वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 28
From जैनकोष
इति परिचिततत्त्वैरात्मकायैकतायां, नयविभजनयुक्त्यात्यंतमुच्छादितायां ।
अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य, स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फुटन्नेक एव ।।28।।
273―भलाई के लिये दृष्टि का विषयभूत शरण्य तत्त्व―हम आपकी भलाई किस ओर दृष्टि देने में है, किसमें मन लगाने में है? जो विह्वलता, विकल्प प्रचंड चंचलता से रहित है, ध्रुव है, अगर इस ध्रुव पर दृष्टि दें तो हमारी परिणति ध्रुव पर बनेगी । परिणति कोई ध्रुव नहीं होती, किंतु जहाँ समान-समान स्वाभाविक स्वरूप से मिला हुआ, स्वरूप के अनुरूप जो परिणमन चलता है उसे ध्रुव परिणमन कहेंगे । अचल स्वभाव पर दृष्टि दें तो यह संभव है कि हमारा अचल परिणमन बनेगा । अगर हम सहज आनंदस्वरूप पर लक्ष्य दें, उसका आश्रय करें तो यह संभव है कि हमारा सहज आनंदमय परिणमन रहेगा । तो हमको कहाँ दृष्टि देना है, चारों ओर सब तरफ निगाह करके समझें । मकान दुकान लोग कुटुंब ये सब असार चीजें हैं, अत्यंत भिन्न चीजें हैं, पर क्षेत्र में हैं, विनाशक हैं, इन पर दृष्टि रखने से इस जीव को विह्वलता, विकल्पता होती है जहाँ मानो अपने में से जान निकाल दिया जाये, इस तरह की स्थिति बन जाती है । परपदार्थों में उपयोग लाने पर ऐसी स्थिति बन जाती है कि मानो मैंने अपने में से अपनी जान ही निकाल लिया हो । उसमें धर्म प्रवृत्ति नहीं बनती । कौनसा वह तत्त्व है कि जिसका परिचय करके, अनुभव करने से आश्रय करने से जीव के शुद्ध परिणमन का प्रवाह चल उठे । वह तत्त्व है सहज चैतन्य स्वरूप । वह सहज चैतन्य स्वरूप क्या है? जो मेरे अपने आपके सत्त्व के ही कारण परद्रव्य के संबंध बिना स्वयं में से स्वभावत: जो हो सो मेरा स्वरूप है, वह स्वरूप मैं हूँ, बाकि सब पर हैं ।
274―पर से विविक्त अंतस्तत्त्व का विवरण―जो बाहर में दिखने वाले हैं वे तो पर हैं ही, और जो बाहर में नहीं, किंतु अपने एकक्षेत्रावगाह रूप हो रहे हैं वे भी पर हैं, जैसे शरीर । क्यों पर है, शरीर अचेतन, मैं चेतन । शरीर पुद्गल परमाणुओं का पिंड, मैं एक विशुद्ध चिद्घन और जो कर्मबंधन हैं, कर्म हैं पौद्गलिक कर्म, ज्ञानावरणादिक कर्म ये कर्म भी पर हैं, पौद्गलिक हैं, कार्माण वर्गणा एक जाति है, पर वे हैं रूप, रस, गंध, स्पर्श के पिंड, उनसे भी मैं चिद᳭घन यह निराला हूँ, उन कार्माण वर्गणाओं में जब अनुभाग का उदय होता है, अनुभाग कर्म का ही खिला, कर्म में ही परिणमन हुआ, कर्म अपने से बाहर इस जीव में कुछ कर नहीं पाते, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में ही परिणमा करते हैं, सो वे कर्म जो पहले लोभादिक कषायों का निमित्त पाकर प्रकृति, स्थिति, प्रदेश अनुभाग बंध के रूप में बन गए थे वे अपनी शक्ति को लिए हुए कर्म जब अपने अनुभाग का उदय पाते हैं तो गड़बड़ी वहाँ कर्म में हुई । वे अचेतन हैं, सो गड़बड़ी का अनुभव नहीं कर पाते, मगर जिस प्रकार का क्रोध, मान, माया, लोभ कर्म में उदित हुआ है बस वह कर्म का वह सब विकार, वह सब अनुभाग इस उपयोग लक्षण वाले जीव में प्रतिफलित हुआ है, तब मोही ने जैसी कर्म दशा है तैसा ही अपने को मान लेता है । मगर यह ज्ञानी देखता है कि उस कर्मानुभाग का एक यह प्रतिफलन है, छाया माया है वह भी मैं नहीं, मैं तो उससे भी परे एक चिद्घन हूँ ।
275―चिद्घनस्वरूप के अनुभव का परिचय―जिसने चैतन्यघन अंतस्तत्त्व और इस अनात्मतत्त्व में भेद पाया, देह में और आत्मस्वरूप में जिन्होंने भेद निरख पाया ऐसे पुरुषों ने क्या किया कि नय के विभाग से यह स्पष्ट समझ लिया कि यह देह न्यारा है, मैं न्यारा हूँ । जिन्होंने इस प्रकार का भेदविज्ञान प्राप्त किया । देह से निराला, कर्म से निराला, कर्मानुभाग के प्रतिफलन से निराला मैं अपने आपमें शुद्ध चैतन्यमात्र हूँ, इस तरह की जिन्होंने दृष्टि की, आग्रह किया, वह यहाँ ही रम गया । यहाँ ही उन्होंने पकड़ की, उसी को ग्रहण किया―मैं यह हूँ अन्य कुछ नहीं, अन्य सब जीव यद्यपि मेरे समान हैं, फिर भी हैं तो सब पर ही, इस तरह जिन्होंने अपने इस विशुद्ध चैतन्यघन चित्स्वरूप को माना यह मैं हूँ, उसका यह बोध बोध को क्यों नहीं प्राप्त होगा? जो ज्ञान भ्रम रहा था, जो ज्ञान कर्मानुभाग से अभिभूत होकर कुछ किंकर्तव्यविमूढ़ सा बनकर पंचेंद्रिय के विषयों में उपयोग जुटाकर जो खिन्न हो रहा था वह ज्ञान ऐसा भेदविज्ञान प्राप्त होने पर क्यों नहीं ज्ञान को प्राप्त होगा? जब ज्ञान ज्ञानत्व को प्राप्त हो जाता तब इसके लिए ज्ञान ज्ञानरूप से ज्ञेय है ज्ञेय ज्ञेयरूप से ज्ञात है । भेदज्ञान से पहले उसके लिए ज्ञान ज्ञेय का भेद न था, किंतु जो झलका, बाहर को भी अपनाया और बाहर का पदार्थ जो यहाँ ज्ञेयाकार हुआ उसे भी यहाँ अपनाया । यद्यपि यह ज्ञेयाकार ज्ञान का परिणमन है । मगर जहाँ कोई भीतर एक मिथ्या विष लगा हो तो उससे सारा परिकर भ्रमरूप होता है । बाह्य का लगाव, भीतर में ज्ञेयाकार का लगाव यह सब भी ज्ञानी के लिए ज्ञेय हैं भिन्न हैं, ये झलकते भर हैं, मुझमें नहीं आते, मुझमें आकर लुभाते नहीं, ये आकर कहीं गड़बड़ी करते नहीं, बाह्य पदार्थ तो अपने प्रदेश से बाहर कुछ करते नहीं, यह ही मैं अज्ञान से भ्रम करता हूँ स्वयं गड़बड़ कर रहा । पर तो अत्यंत भिन्न पदार्थ हैं उन्हें जान लिया बस ज्ञेय हैं । ऐसे ही परभाव भी ज्ञेय है । भैया, इस परिणाम से भी आगे हमें बढ़ना हैं । ऐसा भी जानने के लिए मुझे जरूरत नहीं । पौरुष ऐसा करना है कि मात्र ज्ञान ही ज्ञान विलसो । किंतु जब छद्मस्थ दशा में परिणमन करते हैं, ज्ञेय के साथ लगाव का, तो आवश्यक हो गया कि ऐसा उपयोग बनावें कि बाह्य पदार्थ ज्ञेय नहीं होवे । पर भगवान जरूर विवश हैं कि बाह्य पदार्थ उन्हें ज्ञेय नहीं हों, वहाँ तो बाह्य पदार्थ मानो आक्रमण कर बैठते हैं, वहाँ जानना ही पड़ता है और यहाँ हम आप छद्मस्थ हैं तो यहाँ पौरुष करना पड़ता है कि ये बाह्य पदार्थ मेरे ज्ञान में मत आयें । क्योंकि इनको जानने के साथ राग का सहयोग बन जाता है । इसकी निवृत्ति के लिये ऐसे परम ध्यान याने ज्ञानरमण का आदेश है कि ये बाह्य पदार्थ ज्ञान में मत आयें । तो यह ज्ञानी समाधि में यह ही तो पौरुष करता है कि अपने आपके स्वरूप को निरखने में अपने को सामान्य करके एक निज ज्योति को सामान्य बनाकर उस रूप में इसका प्रतिभास करता है । भेद विज्ञान में तो परभाव से हट कर समझा था―यह मैं हूँ, और जब ज्ञानाकार मात्र प्रतिभास में आता तो उस होने का विकल्प भी छूटता है और क्षण भर को एक अलौकिक आनंद की दशा आती । फिर प्रयत्न करता । प्रयत्न न बने, बाह्य पदार्थ ज्ञान में आ जावे, इनका चित्त बाह्य की ओर आ जावे तो उन बाह्य पदार्थों से मानो बात करने लगते हैं । इसको जानकर क्या करें? उससे कोई सिद्धि तो नहीं होती? ये मेरे कोई साथी तो नहीं । ऐसा सोचकर फिर उन बाह्य पदार्थों के विकल्प को हटाता है । तो जिसने अपने आपमें इस सहज चिद्घन स्वरूप को निरखा है, इसका अनुभव किया है बस उसकी धुन में वही चैतन्यमहाप्रभु है ।
276―ज्ञानी का अंत: निरखन―भैया ! हित चाहो तो बाह्य पदार्थों में इष्ट अनिष्ट बुद्धि न जगाना । कौन मेरे लिए इष्ट कौन अनिष्ट? वे मेरी परिणति नहीं करते, मैं ही विकार अविकार रूप परिणमता हूँ । मैं निज अंतस्तत्त्व में अनुभव करूं अपने आपको, तो बस यह ही मेरे लिए शरण है, इसके अतिरिक्त मुझे कुछ शरण नहीं । ज्ञानी का ज्ञान इस ज्ञान स्वरूप को ही निरखता है, स्वरूप के विशेषणों पर नहीं जाता । यह स्वरूप विकाररहित है । निर्विकार है क्या? स्वरूप निर्विकार नहीं है । स्वरूप अविकार है, ज्ञानी निरख रहा है, स्वरूप निर्विकार नहीं किंतु अविकार है । निर्विकार रूप से स्वरूप को देखने में एक यह असुविधा जगी कि वह स्वरूप में विकार को मंजूर करता है कि इसमें विकार था अब निकल गया । निर्विकार का अर्थ है―निर्गत: विकार: यस्मात् स निर्विकार: अब इनमें से विकार हट गया । स्वरूप देख रहे, जो निगोद अवस्था में भी था, वहाँ पर भी यह सहज अविकार था, याने कोई भी पदार्थ होता है तो वह पदार्थ अपने आपके सत्त्व से अपना कुछ भाव स्वभाव रखता है उस स्वभाव को निरखिये, उस स्वभाव को निरखिये, वह स्वभाव दब गया, प्रकट नहीं हो रहा, लेकिन स्वभाव फिर भी स्वभाव में स्वभाव ही है, जैसे जमीन में कोई निधि गड़ी हुई है, पहले लोग गाड़ते ही थे, तो जमीन में गड़ी हुई निधि है वह जमीन में पड़ी है, प्रकट नहीं है, ऐसे ही हमारा स्वभाव स्वभाव है, मगर विभाव विकार विषम परिणाम इनमें उल्झा है, इनमें दबा है । जरा विभाव विषम परिणाम को खोदकर मायने छेदकर विभाव को भेद विज्ञान से ज्ञान द्वारा दूर करें फिर तो जैसे भूमि से निकाली हुई निधि को आँखों वाला देख लेता है ऐसे ही इन विभावों को ज्ञान द्वारा भेदकर ज्ञान स्वरूप को ज्ञानी नजर कर लेता है फिर इसी धुन में रहता है ।
277―ज्ञान की सहज कला―ज्ञान में ऐसी कला है, उस स्वभाव को निरखने में यह ही एक ऐसा पौरुष है जिसके बल से यह जीव इन संसार संकटों से छूटने के मार्ग में बढ़ता है, यह ज्ञान किसी से छिड़ता नहीं है । जिसको लक्ष्य में लें, जिसको जानना चाहें, बीच में कुछ भी पड़ा हो, किसी से छिड़ता नहीं, सीधा उस लक्ष्य को ही निरखता है । जैसे कि एक्सरा यंत्र होता है, मनुष्य खड़ा है मानो और उसके शरीर की हड्डी की फोटो लेना है तो वह एक्सरा यंत्र न रोम से अड़ता, न चाम से अड़ता, न खून, माँस, मज्जा आदि से अड़ता, वह तो सीधे हड्डी का ही फोटो ले लेता है इसी प्रकार यह ज्ञान जिसको जानना चाहता है घर में रखी हुई चीज को हम जानना चाहते हैं तो कितनी ही दीवालें, किवाड़, संदूक आदि आड़े आयें पर किसी से अड़ नहीं सकता । सबको पार कर देगा । वह ज्ञान ही तो है । यह ज्ञान निश्चय से जाता तो नहीं, मगर इस ज्ञान का वर्णन गमन मुखेन हुआ करता है । रहता है―अपने आत्मप्रदेशों में और यहाँ ही रहकर सारी व्यवस्था बनती है मगर ज्ञा धातु और गमन धातु―याने जाने के अर्थ में जितनी धातु हैं उनका जानना भी अर्थ है व जाना भी अर्थ है क्योंकि जानने की वृत्ति की समता जाने के व्यवहार में की गई है । यह ज्ञान किसी से नहीं छिड़ता । कितना ही संदूक में, कपड़ों के बीच में, किसी पोटली में बंधे हुए डिब्बे के अंदर वह चीज रखी हुई हो मगर यह ज्ञान उसको भी जान लेता है, उससे कुछ अड़ता नहीं । ऐसे ही यह जीव आत्महित का अर्थी आत्मस्वरूप का दर्शक जब उस सहज आत्मस्वरूप को निरखने चलता है तो यह देह से नहीं अड़ता । कोई आंखें निकालकर देखता है तो इस देह में अटक बनती है, यह अटक रागवश ज्ञान में बना ली सो कहा जाता है कि लो इसके ज्ञान को देह ने ही रोक दिया, अब यह भीतर क्या जाये? मगर भैया कोई भिड़कर रोकने वाली बात नहीं, यह सब अलंकार रूप से समझना जब ज्ञान अपने ज्ञान के लक्ष्य में केवल उस अंत स्वरूप को लेता है तो यह देह से नहीं अड़ता । कर्म से नहीं अड़ता, उसके लिए तो जीव द्रव्य ज्ञेय पदार्थ झलक रहा है, उसके लिए तो यह कर्म का फल यह भी झलक रहा है, लेकिन परिस्थिति ऐसी होती है कि जिसे कहते संस्कार । जैसे किसी के ठीक-ठीक बोध जाग चुकने पर भी पूर्व संस्कार के वश पुन: पुन: भक्ति को प्राप्त होता रहता है । चारित्र मोह का उदय जिसे कहते हैं वहाँ अटक रहती है मगर अटक कर नहीं रहता, वह अपने स्वरूप को सम्हालता है । तो जिसने सबसे निराले इस सहज आनंदमय ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व को देखा है वह पुरुष एक इसी धुन में रहता है, उसका बोध बोध को प्राप्त होता है, क्योंकि ज्ञान तो ज्ञानस्वरूप है ना ।
278―ज्ञानस्वरूप को जानने की कठिनाई की अवधि का निर्णय―जिसका उपयोग ज्ञेय पदार्थ में अत्यंत भिड़ जाये उसके लिए तो यह ज्ञानस्वरूप जानने में नहीं आता, मदद नहीं देता लेकिन यह ज्ञान ज्ञानस्वरूप है और ऐसा ही जब ज्ञात हुआ तो ज्ञान इस ज्ञानस्वरूप को क्यों नहीं जान सकता? ज्ञान ज्ञान को जाने इसमें कोई कठिनाई नहीं आती । कठिनाई उसमें आती है जो अत्यंत विरुद्ध हो जाये । देखिये ज्ञान का काम जानना है और ज्ञान का स्वरूप ज्ञान है । तो जाननहार ज्ञान जाननहार स्वरूप को न जान सके, ऐसी महान अड़चन कब तक थी जब तक इस जीव ने निजस्वरूप का दर्शन नहीं किया । जैसे एक आदमी किसी कागज पर स्याही से दो तीन पेड़ों के चित्र बनाता है, अब वह आप से पूछता है कि बतायो इसमें खरगोश कहाँ है? तो आप बहुत-बहुत देखते हैं उस चित्र में, पर कहीं आपको खरगोश नहीं दिखता और अंत में आप कह बैठते हैं कि इसमें तो खरगोश नहीं है, सिर्फ पेड़ हैं । और अगर वह आपको समझा दे कि देखो इन पेड़ों के बीच में यह जो खाली (Black) जगह है इसमें ध्यान से देखो―ये इधर कान हैं, इधर मुख इधर पैर और इधर दुम इत्यादि तो आप झट समझ जाते हैं और कह उठते है―हाँ इसमें खरगोश तो बना है । अब एक बार आपने परख लिया तो बस कभी भी आप उसे देखें तो झट समझ लगे कि यह देखो इसमें खरगोश बना है । तो जैसे जब तक यह ध्यान में न था कि यह जो खाली (Black) जगह पड़ी, है उसमें खरगोश बना है तब तक आपको खरगोश नहीं दिखा ऐसे ही यह आत्मस्वभाव, इस सहज परमात्मतत्त्व का कब तक दर्शन नहीं होता, कब तक इसकी धुन नहीं बनती जब तक इस खाली जगह में, एक साफ जगह में, जहाँ कोई चित्रण नहीं, इस चित्र से रहित जगह में इसको आपने निरखने का पुरुषार्थ नहीं किया । हम अपने आपको निरखने गए चित्रण में, स्याही में जो कि मोहनीय कर्म का उदय होने पर उसके जो अनुभाग का चित्रण हुआ इस आत्मा में जो प्रतिफलन हुआ उसमें अधिक से अधिक किसी के बुद्धि जायेगी तो प्रतिफलन में उसको निरखता रहा मायने अपने क्रोध, मान, माया, लोभ में अपना स्वरूप मानता रहा, तो चित्रण में अपने आपको निरखने से इसे आत्मतत्त्व नहीं दिखा । इस चित्रण में जो खाली जगह है, उस चित्रण पर दृष्टि न देकर जो एक आत्मा का सहज जो कुछ भी स्वरूप सत्त्व है, उस सहज सत्त्व पर दृष्टि दी जाये तो आत्मदर्शन होगा ।
279―निश्चय स्तवन के परिणाम की पराकाष्ठा में अखंड का परिचय―यहाँ प्रकरण चल रहा है यह जब कि किसी एक व्यवहार की तीव्र जिज्ञासा की कि हमको अन्य कुछ समझ में नहीं आ रहा, हम तो देह को और आत्मा को एक मानते हैं और उसका प्रमाण करने वाले शास्त्रों में वाक्य लिखे हैं, स्तुतियाँ बनी हैं । भगवान के देह की कांति ने दसों दिशाओं को नहा दिया, भगवान की ध्वनि इन कर्णों को बड़ी प्यारी लगती है । भगवान का रूप 1008 लक्षण के सुंदर शरीर वाला है । तो देखो ना, कि कहते हैं ना इस तरह कि दो गोरे, दो साँवले, दो हरि या दो लाल, यों ही सभी तीर्थंकरों के रंग बताये । यों रंग वाले ही तो हैं भगवान । यह देह की ही तो बात है । अगर देह ही भगवान न हो तो स्तुति कैसे ठीक होगी ! यह प्रश्न होने पर समाधान दिया गया था कि भाई वह व्यवहार नय से स्तवन है और निश्चय से स्तवन यह है कि जो केवली का गुण है, केवली का स्वरूप है, आत्मा का स्वरूप है उसका ही ध्यान करें, उसका गुणगान करें, उसकी बात करें, तो निश्चय नय से स्तवन कहलायेगा । निश्चय मायने एक को निरखना, व्यवहार मायने संयोग आदि को निरखना । संयोग है यह बात झूठ नहीं है । इस समय संयोग है कर्म का जीव का, देह का, व जीव का । चल रही वही बात भोजन भी रोज करते, उसके साधन भी रोज करते, संयोग नहीं है तो यह कैसे हो रहा । संयोग है, संयोग असत्य नहीं, और व्यवहारनय संयोग की बात बताता है । तो उस स्थिति में होनेवाली बात असत्य नहीं, सत्य है, भ्रम होता, विकार होता, लेकिन यह सब संयोग दृष्टि में नजर आ रहा है । जब केवल एक आत्मत्त्व को देखते, केवल एक को देखा, केवल में एक को देखा, तो संयोग की बात वहाँ असत्य है देखिये―एक को देखकर हम दो का निषेध करें तो यहाँ भी हम एक अपने एक को देखने से च्युत हो गए । एक को देखना है तो एक को ही देखें, दो की बात न करें, वह है एक निश्चय रूप से मगर दो नहीं है क्या? दो तो हैं, तो दो हैं यह तो तुमने जान लिया । दो के संयोग में ऐसा प्रभाव है वह भी जान लें, बस जान लें जानकर बैठ जावें, उसका विरोध न करना, लेकिन जीवों में एक आत्म तत्त्व को देखें तो सही कि आत्मा अपने आपकी ओर से सहज स्वभाव के कितने चमत्कार वाला है । जरा अपने में जो रचना भरी है उसको तो देखो । देखो-देखो निज में क्या रचना भरी ! यह एक भजन है, जिस रचना के लखनहार योगी तृप्त हैं वसु प्रहरी । अपने आपके आत्मा में क्या रचना है? अखंड चिद᳭घन । व्यवहार दृष्टि से देखो तो आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंद आदिक अनेक शक्तियों मय है । देखो व्यवहार से देखा इसके मायने झूठ है ऐसा न समझना । उस ही चीज को इसने भेददृष्टि से परखने से परिचय किया । जान लिया मगर व्यवहार नय से ऐसा भेदरूप गुणों को जानने का ही हम एक लक्ष्य रखेंगे तो हम आत्मानुभव न पा सकेंगे, ऐसा जानकर उसका विरोध न कर, मध्यस्थ होकर आयें शुद्धनय के विषय में, वहाँ प्रवेश करें, अखंड, कैसे अखंड का अनुभव करें । अखंड है ऐसा भी विकल्प न रहे । यों विकल्प से रहित स्वयं का अनुभव करें ।
280―निश्चयनय के पड़ोसी व्यवहारनय की प्रासंगिक चर्चा―व्यवहारनय से जाना कि यह द्रव्य पर्यायमय है । द्रव्य है ध्रुवता को लिए हुए, पर्याय है उत्पाद व्यय को लिए हुए असत्य दोनों नहीं । व्यवहार से जाना कि वस्तु पर्याय वाला होता है । द्रव्य वाला भी है, पर्याय वाला भी है, इसके मायने यह नहीं कि झूठ है, किंतु यह भेदनय से बात देखी जा रही है । उसको जान लो, परिचय कर लो । अब मध्यस्थ होकर जरा आओ तो सही, उस शुद्धनय की बात कहो क्या होगा कि व्यवहार भी छूटेगा, शुद्धनय भी छूटेगा, वहाँ एक अनुभवमात्र रहेगा । जिसने इस तत्त्व का परिचय किया है वह सब, हमारी बात तो इसलिए स्पष्ट है कि हम में ही तो वह अनुभव होता । आत्मा व शरीर भिन्न-भिन्न हैं । निरखना है भीतर एक प्रकाश, पौद्गालिक नहीं है अंतस्तत्त्व । ज्ञानरूप को ज्ञान अनुभवता है, इतने में ही जानना कि देह है, मगर देह के रूप से मैं नहीं, देह का आकार सोचकर नहीं, और मैं उस गुण में अनुभव रहा हूँ, इस प्रकार की भी सीमा बाँधकर नहीं चल रहे हैं । सब भवन उसके अपने आपके उतने ही प्रदेश में है । क्या अनुभव रहा वह? ऐसी बात सुनकर ही तो जिसकी जैसी बुद्धि है, जो दार्शनिक जिस-जिस ढंग का अपना भाव लिए हुए है वह उसमें से उस उसका ही आग्रह करता रहेगा । जैसे शून्यवादी ने कहा कि यह सब ठीक कहते हैं―कुछ नहीं है, देखो है ना आत्मानुभव की दशा सर्वविकल्प शून्य । लो, आत्मानुभव की जो स्थिति है उस स्थिति में इसे मिला क्या? कोई बाहरी चीज मिली क्या? उसका विकल्प भी नहीं है । ऐसी बात सोचकर शून्यवादी कहते हैं कि आप ठीक कह रहे, शून्य ही तत्त्व है वहाँ कुछ न मिलेगा, तो कोई कहता है कि शून्य मात्र नहीं है । प्रतिभास भी तो होता है । लो प्रतिभासाद्वैत वादी कहते हैं कि प्रतिभास तो कोई निराधार आता नहीं है, वह किसमें प्रतिभास है, किसका प्रतिभास, वह प्रतिभास साधार है इसलिए ब्रह्म ही तत्त्व है, प्रतिभास ही तत्त्व नहीं । एक ब्रह्मनामक पदार्थ है । बस वह ही तत्त्व है । जब किसी ने देखा ब्रह्म-ब्रह्म, एक-एक, अकेला-अकेला, कहकर अपरिणामी की बात कुछ नहीं निखर पाती है तो इसमें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, आनंद है भिन्न-भिन्न है ऐसा देखा, मगर इस ढंग से देखा कि जैसे सब स्वतंत्र सत् है -द्रव्य भी स्वतंत्र सत्, गुण भी स्वतंत्र सत्, पर्याय भी स्वतंत्र सत् ऐसा निरखा वैशेषिक और बौद्धों ने । तब वैशेषिक यह कहने लगे कि ये सब पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं सब स्वतंत्र-स्वतंत्र पदार्थ हैं, और अपनी हठ पकड़ने लगे कि ये भिन्न ही हैं, अभिन्न नहीं है, और बौद्धजन बस जो कि पर्यायवादी हैं, केवल पर्याय-पर्याय को समस्त पदार्थ मानते हैं उन्होंने कहा कि बस जो क्षण-क्षण में एक-एक पदार्थ अहेतुक होता, बताओ उसका अन्य कैसे हेतु बनता? कौनसा बाह्य पदार्थ निमित्त है या उपादान? मेरा तत्त्व तो मेरे में है । पदार्थ तो अहेतुक होता । तो जब बौद्धों ने क्षण-क्षण के समय समय के पदार्थ स्वीकार कर लिया तो कहा कि पदार्थ अहेतुक है । बस इस ही तत्त्व को, इस ही एक आत्मानुभव की बात को सुन सुनकर जिन-जिन दार्शनिकों की जितनी-जितनी बुद्धि थी, जो जहाँ अटक गया वहाँ अटक कर अपने अलग सिद्धांत में पहुंचा । फल क्या हुआ कि आत्मानुभव की दशा से वे चलित हो गए । भैया, सो जानो सब और जिस दृष्टि की मुख्यता से आपको हित प्राप्त होता हो उस दृष्टि में सहज देखिये जब जिस दृष्टि से आपको स्वभाव दर्शन के लिए सहयोग मिलता हो तब-तब आपके हित के लिए वह प्रयोजनवान है, क्योंकि प्रयोजनवान का लक्ष्य व प्रवर्तन बनता एक आत्मस्वभाव का दर्शन । ग्रंथों में पढ़ते हैं महामत्स्य की अवगाहना जो 1000 योजन लंबा, 500 योजन चौड़ा और 250 योजन मोटा है, इतनी बड़ी अवगाहना का उस महामत्स्य का शरीर है । ऐसा जानकर प्रयोजन यह लेना कि आत्मज्ञान बिना यह विडंबना होती । लक्ष्य निर्धारण से होता क्या है कि जिस ज्ञान में हित है उस ज्ञान के लिए हर दिशाओं से ज्ञान ही ज्ञान की ओर झुकने के लिए प्रेरणा मिलती है । एक इस अंतस्तत्त्व के परिज्ञान के बिना इस जीव को इस-इस प्रकार के कर्मों का बंध होता कि जिसके उदय का निमित्त पाकर जीव की ऐसी-ऐसी भिन्न-भिन्न दशायें होती हैं ।
281―अंतस्तत्त्व के मिलन में सकल संकटों का विनाश―इस अंतस्तत्त्व का दर्शन करें, विशुद्ध आत्मतत्त्व दर्शन होने से बाह्य पदार्थों के सारे संकट दूर हो जाते हैं, करने का काम क्या है? अनात्मतत्त्व में आत्मतत्त्व का भ्रम हटाना है और आत्मस्वरूप में यह मैं हूँ इस प्रकार की प्रतीति रखना है और फिर ऐसा ही ज्ञान बनाये रहना है निरंतर । अगर उसमें किसी से बाधा आती हो तो उसको त्यागें । अगर ज्ञान में ज्ञान को रमाने के लिए बाधा आती है घर में, तो घर को त्यागें, अगर ज्ञान को ज्ञान में रमाने के लिए बाधा आती है वस्त्रों से, आरंभ परिग्रहों से तो उन्हें त्यागें । इस प्रकार से सब कुछ त्यागने के बाद एक अवसर प्राप्त होता है निर्विघ्न और निरंतराय ज्ञान को ज्ञान में रमाने का । तो हमारा कर्तव्य है कि इस ज्ञान को ज्ञान में रमाने के लिए प्रयत्नशील रहें । जब ज्ञान ज्ञान को जानने चला तो उस ज्ञानरस का वेग आता है । उस वेग में ज्ञान ज्ञान में ही खिंचता है । कोई हवा ऐसी होती है कि भीतर को खींचती है, कोई हवा ऐसी होती कि बाहर को निकालती है । जैसे ए. सी. और डी. सी. के करेन्ट भिन्न-भिन्न हैं, कोई बाहर फेंकती है कोई भीतर खींचती है ऐसे ही यह ज्ञान दो तरह के काम करता है कोई बाहर का ज्ञान करता है और कोई भीतर के स्वरूप का ज्ञान करता है, सहज आनंद का अनुभव करता है । सबको जाने और अपने में मग्न हो ऐसा जगमग स्वरूप भगवान के निरंतर बना रहता है । जैसे दीपक जलता है तो उसमें हानि वृद्धि चलती है, बिजली का लट्टू जलता है तो उसमें भी हानि वृद्धि चलती है, यों तो पता नहीं पड़ता, पर जब बल्ब में ज्योति कम या ज्यादा हो जाती है तब इस हानि वृद्धि का सही पता पड़ता है । तो जैसे वहाँ ज्योति बड़ी तो जग और घटी तो मग, किंतु आत्मा में और प्रकार का जगमगपना है । ज्ञानस्वरूप का परिणमन जग और आनंदस्वरूप का परिणमन मग । कहते ही हैं लोग उमंग । उमंग कोई मग धातु से बना । तो भगवान का यह जगमग निरंतर एक साथ हो रहा है, होता रहता था, होता रहेगा । ऐसा एक तत्त्व बन गया ।
282―कैवल्य में आनंद―भैया तारीफ किस बात में है? अकेला रह जाने में । यहाँ तो लोग अकेला रह जाने में बड़ा बुरा महसूस करते हैं―यह बेचारा अकेला रह गया । किसी घर में मियाँ बीबी दो ही प्राणी थे, मानो बीबी गुजर गई तो कहते अरे यह तो बेचारा अकेला रह गया । अरे जो वास्तव में अकेला हो उसे ही तो भगवान कहते हैं, जो दुकेला हो वह भगवान नहीं । अरहंत भी अकेले और सिद्धभगवान प्रकट अकेले हैं, केवल आत्मा ही आत्मा, स्वरूप ही स्वरूप ज्ञानानंदमात्र, तो जो तेजस्वरूप है, जो सहज है वही विकसित हो गया, ऐसा जो अकेलापन है वह तो एक बड़ी पवित्र दशा है । अपने आपका प्रोग्राम यह बनायें कि मुझे तो अकेला बनना है, दुकेले के संबंध में परिचय में, संग में हमको शांति का मार्ग न मिलेगा । मुझे अकेला ही रहना है । अकेले रहें, सबका बुद्धिपूर्वक त्याग करें और आप अकेले बनें । भैया अपने आपमें उस कैवल्य का ज्ञान करें तो अकेला बन जायेंगे । जैसा हमें बनना है वैसा अकेलापन तो अब भी यहाँ है कि नहीं, स्वरूप में देखो अगर नहीं है तो कभी बन नहीं सकता । जो यहाँ स्वरूप में उस अकेलेपन को निरखता है उसको ही कैवल्य की प्राप्ति होगी । तो बस उस केवल एक स्वरूप को निरखने की बात है । वर्तमान में बात सब चल रही, संयोग है, चल रही है, बात तो सब ठीक है मगर हम तो आत्महित की भावना को लेकर सबकी बात समझ कर, सब कुछ जान कर उस कैवल्यस्वरूप को दृष्टि में लेने का पौरुष बना रहे हैं, इस समय केवल अंतस्तत्त्व सहज ज्ञान ज्योति उस ही रूप अपना अनुभव करें बस यही आत्मानुभूति है । चाहे ज्ञानानुभूति कहो चाहे आत्मानुभूति कहो, क्योंकि अखंड के अनुभव रूप से ही आत्मा की अनुभूति होती है । आत्मा की विशेषतायें बहुत हैं । लंबा है, चौड़ा है, क्षेत्र की दृष्टि होती है, पर ऐसा निरखने से आत्मानुभूति नहीं जगी तो भी इसका विरोध न करें, यह लंबा चौड़ा फैला झूठ नहीं जाना गया, पर उसमें भी मध्यस्थ हो जावें और निज ज्ञानस्वरूप के अनुभव में उतरें प्रभु के आत्मा में द्रव्य हैं, गुण हैं, पर्यायें हैं, ये सब बातें समझनी पड़ती हैं, इनके समझे बिना हम आगे बढ़ नहीं सकते, यह ही आधार है आगे बढ़ने का, मगर जान लिया, उसका विरोध नहीं करते, समझ लिया, समझकर हमको क्या फल पाना था उस फल में हम चल रहे । बस सब दृष्टियों को गौण करके एक अपने आपके सहज अंतस्तत्त्व शुद्धनय के विषय को निरखिये, देखिये तो कैवल्य मिलेगा, आनंदस्वरूप को निरखिये, देखिये तो आनंद मिलेगा । तो ऐसे तत्त्व का परिचय करने वाले जो ज्ञानी संत जन हैं उन्होंने नय विभाग के तथ्य को सुगमता से बता दिया है कि यहाँ व्यवहार से ऐसी स्थिति है और निश्चय से ऐसी स्थिति है ।