वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 349
From जैनकोष
जह सिप्पिओ दु कम्मं कुव्वदि ण य सो दु तम्मओ होदि।तह जीवोवि य कम्मं कुव्वदि ण य तम्मओ होइ।।349।।
पर के द्वारा अन्य पर की क्रिया किये जाने का अभाव―देखिये झगड़े जितने होते हैं वे इस अभिप्राय के झगड़े होते हैं कि मैं दूसरे को कुछ कर सकता हूँ, या दूसरे ने मुझे कुछ किया है। बस इस आशय से झगड़े चलते हैं और वहां झगड़ा करने वालों को देखो तो एक दूसरे का कुछ भी नहीं कर रहा है। झगड़ा करने वाले अपने आपमें ही मन की, वचन की क्रियाएँ करके रह जाते हैं। परमार्थत: तो मन, वचन, काय भी आत्मा में नहीं। फिर भी सिवाय अपने हाथ फटकारने के दूसरे में तो कोई कुछ कर नहीं सकता। सिवाय अपने मन में कुछ चिंतन बनाने के दूसरे का कोई कुछ कर नहीं सकता। अपने में ही जैसा भाव भर गया उसके अनुसार ही वचन निकले, इसके सिवाय दूसरे का और कुछ तो किया नहीं जा सकता।
शांति के लिये वस्तुस्वातंत्र्य के श्रद्धान की आवश्यकता―भैया ! जो कुछ कोई करता है अपने में करता है, फिर यह रोष क्यों आ रहा है ? इस कारण रोष आ रहा है कि भ्रम बन गया कि इसने मेरा बिगाड़ किया। अरे दूसरे ने मेरा बिगाड़ नहीं किया। दूसरे ने अपने आपमें बुरा विचार बनाकर खुद का बिगाड़ किया, मेरा बिगाड़ नहीं किया। इस ज्ञान पर जब टिक नहीं पाते हैं तो अग्नि के वेग की तरह अंतर में प्रेरणा और ज्वाला उद्गत होती है। उसे नहीं सह सकते हैं। तो नाना क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इसलिए बड़ी अच्छी तरह से जिंदगी बितानी हो, शांति से रहना हो, सुख पाना हो तो यह श्रद्धान करो कि हम जो कुछ करते हैं, सो अपना करते हैं। हम दूसरे का कुछ नहीं करते। दूसरे जो कुछ करते हैं वे अपना करते हैं, मेरा कुछ नहीं करते। उदय ही हमारा खराब होगा तो हमारे बिगाड़ में दूसरे निमित्त होंगे। सो हमें दूसरों पर क्या रोष करना ? अपने पूर्व जन्म की करनी पर रोष करो। अपने वर्तमान अज्ञान पर रोष करो। दूसरों पर रोष करने से कुछ नहीं निकलता बल्कि पापबंध होता है, असाता वेदनीय का बंध होता है जिससे आगामी काल में भी और क्लेश भोगने होंगे।
पर के संबंध पर एक दृष्टांत―इस प्रकरण में एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं करता, यह सिद्ध करने के लिए एक दृष्टांत दिया जा रहा है। जैसे सोने का आभूषण बनाने वाला सुनार जब कि कुछ गहना बना रहा हो, उस समय बतलावो वह सुनार क्या करता है ? क्या सोने को हल्का बड़ा करता है ? नहीं। वह तो केवल अपनी चेष्टा कर रहा है। हाथ उठाया, नीचे किया, अगल किया, बगल किया, देखते जाओ, वह अपने शरीर की मात्र चेष्टा करता है, वह स्वर्ण में तन्मय नहीं हो जाता। तो जैसे स्वर्णकार केवल अपना काम करता है, सोने का कुछ नहीं करता, इसी प्रकार यह जीव केवल अपना कर्म करता है, दूसरे पदार्थ का कुछ नहीं करता। तो स्वर्णकार जैसे सोने में तन्मय नहीं हो जाता, इसी प्रकार यह जीव कर्म में तन्मय नहीं हो जाता।
एक की पर से अतन्मयता―कभी दो की लड़ाई हो रही हो तो उन्हें यह देखते जाओ कि वे दोनों अपने आपमें ही अपना परिणमन कर रहें हैं। इसके अतिरिक्त एक दूसरे का कुछ संबंध नहीं है। पर देखो तो सही कि पर को अपने लक्ष्य में लेकर और अपने विकल्प बनाकर ये किस प्रकार अपना रोष बढ़ा रहे हैं ? निरखते जाओ। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में तन्मय नहीं होता। इसके समर्थन में इस सर्व विशुद्ध अधिकार में सर्व प्रथम पहिली ही पंक्ति में यह बात कह दी गयी थी कि प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्याय से तन्मय होता है, अर्थात् दूसरे द्रव्य की पर्याय से तन्मय नहीं होता। इसका अर्थ यह निकला कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है। जो है वह अपना ही कर्ता है।
कर्ता की साधनों से अतन्मयता―अब यहां कोर्इ यह शंका करे कि खैर सुनार के सोने को तो नहीं बढ़ा दिया किंतु उस हथौड़े द्वारा तो बढ़ा दिया ना, जो हथौड़ा सोने की डली पर चोट कर रहा है उसके द्वारा तो सोना बढ़ गया ना, तो उसके उत्तर में कहते हैं।