहीं है कि वैभव सब उससे हट जाता है, वैभव का अन्वयव्यतिरेक पुण्योदय के साथ है । वर्तमान परिणाम के साथ नहीं है ।
परिणामों की उत्कृष्टता का प्रभाव―भैया ! कोई ऐसा समझते हैं कि जब दुकानदार लोग ग्राहकों को तिगुने दाम बताते हैं तब सही दाम पर ठिकाने से सौदा पटता है । यही हाल है लोक का ? जिस स्थिति में हैं उस स्थिति की ही दृष्टि रखें तो आत्मा में उस स्थिति के साधक भी योग्य परिणाम नहीं हो सकते । गृहस्थजन अपनी वर्तमान गृहस्थी के योग्य निर्मलता की रक्षा करने में तब समर्थ है जब ज्ञान की उत्कृष्टता की वृत्ति कभी-कभी जगती रहे । सो लोकव्यवहार तो पुण्योदय के अनुकूल है किंतु आत्महित आत्मा की सावधानी में है सो उत्कृष्ट ज्ञान व संयम की दृष्टि रखो ।
आत्मग्रहण उपाय निजभावना―यहां यह बात बतायी जा रही है कि हम आत्मा का ग्रहण कैसे कर सकते हैं । जिस प्रज्ञा के द्वारा हमने आत्मा से, रागादिक भावों को अलग किया उसी प्रज्ञा के द्वारा हम ऐसी भावना बनाए कि जो चेतने वाला है वह मैं आत्मा हूँ । जो रागादिकभाव है वह मैं आत्मा नहीं हूँ । देखो आप लोगों के घर में इतनी दंदफंद लगी है पर इस समय रागादिक भावों से विविक्त चैतन्यस्वरूप मात्र आत्मतत्त्व की कथनी सुनने में कोई विलक्षण आनंद भी तो जगता होगा । उससे ही यह अंदाज कर लो कि गृहस्थी में रहते हुए भी श्रावक इस योग्य होते हैं कि वे किसी क्षण सर्व को भूलकर निर्विकल्प चित्प्रकाशमात्र आत्मस्वरूप की दृष्टि कर सकते हैं । अत: इस अध्यात्मसाधना के लिए गृहस्थी की अवस्था को पूर्ण बाधक नहीं माना । सो जिस स्थिति में आप हैं उस ही स्थिति में जब तक भी रहना पड़े तब तक दृष्टि आत्मज्ञान की करें, लक्ष्य आत्महित का बनाएँ ।
आत्महित की मुख्यता से नरजन्म की सफलता―भैया ! यह सोचना भूल है कि मैं घर की व्यवस्था करता हूँ तो व्यवस्था बनती है । घर के लोग आपसे भी अधिक पुण्यवान् है, जो बैठे है―शृंगार और आराम साधनों में रहते हैं । उनके पुण्योदय का निमित्त पाकर आपको ये सारे परिश्रम करने पड़ते हैं सो सब कुछ उदयानुसार होता है, पर यह जीवन बड़ी दुर्लभ है । आत्महित की बात को मुख्यता देना है ।
स्व की स्वामी में त्रिकालव्यापकता―ज्ञानी जीव आत्मभावना कर रहे हैं कि जो यह चैतन्यस्वरूप है सो में हूं। बाकी जो मेरे लक्षणरूप नहीं है, अपने लक्षण से लक्ष्य है ऐसे व्यवहार में आने वाले समस्त भाव मुझसे न्यारे हैं क्योंकि जो मुझमें सदा रहे वह मेरा है, जो मुझमें सदा नहीं रह सकता वह मेरा नहीं है। किसी इष्ट के गुजरने के बाद उसके बंधु यही सोचकर तो संतोष करते हैं कि वह मेरा नहीं था और युक्ति यह देते हैं कि मेरा वह होता तो मेरे पास रहता। अब अपने ही प्रदेश में होने वाले भावों के विषय में ऐसा ही निर्णय करो। जो मुझमें सदाकाल व्यापक है अथवा मुझ व्यापक में जो सदा काल व्याप्य है, अर्थात् जो मुझमें सदाकाल रह सकता है वह तो मेरा है और जो सदा नहीं रह सकता वह मुझसे अत्यंत भिन्न है ।
क्रांति की साधना―भैया ! जब दोस्ती तोड़ी जाती है तो मूल से तोड़ी जाती है, थोड़ी लगार रखने में भी भिन्नता नहीं होती है । यद्यपि ये रागादिक विभाव आत्मा के गुण के विभाव परिणमन है जिस काल में है उस काल में मुझमें तन्मय है, तिस पर भी जब लक्षणभेद से भेद किया जाता है तो मैं अत्यंत भिन्न हूँ और रागादिक अत्यंत भिन्न है । इस कारण मैं ही मुझको मेरे ही द्वारा, मेरे ही लिए मुझसे ही मुझमें ही ग्रहण करता हूँ ।
परमार्थप्रतिबोध का साधन व्यवहार―वह मैं जो मुझ में सदा काल व्यापक है वह अन्य कुछ नहीं है, वह मैं ही हूँ । समझने के लिए अपने आपको भेदबुद्धि से स्वरूप और स्वरूपी का भेद किया है । मेरा क्या है? मैं हूँ, ऐसा कहने पर दूसरा क्या समझेगा? और कोई तो यह भी कह बैठेगा कि यह पागलपन की जैसी बात है । जैसे पूछा कि इस खंभे का कौन अधिकारी है? इस खंभे का खंभा अधिकारी है । इस चौकी का कौन मालिक है? इस चौकी का चौकी मालिक है । परमाणु का कौन मालिक है? परमाणु का वही परमाणु मालिक है । पर इसका अर्थ क्या निकला ? अर्थ तो कुछ नहीं निकला । पर जो पर के मालिक बने बैठे हुए है उनको समझाने के लिए वस्तु को अद्वैत बताने के लिए उस समय और कोई उपाय नहीं है । इस कारण इन राज्यों में कहना पड़ता है कि परमाणु का मालिक परमाणू है । आत्मा का मालिक आत्मा है । मेरा मैं हूँ । इस रहस्य को समझने क लिए स्वरूप और स्वरूपी का भेद किया जाता है । मेरा तो चैतन्यस्वरूप है, धन वैभव आदि मेरा नहीं है ।
आत्मप्रतिबोध―भैया ! अब अपनी बात देखो, दह चैतन्यस्वरूप तुझसे कोई अलग चीज है क्या ? जिसका तू अपने को मालिक बनाना चाहता है वह अलग कुछ चीज नहीं है पर व्यवहारीजनों को समझाते हैं सो व्यवहारभाषा में समझा रहे हैं । व्यवहार भाषा का यहाँ अर्थ है भेदविज्ञान भाषा । उससे यहाँ भेद करके समझाया है इस ज्ञानी पुरुष ने प्रज्ञा के द्वारा आत्मा में और विभाव में भेद किया और भेद करने के पश्चात् प्रज्ञा के ही द्वारा विभाव को छोड़कर आत्मा को ग्रहण किया । तो यह ज्ञानी अपने आत्मा को किस प्रकार से ग्रहण कर रहा है उसका यहाँ विवरण है । मैं ग्रहण करता हूँ । जैसे बाहर की चीजों में कहते हैं ना कि मैं घड़ी को ग्रहण करता हूँ, इसी तरह मैं आत्मा का ग्रहण करता हूँ तो किस तरह ? मैं अपने को जानता हूँ, यही ग्रहण है ।
मेरी क्रिया का आधार―मैं अपने को कहां जानता हूँ ? मंदिर में जानता हूँ क्या? मंदिर में तो मैं हूं ही नहीं । अभी की ही बात कह रहे हैं । क्या आप मंदिर में बैठे हैं ? जब आप अपने आत्मस्वरूप को जानने का प्रसंग बना रहे हैं, उस स्थिति में आप कहां बैठे हुए है ? आप अपने आत्मा में बैठे हैं, मंदिर मे नहीं बैठे हैं । मंदिर क्षेत्र, आकाश प्रदेश अन्य द्रव्य है, आप चैतन्यस्वरूप आत्मा अन्य द्रव्य है । कोई द्रव्य किसी दूसरे अन्य द्रव्य में प्रवेश कर सकता है क्या ? नहीं कर सकता है । किंतु जरा दृष्टि बाहर में डालें तो देखते हैं कि मंदिर में ही तो बैठे है । आखें खोलकर देखें तो ऐसा लग रहा कि हम मंदिर में अच्छी तरह बैठे हैं और जब दृष्टि अपने अंत:स्वरूप में लगायें तो यह लगता कि यह मैं अपने में ही पड़ा हूं, मैं अपने को ग्रहण कर रहा हूँ । अपने में ग्रहण कर रहा हूँ, याने अपने आपमें अपने ज्ञान गुण के परिणमन द्वारा अपने आपको प्रतिभास रहा हूँ ।
आत्मक्रिया का साधन और संप्रदान―ऐसा मैं किसके द्वारा जान रहा हूं? अपने ही द्वारा । परमार्थत: न इसमें गुरु साधन है, न प्रभु साधन है, न दीपक साधन है, न शास्त्र साधन है, न वचन साधन है । अपने आपको जानने का साधन मैं ही हूँ । तो अपने द्वारा जान रहा हूं । किस लिए जान रहा हूँ ? दूसरे के पालन के लिए नहीं कुछ बाहर में संचय करने के लिए नहीं, अपने आपके जानन के लिए जान रहा हूँ । जानन के आनंद के लिए जान रहा हूँ । कभी कोई नई चीज देखी जा रही हो तो आसपास के छोटे बच्चे भी घुटने टेककर, हाथ टेककर पास बैठे हुए के कंधे पर हाथ धरकर सिर को झुकाकर देखते हैं, जानते हैं । वे क्यों जानते हैं ? उन्हें कुछ मिलता नहीं है । केवल जानने के लिए ही जानते हैं, उन्हें कुछ मतलब ही नहीं है । जानता हूँ, अपने लिए जानता हूँ, जानन ही प्रयोजन है ।
आत्मक्रिया का अपादान―यह जो मैं जान रहा हूँ सो जानन तो ऐसा हो रहा है किंतु बाद में वह जानन मिट गया । अब अगले समय में दूसरा जानना हो गया । जिस पेड़ के पत्ते सूख कर झड़ गए फिर नये पत्ते हो गए, इसी तरह यह जानन परिणमन होकर मिट गया, तुरंत ही नवीन जानन परिणमन हो गया, पर यह किससे निकलकर मिटा ? यह जानन परिणमना मुझसे ही निकला और मिटा, फिर और जानन हुआ सो मैं इस जानते हुए से जानता हूँ ।
ज्ञानस्वरूप के ज्ञान के ज्ञानपना―इस तरह यह ज्ञानी जीव विभाव से अपने को जुदा करके जान रहा है । यह है ज्ञान और बाकी चीज है अज्ञान । जो ज्ञान-ज्ञान को जाने परमार्थज्ञान वही है । जो ज्ञान अज्ञानभाव को जाने वह ज्ञान अज्ञान को जानने से अज्ञान है ।
चेतन की मात्र एक क्रिया चेतना―इस तरह यह मैं आत्मा को ग्रहणकर रहा है । तो ग्रहण क्या कर रहा हूँ ? मैं चेत रहा हूँ अपने आपको । क्योंकि मेरी क्रिया सिवाय चेतने के और कुछ नहीं है । हम दूसरों पर गुस्सा करेंगे तो क्या कर डालेंगे दूसरों का ? कुछ नहीं । उस समय भी हम अपने को चेत रहे हैं पर पर्याय रूप से चेत रहे हैं । हम कुछ भी कर रहे हों, खोटा परिणमन या भला परिणमन या शुद्ध परिणमन, सर्वत्र हम अपने को ही चेतते हैं । और कुछ नहीं करते हैं । तो चेतना ही मेरी क्रिया है । सो मैं अपने को चेतता हूँ । यही ग्रहण करने का भाव है । और यह मैं अपने को चेत रहा हूँ, सो जिसे मैं चेत रहा हूं वह मैं दूसरा नहीं हूँ ।
चेतना सामान्यक्रिया―चेतता हुआ ही मैं चेत रहा हूँ और चेतते हुए के द्वारा मैं चेत रहा हूँ, चेत रहे के लिए मैं चेत रहा हूं और चेत रहे में चेत रहा हूँ । चेत रहा हूं का अर्थ है प्रतिभास रहा हूँ । चेतना के दो-दो परिणमन है जानन और देखन । जानन में भी चेत है और देखन में भी चेत है । यहाँ दोनों को न बनाकर जो दोनों में एक बात घटी ऐसा सामान्य गुण की दृष्टि से वर्णन है और मैं कहा चेत रहा हूँ ? इस चेतते हुए में चेत रहा हूं ।
भेदाभ्यासियों के लिये कारकव्यवहार―भैया ! यह एक है और परिणम रहा है । किंतु यहाँ ऐसे जनों को समझता है जो अपने व्यवहार में भिन्नभिन्न बातें मानते थे । जैसे मैं मंदिर में कलम के द्वारा स्याही से इस पुस्तक को तुम्हारे समझाने के लिए लिख रहा हूँ । ऐसी ही भेदबुद्धि की बातें कल्पना लगी हुई है, वहाँ पर भी न मैं लिख रहा हूँ, न मंदिर में लिख रहा हूं, न समझाने के लिए लिख रहा हूँ, किंतु यहाँ भी मैं चेत रहा हूँ । जिसरूप को चेत रहा हूँ उस रूप चेत रहा हूं । जब अपने नियत काम से अन्य कामों में वृत्ति होती है तब क्षोभ होता है । यह मैं तो इस अभिन्न षट्कारक में अपने आपको ग्रहण कर रहा हूँ । वहाँं क्षोभ का निशान भी नही है ।
अखंडभाव में पहुंच―देखिये पहिले भी ग्रहण की बात, फिर आई चेतने की बात और अभिन्न षट्कारक में चेतने की बात । यहाँ किसी परिचित की यों बुद्धि होती होगी कि क्या फिजूल कहा जा रहा है ? वह तो है और यों बर्त रहा है । इतना ही मात्र तो वहाँ तत्त्व है और घुमा फिर, कर कर्ता करण आदि बातें करके कितनी बातें क्यों व्यय बोली जाती है तब उससे उत्कृष्ट बात अब यह समझ में आयी कि अब मैं न चेत रहा हूँ, न चेतता हुआ चेत रहा हूँ, न चेतते हुए के द्वारा चेत रहा हूं । न चेतते हुए के लिए चेत रहा हूँ, न चेत रहे में चेत रहा हूँ, न चेत रहे से चेत रहा हूँ, न चेतते हुए को चेत रहा हूँ किंतु मैं तो सर्व विशुद्ध चैतन्यमात्र भाव हूँ । मैं कर कुछ नहीं रहा । मैं तो एक चिन्मात्रभाव स्वरूप पदार्थ हूँ, यही आत्मा का परमार्थ ग्रहण है ।
अभिन्नषट्कारकता पर सर्प का दृष्टांत―एक दृष्टांत लो मोटा, एक सांप गुड़ेरी करके बैठ गया । सांप लंबा होता है ना । अपने शरीर को गोल बनाकर बैठ गया । हम आपसे पूछें कि सांप ने क्या किया? अपने को गोल किया । तो उसने अपने को गोल किसके द्वारा किया अपने ही द्वारा किया । जैसे हम यहाँ रस्सी को गोल कर देते हैं लाठी वगैरह से, क्या इसी प्रकार सांप ने अपने को किसी दूसरी चीज के द्वारा गोल किया ? अपने ही द्वारा गोल किया । अरे तो ऐसा गोल किस लिए किया ? हमारे लिए किया, या किसी को खेल दिखाने के लिये किया ? अपने लिए किया । तो उसने गोल किसमें किया ? अपने में किया और ऐसा गोल किस अपादान से किया ? अरे उसका शरीर लंबासा पड़ा था, उस शरीर से ही एक गोल परिणमन बना दिया । तो क्या बोलेंगे ? सांप ने अपने को अपने द्वारा अपने लिए अपने से अपने में गोल कर दिया । यह बात जरा जल्दी समझ में आ रही है क्योंकि हम आंखों देखते हैं । पर इसका अर्थ है क्या ? कोई इस वृत्ति को देख रहा हो तो वह पुरुष कहेगा कि क्या किया उसने ? वह है और यों हो गया । इतनी ही तो वहां बात है । क्यों इसको बड़ी भाषावों में बढ़ा-बढ़ाकर बोल रहे हैं ?
अद्वैतचेतन―इसी तरह आत्मा ने अपने को अपने में अपने लिए अपने से अपने द्वारा अपने में प्रतिभासा, पर ऐसा वहाँ कुछ भेद नहीं पड़ा है और प्रतिभास हो गया । तो वह प्रतिभास होना भी प्रतिभास रूप भाव है । इसलिए अब और उसके स्वरूप में प्रवेश करके कहा जा रहा है कि मैं न चेतता हूं, न प्रतिभासता हूं, प्रतिभासते को नहीं प्रतिभासता हूं, प्रतिभासते के द्वारा नहीं प्रतिभासता, प्रतिभासते के लिए नहीं प्रतिभासता, प्रतिभासते में नहीं प्रतिभासता, प्रतिभासते से नहीं प्रतिभासता किंतु प्रतिभास स्वरूप हूँ, चैतन्यमात्र भाव वाला हूं । इस तरह यह ज्ञानी पुरुष धर्मपालन कर रहा है, यही है उत्कृष्ट धर्म का पालन । जहां केवल अद्वैत निज ब्रह्मस्वरूप के प्रतिभास में आ रहा हो इससे और ऊँचा क्या पुरुषार्थ होगा ?
हिंसादित्याग में परमार्थ अहिंसा का प्रयोजन―उस अद्वैत आत्मप्रतिभास की स्थिति के पाने के लिए ही ये समस्त व्रत समिति, तप, चारित्र, अभक्ष का त्याग ये सब पालन किये जाते हैं । करना पड़ता ही है । जिसने जीव के स्वरूप को जाना वह अभक्ष्य कैसे खायेगा ? उसके मन में यह न आयेगा कि इसमें असंख्याते कोई त्रस जीव है और उनके ऐसे अपघात से मरण हो जायेगा तो इससे भी नीची गति में वह पहुंच जायेगा और मोक्षमार्ग से दूर हो जायेगा । यह जीव निगोद जैसी निम्न स्थिति से उठकर दो इंद्रिय तीन इंद्रिय जैसी ऊँची स्थिति में आ गया तो वह यद्यपि मनहीन है तो भी मोक्षमार्ग के विकास के लिए एक कुछ विकास में न आया । कुछ अच्छी स्थिति में तो आए और उन कीड़ों को दांतों से चबाकर मार दे तो वह संक्लेश से मरेगा कि न मरेगा ? तो मोक्षमार्ग से और नीचे गिरा कि नहीं । यद्यपि कोई तीन इंद्रिय की अवस्था मोक्ष मार्ग नहीं है, मगर व्यंजन पर्यायों के विकास में जो विकास की स्थिति है उसको तो गिरा दिया ।
ज्ञानियों की अनुपम करुणा―ज्ञानी जीव को बस यह करुणा उत्पन्न होती है कि यह जीव मोक्षमार्ग में लगे, मोक्षमार्ग से गिरे नहीं, उलट न जाये, ऐसी होती है ज्ञानी संतों की अपार करुणा । जो जिस शैली का है उसको उस शैली की दया होती है । दीन दु:खी दरिद्र भूखे बालक पर जितनी जल्दी दया महिलावों को जिस रूप में आ सकती है उस रूप में दया शायद पुरुषों को नहीं आती है क्यों कि महिलावों का उस विषय से संबंध है । कोई पुरुष अर्थ के संबंध में कुछ फंस गया हो, रकम डूब रही हो, इससे जो विकल हो रहा हो, उसकी बेचैनी को जितना पुरुष लोग अंदाज में ले सकते हैं उतना शायद महिलायें नहीं ले सकती है । सो जिसकी जैसी जो स्थिति है, संबंध है उस तरह की दया होती है, ज्ञानी जनों को, साधुजनों को, जीवों को, ज्ञान देने के लिए, ज्ञानी देखने के लिए करुणा उत्पन्न होती है क्योंकि यह अपने आपमें चिन्मात्र भाव का अनुभव करते हैं । सो अन्य पर भी दया करते हैं कि अपने आनंद अवस्था का अनुभव करो ।
आत्मग्रहण की प्रक्रिया―आत्मा को कैसे ग्रहण करना चाहिए, इस उपाय में प्रथम तो प्रज्ञा द्वारा विभाव और स्वभाव में भेद किया, जो हो फिर मिट जाये यह विभाव है और जो अनादि अनंत अहेतुक सनातन तादात्म्यरूप हो वह स्वभाव है । ऐसा भेद करने के पश्चात् विभाव को तो यदि आत्मस्वरूप से न माना और चैतन्यस्वभाव को आत्मतत्त्व माना, यही हुआ आत्मा का ग्रहण । इस ग्रहण में यह आत्मा अपने आपमें इस प्रकार अनुभव करता है कि जिसको शब्दों द्वारा बांधा जाये तो यों कहा जाता है कि यह मैं अपने आपमें चेतते हुए अपने आपको चेतता हूँ ।
अभेद और अखंड अभेद―ज्ञान दर्शन सामान्यात्मक जो प्रतिभासस्वरूप है उसका क्रियामुखेन यह वर्णन है । मैं चेतते हुए को चेतता हूं, चेतते हुए के द्वारा चेतता हूं । चीज तो वहाँ एक ही हो रही है । उसको भेद षट्कारक के अभ्यासियों को षट्कारक द्वारा समझाया जा रहा है । मैं चेतते हुए के लिए चेतता हूँ, चेतते हुए से चेतता हूं और इस चेतनमान में ही चेतना हूँ । किंतु ऐसा कुछ भेदरूप है क्या ? यह है और मात्र चेत रहा है । तब इस उपाय से और अंतर्मुख वृत्ति होने में अंतर्मुखी वृत्ति को यों शब्दों में आंका जाता है कि न मैं चेतता हूं, न मैं चेतने वाले को चेतता हूं, न चेतते हुए के द्वारा चेतता है, न चेतते हुए के लिए चेतता हूं, न चेतते हुए से चेतता हूँ, ओर न चेतनमान से चेतता हूं, किंतु सर्व विशुद्ध चैतन्यमात्र हूं । इस बात को सांप के दृष्टांत द्वारा स्पष्ट किया गया था ।
अभेद और भेद परिज्ञान का आंदोलन―अब इसके उपसंहार में यहाँ यह कह रहे हैं कि जो विधिपूर्वक भेदे जाने में शक्य है उन-उन चीजों से तत्त्व से भेद कर दो और फिर वहां से भिन्न करके अपने आपमें ऐसा अनुभव करें कि चैतन्य मुद्रा से अंकित है अपने संबंध की महिमा जिसमें ऐसा शुद्ध चैतन्यमात्र मैं हूँ, यह ही प्रतिभास हो । यहाँ तक विभावों से निवृत्ति करके अपने आपके स्वरूप में आना हुआ है । अब जिस उपयोग में बड़ी सावधानी बर्ती जाने पर भी सीमा के अंतर तक कुछ चढ़ा घटी होती ही रहती है । सो यद्यपि यह शुद्ध चैतन्य चैतन्यमात्र स्वरूप तक आया लेकिन इस अभेद के बाद फिर भेद से उत्थान होता है । इस संबंध में यदि कारण के द्वारा भेद होता है अथवा गुणों के द्वारा भेद होता है, अथवा धर्मों के द्वारा भेद होता है तो भेद होना भी सब अभेद के पोषण के लिए है । पर इस चिन्मात्र आत्मतत्त्व में परमार्थतः कोई भेद नहीं है ।
भेदप्रतिषेध के लिये भेदव्यवहार―गुण भेद, धर्म भेद और कारकभेद क्या है? धर्म भेद तो यह है कि अपना आत्मा अपने स्वरूप से है और समस्त पररूप से नहीं है । यह धर्मभेद का उदाहरण है ऐसा, पर ऐसी बात श्रुतज्ञान के विकल्पों में है, वस्तु तो जैसी है वही है । गुणभेद इस आत्मा में ज्ञान है, दर्शन है, शील है, आनंद है । यों गुणों का निरूपण करना यह सब गुणभेद है । यह ज्ञानादिभेद भी इस अभेद चैतन्यस्वरूप के प्रतिबोध के लिए है । कारकभेद हुआ यह मैं आत्मा करता हूं, क्या करता हूं? अपना परिणमन करता हूँ । वह परिणमन है जाननस्वरूप । मैं जानता हूँ । बस हो गया कर्म, आगे विकल्प ये उत्पन्न होते हो । कैसा जानता है ? किसको जानता है, काहे के लिए जानता है, किसके द्वारा जानता है, इन सब विकल्पों के समाधान के लिए इस ही अभेद वस्तु में षट्कारकपने का भेद बताया गया है ।
कारकादिभेद से भी वस्तु के अभेद का अविनाश―सो―इस प्रकार का कारकभेद, धर्मभेद और गुणभेद किया जाता है और वस्तु को भिन्न-भिन्न किया जाता है तो किया जाये पर इस तरह इस भाव में इस व्यापक भाव में, इस विशुद्ध चैतन्य स्वरूप में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है । यही अध्यात्मयोगी का लक्ष्य है । जिसको पूर्णसत् मानकर ब्रह्मवाद प्रसिभासाद्वैतवाद ज्ञानाद्वैतवाद आदि अद्वैतवाद उत्पन्न हुए है । प्रत्येक वस्तु अद्वैत है । वस्तु यदि स्वरूप से अद्वैत नहीं होती तो वस्तु का सत्त्व नहीं रह सकता । प्रत्येक वस्तु स्वातिरिक्त अन्य समस्त पदार्थों से अत्यंत विविक्त है तभी उसका सत्त्व है । और इतना ही नहीं किंतु कार्य का संबंध है, न प्रभाव का संबंध है, न शक्ति संक्रमण का संबंध है ।
भैया ! जो कुछ होता है विश्व में औपाधिक परिणमन, सो परिणमन वाला उपादान पर उपाधि का निमित्त पाकर स्वयं की परिणति से उस रूप परिणमता है । उसका ही व्यवहार भाषा में निमित्त का प्रभाव हुआ, वह कहा जाता है । वस्तुत: उपादान से निमित्त को पाकर अपने में जो योग्यता रूप प्रभाव था उसको व्यक्त किया है । जैसे न्यायालय में जज को देखकर देहाती लोगों के छक्के छूट जाते हैं और निपुण शहर के लोग दनादन पास पहुंचते हैं और हौसले से खुलकर बातें करते हैं । देहाती पर जज का प्रभाव नहीं पड़ा किंतु देहाती की अज्ञानता, अपरिचितता, अबोधता आदिक जो चित्त की कमजोरियां थीं उन कमजोरियों का प्रभाव जज का निमित्त पाकर व्यक्त हो गया । ऐसी ही बात सर्वत्र है ।
स्वातंत्र्य का सर्वत्र उपयोग―इस पद्धति से निरख लो भैया ! न तो निमित्तनैमित्तिक भाव चूकता है और न वस्तु की स्वतंत्रता मिटती हैं । जो जीव यहाँ भी किसी से प्रेमभाव करके पराधीन होता है तो वह मनुष्य स्वयं की स्वाधीनता से पराधीन होता है । उस पराधीनता में पर आश्रय पड़ता है । न करो राग पराधीनता आ गयी । इस पराधीनता में किसी दूसरे ने अपना परिणमन, अपना गुण, अपना द्रव्य कुछ डाला हो, यह नहीं है, और यह पराधीन करने वाला पुरुष किसी पर की उपाधि पाये बिना पराधीन होता है, और तिस पर भी पर की परिणति लेकर पराधीन होता नहीं । खुद ही स्वार्थता से अपने आपकी ओर से आजादी है उसे कि तुम ऐसा विकल्प बना लो कि पर के ही आधीन हो
सत्त्व की सदासिद्धता―वस्तु तो समस्त अपने स्वरूप में अद्वैत रूप है, वे वे ही है, कैसे भी बनें, वे वे ही है । यह जीव अनादि काल से न कुछ जैसी दशाओं में भी रहा है, निगोद जैसी दशाओं में रहा है, वृक्ष खड़ा है, शाखायें है, छाल है, पत्ते है, ऐसा लगता है कि कुछ भी नहीं है ज्ञान, मोटे रूप से ऐसी भी कुछ तुच्छ दशाओं से यह जीव परिणम गया तिस पर भी जीव जीव ही रहा, अन्य-अन्य ही रहा । तब तो अज्ञानतिमिर के क्लेश में भी विवश था, मगर आज कुछ झलकन भी ऐसी है कि लो यह मैं जीव हूँ, और यह जीव भविष्य में कभी ज्ञानबल से कर्म और शरीर से मुक्त भी हो जाता है ।
अद्वैतभासी ज्ञान में आत्मग्रहिता―तो जो सत् है वह अपने में अद्वैत अन्य सर्व वस्तुओं से विविक्त है, चाहे वह किसी भी वृत्ति से परिणम रहा हो । इस विशुद्ध चैनन्यस्वरूप में कोई भेद नहीं किया जा सकता । ऐसा अभेदस्वरूप चैतन्यमात्र मैं हूँ । यहाँ उपयोग को ठिकाना इस ब्रह्मस्वरूप में, इस चित्प्रकाश में, जहाँ व्यक्ति की खबर नहीं, देह की खबर नहीं, वैभव की खबर नहीं, कर्मबंध का पर्दा नहीं । जिस उपयोग में केवल शुद्ध चैतन्यमात्र ही प्रतिभासित होता है वह उपयोग आत्मा के ग्रहण करने वाला होता है । इस उपयोग में ऐसी सामर्थ्य है कि उस चित्स्वरूप को ढकने वाले किन्हीं भी पदों में न अटककर सीधा चैतन्यस्वरूप पर पहुंच जाता है ।
परिचयी के स्वरूप दर्शन में अबाधा का एक दृष्टांत―जैसे बाजार में कुछ कार्ड ऐसे आते हैं कि जिनमें पेड़ ही पेड़ बने है, मगर वे पेड़ ऐसे शकल के बनाए गए है कि वहाँ जहाँ पत्ता, साखा कुछ नहीं बने है, उन्हें ब्लैक बोलते हैं । उनमें शेर का चित्र, मोर का चित्र, गधे का चित्र बन जाता है । बना कुछ नहीं है किंतु जो जगह छूटी हुई है पेड़ की रचना से उस जगह में भी चित्र मालूम देता है । ऐसे कार्ड बहुत बिकते हैं । किसी-किसी ने देखा भी होगा । उन कार्डों को देखकर अपरिचित आदमी को बताया जाये कि बताओ इस कार्ड में क्या है ? तो वह यह कहेगा कि ये पेड़ है । और भी है कुछ ? कुछ नहीं है, जब किसी उपाय से उसे बता दिया जाये देखो यों यह गधा हुआ ना गधा । अब उसे सीधा गधा दिखने लगा । अब उस कार्ड को लेना है तो उसका ज्ञान पेड़ में अटकता, न उसका ज्ञान पत्तियों में अटकता, उसका ज्ञान सीधा उस चित्र को जान लेता है ।
दृष्टांतपूर्वक निवधि आत्मदर्शन का समर्थन―अथवा जैसे हड्डी का फोटो लेने वाला एक्सरा यंत्र होता है, वह न तो शरीर में पहिने हुए कपड़ों का फोटो लेता है, न चमड़े का फोटो लेता है, न मांस मज्जा का फोटो लेता है, केवल हड्डी का फोटो ले लेता है । यह एक्सरा यंत्र कहीं नहीं अटकता, इसी तरह जिस भेदविज्ञान पुरुष के ऐसी तीक्ष्ण दृष्टि है कि भेदविज्ञान के बल से वह धन परिवार में नहीं अटकता, शरीर में नहीं अटकता, कर्मों में नहीं अटकता, रागादिक में नहीं अटकता, अपूर्व विकास में नहीं अटकता । औरों की तो बात जाने दो पूर्ण विकास परिणमन में भी नहीं अटकता । अहा, इस भव्यदर्शन से अन्य मुझे कुछ न चाहिए ।
जानन का जानन के अतिरिक्त अन्य प्रयोजन का अभाव―जैसे घर के बड़े प्यारे कुंवर को किसी दूसरे के द्वारा दी गयी कुछ चीज न चाहिए । उसे तो कला चाहिए धान चाहिए । इस ओर ही उसकी धुनि है । इसी प्रकार इस अंतरात्मा पुरुष को केवलज्ञान भी न चाहिए, अनंत सुख भी न चाहिए, पूर्ण विकास भी न चाहिए, उसकी तो सहजस्वभाव पर दृष्टि हो गयी । किस लिए हो गयी ? इसका भी उसे कुछ प्रयोजन नहीं है, पर जिस स्वरूप है, वस्तु जितनी है वह उसकी नजर में आ गया सो वह तो जानता भर है ।
कर्मण्येवाधिकारस्ते―जैसे मोटे शब्दों में लोक व्यवहार में यह अर्थ लगाते हैं कि हे आत्मन् ! तुम किए जावो, करने का तुम्हें अधिकार है, फल में अधिकार नहीं । फल मत चाहो । यह बात जिस चाहे पदवी में रहने वाले मनुष्य में घटा लो । परोपकार करने वाले मनुष्य को भी यह कह लो कि तुम कर्तव्य किए जावो―फल मत चाहो । तुम्हारा फल में अधिकार नहीं है, तुम्हारा काम में अधिकार है । अच्छा उस लोकव्यवहार की चर्चा से और ऊपर आइए ।
योगी की अनीहा―जो योगी पुरुष है उसको कहा गया है कि तुम अपने जप, तप, व्रत, नियम, ध्यान संध्या सब किए जावो, फल कुछ न चाहो । फल में तुम्हारा कुछ अधिकार नहीं है । उससे भी और ऊँचे चलकर एक ज्ञानी पुरुष में पहुंचिये । तुम अंतर में विवेक किए जावो, भेदविज्ञान किए जावो, फल कुछ मत विचारो । इससे भी और ऊँचे उस अंतरात्मा को देखो कि कुछ विकल्प ही नहीं उठाता, केवल ध्रुव चित्स्वभाव के देखने की ही जिसकी वृत्ति बनी हुई है वहाँ फल में मेरा अधिकार नहीं, ऐसा भी विकल्प नहीं, मुझे कुछ कर्तव्य करना चाहिए यह भी तरंग नहीं किंतु जब झक्काटा हो गया, जब दृष्टिगत हो गया परमार्थ सत्त्व, तो वह बस देख लेता है कि काहे के लिए देखना है, यहाँ कुछ बात नहीं है । देकर भी कुछ करेगा यह भी बात नहीं है । यह द्रव्य कर्म से भी युक्त होना चाहे यह भी बात नहीं है, वह अपना पूर्ण विकास चाहता है यह भी बात नहीं है । उसको तो जो परमार्थ सत् है वह ज्ञान में आ गया, सो ज्ञान ही करता जाता है । ऐसे इस विशुद्ध चैतन्य में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है । चीज चलते-चलते बहुत अभेद तक पहुंच गयी ।
परिचयी के लिये शब्दों की वाचकता―भैया ! यह चर्चा अपनी है । पर अपनी बात का, अपनी अंतर्विभूति का परिचय जिनको बिल्कुल नहीं होता उनको तो ऐसा लग सकता है कि क्या कहा जा रहा है? कुछ रटा हुआ होगा वही बोला जा रहा है । कुछ भाव की बात तो नहीं मालूम होती है, परंतु जिन्हें अपने अंतर्वैभव का परिचय है ऐसे चित् प्रकाशमात्र अनुभव की जिन्हें झलक हुई है उनके लिए तो ये शब्द भी न कुछ चीज है । इन शब्दों के द्वारा इतनी बड़ी बात कही जा रही है । इतनी बड़ी बात को बताने वाले कोई शब्द नहीं है, जिसको आप अपने अंतर में जान रहे हो ।
शब्दों द्वारा भावानुभूति का एक दृष्टांत―मिश्री का जिसने बहुत-बहुत स्वाद लिया उनके लिए इतना ही कह देना काफी है कि मिश्री बहुत मीठी होती है । इतना ही सुनकर उन्हें अनुभव हो जायेगा, गले से थोड़ा पानी भी उतर जायेगा, कुछ जीभ भी पनीली हो जायेगी और जिसने कभी मिश्री का स्वाद नहीं लिया, उनके आगे खूब समझाइए मिश्री बड़ी मीठी होती है, गन्ने से भी ज्यादा मीठी क्योंकि गन्ने के रस से जब बहुत रग मैल निकल जाता है तो राब बनता है और उस राब से भी जब बहुतसा मैल निकल जाता है तब आकर शक्कर बननी है । जिसने मिश्री नहीं चखी वह पलक उठाये, आखें फाड़े, पर उसे रंच भी मिश्री का स्वाद नहीं आता है । उसे कितना भी समझाया जाये कि गन्ने के रस से बहुत मैल निकलकर राब बनता है । उस राब से बहुत सा मैल निकल कर शक्कर बनती है, उसमें मे भी मैल निकाल दिया जाता है तब जाकर उस शक्कर से मिश्री बनती है । इतनी चर्चा करने पर भी वह आंखें फाड़ेगा पर उसे मिश्री का रंच भी स्वाद न आयेगा । जीभ पनीली न होगी, थूक गले से न उतरेगा ।
अप्रतिबुद्ध के प्रतिबोध का उपाय―इसी तरह आत्मा के उस परमार्थ सहजस्वभाव का जिन्हें परिचय होता है उनको एक ही बात कुछ कह दें बस उसने ज्ञायकस्वरूप को अपने उपयोग में ले डाला । प्रकाश, चित्स्वभाव, सहजस्वभाव किन्हीं भी शब्दों में बोल लो―वह उस समय परमात्मतत्त्व को उपयोग में लेता है किंतु जिन्हें इसका परिचय नहीं है वे चित्रित से देखते रहे, सुनते रहें, क्या बात हो रही है, क्या कहा जा रहा है, क्या ऐसे ही शास्त्र पढ़ा जाता है, क्या हो रहा है । उसकी दृष्टि में न उतरेगा । तब उनके प्रतिबोध के लिए यह सब व्यवहार का प्रसाद है । उन्हें गुणभेद बताया जायेगा, धर्मभेद बताया जायेगा, कारण भेद बताया जायेगा । अध्यात्म विद्या का अ, आ भी सिखाया जायेगा । ये सब बातें चलती है ।
प्रतिबुद्ध का संकेत―भैया ! व्यवहारभाषित उपदेश के इन सब उपायों से यथार्थ जानकारी होने के पश्चात् उसके लिए संकेत ही काफी है । न भी शब्द बोले तो संकेत भी प्रतिबोधक है । कोई पुरुष अपने हाथ से शांति की मुद्रा के साथ यदि अपनी छाती पर आत्मतत्त्व बताने का संदेश करता है तो उस संकेत के देखने वाले इस ज्ञायकस्वरूप भगवान को समझ जाते हैं, शब्द की बात तो दूर रही । तो जो प्रतिबुद्ध पुरुष है उनकी गोष्ठी की यह कथा हो रही है कि यदि कारकभेद से, धर्मभेद से, गुणभेद से भेद किया जावे वह भी उसी के प्रतिबोध का उपाय है । परंतु इस विभुभाव में इस विशुद्ध चैतन्य में कोई प्रकार का भेद नहीं है । यह अनादि है, अखंड है, द्रव्य से अखंड है, क्षेत्र से अखंड है, काल से अखंड है, भाव से अखंड है ।
अपने शरण का अवगम―आत्मतत्त्व को द्रव्य से भी खंडित नहीं किया जा सकता है वह तो जो है सो है, क्षेत्र, काल, भाव से भी खंडन नहीं है । जानने वाले जानते हैं और जब तक यह जानने में नहीं आता तब तक अवधान नहीं रहता, सावधानी नहीं रहती । अपने को कहां बैठाना है, कक्षा लगाना है, कहां शरण मानना है, कहां तृप्ति पाना है? वह स्थान है यही विशुद्ध चित्स्वरूप । इसकी निरंतर आराधना से समस्त बंधन अवश्य कट जाते हैं ।
साधारणज्ञान, पर्यायज्ञान, स्वरूपज्ञान व भेदविज्ञान―पहले नाना प्रकार के ज्ञान से एक साधारण ज्ञान करना आवश्यक है, पश्चात् पर्याय भेद की मुख्यता से यह संसारी है, यह मुक्त है यह जीवसमास है, यह गुणस्थान है, आदि का ज्ञान करना चाहिए । फिर वस्तु के स्वरूप का द्रव्य, गुण, पर्याय की शैली से ज्ञान करना चाहिए । वस्तु स्वरूप के अवरोध के अभ्यास के पश्चात् फिर भेदविज्ञान जागृत होता है, उस भेदविज्ञान के बल से अपने आपमें अपने स्वरूप को जानकर समस्त पर और परभावों से भिन्न जानना चाहिए । ये जो धन वैभव जड़ और समानजातीय पर्यायें है उनसे इस आत्मा का रंच भी संबंध नहीं है ।
कल्पना का ऊधम―भैया ! कल्पना का ऊधम तो एक विचित्र ऊधम है । जिस चाहे अत्यंत भिन्न चीज को कल्पना से अपना समझ लेते कि यह मेरा है, इसको पागलपन कह लो या ऊधम कह लो, चोर-चोर मौसेरे भाई हुआ करते हैं, इसी तरह मोही-मोही जीवों की परस्पर में दोस्ती बन गयी है, इसलिए एक दूसरे के पागलपन की बात को पागलपन की दृष्टि से नहीं देखते हैं इसको तो ज्ञानी पुरुष ही जानते हैं कि क्या व्यर्थ का पागलपन और ऊधम मचा रखा है कि जिसे चाहे भिन्न वस्तु को जिसे चाहे मन चाहे उसको ही अपना मानता है ।
उत्तरोत्तर प्रखर भेदविधान―इस धन वैभव जड़ पदार्थ से मेरा आत्मा अत्यंत भिन्न है, इसे और भी भेदविज्ञान से देखो कि अन्य की तो कहानी ही क्या? यह शरीर जो मेरे एकक्षेत्रावगाह में है, इस शरीर से भी मैं जुदा हूँ । यह अचेतन है, और शरीर के नाते तो समानजातीय द्रव्यपर्याय है और भव के नाते से असमानजातीय द्रव्य पर्याय है । मैं सो भौतिक पदार्थ के लेप से रहित हूँ, फिर और भेदविज्ञान किया तो जाना कि शरीर तो एक जिंदगी का साथी है किंतु द्रव्य कर्म यह एक जीवन का साथी नहीं, किंतु अनेक जीवन में यह साथ चला करता है । सो चिरकाल तक साथ निभाने वाला द्रव्य कर्मपिंड भी चुकता अचेतन है । उससे भी भिन्न यह मैं चैतन्य पदार्थ हूं । फिर भेदविज्ञान से और आगे बढ़कर देखा कि रागादिक भाव को यद्यपि उस काल में मेरा ही परिणमन है उपाधि का निमित्त पाकर ही रागादिक रूप परिणत होता है तिस पर भी ये रागादिक परिणमन मैं नहीं हूँ । मैं इन सबसे भिन्न शुद्ध चित्प्रकाश हूं ।
अपूर्ण और पूर्ण विकास से भी विविक्तता―भैया, कुछ और गहराई में चले तो इस शुद्ध चैतन्य का, ज्ञानदर्शन गुण का वर्तमान में जो कुछ अल्प विकास चल रहा है, जिससे कुछ जानकारी भी हो रही है । कुछ शांति, तृप्ति, आनंद भी कदाचित् होता है ये सब परिणमन भी मैं नहीं हूं । यह अधूरा परिणमन है । मैं तो चित्प्रकाश मात्र हूँ । अब आगे की बात भी देखिये । यह अपने स्वभाव को देखने से यह निर्णय कर चुका कि निकट भविष्य में मेरे पूर्ण विकासरूप परिणमन होगा । किंतु वह पूर्ण विकासरूप परिणमन भी मैं नहीं हूं, वह भी कभी होता है और वह सूक्ष्म रूप से क्षण-क्षण में बदलता रहता है, सदृश-सदृश परिणमता रहता है, वह भी मैं नहीं हूँ । ऐसे भेदविज्ञान के अभ्यास से उन सब अधूरे तत्त्वों को छोड़कर न पूर्ण विकास से भी परे एक उस ध्रुव आत्मा को ग्रहण करता हूं ।
यहां सामान्य रूप से इस ज्ञानी ने आत्मा को किस प्रकार ग्रहण किया, इसका वर्णन चला था । अब विशेष रूप से यह आत्मा को किस प्रकार ग्रहण करते हैं या विशेष रूप से किस प्रकार ग्रहण किया, ग्रहण किया जाना चाहिए । इस जिज्ञासा के समाधान में श्री कुंदकुंदाचार्य अब अगली गाथा बोलते हैं ।