वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 326
From जैनकोष
एमेव मिच्छदिट्ठी णाणी णिसंसयं हवदि एसो।
जो परदव्वं मम इदि जाणंतो अप्पयं कुणदि।।326।।
मिथ्यादृष्टि के अनंग का अंगीकरण―इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जो पुरूष होता है वह ऐसा ही जानकार होता है जैसा कि दृष्टांत में बताया है जो परद्रव्य को यह मेरा है ऐसा अपना बनाता है वह ज्ञानी, वह आत्मा मिथ्यादृष्टि होता है। कहते हैं ना अंगीकार करना, स्वीकार करना। अंगीकार का अर्थ है कि जो अंग नहीं हैं उसको अंगरूप बनाना। जो मेरा अवयव नहीं है, मेरा देह नहीं है, मुझसे भिन्न है उसको अपना अंग बना लेना उसका नाम है अंगीकार। और स्वीकार का अर्थ है, जो स्व नहीं है उसको स्व करना। स्व की कल्पना करना, इसका नाम है स्वीकार। तो यह ज्ञानी पदार्थ अर्थात् आत्मा सबसे निराला पदार्थ है, वह परद्रव्यों का कर्ता नहीं हैं, किंतु विकल्प करता है कि यह मेरा है। वस्तुत: परमाणु मात्र भी इसका नहीं है। मोटे रूप में सब दिखता भी है, जो होता कुछ तो साथ ले जाते ना मरने पर। तो मरने पर तो यह देह तक को भी नहीं ले जाता है।
मोही का हाल―कल एक भाई बता रहा था कि हम लोग ऐसे हैं कि जिंदा भी घर नहीं छोड़ते और मरकर भी घर नहीं छोड़ना चाहते। जब हम मरकर भी घर नहीं छोड़ना चाहते तो कुटुंबी लोग हमको बांधकर मरघट ले जाते हैं, कि तू मरकर भी नहीं घर छोड़ना चाहता है। जिंदा नहीं छोड़ा न सही, पर तू मरकर भी घर नहीं छोड़ता। यह बात है। जिंदा में तो कुछ थोड़ा सा ख्याल भी कर लिया जाता है, इसलिए बोल देते हैं कि हम घर छोड़े देते हैं। यह चाहे मात्र स्त्री को ड़राने भर के लिए हो। कहते है कि अब हम होते हैं विरक्त, पर मरने पर भी यह घर नहीं छोड़ना चाहता है तो लोग इसे जबरदस्ती घसीट कर बांधकर ले जाते हैं। यह एक कवि का अलंकार है।
आत्मवैभव की दृष्टि―भैया !ये सुख दु:ख क्या चीज हैं? जहां अपने को माना कि मैं सबसे न्यारा केवल ज्ञानानंदमात्र हूँ। मुझमें किसी का भार नहीं है। दूसरे का उदय जैसा है उसके अनुसार उनकी बात चलती हैं। मैंतो एक ज्ञानानंदस्वाभावी हूँ, अपने में परिणमने वाला हूँ। हिम्मत करे कोई ऐसी। अपने आप को अकिंचन सुरक्षित माने, अपने को अपना ले तो कोई संकट नहीं रह सकता। 24 घंटे में कुछ क्षण तो अपनी ऐसी दृष्टि रखनी चाहिए, अन्यथा रात दिन की बेचैनी व अज्ञानता बढ़ाते जावोगे और फिर अपनी सावधानी का कोई अवसर न पावोगे। यह मंदिर का आना और सामायिक का करना आदि ऐसा ध्यान बनाने के लिए ही है, ऐसा ध्यान बने कि मेरा कहीं कुछ नहीं है। मैं तो ज्ञानानंद के अनंत वैभव से भरपूर हूँ।
निर्भारता के दर्शन का यत्न―भैया ! किसका भार मानते हो सब जीवों का अपना-अपना उदय है। पुत्र कुपूत तो क्यों धन संचै, पुत्र सुपूत्र तो क्यों धन संचै। और धन वाली बात तो बड़ी बेढ़व बात है। आज क्या है और कल क्या हो जायेगा ? लोग अपने पुत्र पौत्रों के ख्याल से धन का संचय बनाते हैं। यदि पुत्र कुपूत बन जाय तो आप कितना ही धन जोड़ लें, वह चंद दिनों में ही बरबाद कर देगा। और पुत्र सपूत है तो तुम धन संचय न भी करो तो भी उसका पुण्य पिता उसका बुद्धिबल उसका सहाय होगा और वह कमाई कर लेगा। सबका अपना अपना भाग्य लगा है, कोई किसी के भाग्य का अधिकारी नहीं हैं।
दो फूल साथ फूले किस्मत जुदी जुदी है―दो भाई हैं, एक भाई कुछ बनता है, एक भाई कुछ बन जाता है। दो फूल एक साथ फूले किंतु उनकी किस्मत जुदी-जुदी है। एक तो वहीं नीचे पड़कर सड़ जाता है और एक बड़े पुरूषों के गले में शोभा देता है। दोनों एक एक फूल एक पेड़ में फूले, मगर उनका जुदा-जुदा भाग्य । यह तो पुण्य की कोई बात नहीं है कि फूल अगर गले में पड़ गया तो उसके पुण्य का उदय है। उनका पुण्य पाप उनके अनुभव के अनुसार होता है और वहां देखो तो पुण्य के उदय तो प्राय: दु:ख देने के लिए आते हैं। गुलाब के फूलों को देखो तोड़ लिए जाते हैं। नीले-नीले रंग के फूल जो खेतों में खड़े रहते हैं उन्हें कोई सूँघता नहीं, क्योंकि गुलाब के फूल के पुण्य का उदय है, सो वह असमय में ही तोड़ लिया जाता है, और वे नीले नाक के आकार के जो फूल हैं उन्हें कोई देखता भी नहीं है। तो क्या पुण्य और क्या पाप? अपना भाव संभाला हुआ है तो उसमें हित है और अपना वर्तमान भाव गिरा हुआ है तब उसमें अहित है।
विपरीत आशय―अज्ञानी जन ही व्यवहार में विशेष मोही बनकर परद्रव्यों को ‘यह मेरा है’ इस प्रकार देखते हैं परंतु ज्ञानी जीव जो कि निश्चय स्वरूप के दर्शन से प्रतिबद्ध हुए हैं वे परद्रव्य के एक अणुमात्र को भी ‘मेरा है’ इस प्रकार नहीं देखते हैं, इस कारण जैसे यहां लोक में कोई व्यवहार में विमूढ़ हुआ पुरूष जो राज्य के याने पर के गांव में रहने वाला है वह इस प्रकार अपनाविश्वास करता है कि यह मेरा ग्राम है तो ऐसा देखता हुआ वह मिथ्यादृष्टि वाला है। इस ही प्रकार यदि ज्ञानी भी किसी प्रकार व्यवहार में विमूढ़ होकर परद्रव्यों को ‘यह मेरा है’ इस प्रकार देखे तो वह भी चूँकि नि:शंक होकर परद्रव्य को आत्मरूप किए है इस कारण मिथ्यादृष्टि होता है। जो पर को निज जाने और निज की खबर ही न रखे वही जीव मिथ्या आशय में आता है। इस कारण इस तत्त्व को जानता हुआ पुरूष सबको ही यह परद्रव्य है, मेरा नहीं है, ऐसा जानकर, लौकिक और श्रवण दोनों में ही जो परद्रव्य में कर्तृत्व का व्यवसाय होता है वह उनके सम्यग्दर्शन रहित होने के कारण होता है, ऐसा निश्चय करो।
वस्तु की स्वचतुष्टयमयता―जो पदार्थ जैसा है, जितना है उतना न समझकर अधिक समझना, कम समझना सो तो विपरीत आशय है। प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप है, स्वकीय द्रव्य क्षेत्र काल भाव का कोई पदार्थ उल्लंघन नहीं करता। जैसे यहीं देख लो, चौकी है, तो यह अपने गुण पिंड में ही है, इसका जितना विस्तार है उतने में ही है। इसका जो वर्तमान परिणमन है उसमें ही है और जो इसकी शक्ति खासियत है उतने में ही है।
देखो, यह प्रकाश किसका―अच्छा यहां जल रही बिजली का लट्टूबतावो कितना बड़ा है? होगा कोई चार छ: अंगुल का गोल। इसके भीतर जो तार जल रहे हैं, जितने पतले तार हैं, उतनी ही बड़ी है यह बिजली। उससे बड़ी नहीं है। तो अपना तार मात्र जो यह प्रकाशक बिजली है इसका द्रव्य कितना हुआ ? जितना कि वह तार है, जगमग करता हुआ, जलता हुआ तार मात्र ही है, लट्टू है। इसका विस्तार कितना है?जितना जलते हुए तारों का विस्तार है और परिणमन उन तारों का ही है और उसकी शक्ति उसकी खासियत उन तारों में ही है। ध्यान में आया। और यह जो इतना प्रकाश फैला है यह किसका है? यह प्रकाश जो फैला है चौकी पर वह बिजली का नहीं है, इस पुस्तक पर जो प्रकाश है वह प्रकाश पुस्तक का है, बिजली का नहीं है क्योंकि अभी तो तुमने कहा था कि जितना तार है बस उतनी भर बिजली है। उसकी सब चीजें बस तार भर में रह गयी। तार से आगे उसका कुछ नहीं है। तार से आगे उसका स्पर्श नहीं है, रूप नहीं है, गंध नहीं है, प्रकाश नहीं है। फिर यह प्रकाश किसका है? जिस चीज पर प्रकाश है उस की चीज का प्रकाश है।
बतावो यह लंबी जगमग और वह छाया किसकी―इस प्रकाशक का निमित्त पाकर यह वृक्ष भी प्रकाशित हो गया, यह जो आपके सामने शीशम का पेड़ है प्रकाशित है और शीशम के पेड़ और बिजली के बीच में प्रकाश नहीं है और यदि है प्रकाश तो वह रास्ते में जो सूक्ष्म पुद्गल मैटर पड़े हुए है उनके है। कुछ अजबसा न मानना, अभी सब बातें सामने आयगी। इस माइक को देखो उस वृक्ष पर छाया है। दिख रही है ना, तो वह जो छाया है वह किसकी है? यह माइक की है ना। इसका प्रकाश कितना है जितना कि यह माइक का डंडा है। लगभग तीन फिट और इसका क्षेत्र कितना है? उतना है। इसका प्रदेश पर्याय प्रभाव सब उतने में ही हैं जितने में यह डंडा है और इसकी खासियत विशेषता गुण शक्ति उतने में ही है जितने में यह डंडा फैला हुआ है। तो इस डंडे की और माइक की कुछ चीज बाहर नहीं है क्या ? कुछ नहीं है। और यह छाया? यह छाया उस वृक्ष की ही है अथवा पत्रों की ही है जो अँधेरा रूप परिणम रहे हैं। बात यह हुई कि इस माइक का निमित्त पाकर वे पत्ते छायारूप बन गए हैं, सो चूंकि निमित्त पाकर ही बन पाये हैं इस कारण व्यवहार में उसे माइक की छाया कहते है।
कर्तृकर्मत्वभम्रबुद्धि का मूल में मूल बेचारा निमित्तनैमित्तिक भाव―इसी तरह यह जो प्रकाश फैला है तो यह प्रकाश इस बिजली का निमित्त पाकर फैला है। इसलिए लोग इसे बिजली का ही प्रकाश बताते हैं, पर प्रत्येक द्रव्य अपने ही द्रव्य क्षेत्र काल भाव में है। हम आपको कुछ गाली के शब्द बोल दें और आप गुस्सा हो जाए तो बतावो यह गुस्सा किसका है ? तो व्यवहार विमूढ़ कहेंगे कि यह गुस्सा गाली देने वाले का है। यह गुस्सा गाली देने वाले ने कराया है। गाली देने वाला जितना है उतने को देखिये। गाली देने वाले की सब बातें द्रव्य गुण पर्यायें द्रव्य क्षेत्र काल भाव इस गाली देने वाले में ही समाया हुआ है, उससे बाहर नहीं है। हुआ क्या, गाली देने वाले का निमित्त पाकर इसका क्रोध परिणमन हुआ है सो कर्ता कर्म का जो जगत में भ्रम फैला है उसका कुछ मूल नींव बन सकता है तो निमित्तनैमित्तिक संबंध बन सकता है। किसी बात से यह बड़ा भ्रम बढ़े, वह बात है निमित्तनैमित्तिक भाव।
रागद्वेष के नशे में सुध की विसर―समस्त परद्रव्य स्वतंत्र हैं। वे अपने अपने स्वरूप में रहते हैं। किसी का कोई कुछ नहीं लगता। जब रिश्तेदारों से आपस में झगड़ा हो जाता है तो कहते हैं कि यह रिश्तेदार हमारा नहीं हैं। होगा कोर्इ। जब भार्इ भाई में बिगड़ जाती हैं तो कहते हैं कि यह हमारा भाई नहीं है, हम तो अकेले ही हैं। तो बिगाड़ पर तनिक सुध आती है। सो सुध नहीं आती। पहिले राग के नशे में बोलता था, अब द्वेष के नशे में बोलता है। सुध अभी नहीं आयी।
सम्यक्परिज्ञान के मोहविनाश की साधकता―भैया ! यथार्थ ज्ञान ही मोह को मिटाता है। भगवान की भक्ति में भी मोह को दूर करने की साक्षात् शक्ति नहीं है। प्रभु का अनुराग भी अब हमें अपने स्वरूप की याद दिलाकर मोह मिटाने में कारण बना तो यह इन्डायरेक्ट हुआ, पर भक्तिरूप परिणाम अनुरागरूप परिणाम मोह को मिटाने वाला साक्षात् नहीं होता। मोह को मिटाने वाला भेदविज्ञान ही होता है। हम आदर्शरूप भगवान की स्वच्छता का स्मरण करके कर्म और रागादिक विभावों से पृथक् अपने आपके आत्मस्वरूप का स्मरण करते हैं और मोक्षमार्ग में बढ़ते हैं। इसको मार्ग में ले जाने वाला हमारा ज्ञायकस्वरूप है।
बुद्धिशब्दार्थात्मकता―भैया ! देखो तीन तरह की बातें होती हैं―शब्द अर्थ और ज्ञान। जैसे चौकी तीन तरह की है―शब्द चौकी, अर्थ चौकी और ज्ञान चौकी। थोड़ा दार्शनिक विषय हैं, सावधानी से सुनने पर सब समझ में आता है। अपनी बात समझ में न आए और सोना, चाँदी, कपड़ा, पैसा, इनकी बातें समझ में आए यह तो हम नहीं मानते। सोना चाँदी कपड़े की समझ में भी आपकी ही समझ आपमें रही है। उस जड़ पदार्थ से समझ निकलकर आपमें नहीं आती है। अपने निज तत्त्व की पहिचान तो समझ में यों जल्दी आनी चाहिए कि यह ज्ञान और ज्ञेय दोनों निकट हैं। वहां तो ज्ञान से ज्ञेय दूर है। तीन प्रकार चीजें है। शब्द चौकी क्या ? चौ और की। लिख दिया हाथ से चौ की। क्या हुई चौकी। कागज पर लिखकर आपसे कहेंगे कि यह क्या है ? तो आप क्या कहेंगे? चौकी। अरे चौकी है यह तो इस पर थाली धरकर खा लो। क्योंकि भोजन के लिए तुम्हें चौकी चाहिए थी सो तुम्हें दे दिया। अरे तो यह शब्द चौकी है, यह काम न आयेगी। आपका दूध चाहिए तो दूध कहां से निकलता है ? गाय से। गाय शब्द को कागज पर लिख दिया, गा य और आपसे कहें कि अच्छा इस गाय से दूध निकालो, तो क्या उस गाय से दूध निकालकर पी लोगे ? नहीं। क्यों ? यों कि उसमें अर्थ क्रिया न होगी क्योंकि वह शब्दरूप है और अर्थचौकी यही है जिस पर काम होता है। अर्थगाय वही है जो चार टाँगे वाली हैं, उससे दूध निकालो और पियो। तो यह अर्थरूप हुआ और ज्ञान चौकी―इस चौकी के बारे में जो हमको समझ बन रही है वह समझ है ज्ञानचौकी।
जीव में किस चौकी का अनुभव―अब परमार्थ से यह बतावो कि हम शब्दचौकी में घुले मिले हैं या अर्थचौकी में घुले मिले हैं, या ज्ञान चौकी में घुले मिले हैं ? शब्दचौकी में तो नहीं मिले हैं, अर्थचौकी में भी नहीं मिल सकते, परद्रव्य है, उसका मुझमें अत्यंताभाव है। हां ज्ञानचौकी में उस काल में हम मिले जुले हैं। तो हम पर जो कुछ प्रभाव होगा, तरंग होगी वह ज्ञानचौकी के कारण होगी। शब्दचौकी या अर्थचौकी के कारण न होगी।
बेटा की त्रियता―बेटे भी तीन हैं जिसके तीन बेटे हों उनको नहीं कह रहे हैं (हंसी)। शब्द बेटा अर्थ बेटा और ज्ञानबेटा। एक कागज पर लिख दें-बे और टा और आपसे कहें कि यह क्या है? आप कहेंगे बेटा। जैसे एक कागज पर लिख दिया कि हम मूरख हैं, पढ़े नहीं हैं। और 7-8 क्लास वाले लड़कों से पढ़ावें कि पढ़ो, इसे पढ़ना है तो वह पढ़ता है कि हम मूरख हैं पढ़े नहीं हैं।.... अरे तो पढ़ तो।….. हम मूरख हैं पढ़े नहीं हैं। अरे भाई पढ़ा तो वही जो लिखा है। तो शब्द बेटा तो आपके काम में नहीं आ सकता। बूढ़े हो जाए तो लाठी पकड़कर ले जाय, यह काम तो शब्द बेटा न कर सकेगा। प्यास लगी हो तो गिलास ले आए, पानी पिला दे, यह काम शब्द बेटा नहीं कर सकता और अर्थ बेटा, मायने जिसके दो टाँग हैं, जो घर में रहता है या यहां बैठा है वह है अर्थ बेटा मायनेपदार्थभूत। सो कर्म भी आपसे अत्यंत जुदा हैं । उसके परिणमन से आपमें कुछ नहीं होता है। ज्ञानबेटा क्या ? उस बेटा के संबंध में जो आपका विकल्प बन रहा है वह विकल्प है ज्ञानबेटा। आप राग कर रहे हो तो ज्ञानबेटा में कर रहे हो, न अर्थबेटा में राग करते हो, न शब्द बेटा में करते हो।
नाम के विकल्प का राग―जो लोग भींत बना देते हैं और वहां नाम खुदा देते हैं। भींत जानते हो किसे कहते हैं? भींच करके जिसमें ईटें लगायी जाती हैं उसे भींत कहते हैं। अब नाम खुदा दिया तो वह नाम का राग करता है। क्या वह उन शब्दों में राग करता है? शब्दों में राग कर ही नहीं सकता है, किंतु उन शब्दों के सहारे जो अपने आपमें विकल्प बने हैं उन विकल्पों में राग मच रहा है। हम आप अपने से बाहर कहीं भी कुछ नहीं कर सकते। व्यवहार विमूढ़ पुरूष परद्रव्यों को मेरा है इस प्रकार देखता है, किंतु जो प्रतिबुद्ध है, वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानता है वह परद्रव्यों को मेरा है ऐसा नहीं कहता है।
चोरी―चोर किसे कहते हैं? जो परवस्तु को अपनी मान ले सो चोर है। जो लोग चोरी करते हैं, दूसरों के घर से चीज उठाकर अपने घरमें धर लेते हैं उन्होंने क्या किया ? चीज तो छू ही नहीं सकते, चीज उठा ही नहीं सकते, चीज धर ही नहीं सकते। यह तो निमित्तनैमित्तिक भाव में हो रहा है। तब क्या किया उन चोरों ने ? पर की चीज को यह मेरी हो गयी अब ऐसी उनमें मान्यता आ गयी, इस कारण वह जीव चोर है।
चोरी का अव्यपदेश―पर-चीज में जिसके अपनी मान्यता न बने तो चोर नहीं है। जैसे हम और आप बैठे-बैठे बातें कर रहे हैं। बातें करते करते में यों ही बिना ही ख्याल के जैसे कि अनुभाव हो जाता है, आपकी जेब में से फौन्टिन पैन निकाल लें और बातें करते जा रहे हैं, फौन्टिन पैन लटकाते जा रहे हैं, आपसे बातें करते जा रहे हैं, बात जब पूरी हो गयी तो आप अपने घर चले गये। हम अपने स्थान लौट आए। फौन्टिन पैन मेरे ही पास रह गया। ऐसी स्थिति मेंशायद आप हमें चोर न कहेंगे, क्योंकि उस फौन्टिन पैन में यह मेरी हो गयी, ऐसा मैंने न भाव किया और न आप समझ रहे हैं।
चोरी का व्यपदेश―भैया ! एक फौन्टिन पैन को देखकर क्योंकि बढि़या खरीदा है, मन में विकल्प आ जाय कि यह तो मेरी जेब में आ जाना चाहिए तो वह चोर हो गया, परद्रव्य को अपनाने का विकल्प करले और पीछे से बैठकर धीरे से फौन्टिन पैन निकाल रहे हैं। इतने में आप सचेत हो गए तो हम कहेंगे कि हम तो आपकी परीक्षा कर रहे थे कि आप जान पाते हैं या नहीं। अगर निकल आने पर आप जान न पाते तो हमारी हो ही जाती, नहीं तो आपकी परीक्षा का बहाना आपके पास है। तो अंदर में परद्रव्यों को अपना बना लेने का परिणाम जिनके जगता है वे सब चोर हैं। अब यों देखो कि चोरों की कितनी संख्या है? मेरी कमीज, मेरी धोती, मेरा लड़का, मेरी लड़की, ये परद्रव्यों को अपनाने के ही अंतर में विकल्प हैं। तो परमार्थ से तो चोर हैं ही। साधुता तो वह है कि अच्छे व्यवहार में रहकर अंतर में ऐसी सावधानी हो कि हैं सब भिन्न भिन्न। मेरा जगत में कहीं कुछ नहीं है।
पर के कर्तृत्व का अनवकाश―किसी भी एक वस्तु का किसी भी अन्य वस्तु के साथ संबंध सर्व प्रकार से निषिद्ध किया गया है। जब वस्तु भिन्न भिन्न हैं तो उनमें कर्ता कर्म की घटना नहीं हो सकती। इस कारण हे लौकिक जनों और ऐ श्रमणों आत्मावो ! तुम अपने आपको अकर्ता ही देखो। देखो धर्म की बात इस व्यावहारिक जीवन में कुछ न उतरे तो उससे शांति नहीं आ सकती। प्रथम तो आजीविका के साधनों में भी इतनी आसक्ति और अनुरागता नहीं होनी चाहिए कि चाहे किसी को कष्ट पहुँचे, अलाभ मिले या कुछ हानि होती हो तो उसमें विवाद कर उठे, क्लेश मानें ऐसा आजीविका के साधनों तक में भी निज और पर का अधिक भेद न होना चाहिए और फिर धर्म की किसी बात में ही यदि निज और पर का भेद बना ले जायें कि यह मेरी संस्था है, यह उनकी है, ऐसा विसंवाद यदि है तो आप ही सोच लो कि धर्मपालन के निमित्त अपनी व्यवहारिकता कितनी बनायी ?
भेदविज्ञान के प्रायोगिक रूप की आवश्यकता―मंदिर में खूब विनती कर आए, भक्ति की, पूजा की और मंदिर से निकलते ही किसी भिखारी ने कुछ माँग दिया तो वहीं नाराज होने लगे। उसको दुदकारने लगे। इस मंदिर में घंटे भर रहते थे तो उसका असर 1 मिनट को भी नहीं होता क्या ? हमें जगत को असार जानकर अपनी उदारता का उपयोग करना चाहिए। किस को अपना मानना है ? किससे अपना हित हो सकता है? सर्व परद्रव्य हैं। यदि यह किसी के उपयोग में आता है तो खुशी होनी चाहिए। आने दो उपभोग को, विनाशीक पदार्थों से यदि किसी अविनाशी तत्त्व का भला होता है तो उसमें क्या है ? सो परद्रव्यों को ‘यह मेरा है’ ऐसा अंतर में भ्रम न रखना चाहिए। जब एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ किसी प्रकार का संबंध नहीं है तब ज्ञानी जीव कैसा निर्णय रखता है? इस बात को अब कुंदकुंदाचार्य देव कह रहे हैं।