वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 10
From जैनकोष
आत्मस्वभावं परभावभिंनमापूर्णमाद्यंतविमुक्तमेकम् ।
विलीनसंकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ।।10।।
132―परतत्त्व से शांति मिलने के भ्रम में स्वभावदृष्टि की अपात्रता―शांतिलाभ के लिए अपने को अपना उपयोग कहां लगाना है? देखिये―उपयोग कहीं न कहीं लगे बिना रहता नहीं है । खास कर पर संसारियों में यह उपयोग भ्रमा अब तक, बाहरी पदार्थों में उपयोग लगाया, तो उसका फल कुछ अच्छा नहीं निकला, दुःख ही दुःख निकला । कल्पना से सुख मान लिया था कि इसकी प्रीति से मुझे सुख मिलेगा इस वस्तु से मुझे सुख मिलेगा, ऐसा मान लिया था, लेकिन जब उनमें लगकर चला तो फल मिला अंत में दुःख, तो यह निश्चित बात है कि संसार के जितने भी सुख हैं सब सुखों का फल है अंत में दुःख । फिर निरख लो जिस जीव पर, मनुष्य पर हम विश्वास रखे हैं कि वह मेरा है और उससे मुझको सुख शांति है, वही मेरा सब कुछ है, तो जीवन में वह उद्बोध हो जाता है । जब किसी से सुख की आशा रखे हैं और हो गया वह प्रतिकूल तो उसके प्रति बड़ा कठिन दुःख होता है । अगर किसी से अपने सुख की आशा न हो तो वह दुःख का कारण भी नहीं बनता । किसी से अगर कुछ सुख की आशा कर रखी हो, अपना संबंध बना रखा हो और वही हो जाये प्रतिकूल तो देखो कितना दुःख का वातावरण बन जाता है । और, कदाचित मान लो जीवन भर भी कोई विनयशील रहे, आज्ञाकारी रहे, कभी विषाद का वह कारण न बने, इतने पर भी अंत समय में क्या होता है? चूँकि उसमें उपयोग लगाया, उसमें सुख माना, भूल तो रहा ही है, भूल का फल तो दुःख ही है, उस-उस वियोग के समय में सारी जिंदगी भर सुख भोगने की कसर निकल आती है । इतना दुःख होता है कि आगे भी उसे कष्ट भोगना पड़ता है, इसलिए जो जीवन में विषयों से, उपेक्षाभाव में रहता है, ज्ञाता द्रष्टा रहता है, वह जानता है कि ऐसा होता है पुण्य पाप का फल । यहाँ मेरा कुछ नहीं है, ऐसा मानकर अगर चलें तो उसको मरण समय में क्लेश न होगा । जो विषय सुखों में आसक्त रहता है उसको वियोग के समय में बहुत दुःख होता है ।
133―समागत विषयसाधनों को भिन्न, असार व विनश्वर जान लेने का परिणाम―पहले से सही जान लेने की बात का फल अच्छा होता है, जान लिया कि उन सबका वियोग होगा, जिन जिनका घर में संयोग हुआ है उन सबका वियोग होता है, ऐसे पहले से अगर मान रहे हो और किसी का वियोग हो जाये तो आप यह कहेंगे कि लो हम तो पहले से ही जानते थे, कुछ अनहोनी नहीं हुई है, उससे चोट नहीं आती । और, जिसके बारे में ऐसा सोच रहे हैं कि मरते तो औरों के हैं, हमारे पुत्र, हमारे घर के लोग, ये कहीं मरने की चीज हैं? मुख से बोल जायेंगे, राजा-राणा आदि अनित्य भावना के गायन, किंतु श्रद्धा उल्टी ही रहती है तो जब कभी वियोग होता है तो उस समय बड़ा कठिन दुःख होता है । अच्छा बताओ―यह फर्क कैसे आ गया कि कोई पुरुष विवाह शादी बारात में हजार रुपये की आतिशबाजी फूँक देता है फिर भी वह उसका कष्ट नहीं मानता और कहीं 5) रुपये का कोई एक पेन (कलम) गुम जाये तो उसका वह बड़ा कष्ट मानता है । तो उसमें यह अंतर किस बात का आया? अरे उस आतिशबाजी के बारे में उसने यह निर्णय कर रखा था कि यह तो फूंकने की ही चीज है और उस कलम के बारे में उसने अपना ऐसा कोई निर्णय नहीं बनाया था । कलम के विषय में तो उसका यही निर्णय बना हुआ था कि यह तो मेरी ही जेब में रहेगी, मेरे ही हाथ में रहेगी । बस पहले से इस प्रकार का निर्णय बना हुआ होने के कारण वह 5) रुपये के कलम के गुमने पर तो दुःख मानता है और हजार रुपये आतिशबाजी में फुक गये के प्रति दुःख नहीं मानता । अगर पहले से यह सोच लिया कि जितने भी समागम हैं वे सब विनाशीक हैं, मिट जाने वाले हैं ऐसा भाव, श्रद्धान निर्णय पहले से बना रखा होता तो कष्ट न होता और अगर ऐसा ही सोचता है कोई कि यही तो हमारे सब कुछ है तो वह उनका वियोग होनेपर बड़ा दुःख मानता है । बाहर में किस जगह उपयोग लगायें कि हमको शांति मिले? तो ऐसा कोई स्थान बाहर में नहीं है । कहीं कोई आदमी दूसरे के घर में रहकर गुजारा करना चाहे तो वह कर नहीं सकता । लोग उसे अपने घर से हटा देंगे । हाँ मेहमान हो तो एक-दो दिन ठहर जायें यह बात और है किंतु पर घर में जाने पर कहीं ठौर नहीं । ठौर है तो अपने निज घर में । जैसे लोक में यह बात पाते हैं ऐसे ही यह परमार्थ की बात है । पर घर में शांति न मिलेगी । पर घर मायने चेतन-अचेतन परिग्रह, परिवार आदिक, इनमें उपयोग लगाने से शांति न मिलेगी । निज घर में आयें तो शांति मिलेगी । वह निज घर क्या है? अपना स्वरूप, याने अपने ही सत्व के कारण अपने आप अपने में जो कुछ भाव है बस वही ध्रुव है । मेरा सब कुछ है, मेरा प्रदेश, मेरा घर, मेरा आत्मा मेरा धाम है, उसमें उपयोग रमे तो शांति है ।
134―आत्मस्वभाव की परभिन्नता―इस कलश में यह बात बतला रहे हैं कि वह मेरा शांतिधाम आत्मस्वभाव कैसा है? पहले तो स्थान का निर्णय करें । उन नयों में से जितने भी अशुद्धनय हैं उनके विषय में ही स्वभाव का स्वीकारत्व इस आत्मस्वभाव का अभ्युदय नहीं होने देता । सहयोग तो देते हैं मगर अशुद्धनय की दृष्टि, आत्मस्वभाव के अनुभवपूर्ण दशा नहीं है । देखिये―अनुभव में न व्यवहारनय है न निश्चय नय है, न द्रव्यार्थिकनय है, न पर्यायार्थिकनय है । मगर यहाँ शुद्धोपयोग होने से पहले शुभोपयोग ही मिलेगा, अशुभोपयोग न मिलेगा । शुद्धोपयोग की परिणति के अनंतर किसी के अशुभोपयोग अब तक न हुआ, न होगा । तो जैसे शुद्धोपयोग के अनंतर पूर्वभावी शुभोपयोग अनिवार्य है ऐसे ही आत्मानुभव से पहले शुद्धनय का आलंबन अनिवार्य है, मगर आत्मानुभव के समय जैसे अशुद्धनय का प्रयोग नहीं ऐसे ही शुद्धनय का प्रयोग नहीं । मगर उस शुद्धनय के आलंबन की हममें पात्रता जगे इसके लिए साधन है अन्य नय । देखो भैया शुद्ध अशुद्ध का, निश्चय व्यवहार का अनेक जगह परिवर्तन मिलेगा जिसे इस समय शुद्धनय मान रहे वही थोड़ा अंतरंग दृष्टि मिलने पर अशुद्धनय की संज्ञा पा लेता है । मगर परम शुद्धनय नहीं बदलता । जिस समय एक अखंड ज्ञायक स्वभाव अंतस्तत्व की दृष्टि करेंगे, वह आत्मस्वभाव क्या है याने अपने आपकी बात चल रही है कि मैं क्या हूँ ! मैं आत्मस्वभाव हूँ, जो परभाव से भिन्न हैं मायने मैं पर पदार्थों से निराला हूँ, परभाव मायने पर का निमित्त पाकर होनेवाले अपने आत्मा के भाव, उनसे मैं निराला हूँ, यह बात तो प्रकट समझ में आ रही कि मैं पर पदार्थों से निराला हूँ । उनकी सत्ता उनमें है, मेरी सत्ता मुझमें है । उनका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव उनमें है मेरा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मुझमें है, उनके प्रदेश जुदे, मेरे प्रदेश जुदे । उसके जानने का उपाय क्या है? तो उसका सीधा उपाय है प्रदेशों की भिन्नता । फिर इसके आधार पर चलें । उनका उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य उनमें है, मेरा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य मुझमें है, मेरी गुण पर्यायें मुझमें, अन्य वस्तु की गुण पर्यायें उनमें । प्रकट भिन्नपना है मेरे आत्मस्वरूप का पर पदार्थों से और इसी वजह से पर पदार्थों के भावों से भी भिन्नता है, पर पदार्थों के गुण उन्हीं में है, मेरे गुण मुझ ही में है ।
135―आत्मस्वभाव की परभावभिन्नता―आत्मत्व परभावों से भी भिन्न है और पर पदार्थों का निमित्त पाकर उत्पन्न हुए जो भाव हैं, जिनका नाम है विभाव, उनसे भी मैं निराला हूँ । जब अपने आपके सहजस्वरूप का निर्णय किया जा रहा है तो वहाँ ये राग-द्वेषादिक विकार, कषायें स्थान नहीं पा सकते कि परभाव हैं पर का निमित्त पाकर हुए हैं । परभाव का अर्थ यह है कि पर कर्मविपाकोदय का निमित्त पाकर होने वाला जीवभाव तथा पर का उपयोग करने से होने वाला भाव । पर का उपयोग न लगायें, आश्रयभूत कारण में कभी उपयोग न भी लगायें तो भी परभाव होते हैं वे होते हैं अव्यक्त, जिसे कहते हैं अबुद्धिपूर्वक । किंतु बद्ध जो कर्म हैं, जिनका प्रकृति, स्थिति, प्रदेश, अनुभाग बंध होता है, सो अनुभाग का जब उदय हुआ, कहाँ उदय हुआ? कर्म में, और उस उदय का प्रभाव किसमें हुआ? कर्म में । कर्म अचेतन हैं, नहीं तो वे इससे भी ज्यादह कष्ट पा लेते, क्योंकि साक्षात् अनुभाग का उदय कर्म में हुआ, जो कर्म की परिणति है । जैसे दर्पण में रंगीन कपड़े का जो प्रतिबिंब हुआ है वह वैसा ही हुआ है जैसा कि रंग-बिरंगा कपड़ा है ऐसे ही वह कर्म अनुभाग में रागादि हुआ जैसा ही कर्मों का बंध हुआ इस जीव में । जीव बँधा हुआ है ना । उभय बंध, तो उस अनुभाग का जैसा उदय हुआ मायने वहाँ जो-जो परिणतियां हुई, जो-जो बात हुई, कर्म ने नहीं समझा, लेकिन इस उपयोग में प्रतिफलन हुआ । प्रतिफलन तक तो अनिवार्य निमित्त नैमित्तिकभाव है, अब ज्ञानी पुरुष है तो वह उस प्रतिफलन में अपना उपयोग न फसाये, उपेक्षा करे या अपने आत्मस्वरूप को अपने उपयोग में लगा दे तो हो रहे प्रतिफलन, ऐसी कभी स्थिति होती है, तो कुछ पदों में चलते हैं मगर यह कषाय, यह राग, अनुभाग वह सब कर्म विपाक का प्रतिफलन है अतएव परभाव कहलाते हैं । परभावों से भिन्न है आत्मस्वभाव, पर पदार्थ के गुण पर्यायों से भिन्न है और पर पदार्थ का निमित्त पाकर स्वयं में उत्पन्न होने वाले क्रोधादिक भाव, उनसे भी भिन्न है मेरा निरपेक्ष सहजसिद्ध आत्मस्वभाव ।
136―आत्मस्वभाव की आपूर्णता―यहाँ कोई कहे कि भाई मैं अब पूरी तरह से समझ गया आप यह कह रहे कि रागादिक भावों से भी भिन्न है वह आत्मा । ऐसा हम मानते हैं और समझ गए कि मैं रागादिक नहीं हूँ किंतु मैं ज्ञानवाला हूँ, जैसा कि मैं ज्ञान करता रहता हूँ । इसे जाना, खंड ज्ञान जिसे बोलते, जो हमारी रात दिन में जानकारी चल रही है उनका नाम मतिज्ञान, श्रुतज्ञान बताया है । समझ गए कि मैं यह हूँ । समाधान―भाई अभी नहीं समझे । परभावों से भिन्न हूँ यह बात तो सही है, पर मैं अधूरा नहीं हूँ । यह छुटपुट ज्ञानवाला मैं नहीं हूँ, क्योंकि आपूर्ण हूँ, परिपूर्ण ज्ञानवाला हूँ, परिपूर्ण चैतन्यस्वरूप हूँ । जो मैं हूँ, इसमें किसी भी ढंग से खंड नहीं है, तो मैं मतिज्ञानावरणादिक, श्रुतज्ञानावरणादिक इनके क्षयोपशम से उद्भूत भावों वाला नहीं हूँ ।
137―आत्मस्वभाव की आद्यंतविमुक्तता एवं एकरूपता―तब कोई सोच सकता है कि लो अब तो बात पूरी आ गई, अब हम खूब समझ गए कि मैं रागद्वेष रूप नहीं हूँ । पर द्रव्यरूप तो हूँ ही नहीं, ये तो प्रकट भिन्न अजीव हैं, पर मैं मिथ्यात्वादिक रूप नहीं हूँ और उस छुटपुट ज्ञानरूप भी मैं नहीं हूँ । ये खंड ज्ञान, ये अधूरे ज्ञान, इन रूप भी मैं नहीं हूँ । मैं खूब समझ गया कि मैं तो केवलज्ञानस्वरूप हूँ, जो कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता ऐसा ज्ञान जो त्रिलोक त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों का जाननहार मैं केवल जाननरूप हूँ, अब मैं समझ गया अपने स्वभाव को । लेकिन अब भी समझे नहीं, जो ऐसा मानता वह भी आत्मस्वभाव को समझा नहीं । वह आत्मस्वभाव तो आदि-अंत से रहित है । भला कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाला केवलज्ञान वह परिणति क्या आदि-अंत रहित है? आदि रहित तो है नहीं इतना तो सब जानते हैं, अनादिकाल से यह जीव कैसा साधारण ज्ञान में बस रहा । निगोद जीवों को कितना सा ज्ञान? उनकी तो बात छोड़ो, यहाँ भी जीवों को कितना ज्ञान? तो वह केवलज्ञान अनादि से तो नहीं, पर मैं तो अनादि से हूँ । मेरा स्वभाव भी अनादि से ही है, स्वभाव और मैं भिन्न-भिन्न चीज नहीं, केवलज्ञान की तो आदि है, मैं अनादि हूँ, इसमें से एक बात तो कट गई । मगर अंत रहित तो है केवलज्ञान ? हाँ अंत रहित तो है, याने केवलज्ञान कभी नष्ट न हो जायेगा । केवलज्ञान मिट जाये और संसारी बने या और बने क्या ऐसा हो लेगा? यह कभी न होगा । लेकिन सूक्ष्मता से अध्ययन करें तो जो भी शुद्ध परिणमन हैं वे परिणमन प्रतिक्षण होते ही तो रहते हैं । अगर समझें कि एक ही परिणमन है अनंतकाल तक, तो इसके मायने क्या कि परिणमन हो नहीं रहा, बस एक परिणमन है । बस एक ही है सो वहाँ दिख नहीं रहा अब वह, मगर शुद्ध जीव, शुद्ध द्रव्य पर्यायदृष्टि से जो है वह तो परिणम रहा है निरंतर, तो प्रतिक्षण में केवल एक परिणाम कहलायेगा । और प्रतिक्षण में जो केवल एक परिणाम कहलायेगा उसका प्रतिक्षण में उत्पाद हो रहा तो वहाँ बात क्या हो रही? वह प्रतिक्षण में केवलज्ञान, केवलज्ञान बस यही निरंतर एक धारा से परिणमता हुआ चला जा रहा है । तो सूक्ष्मदृष्टि से देखें तो प्रतिक्षण केवलज्ञान मिटता जा रहा है । प्रतिक्षण नया-नया केवलज्ञान होता जाता है और उस केवलज्ञान की धारा यह कभी न मिटेगी । यह अनंतकाल तक रहेगी । यह बात सही है तो ये केवलज्ञान आदि-अंतविमुक्त नहीं, किंतु मेरा स्वभाव, मेरा स्वरूप आदि अंत से रहित है ।
138―आत्मस्वभाव की विलीनसंकल्पविकल्पजालता―आत्मस्वभाव सुनने पर कोई श्रोता कह देगा कि हाँ अब तो बात हमने पूरी समझ ली कि मैं आत्मस्वभाव क्या हूँ । परभाव से भिन्न हूँ, परिपूर्ण हूँ, आदि अंत से रहित हूँ । और, समझे क्या? अपना स्वभाव । जो अपना स्वभाव है सहजभाव है ऐसा यह मैं एक जो सब पर्यायों में रहने वाला एक चैतन्यस्वभाव है वह मैं आत्मा हूँ । ....समझ लिया मगर अभी उत्तम परिचय नहीं बनता । जैसे कि कोई, किसी फल या व्यंजन को खा रहा मान लो रसगुल्ला खा रहा । और रोज-रोज खाने से उसकी एक रसगुल्ला खाने की दिनचर्या सी बन गई है, उसका रस जो रोज-रोज अनुभवता है उसे तो रस का पूरा पता है । वह जानता है कि रसगुल्ला ऐसा मीठा होता है, वह दूसरों को भी रसगुल्ले के रस का बहुत-बहुत प्रकार से मिठास का परिचय कराता है, एक तो इस प्रकार से होने वाला ज्ञान और एक ऐसा कि कोई खूब एक तान होकर सब प्रकार के और व्यापार बंद करके आँखें मींचकर बड़े आनंद के साथ उसका स्वाद लेते हुए इसका ज्ञान ले रहा है, तो बताओ इन दोनों प्रकार के ज्ञानों में अंतर है ना? हाँं अंतर है, क्योंकि एक ज्ञान अनुभवपूर्ण है, एक नहीं । बस ऐसे ही यहाँ समझ लीजिए-हम जो कह रहे हैं कि यह उपयोग अपने उपयोग से बाहर कुछ चीज स्थापित करके समझ रहा है कि यह आत्मस्वभाव परभावों से भिन्न है, परिपूर्ण है, विशुद्ध सनातन है, एक रूप है । फिर यदि कभी एकरस होकर, एकतान होकर ज्ञान-ज्ञान के सहज स्वरूप को जान रहा है तो उससमय ज्ञान ज्ञेय की एकता हो जाती । ऐसे ही ज्ञान ज्ञेय की अभेद स्थिति बिना समझ रहा है यह सब, तो कहते हैं कि समझ नहीं है । इससे आगे बढ़ो । कहाँ? आत्मानुभव में, देखो उस समय की जो स्थिति है वह संकल्प विकल्प पक्ष जाल से रहित एक है । इतना भी विकल्प जहाँ नहीं रहता, केवल एक चित्स्वरूप उस अनुभव में अनुभवता है उस अनुभूति के विषय को पश्चात् समझता कि यह है आत्मस्वभाव ।
139―आत्मस्वभाव के अनुभव के लिये शुद्धनय की कृपा―इस आत्मस्वभाव का उदय कौन कराता? शुद्धनय । परंतु आत्मानुभव तो उस शुद्धनय से भी परे है । ऐसा यहाँ आत्मस्वभाव कहीं अनुभव में आये वह समय आजकल भी मिल सकता है उसका कोई निषेध नहीं है । हाँ आजकल सम्यक᳭चारित्र की परिपूर्णता का तो निषेध है, पर सम्यग्दर्शन और आत्मानुभव का निषेध नहीं है । ये हो सकते हैं । हम को यह स्थिति बनाना है । मोटे रूप में यों कह लीजिये कि उसका ज्ञान जैसे दुनियाभर के पदार्थों को जानने में लगाते हैं, ऐसा न करके यह ज्ञान अपने ही स्रोत से उठावें । यह परिणति, यह समझ कहाँ से उठती? किसकी परिणति? कौन स्रोत है? उस ज्ञानस्वरूप में ज्ञानस्वभाव को यह ज्ञान जानने लगा । देखिये-जैसे आत्मस्वभाव के जानने की बात कही जा रही है, ज्ञान ऐसा अलग खड़ा, आत्मस्वभाव को सामने रख लिया, इस तरह मेल करके परमार्थत: इस आत्मस्वभाव का जानना नहीं बनता किंतु जानना बनता है तो और ही प्रकार । मगर, जिसकी चर्चा की जा रही है वह आत्मस्वभाव का परिचय अनुभूति में मिलता है । निर्विकल्प स्थिति, एक अनुपम, अलौकिक आनंद की प्रतीति को लाता हुआ ही अनुभव जगता है । वेदांत की एक जागदीशी टीका में छोटी सी बात कही है कि कोई एक घर नई-नई बहू आयी । अभी कुछ ही माह पूर्व विवाह हुआ था । उसके पहली बार गर्भ रह गया । जब संतानोत्पत्ति का समय आया तो वह बहू अपनी सास से बोली सास जी, देखो जब संतान पैदा होने लगे तो मुझे जगा देना । कहीं ऐसा न हो कि मेरे सोते हुए में ही हो जाये और पता न पड़े तो वहाँ सास बोली―अरी बहू, तू इसकी कुछ चिंता न कर, जब संतान उत्पन्न होगा तो तुझे जगाता हुआ ही उत्पन्न होगा, तो ऐसे ही समझो कि यह ज्ञान जब किसी के उत्पन्न होता है तो आनंद को जगाता हुआ ही, उसको आनंदित करता हुआ ही उत्पन्न होता है । याने वहाँ ज्ञान और आनंद सहज होता है । ज्ञानस्वरूप को ज्ञान में ले तो वहाँ आनंद सहज है, कृत्रिम नहीं, ऐसे आनंद का अनुभव कराता हुआ यह आत्मानुभव उद्गत होता है, बस उस समय में असली रूप में समझा इस जीव ने कि मैं यह हूँ, और फिर उसकी याद में वह सारी जिंदगी प्रसन्न रहता है । उसका समस्त पर तत्त्वों से कटाव हो गया और वह अपने आपमें आनंदविभोर रहता है । उसकी याद में ही कर्म निर्जरा चल रही है फिर अनुभूति का तो प्रताप अपूर्व है । जिन-जिन प्रकृतियों की निर्जरा सम्यक्त्व में है आत्मा के अनुभव के समय, तो और समय से कुछ विशेषता भी हो जाती है । तो मैं क्या हूँ, इसका सारा निर्णय इसकी याद, हमारी स्थिति को मोड़ सकती है । हम संसार में न रुलें, संसार में जन्म मरण न पायें इसका अगर कोई उपाय है तो प्रारंभिक यह ही उपाय है कि मैं क्या हूँ, इसका सही-सही अपने आपमें निर्णय बना लें । मैं ऐसा आत्मस्वभावी हूँ, जो परपदार्थों से जुदा, पर का निमित्त पाकर होने वाले विभावों से जुदा परिपूर्ण आदि अंत रहित केवल है, सब पर्यायों को जानने वाला है, सर्वत्र है, ध्रुव है, इतने भी विकल्प से रहित एक चैतन्य स्वभाव मात्र मैं हूँ । ऐसा आत्मस्वभाव को प्रकाशित करता हुआ शुद्धनय प्रकट होता है । यह शुद्धनय ऐसे आत्मस्वभाव को अभ्युदित करता है, इसको ज्ञान में लेता है । बस इसी को कहा समयसार, कारणसमयसार, सहज परमात्मतत्त्व, सहज परमात्मस्वरूप ज्ञायक स्वभाव, अंतस्तत्त्व । बस इस रूप अपने को मानना कि यह मैं हूँ, ऐसा समरस बनना कि आत्मस्वरूप के बाहर में किसी पर पदार्थ का कुछ भी परिणमन चले, कोई निंदा करे, कोई अपमान करे, कोई कैसा ही चले, उसका मेरे पर कुछ असर नहीं पड़ें, विषाद न आये चित्त में । बताओ हमारी कोई दुर्गति कर रहा क्या? कोई दुर्गति नहीं कर रहा? मेरा मैं ही जिम्मेदार हूँ । मेरा निर्माता अन्य नहीं, मेरा सब कुछ मुझमें मेरे से चल रहा, दूसरा कोई पदार्थ मेरे आश्रय नहीं । हर जगह यही बात समझना तत्त्वनिर्णय में ।
140―निमित्त-नैमित्तिक योग एवं वस्तु-स्वातंत्र्य के परिचय से स्वभावदृष्टि पाने का प्रयोग करने का अनुरोध―निमित्त का प्रयोग दो स्थानों के लिए किया जाता है वास्तविक निमित्त के लिए और आश्रयभूतकारण के लिए । यह दुविधा केवल जीव के विभागों के प्रसंग की चल रही है । अचेतन-अचेतन पदार्थ में परस्पर दो बातें मिलती हैं । निमित्त और उपादान । वहाँ तीसरा आश्रयभूत कारण नहीं मिलता । अचेतन अचेतन का परस्पर में निमित्त नैमित्तिक योगवश परिणमन चलता । तो वहाँ दो ही बातें होती हैं―उपादान और निमित्त मगर, चेतन में उस विभाव परिणाम के आश्रयभूत में उपयोग चलता तो उसमें तीन बातें होती हैं―(1) उपादान (2) निमित्त और (3) आश्रयभूत । आश्रयभूत कारण मिले तो विभाव कार्य हो, ऐसा नियम नहीं । इसलिए ये निमित्त नहीं कहलाते, किंतु व्यक्त विभाव के आश्रयभूत कारण हैं, वहाँ निमित्त है कर्मदशा । उसका अन्वय व्यतिरेक चलता है । तो चलो वह रहे, यह रहे, कुछ रहे । ज्ञानी अपने उपयोग को परभाव से भिन्न इस अंतस्तत्त्व की ओर ले जाता है, उसके उपयोग में वही, वही समाया है, उसका ही आनंद चख रहा है, इसी में ही तृप्त हो रहा है । अपना अभ्यास हर उपायों द्वारा ऐसा होना चाहिए कि मैं यह समझ लूं कि यह मैं आत्मतत्त्व हूँ, इसके लिए विविध परिचय का प्रयोग करें, आचार्य संतों ने जो वर्णन किया है वे शब्द हमें यह ही शिक्षा देते हैं कि निश्चयनय से तो यह बात सुविदित होती ही है और निमित्तनैमित्तिक योग के वर्णन से यह ही बात हमें प्राप्त होती है कि ये कषायें मैं नहीं हूँ, ये तो औपाधिक चीजें हैं, पुद्गलकर्म निष्पन्न हैं, जिसे आचार्यों ने अजीवाधिकार में, बंधाधिकार में बहुत-बहुत वर्णन के साथ कहा, एक अपने आत्मस्वभाव को परखने के लिए, जो निमित्त नैमित्तिक योग की बात सुनी उसकी सहायता लेना है स्वभावदर्शन करने के प्रसंग में कि यह मैं नहीं हूँ । मैं तो एक शुद्ध चैतन्यमात्र हूँ, एक निश्चयदृष्टि से तथ्य का निर्णय करें तो वहाँ एक ही द्रव्य नजर में आयेगा । तो यह परिचय स्वभाव दर्शन की ओर ले जायेगा । शास्त्र वर्णन से लाभ उठाना और जिनवाणी में कही हुई बात में शंका न करना, सबका प्रयोजन अपने आत्मस्वभाव को दिखा देने का है, तब फिर यह मानकर चलें कि मैं क्या हूँ । ध्यान सहज स्वरूप का रखना कल्याण का उपाय है ।