वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 145
From जैनकोष
सामान्यत: स्वपरयोरविवेकहेतुम् । अज्ञानमुज्झितुमना अधुना विशेषाद् भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्त: ॥145॥
1141- मेरा परिग्रह दृश्यमान पदार्थ नहीं, दृश्यमान पदार्थ मेरा परिग्रह नहीं- ज्ञानी जीव के यह निर्णय है मेरा परिग्रह वास्तव में मैं ही हूँ, और परिग्रह का अर्थ शब्ददृष्टि से ऐसा होता है कि जिससे इस भाव में कोई असुविधा नहीं, परि समंताद्ग्रहणं इति परिग्रह: चारों ओर से जो ग्रहण हो उसे परिग्रह कहते हैं। चारों ओर से मायने समस्त प्रदेशों में ग्रहण है, किसका? इस ज्ञानमात्र स्वरूप का, इस कारण यह ज्ञानमात्र स्वरूप यह ही मेरा स्व है, इस ही का मैं स्वामी हूँ। यह ही मेरा परिग्रह है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ मेरा परिग्रह नहीं। मेरा परिग्रह यह दृश्य नहीं तथा यह मेरा परिग्रह नहीं। एक ध्यान देने की बात हैं। इन दोनों वाक्यों में जुदा-जुदा रहस्य और तथ्य है, मेरा परिग्रह यह दृश्यमान नहीं, यह दृश्यमान मेरा परिग्रह नहीं। दो बातें समझी जा रही हैं। मेरा परिग्रह मेरा स्वरूप है, मेरा ज्ञानमात्र तत्त्व है, जिसमें मैं अनादि अनंत बसा हूँ। वह मेरा परिग्रह है, मेरा परिग्रह और यह दृश्य हो जाय, अरे कहाँ हो सकता यह? यह सब बाहर है, मेरे प्रदेशों से अलग है, इसकी सत्ता न्यारी है, इसे बतलाते हो मेरा परिग्रह। परिग्रह मायने स्वरूप। परिग्रह का यहाँ दूसरा अर्थ नहीं। क्योंकि अपने में अपने समस्त प्रदेशों में जो ग्रहण हो वह स्वरूप ही तो होता है, मेरा परिग्रह यह? इस प्रश्न को बदल लीजिए। मेरा स्वरूप यह? जो मेरा स्वरूप है उस ही का मैं स्वामी हूँ। वही मेरा स्व है, वही मेरा परिग्रह हैं। मेरे से बाहर मेरा परिग्रह नहीं। अब ये दृश्यमान पदार्थ जो अपनी सत्ता में हैं उनका परिग्रह यह ही है। प्रत्येक वस्तु का स्वरूप उसका उस ही में निहित हैं, उसके बाहर नहीं। यह दृश्यमान मेरा परिग्रह नहीं। 1142- बाह्यविविक्तता के उपयोग में आनंदलाभ-
ध्यान में देकर उस प्रकार का, स्वरूप का उपयोग बनायें तो उसका आनंद मिले, केवल चर्चा में आनंद नहीं। कहने को तो सब कह ही देते हैं कि ये मेरे नहीं। कोई आपके घर में महिमान आता है, वह पूछता है कि यह मकान किसका? यह लड़का किसका?...तो वहाँ लोग अक्सर करके बोल देते- साहब यह सब आपका ही है, तो भाई ऐसा कभी बोल भी न देना, नहीं तो कभी आप धोखा भी खा सकते। कोडरमा की एक ऐसी घटना है। वहाँ कोई दो भाईयों में आपस में जमीन का झगड़ा था, वहाँ अंग्रेज आफीसर आया बयान लेने, पूछा यह जमीन किसकी? तो दोनों पक्षों ने यही कहा- साहब आपकी ही है। बस जो बयान दे सो ही लिख लिया और दोनों के दस्तखत करा लिया। बस वह जमीन उस अंग्रेज की हो गई।यह तो एक सही घटना बतायी। उस जमीन पर उन दोनों भाईयों का अधिकार नहीं रहा। तो कहने को तो लोग बोल देते हैं, साहब मेरा कुछ नहीं है, पर भीतर में अहंकार और ममता का विष हटे तो वहाँ आनंद प्राप्त हो। परिग्रह, यह बाह्य परिग्रह मेरा नहीं, क्यों नहीं, कि ये पर पदार्थ हैं, इनका सब कुछ इनमें है। मेरे में इनका अंश भी नहीं है, यह सब परपदार्थ मेरा त्रिकाल भी नहीं हो सकता। मेरा परिग्रह मेरा स्वरूप है। अच्छा तो बाहरी परिग्रह मेरा नहीं, उसको अगर छेद दें, भेद दें मिटा दें तो ऐसा ज्ञातृत्व यदि दृष्टि में रह सकता कि ये पदार्थ है, इनमें ऐसा परिणमन है, इनमें हर्ष विषाद न जगे तो समझो कि हाँ वास्तव में स्वीकार किया कि मेरा स्वरूप ही मेरा है, बाकी दूसरी मेरी चीज नहीं। बताते हैं, एक घटना है श्वेतांबर साधु की। उनसे कोई विवेकी पुरुष पूछ बैठा- महाराज आप इतने अधिक वस्त्र रखते हैं और अन्य परिग्रह भी इतना रखने लगे जितना कि गृहस्थ लोग रखते हैं सो क्यों? जबकि भगवती सूत्र में लिखा है कि एक कपड़ा तन ढाकने के लिए रखे। फिर आप लोग मुनि कहलाते, आप लोगों को तो निष्परिग्रही होना चाहिए। मुनिपद तो एक निर्ग्रंथपद कहलाता है, फिर आप लोग इतना बड़ा परिग्रह क्यों रखते हैं? तो वहाँ उस श्वेतांबर मुनि ने कहा- अजी कौन रखता है ये वस्त्र, कौन पहिनता है ये वस्त्र? ये सब तो बिल्कुल बाह्य पदार्थ है। वस्त्र में वस्त्र हैं, आत्मा में आत्मा है, इसलिए हमारी निर्ग्रंथता में कोई फर्क नहीं।...तो उतने में उस विवेकी पुरुष ने क्या किया कि झट उस साधु का दुपट्टा हाथ से खींचकर फाड़ दिया। वहाँ साधु आवेश में आकर बोला अरे यह क्या कर रहे? दुपट्टा क्यों फाड़ रहे? तो वह पुरुष बोला आप नाराज क्यों होते? आपका इसमें क्या नुकसान है? वस्त्र में वस्त्र फटा, इसमें आपका क्या फटा? वहाँ साधु निरुत्तर रह गया।
1143- अनात्मतत्त्व की अस्वरूपता- भाई सबपदवियों कीजुदी-जुदी बात है। श्रावकों के परिग्रह का परिणाम है, न कि परित्याग और श्रद्धा में तो आत्मा के ज्ञानस्वरूप के सिवाय विभाव तक का भी परिहार है। चिद्रूप हमारा इसका ही सहारा...यह एक भजन है। यह सहज चैतन्यस्वरूप ही मेरा सर्वस्व है। ये बाह्य पदार्थ किसी भी अवस्था को प्राप्त हो, उनको यह ग्रहण नहीं करता। मायने श्रद्धा में या अपने में ऐसा भाव नहीं लाता कि इसके विनाश से मेरा विनाश है। ये बाह्य परिग्रह मेरे नहीं। अगर बाह्य परिग्रह मेरे बन जायें तो इसके मायने यह है कि ये बाहरी पदार्थ मेरे स्वरूप हो गए, स्व बन गए मैं उनका स्वामी बन गया। सो ये तो मेरे स्वरूप हो गए, इसके मायने में जड़ बन गया, क्योंकि दृश्य ये जड़ पदार्थ हैं। जितना जो कुछ दिख रहा है ये सब जड़ पदार्थ हैं। ये मैं बन गया और ये मेरे हो गए तो मैं जड़ ही हो गया। बोलो आप जड़ होना चाहते हो क्या? हाँ, एक निगाह ऐसी डाल सकता कोई कि जड़ होने में अच्छा है, क्योंकि उसे ये सुख दु:ख कुछ नहीं हैं। जल जायये पुद्गल चौकी वगैरह तो इनका क्या? शायद एक बार हाँ भी कह दें कि हाँ जड़ बन जाऊँ तो कहने मात्र से क्या होता?केवल कहने मात्र से जड़ बनता क्या? तथा जब यह अपनी महिमा पर दृष्टि देता है, सर्व द्रव्यों में सार यह मेरा अंतस्तत्त्व है, इसकी कितनी महिमा है? सर्व में प्रधान है। लोकालोक सारा विश्व इसके ज्ञान में आये, ऐसा एक उत्कृष्ट प्रताप वाला है। क्या मैं जड़ बनूँ, मैं जड़ न बनूँगा, मैं अजीव न बनूँगा। ये बाहरी पदार्थ मेरे परिग्रह नहीं हैं, एक इतनी अपनी बुद्धि हो जाती है तो श्रद्धा में यह उपाधि तो छूट गई, उपयोग में, श्रद्धा में, प्रतीति में एक सामान्यरूप से इसने परिग्रह का परित्याग किया। यह ही ज्ञानी पुरुष जो मोह लगता, जो कलंक लगता, जो गड़बड़ीहोती उसको यह लेशमात्र भी नहीं चाहता। बल्कि इनको उखाड़ने के लिए ज्ञानी का भाव रहता है। 1144- स्वपर के अविवेक के कारणभूत अज्ञान के परिहार का विशेष प्रवर्तन-
अज्ञान स्व और परपदार्थ के अविवेक का कारण बनता है। इसको त्यागने की चाह रखता हुआ यह ज्ञानी अब भिन्न-भिन्न प्रकार से भिन्न-भिन्न नाम को लक्ष्य में लेकर परिग्रह का त्याग करता अथवा निर्मूल करने के लिए मूलत: परिग्रह का त्याग करता। वह जानता है कि परिग्रह क्या चीज है, बाहर की बात बाहर में, आत्मा की बात आत्मा में। बाहर का कुछ आत्मा में नहीं, आत्मा का कुछ बाहर में नहीं। बाहर के पदार्थ बेचारे अंजान ये ऊधम नहीं मचा पाते। ये तो अपनी ईमानदारी से ही चल रहे हैं। जैसा जहाँ प्रसंग होगा वैसा परिणमन और कुछ ही चल रहा है इनमें। ये पुद्गल बेईमान नहीं बन रहे। इनका परिणमन इनमें चल रहा सो ठीक है। यह आत्मा, यह जीव यह अपना ईमान खो रहा। जैसे कहते हैं ना- अपनी चीज को आप सम्हालें, हमारी चीज हम सम्हालें। आप अपना काम करें, हम अपना काम करें। सो वस्तुस्वरूप तो मिटता नहीं, लेकिन अज्ञानी कल्पना से इस सारे विश्व को ग्रहण करने का, इस पर राज्य जमाने का इस पर में रमने का भाव रखता है। देखो अपने ईमान से हटा कि अपने सही स्वरूप से हटा, नहीं तो ये अंजान बेचारे पुद्गल ये तो अपने अपने में हैं अपने से बाहर ये कुछ उछाल नहीं मारते। छलांग तो यह जीव भी नहीं मार सकता। बाहर यह आत्मा भी अपने से बाहर कुछ काम नहीं कर सकता, मगर इन विकल्पों रूप में यह ज्ञान परिणमन तो करता है। ज्ञानगुण के विचित्र परिणमन से ऐसा विचित्र जाल फैला लिया इस मोही ने कि जगत में पड़े हुए इन सारे विषयों पर एक अपना राज्य जमाने के लिए उचक उचककर उन विषय ग्रामों में पहुंचता है। और, लड़ाई किस बात की है। किसी ने धन को परिग्रह माना, शरीर को परिग्रह माना, अपने विभावों को परिग्रह माना, विचारों को परिग्रह माना, तब ही तो देखो मेरा विचार है, इस विचार के प्रतिकूल यह क्यों चल रहा है, मेरा विचार यह क्यों नहीं मानता? ऐसा उसमें खेद हुआ क्यों? उसने अपने विचार को परिग्रह बनाया, रागद्वेष को परिग्रह बनाया। राग में बात उठी हुई है कि ऐसा बने, ऐसा परिणमे, और वैसाहोता है नहीं इस कारण खेद होता है। अरे भव्य आत्मन् ! अपने आपके सहज ज्ञानस्वरूप में ही तू संतुष्ट रह। यह ही तेरा सर्वस्व परिग्रह है, यह तो तेरे में अचिंत्य निधि है, अनुपम है। बाहर में इसके मुकाबले कुछ है ही नहीं।
1145- सहजात्मतत्त्व की समयसारता-
भैया ! 6 प्रकार के द्रव्य बताये गये, अब उनमें से मानो, एक जीवद्रव्य न रहे, और बाकी 5 द्रव्य रहें, तो 5 की बात कैसे रहे और 5 की सत्ता जाने कौन? व्यवस्था ही कुछ न रहेगी, फिर तो शून्य ही कहलायेगा। यह जीव जाननहार पदार्थ है। इसके ज्ञानबल पर ही सब पदार्थों की शोभा और श्रृंगार हो रहा है। तो इसको समझे कौन? ऐसा है निज समयसार। समय मायने पदार्थ सम्.अयते स्वगुणपर्यायान् गच्छति इति समय: अपने गुण पर्याय को जो प्राप्त हो उसका नाम है समय। सभी द्रव्यों का नाम है समय। और समय में सार कौन है? आत्मा समयसार मायने आत्मा। याने छहों द्रव्यों में ज्ञानप्रधान व ज्ञानमय होने से यह आत्मा समयसार है, और उस समयसार में भी सार कौन? समयसार तो हुआ, एक जीव पदार्थ उसमें भी सार कौन? यह आत्मा। चलो मान लो आत्मा की विशुद्ध पर्याय, वही सार है याने अनंत आनंद। अच्छा वह तो पहले से नहीं है, कभी हुआ है। तो उसमें सार क्या है? कहते हैं कि शुद्ध पर्याय जिस स्वभाव से प्रकट होती है, जिस स्वभाव का आलंबन लेकर प्रति समय नवीन-नवीन सम सम परिणतियाँ बना करती हैं, वह स्वभाव जो अनादि है, अनंत है, अहेतुक है वह चैतन्य स्वभाव वह सबमें सार है। तो क्या हुआ? समयसार-सारसार, इतने सार कहने पड़ेंगे क्या ! व्याकरण की एक नीति होती है कि जहाँ बहुत समान शब्द होते हैं वहाँ एक शब्द शेष रहता है। शेष शब्दों का लोप होता है। रह गया समयसार। उसमें कई सार पड़े हैं, वे सब सार लुप्त हैं, एक शेष है, यही हुआ आत्मा का शाश्वत सहज स्वरूप। वह समयसार यही है उसका स्वरूप। इसके अतिरिक्त और मेरा कुछ नहीं है। क्या क्या नहीं है मेरे? ये परिजन मकान धन वैभव ये मेरे नहीं हैं? वाह वाह अच्छी प्रशंसा लूट रहे। जान रहे कि ये संग न जायेंगे, इनको मैं संग लाया नहीं, इन पर मेरा वश नहीं। अब तो सरकारी रजिस्ट्री भी बेकार। आप नगरपालिका से कितने ही मकान नक्शे पास करा लें, भले ही मन में गलती रखकर पास कराया, मगर नगरपालिका ने पास कर दिया। अब बताओ ऐसी क्या गलती हुई जो अब आपके यहाँ सरकार द्वारा ये मकान ढाये जा रहे हैं? तो यहाँ की यह रजिस्ट्री भी फेल हो गई। अभी तो कोई कोई ही रजिस्ट्री फेल होते दिख रही, कुछ ही दिनों मेंऔर भी फेल होंगी। परमार्थत: देखो तो सब रजिस्ट्री फेल होती हैं। मात्र आप विकल्प करते हैं कि यह मकान मेरा है, क्योंकि आपने रजिस्टर्ड करा रखा है, मगर इस बात को भगवान नहीं समझ रहे कि यह मकान इसका है। मकान मकान है, यह ज्ञान में है, तुम तुम हो, यह ज्ञान में है, यह किस विकल्प में परिणत हो रहा? यह ज्ञान में है, मगर मकान इसका है, इतना अगर भगवान जान जायें तो आप कभी खुश हो बोल उठेंगे कि हम तो भगवान के बहुत बड़े गुण गायेंगे, क्योंकि अब वह मकान अनंत काल तक हमसे छूटेगा नहीं। अरे यहाँ कोई सार की बात नहीं, ये बाहरी पदार्थ ये सब पड़े हैं, ये आपके परिग्रह नहीं।
1146- स्वभाव व विभाव में हुए भेदविज्ञान से ही ज्ञानित्व–
देखिये इन पदार्थों के बारे में जो इच्छा बनती है यह इच्छा परिग्रह ही तो दु:ख देने वाला है। सो जिसने स्व और पर का भेद किया है स्वभाव और विभाव का भेद किया वह ही वास्तविक ज्ञानी है। भेदविज्ञान वहाँ से होता है। स्वरूप याने स्वभाव और विभाव याने परभाव इनमें भेद जानें तो भेदविज्ञान सही है।बाहर का भेद जानने से भेदविज्ञान सही नहीं है। यों तो बहुत सी बातें रूठ कर भी लोग कहा करते- यहाँ वहाँ कौन किसका? अगर लडके को जोर से मार दिया चांटा बाप ने तो लड़का कहता ओ यहाँ कौन किसका? यों तो रूस कर हर एक कोई बकता है। यों तो वहाँ पर भी कुछ बुद्धि लगाकर ही बोलते, इतना भेद डालकर देहाती लोग या और लोग, अनपढ़ लोग, आवाल गोपाल भेद को बात कहा करते, मगर इस भेदविज्ञान का फल तो शांति है, शांति उन्हें क्यों नहीं मिलती? देखो, जहाँ क्रोधादिक आस्रव निवृत्त न हों वह भेदविज्ञान ही है। भेदविज्ञान वास्तव में किसी के जगे और उसे अशांति रहे, व्यग्रता रहे, यह बात कभी नहीं हो सकती। भेदविज्ञान यहाँ करना है- मैं सहज स्वरूप क्या हूँ और औपाधिक रस क्या हैं।
1147- अपनी अपनी सम्हाल से ही अपनी अपनी भलाई-
देखो केवल अपनी अपनी ही सब बात सम्हालेंगे तो सब सम्हल जायगा। और, अपनी सम्हाल की भावना न रखे कोई, बाहर में कुछ चाहे, पर की सम्हाल की कल्पना करता हो और चाहे उस प्रकार की एक प्रकृति पड गई हो कि बाहर ही बाहर कुछ से कुछ व्यवस्था बनाता है, सोचता है तो उसे शांति कहाँ, धर्मलाभ कहाँ? उसे मैंने नहीं किया। स्वयं ऐसी बात करें, ऐसी व्यवहार व्यवस्था बनायें कि सबका धर्म सध जाय। अब दस लक्षण के दिन आयेंगे, उसके लिए बहुत से प्रोग्राम बनेंगे- यह करना, वह करना, व्यग्र भी होंगे, और कोई कोई मंदकषाय वाले लोगऐसे भी मिलेंगे कि जिनसे कोई कहे कि तुम तो पूजा करते ही नहीं, तुम तो स्वाध्याय करते ही नहीं और व्यवस्था ऐसी ऐसी बना रहे तो उत्तर वह क्या देंगे कि भाई अगर एक मैंने न किया तो क्या हुआ? मैं सबकी व्यवस्था तो बना रहा हूँ। वहाँ भी चलो फायदा है, थोड़ा मंदकषाय है, और दूसरे लोग करें उसे देखकर खुश हो रहे हैं, इसका भी थोड़ा लाभ है। और यदि स्वयं उसमें प्रवृत्त हों, जो वास्तविक धर्मपालन है उसमें उपयुक्त हों तो उसका फिर कहना ही क्या है, उसका बड़ा लाभ मिलता है। हमारे गुरूजी ने एक घटना सुनायी थी कटनी की। कोई दो भाई थे उसमें बड़ा भाई तो खूब दूकान करे, व्यापार धंधा करे, रोजिगार में अधिक समय दे, और उसका छोटा भाई मंदिर में, स्वाध्याय में, पूजा पाठ में, धार्मिक क्रियाकांडों में अधिक समय दे। तो एक बार उस छोटे भाई ने अपने बड़े भाई सं कहा- भैया तुम तो सदा दूकान धंधे में फंसे रहा करते, धर्म का काम करने के लिए कुछ भी समय नहीं निकालते...तो वह बड़ा भाई बोला- देखो हम तुमको धर्म का काम करने में कुछ दखल नहीं देते, हम तुमसे और कुछ काम करने के लिए कभी कहते नहीं तो यह हमारा काम धर्मपालन है क्या? आखिर ऐसा ही बहुत दिनों तक चलता रहा। उन दोनों में सबसे पहले छोटे भाई का मरण हुआ। तो जब वह छोटा भाई मरणासन्न दशा में था उस समय अपने बड़े भाई से बोला- भैया अब तो हम आपसे सदा के लिये विदा हो रहे, आप हमारे इन बाल बच्चों का ध्यान रखना, इनका इंतजाम रखना।...तो वहाँ बड़ा भाई बोला- अरे यही धर्म किया जिंदगी भर। मोह ममता अभी भी बसी हुई है। अरे अब तो अपनी मोह ममता तजो, विवेक से काम लो। यदि तुम्हें विश्वास न हो तो मैं अपना सब कुछ तुम्हारे बाल बच्चों के नाम लिखे देता हूँ। मैंझोंपड़ी में रह लूँगा, यह मुझे स्वीकार है। तुम अब किसी भी प्रकार का शल्य न रखो।...तो भाई किसके परिणाम की बात कौन जानता? जो जितना अपने परिणामों को विशुद्ध रखेगा वह उतना चैन में है। और जो अपने परिणामों में मलिनता रखेगा ईर्ष्या आदिक के भाव रखेगातो उसका फल कोई दूसरा न भोगने आयगा। इसलिये अपने आप पर दया करके इन बाहरी परिग्रहों से दूर हो लो। इन बाहरी परिग्रहों से दूर न हो पायेंगे गृहस्थ। तो भीतर के इन विभावों से, परिग्रहों से, श्रद्धा में तो दूर हों, अटल तो हों कि मेरा ज्ञानमात्र स्वरूप के अतिरिक्त अन्य कुछ भी पदार्थ नहीं। ये उपाधि और औपाधिक मेरे परिग्रह नहीं।
1148- पाप पुण्य आदि विभावों से अंतस्तत्त्व की विविक्तता-
भैया पाप का नाम लेते तो सभी को डर लगता। अभी कोई कह दे कि हम ऐसा-ऐसा पाप करके कमाते हैं और तुम सब खाते हो तो हमारे ये पाप बाँट लो, तो पाप बाँटने का नाम सुनना भी किसी को पसंद नहीं होता। पाप की कमायी खाना तो पसंद है पर पाप को बाँट लेना, स्वीकार कर लेना पसंद नहीं। ये पाप मेरे परिग्रह कैसे बनेंगे? ये पुण्य मेरे परिग्रह कैसे बनेंगे? कार्माण वर्गणायें हैं, प्रकट अचेतन हैं, प्रकट जड़ हैं, और इनकी तो बात दूर रहो। पाप का परिणाम यह मेरे में सदा टिकता नहीं और यह औपाधिक भाव है, यह मेरा परिग्रह नहीं। पुण्यभाव शुभभाव ये भी औपाधिक हैं। ये मेरे स्वरूप से उठे हुए नहीं हैं, अर्थात् अनैमित्तिक नहीं है। विभावों का मैं ही निमित्त होऊँ, मैं ही उपादान होऊँ, ये दोनों बातें हों, उस शुभभाव के लिए, ऐसी बात नहीं है। विभावों का उपादान तो मैं हूँ, किंतु इसका निमित्त मैं नहीं हूँ। ये मेरे स्वरूप नहीं हैं। ये मेरे परिग्रह कैसे? ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर जो कुछ बुद्धि प्रकट हुई है, जितना विचार बनता है, यह विवेक, यह बुद्धि, यह चतुराई, यह तो होगी आपकी? नहीं नहीं, यह भी मेरी नहीं है, यह तो क्षायोपशमिकभाव है। जो एक मुझे सामान्य तत्त्व है उसके साथ विभाव तो लगा हुआ है। रागद्वेष के संपर्क से स्थिति ऐसी बनी है।...अच्छा लो, जितना ज्ञान है सही एक जाननमात्र उस नाते से, यह विज्ञान तो तुम्हारा होगा?...नहीं नहीं, इतना ही मेरा विकास नहीं। यह तो मेरा स्वरूप नहीं। यह मेरा परिग्रह नहीं। तो ऐसा ज्ञान हो जायगा कभी तब तुम कुछ खुश हो लोगे कि यह है मेरा परिग्रह? नहीं, यह भी नहीं मेरा परिग्रह।केवलज्ञान भी मेरा परिग्रह नहीं, मेरा स्वरूप नहीं। वह अनादि है, मैं अनादि हूँ। तब फिर क्या? वह केवलज्ञान पर्याय जिस स्वभाव के अनुरूप है वह स्वभाव अनंत है, अहेतुक है, वह मेरा स्वरूप है। इसके अतिरिक्त बाहर में मेरा कुछ भी परिग्रह नहीं। इसका अभ्यास बने, यह मददगार होगा। बाकी केसी दूसरे का सहारा लेना यह कभी मददगार नहीं हो सकता। तो धन वैभव ये मेरे परिग्रह नहीं। लोग कहते हैं कि चाँदी का भाव क्या है। बताओ चाँदी में भी कोर्इ भाव होता है क्या? यदि होता है तो फिर पूछने की जरूरत क्या? देख लो उस चाँदी को खूब उलट पलट कर। यदि कहीं उसमें भाव मिल जाय तो बताओ। ऐसे ही सोने का भाव, रत्नों का भाव, तो यह भाव उनमें भरा है क्या? अरे उनके संबंध में लोगों के क्या भाव हैं, क्या ख्याल हैं, यह बात पूछी गर्इ।उन सोना चाँदी आदिक पत्थरों में कोई भाव भरा नहीं हैं, बल्कि उनके बारे में लोगों के जो भाव हैं जो ख्याल हैं वही उनका भाव कहा जाता है। सब कुछ यहाँ से बात है, बाहर से बात नहीं है। अब यहाँ के स्वरूप को देखो और इसी में रत हों, हमें यहाँ से ही सन्मार्ग मिलेगा, बाहर में भटकने से इसे सन्मार्ग नहीं मिल सकता।