वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 391
From जैनकोष
सदो णाणं ण हवइ जम्हा सद्दो ण जाणए किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सद्दं जिणा विंति ।।391।।
शब्द और ज्ञान का व्यतिरेक – शब्द ज्ञान नहीं है क्योंकि शब्द कुछ जानता नहीं है। इस कारण ज्ञान अन्य बात है और शब्द अन्य बात है, ऐसा जिनेंद्रदेव निरूपण करते हैं। पहिले द्रव्य श्रुत का ज्ञान न होने का कथन किया था। द्रव्य श्रुत में अक्षर भी आ गए और शब्द भी आ गए, किंतु वे शब्द तो विशिष्ट शब्द हैं आगम और हितोपदेश संबंधी शब्द हैं। और इस गाथा में शब्द सामान्य की बात कही जा रही है। लोगों को शब्द सुनते ही तुरंत ज्ञान बन जाता है इस कारण यह भ्रम हो गया है कि शब्द से ज्ञान होता है अथवा शब्द ज्ञान है। शब्द भाषा वर्गणाजाति के पुद्गल द्रव्य का परिगमन है। शब्द अचेतन है और ज्ञानचेतना आत्मा के ज्ञानगुण का परिणमन है, अथवा ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। ज्ञान और शब्द में अत्यंत पार्थक्य है। कोई मेल नहीं बैठता है, फिर भी शब्द सुन कर जीव को ज्ञान होता है और कुछ व्यवधान रहित मालूम होता है। इस कारण यह भ्रम हो गया है कि शब्द ज्ञान है और पर शब्द ज्ञान नहीं है।
शब्द और ज्ञान के आधारभूत पदार्थ ― भाषावर्गणा से शब्द परिणमन की व्यंजना स्कंध के संयोग वियोग से उत्पन्न होती है। संयोग में भी शब्द की उत्पत्ति होती है और स्कंधों के वियोग में भी शब्द की उत्पत्ति होती है। मुख से जो कुछ बोला जाता है वह सब स्कंधों के संयोग वियोग वाली बात ही तो है। जीभ, तालु, ओंठ, मूर्द्धा – ये सब स्कंध हैं, पौद्गलिक हैं, इन का कैसा ही संयोग हो, कैसा ही वियोग हो तो वहाँ शब्द उत्पन्न होता है। यह सब हम प्रयोग कर के देखते ही तो रहते हैं। सो शब्द तो भाव और ज्ञान आत्मा के ज्ञान गुण से प्रकट होता है। भले ही छद्मस्थ अवस्था में बाह्य इंद्रिय और मन का निमित्त पाकर इस ज्ञान का विकास होता है, पर ज्ञान का विकास ज्ञानगुण में से ही प्रकट होकर होता है। ज्ञानविकास किसी अन्य पदार्थ से नहीं हुआ करता है। ज्ञान अत्यंत भिन्न है और शब्द अत्यंत भिन्न हैं।
विवाद में शब्दविषय की प्राथमिकता ― भैया ! मनुष्य के अन्य जीवों से राग बढ़ाने के दो ही तो उपाय हैं, देखना और सुनना। जिस का व्यवहार बढ़ता है, गोष्ठी बनती है, मित्रता होती है, प्रेम होता है अथवा दर्शन होता है विरोध होता है किसी भी तरह का जो व्यवहार बनता है उसमें मुख्य कारण दो पड़ते हैं – देखना और सुनना । सो व्यवहार में सब समझते ही हैं। किसी से शत्रुता बढ़ जाय तो उसमें भी दो बातें हुई थीं। कुछ देखा था और कुछ सुना था। किसी से मेल बढ़ जाय तो उसमें भी दो बातें हुई थीं। कुछ देखा था और कुछ सुना था। उसमें भी ये शब्द विषय हमारी प्रीति और दुश्मनी में प्रारंभिक आचरण रूप हैं। झगड़े भी समाज में या घर में हुआ करते हैं। उनका मूल देखना और सुनना है। उनमें भी सुनना प्रथम कारण है, इसी लिए मनुष्यों को यह बड़ी सावधानी रखनी चाहिए कि हमारा बोल कभी ऐसा न हो कि जि से सुनकर औरों को क्लेश हो। व्यवहार में सबसे बड़ी सावधानी यही रखनी है।
वचनव्यवहार का विवेक ― जो शब्द बोलने की सावधानी नहीं रख सकता उस के समान अविवेकी किसे कहा जाये? मनुष्यों में बड़ा वह है जो अपने शब्द संभालकर उपयोग में लाये। कषाय को वश करो और जैसे उचित शब्द हैं वैसा ही बोलने का यत्न करो। कितनी भी गुस्सा क्यों न हो, मन से उस गुस्से को काबू में लाना और वचन उत्तम, सरस, मिष्ठ बोलना, इतनी हिम्मत जो बना सकता है उसे जीवन में आपत्ति नहीं आती। इन शब्दों के दुरुपयोग से बिना ही कारण, कुछ लेनदेन नहीं, कुछ लाभ अलाभ नहीं, पर मूर्खता से अटपट बात बोल दी तो विपत्ति आ गयी, दुश्मनी बढ़ गई और यह मन शल्य में हो गया और कुछ ज्यादा ना किया जाय तो अपने जीवन में एक ही बात ग्रहण कर लें कि कैसी भी गुस्से की स्थिति हो, दूसरे से भली बात बोलना, यह बात यदि कर सकते हो तो यह बड़े हित की बात बनेगी।
बोली से सज्जनता व दुर्जनता की पहिचान - भैया ! बोली से ही मनुष्य की सज्जनता और दुर्जनता जानी जाती है। एक वार्ता चली आयी है कि राजा, मंत्री, सिपाही तीनों कहीं एक जंगल से होकर जा रहे थे, तो एकदम आगे चले गए। फिर मिल गया एक ही रास्ता। इतने में वे तीनों बहुत आगे पीछे हो गये तो उस रास्ते पर एक अंधा बैठा था। उस अंधे से सिपाही ने पूछा कि क्यों बे अंधे, तुझे मालूम है यहाँ से दो आदमी निकल गए क्या? तो अंधा बोला कि नहीं सिपाही जी, अभी तो कोई नहीं निकला। बाद में मंत्री आया, पूछा कि सूरदास, यहाँ से कोई दो आदमी निकल गये क्या? तो अंधा बोला कि नहीं मंत्री जी, एक सिपाही तो निकल गया पहिले और दूसरा कोई नहीं निकला। बाद में राजा निकला, पूछा―भाई सूरदास जी, क्या यहाँ से दो सज्जन निकल गए, तुम्हें कुछ मालूम है? तो अंधा बोला कि राजा साहब! पहिले तो एक सिपाही निकल गया है और अभी – अभी मंत्री साहब भी चले गए। अब वे बहुत दूर पर तीनों मिले और अंधे की बात सुनाई। तो उन्हें अचरज हुआ कि वह अंधा कैसे पहिचान गया कि यह सिपाही है, यह मंत्री है, और यह राजा है। सोचा कि चलकर पूछें तो सही कि कैसे पहिचान गया? तो जब वे पहुंचे तो उस अंधे से राजा ने पूछा कि आप कैसे पहिचान गए कि यह सिपाही है, यह मंत्री है और यह राजा है? तो अंधा बोला कि महाराज हम बोली से पहिचान गए। जिसने अबे तब बोला उसको मैं समझ गया कि यह कोई छोटा मोटा सिपाही है, उसमें कैसे इतनी तमीज आ सकती है कि संभाल कर बात करे। जिन्होंने कुछ संभलकर बात पूछी थी उन्हें मैं समझ गया कि यह कोई मंत्री जी हैं और जिसने अत्यंत नम्रता से पूछा उसे मैं समझ गया कि यह सब का मालिक है, राजा है। तो इस बोली से ही सज्जनता और दुर्जनता पहिचानी जाती है।
भैया ! न हो लाखों का धन किंतु वचन अच्छे बोले जा रहे हों तो गरीबी में भी बड़े अच्छे दिन कटते हैं और खूब वैभव भी हो किंतु गृहयुद्ध हो, वाक् युद्ध हो तो उस धन वैभव से ही क्या सुख मिला? शब्दों का सदुपयोग इस मनुष्य जन्म में बड़ी सावधानी से करना है। यह तो हुई व्यवहार की बात। पर व्यवहार से परे अध्यात्म के हित में उतारना है तो उस के लिए कह रहे हैं कि शब्द मात्र ज्ञान नहीं है। ज्ञान और कुछ है। हम सर्व शब्दों से उपेक्षाभाव करें तो यहाँ बोलने की बात ही नहीं रहती। बोलो तो अच्छा बोलो, नहीं तो चुप रहो।
शब्द में ज्ञानत्व के भ्रम का एक कारण - ज्ञान और शब्द हैंयद्यपि भिन्न भिन्न तत्त्व, पर लोगों को यह भ्रम क्यों हो गया कि शब्द ज्ञान है। इसका कारण यह है कि ज्ञान और शब्द ये दो कुछ विशेषता के साथ एक साथ रहा करते हैं, देखो भगवान की जो दिव्यध्वनि है वह भी शब्द है। उनका ज्ञान उत्कृष्ट है। प्रभु के ज्ञान से बढ़कर अन्य किसी का ज्ञान नहीं है और उन की ध्वनि से बढ़कर अन्य किसी की ध्वनि नहीं है। और जैसे–जैसे नीची पदवी में जीव हैं तो जैसा-जैसा ज्ञान है उसी के अनुकूल शब्द निकलते हैं। यों ज्ञान और शब्द का मेल होने के कारण यह भ्रम बन गया है कि शब्द से ज्ञान होता है।
शब्द में ज्ञानत्व के भ्रम का द्वितीय कारण – अब भ्रम का एक यह भी कारण है कि मान लो कि कुछ भी ज्ञान करते हैं तो वह हमारा ज्ञान अंतर में किसी न किसी शब्द को करता हुआ, अंतर्जल्प करता हुआ प्रकट होता है। खंभा देखा, ज्ञान किया तो उस खंभे से नहीं बोला, पर भीतर में खंभा या जो भी समझ आया उस रूप एक अंतर्जल्प हो उठता है। मान लो कि बाह्य वस्तु के ज्ञान का आकार अंतर में शब्द से उठता हुआ उत्पन्न होता है।
शब्द की सर्वस्वता का विभ्रम – शब्द ज्ञान है, यह तो हमारा चढ़ाकर मंतव्य बन गया, फिर भी इसमें आधी गनीमत है। कहीं कहीं ज्ञान भी तत्त्व नहीं रहा, किंतु एक शब्द ही तत्त्व रहा। इसी सिद्धांत को कहते हैं शब्दाद्वैतवाद। कोई कहते हैं कि शब्द कुछ नहीं है। ज्ञान ही सब कुछ है। कोई कहते हैं कि ज्ञान ही सब कुछ है। शब्द कुछ नहीं है। इसका नाम है शब्दाद्वैतवाद। सारा विश्व शब्दात्मक है और ज्ञान कुछ चीज नहीं है। ज्ञान भी शब्दात्मक है। शब्द ही व्यापक है और शब्द ही सब कुछ हैं, यहाँ तक मंतव्य उठ खड़ा हो जाता है। शब्द और ज्ञान का परस्पर में व्यवहार में निकट संबंध है कि लोग शब्द और ज्ञान को एक तुला पर बैठालते हैं, बराबर के मानते हैं और कोई ज्ञान का कुछ महत्व ही नहीं समझते हैं। ज्ञान तो शब्दों के पीछे लगा लगा फिरता है, तत्त्व तो शब्द है। तो कोई इस ज्ञान को कुछ न कह कर अतत्त्व ठहराकर शब्द को ही तत्त्व कहते हैं।
शब्द और ज्ञान का पार्थक्य ― इस शब्द के बारे में आचार्य महाराज कह रहे हैं कि ज्ञान अन्य चीज है, शब्द अन्य चीज है, शब्द ज्ञान नहीं है। कोई मनुष्य गालियां देवे, उसे बहुत गालियां याद हों, 10-20 गालियां दे डाले और सुनने वाला कहे कि ये सब गालियां उल्टी तुम्हीं को दे दीं, लो इतने में ही सारी गालियां उल्टी पड़ गयीं। जैसे चित्रों की कला एक विवेकपूर्ण कला है। बतावो तो सही, एक कागज पर कहो सारी सभा बना दें। कितना मोटा आदमी है यह भी बता दें। अब उस पर मोटाई तो खिंचती नहीं, मगर ऐसी कला बना देते कि सब कुछ उसमें दिखेगा। तो जैसे चित्र की कला होती है ऐसे ही शब्दों में भी बड़ी कलाएँ चलती हैं। कोई किसी के प्रति जरा सी धीरे से कोई खोटी बात कहे और पूछे कि ऐसी तुमने खोटी बात क्यों कही, तो वह कहता है कि हमने नहीं कही खोटी बात। हमने तो उसकी बड़ाई की बात कही है। तो शब्दों में भी ऐसी पैंतरेबाजियां चलती हैं कि कोई पकड़ न पाये और सारे शब्द कह डाले, पर ज्ञानी जीव सोच रहा है कि सर्वशब्दों से मेरे ज्ञान का और परिणमन का रंच भी संबंध नहीं है। शब्द शब्द है और ज्ञान ज्ञान है।
शब्दों से हलचल – एक बार कहीं साधु महाराज रास्ते में बैठे थे, कोई स्त्री कुएँ में पानी भरने जा रही थी तो वह खड़ी हो गयी। तो संन्यासी कहता है कि यहाँ से हट जा, दूर जा। तो स्त्री बोली कि तुम जानते नहीं हो हम में वह कला है कि कहो तुम्हारी पिटाई करा दें और कहो तुम्हारी रक्षा करा दें। तो साधु ने कहा कि अच्छा बता तू क्या बताती है? वह स्त्री चिल्लाने लगी, दौड़ों-दौड़ों भैया, बाबा ने मार डाला। लोग उसकी चिल्लाहट सुन कर झट लट्ठ लेकर उस बाबा को मारने के लिये आ गए, तो साधु ने कहा, देवी अच्छा अब बचावो। तो लट्ठ लेकर आये हुए लोगों से उस स्त्री ने कहा कि अरे बाबा, अब अभी-अभी इस बिल में घुस गया। लोगों ने समझा कि अरे वह तो सांप था। सांप को देख कर चिल्लायी कि दौड़ों बाबा ने मार डाला। सभी चले गए। तो शब्दों से ही घात हो जाय, शब्दों से ही रक्षा हो जाय, शब्दों से ही कहो लड़ाई हो जाय, शब्दों से कहो सुलह हो जाय।
आशय के अनुसार वचननिर्गमन ― हाय, अंतर में जो कषाय राक्षसी है वह अच्छे शब्द बोलने ही नहीं देती। जब अंतर में कषाय पड़ी हुई है तो शब्द अच्छे कहाँ से बोले जाये? जो भीतर में योग्यता है उस के अनुकूल ही तो शब्द निकलेंगे। किसी को बहुत समझा बुझा कर रखो-देखो यों रहो, यों बोलो, पर जब समय आता है तो जैसा कषाय होता है तै से ही शब्द निकल जाते हैं। किसी की हंसने की आदत हो, बड़ा विनोदप्रिय हो तो दु:खद समय में भी उस के हंसी आ जाती है। वह हंसी के शब्द बोल देगा और किसी को रोनी बोली आती हो, चाहे बड़ा समारोह हो, वहाँ बोलेगा तो ऐसा ही बोलेगा कि कोई दु:खभरी बात बोल रहा है। बरुवासागर में सेठ मूलचंद के यहाँ एक मनुवा नौकर था। सेठ की सेठानी मर गयी। अब वह मनुवा एक कोने में छिप कर बैठ गया, वह सेठानी उस नौकर पर बड़ा ध्यान रखती थी। सेठ पुकारें अरे मनुवा कहाँ गया, बाजार जायें, यह काम कर, वह काम करना है। वह बहुत देर में निकल कर आया। सेठ जी बिगड़ गए, पूछा कि तू कहाँ चला गया था, अभी ये सब काम करने पड़े हैं। इतनी बात सुनकर हंसता हुआ बोला कि महाराज हमारी आदत हँसने की है। हम इसलिए छिप गये थे कि कहीं वहाँ हंसी न आ जाय। दु:ख के समय में इतना बोला और हंस दिया।
वचन की योग्यतासूचकता ― भाई जिसकी जैसी योग्यता है वै से ही शब्द बोलता है। यह समझो कि मेरा अपराध कोई नहीं है। मेरा कोई विरोध करता ही नहीं। जो कोई कुछ करते हैं वे अपनी योग्यता से अपने आप के कषाय का परिणमन किया करते हैं। जिस में जितना ज्ञान है, जितना कषाय है, जैसी योग्यता है वह उस माफिक ही तो परिणमेगा और बातें कहाँ से लायेगा? जो गालियां देता है उस के हृदय में गालियां ही समायी हैं, सो वह गालियां ही उगलता है, वह और चीजें कहाँ से लायेगा? जो उत्तम है वह उत्तम ही काम करेगा, वह गलत काम कैसे करेगा? सो किसी की बातों को सुनकर मन में खेद न लाना चाहिए। नहीं तो जैसे और हैं वै से ही अपन खुद हो गये, फिर उसमें फरक ही क्या रहा ?
वचन की योग्यतासूचकता ― एक साधु महाराज थे, सो वे नदी के किनारे एक सिला पर तपस्या करते थे। भोजन कर के आयें तो उसी सिला पर बैठें। एक दिन उनके आने से पहिले धोबी आ गया और उस सिला पर कपड़े धोने लगा। इतने में ही साधु आ गए। साधु बोला कि हटो यहाँ से, तुम्हें पता नहीं है कि यह मेरा आसन है। तो धोबी बोला महाराज, हमें कपड़े धोने के लिए अच्छी सिला मिल गयी है, आप तो किसी और जगह पर बैठ कर ध्यान कर सकते हो। साधु बोला कि गड़बड़ मत करो, हटो यहाँ से तो धोबी बोला कि महाराज हम नहीं हटेंगे। हम तो अपना काम पूरा कर के जायेंगे। तो साधुपन का तो उसे अभिमान था। साधु ने थप्पड़ जड़ दिया। अब तो दोनों में लड़ाई होने लगी। धोबी पहिने था तहमद, वह छूट कर नीचे गिर गया। बड़ी मुक्केबाजी हो गयी। साधु तो नग्न थे ही, अब धोबी की भी लंगोटी छूट कर गिर गयी। साधु कहता है अरे देवतावों तुम को कुछ खबर नहीं हैं कि यहाँ साधु पर कितना उपसर्ग हो रहा है? तो देवतावों ने कहा कि हम देख तो रहे हैं पर हमें यह भ्रम हो गया कि इनमें से धोबी कौन है और साधु कौन है? कुछ भी अंदाज नहीं लगता है। तुम दोनों की एक सी प्रवृत्ति है तो हम तो इस धोखे में पड़े हैं कि इनमें से साधु कौन है, सो उसे बचावें।
हित मित प्रिय शब्द बोलने की सावधानी को प्राथमिकता – सो भैया ! जैसे औरों के शब्द हैं, औरों की वृत्तियां हैं हम भी वै से ही बन जायें तो फिर औरों में और अपने में क्या अंतर रहा? विवेक तो वह है जो प्रथम तो शब्द मात्र से अपने को अत्यंत भिन्न जानकर उनमें राग विरोध की भावना न करे, विकल्प भी न करे और एक ज्ञानमात्र निजतत्त्व का शरण ले, अन्य प्रकार की स्थिति नहीं बनानी है। शब्द कुछ बोलने ही पड़ते हैं तो शब्द ऐसे बोलो कि जिन को सुनकर दूसरों को हित का मार्ग मिले और बुरा न लगे। किसी ने बुरा कह दिया और हम अच्छी भली बात बोलें तो प्रथम तो वही शर्मिंदा हो जायेगा जिसने बुरा बोला है। और न हो वह शर्मिंदा तो और लोग जो देखने वाले हैं वे तो जान जायेंगे कि यह तो दुर्जन है और यह सज्जन है। और न भी हो कोई देखने वाला तो मधुर बोलने वाले के शांति तो बनी रहेगी। वह तो कष्ट में न आयेगा। इस कारण शब्द का उत्तम उपयोग करना इस मनुष्यभव में सर्वप्रथम आवश्यक है। इतनी हिम्मत बनावो कि कोई कितना ही विरोध करे, कुशब्द कहे, फिर भी कुछ अपने आप में क्रोध को पीकर उस से वचन बोलो तो ऐसे वचन बोलो कि जिन को सुनकर वह शांत हो जाय। और अपने बैर विरोध की भावना को तज दे। ऐसे अत्यंत निकट संबंध वाले शब्दों में सावधानी करो और ज्ञान ऐसा रखो कि शब्द तो भिन्न चीज है, यह मैं नहीं हूँ। मैं ज्ञानमात्र हूँ।
शब्द, अंतर्जल्प व विकल्पों की अज्ञानरूपता– शब्द ज्ञान नहीं है, और जिस उपादेय ज्ञानस्वभाव की दृष्टि से वर्णन चल रहा है उस दृष्टि में यह भी निरखा जा रहा है कि शब्दों को सुनने पर जो विकल्प रूप ज्ञान किया जाता है, संकल्प, विकल्प, रागद्वेष, इष्ट, अनिष्ट भावात्मक है वह भी ज्ञान नहीं है। वह अज्ञान है, परमार्थत:। अन्य बाह्य सर्व देशरूप से अज्ञान है। जहाँ रागद्वेष का मिश्रण नहीं है। और मात्र ज्ञानवृत्ति ही चल रही हो वो परमार्थत: ज्ञान है। यह शब्द ज्ञान नहीं है इस कारण ज्ञान बात अन्य है, शब्द बात अन्य है, ऐसा जिनेंद्रदेवने निरूपण किया है। सो शब्द में आत्मीयता का भाव कर के रागद्वेष इष्ट अनिष्ट भाव बनाना, यह अज्ञान है, यह मुख्य उपदेश है।