वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 320
From जैनकोष
दिट्ठी जहेव णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव।
जाणइ य बंधमोक्खं कम्मदुयं णिज्जरं चेव।।320।।
आत्मा के अकर्तृत्व व भोक्तृत्व में दृष्टि का दृष्टांत―जैसे दृष्टि बाह्य पदार्थों को करती नहीं है मात्र जानती है भोगती भी नहीं, इसी प्रकार यह ज्ञान बंध मोक्ष उदय निर्जरा किसी का भी न कर्ता है, न भोक्ता है किंतु जानता है। एक दृष्टांत देते हैं आँख का। दृष्टि कहो, आँख कहो, नेत्र कहो, नयन कहो, चक्षु कहो सब एकार्थक है। जैसे यह आँख दृश्य पदार्थों से अत्यंत जुदा है। आप वहां भींत तक देख रहे हैं पर आँख यहीं की यहीं धरी है। जरा सी भी दूर नहीं खिसकी। तो दृश्य पदार्थों से यह आँख अत्यंत भिन्न है। अत: दृश्य पदार्थ का न यह आँख कुछ करने में समर्थ है और न भोगने में समर्थ है। इसलिए दृश्य पदार्थ को भाव देखते ही हैं, किंतु न करते हैं, न भोगते हैं।
दृष्टि के कर्तृत्व व भोक्तृत्व मानने पर आपत्ति―अगर यह आँख दिखने में आने वाली चीज को करने लगे और भोगने लगे तो क्या विडंबना हो जाय, उसका एक उदाहरण लो। जैसे इस आँख ने आग को देखा तो यह बतलावो कि यह आँख आग का कर्ता है या भोक्ता है? यदि आँख आग को करने लगे तो फिर चूल्हा फूँकने की जरूरत न रहेगी क्योंकि आग अगर चूल्हे में कम हो जाय तो तेज आँख करके आग को देखने लगें क्योंकि आँख तो आग का कर्ता है। सो कर दो तेज, आग जल जाय, पर ऐसा हो सकता है क्या ? आँख यदि आग को भोगने लगे तो आँखें ही चली जायेंगी। तो यह बात तो जल्दी समझ में आ जाती है क्योंकि अपनी आँख सबको प्यारी है। कोई नहीं चाहता कि मेरी आँख फूट जायें, इस लिए झट समझ में आ जाता है। इसलिए आँख आग को भोगती नहीं है।
दृष्टांत द्वारा आत्मा के अकर्तृत्व का समर्थन―इसी तरह दिखने वाला यह आत्मा परपदार्थों का न कर्ता है, न भोक्ता है, किंतु चेतने का स्वभाव वाला होने से मात्र अपने में उन पदार्थों के जानने रूप से जानता रहता है। अग्नि जब कम हो जाती है तो पंखे से धौंकते हैं। वह उसका निमित्त है जिसे अग्नि से ज्वाला निकलने लगती है, पर अग्नि के बढ़ा देने में, ज्वाला निकलने में तो आँख निमित्त तक भी नहीं बनती हैं। जैसे अग्नि लोहे के टुकड़े में लग जाय तो लोहे का टुकड़ा स्वयं उष्णता रूप परिणम जाता हैं। तो लोहे ने अग्नि का अनुभव कर लिया क्योंकि वह लोहा स्वयं अग्निरूप बन गया है। तो इस तरह यदि आँख आग भोगे तो आँख न रहेगी, न आँख वाला रहेगा। तो जैसे दृष्टि केवल देखने मात्र का स्वभाव रखती है सो वह सबको केवल देखती है, इसी प्रकार ज्ञान भी स्वयं दृष्ट होने से कर्मों से अत्यंत जुदा है। इस कारण निश्चय से कर्मों के करने और भोगने में असमर्थ है। अत: कर्मों को ज्ञान न करता हैं और न भोगता है, किंतु केवल मात्र जानन मात्र का स्वभाव होने से कर्मबंध के अथवा मोक्ष के कर्मोंदय को अथवा कर्म निर्जरा को केवल जानता ही है।
ज्ञानी की अंत: अनाकुलता का एक उदाहरण―भैया ! बहुत से स्थल ऐसे होते हैं कि न कर्ता है न भोक्ता है, किंतु जानता है। जैसे एक स्पष्ट उदाहरण् ले लो दस बीस बार जो लड़की ससुराल जा चुकी है ऐसी लड़की इक्कीसवीं बार भी जा रही है, तो जिस समय जैसा रिवाज है खूब चिल्लाकर खूब रोती हुई―अरी मोरी महतारी फिर जल्दी बुला लियो आदि कहकर कितनी बुरी तरह से वह रोती है और अंतर में परिणाम हर्षपूर्वक जाने का है। तो वह रूदन को न करने वाली है और न भोगने वाली है किंतु वह तो ज्ञाता बन रही है अपने कार्यों की क्योंकि उस रूदन और क्लेश के साथ तो उसकी तन्मयता ही नहीं है और सुनने वाले चाहें दु:ख के मारे आँसू ढालने लगें, देखो इसको बड़ा क्लेश है। ज्ञानी जीव को अपनी आत्मभावना से उत्पन्न हुए आनंदरस का इतना विशाल संतोष है कि किसी भी परिस्थिति में हो, उन सब परिस्थितियों का वह मात्र जाननहार रहता है। उसमें कर्ता और भोक्ता की बुद्धि नहीं लगती।
पारिणामिक स्वरूप―इस प्रकरण में यह बताया गया है कि हे आत्मा तू तो परमार्थत: कर्तृत्व भोक्तृत्व बंध मोक्ष आदि सभी परिणामों से रहित है। तू अपने सत्तासिद्ध शुद्ध उपादान को तो देख। केवल ज्ञाता ही है, ज्ञायक स्वरूप है और ज्ञायक शब्द से भी क्या कहें, वह तो एक अद्भूत नाथ ही है। सर्व विशुद्ध पारिणामिक परमभाव को ग्रहण करने वाले शुद्ध उपादानभूत स्वरूप के मार्ग तक, तू पारिणामिक भाव रूप है। पारिणामिक भाव किसे कहते हैं? जल्दी में लोग यों बोल जाते हैं कि जो बदले नहीं, ध्रुव हो, अचल हो उसे कहते हैं पारिणामिक भाव। यद्यपि यह लक्ष्य भूत भाव का स्वरूप है किंतु पारिणामिक शब्द से सीधा यह ध्वनित नहीं होता, किंतु परिणाम ही जिसका प्रयोजन है उसे पारिणामिक कहते हैं। परिणाम: प्रयोजनं यस्य स: पारिणामिक:। परिणमन परिवर्तन निरंतर प्रतिसमय परिणमते रहना, यह ही जिसका प्रयोजन है उसे पारिणामिक भाव कहते हैं।
परिणाम से परिणामी की रक्षा―वस्तु की सत्ता की रक्षा करने वाला उत्पाद व्यय है। उत्पाद व्यय न हो तो वस्तु की सत्ता न रह सके। अणु पदार्थ किसलिए हैं ? उनमें विशेष प्रयोजन न देखो कि मकान बनाने के लिए हैं या कुछ लोगों के आराम के लिए हैं, नहीं वे तो परिणमते रहने के लिए होते हैं, उनका दूसरा प्रयोजन नहीं और यह जीव किसलिए है? क्या राज्य करने के लिए है? क्या धनी बनने के लिए है? क्या नेता होने के लिए है ? क्या झगड़े टंटा करने के लिए है ? नहीं। यह जीव भी अपने परिणमते रहने के लिए है। जीव का अपना परिणमता रहना क्या है? अपने सत्त्व के कारण, अपने द्रव्यत्व गुण के कारण, पर के संबंध बिना स्वयं परिणमते रहना, उसे कहा है परिणाम। वह परिणमन वहां अभेदरूपसा बन जाता है। उसके पृथक् वर्णन किया जाना अशक्य है। अगुरूलघुत्व गुण के कारण जो जीव का परिणमन है वह है जीव का प्रयोजन सो पारिणामिक भाव वह है कि जिसके ये प्रयोजन चलते रहें, परिणमन। तो है अनित्य और जिसके चल रहा ऐसा कहने से ही स्वयं हो गया नित्य।
स्वभावदृष्टि के उद्यमन की शिक्षा―ऐसे स्वभाव को ग्रहण करने वाली दृष्टि से निहारो तो जरा, यह कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बंध, मोक्ष सर्वकल्पनावों से शून्य है। अंतर में स्वरूप निरखा जा रहा है। जो अंतर की कणिका ज्वलित होकर इतना विशालरूप बना सके कि सर्व विश्व में व्यापक बन जायेगा। ऐसा मात्र ज्ञाता दृष्टा यह मैं आत्मा हूँ। सो इस दृष्टांत से यह पूर्ण निश्चय बना लेना कि जैसे आँख सबको देखकर भी सबसे अलग है, करने और भोगने का तो वहां रंच सवाल ही नहीं है। इस प्रकार यह मैं आत्मा अथवा यह मैं ज्ञान समस्त पदार्थों को जानकर भी समस्त पदार्थों से अत्यंत जुदा हूँ। इसको करने और भोगने का तो यहां सवाल ही नहीं पैदा हो सकता है, ऐसे कर्तृत्व और भोक्तृत्व से रहित अपने ज्ञानस्वरूप का निश्चय करके आत्मस्थित रहने का उद्यम करना है।
आत्मा को कर्ता ही मानने में मोक्ष का अभाव―इस प्रकरण में यह बात बतायी जा रही है―आत्मा अकर्ता है और अभोक्ता है किंतु मोही जीव अज्ञान अंधकार से व्याप्त होकर आत्मा को कर्ता देखते हैं, ऐसे जीवों का, चाहे वे मोक्ष भी चाह रहे हों तो भी लौकिक पुरूषों की भांति मोक्ष नहीं होता है। जैसे लौकिक पुरूष अपने सुख दु:ख आदि सब बातों में भगवान को कर्ता मानते हैं, सुख दिया तो भगवान ने, दु:ख दिया तो भगवान ने और लड़का मारा जिलाया तो भगवान ने और लड़का पैदा किया तो भगवान ने। अपनी सारी बातों को जो भगवान की की हुई मानता है जैसे उन्हें यह गुंजाइश नहीं है कि वे अपने स्वरूप में मग्न हो सकें और इसी कारण मोक्ष होना असंभव है, इसी प्रकार जो स्वरूपत: अपने आत्मा को विभावों का कर्ता देखते हैं―मेरा ही तो राग करने का काम है, मेरा ही तो विषय भोगने का काम है, इस तरह जो अपने को कर्ता मानते हैं उनको भी मोक्ष नहीं होता है। इस बात को आगे की गाथा में कहा जा रहा है।