वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 147
From जैनकोष
तेन कांक्षति न किंचन विद्वान् सर्वतोऽप्यतिविरक्तिमुपैति ॥147॥
1170- ज्ञानी के राग न होने पर भी उपभोग का होना व उपभोग होने पर भी परिग्रहभाव न रहना-
प्रकरण यह चल रहा है कि ज्ञानी जनों को अपने अंदर में सहज परमात्मतत्त्व का दर्शन अनुभव होता है और उसके अंदर में विभोरता बन गयी है, बस अब उसे सिवाय एक इस सहज परमात्मतत्त्व के अन्यत्र कहीं रुचि नहीं है, ऐसा होने पर भी जैसा कि आप लोग भी अनुभव कर रहे हैं कि चाहते तो हैं कि मैं अभी अपनेइस स्वरूप में गुप्त हो जाऊँ, क्यों ये कष्ट लगे रहें, क्यों ये विपत्तियाँ सही जाय? इन असार बातों में क्यों बरबाद होऊँ? अभी ही इस स्वरूप में गुप्त हो जाऊँ ऐसी आप भावना रखते हैं और गुप्त हो कुछ नहीं पाते। हो जावो गुप्त, कोई रोकने वाला है क्या? यह तो आपका भीतरी काम है, आप ही कर डालेंगे, फिर भी नहीं कर पा रहे हैं तो अपनी ओरसे तो है अपनी कमजोरी और निमित्त दृष्टि से है ऐसा चारित्र मोह का तीव्र उदय, प्रतिफलन, सो यह अशुद्ध उपादान अपने उस तत्त्व का उपयोग छोड़छोड़कर उन बाह्य बातों में कुछ लगता है, ऐसी स्थिति है, ऐसा होने पर भी याने ज्ञानी जीव के पहले बँधे हुए कर्मविपाक से उपभोग आने पर भी और वह इंद्रिय द्वारा उपभोग को भोग रहा है तिस पर भी प्रतीति उसे निज सहज स्व की है, अतएव परिग्रह भाव को प्राप्त नहीं हो रहा वह उपभोग, याने वहाँ अनंतानुबंधी की बात चल ही नहीं रही है, और उपभोग हो रहा है।
1171- ज्ञानी के अतीत वर्तमान अनागत उपभोग का रागवियोग होने से अपरिग्रहत्व- ज्ञानी का उपभोग परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होता ऐसा हुआ क्यों? तो बात बाहर देखो, भीतर देखो। बाहर की बात तो यह है कि देखिये उपभोग तीन तरह के हुआ करते हैं, पहले भोगा था वह, अब भोग रहे हैं वह, आगे भोगें जायेंगे वे। तीन बातें हैं ना? अज्ञानी को तो तीनों का ही परिग्रह लगा है, जो भोगा गया था और अब नहीं है, पहले धनी था अब गरीब है तिस पर भी चार आदमियों में शान तो रखता ही है कि मेरे ऐसा था, मेरे द्वार पर सैकड़ों जूते उतरते थे याने लोगों की बड़ीभीड़ रहा करती थी, ऐसी शान मारने वाले लोग तो बहुत मिलेंगे जिन्होंने बीते हुए भोगों से चिपकाव लगा रखा है। अच्छा आगामी काल में जो मिलेंगे उपभोग उनके बारे में आशा, प्रतीक्षा, शेख चिल्लीपने की बातें करते, ये सब परिग्रह जम गए वहां, वह सार आवरण बना हुआ है। कहां से वे प्रभु के दर्शन करेंगे तो आगामी काल में मिलेंगे उपभोग, वर्तमान की कुछ बात ही नहीं है, मगर यह तो ऐसा बिक गया आगामी उपभोग के लिए कि यह अपने अंत: बसे हुए परम शरण सहज परमात्मतत्त्व का दर्शन नहीं कर सकता। तो जब भूत और भविष्य के उपयोग में यह बरबादी हो रही है तो वर्तमान में जो उपभोग हो रहा है उसकी बरबादी की तो कथा ही क्या कही जाय? एकदम आसक्त होकर भोगता है, यह है अज्ञानी की रिपोर्ट। और ज्ञानी का क्या हाल है कि वह सोचता कि जो बीत गए उपभोग वे तो बीत ही गए, अब उनका क्या ख्याल करना। जिसको वर्तमान उपभोग से भी अरुचि है, उनमें नहीं रम रहा वह पुरुष भूतकाल में भोगी हुई बात का कोई ख्याल बनायेगा क्या? उनकी कोई शान मारेगा क्या। भूतकाल में जो उपभोग किया वह तो गुजर ही गया। अब आगामी काल में जो उपभोग होंगे उनकी वह चाह कहाँ रखता? जब वर्तमान के उपभोगों से ही वह विरक्त है तो आगामी भोगों की क्या चाह करेगा? ज्ञानी को उपभोगों का परिग्रहपना नहीं प्राप्त हो रहा। 1172- ज्ञानी की बाह्य क्रियाओं से अपनी तुलना करने का अज्ञानी का व्यामोह-
ज्ञानी का उपभोग परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होता ऐसी बात सुनकर अज्ञानी यदि अपने मन में ऐंठ लगाये कि मैं क्या कम ज्ञानी हूँ, मेरा भी उपभोग परिग्रह न बनेगा सो बात ठीक नहीं। ज्ञानी की लीला ज्ञानी में है, अज्ञानी उस लीला को न पायेगा। एक ‘‘गधे की कहानी’’ नाम की किताब हमने बचपन में पढ़ी थी उसमें एक छोटी सी कथा लिखी थी कि एक धोबी के घर में एक गधा था, जो कि रूखा सूखा खाकर बोझा ढोने का काम करता था। उसी धोबी के घर एक कुतिया भी पली हुई थी जिसके छोटे छोटे पिल्ले थे। एक दिन धोबी उन पिल्लों को खिला रहा था। पिल्ले अपने पैरों के पंजे मारते थे, मुख से काटते भी थे फिर भी वह धोबी उन बच्चों को कभी गोद में लेता, कभी अपने कंधे पर बिठाता, कभी छाती से लगाता, बड़ा प्यार दिखाता था। यह दृश्य देखकर गधा बड़ा हैरान हो गया, सोचने लगा- अरे देखो मैं इस धोबी के कितना काम आता इसका सारा बोझा ढोता, हमारी वजह से इसके परिवार का पालन पोषण होगा फिर भी यह हमसे प्यार नहीं करता, देखो इन पिल्लों से कितना प्यार करता, जबकि ये पिल्ले इसके कुछ काम नहीं आते। अब उसकी समझ में आया कि शायद ये पिल्ले इसे पंजों से मारते, मुख से काटते इसीलिए प्यार पाते हैं। सो खुद ने भी वही उपाय किया। धोबी के पास आकर पैरों से मारना, मुख से काटना शुरू कर दिया। वहाँ प्यार मिलना तो दूर रहा, ऊपर से डंडे बरसे। अब गधा सोचने लगा- अरे हमसे क्या गलती हुई? काम तो वही किया जो पिल्लों ने किया, फिर क्यों डंडे बरसे? तो भाई सबकी जुदी जुदी बात है। ज्ञानी की बाह्य क्रियायें देखकर अज्ञानी नकल करता है तो भी वह अभी सही रास्ते पर नहीं है। ज्ञानी को अपने सहज परमात्मतत्त्व का दर्शन हुआ सो बाहर में उसका मन नहीं लगता, जबकि अज्ञानी पुरुष उन बाह्य क्रियाओं को करता हुआ उनमें आसक्त होता है। सो ज्ञानी की बाह्य क्रियायें उसके लिए परिग्रहरूप नहीं बनतीजबकि अज्ञानी की बाह्य क्रियायें परिग्रहरूप बन जाती है। देखिये अध्यात्मशास्त्र में सब कुछ वर्णन है, पर करणानुयोग का प्रकरण जब सुनते हैं तो वहाँ उस प्रकरण का ही मूड़ बनाकर सुनना होता है। नहीं तो बीच बीच में शंका होती कि राग तो 10 वें गुणस्थान तक है, वह भी बात सही है और छठे गुणस्थान तक तो प्रवृत्ति वाला भी राग है, जहाँ जितना होता। इस प्रसंग में यह अटक न रखना। यहाँ बुद्धि पूर्वक बात चल रही है कि ज्ञानी की रुचि कहाँ लगी है और उस प्रयोग से क्या परिणाम बन रहा है। हाँ तो वर्तमान उपभोग को कैसा अलग सा होकर भोग रहा ज्ञानी। उसके लिए और दृष्टांत बहुत हैं कि वह प्रवृत्ति में है और प्रवृत्ति में लिप्त नहीं है, मन भले की ओरहै और प्रवृत्ति करनी पड़ती है कुछ। ऐसा ज्ञानी का जो कदाचित् उपभोग है वह परिग्रहपने को प्राप्त नहीं होता।
1173- ज्ञानी के भविष्य उपयोग में आकांक्षा न होने का कारण- अब यहाँ थोड़ा कुछ कुछ यह तो समझ में झट आ जाता कि जो अतीत भोग हैं, जो गुजर गए, बीत गए उनका क्या ख्याल करना? लोग समझाते हैं कि क्यों मूर्ख बनते? क्यों गई बीती बातों का उखाड़ करते ! यह तो झट समझ में आ जायगा। वर्तमान की बात भी कुछ कुछ बतायी जा सकती, पर यह बड़ा मुश्किल है कि आगामी उपभोग की चाह न करें। तो कहते हैं ना कि ऐसा पुरुष दूकान भी जायगा, कमायी भी करेगा, गृहस्थी से संबंधित सब काम भी करेगा फिर भी कह रहे कि यह ज्ञानी इच्छा ही नहीं करता तो यह कैसी बात है? तो साधारणतया तो जो बात अतीत और वर्तमान के उपभोग में है वही बात भविष्य के उपभोग के प्रति है साथ ही एक बात और भी है कियह मोही जीव उपभोग चाहता। मुझे ऐसे ऐसे उपभोगमिलें। अच्छा अब एक रहस्य की बात और सुनो- इन आगामी चीजों की चाह में कितना समय गुजर गया। जैसे मानो जो 10 वर्ष बाद मिलेगा तो 10 वर्ष तो चाह की दाह में चले गए- यह मिले, यह मिले, और जब यह वस्तु मिली तो उस समय उसकी चाह न रही। वह तो मिली हुई है, वह तो भोग में है, उसकी अब चाह नहीं रही तो जो 10 वर्ष तक चाह की थी और उसका जो कष्ट सहा वह तो फोकट ही सहा। यदि इच्छा के समय ही कदाचित् वह चीज मिली हुई होती तो उसका वह आनंद भी मानता, अब उसकी चाह नहीं रही तब वह चीज मिली तो उसका मिलना भी किस काम का? 1174- आकांक्षा की निष्फलता का एक दृष्टांत-
एक कथानक है कि एक बार कोई राजपुत्र किसी नटकी लड़की पर आसक्त हो गया, उसके साथ अपना विवाह करना विचारा। नट के यहाँ खबर भेजी तो नट को वह बात सुनकर बड़ा बुरा लगा। नट बोला- अरे वह अनट हमारी लड़की कैसे ले जा सकता? तो लोगों ने समझाया कि भाई तुम्हारी लड़की उस राजपुत्र के घर बहुत सुख से रहेगी, उसके साथ विवाह कर देना ठीक है। तो नट बोला- अच्छा यह बात हमें स्वीकार है, पर उस राजपुत्र को एक काम करना होगा। पहले हमारी जैसी सारी नटकलायें सीखे- जैसे कुलाटें नानाविध लगाना, रस्सी पर चलना, बाँस पर ऊपर गोल गोल घूमना आदि...तब हम अपनी लड़की का विवाह उसके साथ कर देंगे।...ठीक है। आखिर उस राजपुत्र को वे सब कलायें सीखने में 10-12 वर्ष लग गए। जब सब कलायें सीख लीं तो वह नट बोला- अब इसकी परीक्षा होगी। अगर इन सारी कलावों में उत्तीर्ण हो गए तो अपनी लड़की का विवाह राजपुत्र के साथ कर देंगे। होने लगी परीक्षा, दर्शकों की अपार भीड़ थी। वह राजपुत्र अपनी सारी कलायें दिखा रहा था। उसी प्रसंग में उसको ऐसी ग्लानि जगी- अरे कहाँ तो मैं राजपुत्र और कहाँ यह नट का काम, धिक्कार है मुझे जो नट की लड़की से विवाह करने के लिए बारह वर्ष व्यर्थ गमाये। देखिये उस लड़की से विवाह करने की चाह अब न रही।बारह वर्ष तक बराबर चाह बनी रही। अब तो वे सभी नट लोग उस राजपुत्र से अपनी लड़की का विवाह करने के लिए हाथ जोड़ते फिर रहे, पर वह राजपुत्र अब विवाह करना स्वीकार न करे। देखिये जब चाह थी तब चीज न मिली और जब चीज हाजिर है तब चाह न रही। संसार की यही रीति है। हाथ में रखी हुई वस्तु के बारे में कौन चाह करेगाकि मुझे मिल जाय? अरे मिली हुई तो है ही, और कोई चाह है तो तब ही तो है जब कि वह चीज पास नहीं है।
1175- वेद्यवेदकविभाव की अस्थिरता के तथ्य का परिचय होने से आगामी उपभोग में आकांक्षा का अभाव-
अब इससे भी और सूक्ष्म बात पर आइये- दो भाव ये कहलाते हैं वेद्यभाव और वेदकभाव। वेद्यभाव मायने इच्छा वाला भाव- यह चीज चाहिए। जो वेदन के योग्य हो, जो चाह हो रही है, इच्छा हो रही है उसे कहते हैं वेद्यभाव। और वेदकभाव- वेदयते इति वेदक:, जो वेदन करे, भोगे ऐसा भाव, मायने भोगने का भाव और चाहने का भाव। चाह और भोग ये दो भाव हैं, और यह देखो कि ये पूर्वोत्तर समय में होते, एक समय में हो ही नहीं सकते जीव के वेद्य और वेदकभाव, चाह और भोग के भाव कथमपि एक समय में नहीं होते। जब चाह है तो भोग कहां और जब भोग है तो चाह कहाँ तो ज्ञानी ने यह समझा कि चाह करना बिल्कुल व्यर्थ है। अरे मोटे रूप में राजपुत्र के दृष्टांत में देख लो, आखिर उस नट की लड़की की चाह में 10-12 वर्ष खाये, पर अंत में फल कुछ न निकला। फल तो बहुत अच्छा निकला, वैराग्य ऐसा जगा कि जो घर में न जग पाता। एक हित घटना घट गई, मगर जो चाह की थी वह काम तो न हुआ। सूक्ष्म रूप में देखो जिस समय में वेद्यभाव होता, उसके बाद फिर उसका वेदकभाव होता। तो अब वह वेदकभाव जो हुआ, एक मिनट में वेद्य, दूसरे में वेदक, तो वह वेदक उस वेद्यको कैसे भोग पायेगा? वह तो मिट गया। पहले मिनट का वेद्यभाव समाप्त हुआ तो फिर कहां दूसरे मिनट में वही वेद्य रहा। दूसरी इच्छा जब हो गई तो पहले के भोगने का भाव खतम। भोगना और चाहना, जब भोगना हो रहा तब उसका चाहना नहीं हो रहा और जब चाहना हो रहा तो उसका भोगना नहीं हो रहा, जो चाह है उसका उसी समय भोगना नहीं बन सकता और जब भोगना हो रहा तब उसी समय उसकी चाह नहीं बन सकती। तो जब भोगना नहीं होता तो फिर उस वस्तु के चाहने से मतलब क्या? ऐसा यह ज्ञानी परख रहा है।
1176- ज्ञानी के संसार शरीर भोग से वैराग्य–
ज्ञानी आगामी भोगों की भी कोई चाह नहीं रखता, ऐसी स्थिति है तो वह संसार, शरीर, भोग इन सबसे अत्यंत वैराग्य को प्राप्त होता है। संसार, शरीर और भोग ये तीन नाम ऐसे धरे जैसे मन, वचन और काय। कहीं काय, वचन और मन भी लिखा। अच्छा बोलने की पद्धति में है मन, वचन, काय। काय बहुत बाहर की बात है, वचन उससे कुछ अंदर की बात है और मन यह तो उससे भी अंदर की बात है। संसार, शरीर, भोग में बाहर की बात है। पंचेंद्रिय के जो ये दृश्य विषयभोग के साधन हैं ये बाहरी चीज हैं, इनका भोग उससे अंदर के और निकट की बात है। कुछ और निकट आये तो यह शरीर का भोगना, इसमें अध्यवसान बनना हुआ, और उससे निकट है संसार मायने रागद्वेष भाव। इस रागद्वेष भाव में लगना। ज्ञानी जीव इन तीनों से विरक्त है। भोगने की बात तो अभी बतायी गई कि क्या लाभ है किसी भोगोपभोग की वांछा करने में।
1177- भोगोपभोग से विरक्त होकर शेष जीवन को अविकार अनंतस्तत्त्व का उपयोग करके सफल बनाने का अनुरोध- भोगोपभोग में होता क्या है? जैसे यहाँ किसी को अज्ञान जगा और उससे पहले बहुत बातें हो गई- बाबा गुजरा, पिता गुजरा, माँ गुजरी, स्त्री गुजरी, पुत्र गुजरा, कुछ भी बात हुई तो यह ज्ञानी सोचता कि वह सारा जीवन तो बिल्कुल व्यर्थ गया। अगर ऐसा ज्ञान बचपन से ही होता तो मेरा कल्याण होता। वह सब समय व्यर्थ गया। जिसका जो समय गुजर गया वह अपेक्षाकृत देखो तो व्यर्थ गया तो अब जो समय शेष रहा उसका सदुपयोग कर लें। उसका सदुपयोग यही है कि आत्मध्यान, स्वभावरुचि, स्वभावाश्रय, सर्वजीवों में उदारता, समता हो किसी जीव को विरोधी न समझना। किसी जीव को अपना शत्रु न मानना। किसी जीव में अनिष्टपना का भाव न आये, ऐसा गैरपने का भाव एक विघ्नरूप भाव है जो इसको परमात्मा अंतस्तत्त्व का अनुभव नहीं करने देता। ऐसा अपने हृदय को स्वच्छ बनावें तो सब जीव एक समान नजर आने लगेंगे। साधर्मी साधर्मी एक से नजर में आयें यह तो बहुत ही आवश्यकीय बात है, मगर एकेंद्रिय दोइंद्रिय आदिक जो जीव है, पशु, पक्षी, कीट पतिंगा वगैरह जो जीव हैं इनके भी स्वरूप को निरखकर समता का भाव जगे। जो मैं हूँ सो ये हैं। केवल स्वरूप को देखकर यह निर्णयहोता। उसको देखकर सब जीवों में ऐसा समता का भाव जगे, यह तैयारी बने, भीतर में यह स्वच्छता बने, हम अपना कल्याण कर जायेंगे। 1178- अहंकार छोड़कर विनयप्रयोग से अपने अंतस्तत्त्व में आने का संदेश- भैया कितनी सी जिंदगी रही? इस थोड़ी सी जिंदगी के लिए क्रोध, मान, माया, लोभ, कपट, छल, माया: आदिक बातों में लगना यह तो बड़ी मूढ़ता जैसी बात है सबका आदर करें। सबको अपना अपना समझें बल्कि अपने से भी अधिक। पद का क्या घमंड? कोई किसी बात में कुशल होता कोई किसी बात में। किसी को सर्वविषयों में पांडित्य मिल जाय, ऐसा होना तो कठिन है, हाँ केवलज्ञान में सर्वविद्याओं का पूर्ण पांडित्य पड़ा हुआ है। उससे पहले क्या? यहाँ एक दृष्टांत देते हैं कि कोई एक नवयुवक था वह बी-काम पास हुआ तो उसकी खुशी में उसने सोचा कि अब समुद्र में सैर करना चाहिए सो पहुँचा वह एक नाविक के पास, और बोला- हमें समुद्र में सैर करना है, क्या लोगे? दो रुपये। ठीक है चलो। वह नवयुवक नाव में बढ़ गया, नाविक का लड़का नाव खेने लगा। नाव कुछ थोड़ी चली ही थी कि वह नवयुवक उस नाविक से कुछ बातें करने लगा घमंड था ही अपनी विद्या का, सो बोला- अरे नाविक तूने कुछ ए. बी. सी. डी. सीखा कि नहीं ?...नहीं मालिक।...तो क्या हिंदी भी नहीं पढ़ा?...नहीं मालिक।...और तेरे बाप ने?...बाप ने भी नहीं पढ़ा।...बस ऐसे ही नालायक, मूर्ख,...लोगों ने ही तो इस भारत देश को बरबाद कर दिया। खैर सुन लिया सब गाली, क्योंकि बेचारा पढ़ा लिखा तो था नहीं। कुछ ही देर में नाव कोई एक मील की दूरी पर पहुँच गई अब वहाँ एक ऐसी भँवर उठी कि नाव डगमगाने लगी। वहाँ वह बी. काम बहुत घबड़ाया। नाविक से बोला- अरे अब क्या होगा प्राण बचेंगे भी या नहीं? तो वहाँ नाविक बोला- बाबूजी नाव तो डूबने से बच नहीं सकती, हमें आप छुट्टी दें, हम तो तैरकर बाहर निकल ही जायेंगे। अरे भाई ऐसा न करो, जैसे भी बने, प्राण बचाओ।...तो क्या आप तैरना नहीं जानते?...नहीं जानते...अरे नहीं जानते क्या बिल्कुल नहीं जानते? हाँ बिल्कुल नहीं जानते। तो जितनी गालियाँ उस नवयुवक ने दी थीं उतनी ही गालियाँ देकर कहा- ऐसे ही नालायक मूर्ख लोगों ने तो इस भारत देश को बरबाद कर दिया। तो भला बतलाओ सर्व कलाओं में निपुणता यहाँ किसे मिल पाती? कोई किसी कला में निपुण होता कोई किसी कला में। यहाँ किसका अहंकार। और, फिर अपना-अपना ज्ञान सबको बहुत अच्छा लगता। मैंने खूब समझ लिया, में बहुत जानकार हूँ, ये लोग क्या समझेंगे? किसी को थोड़ा भी ज्ञान हो तो उसे ऐसा लगता है कि हममें बहुत चतुराई है, लेकिन ये सब बातें थोथी हैं, बेकार हैं। 1179- आत्मस्वभावविज्ञान बिना सर्वश्रमों की अकिंचित्करता-
भैया किसी को ज्ञान कम हो तो क्या, अधिक हो तो क्या? जिसने अपने सहज स्वभाव का परिचय नहीं किया, उसके लिए बड़े-बड़े ज्ञान भी क्या करेंगे? और आत्मदृष्टि, आत्मा का आश्रय बैल को, घोड़े को, बंदर को, नेवले को या सप्तम नरक के नारकी को मिल जाय तो क्या यह हो नहीं सकता? हो सकता है। सम्यग्दर्शन इनके भी जागृत हो सकता है। बताओ इन पशु पक्षियों को कौन सिखाने गया जो हो जाते ये सम्यग्दृष्टि। देखो मनुष्य सम्यग्दृष्टि श्रावकों से अधिक संख्या इन तिर्यंच देशविरत व सम्यग्दृष्टियों की है। यहाँ श्रावक तो बहुत थोड़े हैं,तो किसे क्या कहेंगे हम? कौनसी बात पर गर्व किया है, सो भैया, सब गर्व छोड़कर एक नम्रता अपने में लायें, विनय भाव अपने में लायें। अपने ही स्वभाव, अपने ही भगवान आत्मतत्त्व की ओरही यह उपयोग विनीत कर लें।
1180- स्वरूपसम जीवों को निहारकर सर्वसाम्यभाव करने का कर्तव्य-
भैया, आदर दो सब जीवों को। पर्याय के व्यवहार से पर्याय का व्यवहार चल रहा, तो उनके ढंग का तो बनाओ व्यवहार। सबको आदर करें। ज्ञानस्वरूप ही तो है दूसरा। उसी को ही निरख करके अपने में गर्व न लायें और अध्यात्मसाधना से, व्यवहार से अपने को सुरक्षित बनायें और भीतर में अध्यात्मसाधना से अपने मोक्षमार्ग में बढ़ लें। यह ही मार्ग जो अपना रहा उस ज्ञानी की बात चल रही कि वह भोगों से विरक्त है।
1181- ज्ञानी की शरीर और संसार से निर्विण्णता-
यह ज्ञानी शरीर से विरक्त है। बहुत मोटी बात है कि यह शरीर किसी दिन जलेगा, मिटेगा, सदा तो नहीं रहने का। इतनी बात देखकर भी विरक्त हो सकते। और, शरीर क्या है? मल भीतर भरा है। अरे बहुत भीतर नहीं, बाहर भी मल है। जरा सा एक सूत भी यह नाक रानी नासिका द्वार से बाहर निकल पड़े तो इस शरीर के प्रति ग्लानि हो जाती है। ऐसा यह अपवित्र देह है। यह शरीर आहार वर्गणाओं के परमाणुओं का पुंज है। और यह मैं आत्मा चैतन्य प्रकाशमय हूँ, ऐसे अंतर का ज्ञान करे। ऐसे ही संसार रागद्वेष मोहभाव ये नैमित्तिक हैं, परभाव हैं, ये कर्मरस हैं विकार, उनका ही तो फोटो है, यही तो लीला है। जैसे दर्पण के सामने फोटो आयी तो झट ज्ञान होता है कि यह वस्तु दर्पण की कुछ नहीं है, इसी प्रकार जितने भी विभाव हैं वे सब कर्मरस हैं, मैं उनमें पड़ गया सो मैं विकल्पस्वरूप बन गया। ये मेरे नहीं, ये तो मेरी बरबादी के लिए हैं।ऐसा संसारी जीवों के प्रति उस ज्ञानी का चिंतन है। तो यह ज्ञानी सभी बातों में अत्यंत विरक्ति को प्राप्त होता है। जिसके न भोगों में रुचि, न अन्य में रुचि, न रागद्वेष मोहभाव में रुचि, ऐसे व्यक्ति को देखकर तो लोग कहेंगे कि इसको कोई बड़ी बीमारी है, इसको तो भोगों में रुचि ही नहीं होती। इसको कोई बड़ी कठिन बीमारी लग गई, अज्ञानी जन तो यों कहेंगे। ज्ञानी की लीला को दूसरा कोई क्या समझें? अज्ञानी क्या समझे कि ज्ञानी को कौनसा बल मिला, कौनसा आश्रय मिला, जिससे सारे कर्मविपाक, कर्मरस, उपभोग आदिक बातें किसी ज्ञानी में आती तो भी वे पदार्थ परिग्रह को प्राप्त नहीं होते। वह सब बल है अपने सहजपरमात्मतत्त्व चैतन्यस्वभाव दर्शन का। उसमें अनुभव आनंद मिला। अब अनुपम स्वाधीन निराकुल आत्मीय आनंद को तजकर ज्ञानी पराधीन दु:खमय उपभोगों को कैसे चाहे। अंत: राग न होने से ज्ञानी उपभोग में लगता नहीं, फिर भी कर्मविपाकवश उपभोग आ पड़े तो वह उपभोग ज्ञानी के परिग्रह भाव को प्राप्त होता नहीं।