वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 144
From जैनकोष
सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण ॥144॥
1130- स्वजिज्ञासा- अपने आपके संबंध में अंत: दृष्टि देकर कुछ निर्णय बनायें। मैं क्या हूँ, एकदम यह बात स्पष्ट होती है कि मैं कोई जाननहार पदार्थ हूँ, जानने वाला कोई तत्त्व हूँ। यह सब जानता है, पर वह किस प्रकार है, कैसा है उसकी सब रूपमुद्रा तो जान ही लेना चाहिये। तो सामान्य रूप से तो सभी में यह बुद्धि है कि मैं हूँ कोई ऐसा पदार्थ जो जाननहार हो। अब जरा पदार्थ की बात देखिये- यह मैं जो ज्ञानमात्र हूँ सो पुद्गल पदार्थों की भाँति रूप, रस, गंध, स्पर्श वाला तो हो नहीं सकता, क्योंकि रूपादिक हो तो उसमें जानने की बात कैसे आयगी। रूप वाले पदार्थ में जानने की बात तो जरा भी समझ में न आ सकेगी। रूपादिक से मैं रहित हूँ और जो मैं हूँ सो हूँ अमूर्त, और भी पदार्थ हैं, पर उनमें ज्ञान नहीं। यह मैं ज्ञानवान पदार्थ हूँ, तो चलो उस ही एक ज्ञानमात्र स्वरूप को छाँटकर, निरखकर, विविक्त कर केवल एक ज्ञानमात्र पदार्थ को अपने आपमें निरखें तो इसका प्रभाव तो पड़ेगा, बाह्य विकल्प नहीं हुये, व्यग्रता नहीं रहीऔर भीतर जो यह मेरा है, यह अमुक है, इस प्रकार का उपयोग न होने से यह शांति में आया। अब आप अपने आत्मा में उतरें, ज्ञानमात्र स्वरूप को निरखकर निर्भार बनें, इतना ही पर्याप्त लाभ है। 1131- परमार्थ सहज भगवान आत्मा की अचिंत्यशक्ति का बाहरी दृश्यों से अवगम-
यह ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व कैसा है? अचिंत्यशक्ति है, आखिर इसमें कितनी शक्ति है, कितना अद्भुत प्रताप है इस ज्ञानमात्र आत्मा का। एक लौकिक बात को ही जरा देख लेने से लोग चमत्कार में आ जाते कि साधुवों को ऋद्धि उत्पन्न होती और यहाँ भी अनेक मनुष्यों की चेष्टायें देखने में आती। कोई मंत्रवादी मंत्र पढ़ रहा है, सर्प का विष उतर रहा है और कई लोग बताते हैं कि मंत्र द्वारा काटने वाले सर्प को बुला लिया जाता है। और, नहीं तो इतना तो लोग देखते हैं कि सर्प का विष दूर हो रहा। लोग सोचते हैं कि बड़ी अद्भुत बात है। पर वह क्या है? एक अचिंत्य शक्ति आत्मा की वह सब महिमा है। मंत्रवादी ने क्या किया अपने आपमें? इसने तो अपने आपमें अपनी भावना बनायी। हम तो सुनते कि पहले जो गजरथ चला करते थे तो चलने से पहले लोग ओझावों को प्रसन्न करते थे कि इसमें कोई बाधा न डाले। अच्छा क्या बात होती थी कि ओझा लोग जो कुछ जानकार होंगे वे अपने ही घर में बैठे-बैठे कोई ज्वार वगैरह का डंडा जोड़जोड़कर रथ बना लेते थे और कोई कल्पना बनाकर तोड़ देते थे तो उसके टूटने के साथ गजरथ की भी वही कोई चीज टूट जाती थी, तो लोग उस गजरथ को निर्विघ्न चलाने के लिये पहले ओझावों को खुश करते थे। एक बार हमसे किसी भाई ने बताया कि किसी देहात का कोई एक बालक था, वह बड़ा निर्मल परिणामी था, वह अपने खेल में कोई ऐसी चेष्टा करता था जिससे कि बाहर में कुछ वैसी बात बन जाती थी। जैसे कोई रेलगाड़ी जा रही थी, उससे किसी ने कहा- क्या तुम इस गाड़ी को यहाँ रोक सकते? तो बालक ने कहा हाँ रोक सकते।...अच्छा करके दिखाओ। अब बालक ने अपने में कुछऐसी चेष्टा की धूल में ही कोई रेखा बनाकर अंगुलीथमी, वह रेलगाड़ी वहाँ रुक गई। तो ऐसी आश्चर्य की बातें बहुत सी देखने में सुनने में आती हैं। यहाँ समय सार ग्रंथ में भी खुद बताया है कि मंत्रवादी मंत्र पढ़ता जाता और उधर विष दूर होता जाता...तो ये सब बातें देखकर लोग सोचते कि यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। अरे आश्चर्य की कुछ बात नहीं।असल में बात क्या है कि यह अचिंत्यशक्ति आत्मा है, इसकी शक्ति कहीं बाहर नहीं जाती, इसका बाहर प्रयोग नहीं होता, वह अपने आपमें ही प्रयोग होता मगर माहात्म्य ऐसा है कि अनेक ऋद्धियाँ सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं। यह तो एक लौकिक बात कही जा रही। अच्छा इस अचिंत्यशक्ति की, अंतस्तत्त्व की कोई उपासना करे, एक अभेद आराधना करे तो उसका ही तो फल है कि केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता।
1132- पदवी व परिस्थिति के अनुसार विभिन्न आत्मव्यापार होने पर भी अंतस्तत्त्व के आश्रय के धर्मलाभ की अनतिक्रम्यता- कोई जिंदगी भर विद्याओं को जोड़-जोड़कर, सीख-सीखकर समस्त विद्याओं का पारगामी नहीं हो सकता और अपने उस सहज निरंजन परमात्मतत्त्व के उपयोग में धारणा बनाकर, अभ्यास करके, वहाँ ही उपयोग लगाकर एकाग्र होकर कुछ क्षण ठहर जाय तो उसका प्रताप है कि सर्वज्ञ बन जाय। कब बनता, कैसे बनता, उसकी प्रक्रिया कोर्इ एक है, मगर बनता तो इसी तरह है ना। अपने आपके सहजस्वरूप के आश्रय से ये सारी समृद्धियाँ उत्पन्न होती है। तो यह आत्मा अचिंत्यशक्ति वाला है। इसको ढूंढ़ते-ढूंढ़ते लोग हैरान हो जाते। कहाँ है वह ब्रह्मस्वरूप? अंदर में है। निगाह करें, प्राप्यमान करें, और-और साधनायें करें, किंतु उपाय बनाते हैं। उपाय जब तक है तब तक इससे मेल नहीं। हुआ उपाय के प्रताप से ही मेल, मगर जब तक उपाय की क्रिया है तब तक इस सहजपरमात्मतत्त्व से मेल नहीं। जिस समय सहजपरमात्मतत्त्व से मेल है, अंतर्दर्शन है, अनुभूति है वहाँ किसी प्रकार की क्रिया नहीं। वह सहजबोधकलासुलभं। इस कैवल्य की प्राप्ति, अपने विशुद्ध निरंजन ज्ञानपद की प्राप्ति एक सहज ज्ञानकला में होती है। तो उसकी और दृष्टि जाय तो उसका यह सब प्रताप अपने आप होता रहता है। ऐसी यह अचिंत्यशक्ति अंतस्तत्त्व है। जिसको ज्ञान हो याने चतुर्थ गुणस्थान से लेकर जहाँ तक केवलज्ञान का लाभ नहींहुआ वहाँ तक उपाय बनता गया है। वह यही है एक सहज निरपेक्ष ज्ञानस्वभाव का आश्रय करना बाहरी बातें हैं पदवी अनुसार। उस प्रकार का कर्मविपाक है उनका ऐसा ही प्रतिफलन है, ऐसी ही कमजोरी है कि बातें अनेक बनती हैं मगर धर्म का प्रसंग, धर्म कहां से होता है, वे सभी बातें बस यही से पायी जाती हैं। अपने अंतस् तत्त्व का आश्रय, उसी में यह मैं हूँ इस प्रकार का अनुभव। भले ही देशव्रती, महाव्रती भिन्न-भिन्न पद में भिन्न-भिन्न प्रकार के साधक मिलेंगे, लेकिन अंत: लक्ष्य सबका एक प्रकार से मिलेगा। 1133- सहज अंतस्तत्त्व के प्रति रुचि होने पर भी विभिन्न पदस्थ ज्ञानियों में संग प्रसंग के अनुसार परिणमनभेद-
जैसे देहातों में सबेरे-सबेरे दूध दोहने के बाद गाय भैंसों को बरेदी को सौंप देते हैं अथवा उसके पास जंगल पहुंचा देते हैं तो वे गाय भैंसे दिन भर चरती हैं, आखिर शाम को जब वे वहाँ से चलती हैं तो जिन जिन गायों के बछड़े हैं उन उन गायों की प्रीति तो वहाँ एक जैसी है, वहाँ भी उनका ध्यान अपने अपने बछड़ों पर है पर बरेदी के डंडे के वश हैं वे गायें सो अपने अपने बछड़ों से मिल नहीं पा रहीं, पर प्रीति बराबर है। और जब बरेदी छुट्टी दे देता है, शाम को चरकर वे गायें अपने घर की ओरचलती है तो कैसा उछलकर, कैसा चारों पैर इस तरह से तेज छोड़कर, सिर भी मटकाकर, पूछ भी हिलाकर घर की ओरभागती हैं, उनकी प्रीति कहाँ है? अपने बछड़ों में। उस प्रीति के कारण बड़ी उमंग के साथ वे भागती हैं तो उस समय की उनकी मुद्रा देखो, कैसी उनकी पूछ गोल-गोल हिलती है,...और क्यों जी, अगर किसी गाय की पूछ आधी हो और उसके भी बछड़ा हो तो प्रीति तो बराबर, जैसी प्रीति लंबी पूछ वाली गाय के हैं वैसी ही प्रीति कटी पूछ वाली गाय के हैं। अब देखो लंबी पूछ वाली गाय अपनी लंबी पूछ हिलाती हुई भगती जाती और कटी पूछ वाली अपनी छोटी पूछ हिलाकर भागती जाती, मगर प्रीति दोनों की एक जैसी है, तो ऐसे ही यहाँ भी यद्यपि प्रीति सबको एक समान है अपने लक्ष्य में, जितने भी सम्यग्दृष्टि अंतरात्मा पुरुष हैं, सबका एक ही ध्यान है, एक ही लक्ष्य है, भीतर में सबकी एक सी अभिलाषा है- मैं अपने सहज स्वरूप में मग्न होऊँ और साधारण मेरी स्थिति बने, यहाँ असंतोष और दु:ख का कोई काम नहीं। मगर जो जिस स्थिति में है, जो जितने घिराव में है, जो जितने संग प्रसंग में बनता है उस माफिक वह अपने व्यवहार में अपनी प्रवृत्ति कर पाता है।
1134- ज्ञान में ही सुख-दु:ख आनंद आदि की सर्व रचनायें-
यह आत्मा अचिंत्य शक्ति वाला है, वैसे भी देख लो सुख क्या है? इस ज्ञान का एक ऐसे ढंग का विचार बना ज्ञान द्वारा कि जिसमें सुख का अनुभव होता, तो सुख भी है क्या? एक ज्ञान में उस प्रकार की वृत्ति, वही सुख है, दु:ख भी क्या? कोई दूसरा पदार्थ इस आत्मा में घन मारता है क्या? यह तो अमूर्त है मगर इस तरह का ज्ञान करता मोह कि जिस तरह के ज्ञान करने से यह अपने को व्यग्र अनुभव करता फिरता, दु:ख मानता। वह तो ज्ञान का उस ढंग का प्रयोग है। और समाधि आनंद मोक्षमार्ग धर्मपालन में भी क्या हैं, ज्ञान में ज्ञान का उस प्रकार का प्रयोग जहाँ रागद्वेष का रंच भी अवकाश न हो, एक विशुद्ध ज्ञानप्रकाश रूप वर्तना चलती हो, यह ही है मोक्षमार्ग यह ही है सर्वश्रेय। एक कोई बालक था तो बालक ने कोई चीज मुट्ठी में ले ली और अन्य बालकों से कहा बताओ मेरी मुट्ठी में क्या है? तो किसी बालक ने कुछ कहा किसी ने कुछ, कोई कहे गोली, कोई कहे कौड़ी, कोई कहे तिनका,...तो वह बालक कहे ये कुछ नहीं है।...अच्छा तो तुम्हीं बताओ क्या है? तो वह बालक बोला मेरी मुट्ठी में सारी दुनिया है। यह बात सुनकर सब बालक बड़े आश्चर्य में पड गए, अरे ऐसा कैसे हो सकता, इतनी बड़ी दुनिया जरा सी मुट्ठी में कैसे आ सकती? तो वह बालक बोला अच्छा बताओ तुमको हम दुनिया की कौनसी चीज दिखाये ! तो किसी ने कहा अमेरिका, किसी ने कहा अफ्रीका, किसी ने कहा कोई नदी, किसी ने कोई पहाड़, तो झट उसने मुट्ठी खोली तो निकली स्याही की एक टिकिया। उसने उस टिकिया को घोलकर सब कुछ बनाकर दिखा दिया। तो यह तो एक बच्चों की खेल की बात कही अब यहाँ अपने आपमें देखो, इस आत्मा में अचिंत्य शक्ति है, जरा अपने आपके प्रभु से मिलन तो बने, वहाँ किसी प्रकार की असिद्धि नहीं।
1135- अपने आपमें रमणशील भगवान आत्मतत्त्व की देवरूपता- आत्मा यह स्वयं देव है, अपने आपके भावों में क्रीड़ा करने वाला, अपने आपके स्वरूप में रमने वाला यह स्वयं देव है। कोई पुरुष यदि विषयों में रम रहा तो उसको कहते तो हैं लोग कि यह भोगों में रम रहा, यह दूकान में रम रहा, ऐसा बोलते तो हैं, मगर कोई भी प्राणी दूकान में रम सकता है क्या? तो आत्मा के प्रदेशों से बाहर एक सूत भी, एक प्रदेश भी यह कहीं रम सकता है क्या? मग्न हो सकता है क्या? वहाँ कुछ परिणाम बन सकता है क्या? वहाँ कुछ परिणाम बन सकता है क्या? अपने ही प्रदेशों में यह अपना परिणाम बना सकता है, तो उन विषय भोगों के प्रसंग में अपना परिणाम बना रहा है वह मोही। बड़ा अच्छा है, बहुत ठीक है, लोग कहते हैं कि इसने मीठे का स्वाद लिया। मीठा आया इसके स्वाद में, मीठे रस की कोई चीज खा ली, तो बताओ यह मीठा रस पुद्गल में है या जीव में? पुद्गल में, जीव में कहाँ है, फिर लगता तो है कि यह चीज बड़ी मीठी लग रही, अरे लग तो रही मीठी और फिर भी कहते हैं कि रस जीव में आता नहीं, रस पुद्गल में ही रहता है, तो हुआ क्या वहाँ? इस छद्मस्थता की स्थिति में कि रसना इंद्रिय के माध्यम से उस रस का परिज्ञान किया गया और भेदबुद्धि न होने से, अज्ञान संस्कार रहने से इतनी आसक्ति है कि वह यह नहीं समझ पाता कि मैं तो इस मीठे रस का भोग कर रहा हूँ, उस मीठे में और ज्ञान में एकमेक तन्मय हो जाता है और अपने में एक मीठा रस यह ही अनुभव करता है और ऐसी अपनी अंतर्वृत्ति करता तो वह सब ज्ञान की ही तो बात है। ज्ञान किस किस रूप में परिणमे सब बात उसकी है।हमारी दुनिया, आपकी दुनिया अपने-अपने प्रदेश में है, अपने-अपने स्वरूप में है, अपनी-अपनी प्रवृत्ति में है। यह इसके बाहर नहीं, अपने ही अंदर जैसा विकल्प चल रहा, परभव, परलोक वह भी क्या है? स्वयं यह आत्मा ही तो है, जहाँ गया वहाँ इसकी परिणतियाँ चलती हैं। तो बाहर कुछ नहीं। सब कुछ अपना अपने में ही है, उसकी सम्हाल हो तो उस शक्ति का प्रताप फैलेगा। अचिंत्यशक्ति: स्वयमेव देव:। यह देव अपने आपके स्वरूप में क्रीड़ा करने वाला यह सहज परमात्मतत्त्व है। 1136- चिन्मात्र चिंतामणि भगवान आत्मा-
यह चिन्मात्र चिंतामणि यह ही दृष्टि में हो, यही चिंतामणि है। लोग कहते हैं कि चिंतामणि रत्न कोई ऐसा होता है कि वह मिल जाय तो जो विचारे सो कार्य सिद्ध हो जाय। अभी तक हमको तो कोई ऐसा पत्थर देखने को तो नहीं मिला, यदि किसी को मिला हो तो बताओ। और, सुनते सब लोग आ रहे, होता होगा क्या कोई ऐसा पत्थर जो चिंतामणि कहलाता हो? जिसके द्वारा जो चाहे सो मिल जाय? मगर यहाँ अंदर देखो चिन्मात्र चिंतामणि, जो चाहो सो मिल जाय, देखो बात कही जा रही है एक प्रकार में। यह जीव शरीर को बहुत पसंद करता, शरीर को अच्छा मानता, पैदा होना अच्छा मानता। शरीरों से इसको बड़ा अनुराग है तो देखो शरीर चाहता है तो इसको बराबर शरीर दनादन मिलते रहेंगे। इसने शरीर में आत्मबुद्धि की, शरीर को आपा माना, तो आखिर वह आत्मा भगवान ही तो है, यह बिगड़ गया मगर इसकी कला, इसका ऐश्वर्य यह सब नजर आ रहा है, शरीर में राग है तो शरीर मिलते रहेंगे। जिस दिन अपने स्वरूप में रुचि बन जायगी, जिस दिन एक बड़े निश्चय के साथ आत्मकल्याण की बात मन में आयगी, तो यह आत्मकल्याण करके रहेगा। अपने स्वरूप का पूर्ण विकास करके रहेगा। बस कमी है तो यह ही है कि हम आत्मकल्याण मिलने की भावना नहीं बना पा रहे। कहने को तो सब हैं, करते हैं गप्प। यदि आत्मकल्याण की मूल में भावना है तो बीच में फिर और व्यर्थ की अटक क्यों होती, जिससे न तो आजीविका का संबंध, न धर्मपालन का संबंध। व्यर्थ की ऐसी कषायों की एक पकड़ क्यों बनती है और ऐसी क्यों एक कोई हठ और जिद बन जाती है? जिसके कारण हम अपने अंत: स्वरूप के दर्शन करने के पात्र ही नहीं बन पाते। विशुद्धभाव, आत्मकल्याण की सही प्रेरणा होना चाहिए। जिस दिन सहज अंतस्तत्त्व की रुचि बन गई उस दिन से आत्मा की उत्थान ही उत्थान है।
1137- भगवान आत्मा की सहजसिद्धिस्वरूपता- यह अचिंत्यशक्ति, यह चिन्मात्र स्वरूप, यह आत्मतत्त्व, जिसकी उपासना करना है उसकी महिमा तो जानें पहिले। महिमा जाने बिना उपासना की उमंग नहीं बनती। तो अपने आपके इस आत्मस्वरूप की महिमा परखिये कैसा यह शक्तिमान आत्मा है, कैसा इसके अंदर इसका सारा उद्यान है, कैसा इसके अंदर विलास हो रहा। यह चैतन्य रत्नाकर, यह अंतस्तत्त्व कैसी अपनी विशुद्ध मिली हुई निकट तरंग बना रहा जो अत्यंत स्वच्छ है। ज्ञान ज्ञानज्योति, ज्ञान ज्ञानरूप निरंतर वृत्ति बना रहा, आखिर द्रव्यत्व शक्ति अपना काम कर ही तो रही है। निरंतर अपनी निर्मल ज्ञानवृत्ति में उछलता रहे ऐसी वृत्ति जब ज्ञानी के लगी है तब उसे अन्य परिग्रहों से क्या प्रयोजन रहा। जैसे एक कहावत में कहते हैं कि तुम्हें आम खाने से काम या पेड़ गिनने से? तुम्हें इन बाहरी बातों के संग प्रसंग में बुद्धि जोड़ने से काम या विशुद्ध आनंद भोगने से काम। मगर सत्य आनंद भोगने से ही काम है तो वह प्राप्त हो रहा है यहाँ। स्वयं आनंदस्वरूप है यह आत्मा। इसकी इकाई देख लो। निरुपाधि स्वरूप देखो, अपने आपके सत्त्व को। यह अपने में क्या है इस प्रकार की दृष्टि बनायें, तो यह मिलेगा, उसके मिलते ही, उस प्रभु के दर्शन होते ही पूर्ण आनंद जगेगा। उस आनंद को प्राप्त करने वाले को अब अन्य परिग्रहों से क्या प्रयोजन? बाह्य परिग्रहों से क्या प्रयोजन? और बाह्य से क्या मतलब? वह तो बाह्य है। अरे उन बाह्य परिग्रहों के बाबत जो इच्छायें, आकांक्षायें बनती हैं वे है अंतरंग परिग्रह। अब इनसे प्रयोजन क्या रहा? इन वैभवों की हठ से प्रयोजन नहीं रहा। इच्छा, आकांक्षा, प्रतीक्षा, ऐसे विभाव विकार इससे क्या प्रयोजन है? सीधे अपने आपके स्वरूप में आये और अद्भुत आनंद प्राप्त करें। 1138- भगवान अंतस्तत्त्व का आवरणक्षय से विकास- इस जीव पर आवरण है, इस ज्ञान के विकास का आवरण है तो ये विकार, विभाव विकल्प ये इसके आवरण है। ये विकल्प कैसे हटें? ये आवरण कैसे दूर हों? तो बान वहाँ दो चाहिए। इस आवरण से उपेक्षा और अपने सत्य स्वरूप की दृष्टि। आवरण से उपेक्षा तब ही बन सकती है जब यह बात चित्त में समा जाय कि यह आवरण, ये रागादिक विकार ये मेरी चीज नहीं है, ये परभाव हैं। ये बन गए विकल्प। अंत: तो यह गलती कहो कि यह जीव अपने ज्ञानस्वरूप का लक्ष्य छोड़कर अन्य किसी पर विषय में लगता है परतत्त्व में यह अपना उपयोग लगाता। अतएव यह उपयोग अध्रुव है क्योंकि पर ही अध्रुव है, उनका मेल अध्रुव है, उनका आश्रय अध्रुव है, और, यह बात बनी है पर में लक्ष्य करने से। पर को क्यों अपनाया? यह बात हुई कैसे इस जीव में? विचारिये उसका निमित्त कारण कर्मविपाक का उदय है। वह प्रतिफलित हुआ है। उसमें ही तो यह व्यामोही अज्ञान होकर जुट रहा है, तो ये जो क्रियायें हैं, यह जो कर्मरस है, ये सब परभाव हैं। मेरा स्वभाव तो वह है जो स्वरूप के अनुरूप और स्वाधीन है। जहाँ किसी पर के संग प्रसंग वातावरण की भी बात नहीं होती है। ये रागादिक विकार, ये मेरे स्वभाव नहीं, स्वरूप नहीं। ये परभाव हैं, हेय हैं, दु:खरूप हैं। जब इस प्रकार की हेयता समझे तो वहाँ परभाव से उपेक्षा बने। अच्छा तो यह हेय है तो सही क्या है? यह जो मेरे साथ एक बना हुआ है दृष्टि में- केवल एक मात्र, चैतन्यस्वरूप, ज्ञानप्रतिभास यही है मेरा सहज स्वरूप।परतत्त्व से उपेक्षा करना, यहाँ अपने स्वरूप में लगना, यह ही बात को करना है। इसके प्रताप से कभी निकट काल में ऐसा अतुल विकास होगा कि जिसके बाद उपासक महात्मा कहेंगे कि अब यह कृतकृत्य हो गया। 1139- कृतार्थता का अभ्युदय-
कृतकृत्य कौन कहलाता? जो वीतराग है, सर्वज्ञ है वह कृतकृत्य है, कृतं कृत्यं येन स: कृतकृत्य:, जो करने योग्य है वह सब कर लिया गया है जिसके द्वारा सो वह कृतकृत्य है। कर लिया गया है कृत्य जिसके द्वारा उसे कहते हैं कृतकृत्य। देखिये- जगत में ये बहुत बाहरी काम पड़े हुए हैं। ये काम कब पूरे होंगे? जिस दिन यह भावना बनेगी, यह निर्णय बनेगा कि यहाँ करने लायक कुछ नहीं है, तब समझिये कि उसके ये सारे कार्य पूरे होंगे, और जब तक यह चित्त में बना है कि यह कार्य है, इतना हुआ है, अधूरा है, यों बनना है, यों करते जावो, पूर्ण न होंगे। कृतकृत्यता तब प्रकट होगी जब यह निर्णय बने कि मेरा बाहर में कुछ भी कृत्य नहीं है। तो अपने आप ही यहसंतुष्ट होगा और करने योग्य जो बात है वह सही-सही होगी। करने योग्य नहीं है बाहर कुछ, इस प्रकार का भाव बनना, यह ही एक करने योग्य बात थी। वह बात इस ज्ञानी पुरुष को मिल गई, अब चारित्रमोह के विपाक से जो कुछ इसमें अस्थिरता है वह भी अब दूर हो, ऐसा पौरुष इसका प्रकट साहस कहलाता।कृतकृत्य कौन? वही देव, अरहंत सिद्ध प्रभु, ये कृतकृत्य कहलाते हैं। तो ये बने कैसे कृतार्थ? उसका ध्यान कर अपना भी यहाँ यह निर्णय बनावें कि मेरा सब कुछ मुझमें है। मेरे से बाहर मेरा कुछ नहीं है। अपने ज्ञान में अपने स्वरूप के ज्ञान का ही अभ्यास रखना है। ज्ञान में यही ज्ञान समाया हुआ रहे, यही सारभूत काम है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ सारभूत बात नहीं है। यह निर्णय बनाना है और इसके लिए प्रयत्न करना है। अधिक समय सत्संग में लगायें, अधिक समय चर्चा में लगायें, स्वाध्याय में उसका मनन करने में। भैया जो समयसार तत्त्व है उसको अपने आपके ऊपर घटाने में स्वभावानुरूप कुछ अपना पौरुष करना है, प्रयत्न करना है, इससे सिद्धि होगी।
1140- आत्मा की सम्हाल में प्रमाद न करने का कर्तव्य-
भैया, प्रमाद किया आत्महित की बातों में तो इसका फल अच्छा नहीं। अटपट अशुभोपयोग हुए। यहाँ वहाँ के ईर्ष्या विरोध असुहावना, सुहावना आदिक कितनी ही प्रकार के तरंग विचार उठना ये सब इसके लिए घातक हैं, ये विकार न जगेंऔर शिवमय उपाय बनावें। यह उपाय स्वाध्याय और सत्संग है, इसी में सब बात आ गई, चर्चा, अध्ययन, पढ़ाई, पूजन भजन करना, भीतर उतरना, ये सब बातें आ जाती हैं। अब आप देखिये ये दो बातें हैं जीव और शरीर, और दोनों की ही ऐसी स्थितियाँ हैं कि दोनों की बात सम्हालनी पड रही। भोजन भी तो करते, क्यों नहीं भोजन का परिहार करते? कुछ बात तो है, शरीर की ही सम्हाल करनी होती और आत्मा की सम्हाल बिना तो सारी सूनी ही बात है। पर कुछ ऐसा हिसाब तो लगाओ कि शरीर की सम्हाल में कितना समय गुजरता है? अच्छा बताओ अच्छी और मुख्य आत्मा की सम्हाल है कि शरीर की? शरीर की सम्हाल मुख्य नहीं। शरीर तो कभी विघट जायगा। शरीर की सम्हाल यदि करते रहे तो भी यह कहो उल्टा ही चले और देखो आत्मा की सम्हाल में धोखा नहीं है, आत्मा की सम्हाल भविष्य में भी काम देगी, आत्मा की सम्हाल में इस वक्त भी शांति, तृप्ति, आनंद होगा। तो जरा अपने आप पर करुणा करके व्यर्थ की कुदृष्टि को त्यागकर, अपनी सम्हाल के लिए मेरा अधिक समय जाय, उपयोग लगे ऐसी उमंग रखना चाहिए? शरीर की सम्हाल के समय शरीर की सम्हाल हो जाय, पर लक्ष्य तो अपने ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व को ज्ञान में बसाना है यह ही रहे। यहाँ आत्मा की सम्हाल का अंतर्लक्ष्य का काम पड़ा है, यह काम जिस ज्ञानी के बने, जिसने ऐसाआत्मीय आनंद भोगा वह ज्ञानी स्वयं तृप्त होता है। अब उसको बाह्य परिग्रह से कुछ प्रयोजन नहीं, पूर्ण आत्मा उतना ही है, यहाँ ही उसका प्रेम है। आत्माका स्वच्छ विकास बनना यह ही सच्चा आशीर्वाद है, यह ही मेरा शरण है, यह ही मेरा सर्वस्व है, उस ही आत्मा में रति तृप्ति करना है। बाहरी बातों में प्रवृत्ति बनाकर, उनकी प्रतीक्षायें करके उनका आश्रय करके विकार बनाने में इस आत्मा को कुछ लाभ नहीं है।