वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 319
From जैनकोष
णवि कुव्वइ णवि वेयइ, णाणी कम्माइं वहुपयाराइं।
जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च।।319।।
ज्ञानी जीव की अबाधता―ज्ञानी जीव इन सब बहुत प्रकार के कर्मों का न तो कर्ता है और न भोक्ता है किंतु कर्मफल के बंध को, पुण्य पाप को जानता है। जिसके कोई फोड़ा होता है, पक गया है और वह हिम्मत वाला है तो डॉक्टर उसे चिड़े तो चिड़े वह जाननहार रहता है और जिसे
मोह है, उस ही पर दृष्टि है तो उस फोड़े को छुवे भी नहीं, हाथ ही पास में लावे, इतने में ही दर्द सा लगता है क्योंकि शंका भरी है। तो यह ज्ञानी की एक विशेष कला है कि वह जाननहार रहे, वेदना न माने। यह आत्मा ज्ञान और आनंदस्वरूपी है। इसमें वेदना का तो कुछ काम ही नहीं है। दु:ख और क्लेश हमें कहां हैं ? किंतु ऐसा अपने को मानता नहीं, बाह्य में दृष्टि होती है तो अपने को दीन दु:खी अनुभव करते है पर दु:ख किसी को नहीं है।
जीवों की व्यावहारिक स्वतंत्रता―भैया ! इतने लोग यहां बैठे हैं हम आप सब, इनमें से कोई दु:खी नहीं है। आप कहेंगे वाह हमें तो इतना इतना दु:ख है। अजी छोड़ो इस ध्यान को, इस अपने आपको देखो तो तुम अकेले ही हो। देखो ये पक्षी कैसे मजे में हैं? यहां बैठ कर किल-किल करते हैं, फिर पंख उठाया भाग गये, क्या इन्हें कष्ट है? यहां तो भिंड से चार दिन को भी नहीं भाग सकते। और ये पक्षी दो ही मिनट बैठें और उड़ जायें, और और भी जीवों को देख लो आप कहीं जा रहे हों, किसी भी गांव का कुत्ता हो, वह आपके साथ लग जाता है, न कोई उसे यह विकल्प है कि यह आदमी हमें साथ में न रखे तो हमारा क्या होगा? वह जो जहां जा रहा है वहीं उसका घर है। कभी कुत्ते लड़ेंगे भी तो एक मिनट सूँघ साँघ कर उसे फिर मित्र बना लेंगे। सभी पक्षियों को पशुवों को जीवों को देखो कि उन पर कुछ बोझा नहीं लदा, पर यह मनुष्य अपने ऊपर बोझा मानता है। अरे यह भी जीव है वे भी जीव हैं।
पर का परस्पर उत्तरदायित्व का अभाव―आप कहेंगे कि वाह बोझा लादे बिना मनुष्य का काम नहीं चल सकता। तो आप किसका काम चला रहे हैं? उनके पुण्य का उदय है सो आप दूसरों की चाकरी कर रहे हैं, निमित्त आप हो रहे हैं, तो ऐसा जानकर अब भार मत समझो। वे अपने आप पर निर्भर हैं, और फिर भार अनुभव करके सिद्धि भी तो कुछ नहीं होती। ये सब पशु पक्षी अपने को भार रहित समझकर जीवन बिताते हैं और हम बहुत से विकल्पों का बोझ लादकर जीवन बिताते हैं। एक मोटा दृष्टांत है तुलना का केवल शिक्षा के लिए कि हम यदि बोझ न मानें किसी का तो भी काम चलता है और मानते हैं तो भी काम चलता है पर बोझ मानने में अपना काम बिगड़ता है, आत्महित की बात नहीं बनती। इससे जानते रहो कि हमें यह करने का विकल्प करना पड़ता है, हम इनका कुछ नहीं करते हैं। ऐसा ही संबंध है, सुयोग होता है।
दृष्टि की विशुद्धि की हित में प्राथमिकता―भैया ! किसी भी समय इस अपने को अकिंचन केवल चैतन्यमात्र अनुभव करना बहुत आवश्यक है।नहीं तो रात दिन बोझ से लद-लदकर अपना जीवन बरबाद कर देंगे। कभी यह अवसर ही नहीं पायेंगे कि हम अपनी प्रभुता के दर्शन तो कर लें। जैसी दृष्टि होती है वैसी ही अपनी वृत्ति बनती है और वैसा ही अपने को स्वाद आता है। एक बार बादशाह ने वजीर से दिल्लगी की कि वजीर! स्वप्न में हम तुम जा रहे थे टहलने तो रास्ते में एक जगह दो गड्ढे मिले, एक था गोबर का गड्ढा और एक था शक्कर का। सो हम तो शक्कर के गड्ढे में गिर गए और तुम गोबर के गड्ढे में गिर गए। वजीर बोला कि महाराज हमने भी ऐसा ही स्वप्न देखा कि हम तुम दोनों जा रहे थे, सो महाराज तो शक्कर के गड्ढे में गिर गए और हम गोबर के गड्ढे में गिर गए, पर इससे आगे थोड़ा और देखा कि महाराज हमें चाट रहे थे और हम महाराज को चाट रहे थे। अब यह देखो कि बादशाह गिरा तो शक्कर के गड्ढे में था और चाट रहा था गोबर और वजीर गिरा तो गोबर के गड्ढे में था, पर चाट रहा था शक्कर। सो भैया ! अपनी दृष्टि निर्मल बनाने का यत्न रखो, यही शरण है और जगत् में कोई शरण नहीं है।
शरणचतुष्क―ज्ञानी जीव का शरण निश्चय से शुद्ध आत्मस्वरूप है और व्यवहार में जो शुद्ध आत्मा हो गए हैं उनके विकास का स्मरण है और जो शुद्ध आत्मा होने के प्रयत्न में लगे हैं ऐसे साधुजन शरण हैं। क्या शरण है ज्ञानी जीव को, इस तत्त्व को चत्तारिदंडक में बताया गया है। चत्तारि शरणं पव्वज्जामि। मैं चार की शरण को प्राप्त होता हूँ। वे चार कौन हैं ? अरहंत, सिद्ध, साधु और धर्म। अरहंत और सिद्ध एक ही श्रेणी में रखे जाते थे। तब शरण कहलाते तीन-परमात्मा साधु और धर्म, किंतु परमात्मा में अरहंत और सिद्ध―ऐसे जो दो भेद करके शरण की बात कही गयी है। उसमें मर्म यह है कि उत्कृष्ट विकास तो सिद्ध प्रभु में है। भाव विकास की ही बात नहीं किंतु भावविकास तो जो अरहंत में है वह सिद्ध में ही है। साथ ही बाह्य लपेट भी अब नहीं रहे। शरीर का संबंध, कर्म का संबंध अब नहीं रहा, इसलिए सर्वोत्कृष्ट हैं सिद्ध भगवंत परंतु यह सारी महिमा और सिद्धप्रभु का पता भी बताना, यह अरहंत प्रभु से हुआ है। इस कारणपरमात्मा को दो पदों में विभक्त किया है―अरहंत और सिद्ध।
चत्तारि के चार लक्ष्यभूत अर्थ―मैं चार की शरण को प्राप्त होता हूँ। वे चार यही हैं इनके लिए चत्तारि शब्द दिया हैं। अब चत्तारि में चत्तारि की बात आ जाती है। वह चत्तारि क्या है? चत्तारि का अर्थ है चत्ता अरि। चत्ता मायने त्यक्ता, छोड़ दिया है अरि मायने चार घातिया कर्म जिसने, उनका नाम है चत्तारि याने अरहंत देव। चत्ताअरि छोड़ चुके हैं समस्त अरियों को जो के है चत्तारि, मायने सिद्ध। छोड़ रहे हैं अरियों को जो वे हैं चत्तारि मायने साधु और छोड़े जाते हैं अरि जिस उपाय से उसका नाम है चत्तारि अर्थात् धर्म। बड़े पुरूषों की वाणी निकलना तो सहज है किंतु मर्म बहुत भरा होता है। चत्तारि बोलते हुए हम नहीं कह सकते कि ऐसी दृष्टि रखकर ही चत्तारि शब्द कहा हो। किंतु सहज ही ऐसी वाणी निकलती है कि जिससे अर्थ और मर्म अनेक उद्गत होते रहते हैं।
शरणदृष्टिक्रम―इन चार शरणों में प्रथम है―‘अरहंते शरणं पव्वज्जामि’ मैं अरहंतों की शरण को प्राप्त होता हूँ। जब दो वर्ष के बच्चे को कोई डराता है, कुछ धमकाता है तो वह दौड़़कर किसकी शरण में जाता है ? अपनी माँ की गोद की शरण में जाता है और जब वह 12-14 वर्ष का लड़का हो जाता है उसे कोई डराये तो अब माँ की गोद में नहीं जाता। वह बाप के पास बैठता है। अब जरा बड़ा हुआ, विवाह हो गया, घर में लड़ाई भी होने लगी तो अब माँ और बाप के पास भी वह नहीं जाता है, वह बहकाने वाले गुन्डों की शरण में, मित्रों की शरण में जाता है, वहीं सलाह लेता है। तो जैसे-जैसे उसकी अवस्था बढ़ती जाती है वैसे ही वैसे उसके शरण का आश्रय भी बदलता जाता है और वह जब ज्ञानी हो जाता है संसार, शरीर, भोग से विरक्त हो जाता है तब उसके शरण के ये सब ठिकाने छूट जाते हैं। कहीं उसे शरण नहीं प्रतीत होता।
परमात्मशरण―अब ज्ञानी उसको शरण एक प्रभु की होता है, जो भेद विज्ञान की बात बताये, आकुलतावों को हटाये। वहां इसे कुछ शांति मिलती है। अब उस शरण को प्राप्त होता है। जब इस संसार में कल्पना जालों से उद्गत संकटों के समूह आ पड़ रहे हैं, ऐसी स्थिति में किसकी शरण जायेगा यह जीव, जो इन सब संकटों से पृथक् है। तो यों प्रकृत्या ज्ञानी जीव अरहंत की शरण को प्राप्त होता है। अरहंत देव ने यह बताया है कि आत्मा का सर्वोत्कृष्ट विकास परम आनंद की स्थिति एक सिद्ध अवस्था में है। उसे भी यह कैसे भूल सकता है? यह अरहंत अवस्था तक नहीं अटक सकता, अत: परोपकारी होने के कारण अरहंत की शरण में प्रथम गया है लेकिन यहां न अटककर सिद्ध की शरण में पहुंचता है। सो ज्ञानी के अंतर में धुनि होती है―‘सिद्धे सरणं पव्वज्जामि’ मैं सिद्धों की शरण को प्राप्त होता हूँ।
साधुशरण--भैया ! अब बुद्धि व्यवस्थित हो गयी, अब कोई शंका और भय नहीं रहा, कोई सतायेगा तो इस परम पिता की शरण में पहुंचजाऊँ। लेकिन ये दोनों तो आजकल मिलते ही नहीं। न अरहंत मिलते और न सिद्ध मिलते। सिद्ध तो इस विश्व में मिलते ही नहीं है। वे तो इस लोक की शिखर पर विराजमान हैं और अरहंत कभी-कभी प्रकट होते हैं सो आज इस पंचमकाल के समय में अरहंत का भी दर्शन नहीं हो रहा है। तब हमें कोई शरण ऐसा ढूंढ़ना है जो अभी चाहें और आध घंटे में मिल जाय, ऐसा कोई शरण ढूंढ़ना है। उससे ही काम चलेगा। तब ज्ञानी की धुनि होती है‘साहूसरणं पव्वज्जामि।’ मैं साधु की शरण को प्राप्त होता हूँ।
साहू―साधु का नाम है साहू, जो श्रेष्ठ हो। कुछ लोग अपने को साहू बोला करते हैं, जैसे पटेल हैं वे अपने को साहू साहू कह कर उपयोग करते हैं। और पहिले समय में किसान लोग साहूकारों को साह, साब कहा करते थे। साहूकार मायने श्रेष्ठ, निर्दोष, ईमानदारी का काम करने वाला, उसका नाम है साहूकार। साहूकार वह जो निर्दोष काम करे। निरारंभ, निष्परिग्रह निज सहजस्वरूप के दर्शन में निरंतर मग्न, ऐसे ज्ञानी पुरूष, उनकी शरण को मैं प्राप्त होता हूँ।
बाह्यशरण की पद्धति उपासक का अंत:पुरूषार्थ―भैया ! बाहर में इन तीन के सिवाय और कुछ शरण नहीं मिल रहा है, यों तो सभी कहते हैं कि तुम मेरी शरण में आ जावो। यहां के मायावी कपटी लोग भी कहते है, स्वार्थ भरे लोग भी कहते हैं और इन्हीं स्वार्थ भरे लोगों ने ऐसा भी प्रसिद्ध कर दिया है कि भगवान कहा करता है कि तुम मेरी शरण में आ जावो। अच्छी बात है, मिल जाय शरण तो ठीक है, मगर वह भगवान अपना आनंद खोकर तुम्हें गोद में संभाले रहे तो तुम मचलोगे बार-बार। जैसे किसी लड़के को गोद में ले लो फिर भी मचलता है, दोनों टांगों को जल्दी-जल्दी हिलाता है, ऐसे ही यदि भगवान तुम्हें अपनी गोद में संभाल ले और तुम्हें जरा-जरा सी देर में स्त्री की खबर आ जाय, लड़कों की खबर आ जाय और भगवान से छुटकारा पाने के लिए बार-बार मचल आ जाय, ऐसे मोही जीव को भगवान संभाले और वह संकट में आए, क्या ऐसा स्वरूप भगवान का है ?
अंतिम व परम शरण―भगवान का स्वरूप आदर्श है, समस्त विश्व के जाननहार, तिस पर भी निज अनंत आनंदरस में मग्न है। वह हम को शरण में नहीं रखते किंतु हम ही उनके गुणों का स्मरण करके यथायोग्य अपने आपको शरण में ले लेते हैं। इसी कारण तत्त्वज्ञानी पुरूष अंत में यह निश्चय करता है कि ‘केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि’ केवली भगवान के द्वारा कहे हुए इस धर्म की शरण को प्राप्त होता हूँ। कहां गया अब यह ? धर्म की शरण में गया, जो आत्मस्वभाव रूप है, पर भक्ति तो देखो इस ज्ञानी की कि तिस पर भी यह शब्द लगा दिया है केवली के द्वारा कहे गए, कोई मुंहफट बात नहीं है वहां कि अभी तो अरहंत की शरण में जा रहा था और फिर कुछ भी संबंध नहीं रखकर कुछ नहीं है, वह परद्रव्य है यों झुंझला कर मैं तो आत्मस्वभाव के ही शरण में जाता हूँ। इतनी मुंहफट बात न हो जाय इसलिए यह भी ध्वनित कर रहे हैं कि मैं अपने धर्म की शरण में जा रहा हूँ, ठीक है, पर हे भगवन् ! तुम्हारे द्वारा बताये गए धर्म की शरण में जा रहा हूँ।
बड़ों की आज्ञा का पालन―भरी सभा में भी यदि बादशाह कहे कि मेरी पगड़ी उतार कर उस मेज पर धर दो, और यदि कोई उस पगड़ी को उतार कर धर दे तो उसमें कोर्इ दोष या अपमान नहीं है क्योंकि बादशाह की ही आज्ञा है, और यदि कोई सभा का आदमी कह दे कि बादशाह की पगड़ी उतार कर उस मेज पर धर दो और यदि कोई धर दे तो उसमें बादशाह का अपमान होता है। मैं अपने मनमानी स्वच्छंद वृत्ति से इस धर्म की शरण में नहीं जा रहा हूँ किंतु केवली भगवान के द्वारा बताए गए धर्म की शरण में जा रहा हूँ। तो इस तत्त्वज्ञानी पुरूष ने अंत में शरण पाया चित प्रकाश का, आत्मधर्म का। ज्ञानीपुरूष कर्मचेतना से शून्य हैं, कर्मफल चेतना से भी दूर है, इसलिए स्वयं अकर्ता है और अभोक्ता है।
कर्तव्यनिर्वाह में कर्तृत्व का अनाशय―जैसे किसी संस्था की कमेटी बनी है और उस कमेटी के आप मंत्री है, तो आप संस्था का कार्य कर रहे हैं मगर किसी मीटिंग में सदस्यों ने एक राय करके यह तय कर दिया कि इस संस्था की अब जरूरत नहीं है, इसे हटावो और इसका जो कुछ माल है हिस्सा है वह हिस्सा वहां दे दो तो इसमें मंत्री को भी रंच भी रंज नहीं हो सकता क्योंकि वह तो सब सदस्यों की चीज है। उनकी ऐसी रायहुई, इसके दोष भी कुछ नहीं आता है। वह अब निर्णय किये हुए है कि हमारा कर्तव्य है कि सर्वप्रस्तावों को अमल में लें। और कदाचित यह कह दें वह ही सदस्य मंत्री के घर के लिए कि तुम्हारे घर का नक्शा ठीक नहीं है। इस से तो अच्छा है कि घर को तोड़ दो और तुम किराये के मकान में रहने लगो तो उसे मान लोगे ? कहीं वहां आत्मीयता है। इसी तरह जहां निमित्तनैमित्तिक संबंध वश अनेक बिगाड़ के काम चल रहे हैं, विभाग उठ रहे हैं, कुछ क्रिया हो रही है, कुछ अनुभव चल रहा है। इस पर भी यह तत्त्वज्ञानी ज्ञाता ही रहता है क्योंकि जानता है कि यहां तो मेरा कोई काम ही नहीं है। मेरी तो कोई यहां बात ही नहीं है ना। मैं तो ज्ञानरस निर्भर हूँ, राग रंग हो यह मेरी बात नहीं है, स्वरसत: होने वाली चीज नहीं हैं। सो ज्ञाता दृष्टा रहता है। और इसी कारण इन कर्मों का कथंचित् कर्ता होकर भी अकर्ता है और भोक्ता होकर भी अभोक्ता है।
अभोक्तृत्व का व्यावहारिक लौकिक उदाहरण―जैसे हिरण जंगल में घास चरता है, जरा सी आहट मिली तो घास छोड़ने में उसे देर नहीं लगती, तुरंत अपना मुंह उठा लेता, देखने लगता और उस स्थिति को छोड़ने में कभी विचारमग्न भी नहीं होता। क्योंकि वह हिरण अनासक्त है, वह भोक्ता होकर भी अभोक्ता है। एक दृष्टांत में लिया है, कहीं सम्यग्दृष्टि ही उसे नहीं समझना। इसी प्रकार यह ज्ञानीपुरूष कर्म प्रेरणा से कहीं रहता है, कुछ भोगता है तिस पर भी उस कर्मफल के भोगने में आसक्त नहीं है। जरा सी ही बात में वह छोड़ने को तैयार हो जाता है। जैसे कि अज्ञानी के प्रतिनिधि बिलाव को चूहा मिल जाय तो उसको छुटाने के लिए उस पर डंडे भी बरसाये जायें तो भी बिलाव चूहा छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता। उसे आसक्ति है।
अज्ञानी के भोगासक्ति―अज्ञानी जीव को जो भोग मिला है, जो समागम मिला है, उसको किसी भी हालत में, किसी भी अवसर में छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता। यह है उसके भोक्तापन की आसक्ति। संकटों से परेशान है तिस पर भी नहीं छोड़ सकता। जैसे एक कहावत है कि एक गरीब भाई के पास एक रूपया था, जाड़े के दिन थे, तो जब रात आए तब तो सोचता था कि अब कल रज़ाई बनवायेंगे क्योंकि जाड़ा बहुत पड़ता है और सुबह होती, जब सूर्यनारायण दिख जाते हैं तब विचार होता है कि अब इस रूपये का एक भैया और मिलायेंगे। यह अहाना है, प्रसिद्ध है, हमें याद नहीं है। तो ज्ञान और अज्ञान में महान् अंतर है। ये सारे के सारे संकट अज्ञान भरे हैं।
ज्ञानी की आत्मप्रतीति―ज्ञानी पुरूष कर्मचेतना और कर्मफल चेतना से रहित है इसलिए वह न कर्म का कर्ता है, न कर्म का भोक्ता है। इसका स्वरूप आगे बतायेंगे। कर्मचेतना क्या कहलाती है और कर्म फल चेतना क्या चीज है? मोटे रूप से यह समझ लो कि मैं ज्ञान के सिवाय अन्य कुछ भी काम करता हूँ, ऐसा आशय होने का नाम कर्मचेतना है और उस जानन-जानन के सिवाय और कुछ भी भोगता हूँ ऐसे आशय का नाम है कर्मफल चेतना। जैसे अपने नाम की खबर कोई नहीं भूलता, खाते-पीते, उठते, बैठते, सोते वह नाम की खबर नहीं भूलता। उस नाम को लेकर यदि कोई जरा सी हल्की बात कह दे तो आग भभक उठती है। जैसे लौकिक जनों को अपने नाम की खबर नहीं भूलती इसी प्रकार तत्त्वज्ञानी पुरूष को अपने ज्ञानस्वरूप की खबर नहीं भूलती। खाते पीते चलते उठते घर में रहते खेद भी करता है मगर दृष्टि यह है कि मैं तो सबसे न्यारा केवल ज्ञानस्वरूप एक पदार्थ हूँ। कोई भुलावे में डाले तो भी नहीं भूलता। कोई प्रशंसा करे तुम तो महान् उद्योगपति हो, तुम तो इन सबके नेता हो, आपका तो इस जगत् में बड़ा उपकार है, आप तो नवाब साहब हैं, कितनी ही प्रशंसा करके भुलावे में डाले, पर ज्ञानी अंतर में यही देखता है कि मैं तो देह तक से भी न्यारा एक ज्ञानमात्र हूँ। इस लोक में मैं ज्ञान के सिवाय अन्य और कुछ कार्य नहीं करता। जैसा आना वैसा ही जाना―दो भाई थे, बड़ा भाई बी0 ए0पास था, बहुत बड़ी उम्र में वह गुजर गया, कुछ दिन गुजरने के बाद लोग आए फेरा करने तो एक ने यह पूछा कि तुम्हारा भाई क्या कर गया ? हर एक कोई पूछते हैं―याने मरते समय कुछ दान पुण्य कर गये या क्या कर गए ? तो छोटा भाई उत्तर देता है ‘क्या बताए यार क्या कारनामा ये कर गए। बी0 ए0 किया, नौकर हुए, पेंशन मिली और मर गए।।’ लोग पूछते हैं ना क्या कर गए। तो उन्हें बता दिया। यही करते हैं सब । ऊँची कक्षा पास की, सर्विस की, पीछे रिटायर हुए और अंत में मर गए। और व्यापारी लोग भी ऐसा ही करते है। कुछ बुद्धि बनाया, कुछ रंग ढंग जोड़ा, व्यापार चलाया, पैसा कमाया, संपत्ति कमायी, रिटायर हुए, या जैसी बात हो और अंत में मर जाते हैं। पर भाई चाहे जो बीते, सब परिस्थितियों में यह भाव रहें कि मैं जाननमात्र के सिवाय और कुछ करने वाला नहीं हूँ, विकल्प ही केवल कर पाता हूँ, विकल्पों के सिवाय और कुछ नहीं करता।
ज्ञानी के सहज आनंद से तृप्ति होने के कारण कर्मफल का अभोक्तृत्व―भैया ! कर्तृत्व बुद्धि होना यह एक विकट मोह और अज्ञान है कि इस आशय में फिर अपने हित की बात ध्यान में नहीं रहती। यह ज्ञानी पुरूष न तो कर्मों का कर्ता है और न कर्मफल का भोक्ता है, किंतु कर्म और कर्मफल का मात्र ज्ञाता रहता है। ज्ञानी जीव कर्मफल का भोक्ता नहीं है क्योंकि वह शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न सहज परम आनंद को छोड़कर पंचेंद्रिय के विषयों के सुख में नहीं परिणमता हैं। इस कारण ज्ञानी भोक्ता नहीं होता है। वह कर्मबंध को, कर्मफल को, पुण्य पाप को मात्र जानता है। ये साता वेदनीय आदिक पुण्य प्रकृतियां हैं। ये असाता वेदनीय आदिक पाप प्रकृतियां हैं। इस इस प्रकार के बंध हैं, सुख दु:खरूप कर्म के फल हैं, इन सबको वह जानता ही है अर्थात् वह आत्मभावना से उत्पन्न अतींद्रिय आनंद से तृप्त होकर उनको मात्र जानता है।
ज्ञानी के दो पद―ज्ञानी जीव निर्विकल्प समाधि में स्थित है। वह तो साक्षात ज्ञानी उपयोगता: है ही किंतु जिसने निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न आत्मीय आनंदरस का स्वाद पाया, किंतु वर्तमान में उपयोगी नहीं हैं, किंतु प्रतीति सहित है तो वह भी ज्ञानी है। इन दोनों प्रकार के ज्ञानियों में से जो उपयोग से निर्विकल्प समाधि में स्थित है वह तो अकर्ता और अभोक्ता है ही, किंतु वह ज्ञानी भी जो वर्तमान में निर्विकल्प समाधि में स्थित नहीं है, किंतु प्रतीति सहित है वह भी श्रद्धा में अकर्ता है।
ज्ञानियों का ज्ञानबल―जो निर्विकल्प समाधि में स्थित हैं उनके परम समता परिणाम कहा है, जो ज्ञान और आनंदरस करि पूर्ण है और यह अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत शक्तिरूप से आलंबन सहित है, किंतु समाधिस्थ ज्ञानी समस्त परद्रव्यों के आलंबन से रहित है। उनका आलंबन है तो अनंत चतुष्टय का आलंबन है, परद्रव्य का आलंबन नहीं हैं, परभावों का आलंबन नहीं हैं। ख्याति, पूजा, लाभ भोगे हुए भोगों का स्मरण, देखे व सुने हुए भोगों का स्मरण, आकांक्षा, निदान बंध आदि कोई उत्पात नहीं है। ऐसे समतापरिणाम में जो ज्ञानी स्थित है वह न कर्ता है, न भोक्ता है। यह स्थिति रहती है तीन गुप्तियों के बल से।
तीन गुप्तियों की आवश्यकता―मोही जन इस मन वचन काय को स्वच्छंद प्रवर्ताते हैं, इससे कितनी चिंताएँ और आकुलताएँ आ जाती हैं। जो बोलने की भारी आदत रखते हैं, वचनों पर जिनका संयम नहीं हैं, उनको विह्वलता, अशांति पद-पद पर है। अधिक बोलने वाला विपत्तियों का स्वयं साधन है। कम बोलना चाहिए, सोचकर बोलना चाहिए। दूसरे की पीड़ा न उत्पन्न हो ऐसा वचन बोलना चाहिए। आजीविका अथवा आत्मोद्धार का कोई प्रयोजन हो तो बोलना चाहिए अन्यथा वचनों पर संयम होना चाहिए। न बोलना चाहिए। सर्व का भला हो, ऐसे विचार बनाना चाहिए। मेरा भला हो, ऐसे विचार बनाना चाहिए। मेरा भला हो, मुझे सुख हो, मुझे आराम मिले, दूसरे का चाहे कुछ हो, ऐसी खुदगर्जी के साथ अपने विचार न बनाना चाहिए। शरीर से हमारी प्रवृत्तियां ठीक हों, दयारूप हों, गुणियों के विनयरूप हो तो यों तीन गुप्तियों का यथाविधि यथाशक्ति साधन हो तो उससे समतापरिणाम का मौका मिल जाता है।
निज की संभाल―भैया ! कल्याण का मार्ग बहुत जिम्मेदारी का है। गृहस्थ जन घर में रहते हैं। आज जैसे घर में रह रहे हैं तो कोई बुरा नहीं है, यदि गृह में ही अपने गृहस्थ धर्म के अनुकूल साधना बन जाय ‘जिनसे घरमांहि कछू न बनी उनसे बन मांहि कहाँ बनि है।’ आवो दीक्षा ले लो, हो जावो बाबा। अरे जो बाबा बनना चाहते हैं उनसे पूछो कि तुमने घर में रहकर अपना आदर्शरूप भी बना पाया कि नहीं। जो घर में अपना आदर्श नहीं बना सका तो बाबा बनकर क्या बनावेगा ? सो संभालो अपना पद। धन अर्जन के समय धन का अर्जन करो, धर्मपालन के समय धर्म का पालन करो, और पालन पोषण उपकार सेवा यथासमय करो और ऐसे स्वभाव के रूचिया बनो कि जब चाहे जहां कहीं एक इस आत्मस्वभाव की दृष्टि की धुनि हो।
ज्ञानी की अभ्रांत वृत्ति―भैया ! जगत् में हम और आपके लिए बाहर में कहीं अंधेर नहीं है। बाहर में जो अंधेर होता है वह अपने आपके मन में बना हुआ है। वह मनका अंधेर मिटे तो प्रकाश और आनंद की प्राप्ति हो। यह ज्ञानी पुरूष अपने में कभी यह भ्रम न पैदा करेगा कि मेरा काम ईंट पत्थर बनाने का भी है या मेरा काम रागद्वेष करने का भी है। कोई भ्रम नहीं करता। उसका काम जानन वृत्ति का है, बन सके या न बन सके, पर श्रद्धा पूरी यथार्थ हो, उससे ही लाभ है। ‘कीजै शक्ति प्रमाण शक्ति बिन श्रद्धा धरे।’ शक्ति प्रमाण करो। पूजा में लिखी हैं ये बातें। उसका यह अर्थ नहीं है कि शक्ति प्रमाण गोला बादाम चढ़ावों। न शक्ति हो तो श्रद्धा करते रहो। वह तो एक आलंबन है । भाव वहां यह है कि रागद्वेष न करना, भगवान के आदर्शरूप अपनी वृत्ति बनाना यह काम हमें करने को पड़ा है सो करना शक्ति प्रमाण, पर शक्ति न हो तो श्रद्धा तो रखो कि मेरा काम तो जाननमात्र का है।
दृष्टांत सहित ज्ञानी के ज्ञातृत्व का समर्थन―ज्ञानी जीव को कभी यह भ्रम नहीं होता कि मेरा कार्य ईंट पत्थर बनाने का है या रागद्वेष करने का है और न यह भ्रम भी होता है कि मेरा भोग तो यह विषय है, इसके भोगने में ही हित हैं ऐसा भ्रम उसके नहीं होता हैं किंतु ज्ञान चेतनामय होने से केवल ज्ञाता ही रहता है। कर्मबंध, कर्मफल, पुण्य पाप सबको केवल जानता है। इसके अंदर और बाह्य करना और भोगना सब कुछ ज्ञान चेतनारूप है। जैसे कभी किसी प्रचारक का भेष देखा होगा जो किसी औषधि का दवाई का प्रचार करे तो उनके कुत्तों पर भी दवाई का नाम, टोपी पर भी दवाई का नाम, छाता लगाये हो तो उसमें दवाई का नाम लिखा रहता है। इस तरह का वे सारा रूपक बना लेते हैं। यह तो उसका बनावटी रूप है, किंतु ज्ञानी का तो सारा रूपक अंतर और बाह्य ज्ञानचेतना रूप है। यह मात्र ज्ञाता रहता है। इसी का दृष्टांत द्वारा कुंदकुंदाचार्यदेव कह रहे हैं।