वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 5
From जैनकोष
तं एयत्तवहत्तं, दाएहं अप्पणो सविहवेण ।
जदि दाएज्ज पमाणो चुक्किज्ज छलं ण धेत्तब्वं ।।5।।
341-आत्मा—अपने आपमें तो एकत्वमय है और समस्त पर अनात्माओं से अत्यंत विभक्त है । ऐसे इस एकत्व विभक्त आत्मा का, मैं अपने वैभव के साथ दिखाऊंगा । यदि दिखाऊं तो प्रमाण करना, अन्यथा अर्थात् चूक जाऊं तो छल ग्रहण नहीं करना । अहा ! देखो मित्रों ! श्री सूरिवर्य का इन वचनों में कितना प्रसाद झलक रहा है । अहंकार के विनाश कर देने वाले आचार्य अपने मुख से कहें कि मैं अपने वैभव के साथ आत्मा दिखाऊंगा । इससे आप पहिचान लीजिये कि जगत के आत्मावों पर कितनी उत्कृष्ट कृपा श्रीकुंदकुंददेव की थी । लोगों को विश्वास उत्पन्न हो सुनने का और सुनकर इस पवित्र लक्ष्य का अनुभव पावे, यह उत्तम रूप में सद्भावना आचार्य महाराज की थी जिससे प्रेरित होकर स्वयं अपने वैभव का संकेत कर देते हैं । धन्य है कृपालु है श्रीकुंदकुंददेव तुम्हारी कृपा को, जयवंत होऊं । 342-ज्ञान का चिन्ह निरहंकारपना—भैया ! वीतराग ऋषि सरल और ज्ञानी होते हैं । अद्भुतज्ञान होने पर भी अहंकार तो उन्हें छू भी नहीं पाता । आगे श्रीमत्कुंदकुंदाचार्य कहते हैं कि मैं आत्मतत्त्व को दिखाता हूँ । किंतु यदि दिखा दूं तब आप स्वयं अपने ज्ञान से प्रमाण करना, मान लेना । श्रीमत्कुंदकुंददेव जो अध्यात्मयोग से सुपरिचित हैं, जानते हैं कि कोई किसी अन्य के ज्ञान से प्रमाण नहीं करता, प्रत्येक जीव अपने प्रमाण (ज्ञान) से ही प्रमाण करता (जानता) है । दूसरी बात निरहंकारता की है । श्रोतावों पर सूरीश्वर की अनुपम करुणा है । सूरीश्वर श्री कुंदकुंददेव आगे कहते हैं कि यदि चूक जाऊं तो छल ग्रहण नहीं करना। 343-महापुरुषों की बातचीत में भी मर्म—भैया ! क्या आप यह सोच सकते हैं कि अध्यात्मयोग से परिचित श्री कुंदकुंददेव अध्यात्म प्रतिपादन से चूक सकते हैं? नहीं, नहीं ना । अब इसका यथार्थ अर्थ समझना होगा । पदार्थ का जो यथार्थ स्वरूप है उसका प्रतिपादन शब्दों द्वारा नहीं हो सकता । शब्द तो संकेत मात्र है जो अर्थ से सुपरिचित होगा वही संकेत का लाभ ले सकता है । एक अन्य बात यह भी है । कि पदार्थ का प्रतिपादन नयों के द्वारा हो पाता है । नय अनेक है और नयों के विषय अनेक हैं । कौन प्रतिपादन किस नय से है इस बात का स्पष्ट बोध ही अध्यात्म तक है? पहुंचाने में समर्थ है । प्राथमिक श्रोता इस सुबोध में सफलता कठिनता से पाते हैं, अत: उनको शब्द समझाने में असमर्थ है सो शब्द ही चूक सकते हैं । स्पष्ट भाव यह हुआ कि यदि शब्द चूक जाये तो उस पर छल ग्रहण नहीं करना कि आत्मा कोई नहीं है अथवा यह मात्र प्रलाप ही है आदि प्रकार से दोष ग्रहण नहीं करना दोषयुक्त नहीं बनना । श्रीअमृतचंद सूरीश्वर श्री कुंदकुंददेव के मर्मों से सुपरिचित थे, यद्यपि इसके बीच अंतराल करीब 7-8 शत वर्षों का था । अमृतचंदजी सूरि श्रीमत्कुंदकुंददेव के वैभवों का वर्णन करते हैं :— 344-आचार्यश्री की सर्वशास्त्रज्ञता—श्रीमत्कुंदकुंदाचार्य का पहिला वैभव था कि वे अनेक शास्त्रों के महान् पारगामी थे । वही शास्त्र सतशात्र कहलाते हैं जिनमें स्यात् पद की मुद्रा झलकती है, अंकित है । समस्त शब्द ब्रह्म, परमागम द्वादश अंग व 14 अंग प्रकीर्णकों में है । इनमें आचार शास्त्र, श्रावकाचार, समस्त मत, अभिप्रायों का विवरण, अनेक मंत्रशास्त्र, तंत्र शास्त्र, वैद्यक, ज्योतिष, भाषायें आदि सर्वविद्याओं का इसमें समावेश है । जितना वेद अर्थात् केवल ज्ञान जानता है उतना समस्त शब्दब्रह्म भी बताता है । किंतु अंतर इतना है के वेद साक्षात् प्रत्यक्ष जानता है तो शब्द ब्रह्म परोक्षरूप से जानना है । जानना सबका ही होता है ज्ञान शक्ति के आश्रय से जानने की अंत: पद्धति में अंतर नहीं है । श्रीमत्कुंदकुंदाचार्यजी ने समस्त शास्त्रों का हृदय पा लिया था । अत: उनका वैभव समस्त शब्दब्रह्म की उपासना में प्रकट हुआ । श्रीकुंदकुंदाचार्य की कृतियों से भी सुविदित है कि वे समस्त शास्त्रों के कुशल विद्वान् थे । उनके द्वारा रचित ग्रंथ जिन में से कुछ उपलब्ध कुछ अनुपलब्ध हैं अनेक हैं श्रीसमयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय अष्टपाहुड, मोक्षपाहुड, शीलपाहुड, आदि अनेक पाहुड, रयणसार, नियमसार, छक्खंडागम की टीका, नीति ग्रंथ आदि अनेक विरचित हैं । अनेक शास्त्रों के मथन से जिनका वैभव प्रकट हुआ है उस वैभव के बल पर भी श्रीमत्कुंदकुंद महाराज एकत्वविभक्त—शुद्ध आत्मतत्त्व का वर्णन करेंगे। 345-प्रबल युक्त्यवलंबन—इसके अतिरिक्त आचार्य का वैभव युक्त्यवलंबन है । ये आचार्य युक्ति, प्रतिभा से आदर्श संपन्न थे । इनकी युक्तियां समस्त कुयुक्तियों को खंडित करने में समर्थ है । महती, समीचीन युक्तियों के अवलंबन से श्री सूरीश्वर का आत्मवैभव जो प्रकट हुआ उस वैभव के द्वारा एकत्व-विभक्त, शुद्ध आत्मा का अनुपम करुणावश प्रदर्शन करेंगे । युक्ति का संबंध अविनाभाव से अधिक है । अविनाभाव, व्याप्ति व तर्क इनका तात्पर्य एक है । जिसे सिद्ध करना है वह तो कहलाता है साध्य व जिस हेतु के द्वारा सिद्ध करता है वह कहलाता है साधन । साध्य के अभाव में साधन का न होना इस अटूट संबंध को अविनाभाव कहते हैं । जैसे अग्नि न हो तो धुवां नहीं हो सकता है इस अविनाभाव संबंध के कारण यह युक्ति अबाधित हो जाती है कि धुवां हो तो अग्नि का होना अवश्य समझना । यह तो लौकिक बात हुई । आत्मा के संबंध में देखें—ज्ञानस्वभावी कोई पदार्थ है क्योंकि ये जानकारियां हो रही हैं । ज्ञानस्वभावी पदार्थ के बिना ज्ञान कैसे प्रकट हो सकता है । ज्ञानस्वभावी पदार्थ अज्ञान स्वभावी माने जड़तास्वभावी पदार्थों से भिन्न है क्योंकि दोनों अत्यंत विरुद्ध-स्वभाव हैं प्रत्येक पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं क्योंकि एक परिणमन एक के सिवाय अन्यत्र नहीं होता है । इस प्रकार की तर्कणावों द्वारा वस्तु की व्यवस्था करना युक्ति के अवलंबन से होता है । समयसार में अनेक विषयों पर नाना अमोघ युक्तियां दी गई हैं । जैसे—केवल आत्मा कैसा है, आत्मा में मलिनता कैसे होती है, आत्मा बंधन में कैसे पड़ जाता है, आत्मा का दुःखों से छुटकारा कैसे होता है आत्मा वस्तुत: करता क्या है आदि । ये सब विस्तृत बातें है । इनको तो जिन-जिन स्थलों पर आचार्य महाराज ने जो विवरण किया है वहाँ सुनना चाहिए पढ़ना चाहिए । आचार्यश्री कुंदकुंद ऋषि का युक्त्यवलंबन बड़ा अबाधित था । इसी कारण लौकिक दृष्टि में भी वे उस समय के महान एक ही आचार्य थे जिन्हें भारत ही नहीं किंतु अनेक महादेश अपना आदर्श मानते थे । आध्यात्मिकता तो कूट-कूटकर भरी हुई सी थी । यह समयसार तो परम उपनिषद है । सरल और अकाट्य युक्तियां अनादि परंपरागत अज्ञान को हटा देने में समर्थ हैं । 346-गुरुवों की सविनय व सभक्ति सेवा—श्रीमत्कुंदकुंदाचार्य को बहुत-बहुत परमागमों का अधिकारपूर्ण ज्ञान का व निस्तुष युक्तियों का महान् अवलंबन था इतनी ही बात नहीं है किंतु उन्होंने गुरुवों की परमभक्ति के प्रसाद से प्रसाद रूप में पाया हुआ शुद्ध आत्मतत्त्व का उपदेश भी अनुपम प्राप्त किया था । यह प्रसाद उन्हें पर गुरु श्री तीर्थंकर महाराज और अपर गुरु आचार्यादिक की परमभक्ति से प्राप्त हुआ था । गुरुमहाराज स्वयं निर्मलविज्ञानघन में मग्न हुए थे और उनका अविरल प्रवाह भी चलता-चलता आज सत्यस्वरूप का प्रदर्शन कर रहा है । प्रसाद उन्हें प्राप्त होता है जिनकी निष्कपट सेवा होती है । श्रीमत्कुंदकुंद आचार्य ने निर्मल ज्ञानघनमग्न गुरुवों की निःस्वार्थ उपासना की, सेवा की, जिसके प्रसाद में आचार्यश्री को शुद्ध आत्मतत्त्व का अनुशासन प्राप्त हुआ । इस परम धर्मशासन के परम धर्मोपदेश से भी उनका आत्मा पूरा हो चुका था । इस शुद्ध आत्मतत्त्व के अनुशासन से भी रचयिता का वैभव उन्नत था जिस वैभव के बल से निज एकत्व में तन्मय और सर्व द्रव्य और द्रव्यांतर भावों से पृथक् समयसार का उपदेश आचार्य श्री जी ने किया है। 347-सर्वोच्च वैभव स्वानुभव—इन वैभवों से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण वैभव आचार्यश्री का स्वानुभव था । बहुत शास्त्रों का ज्ञान भी हो जाय, महती युक्तियों का आश्रय भी मिल जाय, गुरुवों का उपदेश भी प्राप्त हो जाय तथापि यदि स्वानुभव का वैभव प्रकट नहीं हो तो उक्त सब मोक्षमार्ग के लिए अकिंचित्कर हो जाता । उक्त तीनों वैभव इस स्वानुभव महा वैभव के कारण है अत: उन तीनों का भी महान महत्त्व है और उनसे भी अधिक महत्त्व स्वानुभव का है जो कि उन तीनों का प्रयोजन रूप है । स्वानुभव आत्मीय आनंद के संवेदन स्वरूप है । यह आनंद सहज और अनैमित्तिक है । यह स्व के ही आश्रय से प्रकट होता है । सम्यक्त्व होने पर आत्मीय आनंद अंतर में निरंतर झरता रहता है । स्वानुभव के समय में वही आनंद बाह्य विकल्पों से शून्य आत्मा के हो जानें से विशिष्ट हो जाता है । यह विशेषता सामान्य के सामान्यानुरूप विकासमात्र है समस्त अचेतन वस्तुओं और विभावों से पृथक निर्विकल्प निज चैतन्य स्वभाव के अनुभव का जो अलौकिक आनंद है वह इस अनुभव से शून्य इंद्र चक्री आदि को भी प्राप्त नहीं हो सकता । इसकी प्राप्ति के उपाय से ही व्याप्त यह समयसार ग्रंथ है जगत के प्राणी आनंदगुण के पुंज होकर भी आनंद के अनुभव से वंचित रहे हैं इसका कारण पदार्थ के यथार्थ ज्ञान का अभाव है । श्रीमत्कुंकुंदाचार्य इन समस्त वैभवों के बल से शुद्ध आत्मतत्त्व का उपदेश दे रहे हैं । जिज्ञासु मुमुक्षुओं का इससे बढ़कर और अच्छा भवितव्य क्या होगा । 348-गर्वरहित के वैभव की शोभा—इस समस्त वैभव की बात होने पर भी निष्पक्ष हृदय, परम कृपालु आचार्य श्री कहते हैं कि यदि दिखाऊं तो स्वयं स्वानुभव से प्रमाण करना यदि चूक जाऊं बताने में तो दोष लेकर न जाना फिर कोशिश करना समझने की । जगत के जीवों को अगर कोई सबसे अधिक प्रिय वस्तु है तो अपनी आत्मा है । आत्मा से अधिक प्रिय और कोई वस्तु नहीं दिखती । जब धन पर व परिवार पर संकट आता है तब धन को छोड़ करके यह जीव अपनी रक्षा करता है । परिवार व निज पर संकट आता है तब परिवार को छोड़कर अपनी रक्षा करता है साधुजनों को देखो जब उनपर संकट पड़ता है तब वे अपने शरीर को छोड़ अपनी आत्मा की रक्षा करते हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि प्रत्येक प्राणी को अपनी आत्मा ही सबसे अधिक प्रिय है । जब सबको अपनी आत्मा ही सबसे अधिक प्रिय है तो चाहिए कि वे अपनी आत्मा की रक्षा करें । अपनी आत्मा की रक्षा करें अपनी यानी आत्मा की दया करें । 349-आत्मा की दया श्रेष्ठ तत्त्व—सब विकल्पों को छोड़कर आत्मा का ध्यान करके, आत्मस्वरूप का ज्ञान करके उस आनंद को प्राप्त करना चाहिए जिसे अरहंत व सिद्ध प्रभु ने प्राप्त किया है । इसके लिए शरीर, पुत्र, स्त्री आदिक से ममत्व बुद्धि हटायें । इनसे मेरा कुछ भी संबंध नहीं है, पुत्र मेरा नहीं है, न मैं पुत्र का हूँ इस तरह के विचार पैदा करके ध्यान करे कि मैं तो एक चैतन्यस्वरूप, ध्रुव अखंड, सहजसिद्ध, स्वतःसिद्ध एक आत्मा हूँ । शरीर की रक्षा करने से आत्मा की रक्षा नहीं होती है और न वह आनंद प्राप्त हो सकता है जो कि अरहंत सिद्धों ने पाया है । वह आनंद तो ज्ञान से प्राप्त होगा । बिना ज्ञान के कुछ भी नहीं हो सकता है । अनादिकाल से यह जीव अज्ञान के कारण इन जन्ममरण के दुःखों में फंसा आ रहा है । अब भी समय है, यदि अपना कल्याण चाहते हो, उस आनंद को चाहते हो जिसे कि भगवान अरहंत और सिद्धों ने पाया है तो अंतस्तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करो । इस मनुष्य भव में आकर उसका सदुपयोग करो । ज्ञान प्राप्ति के लिये अध्ययन की सबसे अधिक आवश्यकता है । भैया ! अपन सबको चाहिए कि एक पुस्तक विद्यार्थी की तरह मनन पूर्वक पढ़ें उसे याद करे । एक साल में ही भैया बहुत ज्ञान हो जावेगा । ज्ञान समान न आन जगत में सुख का कारण । ज्ञान के समान जगत में सुख का और कोई कारण नहीं है सो सच्चे ज्ञान की प्राप्ति होना आवश्यक है । प्रतीतिपूर्वक जो ज्ञान है वही आनंद को देता है । अब समय की अधिकता से कुछ ज्यादा नहीं कहना चाहते हैं । शाम को इसी विषय को ले करके वर्णन चलेगा कि आत्मा का कल्याण कैसे हो सकता है । 350-निष्पक्षता आने पर ही कल्याण—आत्मा में यह ज्ञान हो जावे, यह श्रद्धा हो जावे कि मैं न तो शरीर हूँ न मैं परवार—गोला पूर्व, खंडेलवाल, आदि कोई हूँ, किंतु मैं तो एक शुद्ध स्वरूप अखंड आत्मा हूँ । इस तरह के ज्ञान होने पर ही कृतकृत्यता का विकास होने लगेगा और आत्मा का कल्याण हो सकेगा । सुबह के प्रकरण में बताया गया था कि जीव को दुनिया में सबसे अधिक प्रिय वस्तु है तो आत्मा है । धन परिवार आदि पर विपत्ति आने पर जीव (मनुष्य) उन्हें छोड़कर अपनी रक्षा करता है, साधुजन (मुनिजन) अपने ऊपर विपत्ति आने पर संकट उपस्थित होने पर शरीर की उपेक्षा करके आत्मा की रक्षा करते हैं । आत्मज्ञान का चिंतन करना और उसका यथार्थ ज्ञान बनाये रखना इतने से ही धर्म का प्रारंभ है । यहाँ पर सरल से सरल बात को ले करके धर्म के स्वरूप का वर्णन करेंगे । यहाँ प्रकरण यह चल रहा था कि वस्तु का यथार्थ ज्ञान करना चाहिए । सबसे पहले जानना यह है कि वस्तु कितनी हैं । एतदर्थ वस्तु का लक्षण यहाँ पर बताते हैं । 351-वस्तु की सरल पहिचान—वस्तु उसे कहते हैं जिसका दूसरा टुकड़ा न हो सके । अच्छा आप बताओ कि यह कपड़ा है, क्या यह वस्तु है? नहीं । क्यों क्योंकि इस कपड़े के टुकड़े हो जाते हैं । इस कपड़े के बहुत से टुकड़े हो जावें और वह अंत का टुकड़ा जिसका कि दूसरा हिस्सा नहीं हो सकता हे, जिसे हम परमाणु कहते हैं जो हमारी दृष्टि में नहीं आता है वही द्रव्य है । वही वस्तु है । ये दिखने वाले जितने भी स्कंध हैं ये वस्तु नहीं है, इन्हें तो माया कहते हैं । क्योंकि ये अभी दिखते हैं और कुछ समय बाद नहीं दिखेंगे नष्ट हो जावेंगे इसलिए ये सब माया है । वस्तु का स्वरूप बताया कि जिसका दूसरा टुकड़ा न हो सके वही वस्तु है । वही द्रव्य है । अच्छा बताओ । यह आकाश है—यह द्रव्य है अथवा नहीं? आकाश द्रव्य है । क्यों? क्योंकि इसके टुकड़े नहीं होते हैं हां आकाश के दो भेद अवश्य माने हैं पहला लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश किंतु इससे यह नहीं जान लेना चाहिए कि आकाश के टुकड़े हो गए । ये दो भेद तो इस दृष्टि से हैं कि जितने आकाश में 6 द्रव्य पाये जावें उसे कहते हैं लोकाकाश और जहाँ केवल आकाश ही है अन्य कोई द्रव्य न हो वह है अलोकाकाश । अलोकाकाश में सिर्फ आकाश ही आकाश है । धर्मद्रव्य कितना है । जितना लोक है उतना ही धर्म द्रव्य है । इसी तरह से अधर्म द्रव्य है । धर्म द्रव्य कहते हैं किसे? जो चलते हुए जीव व पुद्गल को चलने में सहकारी हो वह है धर्म । और जो ठहरते हुए जीव और पुद्गल को ठहरने में सहकारी हो सो अधर्म द्रव्य है । काल भी द्रव्य है । पुद्गल का एक-एक परमाणु द्रव्य है। 352-दिखने वाले जो स्कंध हैं वे द्रव्य नहीं—लोग जिन में लुभा जाते वे द्रव्य नहीं । तो विचार करो कि लोग बाग किन में लुभाते हैं । दिखने वाले पदार्थों में ही मनुष्य लुभाते हैं उन्हीं में यह कल्पना की जाती है कि अमुक चीज सुंदर है व अमुक चीज असुंदर है । जीव के टुकड़े होते हैं? नहीं? हमारी आपकी आत्मा के टुकड़े नहीं हो सकते हैं, हमारी आपकी आत्मा अखंड है अत: वह द्रव्य है । एक आपकी आत्मा एक अन्य की आत्मा इस तरह से एक-एक आत्मा द्रव्य है । इस तरह से कितने द्रव्य हो गये । अनंतानंत द्रव्य हुये । अनंतानंत जीव द्रव्य और जीव द्रव्य से अनंतानंत गुणा पुद्गल द्रव्य, 1 धर्म द्रव्य, 1 अधर्म द्रव्य और 1 आकाश द्रव्य और असंख्यात पुद्गल द्रव्य इस तरह से अनंतानंत द्रव्य हुये । जो कहते हैं द्रव्य छह हैं वे छह द्रव्य जाति की अपेक्षा से है; द्रव्य का लक्षण किया है जो अखंड है इसके साथ यह भी देखना हैं कि द्रव्य में कितनी और कौनसी विशेषताएं भी है । द्रव्य अखंड है और वे स्वत: सिद्ध है । द्रव्य किसी के द्वारा बनाये नहीं गये हैं किंतु वे अनादिकाल से स्वत: सिद्ध हैं । प्रत्येक आत्मा स्वत:सिद्ध है । द्रव्य कभी भी बनाई नहीं जाती है । बनने वाली होती है अवस्था । द्रव्य अनादिसिद्ध है अत: अपने में यह प्रतीत करना है कि मैं तो अनादिसिद्ध हूँ मुझे किसी ने बनाया नहीं है । 353-द्रव्य की दूसरी पहिचान—द्रव्य की दूसरी पहिचान यह है कि जो बने-बिगड़े और बना रहे ये तीनों चीजें जिसमें पाई जावे, एक साथ जिसमें रहे वही द्रव्य है । इनसे रहित द्रव्य नहीं । जिसमें बनना बिगड़ना है और बना रहना नहीं है वह द्रव्य नहीं है । जिसमें बनना और बना रहना है किंतु बिगड़ना नहीं है वह भी द्रव्य नहीं है बात यह है कि इन तीन में एक न हो तो तीनों भी नहीं होते जिसमें अविनाभावपने से ये तीनों बातें पाई जायें जो बने बिगड़े और बना रहे वही द्रव्य है । प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय बनती बिगड़ती और बनी रहती है । कोई भी द्रव्य आपको ऐसा नहीं मिलेगा जो ठाली रहे उसका कोई समय नहीं होगा कि जिस समय में उसकी कोई दशा न हो । देखो अरहंत सिद्ध है, इनकी भी प्रतिसमय नई-2 अवस्थायें होती रहती हैं । प्रति समय उनकी अवस्थायें नई-2 होती रहती है, कोई दशा ऐसी नहीं कि जो दो समय तक वैसी ही बनी रहे । सिद्ध प्रभु के अंदर प्रति समय प्रत्येक दशा नई उत्पन्न होती है और वह दशा जो उत्पन्न होती वह पहले की दशा के सदृश ही उत्पन्न होती है । सूक्ष्म रूप से ऐसा है, स्थूल रूप से तो ध्रुव दशा कहलाती है । 354-समान परिणमन में भी यथार्थ में भिन्नता—स्थूल दृष्टि से तो ऐसा मालूम पड़ता है कि यह अवस्था दसों बीसों बरसों से एकसी है, इसमें कोई अंतर दिखाई नहीं देता है । सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर ज्ञात होता है कि प्रत्येक वस्तु प्रति समय नई-2 अवस्थाओं में जाता रहता है । संसार के प्राणियों की एक महान् गलती यह है कि वे पर्याय को ही अपना मानते हैं । पर्याय को ही द्रव्य मानते हैं । पर्याय को द्रव्य मानने से मोक्षमार्ग नहीं बनता है । यहाँ हमें विचार यह करना है कि मैं यह शरीर नहीं हूँ । मैं परवार, खंडेलवाल ओसवाल नहीं हूँ । मैं स्त्री, पुरुष, बालक नहीं हूँ । और तो क्या मैं यह शरीररूप भी नहीं हूँ । किंतु मैं तो इन सभी दशाओं से विलक्षण जो शुद्ध चैतन्य स्वरूप है वह आत्मा हूँ । जब इस तरह के विचार हो जावेंगे तब सारे लड़ाई झगड़े समाप्त हो जावेंगे । आपने कभी यह विचार किया है कि यह जो आपस में लड़ाई आदि होती है सो क्यों? इसका क्या कारण है? इन झगड़ों का मुख्य कारण है पर्याय में आत्म बुद्धि । इस पर्याय ने अपने को ही सब कुछ मान रखा है । पर पदार्थों में अहंबुद्धि ही घरों में सास बहू देवरानी जिठानी आदि में लड़ाई झगड़े के कारण हैं । कोई लड़ता है गहने जेवरातों पर—उसने गहनों को ही अपना मान रखा है उनसे ही उसे प्रेम हैं । कोई कहता है उसने मेरी बात नहीं मानी मेरा अनादर किया आदि, इसी पर लड़ाई होती है । कहने का तात्पर्य—दिन इस जीव ने पर वस्तुओं को अपना माना है । वस्तुत: देखा जावे तो एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ कोई संबंध नहीं है । 355-स्वरूपविरुद्ध श्रद्धा में क्लेश—वस्तु अपना स्वरूप कह रहा है कि मैं तो अनादि से अपने स्वरूप में हूँ । मैं अपना स्वरूप छोड़कर अन्य कही नहीं जा सकता हूँ । मैं अखंड हूँ, स्वत: सिद्ध हूँ, मुझे किसी ने नहीं बनाया है । पैदा तो वह किया जाता है जो कि कभी था ही नहीं सो ऐसा होता नहीं कि सत् ही न हो और नया सत् बन जावे । किंतु मोही उल्टी श्रद्धा करता है । लोग बाग कहते हैं कि हमने पुत्र पैदा किया सो ऐसा कहना झूठ है । क्योंकि पुत्र के अंदर जो आत्मा है वह किसी के द्वारा बनाई नहीं जा सकती है । बनाई तो वही जाती है जो पहले न हो और उसका नया निर्माण किया जा रहा हो । पिता का पुत्र की आत्मा से कोई संबंध नहीं । पुत्र की आत्मा से माता का कोई संबंध नहीं और न पति की आत्मा से पत्नी की आत्मा का कोई संबंध है किंतु ये तो सब विपत्तियां लगी है । ये विपत्तियां तभी नष्ट होती हैं जबकि वस्तु का यथार्थ बोध होता है । यथार्थ ज्ञान के होने पर ये सारी विपत्तियां स्वयं ही नष्ट हो जाती हैं । 356-भ्रम में ही सारी आपत्तियां—जैसे किसी रस्सी में सर्प का भ्रम हो जाने पर अनेक विपत्तियां उत्पन्न हो जाती हैं किंतु उसका यथार्थ ज्ञान हो जाने पर कि यह तो रस्सी ही है सर्प नहीं, सारी विपत्तियां नष्ट हो जाती हैं । इसी तरह से वस्तु का यथार्थ ज्ञान होने पर सभी विपत्तियां नष्ट हो जाती हैं । ज्ञान आनंद का कारण है वह ज्ञान होना चाहिए प्रतीतिपूर्वक वस्तु का यथार्थ ज्ञान ही आनंद का देने वाला है । प्रतीत सहित ज्ञान में आत्मा नम्र बन जाता है । उसके अंदर छल, कपट, माया आदि नहीं रहते हैं । वहाँ पर सर्वदा ऐसे भाव वस्तु स्वरूप के अनुरूप पैदा होते हैं कि मैं अपने में ही अपने असाधारणभाव से तन्मय हूँ । मैं खुद की शक्ति से खुद में परिणमता हूँ । पर के विचार वहाँ पर नहीं होते हैं । जहाँ पर परवस्तुओं का विचार और स्वीकार होता है वहाँ आत्मा का कल्याण नहीं होता है । मिथ्यात्व के उदय से यह जीव अनादिकाल से अपने को पर वस्तु रूप मानता चला आ रहा है । इसी कारण से वह संसार से पार होने में असमर्थ है । 357-सत्य एक गलतियां अनेक—छहढाला में बताया है कि मिथ्यादृष्टि जीव किस तरह से अपने को ही मानता है । मिथ्यादृष्टि जीव मानता है कि मैं सुखी दु:खी मैं रंक राव—मेरे धन गृह गोधन प्रभाव । मेरे सुत तिय मैं सबल दीन वे रूप सुभग मूरख प्रवीन । वह मानता है कि मैं सुखी हूँ, मेरा यह सुख है । मैं दु:खी हूँ, मेरा दुःख है । मैं रंक हूँ, गरीब हूँ । मैं राजा हूँ, राज्य मेरा है, मैं उसका स्वामी हूँ । मेरे घर हैं । मेरे गाय भैंस आदि हैं । मेरा प्रभाव है । जनता में मेरी मान प्रतिष्ठा में मेरी इज्जत है । मेरे सुततिंय मेरे लड़के हैं मैं उनका पिता हूँ । स्त्री मेरी है । मैं बलवान हूँ—मैं दीन हूँ कमजोर हूँ । मेरा रूप बहुत सुंदर है, मैं बहुत रूपवान हूँ । मैं बहुत कुरूप हूँ । मैं बहुत ही मूरख हूँ, मुझ में बुद्धि विवेक नहीं है । मैं बहुत ही चतुर हूँ आदि—इस तरह के भिन्न-2 विचार मिथ्यादृष्टि करता है और उनमें ही सुख दुःख का अनुभव करता रहता है । अर्थात् अवस्थावों में व पर अवस्थावों में निज की बुद्धि के भ्रम से बोझ उठाये-उठाये फिरता है । किंतु, स्वरूपदृष्टि से निर्णय करोगे तो विदित होगा कि यह सब मैं नहीं हूँ । मैं का तो कोई लिंग ही नहीं है । मैं का पर्यायवाची अंग्रेजी में I है सो आप देख लो कि उस I का कोई लिंग नहीं है । स्त्रीलिंग में भी I का प्रयोग होता है । नपुंसकलिंग में भी I का प्रयोग होता है । यानी तीनों लिंगों से I आती है । मनुष्य कहता है मैं जाता हूँ I go । स्त्री कहती है मैं जाती हूँ I go । इसी तरह से हिंदी में भी मैं का कोई लिंग नहीं है इसलिये विचार करो कि मैं न पुरुष हूँ, न मैं स्त्री हूँ । मैं किसी लिंगरूप नहीं हूँ । मैं गोलालारे, परवार, खंडेलवाल आदि कोई नहीं हूँ किंतु मैं तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप एक आत्मा हूँ । यहाँ हमें यह जान लेना भी अत्यंत आवश्यक है कि हमें तोता रटंत ज्ञान प्राप्त नहीं करना है । उस तोता रटंत ज्ञान से कोई लाभ नहीं होता है । 358-निष्पक्षता में ज्ञान की सहज समृद्धि—ज्ञान तो आत्मा का है । उस ओर प्रतीति होने पर क्षणमात्र में ज्ञान हो जाता है । आचार्य विद्यानंदि स्वामी जो कि महान्-महान् ग्रंथों के रचयिता है वे पहले वैष्णव धर्म के मानने वाले थे, कहीं पर जैन मंदिर रास्ते में पड़ जाता तो वहाँ से निकलना नहीं होता था, निकलते तो मुंह फेर कर । ऐसे उन आचार्यजी के मन में एक विचार पैदा हुआ कि मैं जिस मंदिर से मजहब से इतना द्वेष करता हूँ सो क्या है, आखिर उसे देखना भी तो चाहिए ऐसा विचार करके वे मंदिर के अंदर गये—वहां पर एक मुनिराज बैठे हुए श्री पूज्य आचार्य समंतभद्र स्वामी रचित देवागम-स्तोत्र का पाठ कर रहे थे, उसे सुन करके विद्यानंदि आचार्य बोले कि आप इसे समझाइये क्या कह रहे हैं । मुनिराज ने कहा कि मैं इसका अर्थ नहीं जानता हूँ मैं तो इसे पढ़ रहा हूँ । उन्होंने कहा कि फिर इसे एक बार कहें—मुनिराज ने फिर से देवागम स्तोत्र पढ़ा । इस तरह से उसका अर्थ विद्यानंदि स्वामी के हृदय पर उतर गया और उन्होंने उसे समझा और दिगंबर जैन दीक्षा धारण की । बाद में न्यायशास्त्र के बड़े-2 गंभीर ग्रंथ अष्ट सहस्री श्लोकवार्तिक आप्त परीक्षा आदि आपने रचे तो कहने का अर्थ यह है कि ज्ञान तो एक अंतर्मुहूर्त में प्राप्त हो सकता है यदि कदाचित् प्रतीति भी अभी न हो तो भी श्रद्धापूर्वक पढ़ते जावो कि इससे हित होगा । इसलिए अध्ययन करना व्यर्थ मत समझो । अध्ययन करो श्रद्धापूर्वक । अभी समझ में नहीं आता तो समय आने पर सब समझ में आ जावेगा । 359-तोता रटंत से लाभ का अभाव—एक पठान ने एक तोता पाल रखा या । उसे इतना सिखला रखा था कि इसमें क्या शक। एक ब्राह्मण आया और पठान से बोला कि यह तोता कितने का है । पठान बोला तोता की कीमत सौ रुपया है । ब्राह्मण बोला—बाजार में तोते ।।) आठ-2 आने को मिलते हैं और तुम सौ रुपया मांगते हो यह क्यों? तब पठान ने कहा कि अच्छा आप तोते से ही उसकी कीमत पूछ लो कि तुम्हारी कीमत सौ रुपया है क्या? तब ब्राह्मण ने पूछा कि हे तोते क्या तुम्हारी कीमत सौ रुपया है । तोता बोला इसमें क्या शक । ब्राह्मण बोला तोता तो गुणवान प्रतीत होता है, तो वह सौ रुपया दे करके तोता ले गया । घर जा करके ब्राह्मण ने सुबह तोते से राम-2 कहने को कहा । तोता बोला इसमें क्या शक—तब ब्राह्मण ने सोचा कि तोता इससे भी गहरे विचार राम के प्रति रखता है उनके बारे में जानता है सो वेदांत के रहस्यों को पूछने लगा, तोता वही जवाब देवे किंतु इस तरह से जब बात होते-होते ब्राह्मण को तोते पर शक हुआ तो उसने पूछा कि क्या मेरे सौ रुपया व्यर्थ में गये तो तोता बोला कि इसमें क्या शक । तब ब्राह्मण की समझ में पूरी बात आई । कहने का अर्थ है कि जब तक आत्मा की प्रतीति नहीं होती है तब तक प्रतीति से रहित ज्ञान व्यर्थ है । इसलिए भैया ! आत्मा की प्रतीति करो । प्रतीति वर्क ज्ञान ही कल्याण का करने वाला है । जो भाई यहाँ पर ऐसे हैं जिनकी समझ में विषय नहीं आता है उन्हें एक दो बार उसे दुहरा लेना चाहिए तब सब ठीक होगा उससे समझने में सहायता मिलेगी । 360-शुद्ध चैतन्य का बोध सर्वोच्च वैभव—शुद्ध चैतन्य के बोध बिना प्राणी की विपदायें, भव-भ्रमणायें कदापि टल नहीं सकती । अत: भैया जिस एकत्व विभक्त आत्मा को श्रीकुंदकुंददेव ने बड़ी करुणा करके दिखाया है बताया है उसको सर्व प्रयत्न करके अवधारण कर लेने का निश्चय कर लो अत: यहाँ श्रीमत्कुंदकुंदाचार्य यह बताते हैं कि शुद्ध आत्मा क्या है :—