वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 149
From जैनकोष
लिप्यते सकलकर्मभिरेष: कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न ॥149॥
1187- ज्ञानी की सर्वरागरसवर्जनशीलता- ज्ञानवान पुरुष, ज्ञानी पुरुष, जिसने अपने चैतन्य महाप्रभु की आराधना का दृढ़तम अभ्यास कर लिया है वह स्वरसत: स्वयं ही अपनी प्रकृति के कारण, अपनी ही आदत से वह समस्त राग रस को छोड़ने के स्वभाव वाला है, जैसे स्वर्ण कीचड़ को, मल को छोड़ने का स्वभाव रखने वाला है। कोई लोहा पड़ा हो और उसमें जरा सा कीचड़ लग जाय तो कुछ ही काल में उसमें जंग लग जाती है, लोहे में जंग लग जाने का स्वभाव पड़ा है, लोहा जंग को, कीचड़ को, मल को स्वीकार कर लेता है, पर स्वर्ण चाहे कीचड़ में कितने ही दिन पड़ा रहे पर वह उसे स्वीकार नहीं करता। जैसे दृष्टांत दिया है कि स्वर्ण का स्वभाव उस जंग से, कर्दम से, कीचड़ से, मल से अलग ही रहने का है ऐसे ही ज्ञानी जीव का स्वभाव समस्त राग से अलग ही रहने का है। कहाँ उपयोग गया, बस इसकी तारीफ है। ज्ञानी का उपयोग अपने आपके सहज स्वरूप में यह ही मैं हूँ इस प्रकार कीप्रतीति में बना हुआ है इसलिये वह समस्त रागरस में परिहरण का स्वभाव वाला ही है। आ रहा है राग तो आये। 1188- स्वभावोन्मुखता की दृढ़ता का प्रभाव-
इस प्रसंग में हमें अपनी एक बचपन की याद आयी। उस समय हमारा विद्यार्थी जीवन था।
हमको खूब तेज बुखार चढ़ गया, ऊपर से लिहाफ ओढ़े हुए थे, कुछ झपकी सी आयी, वही स्वप्न आया कि हम नीचे पड़े हुए हैं और हमारे ऊपर से रेलगाड़ी जा रही है। (यह स्वप्न की बात कह रहे) और हम अपने अंदर में एक बहुत कड़ा दिल करके, एक तेज ऐंठ सी बना करके पड़े हुए थे। वहाँ हम बार बार यह देखते जा रहे थे कि अभी रेलगाड़ी कितनी निकलनी और बाकी रह गई। थोड़ी देर में स्वप्न में ही क्या देखा कि रेलगाड़ी हमारे ऊपर से पार हो गई। और बड़ा विश्राम पाया नींद खुली, स्वप्न भंग हुआ, क्या देखा कि खूब तेज पसीना बह रहा था और चढ़ा हुआ सारा बुखार मिट गया था। तो जैसे वहाँ स्वप्न में अंदर में एक कड़ा दिल बनाकर एक बड़े मौज से श्वास लेकर आराम से पड़ गए तो रेलगाड़ी भी ऊपर से निकल गई याने उपद्रव भी निकल गया, ऐसे ही ये उपभोग आये हैं, यह मानो ज्ञानी के ऊपर से रेल निकल रही। इसे एक उपद्रव सा समझिये। स्त्री पुत्रादिक संबंधी दिख रहे हैं, कुछ स्नेही की बात बोल रहे, ये उपभोग हैं, ये उपद्रव हैं। इनके बीच में ज्ञानी भीतर ऐसा एक कड़ाका का वातावरण लिए हुए है कि भीतर में आँच नहीं आने देता। ये उपभोग चल रहे हैं, मगर अभिप्राय में, आशय में भीतर में, उनकी हवा नहीं लगने देता, ऐसी कोई विकट स्थिति होती है ज्ञानी जीव की। इसी को कहते हैं रागरसशक्ति। वहाँ राग है, पर उसके रस से रिक्त है, उसका रस नहीं ले रहा है। वैसे चम्मच का दृष्टांत लोग देते खराब बात के लिए कि दाल, साग वगैरह के बीच रहकर भी वह चम्मचउसका स्वाद नहीं ले पाती। अब उसको अच्छी बात के लिए भी समझ लो कि वह चम्मच इतनी अलिप्त रह रही कि ये सब बातें आ रहीं, दाल साग वगैरह चलाने की, उनके बीच रहने की मगर उनके स्वाद का कुछ भी असर उस चम्मच पर नहीं होता। ऐसे ही ज्ञानी का दिल कहाँ लगा है, कहाँ चित्त है, कौनसी बात सुहाती है उसे ज्ञानी ही जानें। उसका एक दृढ़तम निर्णय है कि सहज स्वभाव का आश्रय ही इस जीव को संसार के दु:खों से पार कर सकता। दूसरा कोई उपाय नहीं है, और जिसमें यह निर्णय बना है वह जैनागम के समस्त उपदेशों को इस तरह से ढालेगा कि वह स्वभावाश्रय की ओरजायगा। उसके एक यही कला है, एक यही बात लगी है, उसको किसी जगह विवाद ही नहीं लगता, क्योंकि उसने एक काम निश्चित कर लिया। उसके तो एक काम है दूसरा नहीं। 1189- ज्ञानी के सदाशय की विजय-
जिसके दिल में जो हो उसकी ओर ही वह चलता है, कोई जबरदस्ती भी लगता है तो जबरदस्ती की तो पोल खुल जाती हैं और जो हृदय से लगता है उसकी बात निभ जाती है। तो यह ज्ञानी पुरुष समस्त राग रस से परिहरण का स्वभाव वाला है इस कारण कर्म के बीच में गिरा हुआ होने पर भी कर्म से अलिप्त है, कौन सा कर्म? ये जो ज्ञानी उपभोग कर रहा, ज्ञान विकल्प कर रहा या जो भी इसमें विकल्प हो रहे इन कर्मों के बीच पड़े हुए भी समस्त कर्मों से लिप्त नहीं होता अभिप्राय बहुत महत्त्व की बात है। आपका मित्र है और उस मित्र के द्वारा कोई क्रिया ऐसी बन जाय कि जिससे आपका ही बिगाड़ हो जाता है तो भी आप मित्र पर गुस्सा नहीं होते, क्योंकि आप जानते हैं कि इस मित्र का तो हमारे हित के लिए भाव रहता है, भाई उदय था, हो गया ऐसा, पर मित्र का तो उसके लिए अच्छा ही भाव है, अभिप्राय की कितनी कदर होती है, जिसका जितना अभिप्राय मिल गया वही तो उसका मित्र कहलाता। और, उस मित्रता में उस अभिप्राय के मेल के प्रसंग में कदाचित् कुछ हल्की भी बात हो जाय, कुछ अपमान भरी बात भी हो जाय तो भी वह बड़ा सुखद हो जाता है। भली प्रकार सहन हो जाता है। वहाँ बिगाड़ नहीं होता। जिसका अभिप्राय बुरा है- उसकी जरा सी भी बात चाहे अच्छी भी थोड़ी बहुत हो फिर भी बुरी लगती है। वहाँ मन नहीं जमता। माँ अपने बच्चों को बहुत मार भी देती, बच्चा रोता भी है और रोते हुए में भी उस माँ से ही वह चिपटता है। और कोई दूसरा पुरुष उस बच्चे पर आँख जरा सी तेज निकाल दे तो वह रोने लगेगा, डर जायगा, और उसका हितैषी भी उससे लड़ेगा। तो अभिप्राय का बहुत बड़ा महत्त्व होता है। इस ज्ञानी जीव का आशय, अभिप्राय, दृष्टि अपने अंतस्तत्त्व की ओरहै। उसे सर्वत्र बस स्वभावाश्रय की ही बात दिखती है। स्वप्न भी आयगा तो स्वभावाश्रय की बात का आयगा। और जैसे स्वप्न में और और बातें देखता ना- यह पर्वत है, यह नदी है...ऐसे ही स्वानुभव में जो स्थित होता है उसके भी स्वप्न हुआ करता है। जो बात लगी है, दिल में वही बात पड़ी है, वही बात स्वप्न में भी आती है। तो बस एक उपयोग भूमि को विशुद्ध करने में कितना बल लगाना पड़ता है। निष्क्रिय, अबल, निर्मल, ध्रुव अविकार स्वभाव को देखो।
1190- जीवविकार की नैमित्तिकता-
प्रत्येक पदार्थ अपने आप ही अपने स्वरूप से अविकार होते हैं। चेतन हो या पुद्गल हो या कुछ भी द्रव्य हो, अपने आप अपने स्वरूप में ही हैं सब। जीव पुद्गल का कुछ संपर्क बनता है। फिर वहाँ विषय स्थिति बनती है, विकार होते हैं, हों, तिस पर भी स्वभाव देखो तो सबका अविकार स्वभाव है। यदि स्वभाव में विकार आ गया तो वह विकार फिर सदा रहेगा। किसी के मिटाये मिट ही नहीं सकता, कोई उद्यम ही नहीं बन सकता। स्वभाव में विकार नहीं होता, तभी बड़ी दृढ़ता से, निश्चय से कुंदकुंदाचार्य ने, गाथा में कहा उसकी टीका में अमृतचंद्रसूरि ने कहा है कि ‘‘न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्नो याति यथार्ककांत:। तस्मिन्निमित्तं परसंग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत्।’’ एक तो जातु शब्द लगा- तज्ञिमिन्निमित्तं परसंग एव। एक एव शब्द डाला कि उस विकार में निमित्त पर का संग ही है, और यह वस्तु का स्वभाव है। यों इसे वस्तुस्वभावोऽयं कहा, उदेति तावद्, तावद् शब्द भी बड़े महत्त्व का होता है निश्चयपूर्वक, याने 4-4 शब्दों से दृढ़ता लाये हैं कि आत्मा अपने विकार में खुद निमित्त नहीं हो पाता। इसमें निमित्त परसंग ही है, और तभी तो देखो उस विकार को नष्ट करने की तरकीब बन जाती है। अगर विकार में कोई निमित्त न हों और इसमें ये विकार हो रहे तो उनको नष्ट करने का कोई उपाय संभव नहीं हो सकता। चूंकि ये औपाधिक हैं, नैमित्तिक हैं, संपर्कज हैं, इसलिए ये स्वभाव में स्थान नहीं पाते, इस स्वभाव में प्रतिष्ठा नहीं पाते। जैसे दर्पण के सामने लाल पीली हरी कोई वस्तु रखी है, या कपड़ा रखा है तो उस दर्पण में वह रंगीन फोटो आयी। वह फोटो कपड़े की नहीं है, मगर कपड़े का सन्निधान पाकर हुई अतएव सभी लोग उसे कपड़े का फोटो कहते हैं। फोटोरूप जो परिणमन है वह तो दर्पण की स्वच्छता का विकार है। वह उसका परिणमन है उस काल में। ऐसा होने पर भी सब लोग जानते हैं कि यह फोटो यह प्रतिबिंब दर्पण में प्रतिष्ठित नहीं है। हो तो गया, आधार तो है, मगर दर्पण में प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होता। हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह औपाधिक है। जब यह जाना कि यह कर्मराग मेरे में मात्र प्रतिफलन है, यह औपाधिक है, मेरे स्वरूप की चीज नहीं है, निमित्तनैमित्तिकयोग है ऐसा कि यहाँ यह जीव अपने में ज्ञानविकल्प बना लेगा, लेकिन ये विकार स्वभाव में प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं हो सकते। अगर ये स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जायें, स्वभावरूप हो जायें, स्वभाव के परिणाम बन जायें तब फिर वे किसी भी उपाय से हटाये नहीं जा सकते।
1191- रागरसरिक्त होने से कर्ममध्यपतित होने पर भी ज्ञानी की कर्मालिप्तता-
ज्ञानी सब तरह से अपने को देख रहा। निश्चय से अपना एकत्वस्वरूप देख रहा, व्यवहार से गड़बड़ियों की पोल देख रहा, उपेक्षा भी कर रहा, अपने में लीन हो रहा। आजादी के दो ही तो उपाय हैं- (1) असहयोग और (2) सत्याग्रह। अन्य भावों का, विभावों का असहयोग और सहज सत्य स्वरूप जो सत्यं शिवं सुंदरम् है उस पर आग्रह है। ये दो बातें ज्ञानी करता है अत: उसकी यह स्थिति है कि वह रागरसरिक्त है।ज्ञानरस युक्त है सर्व रागरस से जुदा रहने का उसका स्वभाव है, इसलिए कर्म के मध्य पड़ा हुआ भी ज्ञानी कर्म से लिप्त नहीं होता। जो कर्ममध्य पतित नहीं, वह कर्म लिप्त नहीं, यह तो उभय सम्मत है, मगर ज्ञानी कर्म के मध्य में पतित हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता। यहाँ अपि शब्द से यह ध्वनित होता है कि उसमें संदेह ही नहीं, लेकिन ज्ञानी कर्म के मध्य में पड़ा हुआ भी क्रियायें नहीं करता, मन, वचन, काय की चेष्टायें उसकी बंद हो गई, वह तो केवल अंतस्तत्त्व का ही अनुभव कर रहा, उसकी बात तो है ही ऐसी, मगर वह ज्ञानी जीव कदाचित् उपभोग भी करता हो, तो भी वह कर्मों से लिप्त नहीं है।