वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 146
From जैनकोष
तद्भवत्वथ च रागवियोगात् नूनमेति न परिग्रहभावम् ॥146॥
1149- पूर्वबद्धकर्मविपाकवश उपभोग होने पर भी ज्ञानी के रागवियोग होने से उसके परिग्रहत्व की अप्राप्ति-
ज्ञानी जीव सभी प्रकार के परद्रव्यों के भावों को नहीं चाहता, परभावों को नहीं चाहता। न चाहे तो, उसके परिग्रह तो न रहा। परिग्रह तो चाह से ही होता है, तब एक आत्मा के शुद्ध मायने एकत्वविभक्त चैतन्यस्वभाव के अतिरिक्त अन्य किसी भाव में मैं हूँ, ऐसा मिथ्या अनुभव करने में समर्थ न रहा ज्ञानी। जैसे कि अज्ञानी अपने सहज स्वरूप में वह मैं हूँ ऐसा अनुभव करने में समर्थ नहीं है।ऐसे ही ज्ञानी भी परभाव को यह मैं हूँ ऐसा अनुभव करने में समर्थ नहीं हैं।जैसे वृक्ष की डंठल से फल टूटा तो अब उस फल को कोई जबरदस्ती डंठल में जोड़ तो नहीं सकता ऐसे ही जब जीवभाव से जीवस्वरूप से इन विभावों को न्यारा समझ लिया, अनुभव करके भी, मान लिया, अनुभव किया। एक सहज एकत्व विभक्त अंत: पदार्थ में उपयोग होने से जो आत्मीय आनंद बना और उसके अनुभव के बाद जो समझ बनी कि ये विभाव पर हैं वे परभाव को यह मैं हूँ ऐसा अनुभव नहीं कर सकते, फिर भी बहुत समय पहले वे जो जो बांधे हुए कर्म हैं उन कर्मों का जब विपाक आता है तो ज्ञानी जीव के उपयोग में प्राप्त तो होता है जैसे चतुर्थ गुणस्थान में, पंचम गुणस्थान में, छठे में भी पदवी अनुसार भोगोपभोग की बात आती है मगर श्रद्धा से जो एकत्वविभक्त को परख बनी, उसकी भक्ति में, उसकी स्मृति में यह निरंतर चलता है सो प्रतीति में तो राग वहाँ नहीं हो पाता।
1150- राग होने पर भी राग न होने का तथ्य-
देखिये- कैसा एक खेल खेलने जैसी बात है कि राग बिना भोग नहीं होता और ज्ञानी का भोग राग बिना हो रहा। ज्ञानी का भी भोग है वह राग बिना नहीं हो सकता, फिर भी ज्ञानी का भोग राग बिना होता है, दो बातों का कैसा समन्वय? मुनि महाराज भी आहारचर्या को उठते तो क्या वे अटपट उठते, उनके इच्छा नहीं होती क्या? वहाँ इच्छा का अभाव तो नहीं है, ऊपर के गुणस्थान तक भी इच्छा के सद्भाव का तो वर्णन किया है मगर वह सब इच्छा बिना इच्छा के हैं इच्छा से किया और इच्छा बिना किया, ऐसा दो का समन्वय किया है उपभोग करने वाले ज्ञानी ने। जो इच्छा है वह चारित्र मोहकृत है। इच्छा का अभाव है दर्शनमोह के अभाव वाला। अध्यात्मशास्त्रों में जितना वर्णन होता वह बुद्धिपूर्वक का वर्णन हो। हाँ बुद्धिपूर्वक तथ्यों का वर्णन करणानुयोग करता है। जहाँ एक एक समय का निणर्य है और करणानुयोग ही तो कहता है कि लोभ कषाय 10 वें गुणस्थान तक है,चरणानुयोग कहता कि लोभ कषाय कुछ न कुछ छठें गुणस्थान तक है, 7 वें में अप्रमत्त होता। तो द्रव्यानुयोग या अध्यात्मशास्त्र कहते कि ये कषाय तो चौथे गुणस्थान में नहीं, तो इसका मतलब ही क्या? क्या ये जुदे-जुदे मत हैं? दर्शन तो एक ही है, वहाँ अपेक्षा की दृष्टि लगानी होती हैं। बुद्धिपूर्वक कषाय नहीं है ज्ञानी के याने ये कषाय मैं हूँ, इनसे ही मेरा बड़प्पन है, इनसे ही हमारा महत्त्व है, प्रभाव है, इससे मैं सुखी रहूँगा, यह अज्ञान की बात नहीं रहती ज्ञानी के। तो बुद्धिपूर्वक रागद्वेष मोह नहीं है इसलिए ज्ञानी निराश्रव है और एक बार स्पष्ट शब्दों में भी बता दिया- यतो हि ज्ञानी बुद्धिपूर्वकरागद्वेषमोहानामभावान्निराश्रव:। समयसार में आत्मख्याति टीका में तो आया है, इसमें अधिक उलझन में नहीं पड़ना अपने को। अर्थात् सब काम बुद्धिपूर्वक निर्णय में बनाना है, बुद्धिपूर्वक गलती न हो, बुद्धिपूर्वक आस्रव न हो, विकार न हो, यह ही तो प्रयोग में आयगा, यह ही तो पौरुष बनेगा, इतने से ही तो हमें काम है, इसलिए यह ही बात बनावें, यह ही काम किया जाय।
1151- पूर्वबद्धकर्मविपाक से उपयोग का विशिष्ट भवन-
इस जीव ने पहले जो कर्मबंधन किया उसका अब यह उदयकाल आया। उस उदयकाल में जैसे सातावेदनीय के उदय में दो काम होते- बाह्य पदार्थों का संगम होना और इंद्रिय द्वारा भोग की पद्धति अनुभूति बनना, जैसे धवल में स्पष्ट बताया और उदाहरण दिया कि अनंतानुबंधी कषाय के दो काम हैं- (1) सम्यक्त्व का घात करना और (2) चारित्र का घात करना। ऐसे ही समझ लीजिए। जब पूर्वबद्धकर्म उदय में आये, स्थिति उसकी पूर्ण हुई तो उदय कहलाया, स्थिति पूरी हुए बिना पहले ही विपाक आये तो उदीरणा कहलाती है। देखो दो बातें होती हैं- (1) ज्ञप्ति और (2) निष्पत्ति। ज्ञप्ति के मायने भगवान ने तो देखा, देखा भी क्या? जो जिस विधान से होना है वह देखा। अब चूँकि देखा तो उसके निर्णय के बाद यही तो कह सकेंगे कि भगवान ने जो जाना सो होगा। और यह कहते भी आये कि जो जो देखी वीतराग ने सो सो होसी वीरारे। जब जब जहाँ जैसा जिसका जो कुछ प्रभु द्वारा ज्ञात है सो होगा। यह ज्ञप्तिनय से कहा जा रहा है। पर निष्पत्ति से देखेंगे तो वह विधिविधान, यह पद्धति वह सब समझ में आयगी। देखो वहाँ हुआ क्या? चाहे निष्पत्ति वाली बात बोलो, चाहे ज्ञप्ति वाली बात बोलो, वस्तुस्वातंत्र्य सर्वत्र अमिट है। कहीं निष्पत्तिनय से यह वर्णन सुनकर कि जब जीव के राग प्रकृति का उदय है तो यहाँ जीव में रागविकार हुआ, ऐसा सुनकर कहीं यह न आयगा कि रागप्रकृति ने जीव में परिणमन बनाया। प्रकृति में अपना परिणमन भी करे और जीव की विकार परिणति भी करे, ऐसा नहीं है। निमित्त की उपस्थिति का अर्थ इतना है कि वह एक ऐसा वातावरण है कि वहाँ यह उपादान अपनी कला से अपने में विकाररूप प्रभाव बनाता है। सर्वत्र आप यही पायेंगे, तब ही तो यह कहा गया कि निमित्त से जीवविकार नहीं होता और निमित्त बिना जीवविकार नहीं होता। दोनों का तथ्य तो परखना चाहिए।
1152- कर्मविपाक के उदय की घटना-
यह पूर्वबद्ध कर्मविपाक उदय में आया मायने कर्म में स्वयं जो अनुभाग पड़ा है, उसमें ही वह अनुभाग फूट गया। जैसे कोई चुने का डला है तो वह कितनी देर तक ठहरेगा? मानो खूब सुरक्षित रखा जाय, उसमें कुछ हवा, पानी वगैरह न लगने दिया जाय तो मानो इसकी म्याद 6 महीने तक की रह सकती है। 6 महीने बाद वह डला फूट जायगा। और मानो आज ही तो वह डला बना और आज ही उस पर पानी डाल दिया गया तो वह डला तुरंत फूलकर खतम हो गया। तो अपने समय पर विपाक आना यह तो उदय है और समय से पहले विपाक आ जाना उदीरणा है। ज्ञप्तिनय की दृष्टि में तो सब समय पर हुआ क्योंकि प्रभु ने जाना, इस प्रकार यह हुआ...तो सब समय पर है। मगर निष्पत्तिनय से देखें तो यह सब आपको समाधान मिलेगा कि यह समय पर है या यह समय से पहले हैं, पर सब कुछ समझने के लिए एक जरा दृढ़ता यह होनी चाहिए कि जब निष्पत्तियों को सुनेंगे, समझेंगे तो बीच में ज्ञप्ति की बात न मिलायें। ज्ञप्ति से कुछ समझें तब निष्पत्ति की बात न लायें तो बराबर व्यवस्थित हो जायगा। जब दो चीजें सामने रखीं तो एक प्रतिपक्ष हुआ, एक पक्ष। ज्ञप्तिनय से सिद्ध करेंगे तो वह पक्ष, निष्पत्तिनय से सिद्ध करें तो वह प्रतिपक्ष। निष्पत्तिनय से सिद्ध करेंगे तो वह पक्ष और ज्ञप्तिनय से सिद्ध करेंगे तो वह प्रतिपक्ष। तो सभी जगह स्याद्वाद शासन की यह नीति अतिकांत न की जाना चाहिए कि प्रतिपक्षनय का निर्णय समझकर, प्रतिपक्षनय का विरोध न कर प्रतिपक्षनय की बात को असत्य न कहकर प्रतीति में लें, जानकारी में लें वह भी है और प्रयोजनवश पक्ष की, विवक्षित की मुख्यता करें और उसको उस प्रकार समझें।
1153- प्रतिपक्षनय का विरोध न कर विवक्षित नय की प्रसिद्धि की नीति का दृष्टांतपूर्वक समर्थन-
जैसे जीव नित्य है, नित्य नहीं है ये दो तथ्य जीववस्तु के विषय में कहते हैं। वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक होती है। गुणों को तो आप भेद करके समझते सो चाहे एक बार गौण कर दें, क्योंकि गुणों का भाव स्वभाव से लिया है। स्वभाव के भेद को ही गुण कहा करते हैं। जो एक अविकल्प स्वभाव है उसको भेद करके बताने का नाम गुण कहलाता है। तो गुण को तो चाहे एक बार गौण कर दें, बस अभेद करना, हमें तो अखंड निरखना है। स्वभाव देख लिया, यह हुआ द्रव्यस्वरूप। पर साथ में पर्याय को कभी मना नहीं कर सकते, क्योंकि द्रव्य में प्रतिसमय पर्याय होती है इसलिए द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु है। जब पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक है तो द्रव्यदृष्टि से बात बताओ।पर्यायदृष्टि से बात बताओ। जीव का निर्णय क्या बना है तो द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य है पर्यायदृष्टि से जीव नित्य नहीं है, याने अनित्य है। अनित्य नहीं है ऐसा अगर बोला जाय तो वह पर्यायदृष्टि का मंतव्य न रहा वहाँ द्रव्यदृष्टि ही रही, क्योंकि दोनों का अर्थ एक है। द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य है, अनित्य नहीं है, यह द्रव्य दृष्टि के अंदर का निर्णय है, न कि स्याद्वाद का, प्रमाण का? एक दृष्टि से भी तो पक्का निर्णय पड़ा रहता है। अभी 7 भंग कहे गये हैं उनको सुनकर कोई ऐसा सोचे कि ये स्याद्वादी तो संशयवादी हैं, देखो अभी कहा कि जीव नित्य है, अभी कहा कि नित्य नहीं, यह तो संशयवाद है, इसका कोई निर्णय ही नहीं। इस शासन का कोई निश्चय ही नहीं। किंतु भैया, जो स्याद्वाद के 7 भंग हैं उनका जिन्होंने गहराई से अध्ययन किया है वे समझेंगे कि प्रत्येक भंग में निर्णय पड़ाहुआ है, निश्चय पड़ा हुआ है कि ऐसा ही है, जैसे पहला भंग क्या है? स्यात् अस्ति एव, अच्छा नित्य के प्रसंग में ले लो- जीव: स्यात् नित्य एव, यह है पहला भंग। उसमें संशय नहीं पड़ा है। यहाँ स्यात् मायने है दृष्टि से। सो यहाँ बात यह पड़ी है कि जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य ही है। यहाँ संशय नहीं है। द्रव्य दृष्टि से नित्य ही है। अब इसकी दूसरी प्रतिफलित आवाज क्या है? द्रव्यदृष्टि से अनित्य नहीं है, यह एक द्रव्यदृष्टि का ही निर्णय है, प्रमाण का निर्णय नहीं, स्याद्वाद का निर्णय नहीं। स्याद्वाद के एक अंग का निर्णय है। प्रत्येक भंग में निर्णय पड़ा हुआ है।
1154- स्याद्वाद में सनिश्चय निर्णय व स्याद्वाद के प्रत्येक भंग में निश्चय-
कौन कहता है कि स्याद्वाद संशयवाद है। स्याद्वाद के तो एक-एक भंग में निर्णय पड़ा हुआ है, मगर ध्यान यह दें कि यह भंग के निर्णय में दृष्टि बोलनी ही पड़ेगी दृष्टि बोले बिना भंग का निर्णय निश्चय से बनना तो ठीक नहीं बैठता। जैसे स्यात् को तो हटा दिया मायने द्रव्य दृष्टि से, इतना शब्द तो हटा दें और बोलें कि जीव नित्य ही है तो अब यह स्याद्वाद न रहा, यह ब्रह्मद्वैतवाद हो गया। अपरिणाम वाद हो गया, सांख्य शासन हो गया, और जहाँ दृष्टि देकर पक्ष है, जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य ही है, तो वह स्याद्वाद का अंग याने भंग बन गया। एक अब लौकिक दृष्टि से बात लो, तीन आदमी सामने बैठे हैं, अब हम किसका नाम लें? मान लो, रामू, मोहन और सोहन ये तीन नाम ले लिया तो इनमें रामू तो बाबा है, मोहन रामू का लड़का है और सोहन मोहन का लड़का है, अब हम यहाँ मोहन का परिचय करना चाह रहे हैं तो वहाँ क्या कहा जायगा कि रामू की अपेक्षा से यह मोहन लड़का है। अच्छा जरा निर्णय दृढ़ता से बोलो मोहन रामू की अपेक्षा से लड़का ही है। बतलाओ इस निर्णय में कोई गलती है क्या? नहीं। अच्छा अब हम रामू को हटा दें, न बोलें और कहें कि यह मोहन लड़का ही है, अब इस तरह वहाँ वे दो अगल बगल है और समझ ऐसा भी सकते कि यह मोहन सोहन का लड़का है तो वहाँ झगड़ा हो जायगा ना। तो वहाँ दृष्टि सहित बोलने से धर्म का निर्णय आता है, और दृष्टि को छोड़कर बोलने से निर्णय नहीं आता। अगर दृष्टि छोड़करएवकार लगाते जायें तो एकांत हो जाता है। अब वह चाहे क्षणिकवाद बने चाहे अपरिणामवाद बने।
1155- स्याद्वाद में धर्म के निश्चय में दुमुही सहयोग-
स्याद्वाद की परख यह है कि जीव: स्यात्नित्यएव, स्यात् अनित्य एव, द्रव्यदृष्टि से देखें तो जीव नित्य ही है, पर्यायदृष्टि से अनित्य ही है। वहाँ जीव में विवक्षित धर्म के परिचय में संशय का या ढील का अवसर नहीं है।द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य ही हैपर्यायदृष्टि से जीव नित्य कभी होता ही नहीं है, पर्यायदृष्टि से अनित्य ही है, ऐसा निर्णय बन गया। देखो स्यात् और एव के बीच में धर्म का नाम रखा है। वैसे पहाड़ पर कोई एक ऊँची नीची रेल की पटरी हो, जैसे शिमला की रेलवे लाइन हैं ना ऊँची नीची, तो पहले तो उसमें दो इंजन लगते थे एक आगे और एक पीछे। अब तो कोई तीन चार डिब्बे की ट्रेन रहती और एक ही इंजन लगता। तो बात कह रहे हैं दो इंजन लगने की। जब गाड़ी में आगे और पीछे दो इंजन लगते तो सोचना वहाँ यह हैं कि दो दो इंजन क्यों लगते? तो बताया कि इसलिए कि कहीं वह गाड़ी ऊँचे नीचे में गिर न जाय इसलिए एक इंजन तो गाड़ी के साधने का काम करता और एक इंजन गाड़ी को आगे बढ़ाने का काम करता। तो ऐसे ही समझो कि सभी नयों के धर्मों के पीछे आगे स्यात् और एव ऐसे मानो दो इंजन लगे हैं, किसी चीज को पहिचानने के लिए अब द्रव्यदृष्टि से देखो तो वहाँ ऐसा निर्णय पड़ा कि जो अनुलोम प्रतिलोमविधि से कहने पर अनेकांत सा जंचता है। द्रव्यदृष्टि से जाना कि नित्य ही है, अनित्य नहीं है, है वह एक दृष्टि की ही बात। प्रमाण की बात न रही, इससे जीव का पूरा ब्योरा नहीं बनता। जीव का द्रव्यदृष्टि का जो कुछ ब्योर ा बनता, वहाँ उस दृष्टि का नि:संशय निर्णय पड़ा हुआ है, और उस निर्णय में जो दृढ़ता है वह एक दृष्टि की है, क्योंकि वह एक भंग है इसी प्रकार अन्य धर्म व दृष्टि की बात समझ लेना।
1156- तथ्यपरीक्षण के चार प्रकार-
अच्छा पूर्ण वस्तु का निर्णय 7 अंग मिलाकर बोलो, दो अंग मिलाकर बोलो, तीन में बोलो। प्रयोजनवश जितने से प्रसंग बन जाय बोलो। अगर वस्तुधर्म में तीन हैं स्वतंत्र तो उनमें 7 अंग बनते हैं। जैसे कुछ भी आप तीन चीजें ले लीजिए- नमक, मिर्च, खटाई अब इन तीनों के अलग-अलग स्वाद होंगे- नमक का अलग, मिर्च का अलग और खटाई का अलग, चौथा नमक मिर्च मिलाकर, 5 वां नमक खटाई मिलाकर, छठवाँ खटाई मिर्च मिलाकर और 7 वाँ नमक, मिर्च, खटाई ये सब मिलाकर, इस तरह ये 7 प्रकार के स्वाद बनते हैं।तो जब तीन धर्म सामने है- नित्य, अनित्य, अवक्तव्य, तब उन तीन के भंग बनेंगे तो 7 बनेंगे।वह ठीक है, पर प्रयोजन में जल्दी समझने के लिए दो का प्रयोग कर लो। द्रव्यदृष्टि से नित्य ही है, पर्यायदृष्टि से अनित्य ही है, और दोनों ही अंग हैं वस्तु के। द्रव्यशून्य पर्याय नहीं, पर्यायशून्य द्रव्य नहीं, तब दोनों बातें एक साथ समझते हैंऔर दोनों बातें समझ चुकने के बाद दोनों को छोड़ते हैं, एक को छोड़ना, सबको छोड़ना। नय और प्रमाण दोनों से अतीत हो, देखो अनुभव पाने के लिए नय, निरपेक्ष प्रमाण जहाँ ये अस्त को प्राप्त होते हैं, ऐसी दशा होती है, वह है अनुभूति। हम चार तरह से देख सकते हैं- केवल दाहिनी आँख से देखें, केवल बायीं आँख से देखें, दोनों आँखें खोलकर देखें, दोनों आँखें बंद करके देखें...आप कहेंगे कि दोनों आँखें बंद करके कैसे दिखेगा? सो दोनों आँखें बंद करके भी दिखता, जो भी दिखे वह बात एक अलग है, ऐसे ही दो दृष्टियाँ हैं- (1) द्रव्यदृष्टि और (2) पर्यायदृष्टि। पर्यायदृष्टि को गौण करके द्रव्यदृष्टि से निरख लो,द्रव्यदृष्टि को गौण करके पर्यायदृष्टि से निरख लो, द्रव्यदृष्टि, पर्यायदृष्टिइन दोनों से निरख लो, और द्रव्य पर्याय दोनों दृष्टियों को बंद करके निरख लो। द्रव्यदृष्टि से देखा कि नित्य है, पर्यायदृष्टि से देखा कि अनित्य है, दोनों दृष्टियों से देखा कि अवक्तव्य है, और दोनों दृष्टियों को बंद करके देखा तो मिला सहज स्वरूप का अनुभव।
1157- सर्व उपदेशों का लक्ष्य स्वभावाश्रय के पौरुष में जुटाव-
देखो जितना भी आगम में उपदेश है चाहे नय से बताओ, प्रमाण से बताओ, किसी ढंग से बताओ, सबका उद्देश्य है कि यह जीव किसी प्रकार स्वभाव का आश्रय करे। स्वाभावाश्रय के लिए समस्त उपदेश है।प्रथमानुयोग हो, कथा हो, करणानुयोग की बातें हों, सभी का उद्देश्य है स्वभाव का आश्रय मिले। परपदार्थों का विकल्प करके, जुट करके, इनका आश्रय करके तो अब तक संसार की परंपरा ही बढ़ायी। इसमें अपने आपके आत्मा का वास्तविक आनंद नहीं मिला। तो सब उपदेशों का तथ्य यह निकालें और कोशिश यह करें कि स्वभावाश्रय हो। इस लक्ष्य के लिये जिनवाणी की भक्ति अधिकाधिक बनी रहे। जैसे द्रव्यदृष्टि के देखने से हमको सुविधा अधिक मिलती है तो पर्यायदृष्टि के तथ्य को कहा जाय कि यह असत्य है बात, झूठ है बात, यह जिनवाणी की भक्ति नहीं। पर्यायदृष्टि से भी परीक्षा करने पर यह भी कुछ मौका मिल सकता कि जिसके बाद शुद्धनयपूर्वक स्वानुभव बन ले। जैसे पर्यायदृष्टि से ऋजुसूत्रनय से देखते कि पर्याय एक समय में है, अपने समय में है, वहाँ दूसरा कुछ नहीं है।वह अपने आपमें हैं, उसका कोई कारण नहीं, कार्य नहीं। पर्यायदृष्टि से जब हम पर्याय की ऐसी दृष्टि करते कि ये अहेतुक हैं पर्यायें, क्योंकि पर्यायदृष्टि में जो सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय है उसकी दृष्टि से देख रहे हैं कि जिसका एकांत करके बौद्धमत निकला है वहाँ पर्याय की जगह पदार्थ शब्द मिलेगा। यहाँ हम पर्याय कहते हैं। क्यों पर्याय कहते कि हम द्रव्यदृष्टि की भी तो प्रतीति लिए हुए हैं इसलिए हमारा ऋजुसूत्रनय का वर्णन एकांत न कहलायेगा। अगर हम उस प्रतीति को तज दें तो जो बोद्धों की स्थिति है सो ही ऋजुसूत्रनय के एकांत की ही है।तो पर्यायदृष्टि से, सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय से जब देखा तो वहाँ विकल्पबाहुल्य का स्थान नहीं है तब अविभागी निरंशसे अखंड निरंश पर आकर स्वभाव का आश्रय करने का, पर्याय का व्यामोह हटाने का अवसर प्राप्त होता है। चलो उससे ही काम निकालें। जिसको जिस तरह काम चलाने की सुविधा है वह उस तरह काम निकाले। इसमें कोर्इ विरोध की बात नहीं। ऋजुसूत्रनय की प्रधानता से अपने प्रयोजन में आगे बढें, बढें चलें इसी तरह। विवाद का कहीं स्थान नहीं बनता। स्याद्वादविधि से चलने पर विवाद का कहीं अवकाश नहीं, विवाद का कहीं स्थान नहीं।सब ठीक ठीक समझते जावो और अपने उद्देश्य में लगो। इस स्वभाव का आश्रय करके मैं अपने उपयोग को वहाँ रमाऊँ, ऐसा ही ज्ञान पाऊँ कि जो निर्विकल्प अखंड सहज सत्त्व के कारण जो मेरा सहज चैतन्यस्वरूप है उसमें चिपक सकूँ, उसमें लग सकूँ, यह मैं हूँ ऐसा अनुभव बन सहे, यह काम करने को पड़ाहै जीवन में।
1158- पराश्रय से हटकर स्वभावाश्रय करने में ही दुर्लभ क्षणों की सफलता- अगर अन्य अन्य बातों में ही ममता करके- यह मेरा पुत्र, यह मेरा वैभव, यह मेरा अमुक, इस तरह की अहं बुद्धि लगाकर हम जीवन बिता डालें तो हमारा जीवन सफल नहीं कहलायेगा। उद्देश्य एक रखना स्वभाव का आश्रय करना जिनवाणी के प्रत्येक वाक्य से स्वभावदृष्टि का मार्ग मिलता है इसलिये जिनवाणी में भक्ति रखता और वहाँ सर्व उपदेशों से अपने आपके स्वभाव का आश्रय करना यह हम आपका परमावश्यक कर्तव्य है। हम उन सब आचार्यों के उपदेश पढ़ते हैं वे सब निष्फल नहीं जाते। उनमें एक प्रेरणा बसी हुईहै स्वभाव का आश्रय करने के लिए। उसकी भक्ति तो चाहिए, जिस जिस पुरुष का सौभाग्य है, जिसे अपने स्वरूप का निर्णय है वह एक 8 वर्ष के बालक की कविता में भी कभी जिनवाणी की बात सुन रहा हो जैसे बारह भावनायें वगैरह सिखा दिया करते ना, छोटे-छोटे बालकों को, तो उन बालकों के मुख से कविता सुनकर भी श्रोता अपने आपके स्वरूप का आश्रय पा लेने का पौरुष बना लेता है।अंतरात्मा ने अपने आपका ऐसा निश्चय बनाया कि मैं चैतन्यस्वभाव मात्र हूँ, अन्य विभावरूप नहीं, परभावरूप नहीं, ये तो मेरे को सताने आये हैं, ये परभाव मेरे प्यार के लिए नहीं हैं, ये तो मेरी बरबादी के लिये हैं, ये मेरे लिये दु:खरूप हैं, ये तो दु:ख के ही हेतुभूत है। आप समझ लो कि इन सब विकल्पों को, इन सब ख्यालातों को, इन सब विभावों को हटाना ही चाहिए। इन सबसे विविक्त अपना जो एक शुद्ध अंतस्तत्त्व है उसका आश्रय लें। वही हमारा सर्वस्व है। एक बहुत मोटी सी बात कही है कि जहाँ विकल्प हैं, जहाँ ख्यालात हैं, जहाँ जो कल्पना है वह मेरा रूप नहीं। साधु संतों ने अपना यह निर्णय बताया है कि यद्यदाचरितं पूर्वं तत्तदज्ञानचेष्टितम्। पूर्व में जो जो आचरण किया वे सब अज्ञान में हुए। 1159- सर्व विश्लेषणों की पारंगतता होने पर अटकाव का अनवसर-
भैया, अज्ञान की भी स्थितियाँ हुआ करती हैं। ज्ञान होकर भी अज्ञान, ज्ञान जरा न रहकर भी अज्ञान। सबकी अलग अलग व्यवस्था, सबके अलग अलग विश्लेषण। उन विश्लेषणों में पारंगतहोने से विकल्पों में अटकाव नहीं आता मगर सुन रखा कुछ बात है और कुछ उससे अटकाव होता।सहारनपुर की एक घटना है। एक लडके के पास कोई खोटी चवन्नी थी, वह चवन्नी बहुत दिनों से चल नहीं रही थी। समय की बात कि एक दिन वह चवन्नी चल गई, याने एक हलवाई की दूकान में 1 आने ही मिठाई उस लडके ने खरीदी तो हलवाई ने चवन्नी रख ली और तीन आने पैसे फेर दिये। वह लड़का मारे खुशी के यह कहता हुआ भागा कि चल गई चल गई चल गई। उसका प्रयोजन तो यह था कि चवन्नी चल गई। पर हुआ क्या कि उस समय हिंदू मुसलिम सामुदायिक दंगे फसाद लड़ाई बहुत चल रही थी सो दूकानदारों ने समझा कि हिंदूमुस्लिम झगड़ा चल गया, गोली लाठी चल गई। सो अब दूकानदार अपनी अपनी दूकानें बंद करके अपने अपने घर में घुस गए। तो भाई मूल बात का यथार्थ पता न होने से, सही सही रहस्य का पता न होने से बीच में एक अटक हो जाया करती है। और जब तक यह अटक रहती है तब तक इस जीव को दु:खी होना पड़ता है। जब सब प्रकार का निर्णय को जाता है तो फिर कहीं भी अटक नहीं होती।
1160- शुद्धनयविज्ञानपूर्वक स्वानुभव की विधि की उत्थानिका-
जैसेबताया गया है कि शुद्धोपयोग जिसके होना है तो शुभोपयोग के बाद ही होता है, अशुभोपयोग के बाद अनंतर शुद्धोपयोग नहीं होता इसी प्रकार यह समझिये कि जिसको स्वानुभूति नहीं और स्वानुभूति होने को है तो जिसके स्वानुभूति होती है उसको शुद्धनय के प्रयोगपूर्वक होती है। शुद्धनय को छोड़कर स्वानुभव का कोई उपाय नहीं है और वह शुद्धनय क्या चीज है? पर से विविक्त निज में समस्त एक अखंड तत्त्व, जिसको कहो अवक्तव्य, उसे ज्ञान में लीजिये, वचनों से न बोला जायगा। ऐसा खैर एकांत नहीं, वचन से बोलते ही है अवक्तव्य, सो सर्वथा अवक्तव्य नहीं हुआ करता। वह भी कथंचित्अवक्तव्य होता, मगर उसका जो वेग है, उसकी जो सही बात है वह वचनागोचर है। अब देखो शुद्धनय किसके पूर्वक होता? उसके पूर्व कुछ भी सुनयों की स्थितियाँ हो जाती हैं। इस बात को आप कुछ इन विभागों में रखें- परम शुद्ध निश्चयनय, शुद्ध निश्चय नय, अशुद्ध निश्चयनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय और इसके अंतर्गत और भी कितनी ही तरह की बातें हैं। अब किस प्रकार होता है? तो देखो उपचार में तो गुंजाइश नहीं। उपचार भाषा एक ऐसी भाषा है कि जो परस्वामित्व और परकर्तृत्व की बात लादता है केवल वचनों में। ज्ञानी जीव कदाचित् उपचारभाषा का प्रयोग करता तो है, और उपचार भाषा की मुद्रा ही यह है कि जिसमें परस्वामित्व और परकर्तृत्व की मुद्रा बनती है, मगर ज्ञानी तो प्रयोजन को सोचकर बाकी बात को छोड़ देता है, और अज्ञानी जन उपचार भाषा के शब्दों को उसी रूप से उपादान उपादेय भाव से लगाते सो वह मिथ्या होता है। अत: इसकी बात तो रहने दीजिये इससे शुद्धनय में जाने की प्रेरणा नहीं मिलती। और उपचारनय भी नहीं है। यहाँ एक बात समझना, सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय एक पर्यायार्थिकनय है। तब इतने नयों का आपको विचार करना है- परम शुद्धनिश्चयनय, शुद्धनिश्चयनय, अशुद्धनिश्चयनय, व्यवहारनय और पर्यायार्थिकनय, याने ऋजुसूत्रनय उसमें भी सूक्ष्मऋजुसूत्रनय। इसमें व्यवहारनय एक द्रव्यार्थिकनय का भेद है। नैगम, संग्रह, व्यवहार। व्यवहार केवल पर्याय को नहीं लेता, किंतु पर्यायसंयुक्त द्रव्य को मुख्य लेता हुआ वह विवरण करता है। जबकि ऋजुसूत्रनय पर्याय को मुख्य लेकर विवरण करता है।
1161- सूक्ष्मऋजुसूत्रनयतत्त्वपरिचयपूर्वक हुए शुद्धनय के अनंतर स्वानुभव की संभवता-
अब लो, ऋजुसूत्रनय से ही शुरू करें। सूक्ष्मऋजुसूत्रनय से यह जाना कि एक पर्याय, कैसा पर्याय जाना? निरंश। देखो निरंश दो तरह से जाना जाता। (1) अविभाव निरंश और (2) अखंड निरंश। अविभाग निरंश तो ऋजुसूत्रनय का विषय है याने इतना काल का अंश लिया जाय जो एक समय वाला हो, जिसमें फिर और विभाग ही नहीं किया जा सकता। स्थूल ऋजुसूत्रनय के विषय में खंड होता है, पर सूक्ष्मऋजुसूत्रनय से जहाँ एक समय की चर्चा आयी, उसका ज्ञान तो न कर पायगा यह छद्मस्थ। एक समय की पर्याय का ज्ञान छद्मस्थ नहीं कर सकता, क्योंकि उसका उपयोग जो परिणत होता है किसी पदार्थ को जानने के लिए उसमें समय असंख्यात लगते हैं। जयधवल में बताया गया है कि स्थिति के आधिक्य में किन-किन स्थानों के बाद किसका नंबर आता है। सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में जितना समय लग जाता है उसमें भी अधिक छद्मस्थ के एक उपयोग का समय बताया है प्राय:। उसको कुछ अल्प बहुत्व के प्रकरण में बताया है।तो जब पर्याय है तब उसका जानना छद्मस्थ के उपयोग में नहीं। उसके संबंध में विचार करता है, उपयोग जोड़ता है तो असंख्यात समय बाद जान पाता है। इस बात को लेकर ही तो बौद्धों ने निर्विकल्पदर्शन और विकल्पात्मक ज्ञान, ये दो भेद बताये हैं। निर्विकल्पदर्शन तो है उनका प्रत्यक्ष और विकल्पात्मक ज्ञान है उनका सविकल्प ज्ञान। निर्णय जितने हुआ करते हैं वे सविकल्पात्मक ज्ञान हैं और साक्षात्कार जो होता है वह प्रत्यक्ष से होता है। यह बात बौद्धदर्शन की अपेक्षा बतला रहे हैं। तो उनका मंतव्य है कि हम जितना जो कुछ जान पाते हैं वह सब मिथ्या है, क्योंकि वह विकल्पात्मक ज्ञान से माना जाता है। और, जो वर्तमान सत्य है यह वचन के अगोचर है। वह तो केवल प्रत्यक्षगम्य है निर्विकल्प दर्शन द्वारा प्रतिभास्य है। तो उस निरंश एक समय की पर्याय को हम चर्चा में लाते, बुद्धि में लाते, तर्क में लाते, मगर विशद ज्ञान नहीं कर सकते। तर्क से ही सही, अनुमान से ही सही, एक समय की ही पर्याय जब ज्ञान में ली जा रही हो तब उस विषय का क्या वर्णनहोगा? अहेतुक है, वह किसी कारण से नहीं हुआ। उसका कोई विशेषण नहीं, कार्यकारण भेद होता ही नहीं, विधि भी नहीं, मना भी मत करो, उसका वह विषय ही नहीं, यहाँ विशेषण विशेष्यभाव हो ही नहीं सकता, और यहाँ तक कि कोई व्यवहार ही नहीं बन सकता। सवार्थसिद्धि में ऋजुसूत्रनय का जहाँ वर्णन किया है तो वहाँ शंका की है कि इसमें तो व्यवहारनय का लोप हो जायगा। तो कहा कि होने दो लोप, यहाँ तो नय का विषय बताया जा रहा। किसी बोद्ध के रूई की दूकान हो और वह ईमानदारी से अपने शासन पर चले और कभी उस रूई में आग लग जाय तो वह यह न कह सकेगा कि रूई जल रही है वह रूई नहीं है जो रूई है वह जल नहीं रही है। रूई है सफेद, वह जल कहाँ रही और जो जलने की स्थिति में है वह रूई कहाँ रही। इतना भी नहीं बोल सकते कि कौवा काला है, क्योंकि कौवा सब काला तो नहीं होता, इसके भीतर खून लाल है, हड्डी सफेद है...? क्या जितना-जितना काला होता वह वह सब कौवा है?...नहीं। तो कौवा काला है वह विशेष विशेष्य भी ऋजुसूत्रनय को मंजूर नहीं, कारण कार्यभाव भी मंजूर नहीं। यह तो एक चर्चा की बात है मगर यहाँ एक ढंग देखो कि एक समय की पर्याय विषय में लिया, विकल्प में लिया, सोचा और कुछ ख्याल न किया तो ऐसी स्थिति में जैसे थोड़ी विचित्र बात बोली तो उससे उपयोग स्तब्ध हो जाता। तो ऐसे उस समयमात्र की बात निरखने में उपयोग ऐसा स्तब्ध होता, विकल्प से दूर होता, यद्यपि वह भी एक विकल्प कहलाता, किंतु वह विकल्प ऐसा झगड़ा है कि वह स्थिर न रह पायगा। तो ऐसा चिंतन करते हुए में विकल्प भी मिटेगा और शुद्धनय का प्रकाश आयेगा और उस पूर्वक स्वानुभव बताया ही गया है, तो यों ऋजुसूत्रनय के विषय का चिंतन करके भी वह शुद्धनयपूर्वक स्वानुभव में पहुँच सकता, किंतु पर्यायनय का प्रारंभ होने से यह उपाय कुछ दुर्गम है।
1162- व्यवहारनयभावपूर्वक हुए शुद्धनय के अनंतर स्वानुभव की संभवता-
व्यवहारनय की बात लीजिए। व्यवहारनय से विदित हुआ विभावों का परभावत्व। ये विभाव, ये रागद्वेष विकार, ये सब कर्मोदयविपाकप्रभव हैं, ये परभाव हैं। इनके साथ ही साथ यह भी ज्ञान चल रहा है कि ये स्वभाव नहीं है। और स्वभाव नहीं, यह भी बोल पा रहा है वह जिसने स्वभाव का भी दर्शन किया और वर्तमानभाव का परिचय भी ले रहा है। ये विकार परभाव हैं, स्वभाव नहीं हैं ऐसा चिंतन करते हुए परभावों से उपेक्षा बनी, स्वभाव की ओरदृष्टि गर्इ। अब स्वभाव पर दृष्टि जाने से उसे अवकाश मिलता है कि वह उस विकल्प से मुक्त होकर शुद्धनय में आये और स्वानुभव प्राप्त करे।
1163- अशुद्धनिश्चयनयतत्त्वपरिचयपूर्वक हुए शुद्धनय के प्रयोग में स्वानुभव की संभवता-
अशुद्धनिश्चय नय की बात लीजिए। अशुद्ध निश्चयनय में निश्चयनय का एक नियंत्रण है कि एक ही वस्तु को देखना, एक में ही देखना, एक का एक में सब कुछ दृष्ट करना। अशुद्ध निश्चयनय में विकार विभाव दिखते तो हैं मगर देखो वहाँ ही एक में मिलाकर, जैसे जीव रागी है, जीव में राग परिणमन है। विश्लेष ण करते जावो कि राग इसकी योग्यता से हुआ। वहाँ दूसरा कुछ दिख ही नहीं रहा। अशुद्ध निश्चयनय का तो मुड़ है वह दूसरे को नहीं परख रहा। एक ही को एक में देख रहा, निमित्त हो भी नहीं देख रहा, बस जीव रागी है, जीव में रागपरिणमन है यही मात्र दिख रहाऔर इस तरह दिखा जैसे कि दर्पण में प्रतिबिंब हुआ, वहाँ उन लडकों को नहीं देखा जो पीछे खड़े थे, जिनका निमित्त पाकर दर्पण ने वैसा प्रतिबिंब परिणमन किया। इस मूड़ में अन्य कुछ नहीं देखा जा रहा है। यहाँ यह दर्पण ऐसा प्रतिबिंबरूप परिणम रहा है, यह जीव ऐसा रागविकाररूप परिणम रहा है, सिर्फ यह ज्ञात हो रहा है। वहाँ निमित्त पर दृष्टि नहीं, आश्रयभूत पदार्थ पर दृष्टि नहीं। याने विकल्पबहुलता के अवसर जिन जिन दृष्टियों से आते वे वे दृष्टियाँ यहाँ नहीं हैं। एक में ही एक को देखा जा रहा है। ऐसा जब देखा जा रहा तो उस एक नियंत्रण के कारण, और परदृष्टि न होने के कारण उसे ऐसा अवसर मिलता जैसे कि कभी कभी देखा होगा- जाप दे रहे, गुरिया पर हाथ लग रहा और किसी समय झपका आया तो माला गिर गई, विकल्प सो गया। एक नियंत्रण में अशुद्ध निश्चयनय में यह निरखा जा रहा है चूंकि उसके जागृति नहीं है, वेदांत की भाषा में चलता है जागृति शब्द मोह व्यवहार में। निमित्त में आश्रयभूत में उसका विकल्प नहीं जग रहा है। ऐसी स्थिति में वहाँ एक अवसर ऐसा आयगा कि यह भी विकल्प छूटेगा इस नियंत्रण के कारण। सो वहाँ एक शुद्धनय का प्रकाश जगा कि स्वानुभूति बनी।
1164- शुद्धनिश्चयनयतत्त्वपरिचयपूर्वक हुए शुद्धनयप्रयोग में स्वानुभव की संभावना-
कुछ निश्चयनय में एक नियंत्रण है, शुद्ध पर्याय को देखना, एक में देखना। जैसे जीव केवलज्ञानी है, जीव अनंतचतुष्टयात्मक है और कुछ नहीं दिखता। यहाँ क्षायिक भाव का कोई विकल्प नहीं, केवलज्ञान क्षायिक है ऐसा इस नय के मूड़ में परिचय नहीं। क्षायिकत्व शुद्धनिश्चय का विषय नहीं, यह व्यवहार का विषय बनता, वह यहाँ नहीं परखा जा रहा है, वह केवलज्ञान, जीव का केवलज्ञान, जीव की परिणम जीव के उपादान से प्रकट हुआ है। चूंकि वह स्वभाव परिणमन है तो उसमें अनुरूपता है। तो एक अनुरूपता होने से, दूसरे निश्चयनय का नियंत्रण होने से वह दिख तो रहा है मगर ऐसे भी विकल्प टूटकर एक शुद्धनय प्रकाश में आ सकता और उसके उस पूर्वक स्वानुभव बनेगा।
1165- परमशुद्धनिश्चयतत्त्वपरिचयपूर्वक हुए शुद्धनयप्रयोग में स्वानुभव की संभावना-
परमशुद्ध निश्चयनय, यद्यपि परमशुद्ध निश्चयनय और शुद्धनय में अधिक अंतर नहीं है लेकिन सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो अंतर है, परमशुद्ध निश्चयनय में एक कोई द्रव्य में स्वभाव का ही दर्शन किया जा रहा है। जीव में चैतन्यस्वभाव जीव चैतन्यस्वरूप। पर्याय को इसने ग्रहण नहीं किया और विधि से भी यही है, स्वभाव निरखा, उस एक में निरखा तो उस एक में और उसको सहज स्वभाव में निरख रहे हैं तो एक अभेद बनता कि शुद्धनय का प्रकाश होता और तत्पूर्वक स्वानुभव बन सकता।
1166- नयों का प्रयोजन शुद्धनय की ओरले जाना-
इस शुद्धनय से पहले ऐसा कोई न कोई विकल्प आया करता है। शुद्धनय एकदम नहीं हो गया ऐसे विकल्प ये आया करते तो इन नयों के बाद शुद्धनय का प्रकाश बनता। शुद्धनय के प्रकाशपूर्वक स्वानुभव बनता, उसी कारण जैन ग्रंथों में आगम में जितना उपदेश हुआ करता है वह सब उपदेश एक स्वभावाश्रय कराने के प्रयोजन से हुआ करता है, तो हमको आगम की प्रत्येक वाणी को सुनकर हमें ऐसी निजकला खेलनी चाहिए कि उससे हम स्वभावाश्रय के अनुरूप उसमें शिक्षा पा सकें। क्या हर्ज है, अगर कहीं पाप के स्वरूप का वर्णन भी चल रहा तो जो मोक्षमार्ग के पथ में कुशल है वह ऐसे अशुभ के स्वरूप का वर्णन भी सुन रहा, उसका भी इसी प्रकार से अर्थ लगेगा कि जिससे उपेक्षा उससे हो और अपने आपके प्रयोजन वाले तत्त्व पर दृष्टि जाय और वह अपने मार्ग में आगे बढे़।
1167- ज्ञानी की चर्या के उदाहरण से अपने में दोषपरीक्षा करके दोष से हटने का कर्तव्य-
प्रयोजन कहने का यह है कि अपने जीवनका लक्ष्य यह रखियेगा कि लोक में कोई सा भी ऐसा पदार्थ नहीं है कि जिसका आश्रय करने से हमें शांति उपस्थित हो। इस ज्ञानी जीव ने यह ही तथ्य तो पहिचाना जिस कारण से उसके राग का वियोग हुआ, विभाव आ रहे फिर भी उन विभावों में राग नहीं। ऐसा एक सम्यग्ज्ञान प्रकाश हुआ। उस विभाव से लगाव नहीं जीवविभाव से, जीवपरभाव से, इन परभावों का एकदम ऐसा तोड़ कर दिया, ऐसा संधिविच्छद कर दिया कि अब कभी भी वहाँ विभ्रम नहीं हो पा रहा।उपभोग का राग नहीं है इसी कारण ज्ञानी जीव के पूर्वबद्ध कर्म के विपाक का उपभोग तो हुआ मगर वह उपभोग रागवियोग होने से परिग्रह भाव को प्राप्त नहीं हुआ वहाँ। बात कहने में आसान हुई, ज्ञानी के उसका रागभाव नहीं है और उपभोग हो रहा है तो भला उपभोग होते हुए भी और राग नहीं हो रहा, ऐसी स्थिति क्या कहीं गप्पों से मिल जायगी? भीतर में स्वभाव भावना का दृढ़तम अभ्यास करना होगा, तब यह स्थिति आती है कि राग का वियोग है, उपभोग होने पर भी। जो कुछ थोड़े से ही साधु बने, और ज्ञानी पुरुष की तुलना करके एकदम यह समझ बैठे कि यह तो चारित्रमोह का उदय है, होने दो। अरे होने तो दो पर आप अपनी निगाह में यह परख तो करें कि इस उपभोग के साथ तेरे भीतर कामचार भी है या नहीं। आसक्ति और राग में अंतर है। राग में और ज्ञान में अंतर है। एक हिरण घास खा रहा हो, जंगल में उसे जरा भी आहट मिलती तो झट घास छोड़कर छलांग मारकर बहुत दूर भग जाता है और एक बिल्ली किसी जीव को पकड़े हो तो उस पर कोई डंडे भी बरसाये तो भी नहीं छोड़ती। ऐसा आसक्ति और राग में अंतर है। अपने आपमें भी परीक्षा करके निरख लो। आसक्ति और राग में कितना अंतर पाते हैं। भोजन बनाते, खाना पड़ता है, खाते हैं तो बताओ वह काम राग बिना हुआ क्या? कोई न कोई प्रकार का वहाँ राग तो है। इच्छा हुई, हाथ चलाया मगर आसक्ति नहीं कि यह ही सर्वस्व है। आज बहुत आनंद आया, इसी में मेरी पुष्टि होगी और उसका स्वाद लेवे आसक्ति से और उस ही में रम जाय यह कहलायी आसक्ति। अच्छा तो राग और ज्ञान क्या, राग हो रहा, उस राग में कुछ विचलितपना होता, स्वभाव की सुध से न हटे मानो, तो स्वभाव के उपयोग से तो हटा ही हटा जहाँ राग बन रहा है। और वह राग, वह पर्याय परिणमन केवल ज्ञान में रहे, यह हो रहा है याने राग के साथ मिलकर याने राग के कंधे पर हाथ डालकर चलना न बने, राग का केवल ज्ञान ही करे यह है राग, जैसे अन्य पदार्थ को जाना ऐसे ही एक रागपरिणमन जाना। यह बहुत ऊँची पदवी में होने वाली बात है, देखो यहाँ भी अंतर पाया जाता।
1168- ज्ञानी का उपभोग परिग्रहरूप न होने का कारण-
जिस अंतरात्मा ने अपने आपमें इतना बड़ा त्याग किया है, ऐसा महान पौरुष किया है कि जिसने इन रागादिक विभावों को अपने स्वभाव से अत्यंत निराला परख लिया है और समझ बनी है कि इन विकारों में फंसने से, इन विकारों में लगने से आत्मा का कुछ भला नहीं होने का, यह जहाँ दृढ़तम निश्चय है ऐसे पुरुष की यह कथा है कि पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकाज्ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोग:। तद् भवत्वथ च रागवियोगान्नूनमेति न परिग्रहभावम्। पहले अज्ञान में बाँधे हुए जो कर्म हैं उनकी सत्ता अब भी है। ज्ञान जग जाने पर बहुत सी निर्जरा तो हो जावे, सबकी निर्जरा नहीं होवे, अथवा ज्ञान जग जाने पर ही जितना जितना रागांश है उसके अनुसार बंध चल ही रहा था। तो ऐसे पूर्वबद्धकर्म के विपाक से यह उपभोग प्राप्त हुआ। बाहरी पदार्थ मिले, यह भी कर्मविपाक से। और, बाहरी पदार्थों में उपयोग देकर वहाँ कुछ लगाव बना, राग जगा, उपभोग बना मायने उसके अनुरूप ज्ञानविकल्प बना, यह भी भीतर बना तो ये दोनों ही विकल्प व बाह्य पदार्थों का संगम यह भी कर्मविपाक से हुआ और भीतर तो ज्ञानविकल्प जगा वह भी कर्मविपाक से जगा। एक है सातावेदनीय के उदय का फल, एक है चारित्रमोह के उदय का फल। तो अनेकों का जब एक ऐसा योग जुड़ गयाजिसे कहते हैं कि भानमती ने कुनमा जोड़ा, कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा, ये जो बाह्य पदार्थ है, इनका आश्रय बन गया, भीतर में ज्ञानविकल्प बना और इस तरह के उन सब समन्वयों में एक विधिपूर्वक राग बना। परंतु उसमें राग न होने से ज्ञानी का उपभोग परिग्रह नहीं बनता।
1169- रागवियोग होने से ज्ञानी के उपभोग की परिग्रहभावत्व से शून्यता- जो कुछ भी उपभोग हुआ चूंकि वह हुआ ज्ञानी के सो, वह सबकी पोल जान रहा, तो उसको राग नहीं उत्पन्न होता, कैसे? वह जानता है कि यह राग स्वभाव में तो है नहीं, पर में है नहीं, पर से आता नहीं, कर्म से आता नहीं। यह राग, जीवराग विषयों से आता नहीं, अन्य किसी से आता नहीं। हुआ तो यह जीव का परिणामरूप, किंतु जीव के स्वभाव से आता नहीं। तो यह तो लावारिस है। जैसे- देखा होगा कि जब कोई बालक खेलता हुआ बीच सड़क में पहुँच जाता है तो वहाँ रिक्शा वाले, ताँगा वाले कहते हैं- अरे चल, तू लावारिस है क्या, अपने घर में फालतू है क्या? तो इसी तरह ये राग, ये विकार लावारिसऔरफालतू हैं। क्योंकि इनको इस जीव ने सहारा नहीं दिया। जीव इनको पकड़ कर नहीं रहता। तो ये रागादिक विकार इस आत्मा की दृष्टि से लावारिस हैं। और, इनको कर्मों ने भी आश्रय नहीं दिया, कर्म अपने प्रदेशों में ही तो कुछ करेंगे, अपने से बाहर कुछ न करेंगे। कर्मों ने भी इन्हें आश्रय नहीं दिया, सो ये रागादिक विकार लावारिस रहे, इन लावारिसों का पालन पोषण कब तक है? जब तक इनमें यह जीव अपनायत किये हैं। इनको मानता कि मैं हूँ इनका वारिस, रो मत, तुम कहीं जाने न पावोगे, तुम मिट भी जावोगे तो हम तुम्हें फिर बना लेंगे। तुम दु:खी मत होओ, हटो नहीं।...यहाँ से ये अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव इन रागादिक विकारों के वारिस बने। तो जब तक यह जीव इन रागादिक विकारों का वारिस बनता है तब तक इनकी परंपरा चलती है, और तब तक इस जीव का संसार में परिभ्रमण चलता। किंतु जिस क्षण यह समझ में आ जायगा कि यहाँ किसका कौन? ये रागादिकविकार सब लावारिस हैं, ये सब मायारूप हैं, हुये हैं, इस ढंग में सही बात जान लें वहाँ फिर यह जीव इनको आश्रय नहीं देता। तो जब यह आश्रय ही नहीं देता अंतरात्मा तो ये उपभोग क्यों हो रहे, कैसे हो रहे? जैसे किसी कैदी को जेल के अंदर जबरदस्ती चक्की पिसवाये कोई सिपाही तो वह पीसने को पीसता है मगर उसको उसमें राग नहीं होता ऐसे ही आचार्यों ने इन शब्दों में लिखा कि इस पर विपाक कोतवाल के डंडे पड़ रहे, सो हो रहा उपभोग, मगर उसके इच्छा कहाँ है? उसका संबंध नहीं, क्योंकि ज्ञानी के राग का वियोग है, ऐसा वियोग होने के कारणज्ञानी के उपभोग आये तो भी वह परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होता। ऐसी बात सुनकर अपना सिर उठाकर नहीं चलना है कहीं कि मेरे तो कुछ परिग्रह होगा नहीं, किंतु भीतर में एक ठोस निगरानी करना है कि मेरे कामचार है, इच्छा है कि नहीं, मेरे में विषयों के भाव वासना जगती कि नहीं। यदि वासना जगती है तो उसके नाश करने का उद्यम करें। आगे आगे बढने के लिए आचार्यों का उपदेश होता है, नीचे गिरने के लिए आचार्यों का उपदेश कभी भी नहीं होता।