वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 6
From जैनकोष
ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो ।
एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो दु सो चेव ।। 6 ।।
361-कल्याणमय एकत्वविभक्त अंतस्तत्त्व के दिखाने का करुणामय संकल्प—एकत्व विभक्त आत्मतत्त्व जो समस्त परद्रव्यों से और परभावों से निराला है अपने सत्त्व के कारण अपने में सहज अनादि अनंत अंत: प्रकाशमान है ऐसा सहज चैतन्यस्वरूप इसकी प्राप्ति जीवों को सुलभ नहीं है, तथापि कितना भी असुलभ हो और कितना ही आत्मसंयमन करके इनकी प्राप्ति की जा सके लाभ इसके दर्शन में ही है अपने एकत्व स्वरूप की प्राप्ति में ही है अत: कल्याण चाहने वाले जीवों को यह अतीव आवश्यक हो गया कि अपने एकत्वविभक्त आत्मस्वरूप के दर्शन कर लें । यही प्रभु है, यही रक्षक है, जगत में जिन जीवों का संपर्क बन रहा है उनमें से कौन मेरा रक्षक है? किन्हीं को कुटुंबी मान रखा है, किसी को मित्र, किसी को कुछ, हैं ये सब कर्म के प्रेरे स्वयं असहाय । ये स्वयं अरक्षित हैं, इनसे मेरी क्या रक्षा होगी? ज्ञानी योगी संत साधुजन ये अवश्य निरपेक्ष हैं और ये करुणावश हम आप सबके भले के लिए उपदेश भी देते हैं, उनके उपदेश पर हम चलें और अपने आपके स्वरूप में स्थिर हो सकें तब तो मेरी रक्षा है । तो ये भी मेरे रक्षक नहीं हो सके, पर हाँ मेरी रक्षा में ये यों निमित्त हैं कि इनका उपदेश सुनकर हम अपने में अपना काम कर लें । अब साक्षात् व्यक्त सर्वज्ञ प्रभु की बात देखिये अरहंत सिद्ध भगवान इनका स्वरूप पवित्र और यथार्थ प्रकाशमान है । ये प्रभु हैं, समर्थ हैं रक्षक हैं किंतु किसके रक्षक हैं? निश्चय से वे अपने आत्मा के ही रक्षक हैं, अनंत आनंदमय हैं, आकुलता से रहित हैं किंतु उनका जैसा विशद निर्मल स्वरूप है, प्रभु के आत्मा का जो कुछ स्वरूप है उसका ध्यान करने से हमें अपने आत्मा की सुध होती है और निर्विकल्प पद्धति से हम स्वरूप की अभेद उपासना करते हैं तो हमारी मुक्ति निकट होती है । मुक्ति भी प्राप्त हो सकती है इस कारण रक्षक तो हैं किंतु व्यवहारत: रक्षक हैं । उनके स्वरूप का आश्रय करके जो अपने में निर्मलता प्रकट कर लेते हैं तो वे रक्षक कहलाते हैं । निश्चय से तो हमारे हम ही रक्षक हैं, तुम्हारे तुम ही रक्षक हो, और यह रक्षा होती है हम में स्वयं विराजमान ज्ञानस्वभाव की श्रद्धा से दृष्टि से । और हमारा रक्षक यह एकत्व विभक्त अंत: स्वरूप है, यह यद्यपि असुलभ है किंतु आचार्य कुंदकुंददेव कहते हैं कि मैं उस एकत्वविभक्त आत्मतत्त्व को अपना सारा जोर लगाकर अपने समस्त वैभव के साथ तुम को दिखाऊँगा । जैसे कोई बहुत भली बात हो और अपने इष्ट पर करुणा जगी हो तो कहते हैं ना कि देखो मैं पूरा जोर लगाकर अपने समस्त वैभव के साथ तुम्हारा यह काम करूँगा । कुंदकुंदाचार्यदेव कहते हैं कि मैं अपने वैभव के साथ तुम को दिखाऊँगा । 362-कुंदकुंदाचार्य देव का आत्मवैभव—पूज्य श्रीमत्कुंदकुंदाचार्य देव का वैभव क्या है? उपदेश के संबंध में वैभव क्या हो सकते हैं वे वैभव अमृतचंद्रसूरि ने 4 प्रकार के बताये हैं एक तो समस्त शास्त्रों का परिज्ञान होना, दूसरे युक्तियों में पारंगत होना, तीसरे गुरुजनों की सेवा करने के प्रसाद से उनके अनुशासन में रहने के प्रसाद से तत्त्व का स्पष्टीकरण होना । चौथा वैभव है निरंतर अपने में कर रहे स्वानुभव से उस तत्त्व का एकदम विशद हो जाना—ये चार प्रकार के वैभव बताये हैं । देखिये जब सर्व प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन हो जाता है तो ज्ञान में कितनी स्पष्टता जगती है—प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग ये चार प्रकार के शास्त्र हैं । द्रव्यानुयोग में वर्णन हैं वस्तु के स्वरूप का आत्मद्रव्य कैसा है, आत्मा में शक्तियाँ कैसी हैं, आत्मा की परिणतियाँ किस प्रकार होती हैं वस्तु के स्वरूप का आध्यात्मिक ढंग से व दार्शनिक ढंग से वर्णन है । करणानुयोग में इन्हीं वस्तुवों के परिणमन कैसे-कैसे कहां हैं उनका एक सर्वोपसंहार रूप से वर्णन है । लोक कितना बड़ा है, समय कितना है, जीव के भाव कैसे हैं, कर्म किस तरह लगे हुये हैं, उनका उदय कैसा है जीव किस तरह का होता है, यों अनेक प्रकार से वस्तु की परिणतियों का वर्णन है । चरणानुयोग में आचरण का वर्णन है, द्रव्यानुयोग में बताये हुये मूल स्वरूप पर पहुँचने के लिए मनुष्य को अपना व्यवहार कैसा बनाना चाहिये, किस प्रकार आचरण करना चाहिये वह वर्णन हैं और इन तीनों अनुयोगों का उपयोग करके किन-किन महापुरुषों ने किस-किस प्रकार से सुगति प्राप्त की है, उन पुरुषों के चरित्र का वर्णन है प्रथमानुयोग में। जब चार प्रकार के अनुयोगों के अध्ययन से एक विस्तृत बोध होता है उसके तत्त्व का अवगम भी बहुत निर्मल होता है । तो यह वैभव कुंदकुंद देव के पास था ही । युक्तियों में पारंगत होना एक मनुष्य की प्रतिभा है । कुछ मनुष्य ऐसे विशिष्ट क्षयोपशम वाले होते हैं कि उनकी बुद्धि स्वत: युक्तियों में चलती है और फिर विशेष अध्ययन जो कर चुके हैं उनको युक्तियां आना एक स्वभाविक सी बात है । कुंदकुंद देव दार्शनिक थे युक्तियों में पारंगत थे । हम आप लोगो को जो महर्षि आत्मा का भला करने वाले आत्मा के स्वरूप का वर्णन करेंगे उनका कुछ वैभव भी तो जान लेना चाहिये ताकि ऐसी अनन्य श्रद्धा हो जाय कि हे प्रभो ! कुंदकुंद देव । तुम्हारी वाणी में जो आया है वह प्रकट सत्य है । 363-गुरुसेवा का प्रसाद—ये प्रभु कुंदकुंद देव आगम और युक्ति के अनुभव से तो संपन्न थे ही स्वयं विशिष्ट ज्ञानी थे तो भी वे गुरुवों की उपासना में रहा करते थे । और निर्मल ज्ञान वाले गुरुवों की उपासना से उन्होंने तत्त्वज्ञान का स्पष्टीकरण प्राप्त किया था । गुरु की सेवा, उपासना, सत्संग, उनके उपदेश को रुचि से सुनना, आदिक जो भी सेवायें हैं उन सेवाओं में इतना अतुल प्रभाव है कि जाने हुये ज्ञान का विशदीकरण होना, स्पष्ट झलक जाना यह उनकी सेवा भक्ति के प्रसाद से हो जाता है । अनुभव करके देखो—एक मामूली सी ही बात जैसे रोज-रोज भोजन बनाते हैं—किसी का उपदेश सुन लिया इस तरह रोटी बनायी जाती है, युक्तियाँ भी जान ली मगर पता है कि कई महीने तक भोजन बनाने में कुशल ऐसे माँ बुवा, मौसी आदिक के संग में रह रहकर, इनके साथ में बना बनाकर कुशलता आया करती है तब रोटी बना पाते हैं । करते ही हैं इसी प्रकार लोग । तो जैसे रोटी बनाने की कला में विशद ज्ञप्ति उनके साथ रह रहकर उनके अनुकूल चल चलकर, प्रयोग भी कर करके कला प्राप्त होती है इसी प्रकार से आत्मतत्त्व के परिचय के अनुभव की कला गुरु सत्संग में रहकर उनकी समय-समय पर उठने वाली वाणी को सुनकर उनकी मुद्रा व्यवहार को निरखकर उनकी सेवा के प्रसाद से उस तत्त्व ज्ञान की निर्मलता बनती है । इस वैभव से भी कुंदकुंदाचार्य संपन्न थे । इतना सब कुछ होने के बाद आखिरी निचोड़ का वैभव है स्वानुभव जो बात अनुभव करके समझी है उसको बनाने में अटक नहीं आया करती और जो किसी तरह सीख ली है, अनुभव उसके नहीं हो पाया तो उसके प्रतिपादन में अटक रह सकती है। कुंदकुंदाचार्य का यह तत्त्वज्ञान अनुभवपूर्ण भी था । 364-आचार्य कुंदकुंद देव की जीवों के प्रति करुणाभाव व सम्मानभाव—सारा आत्मवैभव लगाकर कुंदकुंददेव कह रहे हैं कि मैं उस एकत्व विभक्त आत्मा को दिखाऊंगा । तुम धैर्य धरो धीरता के साथ सुनो, विश्वास के साथ सुनो जगत के अन्य काम तुम्हारे रक्षक न होंगे, शरण न होंगे और यह अपने आपके आत्मा का अंतरंग तत्त्व यदि ध्यान में आ गया, प्रतीति में आ गया तो तुम सदा के लिए संसार के संकटों से छूट सकते हो । अपने आप थोड़े अपने वैभव का संकेत करना और श्रोतावों का सुनने के लिए उत्साहित करना यह काम बतलाता है कि इस ज्ञानी संत के हृदय में कितनी अपार करुणा है । ज्ञानीपुरुष कभी अपने मुंह से अपने गुणों की बात कहा करते हैं क्या? कभी नहीं करते । और कभी श्रोताओं को विश्वास देने के लिए अपने गुण अपने मुंह से कहने पड़ें तो आप अंदाज लगाओ कि उस वक्ता के हृदय में कितनी अपार करुणा है । यहाँ अहंकार वाली बात नहीं है किंतु अपार करुणा वाली बात है, इतने पर भी कुंदकुंददेव कहते हैं कि उन एकत्व विभक्त आत्मा को दिखाऊंगा, पर मैं तुम्हें दिखा सकूं तो तुम अपने अनुभव से विचार कर प्रमाण मानकर ग्रहण कर लेना, तुम्हारा भला हो जायगा और यदि मैं चूक जाऊं, तुम को यह तत्त्व न दिखा सकूं कुछ नहीं है, तुम आगे प्रयत्न करना अन्यत्र कोशिश करना, आत्मा के भाव बिना कभी शांति नहीं मिल सकती । संसार के संकटों से उद्धार नहीं हो सकता । कितना कुंदकुंददेव के हृदय में जगत में रुलने वाले संसारी जीवों पर अपार करुणा है उनके शब्दों से अंदाज कर लीजिये । कितना अन्य जीवों के सन्मान की भी बात साथ में रख रहे हैं कि उपदेश को सुनकर यदि कोई आत्मा की बात न समझ सके तो चुका तो वह लेकिन कहते हैं स्वयं को कि यदि मैं चूक जाऊं तो छल ग्रहण न करना । कितना महान सन्मान रखा है जगत के इन भव्य जीवों का । वह एकत्व विभक्त आत्मतत्त्व क्या है? इसका वर्णन अब छठी गाथा में करेंगे । 365-आत्मा वास्तव में न तो प्रमत्त है और न अप्रमत्त है, क्योंकि प्रमत्त और अप्रमत्त दोनों परिणमन हैं, दशायें हैं, अनादि अनंतभाव नहीं है । केवल आत्मा तो एक ज्ञायकभाव मात्र है । इस शब्द द्वारा भी यह अर्थ ध्वनित न कर लेना कि ज्ञेय का जानने वाला, किंतु ज्ञायक से तात्पर्य चैतन्यस्वच्छतामात्र । इस प्रकार अध्यात्म मर्मज्ञ संतजन स्वभावमात्र आत्मा को शुद्ध कहते हैं । वस्तुत: वह तो किसी शब्द द्वारा कहा ही नहीं जा सकता । शब्द का अर्थ होता है, वह अर्थ किसी न किसी संयोग का प्रतिपादन करता । आत्मा तो जो परमशुद्ध निश्चयनय से ज्ञात हुआ, वह तो वही है । वह किसी अन्य द्रव्य की कुछ भी अपेक्षा नहीं रखता । शुद्ध आत्मा का स्वरूप सर्व प्रकार के परिणमनों से परे है । 366-स्वत:सिद्ध पारिणामिकभावमय शुद्ध आत्मा—इस प्रकरण में शुद्ध आत्मा किसे कहा है ? केवल आत्मा को । केवल आत्मा का वर्णन करने की आवश्यकता इसलिये पड़ी कि यहाँ तो दृष्टि से सृष्टि होती है । जैसी दृष्टि होती है वैसी ही सृष्टि होती है । दृष्टि वीतरागता की ओर रहती है तो उसी तरह की सृष्टि भी होती है । जो आत्मा को हमेशा शुद्ध देखता है उसकी दशा शुद्ध हो जाती है । लोक में देखो । जो जैसा होता है, दूसरों के प्रति भी वैसे ही भाव रखता है । जो चोर होता है वह हर एक को ही चोर समझता रहता है । कोई भी उसके पास आवे वह ऐसे ही विचार करता कि यह कहीं चोर तो नहीं है? जो क्रोधी मानी होता है वह दूसरों के प्रति भी ऐसे ही विचार बनाये रखता है कि यह बहुत क्रोधी है, मानी है, आदि । यह बात प्राय: देखी जाती । कहने का तात्पर्य कि जिसके जैसे परिणाम होते हैं वह दूसरों को प्राय: वैसा ही जानता है । दोषों के देखने वाले का प्राय: करके दोषों को ही देखने का अभिप्राय रहता है, गुणीजनों का अभिप्राय, गुणीजनों की दृष्टि, गुणों की ओर रहती है, गुणीजनों से गुणों से वे प्रेम करते हैं, गुणों का आदर करते हैं और हमेशा ही गुण को प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। दोष दृष्टि बहुत ही बुरी चीज है । हम दूसरे के दोषों को देख करके क्या बनेंगे? दूसरों के दोष देखने से हम अपने को निर्दोष नहीं बना सकते। अपने को निर्दोष तो तभी बना सकते हैं जब कि हम स्वयं के दोषों को देखेंगे और जो हमारे अंदर दोष हैं हम उन्हें दूर कर देंगे तभी हम निर्दोष बन सकते हैं। मनुष्य को हमेशा गुणग्राही बनना चाहिए । 367-वस्तु में अपने ही परिणमन का कर्तृत्व—परमार्थ दृष्टि से जीव अपने को ही जानता है । अपने को छोड़कर यह अन्य को नहीं जानता है । जीव निर्विकल्प दशा में अपने को भी विकल्प नहीं कराता है । निर्विकल्प दशा में शुद्ध ज्ञायक भाव रहता है इसलिये वहाँ पर यह पर को नहीं जानता है । जब जीव पर को नहीं जानता है तब उसके गुणों का परिणमन उसमें ही होता है बाहर नहीं सर्वत्र यही जानना । जैसे यह कपड़ा है इसके रूप रस, गंध स्पर्श आदि कपड़े में ही हैं अथवा कपड़े के बाहर भी हैं? उसमें ही हैं । उसके बाहर उसके गुण नहीं रहते हैं । अच्छा बताओ यह काठ है, इसके ऊपर पीला रंग है । सो रंग ने किसे पीला किया? काठ को अथवा अपने को? पीले रंग ने अपने रंग को ही पीला किया, काठ को नहीं । काठ अंदर वैसा ही है जैसा कि वह था । ऊपर से रंग खुरचकर देखने से मालूम होवेगा काठ ज्यों का त्यों है । कहने का अर्थ है कि जिसकी जैसी परिणति होती है वह उसी में रहती है। एक के परिणमन से दूसरा द्रव्य नहीं परिणमता। आत्मा की जो परिणति है वह आत्मा में ही रहती है आत्मा से बाहर नहीं । जैसे लोग कहते हैं कि हमारा प्रेम तुम से बहुत है, मैं अमुक को बहुत प्रेम करता हूँ। यह सही है अथवा गलत? यह कहना असत्य ही है । क्योंकि राग द्वेष आत्मा से बाहर तो जा नहीं सकते हैं, क्योंकि सभी की परिणतियां उसी में रहती हैं उससे बाहर नहीं, इसी कारण राग द्वेष आत्मा की परिणतियां हैं सो वे आत्मा में ही रहेंगी सो वह अपने पर ही प्रेम करता है और अपने ऊपर ही द्वेष । किंतु उपचार से व्यवहार में ऐसा कह देते हैं कि मैं अमुक के ऊपर प्रेम कर रहा हूँ । 368-आत्मा का अपने में ही कर्तृत्व—आत्मा की एक परिणति जानना भी है सो आत्मा अपने को ही जानता है, दूसरों को नहीं । प्रत्येक मनुष्य, प्रत्येक जीव अपने को ही देखता है—अपने को ही देखता है अपने को ही जानता है; चाहे वह मिथ्यादृष्टि हो चाहे सम्यग्दृष्टि हो । अब यहाँ पर निर्णय यह करना है कि यह संसारी जीव अपने को किस अवस्थारूप मानता है । छहढाला में बताया है कि यह जीव अनादि से अपने को मानता आ रहा है कि मैं सुखी दु:खी मैं रंक राव आदि—मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं गरीब हूँ, मैं धनवाला हूँ आदि । क्रोध के समय जीव अपने में यह मानता है कि मैं यह हूँ । लोभ के समय मानता कि यह लोभ मैं हूँ । मोटे रूप से तो कोई-कोई यह भी मानते हैं कि मैं नेता हूँ, हिंदुस्तान का मैं सबसे बड़ा लीडर हूँ लोग मेरी आज्ञा में चलते हैं—किंतु यह उनका मोह है । यह जीव अनादिकाल से इसी मोह-ममता में रुलता आ रहा है । अगर तुम्हें संसार से ऊपर जाना है तो अपनी आत्मा को निर्मल बनाओ । आत्मा की दो दृष्टियां हैं । शुद्ध तत्त्व की और अशुद्ध अवस्था की । जो जीव अपने को अशुद्ध ही मानता है अपने को अशुद्ध ही देखता है सो वह अशुद्ध ही बन जाता है और जो अपने में शुद्ध द्रव्य की भावना रखता है अपने को द्रव्यत: शुद्ध मानता है वह शुद्ध बनता है । शुद्धपर्यायरूप से यदि यह जीव पर को शुद्ध देखता है अथवा जानता है तो भी वह विकारी बनता है किंतु वह शुभ है । 369-आत्मारूपी कल्पवृक्ष से इष्ट लाभ—आप शुद्ध बनना चाहें तो आत्मारूपी कल्पवृक्ष से आप शुद्ध बन सकते हैं और उसी से आप अशुद्ध भी बन सकते हैं । कहने का तात्पर्य—कि आप जैसा भी होना चाहें जो भी प्राप्त करना चाहें सो प्राप्त कर सकते हैं । अपनी भलाई अपनी बुराई सब इसी आत्मारूपी कल्पवृक्ष से प्राप्त कर सकते हो । अब यहाँ पर निर्णय यह करना है कि आपकी क्या पसंद है । सुख अथवा दुःख, जो आपकी इच्छा हो सो माँग लीजिए । एक व्यक्ति मार्ग में जा रहा था, गर्मी के दिन थे सो प्यास और धूप से व्याकुल हो करके वह एक पेड़ की छाया में पेड़ के नीचे बैठ गया । जिस पेड़ के नीचे वह बैठा था वह कल्पवृक्ष था किंतु उस रास्तागीर को कुछ भी पता नहीं था यह कल्पवृक्ष है । छाया में बैठने से बहुत आनंद मिला, तब वह व्यक्ति कहता है कि हवा तो ठंडी मिली किंतु कहीं थोड़ा ठंडा पानी मिलता तो उत्तम होता । विचारने की देर थी कि बढ़िया लोटे में ठंडा पानी उपस्थित हो गया । पानी को देखकर उस पंथी का विचार हुआ कि कहीं थोड़ा सा नाश्ता मिल जाता तो अधिक उत्तम होता, क्योंकि बिना कुछ खाये पानी पीना हानिकारक होगा । इतना विचारते हीं बढ़िया से बढ़िया भोजन थाली में लगा हुआ सामने आ गया इन सभी आश्चर्यकारी बातों को देखकर वहाँ आदमी कोई मौजूद नहीं फिर ये सारी वस्तुयें कहां से आई, कहीं भूत तो नहीं है; ऐसा विचार उस रास्तागीर का हुआ क्योंकि वहाँ पर कोई आदमी तो दिखता नहीं था और पानी भोजन आदि सभी चीजें उपस्थित होती गई । सो कहीं भूत तो नहीं है ऐसा विचार आते ही भूत सामने आ गया । भूत को देख करके वह व्यक्ति डरा और बोला कि अब तो यह मुझे मार डालेगा । तब भूत ने उसे मार डाला । इसी तरह से यह आत्मारूपी कल्पवृक्ष है आप इससे जो भी चाहेंगे, जैसा बनना चाहोगे यह आपको देगा किंतु यह आपके हाथ में है कि प्रिय क्या है आप कैसे बनना चाहते हो। 370-हम किस शुद्ध का सहारा लें—हम इस समय तो शुद्ध हैं नहीं, अभी तो हम अशुद्ध हैं । शुद्ध कैसे हों? यहाँ इसका निर्णय किया है कि जीव पर्याय से अशुद्ध है किंतु द्रव्य से शुद्ध है । जो शुद्ध तत्त्व को नहीं जानता उसकी कभी भी शुद्ध दृष्टि नहीं बन सकती है । क्योंकि जैसी दृष्टि हो वैसी सृष्टि होती है । आपकी दृष्टि जैसी होगी वैसी ही आपकी सृष्टि होगी । प्रत्यक्ष में हम आप देखते हैं कि जो व्यक्ति स्वयं जैसा होता है उसी तरह से वह सारे व्यक्तियों को जानता है, समझता है। हम पर को जानते हैं ऐसा तो हम उपचार से कह देते हैं किंतु निश्चय से हम किसी को नहीं जानते हैं । हम सिर्फ अपने को ही जानते हैं । अपने में ही हम क्रोध करते हैं । अपने ऊपर ही हम प्रेम करते हैं । अपने ऊपर ही हम द्वेष करते हैं और अपने में ही हम लोभ करते हैं अन्य में नहीं । व्यवहार से, उपचार से हम ऐसा कह देते हैं कि अमुक पर हमारा प्रेम है । अमुक पर हम क्रोध करते हैं । वस्तुत: हम अपने में ही सब कुछ करते हैं । 371-स्वचतुष्टयमय स्व की प्रतीति ही श्रेष्ठ विभूति—मैं अपने चतुष्टयमय हूँ, यह वास्तविकता समझ में आने पर जीव के क्रोधादि भाव स्वयं ही नष्ट होने लगते हैं । क्रोधादि भावों के नष्ट होने पर आत्मा में किसी तरह की विह्वलता, अशांति अथवा कोई परवस्तु से राग-द्वेष की चर्चा नहीं हो सकती है, क्योंकि उसने स्वरूप को पहिचान लिया है आत्मा का असली ज्ञान उसे हो गया है । उसे सम्यग्दर्शन हो गया है । वह विचारता है कि आत्मा न तो प्रमत्त है और न अप्रमत्त है, न कषाय सहित है और न कषायरहित है, किंतु वह एक शुद्ध ज्ञायक स्वरूप जो एक है सो वह आत्मा मैं हूँ । और अन्य मायारूप मैं नहीं हूँ । सम्यग्दृष्टि जीव मानता है कि यह जो आत्मा है सो इसका कोई नाम नहीं है किंतु व्यवहार में आत्मा किस नाम से पुकारा जावे इसके लिए हमारे पूज्य दयालु ऋषियों ने महर्षियों ने उसके नाम ज्ञायक भाव रख दिया है । वस्तुत: किसी पदार्थ का कोई नाम नहीं है । किंतु बिना नाम मात्र के कैसे ज्ञान हो कि कौन क्या है? इसलिए नामनिक्षेप से सबके नाम रख दिए हैं बिना नाम के निक्षेप याने व्यवहार नहीं चलता है । 372-वस्तु के नाम का वस्तु को समझने के लिए कथन—हमें न तो नाम की ही आवश्यकता है न हमें शब्दाडंबरों की आवश्यकता है किंतु हमें तो उसका ज्ञान करना है उसे जानना है समझना है जिसका यहाँ वर्णन हो रहा है एतदर्थ निक्षेप का सहारा लिया जा रहा है । यहाँ बताया जा रहा है आत्मा । सो वह आत्मा न तो बहिरात्मा है, और न अंतरात्मा है और न परमात्मा है किंतु वह सर्व अवस्थावों में शुद्ध चैतन्यस्वरूप ज्ञायकभाव है वह मैं आत्मा हूँ । आत्मा को पहिचानने के लिए योग्यता चाहिए। एतदर्थ मौलिक सदाचार की सबसे अधिक आवश्यकता है । 373-मौलिक सदाचार का संक्षेप—मौलिक सदाचार में इन तीन बातों पर ही विशेष गौर दिया गया है । 1. मिथ्यात्व त्याग, 2. अन्याय त्याग, और 3. असत्य का त्याग । सबसे बड़ी आपत्ति दुनिया में है तो मिथ्यात्व । मोक्षमार्ग में भी यह मिथ्यात्व बाधक है । मिथ्यात्व से बचने के लिए कुगुरु (खोटे गुरु) की सेवा भक्ति विनय नहीं करना । खोटे देवों को नहीं मानना जैसे—भवानी, सीतलामाता, पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि । जितने भी मोही देवता है ये सब मिथ्या देव हैं अत: इनमें किसी भी प्रकार से श्रद्धा-भक्ति नमस्कार आदि नहीं करना चाहिए । खोटे शास्त्रों का सुनना, पढ़ना, यह भी मिथ्यात्व है अत: इन तीनों बातों को भय से स्नेह से अथवा किसी तरह के प्रलोभनों के द्वारा भी सेवा नहीं करना चाहिए । दूसरी बात है मिथ्यात्व के बारे में यह कि परवस्तुओं को अपना नहीं मानना, जो अपना है उसे ही अपना मानना चाहिए । क्योंकि जो अपना नहीं है वह त्रिकाल में भी आपका नहीं बन सकता है । और जो वस्तु आपकी है वह आप से कहीं बाहर नहीं जा सकती है । दूसरा पातक है अन्याय । अन्याय बहुत बड़ा पाप है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को न्यायपूर्वक ही धनोपार्जन करना चाहिए । न्याय से कमाया हुआ धन ही सत्पात्र को दान देने के योग्य है । गृहस्थ का यह मुख्य कर्म है । सागार धर्मामृत में पंडितप्रवर आशाधरजी ने बताया है कि न्यायोपात्तधनो यजन गुणगुरुन् आदिमानी गृहस्थ को सबसे पहले चाहिए कि न्यायपूर्वक धन कमावे यही सर्व प्रथम उसका कर्त्तव्य है। 374-तीसरा पातक अभक्ष्य भक्षण—न खाने योग्य को अभक्ष्य कहते हैं । अभक्ष्य खाने से मन प्रसन्न नहीं रहता है । लोक में कहते हैं कि जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन । यानी आप शुद्ध पवित्र भोजन करोगे तो आपकी आत्मा पवित्र रहेगी । आपका मन हमेशा प्रसन्न रहेगा । बीड़ी सिगरेट, भांग, गांजा आदि जितनी भी मादक वस्तुयें हैं ये सभी अभक्ष्य हैं अत: प्रत्येक व्यक्ति को इनका त्याग करना चाहिये। बिना इनके त्यागे मौलिक सदाचार नहीं बनता । बीड़ी सिगरेट आदि का पीना लोक में भी अच्छा प्रतीत नहीं होता है । मौलिक सदाचार ही सम्यग्दृष्टि जीव की बाह्य पहिचान है । हम आपको इस अवस्था में धन पैदा करने को नहीं रोकते, व्यापार करने को नहीं रोकते, धन पैदा करो किंतु न्यायपूर्वक। छलकपट झूठ चोरी आदि से पैसे का संग्रह मत करो । न्याय पूर्वक ही धनोपार्जन होना चाहिए । शास्त्रों में बताया है आत्मन प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् । यानी जो कार्य हमें स्वयं अच्छे नहीं लगते हैं, या यों कहिये कि जिन कार्यों से हमारी आत्मा को दुःख होता है वे कार्य हमें भी दूसरों के प्रति नहीं करना चाहिए । यही सबसे बड़ा आदर्श है । गृहस्थावस्था में मौलिक सदाचार प्रत्येक गृहस्थ को पालन करना चाहिए । गृहस्थ अवस्था में तीन बातें ही हैं खाना-पीना, धर्म करना तथा पैसा कमाना । सो इन तीनों बातों को आदर्शता के साथ पालन करना सद्गृहस्थ का कर्त्तव्य है । जब तक खाना पीना निर्दोष अच्छा नहीं होगा तब तक धर्म का पालन भी ठीक रूप से नहीं होता है इसलिये इन तीनों कामों को दृढ़ता के साथ पालन करते हुये खूब ज्ञानाभ्यास करना चाहिए क्योंकि ज्ञान के द्वारा ही आत्मकल्याण होगा । 375-स्वयं का स्वरूप—मैं स्वत: सिद्ध हूँ, क्योंकि हूँ । जो भी है वह स्वतः सिद्ध ही है । परत:सिद्ध तो कुछ है ही नहीं, असत् तो न स्वत: सिद्ध है और न परत: सिद्ध है । स्वत: सिद्ध हूँ इसी कारण अनादि से हूँ । सब द्रव्य भी स्वत: सिद्ध हैं वे भी अनादि से हैं । स्वत: सिद्ध हूँ इसी कारण अनंत हूँ, सदाकाल तक रहने वाला हूँ, अंत रहित हूँ, विनाश रहित हूँ, नित्य उद्योत हूँ, हूँ ना, हूँ और परिणमता रहता हूँ इसमें ढके मुदे की क्या बात है । कोई प्रकट खुद को ही समझना न चाहे तो खुद वस्तु अप्रकट तो न हो जावेगी, दिखने वालों को तो प्रकट है । मैं विशद ज्योतिर्मय हूँ । स्वभाव में मल नहीं और स्वभाव मेरा चैतन्य है अत: मैं विशद ज्योति स्वरूप हूँ । जो औपाधिक है वह मैं स्वयं नहीं हूँ । केवल निज की बात है, यहाँ दूसरे पर जाना ही नहीं है । मैं विशद ज्योतिस्वरूप हूँ । मैं ज्ञायक स्वरूप हूँ । ज्ञायक से तात्पर्य जाननवृत्ति परिणत नहीं लेना किंतु जिस स्वभाव के कारण जाननवृत्ति उठती है उस परम स्वभाव को ग्रहण करना । मैं स्वभाव से शुभ अशुभ रूप नहीं परिणमता हूँ । मेरी स्वच्छता है वहाँ उपाधिवश शुभ अशुभ भाव होते हैं । मैं शुभ अशुभ भाव नहीं हूँ । इसी प्रकार समस्त पर पदार्थों से अत्यंत विविक्त और समस्त पर भावों से विभक्त एक चैतन्यमात्र हूँ । इस स्वत: सिद्ध निज तत्त्व की प्रतीति व आश्रय से इस अनाकुल स्वच्छ स्वभाव के अनुरूप ही अर्थात् अनाकुल स्वच्छ परिणमन हो जाता हें । यही परमोत्कृष्ट अवस्था परमेश्वर की है । 376-परम आनंदमय अवस्था—संसार में देखा जावे तो सबसे अच्छी सुख और आनंद को प्राप्त करने वाली कोई अवस्था है तो वह सर्वज्ञ देव की है । भगवान सिद्ध की अवस्था शांत और सुखमय है । भगवान सिद्ध अचल गति को, ध्रुव गति को प्राप्त हैं । उन्होंने अपने से अष्टकर्मों को दूर कर दिया है यानि अष्टकर्मों का क्षय किया है । द्रव्य दृष्टि से देखो तो आत्मा अनादि से सिद्ध है वह किसी के द्वारा रचा नहीं गया है, किंतु वह स्वत: सिद्ध है । जो स्वत: सिद्ध होता है वह अनंत होता है इसलिये वह आत्मा अनंत (अविनाशी) भी है । स्वभाव के अनुरूप भगवान की ही अवस्था है अत: यह सब अवस्थाओं से श्रेष्ठ और उत्तम है । हमें उन जैसी अवस्था पाने की चेष्टा करना चाहिए । सुख और आनंद प्राप्त कर लेने के पूर्व यह जान लेना भी अत्यंत आवश्यक है कि दुःख क्या वस्तु है? और उससे अलग होने के क्या उपाय हैं? 377-भिन्न को स्वयं निज समझ लेने में दुःख—पर पदार्थों को अपना मानना, ममता मोह रखना ही दु:ख के कारण हैं । जब तक मोह ममता रहेगी तब तक जीव कभी भी सुखी नहीं बन सकता है । सुखी बनने के लिये आवश्यक है कि पहले मोह, ममता का त्याग करें । जब तक ममत्व बुद्धि रहती है, इच्छाओं का आगमन रहता है, तब तक सुख की कल्पना करना उसी तरह से व्यर्थ है जैसे आकाश में फूलों की कल्पना करना है । तो करना क्या है? इच्छाओं का अभाव । क्योंकि आचार्यों ने विकल्पों को ही दुःख कहा है । विकल्प होते हैं इच्छा से । सो देखो भैया यदि सुखी बनने की अभिलाषा है तो सबसे पहले मोह ममता को त्यागो । 378-सुख विकल्प के अभाव में—एक मनुष्य के पास उसके मित्र की चिट्ठी आई, उसमें लिखा था कि मित्रवर्य मैं अमुक गाड़ी से अमुक समय पर आ रहा हूँ, सो तुम स्टेशन पर मिलने के लिये आना । पत्र को पाते ही उसे आकुलता पैदा हुई, मित्र मिलन के तरह-2 के विकल्प उठने लगे । सुबह जल्दी उठकर अपनी दैनिक क्रियाओं से निबट करके रोटी बनवाई और खा-पी करके जल्दी से स्टेशन पहुँचा । वहाँ जाने पर ज्ञात हुआ कि गाड़ी आधा घन्टा लेट है, आकुलता और भी अधिक बढ़ी। जैसे तैसे समय व्यतीत हुआ गाड़ी आई और मित्र से मिलन हुआ, प्रसन्नता हुई । किंतु क्या आप बता सकते हैं कि वह प्रसन्नता क्यों हुई । क्या मित्र के मिलने से ? नहीं । वह प्रसन्नता वह सुख तो पूर्व के जो विकल्प थे उन विकल्पों के नाश होने पर सुख हुआ है । मित्र के मिलने से सुख नहीं हुआ । इसलिये हमें आपको चाहिए कि हम इस मोह ममता को अपने से दूर करें । ममत्व बुद्धि जब तक रहती है तब तक वस्तु का यथार्थ स्वरूप (यथार्थज्ञान) नहीं होता है; बिना यथार्थ ज्ञान के सुख की प्राप्ति कठिन है । 379-स्वरूप चतुष्टय—वस्तु का यथार्थज्ञान हमें चार तरह से होता है । या यों कहो कि वस्तु का ज्ञान इन चार की दृष्टि से, अपेक्षा से होता है । वे चार ये हैं द्रव्य क्षेत्र काल भाव। द्रव्य से मतलब वस्तु का पिंड है, या कि जो पिंडरूप है वह द्रव्य है । क्षेत्र — जितने स्थान में वह रहे, उतना है उसका क्षेत्र । काल — वस्तु का परिणमन—नई पुरानी अच्छी, खराब आदि जो वे अवस्थायें हैं सो काल है और भाव से रूप रस गंध स्पर्श आदि या ज्ञान दर्शन आदि हैं भाव । जिस तरह से अन्य सब वस्तु का ज्ञान इन चार के द्वारा होता है उसी तरह से आत्मा का ज्ञान भी चार की दृष्टि से होता है । आत्मा क्या है? दुनिया का सृष्टिकर्ता कौन है इसी की खोज करने में संसार के बड़े-2 जैन और जैनेतर ऋषि, महर्षियों ने अपने जीवन के बहुभाग को व्यतीत किया । सभी ने यही जानने विचारने की कोशिश की कि आत्मा क्या है? सभी ने सोचा समझा इसका पूर्ण रहस्य । जैन ऋषियों ने स्याद्वाद पद्धति से अपने अनुभवपूर्वक यहाँ दर्शाया है । किसी ने आत्मा को अधिक ऊपर शिखर पर चढ़ा दिया किंतु दूसरे ने उसे नीचे गिरा दिया । जैसे कुछ लोगों ने कहा है ब्रह्म एक है और सर्वव्यापी है तथा यही जगत का सृष्टिकर्ता है । तो कुछ भाईयों ने कहा कि आत्मा कोई नहीं, समय-समय पर होने वाले चित्तक्षणों की संतान में लोगों ने आत्मा की कल्पना की । 380-किसी भी गृहत्यागी ऋषि ने छल से धर्म की रचना नहीं की—सांख्य के मत में एकांत भाव आ गया किंतु उन्होंने जानकर अथवा द्वेष ईर्ष्या आदि से अपने मत में एकांत पक्ष लाने की कोशिश नहीं की । वे तो जिज्ञासु भाव से तत्त्वों को जानने का प्रयत्न कर रहे थे, हां वहाँ यानी तत्त्व को जानने में उन्हें समझने में वे कुछ थोड़ासा चूक गये और उस चूक का परिणाम है एकांत दृष्टि । दुनिया में जगत में जितने भी दर्शन प्रचलित हुये हैं इनका क्या कारण है? आप लोग बता सकते हो? ये जितने भी दर्शनशास्त्र प्रचलित हुए हैं इनका मुख्य कारण है द्रव्य क्षेत्र काल भाव इन चारों को समझने की गल्ती । द्रव्य क्षेत्र काल भाव इन चारों की चूक के कारण ही इन इतने दर्शन शास्त्रों का आरंभ हुआ । यदि द्रव्य क्षेत्र काल भाव इन चारों का यथार्थ ज्ञान हो जावे तो सत्य शासन आ जावे । 381-आत्मा का परिणमन कब से और कैसा—जैन शासन यह मानता है कि यह जो जीव है वह अनादि से है और देह ही बनता चला आ रहा है । वह पहले कुछ था और फिर नए भव में भी निमित्त पा करके उसके शरीर परमाणुओं का संचय हुआ, वह बढ़ा । अनादिकाल से यह जीव साधारण वनस्पतिकायिक याने निगोदिया रहा । किसी प्रकार वहाँ से निकला तो पृथ्वीकायिक आदि स्थावर हुआ । फिर सुयोग मिला तो बढ़ते-बढ़ते दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और संज्ञी पंचेंद्रिय इस तरह से क्रमश: अपने में उन्नति की और आज बढ़ते-बढ़ते इसने उत्कृष्ट मन पाया, कुल पाया, धर्म पाया—फिर भी अपना कल्याण-मार्ग नहीं देख पाया तो इससे अधिक दुःख की बात और क्या होगी । इसलिए ऐसा सुंदर अवसर हाथ से नहीं खोना चाहिए । अत: जो श्रीमत्पूज्य आचार्य अमृतचंद्रजी सूरिजी ने समयसार नामक महान् ग्रंथ में द्रव्य क्षेत्र काल भाव इन चारों का वर्णन किया है सो उसे समझकर आत्मतत्त्व के रहस्य को जान करके अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहिए । द्रव्य से आत्मा पिंडरूप जो हम और आप हैं वह है । क्षेत्र से याने निज क्षेत्र से देखो जितने में याने निज प्रदेश में वह आत्मा रहे—सो क्षेत्र है । काल से आत्मा की नई पुरानी परिणतियां काल हैं । आत्मा के जो औपशमिकादि भाव हैं वो भी काल हैं। भाव से यह आत्मा चैतन्यभाव या ज्ञान दर्शन आदि पारिणामिक भावरूप है । इस तरह से हमें देखना है कि आत्मा अखंड है, स्वत: सिद्ध है सहज स्वरूप वाला है तथा अनंत है । अनेक भावों का अभेद समूह यह एक आत्मा अखंड है । 382-आत्मा अनंत शक्यात्मक एक द्रव्य—आत्मा में दो तरह के गुण पाये जाते । एक तो साधारण गुण और दूसरे असाधारण गुण। साधारण और असाधारण ऐसे उन अनंत गुणों के समूहपिंडरूप यह अखंड आत्मा है । आत्मा में अनंत गुण हैं । उन अनंत गुणों में प्रत्येक गुण मौजूद है जैसे ज्ञान गुण है । उस ज्ञान गुण में क्या और गुणों की जरूरत नहीं है या उसमें कोई अन्य गुण नहीं है? हैं । ज्ञान गुण में सभी गुण मौजूद हैं परंतु उन गुणों का आश्रय ज्ञान नहीं है । ज्ञान गुण में सूक्ष्मता है, वह सूक्ष्म है, अगुरुलघुत्व आदि सभी विशेषतायें पाई जाती है । इस तरह एक-एक ज्ञान अनंत विशेषता वाला हो रहा है । एक-एक गुण की अनंत पर्यायें हैं । एक-एक पर्याय में अनंत अविभागप्रतिच्छेद हैं । एक-2 प्रतिच्छेद में अनेक रस हैं । इस तरह से अनेकात्मक एक इस आत्मतत्त्व को जान करके पश्चात् अपनी निर्विकल्प दृष्टि बनाकर कल्याण करना चाहिए । 383-भगवान के समान अपनी आत्मा को बनाओ—प्रत्येक मनुष्य में प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति है । उस ओर लक्ष्य देने की आवश्यकता है । बिना आत्मतत्त्व को जाने कुछ भी नहीं हो सकता है । मनुष्य पर वस्तुओं को ही अपना मानता है । वह अपने में धारणा बनाये है कि ये भगवान हैं सो इनका काम तो पुजने का ही है और मेरा काम पूजने का। इस तरह के विचारों से आत्मा का उद्धार होना कठिन है, इसलिये आत्मज्ञान करो। आत्मज्ञान होने पर यह आभास हो जाता है कि जैसा आत्मा मेरा है वैसा भगवान तू है। मेरे और भगवान के आत्मा में इतना ही अंतर है कि उनका आत्मा कर्म मल से दूर हो गया है और मेरे आत्मा पर कर्म मल का आवरण पड़ा इतना ही अंतर है । बाह्यरूप तो सब परिणमन मात्र हैं, उनमें आत्मद्रव्य की प्रतीति मत करो । अपने को मत मानो कि मैं पुरुष हुँ, स्त्री हूँ, गरीब हूँ, धन वाला हूँ । 384-पर वस्तुओं से मोह छोड़ करके स्वानुभव की लभ्यता—वह स्वानुभव न तो द्रव्यदृष्टि में होता है और न पर्यायदृष्टि से होता और न गुण दृष्टि में ही स्वानुभव है । स्वानुभव सब कुछ जानकर फिर निर्विकल्प ज्ञान में होता है । हम आत्मा को नाम से नहीं कह सकते हैं । जब आत्मा का कोई नाम नहीं तब उसे किस तरह में कहा जायगा ऐसा विचार कर दयालु आचार्य ने उस आत्मा का नाम ज्ञायक भाव रखा । ऐसे उस शुद्ध चैतन्यस्वरूप, चिदानंद आत्मा स्वरूप को जाने बिना यह जीव चारों गतियों में रुलता फिरा । आत्मा अनुभव के बिना नरक, तिर्यक्, मनुष्य, देव इन चारों गतियों में भटकता रहा। समय-समय पर उत्तम गति भी प्राप्त की, किंतु आत्म-अनुभव के बिना कोई लाभ न ले सका । अब हमने अपने बड़े पुण्योदय से यह मनुष्यभव, जैन कुल प्राप्त किया, उत्कृष्ट मन प्राप्त किया, हम अपने हित अहित को विचार सकते हैं, हम ऊंचे सा ऊंचा व्रत पाल सकते हैं अब तो हम सावधान हो । 385-मनुष्यगति को देवता तक तरसते—जिस समय दीक्षा कल्याण में भगवान तीर्थंकर प्रभु की पालकी उठाई जाती है । उस समय देव और मनुष्यों में लड़ाई होती है कि डोली हम उठावेंगे देव कहते हम उठावेंगे । अंत में फैसला होता है कि भगवान की मूर्ति वही उठा सकेगा, वही उठाने का अधिकारी होगा जो भगवान के साथ दीक्षा धारण करेगा। बस, देवता लोग यहीं सकुचा जाते हैं । तब देव देवेंद्र मनुष्यों से भीख मांगते हैं कि हे मनुष्यो ! हमारा सारा वैभव ले लो किंतु हमें मनुष्यत्व दे दो । किंतु भीख मांगे से भी किसी को कुछ मिला है । यह तो सब उदय की बात है तो कहने का मतलब कि इतना उत्कृष्ट भव प्राप्त किया काहे के द्वारा? आत्मदेव की प्रसन्नता द्वारा सो उस आत्मदेव को हमेशा प्रसन्न रखना चाहिए । जिस आत्मदेव के प्रसाद द्वारा हमने यह मनुष्य पर्याय प्राप्त की यदि हमने उसका आदर सत्कार नहीं किया और उस पर हमला करने का विचार किया तो मालूम है कि आत्मा देव हम से रुष्ट होकर हमें क्या शाप देंगे । 386-आत्मदेव पर हमला?—आत्मदेव पर पाँच इंद्रियों के विषय का, हमेशा उन्होंने रत रहना है । एक इंद्रिय का विषय अभी समाप्त किया कि थोड़ी सी देर में दूसरी इंद्रिय का विषय आया । अगर इस तरह से हमने आत्मदेव पर हमला करने का प्रयास किया तो हमें ये शाप देंगे कि ‘पुन: निगोदो भव’ यानी फिर से निगोद में जा । तब फिर हमें अनंत समय तक निगोद में रहना पड़ेगा । एक कथानक है उसे हम पहले कह चुके हैं किंतु दुबारा यहाँ थोड़ी सी कह रहे हैं । एक साधुजी थे उनके पास एक चूहा रहता था, चूहे पर बिल्ली झपटी, साधुजी को दया आई और उन्होंने उसे वरदान दिया कि मार्जारो भव । यानी तू भी बिल्ली हो जा । इसके बाद बिल्ली पर कुत्ता झपटा तब साधु ने उससे कह दिया कि—श्वाभव तू भी कुत्ता हो जा । कुत्ता हो गया । कुत्ते पर चीता झपटा—सो कहा व्याघ्रो भव, कुत्ते को चीता बना दिया । चीते पर शेर ने हमला करना चाहा सो कहा सिहों भव, उसे बना भी शेर दिया अत: उस शेर को भूख लगी, खाने को कुछ मिला नहीं, तब शेर ने सोचा कि चल इन साधु को ही खा लेना चाहिए ऐसा विचारकर जैसे ही शेर साधु पर हमला करने को तैयार हुआ कि साधु ने कहा पुन मूषको भव । यानी फिर से चूहा हो जा । इसी तरह जिस आत्मदेव के आशीर्वाद से निगोद से प्रत्येक शरीरी स्थावर फिर विकलत्रय, पंचेंद्रिय आदि प्रकार से आज मनुष्य श्रेष्ठ मन वाले पंचेंद्रिय हुए । यदि उसी आत्मदेव पर विषयकषाय का हमला किया तो उसका यह आशीर्वाद होगा कि ‘पुन: निगोदो भव ।’ तो हमें इस तरह से अपने इस अमूल्य जीवन को नष्ट नहीं करना है । इसलिए जिस आत्मदेव की कृपा से हमने आपने यह उत्तम भव प्राप्त किया है उस आत्मा देव को प्रसन्न रखे जिससे आगे हमें शिवसृष्टि मिले । आत्मा की पहिचान ज्ञान से होती हैं अत: एकाग्र चित्त हो करके ज्ञानोपार्जन में जुट जावो । ज्ञान ही कल्याण के मार्ग का पथदर्शक है । संसार में भटकते हुवे जीवों को यदि सुख का कोई कारण है तो उपादान रूप से तो कारण भगवान की भक्ति जिसका कि प्रसिद्ध नाम है समयसार और निमित्तरूप से है कार्य भगवान की भक्ति । आजकल कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि हम दुनिया में इसलिये पैदा हुये हैं कि अच्छे-2 पदार्थ खायें मौज उड़ायें यही हमारे जीवन का आनंद और सुख है । यही उनकी मूर्खता है । इसका आगे फल क्या होगा, इस पर विचार करना बहुत आवश्यक हैं । आप शांत चित्त से अपने में यदि विचारपूर्वक देखें तब आपको यह भान होगा कि जगत में जितने भी पदार्थ हैं वे कभी भी नष्ट नहीं होते हैं । वे अनादिकाल से हैं और अनंत तक रहेंगे । 387-आप भी एक पदार्थ—आप विचार करो कि हम पदार्थ हैं और पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता है तब हमें भी कभी इस मनुष्य रूप ढांचे को छोड़कर फिर कोई ढांचा पकड़ना होगा, क्या पता इस मनुष्य भव को छोड़ने के बाद कौन सा शरीर मिलता है कीड़े-मकोड़े 2-3-4 इंद्रियां शरीर मिला तो नाना तरह के दु:खों को भोगना पड़ेगा । और फिर न जाने कब यह मनुष्य भव मिले । इसलिये इसी भव में ऐसा कार्य करो कि इस भव के पश्चात् हमें उत्तम भव ही मिले । उस उत्तम भव को पाने के लिये सबसे उत्कृष्ट वस्तु है कारण भगवान व कार्य भगवान की भक्ति । भगवान में हम से कुछ विशेषता होगी तभी हम भगवान को पूजते हैं । उनकी भक्ति करते हैं । भगवान की आत्मा हमारे आत्मा से अनुपम उत्कृष्ट है । वैसे भगवान हमारी जाति के हैं किंतु उनके आत्मा से कर्ममल रूपी मैल अलग हो चुका है, वे अचल गति को प्राप्त हो गये हैं—उनकी आत्मा परम विशुद्ध हो चुकी है । इसीलिये हम उनकी भक्ति, उनकी पूजा, उनकी आराधना एवं उनकी उपासना करते हैं । भगवान में राग द्वेष मान माया क्रोध आदि रंच मात्र भी नहीं हैं और न है उनमें रंच मात्र आकुलता । आकुलता से जो रहित है वही वास्तविक खुशी है और उसी ने यथार्थ आनंद प्राप्त किया है । 388-भगवान का कोई नाम नहीं, स्वरूप अवश्य है—कोई कहते हैं कि भगवान के अनेक नाम है । रामचंद्र कृष्ण महावीर आदि । किंतु, भाइयों आप विचार करो कि क्या भगवान का कोई नाम हो सकता है? नहीं । भगवान तो उस शुद्ध आत्मा का नाम है जहाँ न क्रोध मान माया लोभ है और न जहाँ पर राग द्वेष है, जो सर्वज्ञ, हितोपदेशी हैं ऐसी वह परम विशुद्ध आत्मा ही भगवान है । किंतु उस आत्मा को हम उपचार रूप के नाम से पुकारते हैं । भगवान के नाम राम, कृष्ण, महावीर नहीं हैं । जैसे श्री रामचंद्र या महावीरजी ने मुनि दीक्षा धारण करके तपस्या करके अष्ट कर्मों का नाश किया और परमपद मोक्ष प्राप्त किया । जिस समय मोक्ष प्राप्त किया उसके बाद वह राम या वीर नहीं और भगवान राम या वीर नहीं किंतु राम, वीर तो हम उपचार मात्र से कह देते हैं वस्तुत: भगवान का कोई नाम नहीं है । जगत में आत्मा शब्द के अनेक नाम प्रचलित हैं । जैसे परमात्मा जगन्नाथ आदि । परमात्मा को भगवान को सभी मानते हैं । किंतु परमात्मा का अर्थ क्या है ? किसे कहते हैं क्या इस पर भी कभी विचार किया है । 389-परम आत्मा—परमात्मा कहते हैं जिसकी आत्मा परम-उत्कृष्ट है ‘परमश्चासौ आत्मा परमात्मा’ । यानी जिसकी आत्मा में उत्कृष्ट ज्ञान है वही आत्मा भगवान है । दूसरा अर्थ कहते हैं भगवान का—भग याने उत्कृष्ट ऐश्वर्य; वान—यानी जिसके पास उत्कृष्ट ऐश्वर्य है उसे कहते हैं भगवान । तो अब यहाँ विचार करना है कि ऐश्वर्य किसे कहते हैं। ऐश्वर्य उसे कहते हैं जिसे अपने काम के लिये दूसरों की अधीनता न हो । लोक में भी आप देख लो जो सब ओर से स्वतंत्र होता है, जिसे अपने भोग विषयों के सेवन करने के लिये दूसरे की पराधीनता नहीं हो, उसे हम ऐश्वर्य वाला कहते हैं । जैसे आप और हम देखते हैं कि हमारे यहाँ जो बड़े-2 राजा महाराजा होते थे—बड़े-2 जागीरदार होते थे उन्हें हम लोग लोक व्यवहार में ऐश्वर्य वाले कहते थे क्योंकि उनके यहाँ सैकड़ों पुरुष नौकर चाकर रहते थे । उनकी पृथ्वी में प्रत्येक आवश्यक वस्तु सहज हो जाती थी उन्हें किसी तरह की पराधीनता नहीं रहती थी । तो जो उत्कृष्ट ऐश्वर्य वाला है उसे कहते हैं भगवान । गांवपति जमीदार अपनी आवश्यक चीजों को अपने खेतों से निकाल लेता है वह गांव का ईश्वर है । भगवान का काम है देखना जानना । उन्हें किसी इंद्रिय आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती है वे तो अपने आत्मज्ञान से त्रिकालवर्ती पदार्थों को जानते हैं—उन्हें आँख आदि किसी भी इंद्रिय का सहारा नहीं पड़ता है। 390-गोरखनाथ (गोरक्षनाथ)—एक और क्या नाम हमें गिरनारजी में ज्ञात हुआ था । वह नाम है गोरखनाथ । हमने जब इस पर विचार किया तब हमें पता चला कि गो नाम है वाणी का और उसकी रक्षा करने वाले गणधर देव गोरख-यानी गणधर देव और उनके भी नाथ यानी नेमीनाथ भगवान-गोरखनाथ भी उस पवित्र शुद्ध आत्मा का नाम है । इसी तरह से जगन्नाथ आदि नाम है । जगन्नाथ कहते हैं जगत के नाथ ईश्वर । जगन्नाथ नाम है शांतिनाथ भगवान का, शास्त्रों का अध्ययन मनन करने पर ज्ञात होता है कि भगवान शांतिनाथ अनेक बार चक्रवर्ती हुए । चक्रवर्ती होते हैं जगत के नाथ-स्वामी । इस तरह से जितने भी नाम प्रचलित हैं वे सब उसी परम विशुद्ध आत्मा के हैं । हमारी आत्मा में भी परमात्मा बनने की शक्ति मौजूद है । किंतु हमारा लक्ष्य उस ओर नहीं है । यदि हम उस ओर अपना लक्ष्य बना लें तो हमारी आत्मा का कल्याण हो जावे । 391-कल्याण मार्ग को सब क्यों नहीं अपनाते—एक बार भगवान् समंतभद्र स्वामी भगवान की स्तुति करने बैठे । उस समय किसी ने उनसे प्रश्न किया कि हे समंतभद्र स्वामी, अभी तो तुम देवागम स्तोत्र बना चुके हो, अब भगवान की स्तुति करने की क्या आवश्यकता है । तब पूज्य समंतभद्र स्वामी कहते हैं कि अभी तक मैं भगवान की परीक्षा कर रहा था और उस परीक्षा में यह स्तोत्र बन गया । किंतु अब मैं उस जगद्वंद्य सर्वज्ञ देव की स्तुति करता हूँ । भगवान को छोड़कर अन्य कोई दूसरा विशिष्ट पुरुष या विशिष्ट आत्मा नहीं है । ऐसी उस महान् आत्मा की मैं स्तुति करता हूँ । यहाँ कोई पुरुष समंतभद्रस्वामी से प्रश्न करता है—हे स्वामिन् इतनी विशिष्ट आत्मा का प्रभाव संपूर्ण जाति में क्यों नहीं हुआ है? तब स्वामी परमपूज्य समंतभद्र उत्तर देते हैं कि काल: कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रोतु: प्रवक्तुर्वचनानयो वा । त्वच्छासनैकाधिपतित्वलक्ष्मीप्रभुत्वशक्तेरपबादहेतु: ।। इसका मुख्य प्रथम कारण है कलिकाल । 392-कलिकाल के लगते ही अनर्थ—कलिकाल के बारे में एक किंवदंती प्रचलित है कि जिस दिन कलिकाल लगना था उसके एक दिन पूर्व एक आदमी ने अपना मकान बेचा । खरीदने वाले ने जब उस मकान को खुदवाया तो उसमें एक हीरों से भरा हंडा निकला । उसे देख करके मकान खरीदने वाला उस हंडे को ले करके जिससे वह मकान खरीदा था उसके पास गया और बोला कि यह तुम्हारे हीरे हैं तुम इन्हें लो । तब वह बोला कि भाई मैं तो मकान बेच चुका हूँ सो अब मेरा इन पर कुछ भी अधिकार नहीं है । ये अब तुम्हारे ही हैं । तब जिसने मकान को खरीदा था वह बोला कि भाई मैने तो मकान खरीदा था न कि ये हीरे । ये तो तुम्हारे हैं, तुम इन्हें ले लो । इस तरह से दोनों में झगड़ा बढ़ा । जब उनसे यह झगड़ा न निपटा तब दोनों ने राजा को पूरी कथा कह सुनाई । राजा उन दोनों को समझाने लगा कि भाई तुम इन्हें ले लो । तुम इन्हें ले लो । किंतु जब किसी तरह से झगड़ा निपटा नहीं दिखा, तब राजा ने कहा कि इसका निर्णय हम कल करेंगे जब रात में सब अपने-अपने घर गये और सुबह से ही कलिकाल लगना था तब रात में जिसने मकान बेचा था वह सोचने लगा कि देखो वह मुझे कितने ही हीरे आग्रह करके देता था, किंतु मैं कैसा मूर्ख हूँ लेने से मना कर दिया । अब कल मैं उन्हें ले लूंगा । उधर मकान को खरीदने वाला सोचने लगा कि देखो उतने हीरे मुझे मुफ्त में मिलते थे किंतु मैंने उन्हें छोड़ दिया अब कल मैं उन्हें स्वीकार कर लूंगा । उधर राजा अपने मन में विचार करने लगा कि मैं उन दोनों को मना-मनाकर ये हीरे दे रहा था किंतु उन पर उनका क्या अधिकार है? उन पर राजा का अधिकार होता है सो कल उन्हें मैं ले लूंगा । इस तरह से कलिकाल लगते ही उन तीनों के बिचार बदल गये । सो यह कलिकाल है । इस कलिकाल में मनुष्यों की प्रवृत्ति पाप की ओर रहती है । 393-धर्म प्रभाव न बढने के अन्य कारण—दूसरा कारण है कि सुनने वालों के हृदय पवित्र नहीं है । अपने स्वार्थवश सुनना अर्थ लगाना प्राय: श्रोताओं का काम होने लगा । तीसरा कारण है कि बोलने वालों को नयों का ज्ञान नहीं है । इसलिये भगवान् आपकी अहिंसा वाणी संसार में नहीं फैली है। कैसी है भगवान की वाणी? कहते हैं विविधनयकल्लोलविमला। विविध नय रूपी कल्लोलों से सहित है पवित्र है वाणी। ऐसी उच्च पवित्र वाणी को सुन करके हमें और आपको आत्ममर्म तक पहुंचकर अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहिए। प्रत्येक प्राणी के अंदर भगवान बसता है। लेकिन जो सबके अंदर भगवान् है, वह कौनसा है? अनेक लोगों ने इस प्रश्न पर विचार किया है। किंतु कोई सफल हुए और कोई नहीं । वह भगवान् समयसार है । परमात्मा दो रूपों में समझा जाता है:—1. कारण परमात्मा और 2. कार्य परमात्मा । कारण परमात्मा को अनेक नामों से पुकारते हैं, कारण परमात्मा, चैतन्यस्वभाव, पारिणामिकभाव आदि । वह सामान्य-चैतन्यभाव समग्र अवस्थाओं में रहता है । प्रत्येक वस्तु सामान्य-विशेषात्मक होती है । सामान्यदृष्टि की मुख्यता से समझ में आने वाला परमात्मा ही कारण परमात्मा है । कारण परमात्मा को जानना प्रत्येक प्राणी के लिये अति आवश्यक है । 394-शुद्ध आत्मा क्या है—शिष्य आचार्य से प्रश्न करता है कि भगवान् शुद्ध आत्मा कौनसा है? तब आचार्य कहते हैं कि पहिले मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और सामान्य आत्मा तीनों को ठीक समझो । सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि तो अवस्था है । सामान्य आत्मा दोनों अवस्थाओं में है । खालिस आत्मा सब पर्याय रूप बना, लेकिन वह किसी पर्यायरूप में नहीं रहता है फिर भी वह सभी प्राणियों में है । इस ही विषय का आचार्य ने गाथा द्वारा इस प्रकार उत्तर दिया है—णवि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो । एवं भणति सुद्धं, णाओ जो सोउ सो चेव ।। जैसे—बाल्य, यौवन और वृद्धावस्था में मनुष्य रहता है । केवल मनुष्य की उक्त तीन अवस्थायें ही वहाँ हम देख सकते हैं, मनुष्य को हम नहीं देख सकते हैं तथा जैसे—बच्चे का बचपन समाप्त होने पर उसमें यौवनावस्था आ जाती है लेकिन उसके मनुष्यपने का नाश नहीं होता है । क्योंकि मनुष्य सभी अवस्थाओं में व्यापक है और उसकी सब अवस्थायें मनुष्य में व्याप्त हैं । इसी प्रकार नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव व गतिरहित संक्षिप्त में ये पांच प्रकार की अवस्थायें आत्मा की है । इन अवस्थाओं का परिचय तो सुगम है किंतु मोक्षमार्ग का प्रवर्तक इन सब अवस्थाओं में रहने वाला एक आत्मतत्त्व है उसका परिचय सम्यग्ज्ञान साध्य है । 395-जैसे का आश्रय वैसा ही परिणमन—शुद्धता दो प्रकार की होती है—1. द्रव्यशुद्धि और 2. पर्यायशुद्धि । जो प्राणी जैसी स्थिति का आश्रय करता है, वैसे ही उसके परिणाम बन जाते हैं । मनुष्य एवं अन्य भी संसारी अभी तक अशुद्ध पर्यायों का आश्रय करता आया है । मनुष्य, बाह्य वस्तुयें, स्कंध, पाँचों इंद्रियाँ आदि—ये सब अशुद्ध हैं । अपने स्वभाव के विरुद्ध अवस्थाओं में रहना तो अशुद्ध है ही अशुद्ध का आश्रय करने से अशुद्ध पर्याय ही बनती है । अशुद्ध द्रव्य का आश्रय करने से अशुद्ध पर्याय होती है । पर्यायशुद्धि भी द्रव्यशुद्धि की अपेक्षा अशुद्ध तत्त्व है । अपनी निज शुद्धि व निज अशुद्धि का आश्रय करके आत्मा की करतूत अपने प्रदेशों में ही चल सकती है । सिद्ध भगवान का भी आश्रय मुमुक्षु को नहीं हो सकता है, क्योंकि सिद्ध भगवान की अवस्थायें भी इस उपासक आत्मा से भिन्न हैं । यह मनुष्य की आत्मा पुत्र मनुष्य की आत्मा से भी भिन्न है । प्रतिपल मनुष्य अपना ही आश्रय करता है अर्थात् जो भाव उसके हृदय में बनते हैं, उसी का मनुष्य आश्रय करता है । जिस समय आत्मा या मनुष्य सिद्ध भगवान का आश्रय करता है, वह पुण्य भाव का आश्रय करता है, वह अशुद्ध अवस्था है । जब निज शुद्ध स्वभाव का आश्रय करता है तब वह सहज तत्त्व का आश्रय करता है, वह मोक्षमार्ग है । 396-शुद्ध आत्मा की पहिचान—प्रश्न—शुद्ध आत्मा किसे कहते हैं? उत्तर—खालिस अथवा एकरूप रहने वाले को शुद्ध कहते हैं । पर्याय की मुख्यता से न देखने से शुद्ध आत्मा का ज्ञान हो जाता है । पर्याय दशा दो हैं—1. शुद्ध 2. मलिन । आत्मा प्रमाद से युक्त नहीं है और प्रमाद से रहित भी नहीं है । जीव याने आत्मा मुक्त नहीं है तथा संसारी भी नहीं है । कषाय सहितपना और कषाय रहितपना—दोनों ही नहीं है । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से देखा गया आत्मा ही शुद्ध स्वरूप आत्मा है, शुद्ध आत्मा स्वत: सिद्ध है, आत्मा का न आदि है और न अंत है। आत्मा हमेशा रहने वाला है अत: नित्य प्रकट है। पर्यायें किसी समय नष्ट होकर उसके दूसरे समय नष्ट हो जाती हैं। मोहवश जीव को कुछ भी सुहित दिखाई नहीं देता है। मोही मनुष्य अपने आपको दूसरे के अधीन समझता है। आत्मा का स्वरूप सिंह की तरह से है । जब तक आत्मा को निज शौर्य का भान नहीं होता है, पराश्रित रहता है । आत्मज्ञान होते ही वह मोह बंधन छोड़कर पराश्रितता को छोड़ देता है । इस आत्मा को अज्ञानभाव में ही पर की गुलामी करनी पड़ती है । आत्मा की पर्याय प्रतिपल बदलती रहती है, लेकिन आत्मा निर्मल ज्योति से युक्त है । स्वभाव से देखने से आत्मा में बंधन नहीं लगा है । यद्यपि आत्मा और कर्म वर्गणा दूध-पानी की तरह से मिले हुए हैं, फिर भी वे हमेशा भिन्न-भिन्न हैं । हाँ कर्म का उदय होने पर आत्मा में विभावपरिणमन हो सकता है । वस्तुत: शुभ और अशुभ भाव ही पुण्यरूप और पापरूप आत्मा को बनाते हैं । यदि मनुष्य पुण्यरूप शुभ भावात्मक कार्य करेगा तो उसकी आत्मा भी पुण्यरूप में बदल जायेगी । यदि पापाचरण करेगा तो आत्मा पापरूप हो जायेगी । शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के भाव अनेक तरह के होते हैं । कषाय और अकषाय दोनों पर्याय से विलक्षण सर्व विशुद्ध आत्मा का ही हमेशा ध्यान करना चाहिए । 397-मोह आत्मा का शत्रु—यह आत्मा ज्ञान के लिए कुछ भी नहीं करता है । इसका कारण यह है कि आत्मा मोह और अज्ञान में उलझा पड़ा है । मनुष्य प्रकृत्या ही ज्ञान से दूर भागता है । वह ज्ञान को शत्रु समझता है, तथा मोह को मित्र समझता है । लेकिन, सुरासुर दुर्लभ इस मनुष्य पर्याय को प्राप्त करके अज्ञान में पड़े रहकर ही नहीं खो देनी चाहिए । इस पर्याय को प्राप्त कर अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्ति करना चाहिए । 398-ज्ञानदान का फल केवलज्ञान—साधु का उत्तम त्याग ज्ञान दान ही है । साधुओं को हमेशा से ज्ञान का उपदेश देते रहना चाहिए । ज्ञानदान नाम यश लोभ से किया जाता है तो वह सफल नहीं होता है । इसी प्रकार आहार दान का फल भोगभूमिया बनना, अभयदान का फल—नेता आदि बनना और औषधदान का फल पहलवानादि बनना है । इस इच्छा से किया वह सब निष्फल है । सर्व दानों में प्रधान ज्ञानदान है । ज्ञानदान व ज्ञानदान दोनों सत्पथ हैं । उनमें भी ज्ञानदान विशेष उत्तम है । आत्मा का स्वभाव चैतन्यमय है । उसको मुक्त अथवा संसारी कहना उसके स्वरूप का घात करना है । 399-ज्ञान-प्राप्ति के लिए चित्त की शुद्धि की आवश्यकता—खालिस या शुद्ध आत्मा को देखो तो वह अब भी मुक्त है । शरीर और आत्मा को युगपत् देखने से आत्मा बंधयुक्त प्रतीत होता है जिस प्रकार कि गाय के गले को व रस्सी को एक साथ देखने से गाय बंधी हुई प्रतीत होती है । अपनी शक्ति के अनुसार सब कुछ न्यौछावर करके भी शुद्धात्मा की पहिचान के लिए प्रयास करना चाहिए । आत्मज्ञान की प्राप्ति का गृहस्थों के लिये सुगम साधन, वर्ष में दो माह अन्यत्र योग्य स्थान पर रहकर आत्मतत्त्व का अध्ययन करना है । कमाई की चिंता न करो, वह सर्व अल्प श्रम से होगा । कम खर्च करना गृहस्थों की तपस्या है । जो गृहस्थ कम खर्च करके शेष द्रव्य को ज्ञानदान में व ज्ञानदान में लगाता है, वह तपस्वी है । गृहस्थों को अपने चित्त की शुद्धि करने के लिए जुट जाना चाहिए । क्योंकि चित्त की शुद्धि गृहस्थों का प्रथम तप है । चित्त की शुद्धि के बिना कोई भी कार्य सफल होना संभव नहीं है । चित्तशुद्धि के बिना धर्म कार्य होना असंभव है । मनुष्य यदि बड़ा बनने और यश की इच्छा को छोड़कर ज्ञानमार्ग में तत्पर होता है तो उसका कल्याण अवश्यंभावी है । ज्ञान का अलौकिक चमत्कार है । मोह और अज्ञान के बिना ही धर्म कार्य संभव है । ज्ञान देना और ज्ञान प्राप्त करना ये दोनों केवलज्ञान के मूल हैं । चित्स्वरूप का बोध सच्चा ज्ञान है । चिन्मात्र चैतन्य का विचार करने पर उसके सब दुःख भाग जाते हैं । अरहंत और सिद्ध भगवान का ध्यान करने से प्राणी की लौकिक विपत्तियां दूर हो सकती है, लेकिन अरहंत भगवान् या सिद्ध भगवान् स्वयं प्राणी की विपत्तियों को दूर करने में समर्थ नहीं हैं । स्वसमय परसमय में रहने वाले समयसार शुद्ध आत्मा का ध्यान सर्व विपत्तियों को दूर कर देता है । आत्मा (मैं) में कोई लिंग नहीं होता है । जैसे:—मैं जाता हूँ, मैं जाती हूँ । अहं गच्छामि । I go इस प्रकार ‘मैं’ स्त्रीलिंग और पुर्ल्लिंग में समान ही रहता है संस्कृत और अंग्रेजी में तो दोनों ही लिंगों में क्रिया भी एक रूप होती है । 400-ज्ञानतत्त्व की सब तत्त्वों में श्रेष्ठता—संसार में ज्ञान तत्त्व सब तत्त्वों में उत्कृष्ट है । झूठ अभिमान, झूठ बड़प्पन, एवं झूठ यश को मिटाने वाला वस्तुज्ञान ही है । सो सभी प्रकार से अपने को लौकिक कार्यों से समय निकालकर ज्ञान की प्राप्ति में लग जाना चाहिए । अपने ज्ञान विकास के लिए वर्ष में कम से कम दो मास ज्ञान प्राप्त करने के लिए शुद्ध एकांत शांत सत्संग में व्यतीत करने चाहिये । निज ज्ञान होने पर वह ज्ञानी बाह्य को प्रतिकूल नहीं समझता, वरन केवल बाह्य की परिणति समझता है । लौकिक जीवों को जो बुरा मालुम देता है, ज्ञानी उसका ज्ञाता रहता है । ‘गाली’ का व्युत्पत्यर्थ ‘प्रशंसा’ है । क्योंकि प्रशंसा अर्थ में ही गाली ( गा+ली) शब्द का प्रयोग होता है दूसरे कोई भी गाली अपमान सूचक नहीं है, सभी गालियों का अर्थ अच्छा ही होता है । 401-सुख-प्राप्ति ज्ञानसाधना में—शुद्ध चैतन्य आत्मा की बात समझनी चाहिए। विषय, कषाय, मोह और अज्ञानादि को आत्मा से दूर करना चाहिए । स्वजीव-विकास के लिए तन-मन-धन से लग जाना चाहिए । तभी सुख की प्राप्ति संभव है । प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषात्मक होता है । यहाँ विशेष नाम है पर्याय का और ‘सामान्य’ नाम है द्रव्य का । जो सभी पर्यायों में एकरूप रहे उसे सामान्य कहते हैं । उसकी पर्याय में प्रतिसमय कुछ न कुछ परिवर्तन आता रहे उसे विशेष कहते हैं । सामान्य के बोध से घमंड दूर हो सकता है । विशेष से अहंवृत्ति का नाश नहीं होता है । सामान्य के ज्ञान वाला जीव इस संसार को नाटक समझता है । जिस प्रकार नाटक में पात्र भिन्न-भिन्न रूप बदलकर आते हैं । लेकिन वे पात्र तद्रूप तो नहीं हो जाते । विशेष तो नाटक है । सामान्य नाटककार सम्यग्दृष्टि को यह ज्ञान होता है कि यह आत्मा ही मूल से नाटक करने वाला है । आत्मस्वरूप को जानने वाले व्यक्ति के लिए वे नाटक व्यर्थ है । भगवान की भक्ति करना बिना ज्ञान के निष्फल है । ज्ञान के बिना भगवान की भक्ति से कोई कार्य सफल नहीं हो सकता है । शुद्ध आत्म-ज्ञान से ही संवर व निर्जरा होती है । बिना आत्मज्ञान के संवर निर्जरा कैसे हो? केवल भक्ति मार्ग रह जाने पर भक्ति के नाम पर कुभक्ति भी हो सकती है । देखो, लोग देवी देवता तक पूजने लग गये । अष्टभुजा, चतुर्भुजा आदि मुर्ति बनाकर पूजना धर्म विरुद्ध कार्य है । दुनियावी इच्छावों के कारण इस पंचम काल में धर्म की हानि होती जा रही है । सामान्य आत्मा की अनुभूति करना सम्यग्दर्शन है । मैं चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ ऐसा विचार करने से पर्यायबुद्धि छूट जाएगी। इस प्रकार चैतन्य स्वरूप आत्मा के विषय में स्वस्थ चित्त होकर विचार करना चाहिए । तभी सच्चे आनंद की प्राप्ति होगी । 402-प्रारंभ में सुख-प्राप्ति का यत्न—उत्तम सुख प्राप्त करने के लिए शांतिपूर्वक रहना और विनयपूर्ण वचनों का कहना आवश्यक है । जो व्यक्ति इन दोनों का पालन करता है उसके पास सांसारिक दुःख बाधाएँ आकर भटकती भी नहीं है । विनयपूर्वक हितपूर्ण वचनों के बोलने से परंपरया अक्षय और अनंत सुख की उपलब्धि होती है । बिना विनय वचनों के बोले धूप में छाया की तरह शांति दूर ही भागती जायगी । अविनयी शांति को त्रिकाल में भी नहीं पकड़ सकते हैं । घरों के पारस्परिक विरोध का कारण अविनय भरे वचनों का बोलना ही है । जब कोई कुटुंब का सदस्य अन्य सदस्यों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करेगा तो उसी समय आपस में झगड़ा हो जाता है । झगड़े में कारण धन की विषमता भी है, लेकिन उतना नहीं । प्रत्येक कुटुंब के सदस्यों से क्या, प्राणिमात्र से अच्छा व्यवहार करना चाहिये । यदि कोई व्यक्ति हमारे से अच्छा व्यवहार नहीं करता है, इसमें हमारी ही अयोग्यता है । क्योंकि जब हम किसी से अच्छा व्यवहार नहीं करेंगे, दूसरा हमारे से सद्व्यवहार क्यों करने लगा? अयोग्य व्यक्ति मत्सरी और असदाचारी होता है । अपने को (आत्मा को) योग्य बनाना अपने ही ऊपर निर्भर है । भूल होना कोई भारी पाप नहीं है । लेकिन भूल करके उसे न सुधारना या पुन: करना बड़ी भारी भूल है । रागद्वेषादि सभी भूल हैं । अज्ञानी व्यक्ति भूल करता है और वह समझता है कि मैंने अच्छा ही किया । इस प्रकार समझना बड़ा भारी मिथ्यात्व है । 403-लौकिक सुख का यत्न—इसके लिए सबसे पहिले अपनी जबान को संभालना चाहिए । कभी भूल कर भी अपने मुख से कटु, अप्रिय वचन तथा गाली गलोज आदि गंदे वचन नहीं निकालने चाहिए । इसी जबान से मीठा बोलकर शत्रु को मित्र, और कडुआ बोलकर मित्र को शत्रु बनाया जा सकता है । इसी जिह्वा में वह शक्ति है कि रूखा-सूखा परोस दो-चार प्रेम की बातें करके दूसरे का थोड़े ही भोजन में अच्छी तरह से पेट भर सकते हैं । सबसे पहली कला वचन बोलने की है । जो व्यक्ति मीठे वचन नहीं बोलना जानता वह बिना पूंछ के पशु के समान है । बुरा वचन बोलने वाला पशु ही है । मनुष्य इस वाक् रूपी औषधि से प्रत्येक मनुष्य को अपने वश में कर सकता है । वचन को सुधारने के लिए कम बोलना आवश्यक है । अधिक बोलने वाला व्यक्ति बावदूक-प्रलापी कहलाता है । हित-परिमित-प्रिय वचन बोलने वाले व्यक्ति के सभी अनुकूल हो जाते हैं । रूठा हुआ व्यक्ति प्रिय वचन बोलने से मनाया जा सकता है । 404-सद् वचन से सच्ची शोभा—सभी व्यक्तियों को मन और वचन की शुद्धि के लिए सात्त्विक रहन सहन करना चाहिए । रहन सहन का मन पर प्रभाव पड़ता है । आभूषण पहनने से शरीर की शोभा नहीं बढ़ती है । अत: आभूषण न पहनने से सुंदरता को कोई क्षति नहीं पहुँचती है । धर्म और सदाचार की हानि होने पर मनुष्य का सर्वस्व चला जाता है । गहनों से शरीर की शोभा नहीं है, धर्म और सदाचार से युक्त आत्मा सहित शरीर की शोभा है । यदि रूपवती भी स्त्री मीठा नहीं बोलती है, उसकी सुंदरता नहीं जँचती है । सुंदरता को बढ़ाने के लिए मीठे वचन और शांति की आवश्यकता है । जिस व्यक्ति से प्रिय बोला जाए वह व्यक्ति तुम्हारे सुख के लिए सदा प्रयत्न करता रहेगा । मीठे बोले बिना तो व्यापारी भी अपना व्यापार अच्छा नहीं कर सकता है । प्रिय वचन बोले बिना तो जीवन ही निरर्थक है । कटु भाषण से 24 घन्टे कलह बनी रहती हैं । पक्षियों को ही देख लो, मीठा बोलने के कारण ही तोता, मैना, और कोयल आदि पक्षियों को सारा संसार प्रेमपूर्वक पालता है । उनकी भाषा सभी को मीठी लगती है । कौवा सदा कांव-कांव करता रहता है । उसका वचन मधुर नहीं होता है । अत: कौवे को कोई भी नहीं पालता है । सबको प्रिय लगने वाले मीठे वचनों को बोलकर जीवन सुधारना चाहिए । 405-विनय वशीकरण मंत्र—विनय से सभी प्राणी वश में हो जाते हैं । विनयपूर्वक वचन बोलना, प्रेम से और शांति से रहना—इन दोनों की कम से कम एक सप्ताह तक परीक्षा करके देख लो, यदि इनसे लाभ हुआ तो ग्रहण कर लेना, अन्यथा हानि होने पर छोड़ देना । निश्चित है कि इस प्रकार जीवन यापन करने से लाभ होगा । प्रेमपूर्वक उचित सभी कार्यों में सबको हाथ बटाना चाहिए। दूसरे के कार्यों में हाथ बटाकर धर्म कार्यों में सहायता करने की हमारी अनायास प्रवृत्ति होना चाहिए । यदि कोई बुरा वचन उच्चारण करता है, इसमें उस जीव की कमी नहीं है, इसमें उसके पर्याय का दोष है । अपने स्वभाव को निरख-निरख अपने को सदा निर्मल बनाना चाहिए । विनम्रता व शिष्टाचार के पालन के लिये प्रातःकाल उठकर अपने से बड़ों को जय-जिनेंद्र करना चाहिए। प्राय: सभी घरों में छोटे बड़े बच्चे माता-पिता का अभिवादन नहीं करते हैं । इस ओर माता पिता व बच्चों को ध्यान देना चाहिये । बड़ों का अभिवादन करते समय दोनों को लौकिक विशुद्ध आनंद की प्राप्ति होती है । प्रात: सब कुटुंबियों को एक बड़े कमरे में सम्मिलित होकर बड़ी लय के साथ तथा गभीर स्वर से आत्म कीर्तन को या अन्य आत्मशोधक भजन को बोलना चाहिए । ऐसा करने से संपूर्ण दिन बड़े आनंद के साथ व्यतीत होगा । इसके साथ-साथ सभी परिवार के सदस्यों का पूरा नाम उच्चरित करके ‘जी’ का प्रयोग करना चाहिए । जैसे निर्मलकुमार जी आदि । सबको योग्यतानुसार भैया जी, बहन जी, माता जी आदि आदर सूचक संबोधनों से पुकारना चाहिए । अपने से बड़ों के साथ हाथ जोड़ कर विनयपूर्वक बोलना चाहिए । इस समय सभी घरों में बच्चे प्राय: माता-पिता को कुछ नहीं समझते हैं । इसका कारण उससे पहले चला आया गंदा वातावरण है, जिसकी ओर उनके माता-पिता ने कुछ भी ध्यान नहीं दिया है । 406-शील शांति का सद्बीज—विनय के साथ प्रत्येक गृहस्थ का दूसरा कर्त्तव्य शीलपालन है । हमेशा अपने शील की रक्षा करना आवश्यक है । वर्ष में दो माह, तीन माह इस प्रकार अवधि अनुसार ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करना चाहिये । कुमार, कुमारी, विधुर, विधवाओं को पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना चाहिये । अपने आत्मिक-गुणों से ही मनुष्य की पूजा होती है । आज तक कहीं भी शरीर की पूजा नहीं देखी गई है । शरीर बिल्कुल अपवित्र है । इसके ऊपर जो भी वस्तु लादी या पहनी जाती है, वह भी अपवित्र हो जाती है । जैसे एक मनुष्य के द्वारा पहना गया एक बार का कमीज दूसरा मनुष्य धारण नहीं करता है, उसे उस वस्त्र से घृणा होती है । स्त्री-पुरुष की शृंगार से शोभा नहीं । ज्ञान और शील से ही उनकी शोभा है । आभूषणादि तो नाशवान पदार्थ हैं । ये वस्तुएं आत्मा के साथ नहीं जाती है । आत्मा के साथ तो गुण ही जाते हैं । विद्या, विनय और ब्रह्मचर्य, इन तीनों का पालन करना प्रत्येक गृहस्थ का कर्त्तव्य है । अपने जीवन का आठवां भाग धर्म साधना में अवश्य ही लगाना चाहिये धर्मसाधना के लिए उपयुक्त स्थान अनेक हैं जहाँ जाकर ज्ञानाभ्यास किया जावे । सो भैया ! सत्संग में व योग्य स्थान पर जाकर धर्मसाधन करना चाहिए, ज्ञानाभ्यास व सत्संग, अधिक से अधिक उत्तम करके धर्म साधना करना चाहिए ऐसा करने से आत्मा का कल्याण भविष्य में हो जायगा, वर्तमान में भी कल्याण का उपयोग होता ही है । 407-आत्मा की कृति—‘करना’ का अर्थ है, उस परिणमरूप बनना । आत्मा में जो बात बने वह आत्मा करता है । अच्छे, बुरे और धार्मिक विचार आत्मा कर सकता है । आत्मा केवल विचार ही कर सकता है, अन्य कार्य नहीं कर सकता है । धन बढ़ा लूं, कमा लूं, नष्ट कर दूं आदि विचार आत्मा कर सकता है, लेकिन आत्मा धन बढ़ाने, कमाने और नष्ट करने में समर्थ नहीं है । यह आत्मा केवल किसीरूप अपने विचार बना सकता है । अन्य कुछ भी कार्य करना आत्मा के वश का कार्य नहीं है । कोई जीव किसी का कुछ नहीं कर सकता है । किसी का उपकार अथवा अनुपकार करना आत्मा के वश का काम नहीं है । सर्वप्रथम वस्तु का स्वरूप जानना आवश्यक है । एक परिणमन जितने में बने, जितने से बाहर न हो, उतने परिणमन को एक वस्तु या चीज कहते हैं । होल्डर का एक भाग हिलाने से पूरा होल्डर हिल जाता है; अत: होल्डर एक चीज कहलाई । यह स्थूल दृष्टांत है । शरीर अनंत परमाणुओं का ढेर है । शरीर का एक परमाणु एक चीज है । एक परमाणु अपनी ही हालत बना सकता है, दूसरे परमाणु की हालत बनाने में वह समर्थ नहीं है । संसार में अनंतानंत आत्मा हैं, और उनसे अनंतानंत गुणे परमाणु । प्रत्येक परमाणु का निजक्षेत्र होता है उसे प्रदेश कहते हैं । आत्मा असंख्यात प्रदेशी है । आत्मा का काम आत्मा के प्रदेशों में ही हो सकता है । अपने प्रदेशों से बाहर आत्मा काम नहीं कर सकता है ।आत्मा के प्रदेशों का हलन-चलन आत्मा की इच्छा से होता है । आत्मा केवल इच्छा कर सकता है अन्य कोई बात आत्मा नहीं कर सकता है । प्रत्येक पदार्थ इतना स्वतंत्र है कि वह पदार्थ अपना ही काम कर सकता है अन्य का नहीं । 408-वस्तु का यथार्थ स्वरूप—इस मन का उपयोग सम्यग्ज्ञान में करना चाहिए । अन्य बातों में मन लगाने से जीवन निरर्थक है । सम्यग्ज्ञान होने पर मोह नष्ट हो जाता है । अत: सम्यग्ज्ञान के लिए कृतप्रयत्न होना चाहिए । मन-वचन-काय को अनुकूल बनाना चाहिए जिससे दूसरे को लाभ हो । आत्मा की जानकारी सभी जीवों को किसी न किसी रूप में अवश्य होती है । यदि जीवों को आत्मा की जानकारी न हो तो उनको सुख दु:खादि का अनुभव नहीं हो सकता है । मैं अमुक का पिता, अमुक का पुत्र अथवा अमुक जाति का हूँ, इस प्रकार अविवेकी आत्मा अपने आपको जानता है (इसी का नाम मिथ्यात्व है) । जबकि विवेकी आत्मा अपने आपको सामान्य रूप से जानता है । मैं अमुक का पिता या अमुक का पुत्र अथवा अमुक जाति का नहीं हूँ किंतु मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ, ऐसी श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहते हैं । त्यागी भी यदि ऐसी प्रतीति कर जाने कि मैं त्यागी हूँ, ऐसी प्रतीति को मिथ्यात्व कहते हैं । क्योंकि आत्मा हमेशा से त्यागी नहीं हो सकता है । यदि हमेशा से त्यागी रहे तो अगले भव में भी उसे त्यागी ही होना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं देखा गया है । हमेशा आत्मा में यही भाव होना चाहिए कि मैं चैतन्यस्वरूप हूँ, ज्ञाता द्रष्टा हूँ । पिता एक पर्याय है, पर्याय में ही अमुक की कल्पना कर लेना मिथ्यात्व है । त्यागी को कष्ट मिलने पर यदि समताभाव भी बना रहे और अपने आपको वह त्यागी व अमुक पद वाला मानता रहे, वह भी मिथ्यात्व है। किसी भी पर्याय में गुजरो, अपने को उनसे विलक्षण ध्रुव चैतन्यस्वरूप समझो । यही शुद्धात्मा का स्वरूप है । 409-आत्मा द्रव्यतः शुद्ध सर्वदा—आत्मा शुद्धता की अपेक्षा से दो प्रकार का है 1. पर्यायशुद्ध 2. द्रव्यशुद्ध । पर्याय शुद्धात्मा भगवान् अरहंत-सिद्ध है । प्राणिमात्र की आत्मा द्रव्यशुद्धात्मा है । परद्रव्य से भिन्न आत्मा को द्रव्यशुद्धात्मा कहते हैं । निगोद से लेकर सिद्ध पर्यंत सभी द्रव्यशुद्धात्मा हैं । समयसार में द्रव्यशुद्धात्मा का ही कथन है । जो एक स्वरूप से सभी अवस्थाओं में एकसा रहे वह शुद्धात्मा कहलाता है । सामान्यदृष्टि से देखा गया आत्मा शुद्धात्मा कहलाता है । सामान्य दो प्रकार का है :—1-जातिसामान्य, 2-एकसामान्य । जाति सामान्य उसे कहते हैं जिसमें एक समय में अभिन्न कल्पना की जाये । बाल, युवा और वृद्धावस्था में रहने वाला मनुष्य एक सामान्य कहलाता है । आत्मा को भी दो दृष्टियों से देखना चाहिए :—1-जातिसामान्यात्मा, 2-व्यक्तिसामान्यात्मा । एक के प्रति नारकी, निगोदिया, मनुष्य, तिर्यंच आदि देखना व्यक्ति विशेषात्मा है उनमें एक को देखना व्यक्तिसामान्यात्मा है । जातिसामान्यात्मा चैतन्य की दृष्टि में एक समान है । अपने आपकी आत्मा को व्यक्ति सामान्यात्मा में देखना चाहिए । व्यक्तिसामान्यात्मा को ऊर्ध्वता सामान्य और जाति सामान्यात्मा को तिर्यक् सामान्य कहते हैं । 410-कषाय का आविर्भाव पर्यायबुद्धि से—जीवों को क्रोध, पर्याय को आत्मा मानने से हो आता है । जैसे पिता को पुत्र पर गुस्सा अपने को उसका पिता समझने के कारण ही आता है । त्यागियों को गृहस्थों पर क्रोध इसलिए आता है कि अरे, मैं तो त्यागी हूँ, यह गृहस्थ है । मेरा गृहस्थ से पद ऊंचा है । अमुक ने मेरे प्रति ऐसा व्यवहार क्यों किया है ? इतने सामान्य आत्मा को न जाना जाये, तब तक सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती है । सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होने पर कर्मों की निर्जरा होती है । पुण्य कार्य करने से पुण्य का बंध तो अवश्य होता है, लेकिन कर्मों की निर्जरा नहीं होती है । आत्मस्वरूप का यथार्थ अनुभव प्राप्त करने पर ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति एवं सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर ही मोक्ष प्राप्ति होना संभव है । सम्यग्दर्शन आत्मा के कल्याण की जड़ है । अत: सम्यग्दर्शन प्राप्त कर आत्मा का कल्याण करना चाहिए । 411-सत्य दृष्टि पाने के लिये वस्तुस्वरूप की अवश्य ज्ञातव्यता—प्रत्येक पदार्थ में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये चारों बातें पाई जाती हैं । इन चारों को एक शब्द में कहने को पदार्थ कहते हैं । गुणांश का अर्थ है शक्ति का अविभागी प्रतिच्छेद । देश, देशांश, गुण, गुणांश—इन चारों को एक शब्द में कहा जाये, उसे द्रव्य कहते हैं । प्रश्न :—समुदाय और समुदायी क्या एक ही चीज है यदि समूह और समूहवाला एक ही चीज है तो उनको दो क्यों कहा, एक ही कह लेते? देशांश, गुण, गुणांश कहो अथवा देश कह लो एक ही बात है । द्रव्य कह लो या द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव कह लो, एक ही बात है अत: समुदाय कहने से ही काम चल जायेगा, समुदायी कहने की कोई आवश्यकता नहीं है । जिन जिनका समुदाय कहा जाये उसे समुदायी कहते हैं। समुदाय का तो अर्थ समूह है ही । भिन्न कारक और अभिन्नकारक दो प्रकार के कारक होते हैं । द्रव्य में गुण या व्यक्ति है, यह अभिन्नकारक है । शरीर में आत्मा है, इसमें भिन्न कारक है । यह समुदाय समुदायी तो अभिन्नकारक हैं अत: समुदाय और समुदायी इनमें से एक ही को कहना चाहिए । समुदाय को कह दो समुदायी कहने की आवश्यकता नहीं । 412-कारकों की भिन्नता और अभिन्नता—यदि उक्त प्रश्न उठे तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि समुदायी न माना जाये तो, समुदाय चीज ही क्या रहेगी? जब वृक्ष के शाखा कोंपल ओर पत्तों का ज्ञान ही न हुआ तो वृक्ष ही क्या रहा? इसी प्रकार तुम प्रदेश, गुण, पर्याय न मानो तो द्रव्य कैसे सिद्ध होगा ? जब गुण और गुणांश समझ में आ रहे हैं तो उनका अभेदरूप द्रव्य समझ जावोगे । समुदाय समुदायी के बिना नहीं हो सकता है । गुण और पर्याय के बोध बिना द्रव्य की प्रतीति नहीं हो सकती है । कारकों का प्रयोग जैसे अभिन्नता की विधि में होता है, भिन्नता की विधि में भी तो होता है । 413-द्रव्य का सर्वांग सुंदर लक्षण—‘‘समगुणपर्यायो द्रव्यम्’’ द्रव्य का महत्त्वपूर्ण लक्षण है । गुण व पर्याय ही तो एक शब्द से द्रव्य कही जाती है । समुदायी यदि न माना तो समुदाय चीज ही क्या रहेगी ? जैसे आपमें स्पर्श रस गंध और वर्ण ये चारों चीजें पाई जाती हैं इन चारोमय आप हैं किंतु स्वरूप अलग-अलग है । आप गुणमयी हैं, तो भी इन चारों का भिन्न भिन्नरूप होता है । जैसे आप में एक-एक इंद्रिय से एक-एक गुण का पर्याय जाना जाता है । फिर भी अखंड देशी होने के कारण ये चारों अलग नहीं किये जा सकते हैं जहाँ एक गुण पाया जाये वहाँ पुद्गल के चारों ही गुण पाये जायेंगे । इसी प्रकार देश, देशांश, गुण गुणांश भी अखंड एक द्रव्य है फिर भी स्वरूप भिन्न-भिन्न रूप से ज्ञात होता, अत: समुदाय और समुदायी दोनों का कथन होना आवश्यक है । जैसे पत्ता, फल, फूल ये सब न्यारे-2 समझ में आते हैं । इसी प्रकार द्रव्य गुण, गुणांश सभी भिन्न-भिन्न समझ में आते हैं । प्रत्येक द्रव्यों में विशेष की अपेक्षा से देश, देशांश गुण गुणांश की कल्पना बनेगी । अभेद और भेद दोनों मानो तो बात सत्य है । वस्तु न अखंडरूप है और न खंडरूप । समुदायी की प्रतीति समुदायी की अपेक्षा रखता है । यद्यपि द्रव्य को खंड-खंड करके समझाया है लेकिन वह है अखंड । 414-द्रव्य का दूसरें प्रकार से लक्षण—‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्’ यह द्रव्य का समीचीन लक्षण है । द्रव्य में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये तीनों अवस्थाएं पाई जाती हैं । इन तीनों से एक साथ अभिन्नरूप से मिला हुआ द्रव्य कहलाता है । भेदविवक्षा से दृष्टि डालने से आत्मा और अस्तित्वगुण ये भिन्न-भिन्न हैं । अभेदविवक्षा से दोनों एक ही हैं । भेदविवक्षा से ‘सत्’ द्रव्य का गुण है । अभेदविवक्षा से ‘सत्’ द्रव्य ही है जैसे वस्तु स्वत: सिद्ध है और यह स्वत: परिणमनशील भी है । अत: यह सत् यहाँ पर नियम से उत्पाद व्यय और ध्रौव्यस्वरूप ही है । वस्तु प्रतिसमय परिणमती रहती है । जो परिणमनशील है, वह उत्पाद व्यय से और ध्रौव्य से युक्त है । वस्तु स्वत: सिद्ध है, अत: ध्रौव्य से युक्त है । वस्तु स्वत: परिणामी है अत: उत्पाद व्यय युक्त है । अत: वस्तु में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों अवस्थाएं पाई जाती हैं । वस्तु सत् स्वरूप है । वस्तु की सत्ता में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य नहीं है, उसकी अवस्था में ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य है, यदि वस्तु की सत्ता में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य मान लिये जाएं तो असत् की उत्पत्ति का व सत् के विनाश का प्रसंग आ जाता है या द्रव्य अर्थक्रियाशून्य बन जाता है । आत्मा के देश, देशांश, गुण, गुणांशरूप आत्मतत्त्व का अभेदानुभव सम्यक्त्व का हेतु है । अभेदानुभव ही निर्विकल्प अनुभूति का कारण हो सकता है । 415-अज्ञानी न आपको आप मानता है और न पर को पर—अज्ञानी जीव आत्मा को भिन्न-भिन्नरूप से समझता है । कोई इस दिखने वाले शरीर को ही आत्मा समझता है । कोई राग-द्वेषरूप परिणामों को आत्मा समझता है । कोई सुख-दु:खादि की अवस्थाओं को भी आत्मा मान बैठता है । इस प्रकार इस आत्मा को कोई किसी रूप में देखता है, कोई किसी रूप में जो भी अवस्था इस जीव को प्राप्त हुई, उसी को आत्मा समझ लेता है पर्याय को आत्मा मान बैठना दु:ख का कारण है । जैसे शरीर को आत्मा समझ लेने से दुःख ही प्राप्त होता है, क्योंकि शरीर नाश होने वाला है । अत: उसको शरीर के वियोग में दुःख ही तो उठाना पड़ेगा । यदि जीव को यह ज्ञान हो जावे कि शरीरादि पर्याय मैं नहीं हूँ, सब भिन्न-भिन्न हैं, तो उसको दु:ख का सामना न करना पड़ेगा । ये राग-द्वेष क्लेश शरीरादि मैं नहीं हूँ । अन्य की बात जाने दो । यदि हम वर्तमान ज्ञान को ही आत्मस्वरूप मान बैठें सो भी ठीक नहीं है । क्योंकि जैसा हम इस समय जान रहे हैं, ज्यों का त्यों सदा तो नहीं बना रहेगा, ज्ञान का परिणमन अन्य-अन्य होगा । इस कारण वर्तमान ज्ञान भी मैं नहीं हूँ । मैं इन सबसे भिन्न स्वरूप को रखने वाला चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ । हम जिस रूप पर्याय को प्राप्त हुए हैं वह मैं नहीं हूँ । क्योंकि पर्याय नष्ट होती है व उसके नष्ट होने पर दु:ख होता है । अत: जो हम विचारते हैं, वह मैं नहीं हूँ । जिसको हम लोग मेरी बात कहते हैं कि मेरी बात रख ली । यह बात भी नष्ट होने वाली है; अत: यह बात भी मैं नहीं हूँ । कहने का तात्पर्य यह है कि जो चीज या पर्याय नष्ट होती है, वह मैं नहीं हूँ । ज्ञान, शरीर, सुख दुःख, राग-द्वेष, क्लेशादि मैं नहीं हूँ, क्योंकि ये नष्ट हो जाते हैं । जो हमेशा एकसा बना रहता है वही मैं हूँ । मैं इन ज्ञान शरीरादि से परे एक चैतन्य आत्मा हूँ । 416-मैं चैतन्यमात्र हूँ—यद्यपि मैं इन सबमें वर्तता हूँ और ये सब मेरी ही पर्याय हैं इन सभी दिखाई देने वाले रूपों में रहने वाला मैं एक आत्मा हूँ तथापि स्वभावत: वह आत्मा नित्य, निरंजन, ज्ञाताद्रष्टा है । उसका संपूर्णरूप से ज्ञान विविध दृष्टियों से हो पाता । उन सर्व दृष्टियों का नाम नय है । जैसे यह चौकी एक फुट ऊंची है, हमें उस चौकी का ज्ञान हो गया कि यह एक फुट ऊंची है । लेकिन उसकी दूसरी अवस्था पर्याय लंबी-चौड़ी रूप में भी तो है उससे भी तो हमें उसी चौकी का ज्ञान होगा । इसी प्रकार यह आत्मा प्रदेशमुखेन अमुक आकार में है, सूक्ष्मत्व की अपेक्षा सूक्ष्म है, द्रव्यत्व की अपेक्षा परिणमनशील है । इत्यादि नाना प्रकारों से हमें आत्मा का बोध होता । परम-शुद्धनिश्चय नय से देखो तो वह नित्य, निरंजन ज्ञायकस्वरूप है । जैसे एक लंबा मोटा चौड़ा ठूंठ है । माना उसके पूरे भाग में अग्नि लग गई । उसमें अग्नि का आकार ठूंठ जितना नहीं है । अग्नि तो निराकार है । वह तो उष्णता स्वरूप है लेकिन लोग ईंधन में लगी हुई अग्नि का आकार मानते हैं यह मानना ठीक नहीं है । वैसे शरीर में आत्मा बसता है । उसीरूप अपने लोग जानते हैं कि इस रूप मैं हूँ । किंतु आत्मा इन सभी से विलक्षण है । वही द्रव्य में शुद्ध आत्मा है निरपेक्ष आत्मा है । यह आत्मा यदि पदार्थों को जानता है तो यह बात नहीं कि यह आत्मा पदार्थमय है । आत्मा जो नाना पर्याय धारण करता है, यह सब मोहनीयकर्म के उदय का परिणाम है । आत्मा तो निर्विकार चैतन्यात्मा है । आत्मा का किसी भी पदार्थ से संबंध नहीं है । यदि कोई ज्ञानी महात्मा रास्ते से जा रहा है, और वह किसी दु:खी जीव को देखता है तो उसमें आत्मदया उत्पन्न होगी । साधुओं की दया आत्मदयारूप होती है । साधु आत्मदया को बताता जाता है । 417-साधु का उत्तम त्याग दान चार प्रकार का होता है:—आहारदान, औषधदान ज्ञानदान, और अभयदान । आहार दान का फल भोगभूमिया होना अर्थात् उसे आहार न मिलने का दु:ख नहीं रहना है । औषधदान का फल है, पुष्ट पहलवान बनना या नीरोग रहना । अभयदान का फल है, नेता या कोई बड़ा आफीसर बनना । ज्ञानदान का फल केवल ज्ञान की प्राप्ति है। ज्ञान दान प्राणिमात्र का उपकार करता है, ज्ञानदान का काम पंडितों का है पंडित से तात्पर्य ज्ञानी से है चाहे वह त्यागी, मुनि, व्रती या सद्गृहस्थ हो, केवलज्ञान के प्राप्त होने पर किसी प्रकार का दु:ख नहीं है केवलज्ञानी यदि सशरीर हो तो क्यों भैया अच्छा है ना, क्योंकि इस अवस्था में वह जनता को धर्म का सच्चा उपदेश देकर लोकोपकार भी कर सकता है । अरहंत भगवान जब तक शरीरसहित होते हैं, जीवों को धर्म का उपदेश देते हैं । सिद्धावस्था प्राप्त होने पर उपदेश मिलता नहीं है । लेकिन वे अरहंत भगवान भी अघातिया कर्मों का क्षय करके सिद्ध हो जाते हैं अत: उनकी भी सदा अरहंतावस्था नहीं बनी रहती है आज प्रभु अरहंत नहीं हैं । ज्ञानी दूसरों को सिखाये और खुद सीखे । वास्तव में ज्ञानी दूसरों को उपदेश देकर खुद ही सीखता है । अत: ज्ञानदान देकर सभी ज्ञानी दूसरों को सुखी बनाते ही हैं स्वयं भी सुखी होते हैं । 418-उत्तम ध्यान की शरणरूपता—संसार में सर्वोत्कृष्ट चीज है शुद्ध ध्यान । ध्यान में बैठकर बाह्य पदार्थों के विषय में सब कुछ भूल जाते हैं । केवल ध्यानी अपने ही स्वरूप में मग्न रहता है । एतदर्थ—सबसे अधिक सम्हाल रखने योग्य चीज है श्रद्धा ज्ञान, चरित्र । जिसका श्रद्धान, ज्ञान, चरित्र बिगड़ गया सभी कुछ बिगड़ गया । चाहे वह त्यागी, धनी अथवा विद्वान् क्यों न हों? यदि धनी धन प्राप्त करके अधर्म कार्य करे, तो उसको अधर्म का फल अवश्य मिलेगा । अगर कोई पंडिताई प्राप्त करके पाप करे उसको भी कर्म नहीं छोड़ता है । यदि हमारे अंदर से कलुषित परिणाम हैं बाहर कितना ही साफ क्यों न हो कर्म उसको भी नहीं छोड़ता है । यदि हमारे अंदर विशुद्ध परिणाम है तो कर्म हमारा बाल भी बांका नहीं कर सकते । यद्यपि इसमें न्याय करने वाला कोई नहीं है तथापि निमित्तनैमित्तिक संबंध से सच्चा न्याय स्वयं हो जाता है । आत्मा में भेद नहीं है, वह अखंड है इसके उपयोग बिना मोह का साम्राज्य छा जाता है । पुत्र स्त्री आदि के मोह में आत्मा कुछ भी कल्याण नहीं कर सकता है । जैसे-जैसे मोह घटता है वैसे-2 ज्ञान बढ़ता जाता है । मोह दूर करना मनुष्य का काम नहीं है मोह को तो ज्ञान ही हटाता है । मनुष्य राग न करे इसका उपाय तत्त्व समझ लेना है । अपना कर्त्तव्य है सम्यज्ञान की प्राप्ति करना । यथार्थज्ञान प्राप्त करके अपनी आत्मा का कल्याण करो। सुख प्राप्ति का अन्य कोई उपाय नहीं है । राग द्वेष मोहादि को हटाने का उपाय ज्ञानप्राप्ति ही है । जहाँ द्रव्य का सच्चा ज्ञान हो गया कि यह अपनी अवस्था में परिणमता है, वही सच्चा ज्ञान है। 419-दु:ख का कारण स्नेह—जितने भी संसार में दु:खी हैं, उनके दुःख का कारण उनकी रागप्रवृत्ति है । सब जीवों को सुखशांति प्राप्त करना है । शांति के लिए ही सभी उद्योग और रोजगार करते हैं । लेकिन इसमें शांति कहाँ? शांति को उपाय बहुत किये । अब धनोपार्जन की आसक्ति छोड़कर कम से कम दिन में 24 घंटों में से 1 घंटा तो यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने का व्यवसाय तो करो । यदि शांति मिलेगी तो ज्ञानसाधना में ही मिलेगी, व्यापारादि में सुख और शांति कहां? ऐसे बहुत व्यक्ति हैं जो भरी जवानी में स्त्री पुत्रादि के मोह को छोड़कर आजीविका के कष्ट होते हुए भी ज्ञान साधना करते हैं । ज्ञान-प्राप्ति बड़े प्रयत्न से कर ही लेना चाहिए । ज्ञान का कोष अथाह है, वह कभी रीता नहीं किया जा सकता है । ज्ञानी की समझ में ज्ञान की अपूर्णता बनी रहती है । बड़े-बड़े ज्ञानी पंडित भी ज्ञान के विषय में अपनी अपूर्णता ही सोचते हैं । इस प्रकार वे सर्वदा ही विद्यार्थी की तरह ज्ञानसाधना में लीन रहते हैं लेकिन बिना पढ़े लिखे सोचते हैं, हम तो अपने में पूर्ण हैं वे भ्रम में हैं । उनको इस भ्रम को दूर कर ज्ञानसाधना में लगना चाहिये । 420-अवशिष्ट जीवन का सदुपयोग—भैया ! आप लोगों को ऐसा करना चाहिए जिनकी जीविका का साधन है उनको ज्ञान प्राप्ति के लिए धर्मक्षेत्र पर रहना चाहिए । आप लोग यदि धर्मसाधना करना चाहें तो अनेकों स्थान व अनेकों सत्संग मिल सकते हैं वहाँ धर्मसाधन कर सकते हैं । आप सबको तन-मन-धन से ज्ञान कार्य में जुट जाना चाहिए । कम से कम ज्ञान क्षेत्र पर लगाए गए अपने धन का ज्ञान-प्राप्तिरूप में उपयोग तो करना चाहिए । जिंदगी भर कमा-कमा करके करोगे क्या? यहाँ से जब भी जाओगे, हाथ पसारे जाओगे । कुछ भी साथ नहीं ले जा सकते । साथ जाता है, ज्ञान । अत: कुछ तो ज्ञान प्राप्ति करना चाहिए । जबलपुर जैन समाज को इसके लिए पहले आगे बढ़ना चाहिए क्योंकि मढ़ियाजी उनके स्थान के पास है । यदि जबलपुर वाले आगे नहीं बढ़ेंगे तो इस स्थान से लाभ क्या लिया । 421-निजस्वभाव के आश्रय से सहज आनंद—आत्मा सब पदार्थों से भिन्न शुद्ध चैतन्यद्रव्य है । वह शुद्ध आत्मा समयसार है । स्वभाव कहो या कारण परमात्मा कहो, एक ही बात है । भगवान के आश्रय से कर्म नहीं कटते । उनका आश्रय (भक्ति) तो इसलिए है कि हमें यथार्थता का बोध हो जाये । आत्मा के ज्ञान से संवर निर्जरा होती है । भगवान् की भक्ति से संवर, निर्जरा नहीं होती है । भक्ति से पुण्यबंध अवश्य होता है लेकिन भगवान की भक्ति स्वरूप को जानने में सहायक होती है । जिस पथ पर चलकर भगवान् सुखी हुए उस पथ पर चलने के लिए उत्साह लाने को हम भगवान का ध्यान करते हैं । भगवान् सिद्ध या अरहंत के स्वभाव का ध्यान करने से अपना स्वरूप जल्दी जाना जा सकता है । भगवान् अथवा महासत्ता के बोध में आत्मा का बोध हो जाता है । महासत्ता में उत्पाद व्यय और ध्रौव्यरूप परिणमन नहीं हो सकता है । महासत्ता के ध्यान करने से हम अपने स्वभाव पर आ जायेंगे । जब तक विशेष का सहारा है, तभी तक परद्रव्य पर हमारा टिकाव है । अपनी भलाई अपने ही आश्रय पर हो सकती है । अत: आत्मा का स्वरूप जानकर स्व-कल्याण करो । 422-यथार्थ बोध किये बिना मोह का अव्यय—पदार्थों का यथार्थ ज्ञान किए बिना मोह दूर नहीं हो सकता है । जाप देने से व भगवान की भक्ति से भी मोह दूर नहीं हो सकता है । पदार्थ स्वत: सिद्ध हैं, उसको किसी ने नहीं बनाया है । जैसे मृत्पिंड से घड़ा बना, मिट्टी से मृत्पिंड बना । इस प्रकार मृत्पिंड का व्यय हुआ, तो घड़ा बना, घड़े का उत्पाद हुआ । लेकिन मूल चीज वही मिट्टी है । मिट्टी सभी अवस्थाओं में रही अत: वह ध्रौव्य है । इस प्रकार मिट्टी स्वत: सिद्ध है । लेकिन घड़े का अन्य कोई बनाने वाला नहीं है । वह तो मिट्टी से स्वयं बना, इसमें निमित्त कारण कुम्हार है । जैसे कोरी ने कपड़ा बनाया । लेकिन उसने अपने में से कुछ मिलाया तो नहीं वह तो कपड़े के बनने में निमित्त कारण है । कपड़ा तो वास्तव में कपास से बना । कपास से तंतु बनाकर कपड़ा बुना गया । तंतु के व्यय से कपड़े का उत्पाद होने पर भी कपास की ध्रुवता है ही । वस्तु स्वत: सिद्ध है । वस्तु की सत्ता का कोई निमित्त नहीं है । वस्तु के परिणमन बनने में कारण निमित्त तो हो सकता है, लेकिन वस्तु की सत्ता में कोई निमित्त नहीं है । जैसे लड़के ने हाथ से पीसकर घड़े का चूर्ण बना दिया । उसमें लड़के के केवल हाथ ही चले, लड़का निमित्त कारण हो सकता है । वैसे तो चूर्ण रूप में घड़े की पर्याय ही बदली है । पर्याय में निमित्त हो सकता है, वस्तु की सत्ता में स्वत:सिद्ध होने से निमित्त नहीं हो सकता है । वस्तु का नाश नहीं होता, वह आदि से अंत तक रहा करता है । वस्तु स्वत: सिद्ध है, अत: स्वत: परिणमनशील भी है उसकी कोई न कोई हालत अवश्य होती रहेगी । उसकी अवस्थाओं का परिणमन स्वत: ही होता है । वस्तु की पर्याय बनती है । 423-पर्याय की निष्पन्नता—जैसे तिनके को हमने तोड़ दिया उसके हजारों टुकड़े (परमाणु) खिन्न हो गये । तृण में अपने हाथ ने कुछ नहीं किया । तिनके की अवस्था स्वत: ही हुई । हाथ तो तृण के टूटने में निमित्त है । एक और उदाहरण लो:—दो लड़के 20 हाथ की दूरी पर खड़े हैं । उनमें से पहला अपने हाथ की अंगुली मटकाकर दूसरे को चिढ़ा रहा है । पहले लड़के के चिढ़ने में कारण लड़का नहीं है । पहला लड़का तो अपने परिणामों के परिणमन से स्वत: ही चिढ़ता है । परिणमन का अर्थ है, नई पर्याय का बनना । नई पर्याय के बनने का नाम उत्पाद है । पुरानी अवस्था का उसमें व्यय हुआ । वस्तु वही रही । उसकी अवस्था ही बदली है, अत: वस्तु ध्रुव है । वस्तु परिणमनशील का अर्थ है, उत्पाद-व्यय । स्वत:सिद्ध का अर्थ ध्रुव अत: वस्तु उत्पाद व्यय ध्रौव्य से युक्त हुई । यह द्रव्य का पाँचवाँ लक्षण है । यह स्वतंत्र लक्षण नहीं है, ‘गुणपर्ययवद् द्रव्यम्’ पर ही आश्रित है । द्रव्य की पर्याय उत्पन्न होती है, नष्ट होती है । वस्तु में कोई उत्पत्ति विनाश नहीं होता है । जैसे अंगुली सीधी थी अब टेढ़ी हो गई । अर्थात् सीधीरूप से व्यय हो गई । टेढ़ी रूप में उसका उत्पाद हुआ । लेकिन अंगुली वही अंगुली रही । जैसे घड़ा मिट्टी से बना, वहाँ मृत्पिंड का नाश हुआ, घड़े का उत्पाद हुआ । लेकिन मिट्टी, मिट्टी ही बनी रही। जैसे पुस्तक पुरानी हो गई । क्या वह इसी समय पुरानी हो गई? नहीं, वह प्रतिसमय परिणमती रही तभी धीरे-धीरे पुरानी हो पाई । वस्तु का धर्म स्वत:सिद्ध एवं स्वत: परिणामी है । 424-हमारे सुख दुःख की हम से ही निष्पत्ति—हम दु:खी होते हैं, अपने परिणमन से ही होते हैं, दूसरे से दुःखी नहीं बनते । धर्मात्मा भगवान का ध्यान करता है, इसमें भगवान् अरहंत सिद्ध कारण नहीं है । हम स्वयं भगवान का ध्यान करते हैं, लेकिन भगवान् स्वयं ध्यान नहीं कराता । भगवान को भगवान् बनाने वाले भी हम ही हैं । भगवान् शुद्ध द्रव्य हैं । भगवान को ‘भगवान्’ संज्ञा तो हमी लोगों ने दी है । जिसके गुण पूर्ण विकास को प्राप्त हो गये हों, उसी का नाम शुद्ध द्रव्य है, उसको हम लोग भगवान् कहते हैं । जैसे शुद्ध दर्पण के सामने मोर बैठा है । दर्पण में जो मोर का प्रतिबिंब है, उसको करने वाला मोर नहीं है । मोर तो बैठा है । मोर को देखकर दर्पण ने अपना रंग बदल लिया । उसमें मोर तो नैमित्तिक है । दर्पण की स्वच्छता अनैमित्तिक है । अशुद्ध परिणमन निमित्त को कहते हैं और अनैमित्तिक को शुद्धपरिणमन कहते हैं । 425-अशुद्धता निमित्त की उपाधि से—अब यहाँ पर शंका हो सकती है कि सिद्ध भगवान् तीनों लोकों के पदार्थों को एक साथ जान लेते हैं और उसमें ज्ञेय पदार्थ निमित्त हैं तो उनका परिणमन भी अशुद्ध परिणमन कहलायेगा । उत्तर— इसमें यद्यपि ज्ञेयाकार रूप अशुद्धता है लेकिन उसको अशुद्धता नहीं कह सकते हैं । कारण सब पदार्थों के झलकने से उनको विचार व दु:ख नहीं होता है उनकी पर्याय अनैमित्तिक और सदृश होती है एवं त्रितयात्मक है। मृत्पिंड से घड़ा बना । मिट्टी घड़े के रूप में उत्पन्न हुई, पिंड के रूप से नष्ट हुई, वैसे मिट्टी, मिट्टी से ही बनी रही उनका उत्पाद-व्यय युगपत् होती है । उंगली के सीधेपन से टेढ़ी होते ही सीधे का व्यय और टेढ़ी का उत्पाद युगपत् हुआ । वस्तु की तीनों पर्यायें उत्पाद व्यय और ध्रौव्य एक साथ होती हैं एक ही चीज का नाम उत्पाद व्यय और ध्रौव्य है । सीधी अंगुली से टेढ़ी हो गई इसी का नाम सीधी का विनाश टेढ़ी का उत्पाद और अंगुली की ध्रुवता है । इस प्रकार तीनों पर्यायें एक ही चीज हैं । जैसे घड़े के फूटने पर घड़े का व्यय, खपरियों का उत्पाद और मिट्टी का ध्रुवपना एक ही समय हुआ । सत्, सत् भी है; सत्, असत् भी है । सत् एक रूप भी है; नाना रूप भी है । सत् त्रिलक्षणा भी है और सत् अत्रिलक्षणा भी है । सत् सर्व पर्यायरूप भी है और सत् एक पर्यायरूप भी है । सभी पदार्थों में उत्पाद व्यय और ध्रौव्य तीनों होते हैं । वस्तु स्वत:सिद्ध है, यह ध्रौव्य को सूचित करता है । तथा स्वत: परिणामी है यह उत्पाद व्यय को सूचित करता है। 426-उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य कपोल कल्पना नहीं—यहां पर शंकाकार का कहना है— यह आपकी कपोल कल्पना है, तीनों मानने की क्या आवश्यकता है, उनमें से एक ही को मान लेते। अब इसका समाधान करते हैं- यह तुम्हारा कथन ठीक नहीं है । द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है । यदि आप तीनों को न मानो तो पदार्थ का अस्तित्व नहीं रहेगा और वह नष्ट हो जायेगा । फिर पदार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है । जैसे घड़ा बना । घड़ा बनने में कारण मृत्पिंड है । यदि मृत्पिंड न हो तो घड़ा कैसे बने? जो पर्याय उत्पन्न होती है उसके उत्पाद में पूर्व पर्याय कारण होती है । पर्याय अलग से कोई वस्तु नहीं है । पूर्वपर्याय-संयुक्त द्रव्य उत्तर पर्याय का उपादान कारण होता है । घड़ा बनने में उपादान कारण मृत्पिंड पर्याय के साथ मिट्टी है । उसके बनने में निमित्त कुंभकार, चक्र दंडादि अवश्य हैं । कुंभकार चक्र दंडादि मिट्टी में नहीं गये हैं । पृथक् सत्ता वाले सभी द्रव्य निमित्त कहलाते हैं । यदि आप तीनों चीजें नहीं मानते हो तो वस्तु का अभाव हो जायेगा । परिणमन न मानने से कार्य-कारण भाव नहीं रहेगा । नई अवस्था के उत्पाद बिना पुरानी अवस्था का व्यय नहीं होता है । उसी प्रकार पुरानी वस्तु के व्यय बिना नई वस्तु का उत्पाद नहीं । वस्तु बदलने का मतलब वस्तु का परिणमना है । जो वस्तु परिणमेगी उसमें उत्पाद व्यय अवश्य ही होंगे । व्यय के बिना उत्पाद नहीं होता है और उत्पाद के बिना व्यय नहीं होता है । वस्तु स्वयं ही किसी पर्यायरूप परिणमती है । वस्तु का परिणमन वस्तु से ही होता है, उसमें हम मनुष्य कारण नहीं हैं । अत: हम वस्तु को बनाते हैं इस अहंकार को छोड़ दो । मैं के सिवाय बाकी द्रव्य ‘मैं’ द्रव्य से भिन्न है । मैं द्रव्य न्यारा हूँ तथा अन्य द्रव्य मैं से न्यारे हुए । इस प्रकार विचार एवं प्रतीति करने से ही मोह दूर हो सकता है । वस्तु नित्य भी है, परिणमनशील भी है अत: वह त्रितयात्मक है । यह सब स्वत: है किसी अन्य की कृपा से नहीं । 427-प्रत्येक आत्मा पूर्ण एक-एक—आत्मा एक-एक ही है; अर्थात् प्रत्येक आत्मा पूरा है । दूसरे शब्दों में आत्मा अखंड है उसके कभी खंड नहीं किये जा सकते । कभी आधा रह जाये पौन या चौथाई रह जाए ऐसा नहीं हो सकता । पूरा आत्मा जैसा है वैसा ही जब समझ में आता है तब उसमें कोई अंश नहीं दिखाई देते हैं । अंशों की तीन प्रकार से कल्पना की गई है:—1. तिर्यगंश 2. स्वभावांश और 3. पर्यायांश । देशांश, गुण और गुणांश इस प्रकार तीन अंशों से कल्पना होती है । जैसे एक सेर 80 तोले का होता है । यदि उसमें 80 तोले ही न होंगे तो सेर कैसे समझ में आयेगा ? जैसे एक लाठी पांच फुट की है, यदि उसमें इंचों की कोई बात नहीं तो हम कैसे जानेंगे कि लाठी पांच फुट की है । जैसे एक-एक पैसा जोड़ने से लाखों रुपये जुड़ते हैं । जब पैसे ही नहीं जुड़ेंगे तो लाख रुपये कैसे जुड़ेंगे? यह आत्मा जितने बड़े शरीर में रहता है, उतना ही बड़ा हो जाता है । यह एक आत्मा हाथी के शरीर में हाथी जितना; चींटी के शरीर में चींटी जितना और उल्लू गाय, भैंसादि के शरीर में उनके देह परिमाण रहता है । एक-एक प्रदेश करके उसके असंख्यात प्रदेश होते हैं किंतु वह है एक ही वस्तु । आत्मा का कभी हिस्सा नहीं हो सकता है वह अखंड है । जैसे इस पूरे कमरे में आकाश है उसके यहाँ अनेक प्रदेश हैं । लेकिन इस आकाश के टुकड़े नहीं किये जा सकते । ऐसे ही आत्मा बहुप्रदेशी होने पर भी उसके खंड नहीं किये जा सकते, अत: आत्मा अखंड द्रव्य है । जितने में एक परिणमन होता है, उतने भाग को अखंड कहते हैं । इसी प्रकार आत्मा भी अखंड है, उससे एक-एक प्रदेश की कल्पना करके उसमें असंख्यात प्रदेश होते हैं । इसे देशांश कहते हैं । अखंड आत्मा को जानने का उपाय खंड बुद्धि भी है । प्रत्येक पदार्थ का एक ही स्वभाव है । लेकिन उसके अंश किये बिना वह समझ में नहीं आ सकता है । उसके जो अंश कर दिये जाते हैं, उसे गुण कहते हैं । स्वभाव को समझने के लिए उसके हिस्से किये जायेंगे । जैसे आत्मा में ज्ञानगुण, दर्शनगुण, शक्तिगुण आदि गुण है । लेकिन आत्मा एक स्वभाव हें । सब गुणों को एक साथ समझो उसे स्वभाव कहते हैं। 428-शुद्ध परिणमन भी एक-एक समय—द्रव्य प्रत्येक समय में अपनी नयी पर्याय रखता है, दूसरे समय में दूसरी, उसी प्रकार तीसरे समय में तीसरी, चौथे में चौथी, पांचवें में पांचवीं जानना चाहिए। जैसे इस हाल में यह बल्ब दो घंटे से जल रहा है। यद्यपि इसने एक ही काम किया है, एक ही चीज है, ऐसा इसे देखने से मालूम पड़ता है; मगर ऐसा नहीं है। प्रत्येक समय में यह नया-नया जल रहा है। और प्रत्येक समय में नया-नया काम कर रहा है। इसी प्रकार सिद्धों के विषय में भी यही बात है पहले समय के केवलज्ञान से पहले समय में पदार्थों को जाना, दूसरे समय के केवलज्ञान से दूसरे समय में पदार्थों को जाना । यह परिणमन अनैमित्तिक परिणमन है । उसी प्रकार लट्टू (बल्ब) वैसा ही जल रहा है ऐसा मालुम पड़ता है । लेकिन ऐसी बात नहीं है, वह प्रतिसमय नया जलता है, और नया काम करता है । इसी प्रकार सिद्ध प्रभु का परिणमन सदृश होने से परिणमन समझ में न आवे यह दूसरी बात है किंतु परिणमन प्रतिसमय होता ही रहता है यह युक्ति और ज्ञान द्वारा गम्य है । उन सब परिणमनों में जो एक स्वभाववान है वह अखंड ज्ञायकस्वरूप आत्मा है । 429-शुद्ध अशुद्ध अवस्थाओं के स्रोतभूत द्रव्यशक्ति की चर्या—जगत के समस्त जीवों की दशा निरखकर दो-दो बातें मालुम होती हैं—जहाँ दो हैं वहाँ बहुत हैं । अनेक अवस्थायें होती हैं जैसे कहावत में कहते हैं कि अब हो जाने दो हमारी आपकी दो-दो बातें तो क्या उस समय ठीक गिनती करके दो-दो ही बातें करेंगे उनकी गिनती का तो पता ही नहीं कि कितनी करें । पर जो कुछ भी कहेंगे वे सभी बातें उक्त दो बातों में शामिल हो जायेगी । जगत के जीवों की कितनी भी अवस्थायें हों वे सब दो में शामिल हैं । कुछ भी नाम लेकर बताओ एक तो वह और एक उसका अपोजिट (सप्रतिपक्ष) जैसे जीव कषाय वाला है एक स्थिति बताया तो दूसरी स्थिति जीव कषाय रहित है । अब इन दो बातों में सबकी परिणति आ गयी, सब जीव आ गए। जीव राग सहित है एक बात, जीव राग रहित है दूसरी बात इसमें सब जीव आ गए । जीव प्रमत्त है जीव अप्रमत्त है इसमें सब जीव आ गए । तो इन भव अवस्थाओं को यह जीव पा रहा है लेकिन इन अवस्थाओं पर ही दृष्टि रखेंगे तो आत्मा का वह शुद्ध स्वरूप जिसकी शरण गहने से समस्त संकट टल जाते हैं, प्राप्त न हो सकेगा । वह तो तेरे अंत: विराजमान है । देखो, सब अवस्थाओं में तुम्हें ज्ञानरूप रहना है ना । ज्ञान का कहीं साथ नहीं छूटता । ज्ञान के परिणमन चल रहे हैं, तो कोई एक तत्त्व आधारभूत है उसके परिणमन बताये जायेंगे । जैसे अंगुली है टेढ़ी सीधी अंगुली जैसी चाहे अंगुली को कर ले । ये अवस्थायें, ये परिणमन कब हो सके जब इन परिणमनों का आधारभूत यह अंगुली है ना कोई जहाँ परिणमन होते हैं । कितनी तरह के ज्ञान परिणमन चल रहे हैं । तो इन ज्ञान परिणमनों का आधारभूत सहज ज्ञान शक्ति है वह है शुद्ध आत्मस्वरूप । जो ज्ञान गुण चल रहे हैं, परिणमन हो रहे हैं उनका आधारभूत जो शक्ति है वह हूँ मैं। शरीर तो मैं क्या होऊंगा? ये अमुक चंद अमुक प्रसाद आदि जो नाम हैं क्या ये मैं होऊंगा? ऐसी पोजीशन वाला, ऐसे वैभव वाला क्या यह मैं होऊंगा? यह मेरा ज्ञान अमुक जाने चौकी जाने, घर जाने कुटुंब जाने, कुछ विस्तृत समझे, यह समझ भी जब मैं नहीं हूँ ये उसके क्षणिक परिणमन हैं, मैं इन सब ज्ञानों का आधारभूत ज्ञानशक्ति मात्र हूँ तब ये बाह्य पदार्थ मेरे क्या होंगे? सच जानो—परभावों से निराला मैं अपना ज्ञानस्वरूप पा लूँ, मैं अपने को अकिंचन समझकर मैं अपने ज्ञानस्वरूप में रहकर संतुष्ट हो लूं तो समझ लीजिये कि कृतकृत्य हो गया । सर्व ऋद्धि सिद्धी प्रकट हो गई । 430-अकिंचन ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व की अमृतरूपता—अकिंचन भाव अमृततत्त्व है । मेरा मैं ही हूँ मेरा अन्य कुछ नहीं है ऐसे निहारें । आत्मतत्त्व को निहारने का जो भाव है उसे अकिंचन्य कहते हैं । मेरा यह है, मेरा कुछ है यों बाहर में कुछ-कुछ का निरखने वाला शांत नहीं हो सकता मेरा कहीं कुछ नहीं है तिलतुष मात्र भी । केवल मेरा ज्ञान ही ज्ञान प्रकाश है । शरीर को छोड़कर जायगा कौन, कैसा है वह? केवल ज्ञान प्रकाश मात्र । ज्ञानरूप, वह शरीर को छोड़कर जायगा ना, जो घर की छत में न अटकेगा ऊपर स्वर्ग में उत्पन्न होना है तो छत हो, काँच हो—कुछ हो, कहीं न अटकेगा, चला जायगा जहाँ पहूँचना है । तो वह ज्ञानरूप अमूर्त है तभी ना चला गया । वैसा ही यह मैं अब भी हूँ उस शरीर में बँधा हुआ होकर भी मैं अमूर्त ज्ञानरूप हूँ । इस अमूर्त ज्ञानरूप का मेरा कहीं कुछ नहीं है । मैं केवल अपने ज्ञानस्वरूपमात्र हूँ । यह मैं स्वत: सिद्ध हूँ । इस मुझ को किसी ने बनाया नहीं है । जो पदार्थ हैं वे सब स्वत: सिद्ध होते हैं, अपने आप है । यह मैं स्वत: सिद्ध हूँ, अनादि हूँ । यह मैं किस दिन बना? अरे बना ही नहीं तो दिन क्या बतावें? यह है स्वयं अनादि काल से, और अनंत काल तक रहेगा । यह नित्य उद्योतरूप है, निर्मलज्योतिस्वरूप है । ऐसा यह ज्ञानमात्र है यह मैं हूँ, अन्य मैं नहीं हूँ । देखिये—आत्मा का भला करना है तो इन सारे परिचयों को तोड़-फोड़ कर फेकना होगा । जो किसी को निरखकर ऐसा आकर्षण होता है कि यह मेरा ही तो भाई है, यह मेरा ही तो पिता है, यह मेरा ही तो पुत्र है आदि इन सब परिचयों को तोड़-मरोड़कर हटाना होगा, और उस ज्ञानस्वरूप के दर्शन करने होंगे जिसके दर्शन के बाद बहुत दिन से साथ रहने वाले कुटुंबी भी अपरिचित अनजाने से लगने लगते हैं । ऐसा यह मैं सबसे निराला ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ । यद्यपि यह इस संसार अवस्था में अनादि से ही बंध पर्याय में है, और दूध पानी की तरह कर्म के साथ एकमेक चल रहा है । तो भी उस पर दृष्टि दें, सत्त्व पर दृष्टि दें तो यह ज्ञानरूप ही है, इसमें रागादिक विकार होते हैं, शुभ अशुभ भाव होते हैं वे तक तो मैं नहीं हूँ । ऐसा मैं न कषायसहित हूँ और न कषाय रहित हूँ किंतु ज्ञानरूप हूँ । इस चौकी पर यदि मल चढ़ा हुआ है तो क्या यह चौकी मल सहित है । अच्छा? क्या यह चौकी मल रहित है? चौकी न मल सहित है न मल रहित है, किंतु वह तो अपने काठ में अपने में जिस तरह की वह मजबूती लिए हुए रूपादिकमय है वैसी है, इसी तरह आत्मा यह रागसहित भी नही, राग रहित भी नहीं, किंतु अपने सत्त्व के कारण जैसा यह स्वयं है सहज ज्ञानमात्र तैसा ही है । यों सबसे निराले अकिंचन ज्ञानमात्र तत्त्व पर उपयोग लगाते हैं तब हमारी रक्षा है नहीं तो बाहर में किसी को भी जाना, कहीं भी उपयोग लगाया उसमें रक्षा नहीं है किंतु बरबादी है । 431-भेदव्यवहार का निबंधन—अब यहाँ शिष्य गुरु से प्रश्न करता है:—आत्मा में ज्ञानगुण, दर्शनगुण, चरित्रगुण हैं, अनेक शक्तियां भी हैं । आत्मा यदि एक होती तो शुद्ध कहलाती किंतु आत्मा में तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र गुण तथा अनंत शक्तियाँ हैं । आत्मा में अनेक बातों के आने के कारण आत्मा अशुद्ध कहलाई । क्योंकि यदि एक चीज रहती तो शुद्ध कहलाती। यहाँ तो अनेक चीजें हैं, तो कैसे शुद्ध हो सकती है? जैसे कपड़े को हम शरीर पर पहन लेते हैं तो कपड़ा अशुद्ध हो जाता है, क्योंकि शरीर के अशुद्ध होने से कपड़ा भी अशुद्ध कहलाया । शरीर पर लगने से पूर्व कपड़ा शुद्ध कहलाता है । एक रहने को शुद्ध और अनेक रहने को अशुद्ध कहते हैं, यह द्रव्यानुयोग की परिभाषा है । मस्तक पर लगा हुआ चंदन भी अशुद्ध हो जाता है । कारण चंदन और माथा इन दो का संयोग हो जाने से । अत: अनेक का संयोग होने से आत्मा भी अशुद्ध कहलाई । अब आचार्य कुंदकुंद देव समाधान करते हैं:—