वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 154
From जैनकोष
सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमंते परं
यद्वज्रेऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्ताध्वनि । सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंकां विहाय स्वयं जानंत: स्वमवध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवंते न हि ॥154॥
1222- सम्यग्दृष्टि का अद्भुत साहस-
जिसने अपने सहज ज्ञानस्वरूप का अनुभव किया और उस अनुभव के ही साथ अलौकिक परम आनंद से तृप्ति पायी ऐसा पुरुष इस ही ओर धुन रखता है।थोड़ा कर्मविपाकवश उपयोग यहाँ वहाँ भी चलता हो तो भी धुन और प्रतीति अपने आत्मस्वरूप की ओर ही है, परमशरण क्या? मेरा सर्वस्व क्या? बस यही सहज शुद्धात्मतत्त्व का अनुभव। ऐसा जिसने आभास किया, ऐसा पुरुष कैसी भी हालत आये मगर अपने इस ज्ञानस्वरूप से च्युत नहीं होता है। यह साहस अपने आपके सही शुद्धस्वरूप की प्रतीति से च्युत न हुए सम्यग्दृष्टि में ही होता है। सम्यग्दृष्टि पुरुष हो ऐसा साहस रखता है कि कोई ऐसा वज्र भी गिर जाय जिसके भय से तीनों लोक के जीव अपना मार्ग छोड़ दें तो ऐसे समय में भी चूंकि सम्यग्दृष्टि ने अपना सर्वस्व अपने में पाया है, अतएव वह निसर्गत: निर्भय रहता है। उसे कोई शंका नहीं होती। वह जानता है कि मेरा जो स्वरूप है वह है अबध्य। किसी भी प्रकार दूसरे के द्वारा बंध बंधन में आ सकने योग्य नहीं है।
1223- सम्यग्दृष्टि के अलौकिक साहस का आधार-
सम्यग्दृष्टि का यह साहस किन किन चिंतनों के बल पर है? प्रथम तो स्वरूप चिंतन, अपना जो सहज ज्ञानस्वरूप है उसमें ही इसकी ऐसी दृढ़ भावना है, सही निर्णय है कि मैं तो यह हूँ, बाकी तो विनाशीक पर्याय हैं, हो गई हैं, औपाधिक हैं, ये मैं नहीं हूँ, मैं तो शाश्वत सहज ज्ञानस्वरूप हूँ। यह प्रतीति का बल है जो इतना साहस हुआ है ज्ञानी को। बाहर में क्या कैसा परिणमन होता? तो यह उसका निर्णय है कि जो भी बात जिस विधान से जिस निमित्त योगपूर्वक जिस उपादान में जैसी बात बने सो बने, मगर वह सब सर्वज्ञ देव द्वारा व अवधिज्ञानियों द्वारा ज्ञात तो हो ही जाती। अब सर्वज्ञ तो हमें मिलते नहीं, लेकिन अवधिज्ञानीद्वारा भी तो ज्ञात है। तो जो जान गया है वही तो होने का है यद्यपि जाना गया है वही कि जो बात जहाँ जिस विधि से जिस योग में होने को है होती है, कुछ भी बात बने, निष्पत्ति विधि भी सही है, पर जान तो लिया गया। अब जो जान लिया गया होगा, होगा वह ही विधिपूर्वक, मगर यह तो निर्णय हो गया कि क्या विह्वलता करना- जो जो देखी वीतराग ने सो सो होसी वीरा रे। उसे इतना बड़ा धैर्य रहता है। दूसरी बात निष्पत्ति योग में, उसको वहाँ भी क्या घबड़ाहट? कुछ भी बने आत्मस्वरूप से तो च्युत न होगा, स्वभाव तो इसका अमिट है। स्वभाव कभी खंडित नहीं होता। मैं अवध्य हूँ, मेरा कहीं विनाश नहीं।
1224- अपने प्रियतम आत्माराम को सत्य आराम में रखने का अनुरोध-
देखिये- जगत में सबसे प्यारा कौन? सबसे अधिक प्यारा क्या है आपको? इसका खूब निर्णय कर लो। सबसे अधिक प्यारा अपना आत्मा। सबको अपने अपने आत्मा से अधिक प्यारा कुछ नहीं। हर स्थिति में, हर एक घटना में, हर प्रकार से निर्णय कर लें, आपको आपका आत्मा प्रिय है। और जब आत्मा अपना ही प्रिय है तोजरा अपने आत्मा के भले के लिए ही सारी बातें सोचना। कोई भी चिंतन हो, वह चिंतन अपनी भलाई के लिए ही हो, कषाय के लिए नहीं, क्योंकि दुर्लभ मानव जीवन मिला है, अनेकों भव ऐसे ही व्यर्थ में निकल गए हैं। अगर उन्हीं कुरीतियों में यह भव भी खो दिया गया तो फिर पता नहीं, आगे क्या होगा? इसलिए जीवन में एक निर्णय बनावें, जिसमें आत्मा का भला है सो करना है। अन्य बातों का हठ नहीं किंतु एक ही भीतर आग्रह सोच लें सब बातों का कि मेरे आत्मा का इसमें भला है, मेरे को तो यही करना योग्य है। इसमें मेरे आत्मा का पतन है क्या, बरबादी है क्या? मेरे को कुछ नुकसान है क्या? यदि नुकसान है तो बस नहीं करना। एक परिस्थिति ऐसी होती है कि जिसको देखकर यह ही बनेगा कि यह ठीक नहीं, मगर जो जिस पदवी में है उस पदवी में छाँट हुआ करती है। भाईपाप ठीक नहीं, वह तो बुरा है, शुभ भाव करो। भाई शुभ भावों में एक यह शुभ भाव ठीक नहीं, उसकी अपेक्षा ऐसा शुभ भाव बनाओ कि यह अच्छा है। परिस्थिति होती है और उनमें ऐसी छाँट होती है, पर भीतरी छाँट, भीतरी निर्णय तो यह है कि शुभभाव और अशुभभाव ये भी जब तक आत्मा पर छाये हैं तब तक आत्मा को धोखा ही है। सहीं कुछ नहीं कहा जा सकता। और की तो बात जाने दो, एक बार शुद्धभाव भी बन गया, 11 वें गुणस्थान में उपशांत मोह बना वह कषायों के उपशम से, मगर वहाँ से भी धोखा मिला। खैर वह धोखा कुछ नहीं मिला। एक स्थिति हैं। काम तो सिद्ध होगा स्वभाव के आश्रय से ही। हमारी शुद्धसमृद्धि स्वभावाश्रय को तज कर अन्य अन्य बातों में आसक्त होकर नहीं होती। अपने स्वरूप को निरखें और अपनी दया बनावें, अपनी सम्हाल करें और व्यर्थ के अन्य विचार, अन्य कषायें, अन्य भावनायें कभी होती हों तो उन पर खेद लाना चाहिए, क्यों ये भावनायें जगती हैं? मेरे तो शुद्ध सद्भावना रहे। एक नाता अपने आत्मा का रहे, एक निर्णय अपने हित का रहे। वह सब है स्वभाव के आधार में, आश्रय में उपासना।
1225- स्वभावाश्रय के बल का प्रताप-
स्वभावाश्रय एक इतना बड़ा बल है कि जगत में कुछ विपत्तियाँ आये उनसे यह ज्ञानी विचलित नहीं होता, क्योंकि जानता है कि विपत्तियाँ है क्या? लोगों के ख्याल, चेतन अचेतन पदार्थों के परिणमन, सबकी अपनी अपनी जुदी जुदी परिणतियाँ उनकी उनमें हो रही हैं। उनसे मेरे में कुछ आता तोनहीं। यहाँ जो भी दु:ख होता है वह अपने अपराध से दु:खी होता है। दूसरे के अपराध से कोई दु:खी नहीं है। वह क्या अपराध है?अरे स्वभाव से च्युत होना, विभावों में या विषयों में, पर पदार्थों में उपयोग लगाया, यह ही अपराध है। बन सके तो कुछ साधना बनावें। यह अपराध न बन पाये तोस्वयं अनुभव कर लेंगे कि बस संसार में कष्ट कहीं नहीं है। हर घटनाओं में जैसे मानो कोई निंदा कर रहा है तो निंदा करने वाले ने अपनी कषाय का ही तो परिणाम किया, अपना ही तो व्यापार किया, वचन प्रयुक्त किया तो उसने अपना ही तो व्यवसाय किया। गाली देने वाले से, निंदा करने वाले से कुछ आया नहीं इस सुनने वाले में, मगर वह सुनने वाला स्वयं मोही है, मुझको ऐसा कहा, मेरी निंदा की, मेरा अपमान हुआ, ऐसी कल्पनायें कर करके वह स्वयं दु:खी होता है। कहीं गाली देने वाले ने इस दूसरे को दु:खी नहीं किया, यह खुद अपनी कला से अपने आप ही अपने विचार बनाकर दु:खी हो लेता है। इसको दु:खी करने वाला जगत में कोई दूसरा जीव नहीं है, न कोई परमाणु है, हम ही अपने ज्ञान की ऐसी धारा बना डालते हैं, ज्ञान की ऐसी ही अपनी तरंग बना डालते हैं कि जिसके कारण हम आकुलता का अनुभव करते हैं। जगत में दूसरा पदार्थ हमको सताने वाला नहीं, हमारा विरोध रखने वाला नहीं, हमको दु:खी करने वाला नहीं। हमारी ही कल्पना हमको दु:खी कर रही है। दु:ख मिटाना है तो बाहर में कुछ निग्रह अनुग्रह न करके अपने ही ज्ञान में ऐसा पौरुष बनाना चाहिए कि जिसमें कल्पनाओं का जाल न बन सके। खुद ही खुद के जिम्मेदार हैं, दूसरा कोई नहीं, इस कारण अपने परिणामों की निर्मलता में कुछ बाधा नहीं। काहे का कोई मित्र, काहे का कोई बंधु, लोक में बंधु और मित्र तो होते ही रहते हैं। जिसकी कषाय से जिसकी कषाय मिल गई वह उसका बंधु, उसका मित्र बन गया, कषाय से कषाय न मिली तो वह शत्रु बन गया। वस्तुत: कोई जीव किसी दूसरे का न मित्र है न शत्रु है। यहाँ जो भी दु:खी होता है वह अपनी ही कल्पना से दु:खी होता है। ज्ञानी पुरुष को यह सारा निर्णय है और अंतर में प्रकाशमान परम ज्योति स्वभाव का निर्णय है इस कारण वह किसी भी घटना में अपने स्वरूप से च्युत नहीं होता। कठिन से कठिन विपदा आये तो वहाँ भी यह ज्ञानी जीव अंदर में अपने आपकी स्मृति जरूर किए रहता है और उस उपासना स्मृति के प्रसाद से उसमें निर्मलता की उन्नति होती है।
1226- ज्ञानी की अकंपपरमज्ञानस्वभावस्थता का प्रभाव-
सम्यग्दृष्टि पुरुष ही ऐसा साहस करता है कि जगत में जो होता हो सो हो किंतु यह तो अपने निष्कंप परम ज्ञानस्वभाव में स्थित होवेगा, इसकी ही स्मृति रखेगा। इसके प्रताप से ही शांति प्राप्त होगी। सम्यग्दृष्टि जीव स्वभाव से निर्भय है, उसमें शंका नहीं। जैसे यहाँ कोई पुरुष दूसरे का कितना ही बिगाड़ कर रहा हो, उसको देखकर कहीं यह घबड़ाता तो नहीं। लौकिक पुरुषों की बात कह रहे तो यह जान रहा कि मेरा इसमें क्या बिगाड़? इसमें तो उसका खुद का ही बिगाड़ है, खुद की ही बरबादी है। तो ज्ञानी जीव अपने आत्मातिरिक्त जितने भी बाहरी पदार्थ हैं उन्हें जानता है कि ये सब पर हैं, इनसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव कोई भी बात मेरे में नहीं आती। तो कोई भी पर पदार्थ उपद्रव डालता नहीं, यह मैं ही खुद दूसरे में दृष्टि हूँ, दूसरों का शरण मानूँ, बस ऐसा ही अपराध करूँ तो मैं दु:खी होऊँगा, दूसरा दु:खी करने को नहीं आता, ऐसे निर्णय के कारण सम्यग्दृष्टि जीव में एक बहुत अद्भुत साहस होता है। यह निर्जराधिकार चल रहा है। कर्मों की निर्जरा का निमित्त क्या होता है वह सब यहाँ बतलाया जा रहा है। जीव में ज्ञान और वैराग्य ये दो भाव हैं, जिनका निमित्त पाकर ये कर्म झड़ रहे हैं। ज्ञान की महिमा ज्ञान, ज्ञान में ज्ञान समाया हो, कल्पनाओं का जहाँ विलय हो, ऐसा ज्ञान वह सम्यग्ज्ञान वह आनंदमय है, उसकी धुन में उसकी अनुभूति के कारण सम्यग्दृष्टि को अब बाहरी बातों की परवाह नहीं है। बनता है, बिगड़ता है, जो कुछ बाहर में होता है वह सब बाहर की परिणति है। ऐसा निर्भय नि:शंक रहने वाला सम्यग्दृष्टि जीव अपने आपकी ओरही पहुंचने का अधिकाधिक अभ्यास करता है।