वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 49
From जैनकोष
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं ।जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दट्ठसंठाणं ।।49।।
80. जीव का लक्षण और अविधमानरसगुणत्व―जीव को रसरहित, रूपरहित, गंधरहित, अव्यक्त (स्पर्शरहित), शब्दरहित, चेतना गुण वाला, अलिंगग्रहण (जिसका किसी लिंग, साधन व चिह्न से ग्रहण नहीं होता) व अनिर्दिष्ट-संस्थान (जिसका स्वभावत: कोई आकार निर्दिष्ट नहीं है) जानो । जीव रसरहित है । जीव द्रव्य इंद्रिय के द्वारा भी रस का रसन नहीं करता है । जीव भावेंद्रिय के द्वारा रस ग्रहण नहीं करता है । जीव जानता है, केवल वह रस को ही नहीं जानता है । जीव रूपादिक, ज्ञानादिक गुण व उसकी अनेक पर्यायों को जानता है । जीव रस को जानता है, फिर भी जीव में और रस में तादात्म्य नहीं हो जाता है । इन सब बातों के कारण जीव रस से रहित है । जैसे हमने भोजन किया । भोजन करने से हमें रस आया । परंतु वह भोजन का रस भोजन में ही रहेगा । भोजन का रस आत्मा में नहीं जा सकता है । जैसे आम खाने में स्वाद आया । उस स्वाद में है आत्मा की आसक्ति, अत: हम कह देते हैं कि आम का स्वाद हम में आया, निश्चय से रस मुझमें नहीं । रस गुण का तादात्म्य पुद्गल द्रव्य में है वह आत्मा का कुछ नहीं हो सकता । इस अमूर्त आत्मा का काम दर्शन, ज्ञान, चारित्र का परिणमन है । अमूर्त तो आत्मा अनादि से अनंत काल तक है, ऐसा नहीं कि जीव सिद्ध होने पर ही अमूर्त होता हो । आत्मा में कर्म-बंध होने के कारण जीव को उपचार से मूर्त भी कह दिया है । आत्मा दर्शन, ज्ञान, चारित्र का पुंज है । जिसके रागबुद्धि न हो उसे रंच भी दुःख नहीं होता । शरीर में राग होने से आत्मा दु:खी रहता है । जैसे व्यवहार में कहते हैं कि उसे भूख लगी है । परंतु भूख को हाथ में लेकर या किसी भी प्रकार दिखाया नहीं जा सकता है । ‘भूख’ ‘बुभुक्षा’ से बना है । भोक्तुमिच्छति बुभुक्षा । अर्थात् खाने की इच्छा को भूख कहते हैं । शरीर में राग है, तभी तो भूख लगती है । जीव को भूख तो लग सकती है परंतु जीव खा नहीं सकता । भूख तो आत्मा का परिणमन है । भूख शरीर का भी परिणमन नहीं है । वस्तुत: आत्मा का भी परिणमन नहीं है । खाने से भूख इसलिए शांत होती है कि खाने की इच्छा मिट जाती है । खाने की इच्छा मिटते से भूख शांत होती है । वह शांति किसी को खाने के निमित्त से आवे या बिना खाये आवे । बड़े-बड़े योगी बिना खाये ही इच्छा शांत कर लेते हैं । यदि संपूर्ण इच्छाएं शांत हो जाये तो केवलज्ञान हो जाता है । परंतु आजकल इच्छा ही किसी की शांत नहीं होती है । भूख की शांति इच्छा के ही मिटने से होती है । अत: खाना जीव का काम नहीं है । हाँ, भूख लगना जीव का काम है । यह विभाव है । कोई बिना खाये ही इच्छा शांत कर लेते हैं । कोई खा करके इच्छा शांत करते हैं । इच्छा मिटने का नाम ही भूख का मिटना है । भूख का अर्थ खाने की इच्छा है । जीव का लक्षण बताया जा रहा है कि जीव वह है, जिसमें रूप-रस-गंध-स्पर्श नहीं है, परंतु जीव में चैतन्यगुण है । इसकी और भी विशेषतायें बताई जायेंगी । आत्मा में रस नहीं है, इसको छह ढंग से बताया गया है:―
81. आत्मा के रस गुणत्व का अभाव―आत्मा में रस गुण नहीं है, रस गुण पुद्गल में होता है, आत्मा पुद्गल से जुदा है । कोई यह कहे कि आत्मा में रस गुण नहीं है, यह तो हम भी मानते हैं, परंतु आत्मा स्वयं रस गुण है । आचार्य कहते हैं किं नहीं, आत्मा स्वयं रस गुण भी नहीं है, क्योंकि रस गुण पुद्गल का तत्त्व है । पुद्गल से अत्यंत भिन्न होने से आत्मा स्वयं रस भी नहीं है । प्रश्न:―अनुभवरस भी तो रस है फिर कैसे रस से जुदा है? उत्तर―आनंद गुण की 3 पर्याय हैं:―1-सुख, 2-दु:ख, और 3-आनंद । ‘ख’ इंद्रिय को कहते हैं । जो इंद्रियों को सुहावना लगे, उसे सुख कहते हैं और जो इंद्रियों को न रुचे, उसे दु:ख कहते हैं । आ समंतात् आत्मानं नंदतीत्यानंद: । अर्थात् जो चारों ओर से आत्मा को समृद्ध करे, उसे आनंद कहते हैं । ‘टुनदि समृद्धौ’ धातु है । अत: आनंद आत्मा को समृद्ध करने वाला है । इस संसार में सुख दुःख दोनों चल रहे हैं । अर्थात् सुख और दुःख दोनों ही संसार के कारण हैं । आनंद संसार में नहीं है । कहीं-कहीं पर आचार्यों ने आनंद का भी सुख नाम से निर्देश किया है । इसका कारण यह है कि आचार्यों का उद्देश्य अज्ञानियों को सरल से सरल भाषा में समझाने का रहा है । अत: आचार्यों ने आनंद को ‘सुख’ नाम से निर्दिष्ट किया है, क्योंकि संसारी जीवों का सुख से अधिक परिचय है । आनंद पर्याय भगवान केवली के पाया जाता है । जब भगवान् केवली के इंद्रियाँ ही नहीं होती हैं तो उनकी इंद्रियों को सुहावना ही क्या लगेगा? अत: भगवान में अनंत आनंद है । ऐसे ही आनंद को अनुभव रस शब्द से कह दिया जाता है । यहाँ प्रकरण उस रस का है जिसका काला, पीला, नीला, लाल सफेद परिणमन होता है ।
82. परमार्थत: द्रव्येंद्रिय के द्वारा रसन न होने से आत्मा की अरसता―कोई यह कहे कि आत्मा द्रव्येंद्रिय के द्वारा रस का रसन करता है । अत: आत्मा रसवान है । उत्तर में कहते हैं कि आत्मा रसनेंद्रिय के द्वारा रसता ही नहीं है । द्रव्येंद्रिय पुद्गल द्रव्य का परिणमन है । आत्मा पुद्गल द्रव्य का स्वामी नहीं है । तब आत्मा जो करेगा वह अनात्मा के द्वारा कैसे करेगा? आत्मा रसज्ञान ज्ञान के द्वारा ही करता । स्वादना, देखना, सूंघना, सुनना सब ज्ञान ही तो हैं । आत्मा द्रव्येंद्रिय के द्वारा नहीं रसता । अत: आत्मा द्रव्येंद्रिय के द्वारा रसने से रसवान है, यह युक्त नहीं है । आत्मा अरस ही है । भैया ! जो कुछ यह दिख रहा है शरीर में, यह सब स्पर्शन इंद्रिय है । अन्य इंद्रियां हैं, किंतु वे व्यक्त नहीं हैं । क्योंकि स्पर्शनेंद्रिय का ज्ञान तो छूकर जानकर अथवा देखकर हो सकता है, परंतु शेष चार इंद्रियाँ (रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र) अव्यक्त हैं । स्पर्शनेंद्रिय व्यक्त है । जो बताओगे कि यह रसना है, यह घ्राण है, यह चक्षु है अथवा यह कर्ण है, वह सब स्पर्शनेंद्रिय हैं । रसना इंद्रिय कहां से स्वाद लेती है, पता नहीं चलता, क्योंकि वह अव्यक्त है । घ्राणइंद्रिय कहाँ से गंध ग्रहण करती है, पता नहीं चलता है क्योंकि ये सब इंद्रियां अव्यक्त हैं । दिखने वाले स्पर्शनों के अंदर कुछ ऐसी क्वालिटी है कि उसको निमित्त पाकर जीव चखता, सूंघता, देखता और सुनता है । वे स्पर्श से भिन्न हैं, अत: अन्य इंद्रियां हैं । आचार्य कहते हैं कि यह आत्मा अरस है, अगंध है, अदृश्य है और अशब्द है । इस पुद्गल द्रव्य का मालिक जीव नहीं है । जो जिसका स्व है, वही उसका स्वामी है । शरीर का स्वामी शरीर है, परमाणु का स्वामी प्रत्येक परमाणु है । क्योंकि प्रत्येक परमाणु के प्रदेश गुण पर्याय दूसरों से न्यारे-न्यारे हैं । इस प्रकार एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कैसे स्वामी बन सकता है? अत: आत्मा द्रव्येंद्रियों के द्वारा भी रसन नहीं करता है । सकषाय जीव है तो निमित्त-नैमित्तिक भाव के कारण उसका शरीर स्वयमेव बन जाता है, अन्य कोई इसका आविष्कार नहीं करता है । जीभ, नाक, आंख आदि निमित्त-नैमित्तिकता से बन जाते हैं । इस जीभ के पीछे ही सारे झगड़े फिसाद होते हैं । पता नहीं, इस जीभ में कहाँ से रस ग्रहण होता है और कैसे स्वाद आ जाता है ? जीभ के अग्रिम भाग से ही स्वाद आता है । वहाँ भी स्पर्शन है और वहीं अव्यक्त रसनाइंद्रिय है न यह जीव पुद्गल द्रव्य का स्वामी नहीं है । अत: यह भी मत कहो कि यह जीव रसनेंद्रिय के द्वारा स्वाद लेता है ।
83. स्वभावत: भावेंद्रिय द्वारा रसन न होने से आत्मा की अरसता―अब फिर जिज्ञासु कहता है कि अच्छा, यह जीव रसनेंद्रिय के द्वारा स्वाद नहीं लेता है, न सही परंतु यह भावेंद्रियों के द्वारा तो रस ग्रहण करता है । इंद्रियों के निमित्त से जो ज्ञान होता है, उसे भावेंद्रिय कहते हैं । यह आत्मा भावेंद्रिय के द्वारा तो रसज्ञान करता है? तो कहते हैं कि यह आत्मा स्वभावत: भावेंद्रियों के द्वारा भी रस ग्रहण नहीं करता है । जीव का लक्षण वही हो सकता है, जो जीव में अनादि से अनंतकाल तक पाया जाये । जीव में हमेशा रहने वाला चैतन्य स्वभाव है । चैतन्य गुण जीव में त्रिकाल रहता है । आत्मा में स्वभाव से क्षायोपशमिक भाव का अभाव है । अत: यह आत्मा निश्चयत: भावरसनेंद्रिय के द्वारा भी रस ग्रहण नहीं करता है । अत: स्वभावत: अरस है ।
84. केवल रसवेदनापरिणामापन्न रूप से रसन न होने से आत्मा की अरसता―जिज्ञासु पुन: पूछता है कि आत्मा में क्षायोपशमिक भाव का अभाव है, अत: आत्मा को अरस मान लिया, परंतु आत्मा किसी प्रकार भी जानता हो, आखिर जानता तो है । अत: आत्मा रसवाला कहलाया । उत्तर में आचार्य कहते हैं कि नहीं । यह आत्मा केवल रस को तो नहीं जानता है अनेक ज्ञेयों का साधारण संवेदन करता है यह । अत: यह आत्मा रसवाला नहीं है ।
85. स्वयं रसरूप से अपरिणमन होने से आत्मा की अरसता―इस पर जिज्ञासु एक आखिरी जिज्ञासा प्रकट करता है कि यह आत्मा रस को जानता है, इतने से नहीं है तो न होओ, किंतु यह तो रस के ज्ञान से आत्मा रसवान परिणत हो जाता है, तन्मय हो जाता है । अत: रसवाला कहो । उत्तर―यह आत्मा रस के ज्ञान में परिणत तो होता है, परंतु ज्ञेय ज्ञेय ही रहता है और ज्ञायक ज्ञायक ही रहता है । ज्ञेय ज्ञायक नहीं हो सकता है तथा ज्ञायक ज्ञेय नहीं हो सकता है । जैसे आग के जानने से आत्मा गर्म नहीं होता है । छुरी के जानने से आत्मा कट नहीं जाता है । जैसे मिठाई का स्मरण करने से मुंह में पानी आ जाता है, परंतु उसका स्मरण करने ये आत्मा में रस नहीं पहुंच जाता है । जैसा आत्मा ख्याल बनाता है, वैसा ही अनुभव करता है । मिठाई को भी यदि जीभ पर रखो, तब भी अनुभव ज्ञान का ही होता है । रस का संबंध आत्मा से नहीं होता है । इसको निमित्त पाकर आत्मा रस को जानता है । रस को आत्मा जानता है, अतएव रस का आत्मा से तादात्म्य हो जाता हो, ऐसा नहीं है । जैसे पुस्तक पर उजेला पड़ रहा है, यह उजेला पुस्तक का ही है, बिजली का नहीं है । बिजली का प्रकाश उसकी लौ से बाहर नहीं है । पुस्तक पर जो प्रकाश पड़ा है, वह पुस्तक का ही है । क्योंकि पुस्तक का परिणमन पुस्तक में ही है, बिजली का परिणमन बिजली में ही हो रहा है । फिर बिजली का प्रकाश पुस्तक पर कैसे पड़ सकता है? हाँ, बिजली को निमित्त पाकर यह पुस्तक स्वयं प्रकाशयुक्त हो गई । इसी प्रकार आत्मा अपने को ही जानता है । आत्मा विश्व के आकाररूप परिणत स्वयं को ही जान रहा है । आत्मा विश्व को जान ही नहीं सकता है । हाँ, विश्व के आकाररूप परिणत आत्मा को आत्मा स्वयं जान रहा है । जैसे बिजली का निमित्त पाकर उसके पास का परमाणु स्कंध प्रकाशमान है । बिजली का निमित्त पाकर जिस परमाणु स्कंध के जितने प्रकाश की योग्यता है, उस ही योग्यता के मुआफिक वह स्कंध अपनी योग्यता प्रकट करता है । सूर्य को निमित्त पाकर पास के परमाणु स्कंध स्वयं प्रकाशरूप परिणत हो जाते हैं । सूर्य के उन परमाणुओं के किरणें नहीं हैं, किरणें आँख ने स्वयं देखने की पद्धति में बनाई हैं । आँख के देखने का जो मार्ग है, उस-उस रास्ते में आने वाले उसको स्कंध दिखाई देते हैं, जो कि स्वयं प्रकाशमान हैं । वे स्कंध उसको चमकते दिखाई देने के कारण किरण मालूम पड़ते हैं । दृष्टि दो तरह की होती है―1-व्यवहार और 2-निश्चय । वस्तु की चीज उसी वस्तु में बताई जाये उसे निश्चयदृष्टि कहते हैं और वस्तु की चीज उस वस्तु से बाहर बताई जाये, उसे व्यवहारदृष्टि कहते हैं । एक द्रव्य की चीजें यदि दूसरे द्रव्य में पहुंच जायें तो द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा । अत: एक द्रव्य की चीज दूसरे द्रव्य में पहुँच ही नहीं सकती है । आत्मा रस के ज्ञान में परिणत है । रस ज्ञेय है और आत्मा ज्ञायक है । ज्ञेय ज्ञायक नहीं हो सकता है और कभी भी ज्ञायक ज्ञेय नहीं हो सकता है । अत: आत्मा रसवाला नहीं हो सकता है । इस प्रकार आत्मा अरस है, यह सिद्ध हुआ ।
85. आत्मा में रूप गुणवत्ता का अभाव―काला-पीला-नीला-लाल और सफेद ये रूप की पर्याय भी आत्मा में नहीं हैं । इसका आधारभूत रूप भी आत्मा में नहीं है । आत्मा संपूर्ण विश्व का जानने देखने वाला है । जिस तरह आत्मा को छ: प्रकार से अरस सिद्ध किया, उसी प्रकार छ: ढंग से ही आत्मा को अरूप बताते हैं । आत्मा में रूप नहीं है, क्योंकि वह पुद्गल द्रव्य से न्यारा है । आत्मा पुद्गल द्रव्य से न्यारा है, यह बात विचार करने में, विकल्प छोड़ने में अपने आप समझ में आ जाती है । समझ में आता है कि शरीर से आत्मा पृथक् है । आत्मा पुद्गल द्रव्य से न्यारा है, अत: इसमें रूप नहीं है । क्योंकि रूपादि पुद्गल के गुण हैं । ये गुण पुद्गल के बाहर नहीं पाये जाते हैं, पुद्गल में ही पाये जाते हैं । मूर्तपना तो जीव का लक्षण नहीं है । जीव का लक्षण तो अमूर्तपना भी नहीं है क्योंकि उस लक्षण में अतिव्याप्ति दोष है । जीव का लक्षण तो चैतन्य गुण है । किंतु जहाँ पर जीव की अनेक विशेषताएं बताई जा रही हैं, उसमें यह बात भी बता दी जाती है कि जीव अमूर्त है । लक्षण तो समस्त दोषों से रहित होता है । निर्दोष लक्षण जीव का चैतन्य है ।
86. आत्मा के रूपगुणत्व का अभाव―कहते हैं कि आत्मा में रूप गुण नहीं है । इतना ही नहीं, किंतु स्वयं रूप नहीं है । आत्मा स्वयं रूप गुण नहीं है और आत्मा रूप भी नहीं है । रूप गुण जिसकी पर्याय काला-पीला-नीला-लाल-सफेद होती हैं, उसे कहते हैं । पांचों पर्यायों में रहने वाले गुण को रूपगुण कहते हैं । जैसे आम है, आम में अनेक रूप होते हैं । जिस समय आम छोटा होता है, उस समय काला होता है, उससे कुछ बड़ा हो जाने पर कहते हैं कि आम नीला हो गया है, फिर हरा । बड़ा होने पर पीला-लाल और सड़ जाने पर सफेद रंग हो जाता है । जिस समय आम काला से नीला होता है, उस समय कहते हैं आम नीला हो गया है । रूप गुण सभी अवस्थाओं में रहा, जिस समय आम काला नीला-पीला-लाल-सफेद था, सभी अवस्थाओं में आम में रूप गुण विद्यमान था । जो रूप गुण समस्त रूप की पर्यायों में रहता है, उसे रूप गुण कहते हैं । रूप गुण की पर्याय में काला पीला-नीला-सफेद-लाल है । आत्मा स्वयं रूप गुण नहीं है, क्योंकि वह पुद᳭गल द्रव्य से न्यारा है । आत्मा पुद्गल द्रव्य नहीं है, अत: आत्मा स्वयं रूप भी नहीं है । पुद्गल द्रव्य के गुण पुद्गल द्रव्य को छोड़कर बाहर नहीं जा सकते हैं तो फिर आत्मा में रूप गुण कैसे आ सकता है? पदार्थ अपने प्रदेश, गुण, पर्यायरूप रहता है । रूप गुण पुद्गल द्रव्य में ही पाया जाता है, आत्मा में नहीं पाया जाता, अत: न आत्मा स्वयं रूप है । आत्मा का रूप के साथ कोई संबंध नहीं है । अत: आत्मा अरूप है । अरूप माने रूप वाला नहीं; आत्मा स्वयं, रूप नहीं है, रूप से भी रहित है ।
87. परमार्थत: द्रव्येंद्रिय के द्वारा रूपण न होने से आत्मा की अरूपता―जिज्ञासु तीसरी बात पूछता है कि तुम कहते हो कि रूप के साथ आत्मा का कोई संबंध नहीं है । हम कहते हैं कि बड़ा भारी संबंध है । द्रव्येंद्रिय के द्वारा यह सारी दुनिया देखी जा रही है अत: आत्मा का रूप के साथ घनिष्ठ संबंध है । उत्तर―आत्मा का पुद्गल द्रव्य के साथ कोई संबंध नहीं है, अत: आत्मा में रूप नहीं है, न आत्मा द्रव्येंद्रिय के द्वारा विषय करता है । परपदार्थों के साथ पुद्गल द्रव्य का कोई संबंध नहीं है । जैसे इस आँख की कमजोरी में कुछ ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि हम चश्मे के द्वारा देख पाते हैं । वास्तव में चश्मे के द्वारा हम कोई चीज नहीं देखते हैं । देखने का अर्थ है रूप का ज्ञान । आत्मा चक्षु इंद्रिय के द्वारा नहीं देखता है, किंतु आत्मा आत्मा के द्वारा ही जानता कि इसमें यह रूप है । हाँ, इस आत्मा के जानने में चक्षु इंद्रिय निमित्त है । परंतु देखता है आत्मा ज्ञान के द्वारा ही । जैसे हम लोक में कहते हैं कि हमने चक्षु इंद्रिय से रूप देखा, कान से आवाज सुनी, नाक से फूल सूंघा, जीभ से आम चखा आदि, परंतु हम इंद्रियों के निमित्त से जानते मात्र हैं । परमार्थ से आत्मा इंद्रियों से नहीं जानता है । परंतु इंद्रियाँ आत्मा के जानने में निमित्त कारण हैं । व्यवहार में कोई निमित्त होता है फिर भी द्रव्यस्वभाव पृथक्-पृथक् है । व्यवहार की बात व्यवहार से देखो । यों तो भैया ! निश्चय की बात भी निश्चय से देख पावोगे । यह सुनिश्चित है कि सब लोगों का धर्म मूर्ति-मान्यता पर टिका हुआ है । मूर्ति के माने बिना किसी का धर्म नहीं रह सकता है । प्रत्येक धर्म वाले मूर्ति को मानते हैं । कुछ लोग जो मूर्ति को नहीं मानते हैं, उनका धर्म भी मूर्तिमान्यता पर आधारित है । कुछ लोग मूर्ति को नहीं मानते हैं परंतु जब तक मूर्ति वाले रहेंगे और वे जब तक मूर्ति का खंडन करेंगे, तभी तक उनका धर्म हो सकेगा । यदि कोई भी मूर्ति न मानें तो फिर वे किसका खंडन करेंगे । यदि हम लोग मूर्ति को मान्यता न दें, फिर वे किसका खंडन करेंगे और खंडन नहीं करेंगे तो फिर उनका धर्म ही क्या रहा? कोई मूर्ति का मंडन करके अपना धर्म चलाता है, कोई मूर्ति का खंडन करके अपना धर्म प्रवर्तन करता है । अत: मूर्ति मान्यता के बिना धर्म नहीं चलता है । रहो यह व्यवहार, फिर भी सर्व के विकल्प उनके प्रत्येक में हूँ । द्रव्येंद्रिय के द्वारा आत्मा देखता नहीं है, ऐसा कहकर भी आत्मा के साथ इंद्रियों का संबंध मत जोड़ो । द्रव्येंद्रिय के द्वारा आत्मा जानता नहीं है । अत: आत्मा से इंद्रियों का कोई संबंध नहीं है । अत: आत्मा अरूप है ।
88. स्वभावत: भावेंद्रिय के द्वारा देखना न होने से आत्मा की अरूपता―चौथी बात जिज्ञासु पूछता है कि आत्मा भावेंद्रिय के द्वारा तो जानता है? जानने की योग्यता-शक्ति है, उस योग्यता को जो काम में लाना है उसे भावेंद्रिय कहते हैं । चूंकि आत्मा भावेंद्रिय के द्वारा रूप जानता है, इस दृष्टि से तो आत्मा का और रूप का संबंध है । उत्तर:―वह जो क्षायोपशमिक भाव है, उसे भावेंद्रिय कहते हैं । स्वभाव से आत्मा क्षायोपशमिक भाव नहीं है । अत: आत्मा भावेंद्रिय के अवलंबन से स्वभाव से यह रूपज्ञान नहीं करता है । आत्मा स्वभाव से ऐसा जाने तो हम रूप और आत्मा का संबंध मानें, इस पर विचार करें । अत: आत्मा अरूप है । क्षायोपशमिक भाव स्वभाव से उत्पन्न नहीं होता है । क्षायोपशमिक भाव कर्मों के क्षायोपशम से उत्पन्न होता है । ज्ञान जितना भी प्रकट है, वह आत्मा के स्वभाव से ही प्रकट है । क्षायिक भाव भी निमित्तता के कारण स्वभाव भाव नहीं है । इस निमित्तदृष्टि को भी हटाकर देखा, जो जानता है वह स्वभावभाव है । पहले समय में उत्पन्न होने वाला केवलज्ञान नैमित्तिक भाव है और दूसरे आदि समय में उत्पन्न होने वाला केवलज्ञान अनैमित्तिक भाव है । केवलज्ञान ज्ञान का पूर्ण विकास है । स्वभाव से क्षायोपशमिक भाव नहीं होता है, अत: आत्मा का रूप के साथ कोई संबंध नहीं हैं ।
89. केवल रूपवेदनापरिणामापन्न रूप से देखना न होने से आत्मा की अरूपता―अब जिज्ञासु फिर कहता है कि आत्मा रूप को जानता तो है, अत: आत्मा का रूप के साथ किसी प्रकार का संबंध अवश्य है । कहते हैं कि रूप का जानना साधारण संवेदन है । ज्ञान गुण की सामान्य व्यवस्था है कि वह इतने जाने मात्र से आत्मा का रूप के साथ संबंध नहीं हुआ ।
90. स्वरूप रूप से अपरिणत होने से आत्मा की अरूपता―जिज्ञासु अब छठवें ढंग से कहता है कि आत्मा रूप को जानता है इतनी ही बात नहीं, इससे तो रूप का कुछ न्यारापन ज्ञात होता है, परंतु रूपज्ञान में आत्मा उस रूप-ज्ञेयाकार ग्रहण में तन्मय है । इस कारण आत्मा अब तो रूप-ज्ञानवाला है । रूप ग्रहण में आत्मा रूपपरिणत है, अत: आत्मा का रूप के साथ संबंध है । उत्तर:―भाई, समस्त ज्ञेय और ज्ञायक का तादात्म्य कभी नहीं होता है । ज्ञेय ज्ञेय रहता है, ज्ञायक ज्ञायक । ज्ञेय ज्ञायक रूप नहीं हो जाता और ज्ञायक ज्ञेय रूप नहीं परिणम जाता है । अत: रूप के ज्ञान में परिणत होने पर भी आत्मा रूप-रूप में परिणत नहीं हो गया है । ज्ञेय ज्ञायक के तादात्म्य संबंध का अत्यंताभाव है । अत: आत्मा अरूप है । ज्ञेयभूत अर्थ का ज्ञायक में अत्यंताभाव है, अत: उन सभी ज्ञेयभूतों से ज्ञायक जुदा है, फिर आत्मा अरूप कैसे न होगा? जो कुछ यह बताया, यह सब अपने संवेदन से ज्ञात है, ऐसा ज्ञात होने वाला आत्मा स्वयं ज्ञायक है । जब भी शांति मिलेगी, इस आत्मा की शरण में ही मिलेगी । अत: अपने आत्मा के उपादान के लिए स्वयं आत्मा बड़ा है । आपका बड़ा भाग्य है जो वस्तुस्वरूप की स्वतंत्रता जान रहे हैं । आपका कोई कितना ही बड़ा हितैषी क्यों न हो, वह आपका कुछ नहीं करता है । आपके पुण्य का असर है, अत: वह आपकी सेवा में निमित्त है । हम कहीं भी किसी अवस्था में क्यों न हों, चाहे कहीं क्यों न भटक आये हों अंत में यही समझ में आयेगा कि अपने लिये मैं आत्मा स्वयं बड़ा हूँ । इस प्रकार आत्मा अरूप सिद्ध है ।
91. निर्विकल्प चिद्धन आत्मस्वरूप की उपासना का अनुरोध―जिस आत्मा के विषय में वर्णन चल रहा है कि आत्मा अरूप है, अरस है आदि―वह आत्मा देह में बस रहा है, देह के प्रत्येक प्रदेश में रह रहा है फिर भी परमसमाधि के बिना, निर्विकल्प स्थिति के बिना छोटे क्या, बड़े-बड़े हर हरि आदिक भी उसे नहीं जान पाते हैं । हरि नारायण को कहते हैं । जो नारायण हुए हैं, वे सब जिनेंद्र-भक्त थे, उन्होंने प्रयत्न भर खूब उपाय किया, फिर भी परमसमाधि के बिना वे इस आत्मरति को न पा सके । परंतु नारायण को सम्यक्त्व हो चुका था, वे इस रत्नत्रय उपाय द्वारा शीघ्र परमात्मस्वरूप में होंगे । हर का मुख्य लक्ष्य लोगों का महादेव से है । महादेवजी एक दिगंबर मुनि थे । उन्होंने पहले खूब तपस्यायें की । तप के प्रभाव से वे 11 अंग और 9 पूर्व विद्याओं के पाठी भी हो गये । 10 वें पूर्व के प्रगट होने पर इन्हें सब विद्याओं ने आ घेरा । उन्होंने कहा कि महाराज आप जो भी हमारे योग्य कार्य कहेंगे, हम उस कार्य को पूर्ण कर देंगी । फलत: महादेवजी अपनी निर्विकल्प उपासना से निवृत्त हो गये । वे भी इस आत्मरति को परमसमाधि के बिना न पा सके । किंतु निर्विकल्प अखंड स्वभाव की उपासना के बल से शीघ्र परमात्मस्वरूप में प्रकट होंगे ।
साधारण लोग कह देते हैं कि जो देह है वही मैं हूँ । बहुत से लोगों की धारणा है कि आत्मा में रूप-रस-गंध-स्पर्श भी है और आत्मा बोलता भी है और वे इस प्रकार की दलीलें भी देते हैं । किंतु इस मिली हुई अवस्था में भी जो शब्द है, वह शब्द पुद्गल का परिणमन है । अत: आत्मा बोलता नहीं है, कुछ कहता नहीं है ऐसा विवेक रखें । हाँ आत्मा के बिना ऐसा शब्दपरिणमन नहीं होता इसीलिए निमित्त कहा जाता है तथा उपादान की परिणति उपादान में ही होती है । प्रत्येक पदार्थ को स्वतंत्र निरखना ही विवेक है । यह आत्मा देह में बस रहा है तो क्या देह में बस रहा है? नहीं बस रहा है । कोई कहे कि शरीर से इसे जरा अलग तो कर दो, परंतु तुम उसे अलग नहीं कर सकते । अत: आत्मा देह में बस तो जरूर रहा है परंतु असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा बस रहा है, निश्चयनय से आत्मा देह में नहीं बस रहा है । आत्मा आत्मा में रहता है । कभी ऐसा नहीं हुआ कि आत्मा आकाश में न रहे । फिर भी आत्मा आत्मा में रहता है । निश्चयनय से आत्मा आकाश द्रव्य में भी नहीं बसता है, देह में तो बसेगा ही क्या? प्रत्येक द्रव्य अपनी अखंड सत्ता वाला है । अत: आत्मा आत्मा में रह रहा है । आत्मा का प्रसर्पण देह में है । इस आत्मा को जैसा देह मिला कि वह उसी शरीर में फैल गया । जब यह आत्मा हाथी के शरीर में पहुंचता है, तो हाथी के आकाररूप परिणत हो जाता है । और जब वह पेड़ में पहुंचता है, पेड़ के पत्ती-पत्ती में, फूल-फूल में, पराग में, डालियों में प्रस्तुत हो जाता है । इतना सब कुछ होते हुए भी यह देह में बसता नहीं है । निश्चय से आत्मा आत्मस्वरूप में है । किसी द्रव्य का प्रदेश, गुण, पर्याय दूसरे द्रव्य में नहीं पहुंचता है । आत्मा यद्यपि देह में बस रहा है, फिर भी परम समाधि के बिना आत्मा नजर नहीं आता है । देखो तो, लोग देह में बसते हुए भी आत्मा को नहीं जान पाते हैं । उसी आत्मा की यह चर्चा है कि आत्मा में रूप नहीं है, आत्मा में रस नहीं है ।
92. आत्मा की गंधरहितता―अब कहते हैं कि आत्मा में गंध भी नहीं है । आत्मा को इन्हीं छ: प्रकारों से अगंध सिद्ध किया जायेगा । आत्मा गंध गुण नहीं है, क्योंकि वह पुद्गल द्रव्य से जुदा है । घ्राणेंद्रिय को कोई नहीं जानता है कि किस जगह से यह प्राणी गंध ग्रहण करता है, कैसे करता है―यह पता नहीं चल पाता है । क्योंकि घ्राणेंद्रिय अव्यक्त है । आत्मा पुद्गल द्रव्य से जुदा होने से गंध गुण वाला नहीं है, क्योंकि पुद्गल द्रव्य से बाहर पुद᳭गल का गुण नहीं पहुंचता है । अत: आत्मा गंध भी नहीं है ।
93. इंद्रियविषयों का प्रसंग―जो मनुष्य पंचेंद्रियों में रत है, वह उनके विषयों में तन्मय हो जाता है । मनुष्य को कुछ सूंघते समय अपना पता नहीं रहता है । उन्हें दुर्गंध आदि की भी खबर नहीं रहती है । इंद्रियाँ पाँच हैं । एक तो इन पाँचों इंद्रियों को नामकर्म न मानो इतने अच्छे क्रम से बनाई हैं कि उनकी पहिचानने में देर नहीं लगती है? और एकेंद्रिय द्वींद्रिय त्रींद्रिय आदि की व्यवस्था शीघ्र समझ में आ जाती है । एकेंद्रिय जीव के एक स्पर्शन इंद्रिय है यह सारे शरीर में है । 2 इंद्रिय जीव के स्पर्शन व रसना ये दो इंद्रिय हैं, सो देखो गले के ऊपर पहिले रसना (जिह्वा) इंद्रिय मिलती है । त्रींद्रिय जीव के स्पर्शन रसना व घ्राण ये तीन इंद्रियां हैं सो देखो रसना के ऊपर घ्राण (नाक) इंद्रिय मिलती है । चतुरिंद्रिय जीव के स्पर्शन, रसना, घ्राण व चक्षु ये चार इंद्रियां होती हैं सो देखो घ्राण (नाक) के ऊपर चक्षुरिंद्रिय (आंख) मिलती है । पंचेंद्रिय जीव के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु व कर्ण (कान) ये पांचों इंद्रिय होती हैं सो देखो आंख से ऊपर कान होते हैं । अब जरा पश्चादानुपूर्वी से देखो तो प्राय: उत्तरोत्तर आसक्ति की अधिकता मिलेगी । जैसे―कान से जो विषय होता है, उसके जानने में तेज आसक्ति नहीं होती है जितनी चक्षुइंद्रिय के विषय देखने में आसक्ति होती है । कोई आंख का मनोरम विषय देख रहा हो, यदि कोई तुम्हें आवाज लगाये, तो जल्दी सुनाई नहीं देता है, देखने से जल्दी उपयोग नहीं हटता है । देखने की अपेक्षा सूंघने का विषय अधिक आसक्तिजनक है । नाक के विषय की अपेक्षा रसनेंद्रिय का विषय अधिक आसक्ति पैदा करता है । स्वादिष्ट पदार्थों के चखने में विकल्प भी अधिक होते हैं । नाना प्रकार के अनाचार और झगड़े इस जीभ के स्वाद के लिये ही होते हैं । रसनेंद्रिय की अपेक्षा स्पर्शन इंद्रिय के विषय में अधिक आसक्ति होती है । यद्यपि व्यभिचार सुनने का, देखने का, सूंघने का, चखने का और छूने का सभी विषय-रति का नाम है, मैथुन को भी व्यभिचार कहते हैं, सब इंद्रियों के विषयों का नाम व्यभिचार है, परंतु मैथुन के अर्थ में व्यभिचार शब्द रूढ़ हो गया है । क्योंकि सब इंद्रियों के विषयों से अधिक आसक्ति स्पर्शनेंद्रिय की है ।
94. परमार्थत: द्रव्येंद्रिय के द्वारा गंधन न होने से आत्मा की अगंधता―इन इंद्रियों के बनने का क्रम कितनी बातों को साबित करता । ये सब इंद्रियाँ निमित्तनैमित्तिक भाव से बन जाती हैं इन्हें कोई बनाता नहीं है । जो पदार्थ बना परिणमा उसकी विधि का नाम प्रकृति है । निमित्त पाकर स्वयं परिणम जाने का नाम प्रकृति है । ऐसा निमित्त पाकर ऐसा होता ही है, इसी का नाम प्रकृति है । घ्राण (नासिका) पुद्गल द्रव्य है । उनका स्वामी आत्मा नहीं है । अत: आत्मा घ्राणेंद्रिय के द्वारा जानता नहीं है । जीन को स धन ज्ञान ही है । निमित्त के द्वारा उपादान परिणमता नहीं है । जैसे आपने एक वीर की फोटो देखी, उस फोटो को देखकर आप में कुछ बात सी आई । आत्मा के अभिप्राय के कारण वीरता का भाव आया । वीरत्व का भाव उत्पन्न होने में फोटो निमित्त है किंतु भाव पुरुष का है । कर्म प्रकृति के उदय से आत्मा में क्रोध होता है । क्रोध प्रकृतिनामक कर्म की प्रकृति ने क्रोध उत्पन्न नहीं किया । यहाँ यह बात जरूर है कि क्रोधप्रकृति के बिना आत्मा क्रोध नहीं कर सकता है । प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य गुण पर्याय में परिणमता है । निमित्त न हो तो विभाव कार्य नहीं बन सकता है । परंतु उपादान में कार्य उपादान के परिणमन से ही होता है । यह घ्राणेंद्रिय पुद्गल द्रव्य के निमित्त से ही है । यह इंद्रिय रूप रस गंध स्पर्श रूप ही परिणम रही है । और कुछ नहीं कर रही हैं ।
95. परकर्तृत्वबुद्धि का दुष्परिणाम―क्या पिता लड़के को पालता है? नहीं पालता है । पिता को पुत्र का राग था, स्नेह था, उसने राग और स्नेह भाव को खूब किया; रागभाव के करने में जो कुछ हो गया, सो हो गया, परंतु पिता ने उसे पाला नहीं है । कोई द्रव्य किसी द्रव्य का कुछ करता ही नहीं है । जैसे हम तुम्हें समझा रहे हैं ऐसा कोई देखे परंतु तुम्हें हम नहीं समझा रहे हैं, तुम स्वयं समझ रहे हो । अपने सुनाने के राग को मिटाने के लिये हम अपने दुःख को मिटा रहे हैं । यह मनुष्यभव कोई मामूली तपस्या से ही नहीं मिल गया है । इस मनुष्यभव को पाने के लिये इसका पूर्व जन्म से विशेष पुरुषार्थ हुआ होगा । भैया ! इस चैतन्य पौरुष के जाने बिना आत्मा कैसी-कैसी विपत्ति में फंसा? पेड़ में तो देखो आत्मा को कितने प्रदेशों में जाना पड़ा । जल की ही देख लो, बिना छना पानी खींचा और आग पर डाल दिया गया । वहाँ क्या आग पर कोई बचा सकता है । क्या इस जल के जीव हम न थे, और आज किस स्थिति में हैं, पाँच इंद्रियां मिली हैं, सुन सकते हैं, देख सकते हैं, बोल सकते हैं । बड़े-बड़े आचार्यों ने कठिन परिश्रम करके ग्रंथ बनाए, वे सब तुम्हारे-हमारे लिए ही तो हैं परंतु इस पुण्य की कीमत हमारे समझ में कुछ नहीं है । इतना सौभाग्य मनुष्य बनने में है । तुम्हारे पुण्य का उदय है । इस मनुष्यभव को पाकर वह काम करना चाहिए, जो अगले भव में भी काम दे । अन्य वैभव तो यहीं रह जायगा, मगर जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, वह एकदम खो जाने वाला नहीं है । ज्ञान मरने पर भी साथ जायेगा, जो हमारी योग्यता है वह बनी रहेगी । यदि ज्ञान प्राप्त करने में सब कुछ भी गंवा दिया जाये, समझो तुमने कुछ नहीं खोया । हम लाभ में ही रहेंगे, हानि कुछ भी नहीं हुई । इतने सुंदर मनुष्यभव को पाकर ज्ञानवृद्धि में नहीं लगाया तो मनुष्यभव में जन्म लेना निरर्थक है । यहाँ परकर्तृत्व का भाव न लावो । जिसके कम पुण्य का उदय है, उसको अधिक पुण्यशालियों की नौकरी करनी पड़ती है । दूसरों के पुण्य का उदय है, यदि हम काम न करेंगे तो उनका पुण्य फलेगा कैसे? पर कर्तृत्वबुद्धि का फल है कि पर की नौकरी करो । आत्मा की भलाई निर्विकल्प ज्ञान में है । हमें अपनी निर्विकल्प समाधि बनानी है, ऐसी बात मन में तो आनी चाहिए । यह शरीर जिसे आत्मा मानकर सब कुछ कर रहे हो, वह अपने से बिल्कुल भिन्न है । यह शरीर एक दिन जला दिया जाना है । यह शरीर इतना अशुचि है उसी शरीर को आत्मा मानकर बेसुध हो रहे हो, उस शरीर का स्वामी आत्मा नहीं है । शरीर का ही अंग इंद्रियां हैं । आत्मा घ्राणेंद्रिय के द्वारा जानता नहीं है, घ्राण इंद्रिय तो गंध के ग्रहण में निमित्त मात्र है, अत: आत्मा गंधरहित है ।
96. स्वभावत: भावेंद्रिय के द्वारा गंधन न होने से आत्मा की अगंधरूपता―आत्मा गंधरहित है । आत्मा द्रव्य घ्राणेंद्रिय के द्वारा गंध जानता है, अत: आत्मा गंधवाला है, इसका खंडन तो कर दिया, परंतु आत्मा भावेंद्रिय के द्वारा तो गंध जानता है । वर्तमान जो ज्ञान है, वही भावेंद्रिय है उस ज्ञान के द्वारा तो आत्मा गंध जानता है अत: आत्मा गंधवान है । इसका उत्तर यह है कि भावेंद्रिय होती है क्षायोपशमिकभाव, अत: स्वभावत: भावेंद्रिय के द्वारा आत्मा गंध ग्रहण नहीं करता है ।
97. केवलगंधावेदन व ज्ञेयतादात्म्य होने से आत्मा की अगंधरूपता―प्रश्न:―आत्मा गंध ग्रहण तो करता है, अत: इसका गंध से संबंध है, यह मानने में आपको क्या आपत्ति है? उत्तर:―यह आत्मा केवल गंध को ही तो नहीं जानता है, सभी पदार्थों का ज्ञान करता है । जब आत्मा का स्वभाव संपूर्ण विश्व को जानने का है, तब फिर तो संपूर्ण विश्व को आत्मा समझ लेना चाहिये । गंध का जो ज्ञान हुआ, आत्मा उसमें तो परिणत है । फिर भी क्योंकि ज्ञेय ज्ञायक का तादात्म्य नहीं हो सकता है, अत: आत्मा को गंधवाला नहीं कह सकते हैं ।
98. आत्मा में स्पर्शगुणवत्ता व स्पर्शगुणरूपता का अभाव―अब जिस प्रकार गंध के बारे में कहा, उसी प्रकार स्पर्श के बारे में कहते हैं । आत्मा अव्यक्त है । स्पर्शनेंद्रिय के विषय में ही व्यक्त की बात आती है, क्योंकि स्पर्शनेंद्रिय ही व्यक्त है । जैसे इसी आँख को लो, जो दिखता है हाथ से छूने में आता है, वह स्पर्शनेंद्रिय है । उसमें जो देखने का गुण है, वह चक्षुइंद्रिय का विषय है । यह जीभ जो दिखाई दे रही है, उसके छूने से ठंडे, गर्म, कड़े, नर्म का ज्ञान होता है । छूने का विषय स्पर्शनेंद्रिय का विषय है । जीभ में फिर रसनेंद्रियत्व कहा रहा? जो जीभ दिखाई दे रही है, वह स्पर्शनेंद्रिय है । इसी में स्वाद लेने की जो परिणति है, वही रसना इंद्रिय है । स्पर्शन इंद्रिय को व्यक्त इंद्रिय माना है । रसना आदि इंद्रियाँ दिखाई नहीं देती हैं, अत: वे सब इंद्रियाँ अव्यक्त हैं । हम कान से कहाँ से सुनते हैं? जो पर्दा है, उसके छूने से भी कुछ न कुछ ज्ञान होता है, अत: वह कान का पर्दा भी स्पर्शनेंद्रिय है । जिससे ठंडे, गर्म का ज्ञान हो, वह स्पर्शन इंद्रिय है । जो स्पर्श से बोध हुआ वह तो स्पर्शन इंद्रिय है । यह हमारी आंख, जो दिखाई दे रही है, उसके छूने से ठंडा, गर्म, नर्म का ज्ञान होता है, अत: यह आँख भी स्पर्शन इंद्रिय है । सर्वत्र चारों इंद्रियों में स्पर्शन इंद्रिय भी है, फिर भी उनसे भिन्न-भिन्न विषय का ज्ञान हो जाता है । प्रतिनियत विषय का ज्ञान मात्र करने वाली चारों इंद्रियाँ अव्यक्त हैं । ज्ञानीजन कहते हैं कि आत्मा में स्पर्श गुण नहीं है क्योंकि आत्मा पुद्गलद्रव्य से भिन्न है । अत: आत्मा में स्पर्श गुण नहीं है । एक तो आत्मा स्पर्श गुणवाला नहीं है, दूसरे आत्मा स्वयं स्पर्श गुण भी नहीं है, क्योंकि आत्मा पुद्गल के गुणों से न्यारा है । पुद्गल के गुण रूप, रस, गंध, स्पर्श हैं उनसे आत्मा अत्यंत न्यारा है, अत: आत्मा में स्पर्श नहीं है । एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में अत्यंताभाव है । जिसे आप किरणें कहते हैं, वे क्या हैं? सूर्य है? नहीं । सूर्य तो इतना ही प्रकाशमान है जितना सर्व प्रदेश है । सूर्य को निमित्त पाकर वे पास के स्कंध प्रकाशरूप परिणत हो जाते हैं । वे प्रकाशपरिणत स्कंध सूक्ष्म और स्थूल हैं । जब उन स्कंधों को देखते हैं, उन्हीं को किरणें कह देते हैं । सूर्य के प्रकाश की वे प्रकाशपरिणत किरणें गवाक्ष जाल से दिखाई पड़ती हैं । प्रकाशपरिणत जो स्कंध हैं उन्हीं का नाम लहर है । उन्हीं को किरणें कहते हैं । किसी भी द्रव्य का गुण पर्याय प्रदेश द्रव्य से बाहर नहीं पहुंचता है । जहाँ जो आपको चीज दिखाई देती है, वह वहीं की चीज है । एक वस्तु का क्या स्वरूप है? वस्तु का वस्तुत्व क्या है? इसको यथार्थत: समझो तो पदार्थों की स्वतंत्रता समझ में आ जावेगी । यह सब निमित्त-नैमित्तिक भाव का ही व्यवहार चल रहा है ।
99. द्रव्येंद्रियता, भावेंद्रियता, केवल स्पर्शवेदन व ज्ञेयतादात्म्य होने से आत्मा की अस्पर्शरूपता―आत्मा स्पर्श गुण वाला नहीं है क्योंकि पुद्गलद्रव्य से वह भिन्न है । इस पर कहते हैं आत्मा स्वयं स्पर्श गुण भी नहीं है । तो न होओ, किंतु आत्मा द्रव्येंद्रिय के द्वारा स्पर्शन करता है, अत: आत्मा स्पर्श गुणवाला मान लो । उत्तर―नहीं, क्योंकि आत्मा द्रव्येंद्रिय का स्वामी ही नहीं है, अत: द्रव्येंद्रिय का और आत्मा का कोई संबंध नहीं है । जैसे दर्पण है । दर्पण के सामने जो भी चीज आयेगी वह उसमें प्रतिबिंबित हो ही जायेगी । यदि निमित्त हट जाये तो उसका प्रतिबिंब भी दर्पण में नहीं पड़ेगा । ऐसा निमित्तनैमित्तिक भाव है। तथापि दर्पण में जो बिंब है वह दर्पण की परिणति है, उसमें इसके निमित्त का कोई अंश नहीं गया । अब जिज्ञासु पूछता है कि द्रव्येंद्रिय के द्वारा आत्मा स्पर्श नहीं करता है । चलो यह मान लिया, परंतु भावेंद्रिय के द्वारा तो आत्मा स्पर्श ग्रहण करता है? उत्तर है कि भावेंद्रिय क्षायोपशमिक पदार्थ है, अत: आत्मा स्वभावत: भावेंद्रिय के द्वारा स्पर्श गुण को नहीं जानता है ।
शंका:―किसी भी तरह जानो आत्मा स्पर्श गुणको जानता तो है? अत: आत्मा स्पर्श वाला होना चाहिये । समाधान:―कहते हैं कि आत्मा तो विश्व को जानता है विश्व को जानने से आत्मा विश्व वाला हो जाना चाहिये? अत: आत्मा स्पर्शज्ञान तो करता है, परंतु स्पर्श गुणवाला नहीं है । पुन: जिज्ञासु पूछता है कि आत्मा स्पर्शज्ञान में परिणत है, उससे आत्मा तन्मय है अत: स्पर्शवाला आत्मा मान लिया जाना चाहिए । उत्तर―स्पर्श ज्ञेय पदार्थ है, ज्ञायक आत्मा है तथा ज्ञेय ज्ञायक पदार्थ कभी तन्मय नहीं हो सकता है । अत: आत्मा अस्पर्श है, अव्यक्त है । इस प्रकार आत्मा को अरस, अरूप, अगंध, अस्पर्श सिद्ध किया गया है । ज्ञेय और इंद्रियों के संबंध में सर्वत्र निमित्त-नैमित्तिक भाव है । निमित्त-नैमित्तिक का इतना संबंध होता है कि पदार्थ में उसी के अनुसार परिणति हो जाती है, ऐसा होने पर भी प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र ही है; स्वतंत्र होकर ही परिणमते हैं । आत्मा के लक्षण में अभी यह बताया गया था कि उसमें रूपादि पुद्गल के चार गुण नहीं हैं । जिस आत्मा में ये चारों गुण और उनके परिणमन नहीं हैं, उस सामान्य, दर्शनज्ञानमय आत्मा को समयसार में शुद्ध आत्मा कहा है ।
100. आत्मा की इंद्रियरहितता और इंद्रियागोचरता―जीव रसरहित है, रूपरहित है, गंधरहित है, स्पर्शरहित है, ऐसा कहने में यह आया कि चार प्रकार के गुणों से रहित है और इन गुणों की पर्यायों से भी रहित है । पुद्गलद्रव्य में ये चार गुण पाये जाते हैं―रूप, रस, गंध, स्पर्श । आत्मा रूप, रस, आदिक से रहित है, इसका अर्थ यह निकला कि आत्मा में न तो रूपादिक गुण हैं और न रूपादिक परिणमन हैं । यों यह आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है, यह शब्द से रहित है । शब्द कोई गुण नहीं होता, किंतु यह एक द्रव्यपर्याय है । पुद्गल द्रव्य की द्रव्यव्यंजनपर्याय है । जैसे कि बंध सूक्ष्म स्थूलतम छाया आदिक पुद्गल की द्रव्यपर्याय है इसी प्रकार शब्द भी भाषा वर्गणा जाति के स्कंधों की द्रव्यपर्याय है । अर्थात् शब्द का आधारभूत, स्रोतभूत कोई ऐसी शक्ति नहीं जो शक्ति गुण निरंतर द्रव्य में रहा करे, किंतु भाषावर्गणा जाति के पुद्गल में जब संयोग अथवा वियोग होता है तदनुकूल उससे शब्द की उत्पत्ति होती है । आत्मा शब्दरहित है―इसका अर्थ यह हुआ कि शब्द पर्याय से रहित है, यह अपने पंचेंद्रिय के विषयों की अपेक्षा से वर्णन किया । 5 इंद्रियां हैं―स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत, ये 5 विषय है, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द । इन पाँचों से रहित यह आत्मा है इससे यह भी सिद्ध हुआ कि आत्मा कभी भी स्पर्शन इंद्रिय से नहीं जान सकता । चाहे कि हम टटोलकर आत्मा को समझ जायें कि आत्मा क्या है तो आत्मा स्पर्शनइंद्रिय से न जाना जायेगा, रसना इंद्रिय से भी न जाना जायगा क्योंकि रसरहित हे । कोई चाहे कि मैं आत्मा को चखकर समझ लूं कि इसका स्वाद क्या है ? बहुत-बहुत आचार्यजन कह रहे हैं कि आत्मा में अनंत आनंद है, आत्मा में समरस है, समता अमृत का रस भरा पड़ा हुआ है तो उसे जीभ से चख ले, ऐसा कोई समता अमृत का रस नहीं है, आत्मतत्त्व नहीं है जो जीभ से चखा जाये । यह सूंघने से भी ज्ञात नहीं होता । कोई सूंघ-सूँघकर समझ ले । सूंघने से बहुत सूक्ष्म बात समझी जाती है । भला गंध जो सूंघने में आती है क्या उसका आकार आपने देखा है ? अथवा किसी अन्य इंद्रिय से पहिचान लें ऐसी गंध होती है क्या? कितनी सूक्ष्म वस्तु है, सूक्ष्मभाव है वह गंध । कोई सोचे कि उस सूक्ष्म गंध तत्त्व को हम घ्राण इंद्रिय से सूंघ सूंघकर जान लेंगे तो घ्राण इंद्रिय से नहीं जाना जाता है । उसमें रूप नहीं है । तो चक्षुइंद्रिय से भी नहीं जाना जाता है । आत्मा नेत्रइंद्रिय से भी अगम्य है और श्रोत्र इंद्रिय से भी आत्मा नहीं परखा जाता । यों आत्मा पंचेंद्रिय के विषयों से रहित है ।
101. आत्मा की चैतन्यगुणात्मकता―फिर है क्या आत्मा के अंदर? चेतना गुण है । यह चेतना इस जीव का अभिन्न प्राण है । अनात्मभूत लक्षण है । चेतना न हो आत्मा में फिर क्या है? देखो मोह से काम न चलेगा । किसी चीज की चिंता रखने से काम न चलेगा । जगत के ये जितने बाह्य परिकर हैं ये सब असार हैं, भिन्न हैं, इनकी प्रीति करने में हित नहीं है । इंद्रिय विषयों से भी प्रेम करने में हित नहीं है । मोह छोड़कर ही प्रभु के दर्शन हो सकेंगे । यह चैतन्य गुण है सो ही तो प्रभु है । हम इस प्रभु के दर्शन करना चाहें और कषायों को मोह को छोड़े नहीं तो यह कभी संभव नहीं कि मुझमें विराजमान विशुद्ध परमात्म तत्त्व का दर्शन हो सकेगा । पुद᳭गलद्रव्य का स्वामी पुद्गल है । आत्मद्रव्य का स्वामी आत्मा है । घर में रह रहे हैं, राग करना होगा, व्यवस्था रखनी होगी वह सब तो ठीक है, किंतु चित्त में यह सही ज्ञान बनाये रहें कि जब शरीर भी मेरा नहीं है तो और कुछ मेरा होगा क्या? और समझ लो कि यदि आज यहाँ पैदा न हुये होते तो यहाँ के लिए क्या थे? तो आत्मा का जो असाधारण लक्षण चेतनागुण है उस चेतनागुण का जिन्होंने अनुभव किया है वे पुरुष ज्ञानी हैं, महापुरुष हैं, धीर हैं, गंभीर हैं । उनके मोह नहीं रहता, कषायें भी नहीं जगती । ऐसे ही उपयोग से इस चैतन्यगुण का दर्शन होता, अनुभव होता । आत्मा में है एक चैतन्य नामक तत्त्व उस चैतन्य को ही आत्मा कहते हैं।
102. गुण गुणी का व्यवहारत: भेदकथन―गुण गुणी भिन्न नहीं हुआ करते । जैसे मटका में बेल रख दिया इस तरह आत्मा में चेतना बन गई ऐसा नहीं है । जो दार्शनिक एक थोड़ा सा स्वरूप कथन भेद पाकर स्वभाव और स्वभाववान को अलग कर देते हैं और फिर स्वभाव का स्वभाववान में समवाय संबंध से जोड़ करते हैं, भेद नहीं, कभी तो स्वभाव अलग होने का नहीं ऐसा वे समाते जाते हैं और फिर भी स्वभाव से पृथक् तत्त्व समझकर स्वभाववान में सम्वाय संबंध से स्वभाव को जोड़ते हैं । जैसे आत्मा का ज्ञानस्वभाव है, लेकिन इस कथन भेद से कि आत्मा तो है गुणी और गुण है गुण । गुण का स्वरूप एक जानन है, आत्मा का स्वरूप । जैसे स्याद्वादी भी कहते हैं कि अनंत धर्मों का आधारभूत आत्मा है, वह है धर्मी, ज्ञान है धर्म । तो ज्ञान का स्वरूप कुछ भिन्न जंचा ना किसी रूप से । इतनी-सी गुण युक्ति के भेद कथन का आधार पाकर एकदम यह कह दिया कि गुण भी एक पदार्थ है, आत्मा भी एक पदार्थ है, और जो समवाय संबंध आत्मा में ज्ञान का है तो आत्मा ज्ञानी है । यह समवाय कभी टूटेगा नहीं । ज्ञान आत्मा से कभी अलग था और फिर लग गया हो ऐसा नहीं है । अनादि समवाय मात्र है । भले ही निर्वाण को कुछ स्थिति मानने पर आत्मा और ज्ञान का संबंध ये मीमांसक लोग न माने, तथापि समवाय तो उसका अनादि से मानते हैं, लोग गुण गुणी के कथन का भेद मात्र पाकर कहते हैं कि ज्ञान अलग पदार्थ है और आत्मा अलग पदार्थ है । पर ऐसा नहीं है । ज्ञान ही का नाम आत्मा है । कोई एक बात जो आँखों से बिल्कुल साफ दिख रही है उसको समझाने के लिए आप क्या करेंगे? बातों से टुकड़ा करेंगे । चीज का तो टुकड़ा न होगा । जैसे एक चौकी का ही स्वरूप जानना है तो चौकी वह पूरी ज्ञान में आयी, वहाँ कुछ कभी न रही । अब ज्ञान में आयी हुई उस चौकी को जब हम समझाने बैठते हैं तो हम उसको अब तोड़ने लगते हैं, चौकी नहीं टूटती, बातों से तोड़ने लगते हैं, देखो इसमें चौकोर आकार पड़ा हुआ है, इसमें रूप पड़ा हुआ है, इस प्रकार का रूप है आदिक हम तोड़-मरोड़ करते हैं, पर यह सब एक व्यवहार कथन है । निश्चय से चौकी कुछ और है, आकार कुछ और है, रूपादिक कुछ और हैं, ऐसी बात नहीं है । इसी प्रकार आत्मा में ज्ञान को समझाने के लिए भेद कथन है, पर आत्मा में ज्ञान बसता है, यह बात नहीं है । आत्मा ही स्वयं पूरा ज्ञानस्वरूप है । यह चैतन्य गुणात्मक है । जब कभी पर की अपेक्षा करके निर्विकल्प स्थिति से अपने आपमें आपका परिज्ञान होता है, परम विश्राम होता है तो उस स्थिति में आत्मा चैतन्यमात्र है, यह अनुभव में आता है ।
103. आत्मा की अनिर्दिष्ट संस्थानरूपता―ज्ञानी जीव ने इस चैतन्यस्वरूप का अनुभव किया है । तो यों आत्मा चैतन्यगुणस्वरूप है, इसका कोई आकार नहीं है । जो आकार समझ में आ रहा है वह आकार संबंधजनित है । संसार अवस्था में जिस देह में यह जीव गया उस देहरूप लगता है अज्ञानी को और देह का जो आकार है उस आकार यद्यपि प्रदेश हो रहे लेकिन आत्मा का ऐसा आकार बनना, यह आत्मा के स्वभाव से बनी हुई बात नहीं है । जिस पर्याय में जाता है, जिस देह में रहता है, जिस देह के आकार जीव होता है, पर जीव स्वयं अपने आपके सत्त्व से अपनी ओर से इस प्रकार आकार बदलता रहे सो बात नहीं है । इसलिये इसका कोई संस्थान नहीं बताया जा सकता कि आत्मा का आकार क्या होता है। जैसे परमाणु का आकार बताया जाता, परमाणु एक प्रदेशी है, अब वह जैसा हो षट्कोण गोल जिस प्रकार भी वर्णन है सब अणुवों का सब परमाणुवों का एक ही प्रकार है आकार में, इसी प्रकार जीवों का सबका एक ही प्रकार का आकार हुआ, सो बात नहीं ध्यान में आती । यहाँ तक कि जो सिद्ध जीव हुए हैं, सिद्ध भगवंत हैं, उन सबका भी आकार एक हो, सो भी बात नहीं । यद्यपि वे मनुष्यभव से ही मुक्त हुए हैं, उनका आकार मनुष्यभव अनुरूप ही पाया जा रहा जो पहिले था देह न रहकर भी, लेकिन कोई 7 हाथ की अवगाहना वाला, कोई 50 हाथ की, कोई 500 धनुष की और कोई 525 धनुष की अवगाहना वाला, तो वहाँ भी एक आकार बन सकता । कारण यह है कि वह जिस भव से मुक्त हुए हैं, आकार घटता बढ़ता था कर्मों के उदय से संसार अवस्था में । जब अष्टकर्मों से मुक्त हो गए तो तत्काल ही जैसा जो कुछ आकार था वह आकार रह जाता है । वह कम बढ़ नहीं होता । तो जीव का संस्थान कुछ निर्दिष्ट नहीं है ।
104. आत्मा की अलिंगग्रहणता―यह आत्मा किसी लिंग से पहिचाना नहीं जाता । किसी चिह्न से नहीं जाना जाता । हेतु से चिह्न से जैसे कि यहाँ मूर्तिक पदार्थों से एक परिचय हो जाता है इस तरह परमार्थ जो ज्ञानस्वभाव जो जीवतत्त्व है, ज्ञानमात्र है उस ज्ञानस्वरूप जीव का क्या लिंग है प्रकट जिससे झट जान जायें । अगर इसका कोई चिह्न प्रकट होता तो सभी एक ढंग से एक सहीरूप से जान जाते जीव को । कोई अज्ञानी ही न रहता । तो जीव इस प्रकार ऐसा गुप्त स्वरक्षित ज्ञानियों को व्यक्त, अज्ञानियों को अव्यक्त एक चैतन्य गुणस्वरूप है । यदि कोई केवल ज्ञान, ज्ञान का स्वरूप जो कुछ होता है, जो कुछ समझा है । केवल जानन को एक उपयोग में रखे रहे उस स्वरूप के तो उसका उपयोग बाह्य पदार्थों के संपर्क से और आकुलताओं से दूर होगा और वह अपने में ज्ञान का अनुभव करेगा क्योंकि ज्ञान ही ज्ञान का अनुभव करता है और उस अनुभव की स्थिति यह होती है कि ज्ञान ही ज्ञेय रहता, ज्ञान ही जाननहार रहता अर्थात् स्वयं जानने वाला स्वयं के विशुद्ध जाननस्वरूप को जानने लगे तो वहाँ ज्ञानानुभूति होती है । परमार्थभूत चेतन क्या है? यह वहाँ समझ में आता है ।
105. अध्यात्मज्ञान की उपयोगिता―यह अध्यात्म ज्ञान कलेवा (पाथेय) के समान है जिसकी दृष्टि करने से धर्म होता है, वह समझ में आ जाये तो जहाँ भी होओ, तनिक दृष्टि दो और धर्म का फल प्राप्त कर लो । ऐसी शुद्ध आत्मा का इस समयसार में वर्णन है । वह शुद्ध आत्मतत्त्व प्रत्येक जीव में है । पर्याय अशुद्ध है । जिस काल में जो पर्याय है, वहाँ भी दृष्टि की महिमा से शुद्ध आत्मतत्त्व को यह जीव देख ही लेता है । देखो भैया ! अशुद्ध की दृष्टि से शुद्धि प्राप्त होती नहीं और पर-शुद्ध की दृष्टि से भी शुद्धि नहीं होती । इस निज शुद्ध स्वभाव की दृष्टि से शुद्धि होती है ।
वह शुद्ध आत्मतत्त्व कैसा है, सो बतलाते हैं । यह अंगुली जैसे टेढ़ी, सीधी आदि रूप 10 तरह से परिणम गई, किंतु वह एक अंगुली सभी रूपों में विद्यमान है । वही एक जिसे ज्ञान के द्वारा तुम जान रहे हो, वह जानी हुई अंगुली शुद्ध कहलाती है । दसों तरह की अंगुली बनी, उसमें जो एक रहे, उसे शुद्ध कहते हैं, जो न टेढ़ी है और न सीधी ही है । शुद्ध आत्मतत्त्व का जब वर्णन करेंगे तो वह न नारकी है, न मनुष्य है, न देव है और न तिर्यंच ही है आदि, किंतु सर्व परद्रव्य व परभावों से विविक्त निज चेतनमय आत्मा है । जितनी भी पर्यायें हैं वह शुद्ध आत्मा नहीं हैं ऐसा शुद्ध आत्मतत्त्व है । जीव न मुक्त है न संसारी है । कह रहे हैं उसी चैतन्यतत्त्व को जो न बहिरात्मा है, न अंतरात्मा है और न ही परमात्मा है यद्यपि वह क्रमश: सभी पर्यायों में रहता है, फिर भी वह इन सभी पर्यायों से भिन्न है अतएव शुद्ध है । जो लोग पाप करने में धर्म मानते हैं, उन की बात भी अपेक्षा से ठीक है । जैनशास्त्रों में बतलाया गया है कि मिथ्यात्व के तीव्र उदय में जीव को उलटी-उल्टी बात सूझा करती है । मिथ्यात्व उल्टा ही दिखाई देता है ।
106. आत्मस्वरूप का अंतर्दर्शन―आत्मा न शिष्य है, न गुरु है, न उत्तम है, न नीच है, न मनुष्य है, न देव है, न नारकी है और न तिर्यंच ही है―ऐसे शुद्ध आत्मतत्त्व को योगी जानता है । परिणमन में शुद्ध आत्मतत्त्व नहीं है । एक शुद्ध आत्मतत्त्व चैतन्यमात्र है । आत्मा न पंडित है, न मूर्ख है, आत्मा केवलज्ञानी नहीं है, मतिज्ञानी नहीं है । वह तो शुद्ध चैतन्यतत्त्व है । शुद्ध अग्नि वह है जो किसी प्रकार या पर्याय में बद्ध नहीं है । पर्याय, अपेक्षा, भेद, अंश इनका नाम ही अशुद्धता को लिये हुए है । शुद्ध अग्नि को कोई आकार नहीं है । शुद्ध अग्नि के सही अर्थ में कोई अपेक्षा न लगाओ, वही शुद्ध अग्नि है । सीधी अंगुली शुद्ध अंगुली नहीं है । टेढ़ी, सीधी, तिरछी आदि समस्त पर्यायों में रहने वाली एक अंगुली शुद्ध अंगुली है । इसी प्रकार नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव, सिद्ध पर्याय आदि में जो आत्मा है, वह तो जानने में आयेगा । परंतु उन सब पर्यायों में से किसी भी पर्याय में न रहने वाला आत्मा न मिलेगा । द्रव्य का भी कोई निज स्वरूप है । द्रव्य के लक्षण में पर्याय नहीं है । जैसे मनुष्य वह है जो बूढ़ा भी है, जवान भी है, बालक भी है―सभी अवस्थाओं में जाकर भी उन पर्यायरूप नहीं है । वह आंखों से दिखाई नहीं देता है, उसे कहते हैं शुद्ध मनुष्य । उस शुद्ध तत्त्व पर उपयोग जाने से संसार के समस्त विकल्प मिट जाते हैं । यदि वह अनुभव में आ जाये तो कहना ही क्या ! वह शुद्ध आत्मतत्त्व जो न मनुष्य है, न देव है, सब अवस्थाओं में जाकर भी किसी एक अवस्थारूप बनकर नहीं रहता है ।
107. परिणमन की श्रद्धानुसारिता―द्रव्य की शक्ति अनादि अनंत है । रूपादि का नाश नहीं हो सकता है । रूप सदा रहता है । परंतु उसमें परिणमन होता रहता है । आप शक्ति का स्वरूप सोच रहे हैं तो विकल्प में पर्याय नहीं रहना चाहिए । ध्रुव पर दृष्टि डालोगे तो ध्रुव बनोगे और यदि अध्रुव पर दृष्टि डालोगे तो अध्रुव बनोगे । यदि यह श्रद्धा करो कि हम सामान्य आत्मा हैं तो आपके समस्त विकल्प छूट जायेंगे । जिनमें यह विश्वास बन गया है कि मैं उसका पिता हूं उसको बच्चों की रक्षा करनी ही पड़ेगी । जिन्हें यह विश्वास है कि मैं अमुक हूं, उसके अनुसार उसे अपना काम करना पड़ता है । त्यागियों को जल्दी गुस्सा इसलिये आता है कि उन्हें विश्वास बना रहता है कि मैं त्यागी हूँ, इतनी पोजीशन का हूँ, किंतु सम्मान इतना मिलता नहीं । इस पर्यायबुद्धि के कारण गुस्सा आता है । पर्यायबुद्धि होने के कारण पर्याय के मुताबिक काम करना ही पड़ता है । यदि काम उसके अनुसार न हो तो गुस्सा आ जाता है । सुबह का समय है, सब घूमने जा रहे हैं। एक सेठ जी भी घूमने के लिए निकले । सामने से एक किसान सेठजी को बिना नमस्कार किये निकल जाता है । यह देखकर सेठजी को गुस्सा आ जाता है । कषाय उत्पन्न होने का मूल कारण पर्याय में अहंकार बुद्धि है । संसार में सर्वत्र बस पर्यायबुद्धि का आदर हो रहा है । संसार के समस्त झगड़े, नटखट यह पर्यायबुद्धि ही कराती है । सर्व पापों में महान पाप पर्यायबुद्धि ही है, क्योंकि पर्यायबुद्धि में प्रगति का अवसर ही नहीं मिल पाता ।
108. आत्मतत्त्व के दर्शन के यत्न की चर्चा―जिस पर्याय की दृष्टि करने पर इतने ऐब लगते हैं उस पर्याय को भुलाने पर शुद्ध आत्मतत्त्व के दर्शन होते हैं । देखने वालों की विशेषता है, देख सके तो देख लें, न देख सके तो न देख पावें । वास्तव में देखा जाये तो शुद्ध चैतन्य स्वभाव ही धर्म है । इसका उपयोग बने रहना ही धर्म है, शील है और तप है । जिस जीव को इतनी लगन हो गई कि मैं उस शुद्ध आत्मतत्त्व की निगाह से कभी भी अलग न होऊं, मेरा अधिक समय इसी शुद्ध आत्मतत्त्व की निगाह में लगे तो संग्रह अपने आप छूटते जाते हैं । शुद्ध तत्त्व की सिद्धि के लिए साधु का वेश अपने आप हो जायेगा । आप देखते हैं कि जिनकी इतनी ऊंची वृत्ति है, ऐसा महात्मा भोजन के लिए घर आये तो कितने लोग आहार न करायेंगे, कितने लोग उनकी भक्ति वैयावृत्ति नहीं करेंगे । भक्ति करना माने प्रतिग्रह । मुनि आदि के प्रतिसमय शुद्ध आत्मतत्त्व की दृष्टि बनी रहती है । मुनि आदि की ये तपस्यायें शुद्ध आत्मतत्त्व की दृष्टि के लिए हैं । ये तपस्यायें उद᳭दंड के लिए दंड देना है ऐसा उनका विचार है ताकि हमारी शुद्ध आत्मतत्त्व की दृष्ट बनी रहे । धर्म का लक्षण शुद्ध आत्मतत्त्व की दृष्टि है । भगवान की भक्ति तो योगी का ध्येय ही नहीं है । योगी का ध्येय शुद्ध तत्त्व पर दृष्टि करना मात्र है । शुद्ध तत्त्व की दृष्टि में जो-जो बाधाएं होनी हैं वह उनसे छुटकारा पाने के लिए भगवान की भक्ति करता है । शुद्ध तत्त्व की दृष्टि में जब बाधा आती है उसको दूर करने का उपाय स्वाध्याय है, अध्ययन है, भक्ति है, पूजा है, तपस्या है । भगवान की भक्ति के लिए वह मुनि नहीं बना है, वह मुनि बना निज राम की उपासना के लिए । रमंते योगिनो यस्मिन् इति राम: अर्थात् आत्मा । कुछ तत्त्व न रोगी है, न गरीब है, न धनी है न मनुष्य है, न देव है, न नारकी है, न तिर्यंच है । चैतन्य मात्र में शुद्ध तत्त्व बसता है । शुद्ध तत्त्व अनुभव की चीज है । मिश्री का अनुभव अनुभव से ही होता । तुम जितनी बात बोलोगे वह शुद्ध तत्त्व नहीं है । खालिस आत्मा का नाम शुद्ध आत्मा । शुद्ध आत्मा का वर्णन किया गया, इसमें न रूप है, न स्पर्श है, न गंध है, न रस है और न शब्द है ।
109. जीव का लक्षण चैतन्य―आत्म-प्रकरण चल रहा है कि जीव कैसा है? जीव वह कहलाता है कि जिसमें जानने-देखने की ताकत हो । आत्मा में ही जानने-देखने की ताकत है । शरीर में जानने देखने की शक्ति नहीं है अत: आत्मा शरीर से अलग है । जीव जो करता है वह उसका कर्म है । उसी के अनुसार यह फल भोगता है । जीव का लक्षण चैतन्य है । चैतन्य का काम है जानना-देखना । चैतन्य स्वभाव की अपेक्षा सब जीव समान हैं । जीव के कर्म और कषाय का पर्दा लगा है । सब कहते हैं कि किसी तरह यह पर्दा हटे, परंतु हटता नहीं है । जीव दो प्रकार के होते हैं:―(1) कर्म सहित (संसारी) और (2) जिनके कर्म छूट गये हैं (मुक्त) । कर्मसहित जीव संसारी कहलाते हैं और कर्म से छूटे हुए जीव मुक्त कहलाते हैं । जिन्हें कर्मों से छूटने की इच्छा है, उन्हें प्रथम, कर्म से छूटे हुए सिद्ध भगवान् की और अरहंत भगवान की भक्ति करनी चाहिये । जिस तरह भगवान् सिद्ध ने परिग्रह छोड़ा, उसी प्रकार भगवान की भक्ति करने से परिग्रह छोड़ने का रास्ता मिलता है । मुक्त जीव सिद्ध हैं । मुक्त जीव सब एक किस्म के हैं । जैसे खालिस दूध सब एक तरह का होता है, परंतु जिसमें पानी मिला है, वह तो कई प्रकार का हो सकता है―एक छटांक पानी वाला, आधा पानी वाला आदि । दूध में जिस दूध के अलावा कोई चीज नहीं है, वह खालिस दूध कहलाता है । वह तो एक ही तरह का है । इसी प्रकार जो जीव कर्म से मुक्त हैं, वे सब एक प्रकार के हैं ।
110. संसारी जीवों के भेद व स्थावरों का वर्णन―जो जीव कर्मसहित हैं वे दो प्रकार के हैं:―त्रस और स्थावर । जिनके केवल एक स्पर्शन इंद्रिय है, वे स्थावर जीव हैं, ये जीव एकेंद्रिय जीव कहलाते हैं । जिनके रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इंद्रिय होती है वे सब त्रस जीव हैं । ये क्रमश: द्वींद्रिय, तीन इंद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय जीव हैं, जिनके केवल एक ही इंद्रिय है, ऐसे स्थावर जीवों के भेद हैं―पृथ्वीकायिक, वायुकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वनस्पतिकायिक जीव । इनमें से वनस्पतिकायिक जीव दो तरह के होते हैं:―साधारण वनस्पतिकायिक जीव और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव । साधारण वनस्पतिकायिक जीव निगोदिया जीवों को कहते हैं । हरी वनस्पति, फूल, फल, पत्ते आदि को प्रत्येक वनस्पति जीव कहते हैं । प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों में एक शरीर का स्वामी एक ही है । और साधारण वनस्पतिकायिक जीवों में एक शरीर के स्वामी अनंतानंत निगोदिया जीव हैं । साधारण वनस्पति आँखों से दिखाई नहीं देती है । प्रत्येकवनस्पति आँखों से दिखाई देती है । बहुत से लोग आलू-प्याज आदि को साधारण वनस्पति कहते हैं । परंतु साधारण वनस्पति तो दिखाई नहीं देती है, प्रत्येक वनस्पति दिखने में आती है, अत: आलू आदि साधारण वनस्पतिकाय नहीं है । प्रत्येक वनस्पति के दो भेद हैं:―(1) साधारण सहित प्रत्येकवनस्पति और साधारणरहित प्रत्येकवनस्पति । साधारणसहित प्रत्येक में अनंत निगोदिया जीव रहते हैं अत: इसे सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं, पालक की भाजी, आलू, रतालू, अरबी आदि ऐसी ही वनस्पतियां हैं । जिनके मोटे पत्ते होते हैं उनमें अनंत निगोदिया जीव रहते हैं । अप्रतिष्ठित प्रत्येक में अनंत निगोदिया जीव नहीं रहते हैं । फिर भी इसमें असंख्यात प्रत्येक वनस्पतिकायिक हैं । इन्हें अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं । इसमें भिंडी, लोकी, सैम, सेंगरे आदि हैं । असंख्यात प्रत्येक होने के कारण इन्हें लोग अष्टमी, चौदस को नहीं खाते हैं ।
111. त्रसजीवों के प्रकार―अब त्रस जीवों को कहते हैं । जिसके दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय व पाँच इंद्रिय होती हैं उन्हें त्रस कहते हैं । जिन जीवों के दो इंद्रियां होती हैं, घ्राण नहीं होती है उन्हें द्वींद्रिय त्रस कहते हैं । जिनके घ्राण इंद्रिय तो होती है, परंतु चक्षु नहीं होती, उन्हें त्रींद्रिय त्रस कहते हैं । जिनके चक्षुइंद्रिय होती है, कर्ण नहीं होती उन्हें चतुरिंद्रिय त्रस कहते हैं और जिनके कर्णेंद्रिय भी होती है, उन्हें पंचेंद्रिय त्रस कहते हैं । पंचेंद्रिय दो प्रकार के जीव होते हैं । एक मन वाले जो हिताहित का विवेक रखते हों, उन्हें संज्ञी पंचेंद्रिय जीव कहते हैं, और दूसरे जिनके मन नहीं होता और शिक्षा उपदेश भी ग्रहण न कर सकें, उन्हें असंज्ञी पंचेंद्रिय कहते हैं । असंज्ञी जीव तिर्यंच गति में ही होते हैं । यदि जीव के साथ कर्म न लगा हो तो सब ही जीव एक से हो जायेंगे । किसी को क्रोध आता, खोटे भाव उत्पन्न होते यह सब कर्म के उदय के निमित्त कारण से ही होता है । अत: सर्वप्रथम कर्मों का क्षय करना चाहिए किंतु कर्मों का क्षय कर्मदृष्टि से नहीं होता । यह मनुष्यभव कर्मों का क्षय करने के लिए ही प्राप्त हुआ है । स्वभावदृष्टि―साधक भक्ति पूजा, धर्म स्वाध्याय―ये सब कर्मक्षय करने के लिये ही प्राप्त हुए हैं । सर्व कर्मों का क्षय हो जाये तो शुद्ध चैतन्य भाव प्रकट होता है । धन से भी बड़ी चीज धर्म है । धर्म का संबंध आत्मा से है, धन से आत्मा का संबंध नहीं है । प्रत्येक दृष्टि से धर्म करना श्रेष्ठ है । बाह्य चीजें, जो भी मिलती है, वे हितकर चीजें नहीं हैं । परंतु लोग बाह्य पदार्थों की ही इज्जत करते हैं ।
112. जगत के विविध जीवों को देखकर शिक्षाग्रहण―ये जगत के नाना तरह के जीव हैं । इनको देखकर अनुभव करना चाहिए कि धर्म न करने से यह कीड़ा हुआ है । मकोड़ा हुआ है । धन से भी बड़ी चीज धर्म है । जीव के नाना भेद देखो तो तुम्हारे में ऐसी तर्कणा उत्पन्न होगी कि धर्म न करने से ही ऐसी गति होती है । कोढ़ी को देखकर यह विचारो कि धर्म न करने से ये कोढ़ी हुए । इसी हेतु मन में उनके प्रति दया आती है । दया इसलिए आती है कि कभी ऐसे हम न हो जायें । अतएव हम लोगों को दुखियों की रक्षा करनी पड़ती है । धर्म न करने से ही संसार की सारी बातें होती हैं । जीव की सभी अवस्थाओं में सदा चैतन्यस्वभाव रहता है । उस एक चैतन्यस्वभाव की दृष्टि हो जावे कि मैं एक चैतन्य सबसे न्यारा हूँ, ज्ञानमात्र हूँ, मैं आत्मा में ही हूँ, इस प्रकार जितनी भी आत्मा की दृष्टि आवे उतना ही धर्म है । धर्म यही है कि चैतन्यस्वभाव की दृष्टि होवे । दुखियों को देखकर चैतन्यस्वभाव की दृष्टि लगा लेनी चाहिए । धर्मसेवन के लिए ज्ञान बढ़ाना चाहिये । भगवान के स्वरूप निहारने में भी धर्म है । सामायिक में अपना स्वभाव विचारो । पूजा में भगवान की और निजस्वभाव की भक्ति की जाती है । अत: पूजा और भक्ति से भी धर्म होता है । भैया ! भगवान की भक्ति और आत्मा का ध्यान करके अधिक से अधिक विशुद्ध लाभ लो ।
113. विभक्त निज एकत्व को जाने बिना शांति मार्ग का अलाभ―बहुत कुछ जानकर भी जिस एक के जाने बिना आत्मा के क्लेश नहीं मिटते उस एक के स्वरूप का यहाँ वर्णन है । जगत में दुःख अनंत हैं, जो पदार्थ अपने नहीं थे, न होंगे, उनके संबंध में धारणा बनाना कि ये मेरे हैं, सब दु:खों की मूल यह धारणा है । दुःख को दूर करने के लिए इस धारणा को बहुत कोशिश करके मिटाना चाहिए । जगत के पदार्थ मेरे से भिन्न हैं, मगर भीतर से विश्वास नहीं होता कि ये पदार्थ मेरे नहीं हैं । अंतर में यदि यह विश्वास जग जाये कि ये पदार्थ मेरे नहीं हैं तो सम्यग्ज्ञान हो जाये । सम्यग्ज्ञान यथार्थ ज्ञान को कहते हैं । पदार्थ जैसा है, उसमें वैसी श्रद्धा करना सो सम्यग्ज्ञान है । पदार्थ जैसा है यदि उसका वैसा ज्ञान कर लिया जाये तो पदार्थ के शुद्ध स्वभाव के ज्ञान करने में बहुत सहूलियत मिलती है ।
114. पदार्थों का विश्लेषणात्मक परिज्ञान―पदार्थों को सुगमतया जानने के लिए प्रथम उनके भेद जानने पड़ेंगे । समस्त पदार्थ कितने हैं? संसार में एक दो जितने हो सकते हैं, उतने ही पदार्थ हैं । एक उतना होता है जिसका दूसरा कोई खंड न हो सके । पदार्थ एक वह होता है जिसका दूसरा हिस्सा किसी भी हालत में नहीं हो सकता है । मैं भी एक आत्मा हूँ आप भी एक आत्मा है, समस्त संसार के प्राणियों का आत्मा एक लक्षण होकर भी अलग-अलग है, अंश नहीं हो सकता है । तो क्या दिखाई देने वाले चौकी पुस्तक आदि पदार्थ एक हो सकते? नहीं, ये पदार्थ नहीं हैं । ये अनेक परमाणुओं का पुंज है । क्योंकि जिस पदार्थ का दूसरा हिस्सा हो जाता है, वह एक नहीं है । चौकी आदि पदार्थों के तो अनेक हिस्से भी हो सकते हैं । चौकी पुस्तक का प्रत्येक सबसे छोटा हिस्सा एक-एक स्वतंत्र द्रव्य है उसका नाम परमाणु है । इस प्रकार अनंत परमाणुओं का ढेर स्कंध कहलाता है । एक-एक परमाणु वस्तु है । धर्मद्रव्य एक है, आकाश द्रव्य एक है, अधर्म द्रव्य एक है और एक-एक करके असंख्यात कालद्रव्य हैं । एक-एक परमाणु एक-एक अलग द्रव्य है । इसका कारण यह है कि ये एक-एक द्रव्य अपने ही परिणमन से परिणमते हैं । प्रत्येक द्रव्य अपने ही द्रव्य क्षेत्र काल में रहता है । अत: प्रत्येक द्रव्य न्यारा-न्यारा स्वतंत्र है । मैं आत्मा अपने निज के क्षेत्र में फैला हुआ हूँ, मैं उतना ही हूँ, उससे बाहर नहीं हूँ । आपके आत्मा में दु:ख-सुख का अनुभव जितने प्रदेश में होता है, उससे बाहर नहीं होता है । प्रत्येक आत्मा में सुख दुःख उसी के आत्मप्रदेशों में चलता है, अपने आत्मप्रदेशों से बाहर नहीं जा सकता है । क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपनी-अपनी ही परिणति से परिणमता है ।
115. ज्ञानी का स्वरूपनिर्णयन―यह मैं आत्मा अपने परिणमन से परिणमता हूँ । यद्यपि जैसा विचार मैं करता हूँ, वैसा विचार आप भी कर सकते हैं । परंतु आपका विचार स्वतंत्र विचार है । मेरा स्वतंत्र है । प्रत्येक पदार्थ अपनी ही परिणति से परिणमते हैं । आपकी कषाय आपमें उत्पन्न होती है, मेरी कषाय मेरे में, प्रत्येक परमाणु अपने में ही परिणमता है । मैं अपने में परिणमता हूँ । यही कारण है कि सब पदार्थ अलग-अलग हैं । यह द्रव्य आत्मा प्रत्येक अन्य द्रव्य से अत्यंत जुदा है । घर में रहते हुए भी तुम्हारे माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई-बहिन तुम्हारे से इतने जुदा हैं, जितने कीड़े-मकोड़े, पशु पक्षी आदि अन्य जीव । और आत्माओं की अपेक्षा घर में रहने वाले आत्मा का तुमसे तनिक संबंध हो गया हो, यह हो नहीं सकता । प्रत्येक आत्मा अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव में रहता है―यदि यह प्रतीति हो जाये, फिर मोह, राग-द्वेषादि ठहर जाये, यह हो नहीं सकता । भेदविज्ञानी अपने आपमें इस प्रकार निर्णय कर लेता है कि मैं अपनी ही पर्यायों में वर्तता चला जा रहा हूँ, कभी क्रोधी हुआ, कभी मानी हुआ, कभी मायावी हुआ, नाना प्रकार के मुझमें उपद्रव चल रहे हैं, परिणमन चल रहे हैं । ये परिणमन आत्मा में चलते तो हैं, परंतु ये परिणमन किसी संबंध से चलते होंगे? क्योंकि ये तरंगें मुझमें नाना प्रकार की होती हैं, अत: यह परिणमन निमित्त के होने पर होते हैं । अत: बारंबार मेरे में जो राग द्वेषादिक तरंगें उठती हैं, वे मैं नहीं हूँ ।
116. आत्मा में अन्य व्यावृत्ति और स्वानुवृत्ति―ज्ञानी विचार करता है कि जो पदार्थों का ज्ञान होता रहता है, क्या वह मैं हूं? पदार्थों का ज्ञान भी मैं नहीं हूँ । मैं पदार्थों का स्वामी नहीं हूँ । क्योंकि उनमें भी नानापन नजर आता है । शरीर, धन, मकान आदि मैं हूँ, यह कल्पना भी नहीं की जा सकती है । मैं तो चेतन गुण वाला अमूर्त आत्मा हूँ, जिसकी पर्यायें राग-द्वेष मोह आदि चलती हैं । यदि इस चेतना को भी इसमें नाना गुण हैं, इस तरह से तकते हैं तो इस तरह का चैतन्य आत्मा मैं नहीं हूँ । मैं तो निर्विकल्प अद्वैत चैतन्य हूँ । जब यह ज्ञान होता है तब ये सब आपत्तियाँ दूर हो जाती हैं । मैं चैतन्य गुण हूँ । आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्श रहित है । आत्मा को इनसे रहित हो जाना, मगर कुछ सहित भी हैं? कहते हैं, आत्मा चैतन्य गुण सहित है । यह वाक्य भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कहने से चेतना गुण अलग और आत्मा अलग प्रतीत होता है । आत्मा कैसा है, यदि हम यह समझना चाहते हैं तो भेद की दृष्टि से ही हम आत्मा को बता पायेंगे । भेद किये बिना आत्मा को नहीं बताया जा सकता है । दूसरे को आत्मा समझाया जायेगा तो भेदपूर्वक ही समझाया जायेगा । अत: दूसरे को समझाने के लिए हम कहते हैं कि जिसमें चैतन्य गुण है वह आत्मा है । जो अनुभव में आ रहा है, वह आत्मा है । जिसे हम पुकारते हैं, वह परमात्मा है ।
117. शान मानने की असारता―इस झूठी शक्ल का व्यवहार ऐसा व्यवहार बन गया है कि शरीर के साथ में रहकर अपने आपमें रहने को चित्त नहीं चाहता है । और जब इन शक्लों में रहने की ही इसकी आदत हो गई तो इस आत्मा को इतने द्वंद फंद करने ही पड़ते हैं । यदि आत्मा यह सोचे कि यदि मैं मनुष्य न होता तो मेरा इन लोगों से तो परिचय न होता । इतना ही सोचकर यदि इस समागम से ही अपना मुख मोड़ लिया जावे और धर्म, ज्ञान करने के लिए समय निकाल लिया जाये तो भी अच्छा है । यदि मैं बचपन में ही मर जाता तो मेरे लिये ये सब कुछ न होता । यदि ऐसा हो गया होता तो मैं किस पर्याय में होता, इस पर्याय से परिचय तो न होता, अब मैं हूँ तो ऐसा निराला मैं हूँ । मैं लोगों के लिये नहीं हूं किसी आत्मसिद्धि के लिये हूँ, ऐसा समझकर बाहरी साधनों में रहकर भी धर्म किये जाओ । ज्ञान ध्यान में विशेष उपयोग लगाया जाये तो अच्छा है । इस तरह के यत्न से भी हमारा कल्याण पथ प्राप्त हो जायेगा । इस निर्विकल्प स्थिति को पाये बिना आत्मशांति नहीं मिल सकती है । आत्मा की शांति का जो मार्ग है उसके विपरीत पथ पर मत चलो । विपरीत पथ पर चलने से आत्मशांति नहीं मिल सकती है । वह मार्ग है रत्नत्रय । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र से आत्मशांति मिल सकती है । आज शुद्ध तत्त्व को मानो, आज ही फल मिलेगा और कल मानो कल फल मिलेगा ।
118. सच्चा जीवन धर्मधारण में―एक मुनि आहार के लिये गए । आहारोपरांत बहू ने पूछा कि महाराज आप इतने सवेरे क्यों आये? मुनि ने कहा समय की खबर न थी । मुनि ने पूछा―तुम्हारी उम्र कितने वर्ष की है? बहू ने कहा मेरी उम्र अभी पाँच वर्ष की है । मुनि ने पूछा―तुम्हारी पति की कितने वर्ष की है? बहू ने कहा―अभी मेरे पति की उम्र पाँच माह की ही है । सेठजी को बहू की मूर्खता पर गुस्सा आ रहा था । मुनि ने पूछा―तुम्हारे श्वसुर की क्या उम्र है? बहू ने कहा―ससुर तो अभी पैदा ही नहीं हुए । मुनि ने पूछा―बासी खाया जा रहा है या ताजा? बहू ने कहा―अभी बासी ही खाया जा रहा है । मुनि तो चले गये । सेठजी ने अब तो बहू जी को आड़े हाथों लिया । कहने लगे कि पागल तो नहीं हो गई थी? तू कैसी-कैसी बातें कर रही थी? बहू ने कहा―पागल मैं हूँ या तुम, यह तो मुनि के पास चलकर ही पता चल सकता है । दोनों के दोनों वहीं वन में पहुंचे और सेठ ने कहा कि बहू ने तुम्हारे से जो यह पूछा कि इतने सवेरे क्यों आये, इसका क्या मतलब था? मुनि ने कहा―इसका मतलब था कि तुम छोटी ही अवस्था में क्यों मुनि हो गये हो? मैंने तब कहा, समय की खबर न थी अर्थात् जाने कब मर जायें । अच्छा तो बहू ने अपनी आयु पाँच साल की क्यों बताई, सेठजी ने पुन: मुनि से पूछा । मुनि ने कहा―यह बहूजी से ही पूछो । बहू ने कहा, मेरी उम्र पांच साल की इसलिए है कि मेरी धर्म में श्रद्धा पांच वर्ष से ही हुई है । पति की पाँच माह से हुई और आपको अभी तक धर्म में श्रद्धा ही नहीं हुई है, अत: आपको कहा गया कि आप पैदा ही नहीं हुए । आयु तभी से गिनी जाती है जब से धर्म में श्रद्धा होती है । ससुर ने कहा, अच्छा यह बताओ तुमने बासी कब खाया जो तुम मेरी बदनामी कराती हो कि अभी तो हम बासी ही खा रहे हैं । बहू ने उत्तर दिया कि तुम अपने पहले पुण्य के उदय से प्राप्त धन से ही हमारा पेट पाल रहे हो, अभी तो तुम नया धर्म कर ही नहीं रहे हो सो यह बासी ही तो हुआ । भैया ! जिंदगी तभी से मानो जब से धर्म पर विश्वास होता है । निर्विकल्प स्थिति में ही आत्मा की सच्ची जिंदगी है ।
119. वास्तविक धर्मपालन―धर्म माने स्वभाव की दृष्टि । स्वभाव की दृष्टि न होकर पर की दृष्टि को अधर्म कहते हैं । मैं धनी नहीं हूँ, गरीब नहीं हूँ, मैं तो एक शुद्ध चैतन्य मात्र आत्मा हूँ । परम शुद्ध निश्चयनय से स्वभाव से पाये हुए विश्वास के पश्चात् अनाकुलता रूप परिणमन में ही आनंद है । सब स्थितियों में आनंद के मार्ग से च्युत नहीं होना चाहिए । मैं सब झगड़ों में पड़ रहा हूँ, परंतु इनमें आनंद नहीं है, इतना भी तो विश्वास रखो । चैतन्य की प्रतीति से तो तत्त्व की प्रतीति हो सकती है । इसी के लिये में यहाँ तक कि योगी बनकर शहर छोड़कर अपनी आत्मा में ज्ञानी रमण करते रहते हैं । आत्मरुचि हो तो तत्त्व की प्रतीति हो सकती है । साधु का चिन्ह पीछी कमंडलु नहीं है । अकेला साधु ही है । हाँ, वह पीछी कमंडलु आदि के बिना चल नहीं सकता है । मुनि को चलना आदि भी व्यवहार के काम करने पड़ते हैं । तब पीछी कमंडलु आदि की आवश्यकता पड़ती है । साधु का लक्षण स्वरूप विचारना है । साधु तो अपनी भीतरी दृष्टि से होता है । साधु का चिन्ह स्वभावदृष्टि की स्थिरता है । श्रावक का चिन्ह स्वभावदृष्टि का कभी-कभी होते रहना है । जब वह साधु बन जाता है तो उसके स्वभाव में प्रवृत्ति स्थिरता करनी पड़ती है । इस प्रकार स्वभाव-स्थिरता में मुनि को मुक्ति का निर्बाध मार्ग मिल जाता है । अब तक यह बात आई कि आत्मा चैतन्य गुणमय है । जैसे―अग्नि में गर्मी है―ऐसा नहीं कहना चाहिये । गर्मीमय ही अग्नि है―ऐसा कहना चाहिये । इसी प्रकार आत्मा में चैतन्य है, ऐसा नहीं कहना चाहिये । इसमें भेद जाहिर होता है, आत्मा चैतन्यमय है । इसके अतिरिक्त यह भी बात आई थी कि आत्मा शब्द पर्याय नहीं, न वह स्वयं शब्द है, न वह द्रव्य इंद्रिय के द्वारा शब्द को जानता हैँ और न भावेंद्रिय के द्वारा शब्द को जानता है । शब्द के ज्ञान में तन्मय होकर भी आत्मा शब्दरहित है । आत्मा अशब्द, अरूप, अस्पर्श, अगंध और अरस है ।
120. आत्मा की अलिंगग्रहणता―आत्मा किसी चिन्ह के द्वारा समझ में नहीं आता है और न इसका कोई संस्थान है, न आकार है, न प्रकार । आत्मा का कोई आकार स्वयं नहीं होता है । निमित्त को पाकर आत्मा के संस्थान स्वयं बन जाते हैं । जिस शरीर का यह प्राप्त करता है, उसके आकार रूप यह स्वयं बन जाता है । यह आत्मा का आकार नहीं है, आत्मा का आकार पुद᳭गल के निमित्त से बना है । जैसे यह हाथ है । हाथ के बीच में जो पोल है, वहाँ आत्मा नहीं है । नाक के बीच में जो पोल है वहाँ आत्मा नहीं है । जिस शरीर से जीव मुक्त होता है, उस प्रमाण से कम या अधिक घटने बढ़ने के कोई कारण न होने से यह आत्मा उसी प्रमाण मात्र है ।
121. टंकोत्कीर्ण स्वभावमय आत्मा की चर्चा―आत्मा को कोई बनाता नहीं है । आत्मा की उन्नति भी होती है, परंतु तब भी कोई नई चीज बनती नहीं है । आत्मा का जो स्वभाव है, उस स्वभाव का नाम आत्मा है, उसी का नाम परमात्मा है । जैसे―एक पत्थर है । उसमें कारीगर को बाहुबली स्वामी की मूर्ति निकालनी है । कारीगर उस पत्थर के बीच में उस मूर्ति को अभी से देख रहा है, जो मूर्ति उसे उसमें से निकालनी है । वह मूर्ति हमें आँखों से नहीं देखने में आ रही, परंतु वह मूर्ति उस पत्थर में अभी से विद्यमान हैं । जिस जगह वह मूर्ति है, कारीगर उस पत्थर में उसी मूर्ति को देख रहा है । वह मूर्ति जो इस पत्थर में से निकलनी है, उसे कारीगर नहीं बनाता है । उस पत्थर में वह मूर्ति है, जिसे कुछ उपाय करके वह दुनिया को दिखा देगा । परंतु उस मूर्ति के विकास का उपाय उस मूर्ति को ढकने वाले अगल-बगल के पत्थर दूर कर दिये जायें तभी वह मूर्ति प्रगट हो जायेगी । उस मूर्ति में नई चीज कोई डाली नहीं गई । बस उस मूर्ति को टांकी से निकाल डाला और सबके सामने प्रस्तुत कर दी । इसी प्रकार वह परमात्मा का स्वरूप सबके अंदर है, जिसका विकास होने पर आत्मा परमात्मा कहलाने लगता है । राग-द्वेष, मोह, कषाय के परिणमन इस परमात्मा के स्वभाव को आच्छादित किये हुए हैं, अत: वह स्वभाव दिखता नहीं है । ज्ञानी जीव उस निर्मल स्वभाव को कषाय रागादि के रहते हुए भी देख रहा है । ज्ञानी जीव राग-द्वेष से मलिन आत्मा में भी उस निर्मल स्वभाव के दर्शन कर रहा है । उस स्वभाव के विकास का उपाय उस स्वभाव को ढकने वाले विषय कषाय आदि को दूर करना है । जैसे उस पत्थर में से मूर्ति को प्रकट करने के लिए हथौड़ी, छैनी और कारीगर काम कर रहे हैं । उस उपाय से उस मूर्ति को ढांकने वाले पत्थरों को हटा देते हैं, परंतु इस आत्म-स्वभाव को ढकने वाले विषय कषायादि को ज्ञान के द्वारा यह आत्मा स्वयं प्रकट कर लेता है । आत्मा से राग-द्वेष को हटाने के लिए ज्ञान ही कारीगर है, ज्ञान की छैनी से तथा ज्ञान के प्रहार से उस चैतन्य स्वभाव को विकसित कर लिया जाता है । इस चैतन्य स्वभाव को देखने में ज्ञान की ही विशेषता है ।
122. चैतन्यलक्षण की दृष्टि के बिना आत्मा की अनुपलब्धि―यह ज्ञान साधक कर्ता है और ज्ञान का ही वहाँ प्रयोग होता है । वह स्वभाव टंकोत्कीर्ण की तरह आत्मा में अब भी मौजूद है । जिसे सम्यग्दृष्टि देखता है, ऐसा चैतन्यमात्र मैं हूँ । आत्मा का लक्षण चैतन्य है । जिसकी दृष्टि से चैतन्य लक्षण गया उसकी दृष्टि से आत्मा भी ओझल हो जायेगा । एक कथानक है । एक बुढ़िया थी । उसके रुलिया नाम का एक लड़का था । बुढ़िया ने एक दिन रुलिया को बाजार से साग भाजी लाने के लिये भेजा । बेटा बोला, यदि माँ मैं रुल गया तो? माँ ने उसके हाथ में एक धागा बाँध दिया और कहा― जिसके हाथ में धागा बंधा होगा, उसे ही तू रुलिया समझना । रुलिया साग लेने बाजार में चला गया । भीड़ में उसका धागा टूट गया । वह रोने लगा कि माँ मैं रुल गया, रोता-रोता घर पहुंचा । मां ने बहुत समझाया कि तू रुलिया ही तो है । उसने कहा, रुलिया के हाथ में तो डोरा बंधा है, माँ समझ गई । मां ने कहा, बेटा तू सो जा, रुलिया मिल जायेगा । बेटा जब सो गया, माँ ने उसके हाथ में डोरा बाँध दिया । रुलिया जब उठा, बड़ा प्रसन्न हुआ और माँ से कहने लगा, माँ, रुलिया मिल गया । जिनकी दृष्टि में वह चैतन्य स्वरूप नहीं है, उनकी दृष्टि में आत्मा रुल गया है । जिनकी दृष्टि में चैतन्य स्वभाव का ध्यान नहीं है, उनकी दृष्टि में आत्मा भी नहीं है । अत: आत्मा चैतन्य स्वभाव के द्वारा पहिचाना जाता है । एकांत में बैठकर मैं चैतन्य मात्र हूँ, चैतन्य का क्या लक्षण है, यह भी रुचि में आते रहना चाहिये । हम अनेक पदार्थों को जानते हैं । जानकर मैं चैतन्यमात्र हूँ, प्रतिभासमात्र हूँ, अमूर्त हूँ, सबसे परे, सबसे ओझल हूँ । इस आत्मा को कोई नहीं जानता है । “शुद्धचिदस्मि”―मैं शुद्ध चैतन्य हूँ । इस भावना को बार-बार ले आओ तो उसे अनुभव होगा निराकुल स्थिति का और उस स्थिति में अनुभव करेगा कि मैं चैतन्य मात्र हूँ । यह श्रद्धा बढ़ाओ कि मैं न त्यागी हूँ, न गृहस्थ हूँ, न मुनि हूं और न ही पुरुष हूं । किसी भी परिस्थिति में आत्मत्व का विश्वास न करो तो धर्म हो जायेगा । धर्म पापों से बचने का मार्ग है । जिस काल चैतन्य स्वभाव की दृष्टि बन जायेगी, तभी धर्म होता है । जब चैतन्य स्वभाव की दृष्टि नहीं है तो उपवास, पूजादि से पुण्य बंध तो हो जायेगा, परंतु बंधन से नहीं छूट सकते । उस चैतन्य स्वभाव के जानने में एक बड़ा उपयोग कर लो । एक के आगे जितने बिंदु रखोगे, उसकी उतनी ही कीमत बढेगी । अत: पहले एक को जान लो, फिर पूजा, धर्म, व्रत उपवासादि क्रियाएं करो तो वे कल्याण में साधक होंगी । इस चैतन्य स्वभाव को अति परिश्रमपूर्वक जानो । श्री अमृतचंदजी सूरि कहते हैं कि एक उस चैतन्य शक्ति के सिवाय, बाकी जो कुछ है, क्रोध मान माया लोभादि वे सब बाह्य हैं, पौद्गलिक हैं । बाह्य समागम को छोड़कर चेतना शक्ति में अवगाहन तो करो ।
123. कल्याणलाभ में जीवन की सफलता―जीवन का इतना लंबा समय है । पर वास्तव में देखा जाये तो समय कुछ भी नहीं है । वैसे समय है अनादि अनंत । उस अपरिमित काल के सामने 40-50 साल क्या कीमत रखते हैं? 40-50 वर्ष के जीवन का कुछ भी मूल्य नहीं है, फिर भी इस थोड़े से जीवन में अनेक वर्ष विकल्पों में बिताये, यदि एक घंटा, आधा घंटा, 15 मिनट, 1 सैकंड भी विकल्प जालों को छोड़कर इस निज स्वभाव में लगाये तो इस जीव का बड़ा कल्याण होगा । हमें उस आत्मसाधना को पाने के लिये पूजा व्रत आदि में काफी समय लगाना पड़ता है, तब ही उस सैकंड को पाते हैं । धन्य है वह समय जिस क्षण आत्मा में सत्य विश्राम होता है । उस अनुभव के बाद जीव को यह अनुभव होता है कि मेरा एक भी मिनट निर्विकल्प चैतन्य स्वभाव के अनुभव बिना न गुजरे । यह जो शरीर पाया है, बड़ा घिनावना है । अनेक मलों का पिंड यह शरीर है । मोह के उदय में इतना गंदा भी यह शरीर पाप के उदय से जीव को सुहाता है । यदि यह शरीर न होता, देवों आदि का दिव्य शरीर होता तब भी रमने के लायक यह शरीर नहीं है । यह अशुचि शरीर मोह के उदय से सुहावना लगता है । स्वरूप समझ में आये और इस शरीर से मोह टले तो यह ज्ञान इस जीव को पाप से बचा देता है । विद्या पढ़ना भी पापों से बचा देता है । दान, पूजा, भक्ति, शील आदि को करने से जीव पाप से बच जाता है । परंतु संसारसंतति के छेद के लिए ज्ञान को अपनाना होगा । कहा भी है:―धन, कन, कंचन, राजसुख सब ही सुलभ कर जान । दुर्लभ है संसार में एक यथार्थज्ञान ।। धनी लोग सब कुछ न्यौछावर करके भी विवेक के बिना ज्ञान को नहीं पा सकते हैं । चाहे कोई गरीब हो, चाहे अमीर हो, जिसके पास ज्ञान है, उसी के पास वैभव है । जैसा काम करोगे, वैसी ही गति मिलेगी । अत: अनेक यत्न करके अपने आत्मा को जानो । बस निर्विकल्प होकर बैठ जाओ, तभी उस चैतन्यमात्र आत्मा को जान सकते हो ।
124. अहितकर विषयों से हटकर हितकर स्वभाव की उपासना का कर्तव्य―ऐसे परमात्मस्वरूप को जिसका कि चैतन्य स्वरूप की मुख्यता से वर्णन किया गया है, हे भव्य जीवो ! ऐसे परमात्मस्वरूप आत्मा को अपने आत्मा में धारणा करो । चैतन्य स्वभाव की दृष्टि अपने में निरंतर बनाये रहो, जब तक समस्त प्रकार दुःख दूर न हो जायें । पूजा करते समय भी कहते हैं कि हे जिनेंद्र ! तुम्हारे चरण मेरे हृदय में रहे, तुम्हारे चरणों में मेरा हृदय रहे । मैं तुम्हारी तब तक भक्ति करूं जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हो जाये । यहाँ ज्ञान और भक्ति का मेल अथवा विवेक दिखाया गया है । उसने द्वैत भक्ति में कह दिया कि मेरे चरण तुम्हारे हृदय में रहें, जब तक निर्वाण प्राप्ति न हो । इसी प्रकार ज्ञानी कहता है कि कारणसमयसार की दृष्टि तब तक निरंतर बनी रहे, जब तक आत्मानुभव न हो । सिवाय इस आत्मा के मेरे कोई शरण नहीं है । यह महान् धोखा है कि कोई किसी को प्यारा लगता है । ऐसा जो मोह उठता है, यह महान् धोखा है । आत्मा का शरण केवल एक आत्मा ही है । मैं श्रीमान हूँ, मैं धनी हूं, मैं विद्वान् हूं, मैं अमुक का पिता हूँ, मैं अमुक का बंधु हूँ, ऐसा आत्मा शरण नहीं है, परंतु किसी भी पर्यायरूप नहीं रहने वाला और समस्त पर्यायों में क्रमश: रहने वाला शक्तिमात्र मैं शरण हूं । पर्यायबुद्धि से समझा गया मैं आत्मा शरण नहीं हूँ । शरण है परम शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से पहिचाना गया आत्मा । जिस चैतन्य शक्ति में ही सर्वस्व सार निहित है ऐसा मैं आत्मा शरण हूँ । यही चैतन्यशक्ति जीव है, इसके अतिरिक्त सब पौद᳭गलिक हैं । चैतन्यशक्तिरूप से प्रतीत हुआ मैं जीव हूँ इसके अतिरिक्त जीव नहीं है । निमित्त दृष्टि से रागादि पौद्गलिक हैं । उपादान दृष्टि से रागादि वैभाविक हैं । रागादि मैं नहीं हूँ, मैं चैतन्यमात्र आत्मा हूँ । जो तरंगें होती हैं, वे मिट जाती हैं, मैं मिटने वाला नहीं हूँ, अत: मैं कोई तरंग भी नहीं हूँ । पर्याय होती है, और मिट जाती है अत: मैं पर्याय या परिणमन भी नहीं हूं । चैतन्य शक्ति के अतिरिक्त जो भी भाव हैं, सब पौद्गलिक हैं ।