वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 380
From जैनकोष
असुहो सुहो व गुणो ण तं भणइ बुज्झ मंति सो चेव।
ण य एइ विणिग्गहिउं बुद्धिविषयमागयं तु गुणं।।380।।
असुहं सुहं व दव्वं ण तं भणइ बुज्झ मंति सो चेव।
ण य एइ विणिग्गहिउं बुद्धिविसय मागयं दव्वं।।381।।
पूर्वोक्त विषयों के असंबंध का उपसंहार ▬पहिले कथन में पंचेंद्रिय के संबंध में वर्णन किया था कि ये विषय अत्यंत भिन्न परिणमन हैं। विषय आत्मा को आग्रह नहीं करते कि तुम हमें सुनो, देखो, सूँघो, चखो या छुवो। और न यह आत्मा ही अपने प्रदेश से चिगकर अपनी अंत:प्रक्रिया छोड़कर इन विषयों को ग्रहण करने के लिए जाता है क्योंकि वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है कि किसी पर के द्वारा कोई परपदार्थ उत्पन्न नहीं किया जा सकता। वे विषय तो अपने परिणमन से परिणमते हैं और यह आत्मा अपने स्वरूप से परिणमता है और अपने-अपने स्वरूप से परिणमती हुई स्थिति में ये विषय ज्ञेय बनते हैं, यह ज्ञाता ज्ञाता बनता है, यहाँ तक तो कोई बात न थी पर जो रागद्वेष की वृत्ति जग जाती है इससे बरबादी है, उसमें अज्ञान कारण है। इस प्रकार विषयों के संबंध में निर्देश किया।
द्रव्य गुण का व ज्ञाता का परस्पर अनाग्रह ▬ अब गुण और द्रव्य के संबंध में बताते हैं। यह जीव परगुणों को परद्रव्यों को जानता है और वहाँ गुण या द्रव्य कोई इस आत्मा से प्रेरणा नहीं करते--जैसे कोई किसी पुरुष का हाथ पकड़ कर कहे कि अमुक काम करो, इस तरह ये गुण और द्रव्य आत्मा से आग्रह नहीं करते कि तुम मुझ को जानो। जैसे ये घटपट आदिक दीपक को आग्रह नहीं करते कि मुझे प्रकाशित करो। और ऐसा भी नहीं है कि यह दीपक अपने स्वरूप से आगे बढ़कर बाह्यपदार्थों को प्रकाशित करने चला जाय। इसी तरह यह भी नहीं है कि यह आत्मा अपने स्वरूप को छोड़कर अपनी स्वरूपवृत्ति को छोड़कर अपने ही इस विकल्पात्मक ही सही परिणमन को तजकर बाह्यपदार्थ ग्रहण करने के लिए जाय, ऐसा नहीं है।
पर के द्वारा पर के अंगीकरण का अभाव ▬ देखो कितनी अद्भूत बात है कि भोजन कर रहे हैं, रस ले रहे हैं, बड़ा आनंद मान रहे हैं, फिर भी वहाँ आत्मा अपने स्वरूपप्रर्वतन से आगे कदम नहीं रख पाता कि रस को छू लेवे। रस को यह ग्रहण नहीं कर पाता, किंतु भीतर अज्ञानस्वरूप हो गया ना तो भी क्या हुआ? इसकी प्रभुता तो देखो, ऐसी सामर्थ्य से उस रस का स्वाद लेता है कि मानो वह परवस्तु को भोग रहा हो, किंतु वहाँ, पर, पर की जगह है, आत्मा आत्मा की जगह है, कोई संबंध नहीं हो रहा है। यह जीव जब परवस्तु के गुणों को जानता है तो वहाँ भी उन गुणोंने इसको यह आग्रह नहीं किया कि तुम खाली मत बैठो, हम को तुम जानो और न यह आत्मा दूसरे पदार्थों के गुणों को जानने के लिए गया किंतु वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है कि अपने आप में अपनी योग्यता से परिणम रहे पर के द्वारा पर का उत्पादन नहीं हो सकता। यह ज्ञाता आत्मा चूँकि ज्ञानस्वभावरूप है अत: जाने बिना नहीं रह सकता। वह तो जाना ही करेगा। अब जानते हुए कि स्थिति में ये गुण ज्ञेय हो गए, यहाँ तक तो ठीक बात थी किंतु जो रागद्वेष उत्पन्न हो जाते हैं वह सब अज्ञान की महिमा है।
धर्मचर्चा में भी झगड़ा हो जाने का कारण ▬ कोई द्रव्यानुयोग जैसे ज्ञान और वैराग्य के विषय वाली चर्चा की जा रही हो। उस प्रसंग में गुणों के स्वरूप की पद्धति से किसी समय कोई मतभेद हो जाये तो गुणों की चर्चा करते-करते कषाय जग जाती है, कलह हो जाती है, यह अज्ञान का परिणाम है। गुणों के संबंध में जो जानकारी बतायी जा रही है, उस विकल्प में इस मोही को आत्मीय बुद्धि हो गयी है, अब मेरा यदि यह मत स्थिर नहीं रह सकता तो हमारा ही नाश हो जायेगा, ऐसाअपने विकल्पों में आत्मसर्वस्व का जोड़ किया है यही तो राग और द्वेष का उत्पादक हुआ। रागद्वेष वृक्ष की शाखा की तरह है और मोह जड़ की तरह है। विभाव वृक्ष की शाखायें ये कषाय हैं और विभाव वृक्ष की जड़ मोह है। जैसे जड़ पानी, मिट्टी आदि का आहार लेकर शाखाओं को पल्लवित बनाए रहती हैं, उन्हें मुरझाने नहीं देती, इसी प्रकार ये विभाव मोह भाव के द्वारा परवस्तुवों को अपनाकर इन रागद्वेषों को पल्लवित बनाए रहते हैं रागद्वेष को सुखने नहीं देते हैं। तो सब ऐबों की जड़ तो मूल में मोहभाव है।
मोहोन्माद ▬भैया ! यह मोह का नशा ऐसा विचित्र है कि एक मिनट भी उतरता नहीं है। और नशा जो खाने पीने से बनते हैं वे कुछ समय को रहते फिर उतर जाते हैं, पर मोह का नशा कितना विचित्र है? घर होगा तो घर में मोह का नाच चलेगा और मंदिर में होगा तो मंदिर में मोह का नाच चलेगा। जायेगा कहाँ प्रक्रियाभेद हो गया। घर में बिना मायाचार के सीधी बेवकूफी कर के मोह किया जाता है और मोह जब बसा हुआ है तो मंदिर में मायाचार कर के अंतर में मोह का नाच कराया जाता है। घर में तो सीधे ही प्रेम की बात कहकर अपना कर मोह कर लिया जाता है और मंदिर में मोही को मोह का रंग जिस पर चढ़ा है, बाहर में ऐसा करना पड़ता है कि लोग जाने कि अब तो शायद यह घर में ज्यादा दिन न रह सकेगा, इसे वैराग्य हो गया है, बड़े गान तान से पूजन करता है, आँखे मींचकर बड़ी देर ध्यान लगाया जाता है । मोह का रंग जिसपर चढ़ा है उसकी बात कह रहे हैं भगवान से मोक्ष की प्रार्थना की जा रही है कि हे प्रभो ! मुझे इसकारागार से निकाल दो लेकिन अंतर में मोहभाव ही पुष्ट किया जा रहा है। खबर घर की है, वैभव और धन संपदा की ही मन में चाह लगी है और यह नाटक भी वैभव बढ़े इसके लिए किया गया। जहाँ यह वैभववृक्ष मोह की जड़ द्वारा परपदार्थों को आहत कर के इन रागद्वेष शाखावों को पल्लवित किए रहते हैं।
विकल्पों का अंगीकरण मूल व्यामोह ▬मोह का नशा जहाँ भी उतर जाता है, घर में कोई समय उतरे, चाहे मंदिर में उतरे, चाहे सफर में उतरे तब उसे विश्राम मिलेगा, आनंद का अनुभव होगा। तो गुण संबंधी ज्ञान कर के भी, चर्चा कर के भी, जानकारी बनाकर भी विवाद उठता है, झगड़े हो जाते हैं, मनमुटाव हो जाता है, पार्टीबंदी बन जाती है, ये सब अज्ञान के ही नाच हैं। गुणविषयक ज्ञान कर के उस ज्ञानविकल्प में आत्मसर्वस्व को जोड़कर लिया गया है, यह है मोह का रूप। जैसे कोई घरविषयक विकल्प कर के उस विकल्प को अपनाता है तो वह लोक में प्रकट मोही कहा जाता है, इसी प्रकार गुणद्रव्यविषयक अर्थ विकल्प में आत्मीयता, ममता कर के इतना ही मात्र मैं हुं, सहजज्ञान स्वरूप को भूल जाता है और इन परभावों को अपनाता है वह भी मोही है।
सर्वप्रसंगों में स्वरूप की पर से अतद्रूपता ▬वस्तुत: घर आदिक पर से कोई मोह कर ही नहीं सकता । कुटंब परिवार में मोह करने की किसी जीव में ताकत नहीं है क्योंकि किसी परवस्तु में मोह किया ही नहीं जा सकता है मोही जीव तो परवस्तुविषयक कल्पनाएं बना कर के मोही बनते हैं। घर को अपना बना ही नहीं सकते । यदि मिथ्यादृष्टि अज्ञानीजन घर परिवार को अपना बना लें या इन में मोह कर लें इन में अपना परिणमन कर लें तो ये तो भगवान से भी कई गुणा शक्ति वाले हो गए। यह मोही अपना काम कर रहा है और परपदार्थ अपना काम कर रहे हैं। अनादि से लेकर अब तक ये जीव कुयोनियों में भटका, नाना उपद्रव्यों में ग्रस्त रहा लेकिन यह यह ही रहा। भले ही विकल्प किया पर यह विकल्परूप ही परिणमता हुआ रहा, पर का कुछ नहीं किया।
परकीय गुण द्रव्य के साथ ज्ञाता का मात्र ज्ञेयज्ञायक संबंध- यह ज्ञाता गुण का भी कुछ नहीं करता केवल ज्ञेय ज्ञायक संबंधवश उन परकीय गुणों को जानता है और साथ में लगा हुआ हो विभाव परिणमन तो उनके संबंध में अपनत्व की बुद्धि करता है। गुण कहते हैं द्रव्य के शक्तिभेद को और द्रव्य कहते हैं उन शक्ति के भेदात्मक पुंज को । द्रव्य गुण जैसे पवित्र तत्त्व जिनसे कोई बिगाड़ संभव नहीं है, हमारे प्रसंग को जो मलिन नहीं बनाते, ऐसे द्रव्यगुण के संबंध में भी यह जीव अज्ञानवश इष्ट और अनिष्ट बुद्धि कर के अपने में विकार उत्पन्न करता है। जैसे कोई परिजन और वैभव में इष्ट अनिष्ट बुद्धि कर ही नहीं सकता, कैसा ही तीव्र मोह हो क्योंकि परवस्तु के द्वारा परवस्तु का उत्पाद नहीं किया जा सकता, किंतु बाह्य विषयों के संबंध में जो जानकारी की और असुहावने सुहावनेपन की अपने में तरंग की, उस ही में इष्ट और अनिष्ट बुद्धि है, परमार्थत: बाह्य पदार्थ कोई भी इष्ट अनिष्ट नहीं है। अपने ही परिणमन से इष्ट और अनिष्ट माना करते हैं।
बाह्य पदार्थ में स्वयं इष्टत्व व अनिष्टत्व का अभाव ▬ भैया ! बाह्य पदार्थ कौन तो इष्ट है और कौन अनिष्ट है? कोई निर्णय दे सकता है क्या? बतावो नीम की पत्ती इष्ट है कि अनिष्ट? आप को तो अनिष्ट है पर ऊँट को इष्ट है और आप को मिठाई इष्ट है या नहीं? इष्ट है पर किसी पित्त की बीमारी वाले को अनिष्ट है। उसे मिठाई खिलाई जाय तो वह फैंक देगा। तो किसी परपदार्थ को आप इष्ट मान सकते हैं और किसी को अनिष्ट, पर वस्तुत: न कोई परवस्तु इष्ट है और न अनिष्ट है। जि से कल्पना से मान लिया कि यह मेरा मित्र है वह तो आप के लिए इष्ट हो गया और जि से मान लिया कि विरोधी है वह आप के लिए अनिष्ट हो गया। यह ज्ञाता तो स्वरूप से जानता है, स्वरूप से जानते हुए के प्रसंग में ये गुण और द्रव्य कमनीय और अकमनीय बनकर ज्ञान में आ जाते हैं पर इतने मात्र से ज्ञान में विकार नहीं होना चाहिए था, किंतु होता है विकार। इसमें कारण अज्ञानभाव है।
ज्ञेय और ज्ञाता की स्वतंत्रता ▬दीपक कैसा उदासीन होकर अपनी दो एक अंगुल की ज्योति में टिमटिमाते हुए अपना काम करता है? यदि कमरे में कोई फूटे घटादिक धरे हों तो क्या दीपक उन्हें मना करेगा या रूठ जायेगा कि हमारे सामने फूटे घड़े मत धरो? वह तो उदासीन है। जो समक्ष आये वही प्रकाशित हो जायेगा। फूटा घड़ा प्रकाशित होने से कहीं दीपक नहीं फूट जाता। किंतु यहाँ देखो तो मकान थोड़ासा गिरे तो यहाँ दिल गिर जाता है। मकान के किसी खूँट में आग लगे तो यहाँ दिल के किसी खूँट में आग लग जाती है। तो जैसा दीपक का और प्रकाश का परस्पर में प्रकाश्यप्रकाशक मात्र संबंध है, तैसा ही संबंध तो इस ज्ञाता का और इन समस्त ज्ञेयों का है। ये ज्ञेय ज्ञान में आते हैं तो आने दो, स्वरूप परिणमन ही ऐसा है, पर यह ज्ञेय बाहर बाहर रहता हुआ ज्ञेय में आता है। अंतर में मिलजुल कर के ज्ञेय में नहीं आता है। जानने मात्र के कारण इस ज्ञाता को विकृत नहीं बनना चाहिए, पर बन रहा है। यह आफत तो सामने ही दिख रही है। इस आपत्ति का कारण केवल अज्ञान भाव है।
स्वरूपविस्मृति में व्यर्थ की उदृंडता ▬ वह अज्ञान भाव क्या है? मैं ज्ञान मात्र हूँ, मैं ज्ञानशक्ति मात्र हूँ, असंबद्ध हूँ, अबद्ध हूं; अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से परिपूर्ण हूँ, मुझ में किसी अन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप प्रवेश नहीं और न होगा―ऐसा सबसे न्यारा और सदा अपने गुणों में समर्थ सत्त्व रखता हुआ स्वतंत्र हूँ। ऐसे माने बिना जो हमारी स्थिति बनती है वह सब अज्ञानभाव है। क्या होगा इस व्यर्थ की उददृंडता का फल जिस में न कुछ आता है, न कुछ जाता है, न इन से मेरे को आगे की कुछ सहूलियत मिलती है, कोरा श्रम ही श्रम है। बल्कि जितनी खुशामद अपने लड़के की की जाती है उस से सोहलवां भाग भी खुशामद किसी दूसरे लड़के की करें तो व्यावहारिकता में भी वह दूसरा लड़ का बहुत अधिक मान लेगा और घर के लडके की खुशामद भी बहुत की जाती है, फिर भी ऐहसान मानना तो दूर रहा वह तो जानता है कि यह तो इन का काम ही था। यह तो अपना ही काम कर रहे हैं। जीवन में जिस से कुछ नहीं मिलता, मृत्यु के बाद तो साथ देंगे ही क्या ?
अज्ञान के त्याग में ही भलाई ▬भैया ! यह यथार्थ बात समझने के लिए कही जा रही है, जिन के लिए आप अपना तन, मन, धन, वचन अर्पित कर रहे हैं वे आप के लिए कुछ न होंगे इस तन, मन, धन, वचन का उपयोग पर के उपकार के लिए हो तो इन के पाने का कुछ लाभ भी है। यदि तन, मन, धन, वचन का उपयोग केवल घर के चार जीवों के लिए ही रहा तो इस ममता से तो अपनी बरबादी ही है। इस अज्ञान में रहकर कहाँ तक समय गुजारा जा सकेगा? अनेक परिस्थितियां आयेंगी संयोगकी, वियोग की, बीमारीकी, उन से कौन बचा सकेगा? यह तो सब दु:खों का घर है। दुनिया दु:खों का घर नहीं, यह जो अज्ञान का मंतव्य है वही दु:खों का घर है। दुनिया के किसी भी पर सत्त्व से मेरा कुछ बिगाड़ नहीं हैं।
उपयोग में विश्वविकल्प भरने से बरबादी ▬ जैसे पानी में नाव तैरती है तो उस से कुछ नाव का बिगाड़ नहीं है, पर नाव में पानी आ जाय तो उस से नाव का बिगाड़ है। इसी तरह यह मेरा उपयोग लोकरूपी सागर में तैर रहा है इससे कुछ आत्मा का बिगाड़ नहीं होता, पर इस उपयोग-नाव में ये लोक के पदार्थ इष्ट अनिष्ट यह समस्त तरंगोंमय जलसमूह यदि प्रवेश कर जाय, भर जाय तो यह उपयोग की नाव में ये लोक के पदार्थ इष्ट अनिष्ट यह समस्त तरंगोमय जलसमूह यदि प्रवेश कर जाय, भर जाय तो यह उपयोग की नाव डूब जायेगी। डूबी ही है। जैसे डूबी हुई नाव जल के भीतर हिलती डुलती चक्कर खाती रहती है इसी तरह इस विश्व में डूबा हुआ यह उपयोग यह आत्मा नीचे ही नीचे पड़ा हुआ चतुर्गतियों में ठोकर खाता हुआ क्लेश पा रहा है। उपयोग में जो इसने अलाबला भर रखा है▬ घर के कुटुंबको, धन वैभव को जो इसने भर रखा है उस से यह डूब गया है और दुखी हो रहा है।
शुद्धस्वरूप की दृष्टि कर के विश्व को उपयोग में भरने से हानि का अभाव ▬कदाचित् यह स्वरूपदृष्टि कर के सब जीवों को अपने चित्त में भरले तो न डूबेगा। जैसे नाव में कहते हैं कि केवल एक भी पापी बैठा हो तो नाव डूब जाती है। ऐसे ही इस उपयोग में जो पापी लोग बैठे हैं उन से यह उपयोग डूब रहा है। बा की आदमी जिन्हें आप गैर मानते हैं आप की निगाहमें उनके साथ ज्ञेय ज्ञायक संबंध रह सकता है। तो जब जो ज्ञेय मात्र रह सके वे आप के बाधक ज्ञेय नहीं हुए और जिन में इष्ट अनिष्ट बुद्धि कर के ज्ञेय बनाया है, जिन का मन रखने के लिए नाना चेष्टाएँ करते हैं, रूठ जायें तो मनाते हैं और शकल देखते रहते हैं कि यह खुश रहे। न जानें कितना बोझ यह लादे हुए अपने को उनके बोझ से डूबा रहे हैं। ये ज्ञेय, ज्ञेय ही रहते तो कोई बिगाड़ न था, पर जहाँ रागद्वेषमय अज्ञान भाव बना उस से ही यह जीव अपना घात किए जा रहा है।
ज्ञानी अज्ञानी की दृष्टि से सिद्वांतविवेचना की पद्धति ▬ पहिले बंधाधिकार में यह बताया गया था कि रागद्वेषादिक परिणामों का यह जीव कर्ता नहीं है किंतु परद्रव्यों के द्वारा उत्पन्न होता है और स्फटिक का दृष्टांत दिया गया था कि जैसे स्फटिक में लालिमा स्फटिक से नहीं उत्पन्न होती है किंतु वह उपाधिभूत डांक के द्वारा उत्पन्न होता है, वहाँ तो यह बताया और यहाँ यह बतला रहे हैं कि रागादिक अपनी ही बुद्धि के दोष से उत्पन्न होते हैं किसी परद्रव्य के द्वारा उत्पन्न नहीं होते विषयों से या कर्मों से या देह से ये रागादिक उत्पन्न नहीं होते, ऐसी परस्पर विरोध की बात कहने में मर्म क्या है? वहाँ रहस्य यह है कि बंधाधिकार में ज्ञानी जीव की मुख्यता से बताया था कि इस आत्मा में रागादिक नहीं हैं। आत्मा के स्वभाव से रागादिक नहीं होते हैं किंतु उपाधि जैसे स्फटिक में रंग उन्पन्न कर दे,इसी प्रकार कर्म उपाधि के स्वभाव से ये रागादिक होते हैं। ऐसा कह कर शुद्ध चित्स्वरूप को एकदम दृष्टि में ले जाने का प्रयोजन था और इस प्रकरण में ज्ञानी जीव की मुख्यता से कह रहे हैं। जो अज्ञानी जीव बाह्य पदार्थों में ही अपने राग और सुख दुःख आदिक का कर्ता मानता है और इसी बुद्धि के दोष से अपना अपराध न मानकर दूसरे पदार्थ का अपराध मानता है कि अमुक विषय के कारण ये मेरे में सुख दु:ख हुए, उस अज्ञानी जीव को संबोधने के लिए यहाँ यह बताया जा रहा है कि किसी विषय या देहादिक से रागादिक उत्पन्न नहीं होते, ये तो अपनी बुद्वि के दोष से हुए हैं।
ज्ञेय व ज्ञाता की स्वतंत्र परिणति ▬ भैया !दर्शन, ज्ञान, चारित्र किसी अचेतन अर्थमें, देहमें नहीं है फिर उन विषयादिक के निमित्त क्या घात करते हैं। जो जीव अपने सुख दुःख रागद्वेष के होने में परवस्तु को ही कारण मानता है वह कभी मोह के संकटों से दूर नहीं हो सकता है। क्योंकि उसे अपने आप के शुद्धस्वरूप का बोध नहीं है। इस प्रसंग में बात यों है कि जैसे बाह्य पदार्थ घट, पट, मेज कुर्सी आदिक, कहीं देवदत्त यज्ञदत्त को जैसे हाथ पकड़कर कार्य कराता है इस तरह ये बाह्यपदार्थ आत्मा पर जबर्दस्ती नहीं करता है। जैसे दीपक पर ये पदार्थ जबरदस्ती नहीं करते कि तुम हम को प्रकाशित करो और न यह दीपक ही उन बाह्ययपदार्थों में प्रवेश कर ग्रहण करने के लिए जाता है। जैसेकि कोई सूई चुंबक लोहे के प्रति उसे ग्रहण करने के लिए जाती है, इस तरह यह उपयोग किसी बाह्य पदार्थ को ग्रहण करने के लिए नहीं जाता है।
वस्तुस्वभाव की अनुलंघ्यता ▬भैया ! वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है कि पर के द्वारा पर उत्पन्न नहीं किया जा सकता। निमित्तनैमित्तिक संबंध केवल है सो बाह्ययपदार्थ घटपट आदिक हों तो न हों तो, ये बाहृपदार्थ अपने स्वरूप से ही प्रकाशमान् होते हैं और उन-उन घटादिक की विचित्रता से नाना प्रकार के सुंदर-असुंदर लंबे चौड़ै भद्दे वे पदार्थ इस दीपक में विकार करने के लिए नहीं आते हैं। इसी प्रकार ये बाह्य पदार्थ सब रूप, रस, गंध, स्पर्श गुण और द्रव्य ये आत्मा को ऐसा आग्रह नहीं करते कि तुम मुझ को सुनो, मुझे देखो, मुझे सूंघो, मुझे चखो, मुझे छुवो अथवा मुझे जानो, ऐसा आत्मा को अपना ज्ञान कराने के आग्रह नहीं करते और न यह आत्मा ही अपने स्थान से च्युत होकर उन पदार्थों को जानने के लिए जाता है। वस्तुस्वभाव ही ऐसा है कि उनमें निमितनैमितिक संबंध है किंतु किसी एक के द्वारा कोई दूसरा उन्पन्न नहीं किया जा सकता है । कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ का कुछ नहीं होता, यह ज्ञान तो अपने स्वरूप से जाननमात्र होता है। ज्ञान तो जानने का स्वभाव लिए हुए है, जो जानने में आ गया आ गया, ज्ञान तो अपने स्वरूप से जाननहार रहता है। सो वस्तु के स्वभाव से नाना परिणाम को किए हुए ये बाह्य पदार्थ सुंदर हों या असुंदर हों, ये ज्ञान के विकार के लिए रंच भी नहीं हैं।
स्वभाव के अपरिचय का महादोष ▬ जैसे दीपक अत्यंत उदासीन है, इसी प्रकार यह आत्मा भी पर के प्रति अत्यंत उदासीन है, फिर भी जो रागद्वेष होते हैं वह सब अज्ञान का स्वरूप जंच रहा है। जो जीव निश्चय मोक्ष मार्गरूप निश्चय कारणसमयसार को नहीं जानता और व्यवहार मोक्षमार्गभूत व्यवहार कारणसमयसार को नहीं जानता वह अपनी बुद्धि के दोष से रागद्वेषरूप से परिणम रहा है। इसमें शब्दादिक विषयों का कोई दूषण नहीं है, दूषण तो हमारा स्वयं का है।
बुद्धिगत दोष की घातव्यता ▬ एक कहावत है कि गधे से न जीते तो कुम्हारी के कान मरोरे। एक कुम्हार को गधेने दोलत्ती मारी तो उसे गधे के कान मरोरने कठिन हो गये क्योंकि वह काटता भी था और लात मारने वाला भी था। सो गधे से न जीत स का तो उसने कुम्हारी के कान मरोर दिए। क्रोध तो भजाना ही था। अपनी बुद्धि का दोष तो दूर नहीं किया जा सकता और बाह्य पदार्थों के संग्रह विग्रह करने का यत्न किया जाता है, सो ये विषयगत पदार्थ आत्मा को क्लेश नहीं पहुंचाते, राग नहीं पहुंचाते क्योंकि उन पदार्थों में अपना गुण है ही कुछ नहीं, फिर भी जो यह दु:ख मच रहा है, इस पर आचार्यदेव खेद प्रकट करते हैं।