वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 45
From जैनकोष
इत्थं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नाटयित्वा जीवाजीवौ स्फुटविघटनं नैव यावत्प्रयात: ।
विश्वं व्याप्य प्रसभविकसद᳭ व्यक्तचिन्मात्रशक्त्या, ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे ।।45।।
401―ज्ञान के परिणमन में ही सर्वदशाओं का व्यवहार―जीव को चाहिए क्या? अनाकुलता । किसी प्रकार की आकुलता न होने के लिए इसे करना क्या चाहिए? जीव ऐसा ज्ञान का परिणमन करे कि जिससे अपने को आकुलता न हो । सभी लोग करते क्या है? अपने ज्ञान का परिणमन । और इस ज्ञान के परिणमन में ही वे सब बातें समा जाती हैं जैसे कोई कहे कि इसको बड़ा दु:ख है इसको बड़ा सुख है तो उसका अर्थ क्या? सुख किसे कहते हैं? कोई सुख का स्वरूप बताओ कहाँ धरा सुख? कोई कहे कि हमें थोड़ा सा सुख दे दो तो कोई सुख कहाँ से लाकर दे देगा । कोई सुख नाम की चीज अलग धरी कहाँ है सुख नाम तो उसका है जिस ज्ञान के परिणमन में यह जीव राजी होता हो । जैसे मोह के प्रसंग में मोहमिश्रित दशा में जीव ऐसा ज्ञान करता है कि मेरे इतने मकान हैं, मेरे इतना वैभव है, मेरी इतनी प्रतिष्ठा है, मेरा इतना कुटुंब है । इस तरह का जो ज्ञान किया है और उस ज्ञान में यह मौज मानता तो ज्ञान का ही सुख कहलाया किस तरह ज्ञान बने कि वह सुख कहलाये, सो कोई देख लो कोई अलग से नहीं बता सकता कि इसका नाम सुख है मगर ज्ञान के माध्यम से इसका निर्णय बता सकता है कि सुख इसे कहते हैं ज्ञान का ऐसा बंधन बाह्यविषयों में दृष्टि देकर, यह बड़ा भला है, बड़ा अच्छा है, कुछ रचा है, आनंद गुण का कुछ एक सुख रूप विकार हुआ । और कुछ नहीं है । तो ज्ञान से जो कल्पना बनी बस उस कल्पना में ही सुख माना गया और ऐसे ही दुःख भी कही बाहर नहीं हैं अपने आपमें से कल्पना बनायी हाँ मेरा विरोधी सामने आ गया, मेरा इष्ट गुजर गया, मुझको ऐसी-ऐसी वेदना हो गई, यह रोग हो गया आदिक रूप भी ज्ञान द्वारा जो कल्पना जगती है बस वही दुख है । तो यह जीव करता क्या है? अपने ज्ञान का परिणमन । वही बन जाना सुखरूप से अथवा दुःख रूप से परिणमन ।
402―स्वपरिणाम के अतिरिक्त अन्यभाव के करने का जीव में असामर्थ्य―क्या किसी बाह्य पदार्थ को यह नहीं कर सकता? हाँ नहीं कर सकता । क्या जीव किसी परमाणु की रचना कर सकता है? नहीं, देह की रचना कर सकता है? नहीं, फिर यह देह एकदम बन कैसे गया? बन गया निमित्त नैमित्तिक भावों से । जिसके उस प्रकार नामकर्म का उदय है वह ऐसी ही आहार वर्गणाओं को ग्रहण किए हुए है जिससे यह देह बना हुआ है, पर जीव जो चैतन्यस्वरूप है उसके संबंध का निमित्त पाकर तो बना, मगर जीव देह का कुछ नहीं कर सकता । क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप कभी नहीं परिणम सकता । यह वस्तु का स्वरूप है । जो कुछ यह कर पाता है वह अपने स्वरूप में ही कर पाता है । धन कमाना अथवा किसी को सुखी करना किसी को दुःखी करना, किसी के काम में बाधा डालना, किसी के खोट के काम में शामिल हो जाना आदि, इन कामों को क्या जीव करता है? यह जीव तो मात्र ज्ञान परिणाम करता है । ज्ञान का बुरा ढंग से परिणमन हो रहा है तो वह बुरी बात है, वह जीव की बरबादी का कारण है । सुख दुःख न करें और मोक्ष जाये तो वहाँ यह कौन कर सकता है? यह ज्ञान ही कर सकता है । ज्ञान का ही नाम सम्यग्दर्शन, ज्ञान का ही नाम सम्यग्ज्ञान, ज्ञान का ही नाम सम्यक्चारित्र । ज्ञान में इस तरह की दृढ़ता की जानकारी रखना, कुछ विश्वास लेकर जीवादिक 7 तत्त्वों के श्रद्धानरूप से ज्ञान के परिणमन का नाम है सम्यक्त्व और सभी पदार्थों में जिसका जैसा स्वरूप है उस प्रकार से जानने का नाम सम्यग्ज्ञान और आत्मा का जो स्वरूप है उस स्वरूप में ही स्थिर होवे इसका नाम सम्यक᳭चारित्र । ज्ञानगुण एक ऐसा प्रधान गुण है असाधारण गुण है कि इस ज्ञान से ही इस अंतस्तत्त्व को जान पाते हैं कि मैं इस ज्ञानरूप हूँ और इस ज्ञानभाव से अतिरिक्त जो भी मेरे में भाव होता है वह सब अजीव है । मैं नहीं हूँ । कर्मबंध होता, उसका उदय रहा, अनुभाग खिला । जीव पर एक अज्ञात आक्रमण हुआ, प्रतिफलन हुआ । अब यह अज्ञानी जीव कर क्या रहा है? उस कर्म दशा में अपने आपका अनुभव कर रहा है ? मैं यह हूँ । ज्ञानी जानता है मैं ज्ञानस्वरूप का ही ज्ञान कर रहा हूँ । ज्ञान का काम तो कर रहा है ज्ञानी और ज्ञान का ही काम कर रहे हैं भगवान । ज्ञान भी एक व्यापक तत्त्व है कि सर्वत्र इस ज्ञान के अनुरूप ही सब कुछ हो रहा है । तो मुझे दुःख से हटना है और शांति में आना है तो कोई ज्ञान का ही प्रयोग करना हैं । इसका कारण यह है कि ज्ञान सिवाय हम अन्य कुछ नहीं कर पाते ।
403―ज्ञानकरोंत से ज्ञानरस व कर्मरस को भिन्न करने का संदेश―ज्ञान का ही प्रयोग करके अपने स्वरूप को जान लें । मैं यह ज्ञानमात्र हूँ । अन्य कुछ नहीं हूँ अन्य सब कुछ ये कर्म के नाटक हैं । ये मैं नहीं हूं । मैं तो एक सहजशुद्ध चैतन्यरस स्वरूप हूँ । ऐसी ज्ञान की करौंत चलाई जावे, इस जीव में और इस कर्मानुभाग अजीव में, इन दोनों के बीच प्रज्ञारूपी करौंत चलायी जाये और स्पष्ट कर दिया जाये कि यह मैं जीव हूँ । यह मैं अजीव नहीं हूँ सो देखो जब यह जीव और अजीव स्पष्ट रूप से विघट जाता है तो तुरंत ही इस जीव को सम्यक्त्व प्रकाश मिलता है । उसके बाद ही इस ज्ञान से ही ज्ञान को रगड़ते चले जाते हैं । लोग कहते हैं कि हम फालतू नहीं हैं, हलारे पास फुरसत नहीं है, काम बहुत लगा है, और जरा यथार्थता से देखें तो इस जीवन में हरदम फुरसत ही फुरसत है । कैसी फुरसत? जिसने वस्तुस्वरूप को जान लिया । जीव पर वस्तु में कुछ नहीं करता । जो कुछ कर रहा हूँ सो अपने भाव में । परंतु देखो भैया अन्य के भाव करने के जो प्रसंग हैं इनमें तो सब फुरसत है । अगर फुरसत नहीं है तो खोटे कामों के लिए भी फुरसत न रहे, तब तो जाना जाये कि फुरसत नहीं है, पर अपने ज्ञान से इतना विमुख हो रहे हैं कि ज्ञान की ओर दृष्टि देने की भी इसे फुरसत नहीं हैं । ज्ञानरूपी करौंत से ज्ञान में दो टूक कर दिया जाना चाहिये जीव और अजीव । मैं यह हूँ । जिसको शांत होना है उसको यही करना होगा, सुख शांति का उपाय दूसरा हो ही नहीं सकता । सबको एक इस ही घाट में आना होगा, तो सुख शांति होगी । हां तो यह सब ज्ञान द्वारा भेद करें जीव और अजीव पृथक-पृथक है मैं चेतन हूँ । क्या स्थिति चलती है? मेरा चेतने का कार्य है । मैं सहज हूँ । क्या स्थिति चलती है? पहले तो इस ज्ञानस्वरूप आत्मा ने अपने सहज ज्ञानस्वरूप को परखा और इसके अतिरिक्त जो भी उपद्रव क्रोध आये, मान आये, लोभ सताये ये सारे उपद्रव ये कर्म के नाच हैं, ऐसा जानकर उससे नहीं चिपटता और अपने ज्ञानस्वरूप की ओर आता है ज्ञानी ।
404―ज्ञानी की स्वरूप से अचलितता―ज्ञानी पुरुष के ऐसा साहस जगता है कि वज्र भी गिरे, कोई उपद्रव आये तो भी उसका दृढ़ निर्णय है कि चैतन्य स्वरूप तो अविकार है । इस स्वरूप में कभी भी कोई विकार नहीं है । सहज ही मैं स्वयं ज्ञानमात्र हूं । बस इसका ही अभ्यास होने के लिए, धर्मपालन के लिए अन्य सबकी उपेक्षा जानी है । जो अज्ञानी जन होते हैं वे विभावों की उपेक्षा नहीं कर पाते हैं और यही कारण है कि ज्ञानभाव की सुध नहीं रख पाते और न जीवन में कभी तृप्ति होती, न कभी विश्राम मिलता, न निर्विकल्पता का अवसर आता । पर जब ज्ञानी हुआ जीव तब जीव के मैं ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व हूं, बस इस ही ज्ञान में संयत होता है, इस ही स्वरूप में समुचित होता है तब सब ओर से ज्ञानरश्मियों को समेटकर ज्ञानस्वभाव में संग्रहित करता है, ज्ञान प्रकट होता है । जीव को ज्ञान और आनंद ये दो बातें पाने की बात चित्त में बसा करती है । लोग धन का मोह तो इसी कारण करते हैं कि उन्हें यह भ्रम लगा है कि धन से आनंद मिलता है । और ज्ञान से इस जीव को अंत प्रीति रहती है । सभी को यह उत्सुकता रहती है कि मेरा ज्ञान बढ़े और आनंद बढ़े । शेष जो कुछ हो सो हो । तो जब यह ज्ञान अपनी भूली हुई याने विपरीत जानकारियों को मिटाता है अर्थात् ख्याल छोड़ता है और अपने ज्ञान को करता है तो यहाँ से एक ऐसा प्रताप छूटता है कि जो कर्मों का विध्वंस कर देगा । कर्मों का विध्वंस ज्ञान नहीं करता, पर ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक योग है कि जहां ज्ञान अपने ज्ञानस्वरूप को सम्हाले वहाँ कर्मों से कर्मत्व दूर होता है, यो आवरण दूर होने पर यह ज्ञान लोकालोक को जानने लगता है । ज्ञान का प्रताप बनता है, ज्ञान में ज्ञान को समा लेने से । कोई बाहर की जानकारी बढ़ा-बढ़ाकर सर्वज्ञ होना चाहे तो कैसे हो सकता है? ऐसी सर्वज्ञता मीमांसक जनों ने चाही कि बस जान-जानकर ज्ञान का संग्रह बन जाये । ज्ञान अपने स्वभाव से ही उस प्रकार का बर्ताव रखता है, ऐसी वृत्ति से बर्ताव है कि जगत में जो भी सत् हैं वे स्वयं ज्ञेय होते हैं । उपयोग लगाने की आवश्यकता नहीं होती वहाँ ज्ञान की स्वच्छता ही ऐसी है कि समस्त लोकालोक ज्ञान में प्रतिबिंबित होता है । तो ऐसा ज्ञान कब प्रकट होता है ? जब ज्ञान में ज्ञान का सम्वेदन कर दिया । आत्मा जब वीतराग हो, निर्मल हो, रागद्वेष के संस्कार समाप्त हो जाते, तब जीव में ऐसा ज्ञान प्रताप प्रकट होता है । जैसे आक्सी काँच में सूर्य की किरणें संचित हो जाती हैं, सूर्य की किरणों के सामने आक्सी काँच रखा हो तो किरणों का तेज प्रकाश पड़ने से काँच के नीचे पड़ी रुई या कागज जलने लगता है । ऐसे ही जब यह ज्ञान मात्र अपने ज्ञानस्वरूप को जान रहा हो, जिस काल में निर्विकल्पता की स्थिति बनती हैं इसे कुछ बाहर का पता नहीं, यह कुछ अंदर में निरखने का यत्न करता नहीं, स्वयं ही एक ऐसा परिणाम बना कि जो ज्ञानमय परिणाम है । यह प्रयोग अब तक जीव ने नहीं किया और इसी से यह संसार में घूमता रहा है ।
405―निज सहज स्वभाव में उपयुक्त होने का प्रताप―जो जीव के स्वरूप को जान लेता है उसमें क्षमा मार्दव आदिक भाव स्वयं प्रकट हो जाते हैं । इन दस धर्मों की पूजा करने से या केवल पढ़ जाने से, उसकी एक कार्यवाही कर लेने से क्या धर्म के प्रसाद से होने वाला गुण प्राप्त किया जा सकता है ? वह तो प्रयोग की चीज थी । भैया, जीवन को क्षणिक जानें जब कभी भी यह जीवन नष्ट हो सकता है । तो ऐसी स्थिति में उसका कर्तव्य क्या है? मोहरागद्वेष छोड़ें और आत्म स्वरूप में विश्राम से बैठ जाये । उसमें कोई ज्यादा ज्ञान नहीं, तो कम से कम इतना तो परिचय कर ही लेना चाहिए कि जगत में जो कुछ संग समागम है वह मेरे लिए हितरूप नहीं । उनसे मेरा संबंध नहीं । देखो जब जीव पर कर्माक्रमण होता है अन्य क्षण होता है नवीन आयु का उदय होता है तो जीव किस तरह निकल जाता है―कांच से न छिड़ेगा, लोहे से न छिड़ेगा । पता नहीं पड़ता कि जीव कैसे निकल जाता है? जो शरीर से निकला है वह शरीर में रहकर भी शरीर से निराला स्वरूप रखता था । ऐसा नहीं कि जब शरीर में रह रहा था तब तो वे दोनों एक थे । एकमेक तो पर से कोई होता नहीं । जो एक-एक है, वह हमेशा एक-एक हैं । चाहे कितना संबंध हो, कितना ही बंधन हो फिर भी प्रत्येक द्रव्य एक एक है, ऐसे ही अपने एक का ध्यान बनायें कि मैं क्या हूँ, बेकार की बात सुनकर समझकर घर पर दुकान पर चलते फिरते, सत्संग में बैठकर, इंद्रिय व्यापार को बंद कर किसी बात का ख्याल न रख, अपनी ऐसी स्थिति बनकर एक परम विश्राम से बैठ जाये उसके सब दोष दूर होंगे और वह अपने आपमें परम सहज आनंद का अनुभव करेगा ।
406―बाह्य पदार्थों से विरक्त होकर स्व में रत होने में कल्याण―बाहर विश्वास न रखें । बाहर सब धोखा है, जो मिला है वह विनाशीक है जितना जो भी समागम आज मिला है वह हमारे पाप का तो कारण बन जायेगा, पर भले का कारण न बनेगा । जैसे कोई बालक सपूत हो या कोई कुपूत हो, दुःख दोनों में है । कुपूत से तो दुःख प्रकट ही है कि उसके पीछे पिता ही क्या, सभी दुःखी रहते हैं । कहीं धन चुरा ले गया, कहीं व्यसनी हो गया, कहीं जुआं सट्टे में जाकर लुट पिटकर आता है, पागलों की तरह वृत्तियां करता है, कुछ सही ढंग से काम नहीं करता, कितने ही लोगों की शिकायतें आती है तो वहाँ दुःख कुपूत से प्रकट ही है, लेकिन यदि कोई एक बार यह ऐलान करवा दें कि अब हमारा इससे कोई वास्ता नहीं इसे जो कोई जो कुछ ले दे, सो वह जाने हम इसके कोई जिम्मेदार नहीं, तो लो एक बार में ही उस कुपूत का दुःख मिट गया, मगर बालक सपूत निकला तो वहाँ का दुःख तो बहुत ही बड़ा होता है । अरे पिता को उस बालक से इतना मोह हो जाता है कि वह रात दिन उसके लिए सुख साधन जुटाता फिरता है । वह चाहता है कि मैं इसके लिए इतना धन जोड़कर धर जाऊँ कि यह अपने जीवन में फिर कभी भूखा न रहेगा । तो कुपूत से भी ज्यादा दुःख सुपूत से मिला । वस्तुत: तो न कुपूत से दुःख है न सुपूत से । वह ज्ञान की एक कल्पना है । वह सदा नहीं टिक सकती, क्योंकि विषयभूत स्थितियाँ बदलती रहती है । अपने आपके ध्रुव स्वभाव का ध्रुव ज्ञान मात्र तत्त्व का आश्रय लीजिए, जिसके प्रसाद से हमको शांति प्राप्त हो । शांति का उपाय सब जगह डोल-डोल कर कहीं बाहर में न मिलेगा । वह मिलेगा अपने आपके स्वरूप में, अपने आपके अंदर । यह बात अपने ही घर की कही जा रही है । मैं ज्ञान मात्र हूँ, मैं निरंतर परिणमता रहता हूँ । जब ज्ञानरूप हूँ तो ज्ञान का ही परिणाम न पूरे रूप से, यथार्थ रूप से अथवा भले रूप से ही तो चला करता है तो अपना ज्ञान सम्हालें । अपनी सम्हाल किया तो जैसे अटपट चलने वाली बस गाड़ी का एक पेंच बंद कर दिया तो वह गाड़ी एक जगह झट खड़ी हो गई, सम्हल गई ऐसे ही ज्ञान में चलते-चलते कर्मानुभाग तो ज्ञेय था मगर उसमें अपने को मिला लिया ज्ञान में और एक अपने को । मैंने कहा था कि मैं चैतन्य मात्र हूँ बाकी सब कर्म का नाच है । ये कर्म नचो, मैं इन्हें भी न अपनाऊं, मैं उससे भिन्न अपने को चैतन्यमात्र अनुभव करूं ऐसा सहज चैतन्यमात्र शक्ति का विकास होते-होते केवल ज्ञानी सदा के लिए इनसे दूर हो जाते हैं । इस तरह जीव और अजीव अभेद होकर वहाँ सब अलग हो गए । यहाँ साधक के ज्ञान में यह दिख रहा है कि यह जीव अलग यह जीव अलग ।
407―जीवों की रूचि की द्विविधता―जीव दो प्रकार की रूचि के होते हैं एक तो वे जिनको कषायों से प्रेम है, और एक वे जिनको आत्मकल्याण में प्रेम है । कषाय में प्रेम रहने वाले अज्ञानी चिरसंसारी कहलाते हैं और आत्मकल्याण से प्रेम रखने वाले ये भव्य मोक्षमार्गी हैं, इनके निकट काल में समस्त संकट दूर होंगे, ऐसे वे ज्ञानी कहलाते हैं । जैसे अध्यात्म के रुचिया को कषायों से प्रेम नहीं होता, ऐसे ही कषाय के प्रेमियों को अध्यात्म से प्रेम नहीं होता । यह सब मिथ्यात्व प्रकृति का जब उदय चलता है तो आत्मकल्याण की भावना नहीं रहती । जब मिथ्यात्व का वेग कम होता है तो आत्मकल्याण की भावना होती है, और जब मिथ्यात्व नही रहता तब आत्म कल्याण में रूचि होती है । जैसे किसी काम को करने के लिए उस ही काम से प्रीति हो और काम करते हुए में फिर कितनी ही बाधायें हों, उनका ख्याल न करें तो वह अपने काम में सफल होता है । ऐसे ही अध्यात्म में प्रीति रखकर जो आत्मकल्याण के मार्ग पर चलता है उसे बाहरी किन्हीं बातों का ख्याल न रखकर एक आत्मा से ही प्रीति होती है, पर ऐसा सब कुछ बनने के लिए सर्व प्रथम बात यह हैं कि कुछ ज्ञान प्राप्त करो और कषाय को कम करो । इसके लिए बिना धर्म की बात करना बिल्कुल ढकोसला है । यह अपनी-अपनी परीक्षा करनी और उस तरह अपने को उतारना है । हमने कुछ ज्ञान संपादन किया था? हाँ उसकी पहिचान क्या है? उसकी पहिचान यह है कि घर गृहस्थी कुटुंब पार्टी मित्रादिक में पक्ष नहीं रहता । उसका पक्ष धर्म की ओर होता है और अन्य कार्यों की अपेक्षा धार्मिक कार्यों को महत्त्व देता है । यह तो ज्ञानी की पहिचान है । कुटुंबी मित्र जनों की अपेक्षा धर्मात्माजन, साधर्मी, गुरुजन इनको महत्त्व देता है । यह है एक भीतर का परिचय, जिससे यह समझ सकते कि क्या हम सन्मार्ग में लग पाये या नहीं? यह इसकी एक कुंजी है । भीतर परख करके जाना जा सकता है । अगर कमी है तो कोशिश करना चाहिए कि मेरे को ऐसा सत्संग मिले, मेरे को ऐसा कोई उपाय बने कि यह ममता दूर हो और सच्चे ज्ञान का प्रकाश मिले । भीतर की सफाई होने पर धर्म की बात आना सुगम होता है । जब तक भीतर सफाई नहीं रहती तब तक धर्म की बात आना कठिन होता है और धर्म बिना इस जीव की रक्षा करने वाला लोक में कोई नहीं है ।
408―धर्मरूचि के प्रारंभ का साधन अपने एकाकित्व का निर्णय―कोई सोचता हो कि मेरा तो यह अमुक दोस्त है, यह मेरी रक्षा कर देगा । यह तो मेरा कुटुंबी है, यह रक्षा कर देगा या मेरी तो बड़ी चलती है, मैं खुद अपना रक्षक हूँ, ये सारी बातें मिथ्या है । जीव की रक्षा करने वाला धर्म के सिवाय और कोई नहीं, क्योंकि जहाँ धर्म का वास नहीं है वहाँ राग, विरोध, आकुलता और बाहर में दोष दृष्टि ये सब हैरान कर रहे हैं और ये जीवन को झकझोरते रहते हैं । और जहाँ धर्म से प्रीति हैं याने भीतर में यह भावना जग रही है कि मैं अपने आपमें उस विशुद्ध ज्ञान प्रकाश का ही अनुभव करूं, अन्य कुछ अनुभव न करूं, ऐसी जिसकी रुचि जग जाये उसकी बाहर में कहीं भी आस्था नहीं होती । बस आत्मा में या गुरुजनों में, भगवान में, तीन जगह आस्था समझो । सर्वस्व है यह ही मेरा, इनके अलावा अन्य जगह आस्था आदर न हो । भीतर धार्मिक भाव ही मेरा हितकारी है, इस तरह अन्य पुरुषों में, अन्य स्थान में आस्था बनाना बस यह ही इस जीव को दु:ख का निदान बन जाता है । तो जब तक यह बात ध्यान में न आये कि मैं अकेला हूँ, अकेला ही रह जाना है, भव छोड़कर जाना है, अकेला ही वहाँ रहूँगा, जब तक ऐसी अकेलेपन की बात चित्त ने नहीं आती तब तक धर्ममार्ग में नहीं आ पाते । सबसे पहले इतना ज्ञान करना हर एक को आवश्यक है । मुख से बोलने भर से काम न चलेगा, किंतु भीतर ऐसा चिंतन हो कि एक बार चीख सी आ जाये―ओह इस मुझ अकेले की जिम्मेदार अकेले पर ही तो है, दूसरा मेरा जिम्मेदार नहीं । तो अब कौनसा उपाय ऐसा हैं कि जिससे यह भगवान आत्मा प्रसन्न रह सके, शांत रह सकें, उसका उपाय है बाहर की दृष्टि न हो । उसका उपाय है अपने अंतर की शुद्धि करना, और यह शुद्धि का प्रारंभ तब से होता है जब यह ध्यान में आ जाये कि मैं तीन लोक में अकेला ही पड़ गया । मेरा कोई दूसरा नहीं । मेरा मात्र केवल मैं ही हूँ । अनादि से मेरे अपने आप पर अकेला ही सब कुछ गुजरा । सब कुछ बीता, अच्छे बुरे धक्के खाये, जन्म मरण किया, जगह-जगह डोला, यही अकेला घूमता चला गया । इसका कोई साथी भी हुआ क्या? जगत में जितने जीव हैं प्राय: सभी जीवों से अनेक बार कुटुंबी रिश्ता हुआ होगा, मगर आज कोई कुछ याद है क्या? भूल गए तो जो दो चार जीव घर में आ गए, जिनसे कषाय मिल गई उनको मान लिया कि ये मेरे सर्वस्व है इससे क्या पूरा पड़ेगा ।
409―अलौकिक मित्र की शरण्यता―इस जगत की मित्रता में क्या दम है? कषाय से कषाय मिल गई तो मित्र कहलाने लगे । जहाँ कषाय से कषाय न मिली तो शत्रु कहलाने लगे । यह ही है एक लौकिक मित्र का लक्षण । और अलौकिक मित्र कौन होते हैं जो कषाय को छोड़ने की बात या प्रसंग बनते हों वे अलौकिक मित्र है । मगर जब तक मोह का उदय है तब तक उस अलौकिक मित्र की ओर दृष्टि नहीं होती, किंतु उस लौकिक मित्र की ओर जो कषाय को पुष्ट करें जो हमको भुलावे में डाले, बस दुनिया में वही दोस्त कहलाता है, वही बंधु कहलाता है । तो यह जगत का जितना समागम है, जिसमें यह जीव मौज मानता है वह सर्व अनर्थ का आयतन है । धर्मायतन तो भगवान, गुरु, शास्त्र और आत्मस्वरूप ये चार स्थान धर्मायतन कहलाते हैं । आत्मा स्वयं धर्मरूप है, किंतु उस धर्मस्वरूप का परिचय न होने से यह इस धर्म का आदर नहीं कर पाता । अधर्म का आदर करता है । अधर्म मायने विषय और कषाय जो आत्मा का अकल्याण करने वाले हैं, उन विषय कषायों में जीव का आदर रखना और जो आत्मा का भला करने वाले हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक᳭चारित्र ये रत्न, ये धर्म जिसके आधार है उसको भगवतस्वरूप प्रकट होने वाला ही होता है । ऐसी स्थिति है दो प्रकार की रूचि वाले लोगों की । अब यहाँ अपने हित की बात छांटो कि कषायों में प्रेम रखने से हमारा भला होगा या धर्म में प्रीति रखने से हमारा भला होगा? थोड़ा ही विवेक रखने पर यह ध्यान में आ जायेगा कि धर्म की प्रीति से भला है या कषाय की प्रीति से भला नहीं । इतनी बात जब ध्यान में आये तब आगे बढ़े चलो अध्यात्म बोध में ।
410―अध्यात्म विकास के मूल साधक आत्म परिचय के बिना विकल्प विडंबनायें―अध्यात्म विकासार्थ अपने आपको निरखना है कि मैं क्या हूँ और मुझ पर गुजर क्या रहा है? मैं क्या हूं ? मैं हूँ एक चैतन्य पदार्थ, जिसका काम जानना देखना है और जानने देखने में किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होती, कोई कष्ट नहीं होता, पर, गुजर क्या रहा? तकलीफ, कष्ट । क्या कष्ट है भाई ? कष्ट है । कोई कहता है कि मेरे अमुक का वियोग हो गया, कोई कहता है कि मेरे को धन की कमी हो गई, कोई सोचता है कि मेरे को आज इज्जत (जैसी चाह रखी है वैसी) नहीं मिल रही । अनेक लोगों के अनेक-अनेक तरह के उत्तर है और सभी जीव अपने को कष्टरूप अनुभव कर रहे हैं । जो पुत्रों वाला है वह पुत्र अधिक हो गए उनके निपटाने में लगा हुआ कष्ट मानता है । जिसका फल तुरंत यह होता है कि मोह उसका इतना बढ़ता है कि वह आत्मा की कुछ सुध नहीं कर पाता । और जिंदगी भर उसके सुख की आशा से तृष्णा में बँधा रहता है । किसी का पुत्र कुपूत हो गया तो अनेक उलाहने, अनेक उत्पात होते रहने से दुःख मानते तो सब एक अपने-अपने ख्यालात के अनुसार और ऐसे ही नाना ख्यालों में अनेक विषय बन जाते हैं । तो यह जो आज हम आप सबकी बहुत बुरी स्थिति चल रही है तो क्या ऐसी ही स्थिति चलाते रहना चाहिए? कितना ही काल गुजर गया इन खोटे भावों में, फिर भी खोटा खोटा ही कहलाता है । राग हटाने में ही सार है, वे हटेंगे किस प्रकार? बस आत्म ज्ञान से, सबसे निराला मैं आत्म तत्त्व हूँ । मैं किसी दूसरे पदार्थ को करता नहीं, दूसरे पदार्थ को भोगता नहीं, दूसरा पदार्थ मेरा कुछ बनता नहीं । मैं कहीं दूसरा बन नहीं गया । मैं ज्ञानस्वरूप हूँ । ज्ञान ही मेरा सर्वस्व धन है । ज्ञान को ही मैं मैं करता हूँ, ज्ञान को ही भोगता हूँ, ऐसा जो अपने ज्ञानमात्र तत्त्व में दृष्टि रखता है उसको मुक्ति का मार्ग मिलता है । अब तक संसार में यह जीव रुलता आया तो इन चार बातों के कारण जो मैं नहीं हूं उसको माना, मैं याने देह में नहीं, उसको माना कि यह मैं हूँ । जो मेरा नहीं, उसको माना मेरा । धन वैभव परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, उसे मान रहा है मेरा । जो मैं कर नहीं सकता, कभी किया ही नहीं गया, उसके विषय में मानता है कि मैंने किया, मैं करता हूँ, करूंगा । परपदार्थ के बारे में मकान हो, वैभव हो, कुटुंब हो, पढ़ाना हो, व्यापार हो, हर जगह मैंने ऐसा किया, मैं ऐसा करता हूँ, मैं ऐसा कर दूंगा । जो किया नहीं जा सकता कभी । आत्मा अपने प्रदेशों से बाहर कुछ भी नहीं कर सकता, पर पदार्थों में मानता कि मैंने किया, मैं करता हूँ, मैं करूँगा, बस इस मिथ्या बुद्धि के कारण यह जीव जगत में अब तक रुलता चला आया है । मूल बात पर आइये । पदार्थ को अपना स्वरूप मानना, पर को अपना मानना, पर को कर्ता मानना, पर का भोक्ता मानना, बस ये चार गल्तियाँ इस जीव को संसार में रुलाती हैं । ये चारों गल्तियां, कैसे छूटे? उसका बोध कराने के लिए समयसार में एक कर्तृ कर्म अधिकार बहुत स्पष्टता के साथ प्रकाश देता है ।
411―अजीव के विकार में कारण द्वय तथा जीव के व्यक्त विकार में कारणत्रय का संकेत―इस प्रकरण में यह निर्णय किया है कि जीव क्या करता है । कर्म क्या करता है? जीव के द्वारा क्या किया जाता है? कर्म के द्वारा क्या किया जाता है ? यह बात बतायी जाती है संसार अवस्था में, क्योंकि संसारी जीवों को ही इन कर्मों से छूटना है । तो कर्मजाल कैसे हुआ ? इस तथ्य का निर्णय किए बिना कैसे कदम बढ़ाया जा सकता है, तो उस ही बात को समझने के लिए कुछ बातें ज्ञातव्य है । जिनका ज्ञान किए बिना यह विषय भली भाँति न समझ आयेगा । जैसे उपादान कारण निमित्तकारण और आश्रयभूत कारण । इन तीन का रहस्य समझना है । इसके अतिरिक्त अन्य भी बातें हैं । उपादान कारण क्या कहलाता है कि जिस पदार्थ में कार्य हो, जो पदार्थ कार्य रूप परिणम रहा हो, उसे उपादानकारण कहते हैं । निमित्त कारण किसे कहते हैं कि परिणमन जो होता है उपादान में वह किसी पदार्थ का सान्निध्य होने पर होता है―जिसके न होने पर नहीं होता, ऐसा जो पदार्थ हो उसे कहते हैं निमित्त कारण और आश्रयभूत कारण क्या? जीव रागद्वेषमय कुछ परिणमन कर रहा हो तो उस समय में ख्याल किसका रख रहा है? जिनका यह ख्याल करके कषाय करता हो वे-वे पदार्थ आश्रयभूत कारण होते हैं । इन तीन कारणों की बात जीव के लिए ही है और अजीव की ही जहाँ बात कही जा रही हो वहाँ दो ही कारण होते हैं । (1) निमित्त कारण (2) उपादान कारण । आश्रयभूत कारण क्यों नहीं होता ? क्योंकि वे दोनों अजीव हैं, और कोई सा भी अजीव किसी पदार्थ का उपयोग नहीं कर सकता, किंतु जीव के जो विकार होता है, कषायें जगती हैं उन कषायों के होने में तीन कारण होते हैं ।
412―विकार के साधनभूत कारणद्वय व कारणत्रय का दिग्दर्शन―उदाहरण के लिए देखो―मशीनें चलती है । किस पुर्जे का किस पुर्जे से संबंध है? यह पुर्जा घूमे तो दूसरा पुर्जा किस तरह घूमे जैसे एक घड़ी ही ले लो―चाबी भरी है । अब चाबी की कमान स्वभावत: उठने की ओर रहती है । तो उठने से जितना मौका मिलता उतना एक चक्के के अंश का घुमाव बनता है । प्रथम चक्र का एक घुमाव होने पर दूसरे का घुमाव प्रारंभ होता उससे दूसरा चक्का पूरा घूमने के बाद बड़ा चक्का घूमता उसके घूमने के बाद तीसरा थोड़ा घूमता । इस तरह तीन सुई चलती हैं । सब काम अजीव अजीव मेंहो रहे हैं । यह जीव का कुछ काम नहीं । जो चल रहा है वह उपादान और जिसके होने पर चलता हे वह निमित्त । यहाँ आश्रयभूत कारण की जरूरत नहीं, क्योंकि कौनसा पुर्जा किसका ख्याल करें ? ख्याल करने वाली बात अजीव में नहीं इस कारण अजीव में आश्रयभूत कारण नहीं हुआ करते । अब जीव की बात लो―मनुष्य को क्रोध आया तो जीव को क्रोध आया तो उस क्रोध का उपादान कारण कौन? यह जीव, जो मलिन है, जिसकी योग्यता है ऐसी और निमित्त कारण कौन कहलाया? उस क्रोध प्रकृति का उदय । 148 प्रकार के कर्म का बंधन है जीव के साथ । उनमें से क्रोध प्रकृति भी है । तो क्रोध प्रकृति का उदय न होती जीव क्रोध नहीं कर पाता । तो जीव का क्रोध करने में क्रोध प्रकृति निमित्त हुई, और आश्रयभूत कारण कौन हुआ? जिस पदार्थ का ख्याल रखकर जिसके विषय में क्रोध का भाव जगा वह आश्रयभूत कारण होता है । अब यहाँ यह बात समझना है पहले कि वास्तविकता है क्या यहाँ वास्तविकता यह हैं कि पहले बाँधे हुए कर्मों की प्रकृति का उदय हुआ याने उसमें अनुभाग पड़ा था । वह अनुभाग फूटा, प्रगट हुआ । बस यह तो एक निमित्त कारण है । उसका हुआ प्रतिफलन बस और इस जीव ने उस समय किसी पुरूष पर, स्त्री पर, पुत्र पर या वैभव पर दृष्टि रखकर अपना भाव बिगाड़ा तो यहाँ चेतन अचेतन में परिणमन हुआ आश्रयभूत कारण । और कर्म उदय हुआ निमित्त कारण तथा उपादान कारण हुआ यह स्वयं जीव ।
413―ज्ञान और कर्मरस के मिलित आस्वादन के अविवेक में रागद्वेषादि विकारों की मुद्दा का रूपक―अच्छा यह बताया था एक दिन कि रागद्वेष विकार क्रोध ये हैं क्या चीज? उनकी शकल है क्या? क्या उनकी मुद्रा है? ये कषाय कोई चीज नहीं हैं । यह एक भ्रांत उपयोग की दशा है । ये इच्छा विकार आदिक क्या वस्तु है? अब जैसे पूछा जाये कि दर्पण में प्रतिबिंब पड़ा किसी चीज का । जो सामने हो तो यह प्रतिबिंब क्या वस्तु है? वहाँ तो थोड़ा कहा भी जायेगा कि प्रतिबिंब में उस प्रकार की स्वच्छता का विकार है । तो ऐसे ही यहाँ समझिये कि जब कर्म का उदय होता है । तो उस कर्म का अंधेरा अनुभाग यहाँ प्रतिफलित होता है, मायने ज्ञान पर उसका आक्रमण चलता है, एक प्रतिबिंब जैसे समझिये उस समय दशा क्या बन जाती है जीव की कि जीव जो ज्ञानस्वरूप है, जिसका ईमानदारी का काम केवल जाननहार रहना है सो अपने स्वरूप के कारण यह वृत्ति तो चली मगर उस काल में उस कर्मानुभाग के प्रतिफलन का मिश्रण हो गया । अब जैसे हाथी हलुवा और घास दोनों को एक साथ मिलाकर खाता है । उसने कभी यह बात नहीं सोची कि चलो एक बार खाली हलुआ का स्वाद ले लें, वह तो दोनों को मिलाकर खाता है ऐसे ही अज्ञानी जीव इस अपने ज्ञान को और इस ज्ञान में मिश्रण हुआ है कर्मरस का सो उस कर्मरस को मिलाकर यह अपने में स्वाद लेता है, अर्थात मैं ज्ञानरस का स्वाद लेता हूँ, इसको तो बिल्कुल भूल जाता है और जो कर्मरस स्वाद में आया उसका ही ध्यान रहता है कि मैं तो यह स्वाद ले रहा हूँ, मैं तो यह कर रहा हूँ । फिर आप यह पूछेंगे कि फिर मिश्रण क्या रहा? ज्ञान रस का तो स्वाद इसने माना नहीं और कर्मरस का स्वाद इसने माना तो अलग ही तो रहती बात । मिश्रण कैसे हो? यह मिश्रण अपने आप हो गया याने ज्ञानरस को तो भूल गया यह जीव मगर उस ज्ञेय को कर्मरूप से भी जो स्वाद रहा वह ज्ञान के आधार से ही स्वाद रहा । इसलिए ज्ञानरस तो छुटाया भी नहीं छूटता और उसके साथ कर्मरस और लिया तो यह एक मिश्रण हो गया । यहाँ यह बात भेद के लिए समझनी होगी कि मैं चेतन तो केवल जानने का काम करता हूँ । अब इसके साथ कर्मानुभाग का प्रतिफलन है सो जानने की दशा मुड़ जाती है, जानना चाहिए हमें उपेक्षा रूप से ज्ञेयरूप से प्रतिभास मात्र मगर ज्ञान की दिशा मुड़ जाती है उस कर्मरस के मिश्रण में, तो यह ज्ञान विकल्प करता है, यह अच्छा है, यह बुरा हैं बस ज्ञान का इस ढंग से जानने का ही नाम विकार है । विकार यहाँ आ कैसे सकता है ? एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य की कोई परिणति आती नहीं । बस यह जीव ही अपने ज्ञान में उल्टा चलता, भ्रम कर गया बस यह कहलाता है विकार और इस विकार के प्रकट होने में ये चेतन अचेतन सब वैभव परिग्रह संग समागम जिस-जिस पर दृष्टि गई वह उसमें आश्रयभूत कारण होता है ।
414―बरबादी के कारणों में राग मोह की प्रधानता―विकार स्थिति में जितनी द्वेष के कारण बरबादी होती है जीव की, उसमे अधिक राग के कारण बरबादी है । अज्ञानीजन राग में मस्त रहते हैं, उन्होंने बरबादी का ख्याल ही नहीं कर पाया और चूंकि द्वेष में परवस्तु रुचती नहीं है सो यहाँ समझो चित्त बड़ी कठिन स्थिति में आ गया, पर राग में जो विकट बंधन बनता है उससे इस जीव की बहुत बड़ी बरबादी है । तो चूंकि राग है न, प्रेम है न, वहाँ यह नहीं सोचता कि मैं अन्याय कर रहा हूं । क्योंकि, अपने आप पर इसको दृष्टि ही नहीं गई और अन्याय तो कर ही रहे है जगत के सभी जीव । कहाँ तो अनंत चतुष्टय का धारी भगवतस्वरूप यह आत्मा और कहाँ रागद्वेष मोह के वश होकर बाह्य-पदार्थों में हो रहा है इसका उपयोग लिपटान, बेसुधी । तो यह अपने आप पर अन्याय है कि नहीं? मोह बस, इसी का ही नाम है । अन्याय करके यह अपने को न्यायवान समझता है । कोई भी मोही जीव एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक जो-जो कार्य कर रहे हैं, रागवश, मोहवश उसको करते हुए चतुराई समझते हैं कि नहीं? घर में बस रहे, कमाई हो रही, धन आ रहा, बच्चों को खिला रहे, उन्हें देख देखकर खुश हो रहे, ऐसा करते हुए चतुराई मानता है कि नहीं यह जीव? बस इसी के मायने है मोह । गल्ती करते हुए भी गल्ती न मानकर चतुराई समझना इसे कहते हैं मोह और राग करे, द्वेष करे तो इसे कहते हैं गल्ती । मोह मायने महा गल्ती और, रागद्वेष मायने गल्ती ।
415―गल्ती की चतुराई मानने के व्यामोह का सोदाहरण संकेत―कोई पुरूष किसी गांव को जा रहा था, वह एक गाँव में पहुंच रहा था । रास्ते में उसने गांव के पहिले घर के मालिक से इष्ट गांव का रास्ता पूछा । उसने बता दिया कि अमुक गाँव को यह रास्ता जाता है । वह बढ़ई था मजाकिया । रास्ता तो गया पूरब को, पर बता दिया दक्षिण को, और साथ में यह भी कह दिया कि देखो इस गाँव के सभी लोग मजाकिया है, वे गलत रास्ता बता देंगे, उनकी बात मानना नहीं । अब वह मुसाफिर पूरब दिशा के बजाये दक्षिण दिशा को चल पड़ा । गाँव के कई लोगों से उस मुसाफिर ने रास्ता पूछा तो सभी ने पूरब को बताया, पर उसने तो यही बात मन में ठान लिया कि देखो बढ़ई ठीक ही कहता था कि इस गाँव के सभी लोग मजाकिया है, सब गलत रास्ता बताते हैं । आखिर वह किसी की न मानकर दक्षिण दिशा को बढ़ता गया । खैर आगे क्या हुआ यह बात अलग हैं, पर यहाँ देखो कि वह गलत रास्ता चल रहा फिर भी वह यह जान रहा कि हम बिल्कुल सही चल रहे, ऐसे ही ये संसार के जीव इस ज्ञान को राग मिश्रित करके स्वाद ले रहे और यह जानते हैं कि मैं बिल्कुल ठीक काम कर रहा हूँ । बहुत चतुराई का काम करता हूँ । मैने इतना धन जोड़ लिया, बच्चों को इतना पढ़ा दिया, समाज में इतना रोब भी जमा लिया । मैं बड़ा चतुर हूँ । ऐसा वह समझता है । उसे यह पता नहीं कि यह सब कषायरस हैं, मेरा स्वरूप तो ज्ञाता द्रष्टा रहना है । जब तक मैं अपने स्वरूप में न आऊँगा तब तक मुझको संसार के संकटों से विराम न मिलेगा । तो यह बात समझाने के लिए इस अधिकार में ये सब बातें आयेगी और ऐसी कुन्जी मिलेगी जैसे कि किसी समुद्र की भंवर में कोई नाव फंस गयी हो और वह नाव उस लहर के बीच डगमग करती हो, एकदम डूब जाने वाली हो, पर अचानक ही भंवर से बाहर निकल जाने का रास्ता मिल जाये, निकल जाये । इसी तरह भीतर के इस सब मनन से ऐसा मार्ग मिलता है कि यह जीव अपने आप ही एक अद᳭भुत प्रकाश पा लेता है जिस प्रकाश के पाने पर इसे तुरंत संतोष होता है और वह अपने में फिर आनंद का अनुभव करता है ।
416―निरुपाधि अंतस्तत्त्व के मिलन में ही शांति की संभवता―प्रत्येक जीव अपना हित चाहता है । सही शांति मिले, आकुलता रंच न हो, है सब बात सुगम अवश्य है । ऐसी स्थिति आयेगी कि जहाँ रंच भी आकुलता न रहे, पर इसके लिए जरा विधिपूर्वक अपने में तैयारी करनी होगी । उसमें सबसे पहले तो यह समझना होगा कि मैं एक ज्ञानमय पदार्थ हूँ, और कुछ नहीं हूँ । मैं मनुष्य नहीं, पुरुष नहीं, स्त्री नहीं, व्यापारी नहीं, बुद्धिमान नही, मूर्ख नहीं, गृहस्थ नहीं, साधु नहीं, यह सारी बाहरी दृष्टि छोड़नी होगी और अंदर में यह निगाह करनी होगी कि मैं तो ज्ञानपुंज पदार्थ हूँ । जिस निगाह में सब जीव एक समान जंचने लगें । बस उस आत्मस्वरूप का नाता रखकर सुनो, करो, सोचो तो आत्मकल्याण का मार्ग मिलेगा और जो देह कुल जाति परंपरा रूढ़ि संप्रदाय किसी भी प्रकार की बुद्धि रखे तो वहाँ धर्ममार्ग न मिलेगा, क्योंकि देखो जो बात उपाधि के संबंध से मिले वह बात सही नहीं, और उपाधि के बिना जैसा वह स्वरूप है, वैसा सही मूल रूप है । मनुष्य होना क्या मेरे जीव का स्वरूप है? जिसका जो स्वरूप होता है वह कभी मिटता नहीं । मेरा स्वरूप नहीं है मनुष्य होना । तो पहले तो यह ही बुद्धि में आये कि मैं मनुष्य नहीं, मैं तो ज्ञानमात्र हूँ तो धर्म का रास्ता मिलेगा । चूंकि मनुष्य पर्याय में हूँ इसलिए मनुष्य की ही कह रहे हैं ।
417―पर्यायात्मबुद्धि में शांतिविरुद्ध कदमों का वेग―कल्याण का मार्ग और दुनिया की लीला, ये दोनों परस्पर की जुदी-जुदी बात हैं । लोगों से कहें कि मैं मनुष्य नहीं हूँ लोग इस बात पर हँसेंगे, अज्ञानियों में बात करें और कहे कि मैं मनुष्य हूँ तो ज्ञानी मूर्ख समझेंगे इसे । इसे अपने स्वरूप का पता नहीं, बेचारा अज्ञानी है और जब देह को मान लिया कि यह मैं हूँ, मनुष्य हूँ तो सारी क्रियायें जो भी की जायेगी सो गलत होंगी । जो बोलेंगे सो गलत, सही बात न आ पायेगी । भले ही जैसे चोरों-चोरों में किसी चोर को कौन बुरा कहता? झूठों-झूठों में किसी झूठे को कौन बुरा कहता? ऐसे ही अज्ञानी पुरुष किसी अज्ञानी को कैसे बुरा कहेगा । ज्ञानी ही इस बात का निर्णय रखता है कि ऐसी स्थिति तो अज्ञानी की होती है और यह स्थिति ज्ञानी की है । जो मानता है कि मैं मनुष्य हूँ, ऐसा जिसको श्रद्धान है उसे अज्ञानी कहते हैं, क्योंकि ये उपाधि के बिना नहीं होते । कर्म साथ हैं, देह साथ है, उस सब संपर्क में यह मनुष्यपर्याय बनी । मैं आत्मा हूँ,, ज्ञानमय पदार्थ हूँ । मेरा स्वरूप केवल एक ज्ञान ज्योति है । यह नाता अगर अपना ले मनुष्य परस्पर में तो फिर झंझट विवाद न रह सकेगा ।
418―सम्यग्ज्ञान में विसंवाद का अभाव―धर्म के नाम पर जो आज इतनी कटुता है उसका प्रमुख कारण धर्म के मर्म को न समझकर अज्ञान होना है । सम्यग्ज्ञान जगने पर कटुता नहीं आती । सम्यग्ज्ञान क्या? अपने आपको अपने अंदर देखना सम्हालना, मैं क्या हूं । मैं ज्ञानमय पदार्थ हूँ । देखो थोड़े ही दिनों का जीवन है । थोड़े समय बाद गुजरना है । गुजरने बाद यहाँ का क्या काम देगा? तब क्या करना । जितना जीवन है उस जीवन में अपने को आत्मा के नाते से सोचना, विचारना, बोलना करना । एक नाता रखा कि मैं ज्ञानमय पदार्थ हूं । बस इसको दृष्टि में रखकर वृत्ति बनेगी तो कल्याण होगा । कल्याण के मार्ग में पक्षपात नहीं है । कल्याण का मार्ग किसी मजहब के अधीन नहीं है । कल्याणमय आत्मा है । स्वयं आनंदस्वरूप है और स्वयं को सम्हाल लें तो आनंद मिलेगा, कल्याण मिलेगा । केवल एक अद्वैत ब्रह्मस्वरूप अंतस्तत्त्व ज्ञानज्योति जिसके बारे में इतना भी विकल्प न हो कि यह मैं हूँ और इसका ही अनुभव चले । यह मैं एक हूँ, इतना भी विकल्प न हो और सोऽहं होने का अनुभव चले, ऐसी स्थिति बने उसे कहते हैं ज्ञानी, मोक्षमार्गी । ऐसा भव्य जीव संसार के संकटों से अवश्य छूटेगा । तो अपनी बात सोचना है कि मुझमें परिणतियां होती हैं, श्रद्धा बनती है, पर यह तो देखो कि मेरा स्वभाव क्या ? मेरा स्वभाव केवल एक ज्ञानज्योतिमात्र । केवल प्रतिभास चैतन्यस्वरूप है । और कुछ मेरा स्वभाव नहीं, बाकी बातों पर अहंकार नहीं बल्कि खेद होना चाहिए । क्यों और बातें चित्त में आती हैं? मैं एक ज्ञानमय पदार्थ हूँ । तो आत्मा का स्वभाव, उपादान का स्वभाव, मेरा स्वभाव एक प्रतिभासस्वरूप जानने देखनहार यह मैं हूँ । जहां मात्र देह को निरखकर मैं यह हूं वही राग और द्वेष, इष्ट और अनिष्ट, मेरे और पराये सारे के सारे उपद्रव घर करने लगते हैं और जहाँ यह देखा कि मैं देह से निराला, कषायों से निराला, शांति का निधान ज्ञानमय पदार्थ हूँ, जैसे मैं वैसे सब, जैसा मैं वैसा प्रभु, जैसा प्रभु वैसा मैं । किसकी दृष्टि रखकर बात की जा रही है? बाहर नहीं भीतर स्वरूप में । मैं वह हूँ जो हैं भगवान, जो मैं हूँ वह हैं भगवान, यह स्वरूप देखकर निहारो । ऐसा नहीं कि जो बाहरी रूप है उससे अपनी तुलना की हो कहीं अंत: स्वरूप से तुलना करें प्रभु की, क्योंकि बाहरी स्वरूप में तो अंतर है । भगवान तो वीतराग हैं अनंत आनंद के निधान हैं, प्रकट विशुद्ध चिदानंद रूप है और यह मैं चौरासी लाख योनियों में घूमकर आया हुआ, विकल करने वाला, मेरी और प्रभु से क्या तुलना हो सकती है? बड़ा अंतर है । पर स्वरूप देखा जाये तो स्वरूप में अंतर नहीं । मैं भी ज्ञानस्वरूप, प्रभु भी ज्ञान स्वरूप । यहाँ विषय कषाय उमड़ते हैं तो संसार में रुलना होता है । यहाँ विषय कषाय रंच नहीं है, इसलिए वे आनंदघन रहा करते हैं ।
419―उपादान का स्वभाव और वर्तमान परिणमन―हमें अपने में यह सोचना है कि मैं हूँ क्या और बन क्या रहा हूँ ये दो निर्णय बनाना है, मैं हूँ क्या? मैं निरपेक्ष स्वरूप, अपने सत्त्व के कारण हूँ क्या? एक ज्ञानमय पदार्थ । और, हो क्या रहा हूं? नाना विकल्प, नाना कषाय, इष्ट अनिष्ट बुद्धि, मेरे तेरे के परिणाम । तो यहाँ एक प्रश्न होता है कि मेरे स्वरूप में नहीं है विकार, मेरे स्वरूप में नहीं है कषाय, मेरे स्वरूप में नहीं है उलझन, तो यह उलझन बन कैसे गई? देखो जितनी विषमतायें होती हैं, जगत में वे किसी परपदार्थ का निमित्त पाकर होती हैं । अपने आप सहज तो निरपेक्ष तथा स्वयं विशुद्ध रहता है । पर गड़बड़ी जितनी होती है वह पर का निमित्त पाकर होती है । यहाँ पर भी इस बात का ध्यान रखना कि हम में रागादिक विकार जो भी जगते हैं वे निमित्त पाये बिना नहीं जग सकते, निमित्त पाकर ही जगते हैं, फिर भी निमित्तभूत परपदार्थ इस विकार रूप परिणति को नहीं करता । प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र है । एक थोड़ा सा उदाहरण मोटा समझ लो श्रोता और वक्ता । वक्ता श्रोता की कोई परिणति करता है क्या? अगर वक्ता श्रोता की परिणति कर देता होता तो सभी को ज्ञानी बना दे, सभी को सन्मार्गी बना दे तो वक्ता नहीं करता कुछ भी श्रोताओं का । तो क्या श्रोता वक्ता में कुछ करता है । वह भी कुछ नहीं करता । मगर श्रोताओं में जो चेष्टा चल रही है, जिसका जैसा उपादान है, कोई अच्छे भाव से सुनता है, कोई अन्यभाव लेकर सुनता है, कोई ज्ञान की दृष्टि कर लेता है कोई दुकान मकान मोह चक्कर में अपना दिमाग उठाये हुए है । यह जो परिणति श्रोताओं की है वह उनकी योग्यता से हैं और वक्ता जो कह रहा, बोल रहा वक्ता की योग्यता से है वह, पर निमित्तनैमित्तिक संबंध तो देखिये―वक्ता का निमित्त न हो तो श्रोता लोग इस स्थिति में कहीं जुड़े बैठे मिलेंगे और क्या ऐसी चेष्टा करते मिलेंगे और श्रोता न हो तो वक्ता क्या ऐसी चेष्टा करता हुआ दिखेगा? एक दूसरे का कुछ न करके भी निमित्त नैमित्तिक योग से यह सब चल रहा है । ऐसे ही इस आत्मा में कर्म कुछ नहीं करते, कर्म अजीव है, कर्म की परिणति कर्म में है, कर्म जो कुछ करेंगे वे अपने अचेतन रूप ही करेंगे, जीव जो कुछ करेगा वे अपने चेतन रूप ही करेगा, दोनों का काम अलग-अलग अपने-अपने में है फिर भी जब कर्म का अनुभाग उदय में होता तो जीव में ज्ञान की दिशा मुड़ जाती है और और ढंग से ज्ञान उपचरित होता है तेरा मेरा इष्ट अनिष्ट । यह सब निमित्तनैमित्तिक वश होता है ।
420―वस्तुस्वातंत्र्य व निमित्तनैमित्तिक योग के यथार्थ परिचय का फल ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व के दर्शन का लाभ―यहाँ वस्तुस्वातंत्र्य व निमित्तनैमित्तिक योग की बातें ध्यान में इस वक्त रखी जानी हैं, किसमें विकार होता है? जीव में विकार रागद्वेष विभाव होता है, तो हो मगर ये स्वभाव नहीं हैं । स्वभाव तो जीव का वह है जो प्रभु का स्वरूप है, पर हो रहा है यह निमित्तनैमित्तक योग से । इस प्रसंग में यह भी जानना कि उस प्रकार का निमित्त हो तो रहा है । कर्म बाँध रखे, सत्ता में पड़े हैं । वे कुछ भी कष्ट के कारण नहीं होते, जब कर्म का विपाककाल आता है तब विकार बनते हैं । उदाहरण दिया गया है एक । जैसे किसी पुरूष का विवाह 7-8 वर्ष की कन्या के साथ हो गया तो वह कन्या पुरुष के विकार का कारण नहीं बन पाती । जब स्वयं वह जवानी पर होती है तो वह पुरुष के उपभोग्य होती है विकार का कारण बनती है । ऐसे ही कर्म बाँध रखा जीव ने, वे कर्म बंधे हैं, सत्ता में पड़े हैं, उनसे जीव का बिगाड़ नहीं होता । जब वे कर्म अपनी जवानी पर आते, उदयकाल होता, अनुभाग खिलता उस समय में यह जीव अपने में विकार परिणाम करता है । प्रत्येक पदार्थ का परिणमन खुद का खुद में है, मगर विकारभाव जितने भी होते हैं, वे निमित्त पाकर ही होते हैं, निमित्त पाये बिना नहीं होते । इसमें हमको मार्ग दिखेगा । मेरे में राग मेरे स्वरूप से नहीं है, यह तो कर्म का प्रतिबिंब है । यह मैं नहीं, मैं ज्ञानमात्र हूँ । देखिए हर एक विधि से हर अनेक ढंगों से समझकर बात यह चित्त में लाना है कि यह मैं नहीं हूँ । मैं ज्ञानमात्र हूँ केवल ज्ञानज्योति ।
421―मनुष्यभव में प्राप्त उत्कृष्ट मन आदि साधनों का सदुपयोग कर सहज परमात्मतत्त्व की उपासना से जीवन की सफलता―यह मनुष्यभव बड़ी कठिनाई से मिला । सब लोग जानते हैं जगत के जीवों पर दृष्टि पसारकर देखो एकेंद्रिय, दो इंद्रिय कीड़ामकोड़ा पतिंगे, पशुपक्षी, इन सबसे मनुष्य कोई श्रेष्ठ जीव है या नहीं । और मनुष्य बहुत होते नहीं । अन्य जीव अनंतानंत है । पर्याप्त मनुष्य गिनती में होते हैं । इतना कठिन भव हमने पाया और इस भव को पाकर यहाँ आवरण बना रहे हैं कि मैं यह हूँ, मैं अमुक हूँ, व्यापारी हूँ, अमुक हूँ । यह बड़ा भारी अंधकार है । बड़ा अज्ञान है । ऐसी श्रद्धा रहते हुए कल्याण नहीं हो सकता । या यों कह लीजिए कि जिसको यहाँ यों समझा जा रहा उसकी सारी पोजीशन की विदाई करनी पड़ती है, तब यह अंत: एक विशुद्ध ज्ञानज्योति रूप में अपने दर्शन करता है तब ही कल्याण मार्ग मिलता है । तो मूल बात यह है कि अपने आपका ऐसा अनुभव करें कि मैं ज्ञानमात्र हूँ । जाति, कुल, देह, रूप, विद्या, बल, ऋद्धि, संपदा इन सबका नाता तोड़ना पड़ेगा । तब ज्ञान उत्पन्न होता है । जिसको ज्ञान है उसको आनंद है । उसे कभी आकुलता नहीं होती । तब ही तो कहा है कि “गैही पै गृह में न रुचे” याने जो ज्ञानी गृहस्थ है, श्रावक है वह घर में रह रहा, पर घर में आसक्त नहीं होता । एक तो यों सोचना कि घर मेरा नहीं हैं, यह तो भगवान का है । भगवान की लीला है । प्रभु का बाग है इसलिए रति न करना, ऐसा सोचकर उसका घर से मोह नहीं हट सकता, क्योंकि खुद को तो जाने पहले कि मैं खुद क्या हूँ । जब खुद के स्वरूप का परिचय होगा तब यह बोध होगा कि ओह मेरा कुछ नहीं, यहाँ तो ये सारी बातें कीचड़ हैं । उससे तो हम बचना चाहते हैं और उसमें भगवान को लपेटना चाहते है । भगवान भी निर्लेप मैं भी निर्लेप । भगवान भी अलख निरंजन, मैं भी अलख निरंजन, स्वरूप को देखो, स्वरूपदर्शन करने से यह विदित होगा कि मेरा तो परमाणुमात्र भी कुछ नहीं है । और तब भगवान के प्रति सच्ची भक्ति उमड़ेगी और भगवान के स्वरूप की महिमा विदित होगी । ओह तीनों लोक के जाननहार, तिस पर भी अपने आनंद में सदा मग्न । कभी किसी प्रकार की जहाँ व्यग्रता नहीं । ऐसा प्रभुस्वरूप जयवंत हो ।
422―आत्मस्वरूप के निर्णय में भगवत्स्वरूप के निर्णय की सुगमता―अपने स्वरूप का निर्णय होने पर प्रभुस्वरूप का सच्चा निर्णय होता है और प्रभुस्वरूप का निर्णय होने पर अपना निर्णय होता । इसमें थोड़ी सी जरा असुविधा है, क्योंकि जितना परपदार्थों का परिचय चलता है वह खुद के अनुभव के आधार पर चलता है । जहाँ अपने में कैवल्य स्वरूप के दर्शन हुए ज्ञानद्वारा भगवान के आनंद का अनुमान होता है । अपने में आनंद हुए बिना भगवान अनंत आनंदस्वरूप है, यह विश्वास नहीं बन सकता । खुद तो हो दुःखी और किसी भी प्रकार खुद के आनंद की झलक कर न पाये तो भगवान के आनंद का अनुमान नहीं किया सकता । जैसे कोई चौबेजी की पेड़े की मशहूर दुकान है । उसके नामी पेड़े हैं । उन पेड़ों में खोवा की मात्रा अधिक, बूरे की मात्रा कम, सिकाई अधिक, बड़े स्वादिष्ट ऐसे पेड़े हैं । तो कोई धनिक पुरुष उन पेड़ों को रोज-रोज एक किलो खरीदकर छक खाता है और कोई गरीब उस दुकान में एक दिन आधी छटाक ही मिठाई (पेड़ा) खरीदकर खा सका । तो भले ही वह आधी छटाक ही खा सका पर स्वाद तो वही आया जो छककर खाने वाले को आया और फिर उससे रोज-रोज छककर खाने वाले के स्वाद का अनुमान तो कर लिया कि यह ऐसा स्वाद रोज-रोज लिया करता है । यह एक मोटे आदमियों की समझ में आने वाला दृष्टांत मात्र है । ऐसे ही खुद में थोड़ा भी आनंद न जगे तो भगवान के आनंद का अनुमान नहीं किया जा सकता । वह केवल बात ही बात रहेगी कि भगवान आनंदमय हैं । खुद में कुछ आनंद जगे तो भगवान के आनंद का अनुमान बनेगा । वह आनंद कैसे जगे, उसकी दृष्टि बनाना है । थोड़ी देर को बनेगी, थोड़ी बनेगी मगर उससे यह भान तो हो जायेगा कि प्रभु इस स्थिति में रहते हैं जिससे वे आनंदमय रहा करते हैं, उसका उपाय यह ही है कि अपने आत्मा के स्वभाव का ध्यान करें । मेरा स्वभाव क्या, स्वरूप क्या? मैं चेतन हूँ । मेरा काम चेतन भर का है । केवल जानने भर का है । प्रतिभास होना, इससे आगे मेरा काम नहीं । अच्छा, जो मेरा काम नहीं वास्तव में और उस काम में मैं हाथ दूं, उस काम में मैं दखल दूं । उस काम में मैं अधिकार समझूं तो इसमें व्यग्रता रहेगी या शांति? वह अनधिकार चेष्टा है । मेरा अधिकार नहीं है कि मैं पर में कुछ कर लूं, क्योंकि मेरा स्वरूप तो केवल शुद्ध प्रतिभास का ही है । हाँ पड़ गया बीच में कर्मोदय के । विकार मुझमें ही बन रहा, लेकिन इस विकार पर मेरा अधिकार नहीं । स्वभाव पर अधिकार है मेरा । स्वरूप पर मेरा वश है, विकार पर मेरा वश नहीं, विकार पर तत्त्व है । तो विकार हटेगा कैसे? स्वरूप को सम्हालें तो विकार अपने आप हट जायेंगे । जैसे दर्पण के सामने हाथ हिलाता गया तो दर्पण में प्रतिबिंब आया । दर्पण में निज की ओर से ऐसा अधिकार नहीं कि वह प्रतिबिंब बना ले । बना वह दर्पण में हम लेकिन सामने हाथ का सन्निधान पाकर दर्पण में प्रतिबिंब आया । दर्पण जानकार नहीं है अन्यथा वह अपने स्वरूप की ओर मुड़ता तो प्रतिबिंब मिट जाता, वह हाथ भी हट जाता, लेकिन यहाँ आत्मा में जो विकार हुआ, प्रतिबिंब हुआ वह कर्मरस का प्रतिबिंब है । आत्मा जाननहार है, ज्ञानवान है, वह अपने स्वरूप को सम्हालता है । मैं ज्ञानमय हूँ, यह कर्मरस, कर्म कलंक, विकार ये मेरे कुछ नहीं है । जहाँ अपने ज्ञानस्वरूप का अनुभव किया वहाँ ये विकार झड़ जाते हैं । कर्म भी हट जाते हैं और मुक्ति निकट हो जाती हैं ।
423―आत्मस्वरूप की सम्हाल में आत्मविजय―हम आपकी विजय है तो एक अपने आपके स्वरूप का वास्तविक ध्यान करने से ही है,और प्रकार से विजय नहीं है । बाकी काम तो गोरखधंधा है । जैसे बच्चों के खेलने का एक गोरखधंधा होता है । उसमें छल्ले एक दूसरे से इस तरह फंसे रहते हैं कि उन्हें ज्यों-ज्यों निकालो त्यों-त्यों फंसते जाते हैं, वे सुलझ नहीं पाते । ज्यों-ज्यों उनके सुलझाने का प्रयत्न करो त्यों-त्यों ही वे उलझते जाते हैं । तो ऐसा ही गोरखधंधा यहाँ संसार में चल रहा है । लोग ऐसे गोरखधंधे में फंसे हैं कि एक समस्या सुलझाते तो दूसरी समस्या फिर उलझ जाती है । ज्यों-ज्यों उन समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करते त्यों-त्यों वे और भी उनमें उलझते जाते हैं । परिणाम यह होता है कि वे उस गोरखधंधे से कभी छुटकारा नहीं पाते । उन समस्याओं के सुलझाने सुलझाने में ही सारा जीवन बीत जाता है । जैसे कभी किसी ने सोचा था कि इतना धन इकट्ठा कर लें फिर आराम से धर्मध्यान में अपना समय बितायेंगे, पर होता क्या है कि उतना धन हो जाने पर कहीं सरकार के भय, कहीं चोर डाकुओं के भय, कहीं और कोई उलझन सामने खड़ी हो जाती है, परिणाम यह होता है कि उससे निकलना नहीं हो पाता है । तो भाई यहाँ के ये बाहरी काम, ये बाहरी संग्रह, विग्रह हमारा मार्ग साफ न करेंगे । हमारा मार्ग एक ज्ञान ही साफ करेगा । ज्ञानबल से ही अपने आपकी सम्हाल कर पायेंगे । सो ज्ञानों में लोकोत्तम ज्ञान, सर्वोत्तम ज्ञान यह है कि हम अपने में यह अनुभव करें कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञानघन हूँ, आनंदमय हूँ, और कुछ रूप मेरा नहीं । इस बात की दृढ़ता जितनी-जितनी बढ़ती जायेगी उतना-उतना ही हमारे आत्मा में आनंद का विस्तार बढ़ता जायेगा ।
424―आत्मविज्ञान से आध्यात्मिक हल करने का अनुरोध―कुछ भी बात सुनना है तो, शास्त्र हो रहा है, सुनना चाहिए, ऐसा भाव बनाकर न सुने किंतु कोई मेरी बात है, मेरा कोई कष्ट दूर होगा । कोई हमको शांति का मार्ग मिलेगा, मुझे अपनी बात सुनना है, ऐसा ध्यान बनाकर सुने । और जगत् में पहला काम क्या? जो लोक में बहुत एक महत्त्व का भी कहलायें ऐसा यश बढ़ाना, धन बढ़ाना, लोकोपकार करना । सब तरह के कार्य किए सब तरह के कार्य करने पर भी चित्त में या अनुभव कर रहे होंगे कि शांति तो मिली नहीं और अशांति के काम कितने ही और सामने खड़े हैं । तो आज एक दृढ़तापूर्वक ऐसा उपयोग बनायें कि हमको तो हल निकालना है कोई कि जिससे मेरा दुःख सदा के लिए टल जाये । ऐसा चित्त बनाकर अपनी बात सुनना है । देखो लोग मानते हैं कि जो बात विज्ञान पर उतर जाये वह एक तथ्य बात है । अच्छा तो विज्ञान से ही शुरू करो । कोई वस्तु है अकेली, केवल, प्योर । तो केवल मात्र वही-वही हो, जिसमें दूसरी वस्तु का कोई मिलाप न हो तो वह किस प्रकार रहता है, यह भी जानना होगा और उस एक वस्तु के निकट कोई दूसरी वस्तु रखी जाये, उसमें मिला दिया जाये तो फिर उस मूल वस्तु का क्या परिणमन होता, क्या परिस्थिति होती? यह भी जानना होगा विज्ञान से । बस यही विज्ञान अपने आपमें घटित हो । फिर होने का विधान सब लोग घटित कर लेंगे कि मैं हूँ क्या और गड़बड़ मुझमें क्या व क्यों हो रही है ।
425―अपनी केवलता के बोध में कल्याणमार्ग का दर्शन―मैं जो कुछ भी हूँ थोड़ा बहुत तो समझ है ही कि मैं ज्ञानमय पदार्थ हूँ । जो भी मैं हूँ वह यदि मैं अकेला ही होऊं, मेरे साथ कुछ न लगा हो । कोई भी दूसरी वस्तु न लगी हो तो जैसे वर्तमान समय में क्या-क्या दूसरी चीज लगी है? शरीर लगा है, कर्म लगे हैं, बाहरी संग परिग्रह लगा है, ये ये चीजें मैं कुछ नहीं । केवल खालिस प्योर मैं ही हूँ । अकेला ही मात्र में जो कुछ हूँ अपनी सत्ता से वही-वही होऊं, रहूं तो मेरी क्या स्थिति होती है । और मेरे साथ कोई दूसरी चीज लगी तो मेरी क्या परिस्थिति बनती है? बस वही एक विज्ञान है भीतर जो समझ बनेगी ज्ञान द्वारा उससे सब निर्णय बनेगा और फिर एक हल निकलेगा ऐसा कि इस जीव को त्वरित कल्याण का मार्ग मिलेगा । अब यह ही बात एक मानो सुनने में कुछ कठिन सी लगे या उस ओर चित्त न लगे तो अपने बारे में यह निश्चय बना लो कि फिर इसका होनहार आगे का कोई शांति का उपाय न बन पायेगा बाहरी पदार्थों में ही उपयोग लगा लगाकर हम क्या लाभ पा लेंगे । अब तक अनादि से यह ही तो करते आये । अनादि की बात छोड़ो, जब से इस भव में आये तब से लेकर इस उम्र तक क्या-क्या नहीं किया । क्या-क्या बात नहीं हुई पर उसका फल क्या रहा? आज अगर कोई ध्यान में भर पूरा सा है, लोकदृष्टि से बड़ा है, धनिक है, चला है, यश प्रतिष्ठा है, तो ऐसी स्थिति में चाहे यह बात कम समझ में आये लेकिन संसार के ये साधन ये स्थिर साधन नहीं है । दुःख के बाद सुख, और सुख के बाद दुःख, यह चक्र संसार में परिवर्तित होता रहता है, तो बाहर में तो कोई सार की बात है ही नहीं । बने सहज व ठीक है मगर मुख्यता तो देना है अपने आपकी ओर के लिए । अपनी केवलता ध्यान में तो अवश्य कल्याण का मार्ग मिलेगा ।
426―अपने में गुजर रहे विभावों की समालोचना―भैया इतना तो परख लो कि मुझ पर गुजर क्या रहा है, और जो कुछ इस समय गुजर रहा है, वह भार मिट कैसे सकता है? बस यह ही बात अध्यात्मग्रंथों में बतायी जाती है । पहिले देखो मुझ पर गुजर क्या रहा है? यह बात भी तब समझ में आयेगी जब यह मालूम पड़े कि मैं हूँ क्या? तब यह ध्यान में आयेगा कि यहाँ यह गुजर रहा है, बीत रहा है मुझ पर, तो मैं हूँ अपने स्वरूप से, सत्त्व से केवल जाननहार एक पदार्थ, बड़ा महत्त्वशाली तीन लोक में श्रेष्ठ पदार्थ । जो समस्त लोकालोक को जान सके, जिसको एक ज्ञान कला पड़ी हुई है वह इस निज भगवान की महिमा बता सकता है । पर खुद ही अपने स्वरूप से उल्टे चलें, विषय कषाय परिग्रह चित्त में लगायें तो हालत तो बिगड़ ही रही है । तो कुछ अपने को अपनी ही अकेला जिम्मेदार समझकर यह बात समझना है, यह हल निकालना है कि मुझ पर गुजर क्या रहा है और यह गुजर कैसे मिटेगी? तो इसके लिए दोनों बातें समझनी होंगी कि आखिर मैं सहज क्या हूँ और जो बात मुझ पर गुजर रही है, बीत रही है वह हुई कैसे? यह बात समझने पर अनुभव करना आसान रहेगा । मुझ पर गुजर रहे रागद्वेष, विकल्प, कल्पना उपयोग का भटकना यहाँ वहां? बात सोचना, लेना, कहाँ-कहाँ चित्त जाना, किस-किस ओर अपने आपको लगा देना और अपने में अपने को रीता कर देना, ये बातें गुजर रही हैं अपने पर, जिससे कि बहुतसी विपत्तियां हम आप पर चल रही हैं । तो यह गुजर कैसे कर रहा है? मेरा स्वरूप तो आनंद का है, फिर मैं ऐसा विह्वल होता फिरूं ? कोई पर का संबंध है, जिसका निमित्त पाकर यह मैं अपने में अपना गलत प्रभाव बना लेता हूं, बस यह बात चल रही है । वह चीज क्या है दूसरी, जिसका संबंध होने पर मैं अपने आपमें अपना गलत प्रभाव बनाया करता हूँ । वह दूसरी चीज बतायी है कर्म । उस कर्म के बारे में सभी लोग कुछ न कुछ अपना अभिप्राय बताते हैं । कर्म, तकदीर, रेखा, भाग्य, मगर कर्म क्या है? उसका स्पष्ट दर्शन और वस्तु का वर्णन, समय-समय की हालत का वर्णन, जैन दर्शन में जो बात की गई है उसकी जानकारी के बाद, प्रभु में श्रद्धा इतनी दृढ़ होती है कि अवश्य कोई प्रभु थे, जिनकी दिव्य ध्वनि से, जिसकी परंपरा से यह वाणी चली और आज भी बहुत कुछ नष्ट किए जाने के बाद भी जो थोड़ा बचा है जैन दर्शन साहित्य वह एक अनूठी चीज है । और, एक कर्म के बारे में, जीव के बारे में, पुद्गल अणुओं के बारें में, चरित्र के बारे में और और प्रकार से व्याकरण छंद साहित्य आदिक सभी विषयों में जो वर्णन है उसका कोई निष्पक्ष विद्वान अध्ययन करे तो सहसा उसके मुख से निकल जायेगा कि अगर जैन साहित्य नहीं तो साहित्य की कोई पूर्ति नहीं । सो इस आर्ष का अध्ययन करें, उसी में ही कल्याण की बात प्रकाश में आ सकती है ।
427―कर्मपरिकर―ये कर्म क्या चीज हैं और कैसे साथ लगे हैं, ये कोई नाम मात्र की चीज नहीं है, ये कोई परिणामरूप वस्तुगत चीज हैं । जो यहाँ हम देखते हैं काठ पत्थर वगैरह ये हैं वास्तविक, जिस प्रकार से भी हैं, जिस पर्याय में भी हैं, ऐसे ही ये कर्म वास्तविक हैं कि मेरे जीव में, समस्त प्रदेशों में अवगाहित होकर चलते रहते हैं, और उनका एक आच्छादन बना हुआ है । मगर वे हैं सूक्ष्म । इतने सूक्ष्म हैं कि जीव एक भव छोड़कर दूसरे भव के लिए जाये, जन्म ये तो यह जीव तो जीव ही है, बड़े वेग से उस जन्मस्थान पर पहुँचता है और उसके साथ कर्म भी । जहाँ वज्र आड़े आये, पर्वत भाड़े आये तो जैसे जीव नहीं रुकता उसमें से भी निकलकर चला जाता है तो साथ ही कर्म भी नहीं रुक सकते । इतने सूक्ष्म कर्म है जो इस जीव के साथ लगे हैं, उनमें क्या गुण हैं, क्या अनुभाग है, कैसी शक्ति है, कैसी प्रकृति पड़ी है, इस सबका विस्तार जैन दर्शन में है । अध्ययन करने से ऐसा साक्षात् लगता कि लोक कर्म की फैक्ट्री चल रही, उसकी बात उसमें चल रही है और उसका सन्निधान पाकर मेरे में यह गड़बड़ी बन रही, तो यह गड़बड़ी मिटे कैसे? यह गड़बड़ी हम उस प्रभाव में आते हैं और उसकी महिमा गाते हैं व्यवहार में बोलकर उसके रस में आनंद मानते हैं । इसीलिए तो कर्म हावी हो रहे हैं । तो मैं अपने स्वरूप को सम्हालूँ और वहाँ से उपेक्षा कर दूँ और जैसे मैं कर्मरस का स्वाद लेकर अब तक भटका, न लूं स्वाद कर्मरस का और ज्ञानरस का ही स्वाद लूँ, मेरा जाननमात्र ही स्वरूप है, केवल जाननहार ही मैं हूँ, ऐसा मैं अपने इस ज्ञानप्रभु भगवान का अगर सहारा लूँ तो यह कर्मरस निष्फल हो जायेगा । ये संसार की बाहरी बातें इस जीव के लिए कुछ नहीं हैं, बल्कि आफत हैं, मेरे लिए मैं ही अपना सर्वस्व हूँ, भगवंत हूँ, ज्ञानानंद निधान हूँ, इस अद्वितीय जगत में मेरे कोई कुछ नहीं । जो मेरा सहज स्वरूप है पर के संबंध बिना अपनी सत्ता के कारण जो कुछ मेरी विभूति है, वैभव है, सर्वस्व है, स्वरूप है बस वही मेरा परम पिता, मेरा सर्वस्व मेरा भगवान है, दूसरा कोई मेरा रक्षक नहीं । ऐसा जब ध्यान में आयेगा तब अपनी अभिमुखता होगी, दृष्टि बनेगी, उस ओर लगन चलेगी, उसका ही बनेगा मानो उपयोग में भगवान अंतस्तत्त्व का ही बनकर रहेगा तब संसार में उसके लिए कोई संकट न सतायेंगे ।
428―संकटों की मुद्रा और नि:सारता―भैया शांतरूप से देखे हम पर संकट क्या है सभी लोग सोचे-संकट सब मान रहे, कोई किसी ढंग से मान रहा कोई किसी ढंग से । दूसरा जिस क्रम से मान रहा उसकी कोई कीमत नहीं कर रहा । दूसरा भी अपनी धुन में है । बाह्य पदार्थों में जिसको न साथ लाये हैं जो न मेरे साथ जायेंगे । यहाँ दो दिन का खेल तमाशा है, कुछ दिनों का संगम हुआ है । अनंत काल के सामने यह 100-50 वर्ष का जीवन कोई कीमत रखता है क्या? कितना काल गुजर गया । उस काल की कोई आदि थी क्या? क्या कोई समय था ऐसा जिसके पहले कोई समय न हो? किस दिन से समय शुरु हुआ है, ऐसी कोई कल्पना में बात आ सकती क्या? समय की आदि नहीं । अनादिकाल से समय चला आ रहा है और अनादि से ही हम चले आ रहे हैं, और अनादि से ही संकट चले आ रहे हैं, अनंत काल हमारा व्यतीत हुआ । उस अनंत काल के सामने ये 100-50 वर्ष कोई कीमत रखते हैं क्या? आज इस 100-50 वर्ष के काल के लिए ही अपना उपयोग सर्वस्व बाहर ही बाहर लगा रहे हैं । अपनी सुध नहीं कर रहे । भैया बड़ा तो वह है कि जो अपने आपके भगवान आत्मा की सुध लेवे, बड़प्पन उसी का है । ऐसा बड़ा बने, महान बने, वास्तविक महान बने और सर्व संकटों से मुक्त हो जाये, ऐसा महान बने । यह केवल बात ही बात नहीं है, गप्प नहीं है । यह सुगम बात है । हो सकती है यह बात, पर थोड़ा सा उस ओर ध्यान रखने की जरूरत है । थोड़ा कुछ उपयोग लगाने की जरूरत है । इतनी बात हमको कठिन रहे, इतनी बात हमको मिल न सके यह बात असंभव है । मिलेगी अपने बनेंगे सब काम, पर थोड़ा इस 40-50 वर्ष के इस बीच में जो कुछ सामने आया है बस उसको मायारूप जानें, उसे सत्य न समझें, उसको अपना न जानें । ये सब मेरे लिए कर्तव्य नहीं हैं । थोड़ा इतना भी ख्याल कर लें कि मरण तो निश्चित है । उसके बाद फिर क्या है? जब फिर इस जीवन में भी उसके प्रति उपेक्षा हो, उसके बाबत उस तथ्य बात की जानकारी बन रही तो इसमें बड़ा सुधार है और बड़े संकटों की निवृत्ति है ।
429―विभाव और संकटों की अमौलिकता―हां, तो बात क्या कही जा रही है? हम पर गुजर क्या रहा है? दुःख कष्ट । किस बात के? विकल्प करने के । अन्यथा जरा अंदर में खोजे तो सही कि वह दुःख नाम की चीज है क्या? कहाँ पड़ा है वह दुःख? और, उस दुःख की मुद्रा है क्या? यहाँ की चीजों को हम पकड़ते हैं, देखते हैं और बताते जाते कि यह अमुक चीज है यह अमुक चीज । जरा दुःख के बारे में भी तो बताओ, दुःख के मायने क्या है? क्या ढंग हैं? यह बड़ा दुःख मान रहा । क्या मान रहा? वह दुःख क्या है? दुःख ही समझ में नहीं आता । कह सब देते हैं कि हमको दुःख है, मगर क्या दुःख है सो नहीं बता पाते कि यह है वह दुःख । दुःख नाम की चीज कुछ नहीं । दुःख नाम है ज्ञान में उल्टी जानकारी बनने का । दुःख नाम की कोई वस्तु नहीं । ज्ञान में विपरीत ज्ञान की मोड़ बनाना दुःख है । ज्ञान तो अपना काम करता ना जानने का, बस जानना ही उल्टे ढंग का होने लगे इसी के मायने है दुःख ।
430―ज्ञान की सही वृत्ति बनाकर आत्मकरूणा करने का अनुरोध―अहा, जब ज्ञान अपनी चीज है तो फिर यह प्राणी क्यों नहीं अपने को समझता? क्यों इस ज्ञान की उल्टी जानकारी के रूप में इसकी घुड़दौड़ लगती क्यों नहीं हम ठंडे दिल से, शांत भाव से अपने आपकी करूणा की बात करते? बाहर ही बाहर क्यों रम रहे? क्या मिलेगा इस बाहर के कूड़ा करकट से? जो कुछ भी है वह मेरा आत्मा भगवान, इस निधि के समक्ष मेरे लिए तो कूड़ा करकट है । आखिर दूसरे भी जीव है, उनके लिए सब कुछ है पर उसके लिए मैं मोह करूं, राग करूं कल्पना करूं तो बस वह तो मेरी बरबादी की बात है, और फिर कितने दिनों के लिए? थोड़ा अपनी ओर आना चाहिए और बड़ी रुचिपूर्वक रोज-रोज अपने बारे में अपनी बात सुननी चाहिए । जो बात आज कठिन लग रही वह एक दिन अत्यंत सरल लगेगी, क्योंकि वह मेरी खुद की बात कही जा रही है । अपने ही घर में पड़ी हो चीज और अपने को मिलना कठिन हो जाये तो उस चीज का उपयोग क्या । घर में तो सब प्रकार की चीजें रखी हों और दिमाग-खराब हो जाये तो वह उन चीजों का उपयोग तो नहीं कर सकता । ऐसे ही मेरे आत्मा में, भगवान में अनंत आनंद,, अनंत ज्ञान, अनंत वैभव मेरे स्वरूप में पड़ा है पर मैं उन्मत्त बन जाऊँ, मोह से बेहोश हो जाये, पागल हो जाऊँ तो मेरे घर में पड़ा हुआ जो सर्वस्व है उसका तो मैं उपयोग नहीं कर सकता । क्यों पागल होऊँ, क्यों उन्मत्त बनूं, क्यों बाहर में इतना आसक्त होऊं, सब कुछ देख डाला, अनंत काल घूमकर अथवा इस जीवन में बाहरी बातें देख लो फिर मैं क्यों बेहोश होऊँ, कोई बाहरी चीज मेरी नहीं, इतना अपने में अपने को देखूँ तो कष्ट का नाम नहीं । यह पूरा भगवान है यह आनंदनिधान है । यह वही तो हैं जिनकी हम मूर्ति बनाकर पूजते है । वे कोई दूसरे नहीं है याने वे कोई दूसरी जाति के नहीं हैं । एक ही वे चैतन्य जो कभी पहले संसार में रुल रहे थे, उन्होंने अपने आत्मा की सम्हाल की सो ये संसार के सर्व संकटों से पार हो गए ।
431―मंदिर में आने का प्रयोजन निजानंद रसलीनता का दर्शन―मंदिर में क्यों आना चाहिए? अरे रात दिन उन परिग्रह प्रसंगों में, लगाव में दुःखी रहें ना, व्यग्र बने रहे, जगह-जगह विकार किया । क्रोध, मान आदिक कषायें जगती रही । मैं कष्ट मानता रहा । तो प्रभु के स्वरूप का चिंतन करने के लिए कि प्रभु निर्लेप, निरंजन, एकाकी, अपने ही आनंद में तृप्त, ज्ञानरस का स्वाद निरंतर ले रहे ये प्रभु, यह हैं सर्व सुखी, यह हैं अलौकिक, यह हैं आदर्श और यह मेरी ही जाति के हैं । जैसे ये बनें वैसा गुण मुझमें भी प्रगट हो सकता है । बस यही तो एक नाता है प्रभु से हमारा, जिसके कारण यह भक्त का व्यवहार चल रहा है । मानो प्रभु तो खूब बड़े हैं, अनंत ज्ञान वाले हैं, अनंत आनंद वाले हैं, सर्वोत्कृष्ट हैं सब कुछ बात है और यह नाता हम अपना नहीं समझ पाये कि ऐसा ही चैतन्यस्वरूप तो मैं हूँ, यह नाता भर ध्यान में नहीं आया तो भगवान बहुत भी बड़े बने रहें तो मेरे लिए क्या, और क्यों फिर मैं भगवान को पूजूं? क्या धरा है, लोग तो यह भी कह उठते हैं कि अजी क्या जरूरत पड़ी है किसी बड़े के पास जाने की? तो यह ही बात यहाँ भी हो जायेगी कि ये भगवान बड़े हैं तो बने रहें, मुझे क्या जरूरत पड़ी उनके पास जाने की ? बड़े हैं तो अपने घर रहें । लेकिन चूंकि उनसे हमारा स्वरूप का नाता है, यह बात समझ में आयी है कि आखिर चैतन्यस्वरूप ही तो वह हैं, चैतन्यस्वरूप ही हम हैं । यह ही बात जब निरूपद्रव हो जाती है तो यहाँं ही तो प्रकट होता है यह रूप । यह नाता जब ध्यान में है तो भगवान के प्रति हमारी सही भक्ति बनती हैं, नहीं तो भगवान के बड़े होने के कारण वे हमारे पूज्य नहीं, वे बड़े बने रहें अपने घर में, पर हमारे चैतन्य जाति की बात है और यह ही हमारा स्वरूप है, ऐसा बन जाता है, यह सब ध्यान में आने के कारण भगवान हमारे पूज्य बने हैं । तो उस स्वरूप को निरख कर हमें अपने में एक चैतन्यस्वरूप ही तो पाना है ।
432―संकटों से छुटकारा पाने के उपायभूत ज्ञान की गवेषणा―जैसे प्रभु निजानंद रसलीन हैं वही स्वरूप तो हमारा है । निर्णय करने के लिए चलें अब, कि हम किस तरह अपने अंदर में अपने प्रयोग से प्रवेश करा सके और एक अलौकिक बात में जहाँ अनंत गुणों के वृक्ष हैं, फूल हैं, फल हैं, महक रहे हैं, बड़ा आनंद जाग रहा हैं, इस एक अलौकिक उद्यान में मेरा उपयोग कैसे प्रवेश करें? बस रही-सही आयु में यह ही काम करने का है । दूसरी बात लक्ष्य में न रहे । करना पड़े सब कुछ परिस्थिति वश तो वह बात अलग है । उसमें भी आप निर्लेप रहें । मगर मुख्य काम करने का यह है कि अपने अंत: बसे हुए भगवान आनंदनिधान अपने आत्मतत्त्व को मैं सम्हालूँ, वहाँ मैं हूँ, और भव-भव के बाँधे हुए कर्मों को जला डालूं मैं अपने को भार रहित करूं, संकटों से मुक्त कर लू बस एक यह ही जीवन में लक्ष्य रखना है और इसके अनुसार चलना है । तो यही चीज इस प्रकरण में बतायी जायेगी कि मैं इन झंझटों से किस ज्ञानद्वारा छूट सकता हूँ और मुझे अपने को किस ज्ञान द्वारा निरखना है कि हमार संकट दूर हों? इसके लिए दो बातें यहाँ ध्यान में लाओ । उपादान और निमित्त । उपादान तो यह कि जिसमें बातें बनती हैं, राग द्वेष शांति अशांति, जिसमें ये बातें बनती हैं, मेरे लिए यह मैं उपादान हूँ और निमित्त क्या? इस बात के बनने का, उस प्रकार के कर्म का उदय, उस प्रकार के कर्म का हटाव तो बनता है भले के लिए निमित्त और उदय बनता है बुरे के लिए निमित्त । इतनी ही बात जब ध्यान में आती है तो एक स्वभावदृष्टि के लिए प्रेरणा मिलती है कि ओह यह मैं नहीं । यह तो नैमित्तिक है । औपाधिक है, ऐक्सीडेंटल है । मैं तो यह बाह्यरूप हूँ । ये अणु-अणु तैर रहे हैं उसके ऊपर मैं तो स्थिर ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मतत्त्व हूँ । जैसे किसी चौराहे पर एक बड़ा दर्पण लगा है, उस चौराहे से अनेकों कारें गुजरती हैं, अनेकों लोग गुजरते हैं, तो दर्पण में भी वैसा ही प्रतिबिंब आता रहता है । वह प्रतिबिंब बाह्य है, नैमित्तिक है । दर्पण की चीज नहीं । निमित्त नैमित्तिक योग का परिचय पा लेने पर स्वभाव दर्पण में बड़ी सुगमता मिलती है । जैसे दर्पण अपने आपकी ओर से बिल्कुल स्वच्छ है ऐसे ही यह मैं भगवान आत्मा अपने आपमें अपनी ओर से अपने ही कारण मैं तो एक स्वच्छ हूँ । कष्टरहित हूँ । भव भ्रमणरहित हूँ । जैसे यह दर्पण अनुकूल सामने का निमित्त पाकर नाना प्रतिबिंबरूप हो रहा है ऐसे ही यह भगवान आत्मा पहले बांधे हुए कर्मों का उदय पाकर जैसा-जैसा वहाँ अनुभाग फूट रहा है उस उदय क्षण में ऐसा यहाँ प्रतिफलन चल रहा है और उस प्रतिफलन के समय मैं ज्ञानी अपनी जानकारी की उल्टी दिशा बना लेता हूँ । बस यह ही कष्ट है ।
433―अंतर्गत कष्ट की पराभावरूपता जानकर उससे निवृत्त होने के पौरूष के प्रयोग का अनुरोध―कष्ट-कष्ट की तो सब बात करते हैं मगर कष्ट असल में है मुझ पर क्या इसकी जानकारी ही नहीं है लोगों को । अरे जो कष्ट है ही नहीं उसको कष्ट बखानते हैं जैसे हमारा इतने धन का नुकसान हो गया । मेरा अमुक गुजर गया, या अमुक से मुकदमा लगा है, न जाने उसमें क्या होगा । मुझ पर यह जाल रचा गया, मैं इसमें फंस गया, इन-इन बातों को तो लोग कष्ट का नाम देते हैं, पर ये तो कष्ट जरा भी नहीं, किसी का धन यहाँ न रहा, कहीं ओर जगह चला गया, उसमें मेरे आत्मा का क्या गिर गया? अमुक था, न रहा, दूसरे भव चला गया तो उससे मेरे में क्या गुजर गया? या किसी चीज में किसी ने कुछ बात कर दी तो वह उसकी परिणति है, हो गई । उससे मेरे आत्मा में क्या गुजर गया । मेरे में जो ज्ञान की दिशा बदल गई, जानकारी की दिशा उल्टी हो गई, स्व का ज्ञान नहीं कर पाया, स्व का जानन न रखा, बाहरी पदार्थों के विषय में नाना कल्पनायें बना बैठा हूँ यही मुझ पर दु:ख है । इस निज की विडंबना आत्मा पर तो कोई अफसोस करता नहीं और बाहरी चीजों के संग्रह विग्रह पर अफसोस करते हैं, तो भला ऐसी उल्टी जानकारी रखने से गुजारा न चलेगा । और, जैन शासन का इतना अपूर्व समागम पाने से लाभ कुछ न मिलेगा । तो यों समझिये कि जैसे कोई हाथी पाले और उसको कूड़ा करकट ढोने के काम में ले या कोई रत्न पा ले और अपने पैर साफ करने के काम में ले या कोई बर्तन मांजने के लिए चंदन की लकड़ी की राख बनाकर काम में ले, तो जैसे यह मूढ़ता कहलायेगी इसी तरह इस बड़े मनुष्यभव को पाकर जिसमें बड़ा ऊँचा-ऊंचा ज्ञान मिला है, व्यापार धंधों में बहुत ऊँचा-ऊँचा ज्ञान मिला है यह ज्ञान आत्मा के बारे में नहीं चल सकता? ज्ञान तो है ना? अनेक बातों को तो हल कर सकते तो क्या अपने आपका हल नहीं कर सकते? बस रुचि बदल दीजिए और चित्त में यह ठान लीजिए कि मुझे तो इस आत्मा को समझकर रहना है और अंत: प्रकाश में अधिकाधिक समय हमको इस मन में लगाना है । बस हमारा तो यह ही लक्ष्य रहा, अन्य हमारा कोई लक्ष्य नहीं । चूंकि घर गृहस्थी में हैं तो करना सब पड़ेगा, किया जायेगा, मगर लक्ष्य यह रहे कि हमारा अन्य कुछ नहीं । आत्मा में प्रकाश पाकर उसमें ही रमूं, बस यह ही मेरा एक लक्ष्य रहेगा ।
434―आध्यात्मिक विज्ञान द्वारा अध्यात्म निर्णय की हितकारिता―जगत के काम किस तरह हो रहे हैं और मेरे आत्मा में काम किस तरह हो रहे हैं, ये सब पीरचय विज्ञान द्वारा होते हैं, और जैसे भौतिक पदार्थों का विज्ञान भौतिक विज्ञान हैं, भौतिक विज्ञान से ऐसी आश्चर्यकारी बातों का निर्णय और निर्माण होता है ऐसे ही आध्यात्मिक विज्ञान द्वारा अपने आपकी बुराई भलाई का निर्णय और निर्माण होता है । तो जैसे भौतिक विज्ञान में हम बुद्धि द्वारा कुछ समझते हैं और प्रयोग करते हैं ऐसे ही यहाँ भी विज्ञान द्वारा अपने में कुछ समझें और प्रयोग करें । बाहरी बातों में भौतिक विज्ञान चाहे कितना ही बढ़ चढ़ जाये आत्मा के लिए उसका फल शून्य है, और अपने आपमें विज्ञान द्वारा निर्णय और प्रयोग बनायें तो उसका फल बहुत हितकारी है । तब देखिये भौतिक विज्ञान में निर्णय का आधार क्या रहता है? मूल बात वहाँ दो हैं―उपादान और निमित्त । उपादान का अर्थ है कि जिस पदार्थ में काम बन रहा है वह होता है उपादान और निमित्त वह कहलाता है कि जिस दूसरे पदार्थ के सन्निधान होने से उपादान में वह काम बन रहा है उसे कहते हैं निमित्त कारण, जैसे कि आंगन में इतनी छाया है तो धूपमय यह आंगन बना, प्रकाशमय यह आंगन बना तो यह भूमि तो उपादान है और निमित्त कारण सूर्य है । जैसे भूमि पर पुरुष की छाया पड़ी तो छाया की जगह छाया है, छाया का जो भू भाग है जहाँ परिणाम है वह उपादान और वह मनुष्य जिसका सन्निधान पाकर नीचे छाया बनी वह है निमित्त कारण । बड़े-बड़े रसायनों में मेल होता है और मेल करके कोई एक प्रभाव बनता है, तो जिस वस्तु में प्रभाव बना वह तो कहलाता है उपादान और जिसका संबंध होने पर प्रभाव बने उसे कहते हैं निमित्त कारण । कोई कठिन बात नहीं, घर की बात में देखो रोटी सेंकी जाती है, पकती है तो रोटी एक कच्ची अवस्था को छोड़कर पक्की अवस्था में आयी तो उस पकने का उपादान है वह आटा और निमित्त कारण है अग्नि ताप ।
435―निमित्त का उपादान में अप्रवेश―यहाँ एक बात और समझें कि निमित्तनैमित्तिक का कुछ भी अंश उपादान में जाता नहीं फिर भी ऐसा संबंध है कि निमित्त हो तो उपादान में उसका प्रभाव बने, निमित्त न हो तो प्रभाव न बने । जैसे आदमी खड़ा हैं और नीचे छाया पड़ी है तो आदमी के शरीर का कोई भी हिस्सा रूप रस, गंध, स्पर्श, कोई भी चीज उस जमीन में न आये, आदमी आदमी की जगह है, मगर ऐसा संबंध है कि आदमी के होने पर छाया होती न होता आदमी तो छाया न होती । ऐसे कुछ दृष्टांत हैं, ऐसे ही जीव और कर्म इन दोनों के परस्पर की बात है । जो पहले कर्म बांधे उनका विपाक हुआ याने उन कर्मों में फल शक्ति हो गई थी, जब उस फल शक्ति का विस्फोट हुआ, उस काल में जीवन में विकार जगा तो विकार कहाँ जगा, रागद्वेष कहाँ हुए? जहाँ हुए वह तो है उपादान कारण याने विकार का उपादान जीव है और कर्मोदय का सन्निधान पाकर हुआ तो कर्मोदय निमित्त है । यहाँ यह बात पायेंगे कि कर्म की कोई चीज आत्मा में गई नहीं, पर ऐसा ही संबंध है कि उस कर्म विपाक सन्निधान में ही विकार हो सका है । अब देखिये-जिस जीव को इस तथ्य का परिचय नहीं है जो यह सच्चाई है कि कर्मोदय का सन्निधान पाकर जीव के ज्ञान में विकल्प जगा, तो यह विकार कर्म विपाक का प्रतिबिंब है, जीव तो अपने आपमें अपनी सत्ता से विशुद्ध है, इस तथ्य का जिन्हें परिचय नहीं है उनका ज्ञान यह सोचता है कि मैं तो यह ही हूँ । और विकल्प जगा, रागद्वेष हुए, जो भी विकार हुए वही मैं हूँ, जहाँ उसने कर्मरस को अपनाया, यह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, मोही व्याकुल व्यग्र हो गया और अनेक कर्मों का बंध किया और संसार में जन्म मरण की परंपरा बढ़ाया । यहाँ भी कर्म का काम कर्म में हुआ, जीव परिणाम जीव में हुआ, मरण की परंपरा बढ़ाया । आप यह देखें कि अपनी भलाई होने की तरकीब कितनी सी है? जरा सी बात अपने में अपने को सोचने की बात है, किंतु इतनी बात न हो सकने से संसार की इतनी विडंबना सिर लगा ली । अब भव-भव में घूमें, एकेंद्रिय दो इंद्रिय आदिक अनेक भवों में जन्म मरण हुए, कुछ कठिन उपद्रव उपसर्ग ये इस जीव को मंजूर हैं, पर अपने आप के भीतर की सच्चाई का परिचय करना इसे मंजूर नहीं हो रहा । कितना सुगम काम है । सारे संकटों से छूट जाना और साथ ही यह भी विचारें कि सम्यग्ज्ञान प्रकाश है तो जितना जीवन हमारा अभी है वह जीवन भी तो शांत रहेगा, यहाँ भी तो कल्पनायें न सतायेगी, तो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एक ऐसा अमृत है कि जिसके पाने से अब भी लाभ है और आगे भी लाभ है ।
436―भावक भाव्य योग में निमित्त व्यापार होने पर भी निमित्त का उपादान में अप्रवेश―यहां एक बात और समझाने की है कि कर्म हमने पहले बाँधे थे हजारों करोड़ों वर्ष पहले और कर्म वे बँध गये थे और उसी समय उन कर्मों में फल देने की शक्ति भी निश्चित हो गई । लेकिन जब तक उनका उदय नहीं है तब तक उन कर्मों के कारण इसको कष्ट नहीं होता । और और उदय वाले हैं कर्म प्रति समय, सो उनके कारण दुःखी हैं, पर जो कर्म बंधे हैं उदय में नहीं आ पाये उनके कारण विकार नहीं होता । जब उदय होता तो उस कर्म में बड़ा व्यापार चलता, उस कर्म में बड़ा क्षोभ होता । तो निमित्त कारण यह व्यापार है इसी कारण से इसे प्रेरक निमित्त कह देते हैं । वस्तुत: निमित्त की कोई बात उपादान में नहीं आयी ।
437―वस्तुस्वातंत्र्य के परिचय की मोहविध्वंसकता―देखिये आध्यात्मिक विज्ञान में याने उपादान और निमित्त इन दो शब्दों का अधिक प्रयोग होगा, उसकी परिभाषा खूब निश्चित रख लीजिए । जिसमें काम बने वह उपादान, जिसका कार्य हो वह उपादान, जिसकी अवस्था बने वह उपादान, बाकी वह दूसरी चीज जिसके होने पर विकार बनता है । जिसके न होने पर विकार नहीं बनता वह दूसरी चीज निमित्त कहलाती है । तो भौतिक बातों में यह बात घटा लो, आत्मा में घटित कर लो । आत्मा में एक बात और अधिक है कि चूँकि यह ज्ञानमय पदार्थ है, यह उपयोगस्वरूप है । उपयोग चलता है तो इसका एक आस्रव-भूत कारण और लग जाता है । मायने जगत में पड़े हुए जितने पदार्थ हैं, पंचेंद्रिय के विषयभूत जितने भी ये परिग्रह है ये निमित्त नहीं किंतु हम इनका ख्याल करते हैं और कष्ट पाते हैं, विकार करते हैं तो ये आश्रय-भूत कारण हैं । वस्तुत: देखो तो जगत में प्रत्येक पदार्थ-अपने ही स्वरूप से है, पर रूप से नहीं हे । वस्तुस्वातंत्र्य ऐसा कि एक-एक अणु अपने में पूरा है । किसी भी अणु की कोई भी बात, शक्ति, परिणति किसी भी दूसरे में नहीं जाती । प्रत्येक जीव स्वतंत्र है । किसी जीव की चेष्टा, परिणति, स्वरूप किसी दूसरे जीव में नहीं लगता । प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से परिपूर्ण है । स्वतंत्र है । बाकी जो विषम विकार हो रहा है वह निमित्त नैमित्तिक योग का फल हैं । वस्तु तो अपने में अपने स्वरूप से शुद्ध है । यह निरख बनेगी तो मोह मिटेगा धर्म का रास्ता मिलेगा । मोह के मिटें बिना धर्म का रास्ता मिलना असंभव है । धर्म और मोह का परस्पर पूरा विरोध है । जहाँ धर्म हैं वहाँ मोह नहीं ठहरता, जहाँ मोह है, वहाँ धर्म नहीं ठहरता ।
438―अनंत संसार संकटों से छुटकारा पाने के लिए पौरुषप्रयोग का महत्त्व―सारा जगत प्राय: मोही है । यहाँ इस जीव को कभी कुछ मन में अभी जाये कि अब सत्संग में रहना चाहिए तो इनका एक घंटे के सिवाय बाकी समय मोहियों के बीच गुजरता है तो कमजोरी तो यह हैं ही, इसका ज्ञान पुष्ट नहीं तो उस मोह के प्रसंग में यह अपने स्वरूप से स्खलित हो जाता है बस लग जाता है परपदार्थ में । तो मोहियों के संग में अधिक समय न देकर निर्मोही ज्ञानी, विरक्त पुरुषों का संग अधिक करें तो इसकी आदत में भी फर्क हो सकता है । प्रयोग किए बिना कुछ नहीं होता है । शांति चाहिए तो खुद को प्रयोग करना पड़ेगा, हमेशा के लिए, अनंतकाल के लिए संसार के संकटों से छुटकारा चाहिए तो बहुत बड़ा पुरुषार्थ करना पड़ेगा, पर मोहियों को नहीं रुचता, और रुचता क्या है कि जिसका कल्पित फल 5 वर्ष बाद मिल पायेगा, कोई फैक्ट्री या मिल बनाने का प्रोग्राम है तो उसमें परिश्रम बड़ी खुशी-खुशी से करेंगे और निरंतर पुरुषार्थ करेंगे, कष्ट सहेंगे, धीर रहेंगे, यह काम बहुत बड़ा है, इसका लाभ 5 वर्ष बाद मिलेगा, ऐसी आशा रखकर, श्रद्धा बनाकर मेहनत खूब करते हैं और भला बतलाओ कि अनंत काल के लिए अनंत आनंद मिल जाये, कर्म शरीर जो हमारी बरबादी के जन्म मरण के एक कारण बने हुए हैं ये सदा के लिए हट जायें और आत्मा में जो ज्ञायक स्वरूप है स्वभाव है समस्त लोकालोक को जानने का, इसके लिए अगर एक जिंदगी, एक ही भव पूरा लगा दें और अपने आत्मा की ओर पौरुष अधिक करें तो क्या भला यह कोई टोटे की बात है? पर कम से कम इतनी दृष्टि हो कि मैं अकेला ही उत्पन्न हुआ, अकेला ही इस भव को छोड़कर जाऊँगा और अकेले ही अपने किए हुए कर्मों का फल भोगूँगा, कोई दूसरा साथी नहीं । यह बात चित्त में बैठ जाये तो धर्म की ओर प्रीति बढ़ सकती है ।
439―अध्यात्म विशुद्धि के पौरुष के लिये ज्ञातव्य 16 तथ्यों में से उपादान कारण निमित्तकारण, आश्रयभूत कारण, उपादान का स्वभाव, निमित्तकारण का व्यापार, वस्तुस्वातंत्र्य, निमित्तकारण का उपादान में अकर्तृत्व, निमित्तनैमित्तिक योग इन 8 तथ्यों के परिचित कराये जाने का संकेत―समयसार का यह कर्तृकर्मत्व अधिकार जो अभी शुरु तो नही हुआ है पर उस अधिकार को समझने के लिए जो बात ज्ञातव्य है उनके विषय में ही कहा जा रहा है ऐसा निरखना चाहिए कि प्रत्येक पदार्थ अणु-अणु स्वतंत्र है, उसमें किसी दूसरे का प्रवेश नहीं है, और जिन कारणों को निरखकर हम अच्छा बुरा मानते हैं, दुःखी हो जाते हैं वह कारण तो कारण भी नहीं है । उनको सोचकर विकल्प होता सो उनके कारण यह आश्रयभूत कारण हुआ । तो आपने अब तक इतना जाना होगा कि उपादान कारण क्या हैं, निमित्त कारण क्या है, आश्रयभूत कारण क्या है और उपादान का स्वभाव क्या है याने मेरे आत्मा का वास्तविक स्वभाव क्या है? और जब विकार में होता हूं तो निमित्त कारण किस हालत में उपस्थित होता है । उसका व्यापार क्या है? इतना सब कुछ होने पर भी प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र-स्वतंत्र है । किसी की सत्ता किसी दूसरे की दया से नहीं है । यहाँ जो लोग कहा करते हैं कि हमारे तो तुम शरण हो, तुम्हारी दया पर हमारा गुजारा है, सो वह गुजारा एक भौतिक गुजारे की बात है । आत्मीय गुजारा किसी दूसरे के अधीन नहीं । वैसे तो यह जीव स्वतंत्र है याने किसी वस्तु का, किसी निमित्त का उपादान में कोई करतब नहीं, कोई कर्तृत्व नहीं, उपादान खुद ही उस-उस रूप परिणमता रहता है और साथ ही यह भी जान लिया होगा कि जगत में जितनी नई-नई बातें होती हैं विषमभाव होते हैं, अपूर्व बात होती हैं वे सब किसी निमित्त को पाकर होती हैं, ऐसा यहाँ निमित्त नैमित्तिक योग है ।
440―उपादान में गुजर रहे विभाव का परिचय―उक्त तथ्य समझकर अब खुद अपने घर आइये और अपना निरीक्षण करें कि मेरे पर क्या गुजर रहा है । मेरे पर गुजर रहे हैं रागद्वेष के विकल्प विचार । वे रागद्वेष क्या हैं? हमारे ज्ञान की दौड़ मुड़कर उल्टी हो रही है । हमारे ज्ञान को जानना तो इस तरह चाहिए था कि इस जगत को बस जान लिया, जैसे कि रास्ते पर जा रहे हैं हजारों आदमी मिलते और हजारों आदमियों को जानते हुए चले जाते हैं और हम किसी भी आदमी से अटकते नहीं, न किसी से हम रुकते हैं, अपने काम से चलते जाते हैं, मगर रास्ते में कोई बुआ का लड़का मिल गया, माना हुआ कल्पना का कोई मित्र मिल गया और रुककर बात करने लगे, हँसी भी की, कुछ रंज भी हो गया, जैसी जो कुछ घटना हुई, इस ज्ञान ने कोई मोड़ खाया था पहले ज्ञान कैसा अच्छा चल रहा था कि हजारों आदमी दिखने में आ रहे, जानने में आ रहे, जानना चल रहा और आप प्रसन्न होकर अपनी यात्रा कर रहे, जहाँ कोई इष्ट मिला और उसकी कोई इष्ट अनिष्ट घटना ज्ञात हुई कि हर्ष विषाद होने लगा । ज्ञान का ज्ञान में कैसे मेल खाये । बस यह आपत्ति है इस जीव पर । और कुछ नहीं है तो हम पर क्या गुजर रहा है । ज्ञान का जो ऐसा विचित्र मिलान है, बस ये विडंबनायें हम पर गुजर रही हैं इन पदार्थों के कारण मुझ पर कोई विडंबना नहीं । जगत में जो बाहरी पदार्थ हैं ये आश्रय-भूत कारण है, मायने इस ज्ञान से इनका ख्याल करें कि इनका आश्रय बने तो ये कारण बनते हैं । इनका आश्रय न करें तो ये कोई कारण नहीं बनते । तो इन सब पदार्थों में कारणपने का तो उपचार है, यह विडंबना नहीं । घर गिर गया या कोई गुजर गया या कोई शत्रु आ गया, किसी प्रकार की देह में चोट लग गई या कुछ से कुछ हो गया, कोई टोटा पड़ गया तो ये बातें जीव की विडंबना नहीं हैं, ये तो बाहरी पदार्थ हैं । अपने में वे विराजे हैं । मेरे आत्मा में उनका प्रवेश नहीं होता, फिर मुझ पर विडंबना क्या? तो इन आश्रयभूत पदार्थों में दुःख के कारण हैं, ऐसी बात उपचार से कही जाती है, अथवा उस जगह का कोई पदार्थ या कोई प्रसंग ये दुःख के कारण नहीं होते । तो जब अपने आपमें अपने को सम्हालें, चेतें तो उसकी ये सब व्यग्रतायें, और भ्रांति दूर होती है । यहाँ तक कई बातों का निर्णय अपने आपमें किया है ।
441―उपादान में योग्यता होने पर विभाव की संभवता―यहाँ एक यह भी निर्णय रखें कि निमित्त को पाकर उपादान विकार तो करता है मगर योग्य उपादान हो वही विकार कर पाता है । जैसे दर्पण के सामने कोई रंग बिरंगी चीज आयी तो दर्पण में प्रतिबिंब हो जाता है । उस रंग बिरंगी सामने वाली चीज ने दर्पण में कुछ नहीं किया । वह तो 10 हाथ दूर खड़ी है, वस्तुत: न उसका रूप इसमें गया, न रस, न गंध, न स्पर्श न कोई अंग गया । वह रंग बिरंगी चीज 10 हाथ दूर पड़ी है, उसका सन्निधान पाकर यह दर्पण खुद प्रतिबिंबरूप बन गया । तो योग्यता थी तब ही प्रतिबिंबरूप बना । भींट के सामने वही चीज खड़ी कर दी तो उसमें तो प्रतिबिंब नहीं आता, क्योंकि भींट में प्रतिबिंब होने की योग्यता ही नहीं । जैसे एक बात सुनकर लोग अचरज करेंगे कि लोग तो कहते कि यह धूप, यह दिखने वाला प्रकाश सूर्य का है, मगर यह सूर्य का कतई नहीं है । सूर्य की जो भी चीज है, सूर्य का जो पिंड है, कुछ कम दो हजार कोश का, करीब 5 हजार मील का वह एक पृथ्वीकायिक विमान है, उसकी जो भी चीज है वह उसी में है । उससे एक सूत भी बाहर नहीं जा सकती । समस्त वस्तुओं की ऐसी ही प्रकृति है कि जिस वस्तु का जो कुछ भी है उसका सर्वस्व उस वस्तु के प्रदेश में ही रहेगा । उसके बाहर न रहेगा । अगर आप कहे कि यह तो बात जरा ठीक जल्दी जंचती नहीं । दुनिया कहती है कि आँखों से देखते हैं, सूर्य का प्रकाश चल रहा है तो बात वहाँ क्या है तो सुनो―सूर्य भी एक भौतिक पदार्थ है, पुद्गल है वह खुद प्रकाशरूप है मगर जैसे वह भौतिक पदार्थ सूर्य है ऐसे ही ये पदार्थ ईंट, भींट, जमीन वगैरह ये भी भौतिक हैं, पुद्गल हैं, जाति तो एक है । पुद्गल जाति सूर्यबिंब की है पुद्गल जाति इन ईट भींट आदिक की है, फर्क यह है कि सूर्य खुद प्रकाशमान है और ये ईंट भींट आदिक चीजें सूर्य का सन्निधान पाकर प्रकाशमान होती हैं, अंतर इतना है । अब अगर यह कहा जाये कि हाँ साहब यह प्रकाश तो सूर्य का ही है तो आप यह बतलाओ कि सूर्य का प्रकाश जहाँ-जहाँ होगा वह सब एक समान होगा कि कुछ कम बढ़ भी होना चाहिए? अगर यह प्रकाश सूर्य का है तो यहाँ सब जगह प्रकाश बराबर होना चाहिए । कम और अधिक न होना चाहिए । अगर कोई रंग रोगन अच्छा किए हुए चमकदार तखत पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है तो वहाँ कुछ तेज जचता है, भींट पर प्रकाश कम तेज जचता है । और कोई काँच का टुकड़ा पड़ा हो तो वहाँ प्रकाश बहुत अधिक रहता है और दर्पण पड़ा हो तो बहुत अधिक प्रकाश उसका होगा । तो अगर सूर्य का ही यह सब प्रकाश है तो इस प्रकाश में भेद क्यों पड़ गया? अब कारण तो आप बतायेंगे । तो उसका उत्तर यह है कि ये पदार्थ स्वयं जो प्रकाशमान हो रहे वे ही नाना योग्यता को लिए हुए हैं और जिस पदार्थ की जैसी योग्यता है वह पदार्थ उस अनुरूप प्रकाशमान हो रहा है । तो यह प्रकाश में हुए पदार्थ की योग्यता है नाना तरह की, यहाँ कहीं अधिक प्रकाश हैं कही कम ।
442―सूर्यबिंब का सान्निध्य पाकर प्रकाशित बारीक स्कंधों को सूर्य तक देखने में रश्मियों का निर्माण―अच्छा फिर एक प्रश्न और आयेगा । आप कहेंगे कि लोग तो सूर्य की किरणें बतलाते हैं और शास्त्रों में भी सूर्य की किरणों का जिकर है, सूर्य में 16 हजार किरणें है, ऐसे ही चंद्र में भी किरणें हैं, कहा जा रहा हैं कि सूर्य की कुछ भी चीज सूर्य के पिंड से दूर नहीं होती, फिर इसका समन्वय क्या है? इसका समन्वय यह है कि है सूर्य और जहाँ हम खड़े हैं, इस बीच में बहुत से सूक्ष्म मैटर स्कंध भरे पड़े हुए हैं, और जैसे सूर्य का सन्निधान पाकर यहाँ के ये पदार्थ प्रकाशित हुए हैं ऐसे ही इस बीच खंड में भी जो सूक्ष्म स्कंध हैं वे सब प्रकाशमान हो गए और जब हम आँखों के द्वारा देखते हैं तो आँखों द्वारा देखने की तारीफ यह है कि हमें इस तरह की रश्मियाँ नजर आने लगेगी । और यह लाइन फिर यह बताती है कि ये सूर्य की किरणें हैं, सूर्य की किरणें इस तरह जुदे-जुदे रेखाओं में नहीं हैं किंतु इतने गगनमंडल में भी प्रकाश, मैटरों की योग्यतानुसार चल रहा है और जब आंखों से देखा तो देखने वाले की कला से, देखने वाले की योग्यता से, वे सूक्ष्म मैटर सबंध 16 हजार भागों में जिसके नेत्र में जैसी योग्यता है, उसके अनुसार न्यूनाधिक हिस्से में वे सब नजर में आने लगते हैं । यह उदाहरण इसलिए दिया कि आप यह जानें कि जगत में जितने पदार्थ हैं वे सब अपने-अपने मालिक है । कोई भो पदार्थ अपने से बाहर किसी दूसरे पदार्थ में कोई क्रिया नहीं करता । कोई बात नहीं बनाता । यह तो इस पदार्थ में ही ऐसी योग्यता है कि निमित्त सन्निधान पाकर इसमें इस तरह के प्रभाव बन रहे हैं ।
443―नवीन कर्मबंध के निमित्तभूत उदयागत कर्मविपाक में निमित्तत्त्व के निमित्तभूत रागादिभाव का उदाहरणपूर्वक परिचय―अच्छा इसी संबंध में एक बात और समझें । कभी कोई बालक दिन में खड़े होकर एक दर्पण को इस तरह करता कि कमरे में खूब उजेला पहुंचता है । लड़के लोग ऐसा करते ही हैं । सूर्य से तो हो गया दर्पण खूब प्रकाशमान और दर्पण को ऐसा टेढ़ा किया कि इस कमरे में टार्च की लाइट की तरह वह रोशनी चली जाती है । अब आप यहाँ यह जानेंगे कि कमरे में जो इतनी तेज लाइट की तरह एक रोशनी चली जाती है तो उसका उपाय क्या है । प्रकाश कमरे की चीज जो प्रकाशमान हुई है, उसका निमित्तकारण वह दर्पण हैं, न कि सूर्य । साक्षात् निमित्त क्या है? वह दर्पण, जिसकी किरणों के प्रकाश का निमित्त पाकर कमरा प्रकाशित होता है उस दर्पण के प्रकाशमान होने का निमित्त सूर्य है । तो कमरे में जहाँ प्रकाश पहुंचा है उस निमित्तक निमित्तत्व का निमित्त है सूर्य । यद्यपि यह बात सत्य है कि सूर्य न हो तो दर्पण भी उस कोठे के प्रकाश का कारण नहीं बन सकता । मगर निर्णय यह बन गया है कि मानो दर्पण प्रकाशमान तो अब उस कमरे में प्रकाश पहुंचाने का निमित्त दर्पण है और दर्पण के ऐसे प्रकाशित होने का निमित्त सूर्य है, सो वह निमित्त का निमित्त है, और वह योग इतना प्रबल है कि अगर सूर्यबिंब सान्निध्य न हो तो दर्पण का निमित्त पाकर कमरे में प्रकाश भी नहीं हो सकता । देखिये यह बात एक तथ्य समझने में काम आयेगी । जीव के साथ नये कर्म बँधे हैं, वे नये कर्म बँधने का निमित्त है उदय में आये हुए कर्म । मगर उदय में आये हुए कर्मों का निमित्तपना तब ही आता है कि जब यह जीव रागद्वेष करें, तो जीव का रागद्वेष तो हुआ सूर्य की तरह और उदय में आये हुए कर्म हुए दर्पण की तरह । और कमरे में प्रकाश हुआ, नये कर्मों के बंध की तरह । निमित्त कर्म के निमित्तत्व का निमित्त है यह रागद्वेष और इतना प्रबल निमित्त का निमित्त है कि अगर रागद्वेष न हो तो नये कर्म बंध नहीं सकते । इस तरह जैसे भौतिक विज्ञान से सब निर्णय और प्रयोग बनाये जाते हैं ऐसे ही आध्यात्मिक विज्ञान द्वारा भी अपने आपमें हर तरह के निर्णय और प्रयोग बनते हैं और वहाँ जो मोक्षमार्ग के अनुरूप प्रयोग होता है उसका परिणाम यह है कि यह जीव कर्मों से, शरीर के सब बंधनों से दूर होकर अपने विशुद्ध ज्ञान प्रकाशमय हो जाता है । तो अपनी भलाई चाहिए तो कुछ रूचि बनायें ज्ञानार्जन की, आत्मा के परिचय की, और सत्संग की । तो यह सब प्रकार हमारे लिए हितकारी होगा, संसार का यह संग समागम इसका लगाव, यह हमारे लिए हितकारी न होगा ।
444―उपादान के कार्य पर विचार―यह जीव क्या करता है, क्या नहीं करता है? कब तक करता है कब से नहीं करता आदिक परिस्थितियों का निर्णय इस अधिकार में किया जाने वाला है । इस अधिकार के प्रारंभ से पहिले बहुत कुछ ज्ञातव्य बातें है, जिनके 12 ज्ञातव्य तथ्यों का वर्णन हुआ । अब दूसरे तथ्य की बातें और निरखियेगा । इसके बाद यह अधिकार प्रारंभ होगा । बताना क्या है कि यह जीव क्या करता है? इस जीव का कार्य क्या है? तो देखिये जीव को जिसका कार्य बताना है उसको उपादान ही तो कहेंगे । जिसमें कार्य बताया जाये, जिसका कार्य कहा जाये उसे उपादान कहते हैं । तो उपादान जीव का कार्य है क्या? तो इसको इस तरह समझना होगा । यह जीव स्वयं एक अकेला ही रहे, इसके साथ किसी कर्म का, देह का, उपाधि का संबंध न रहे, ऐसी स्थिति निरखे कि इस उपादान का कार्य क्या है? तो उत्तर मिलेगा ज्ञाता दृष्टा रहना, जाननहार रहना । ज्ञान का प्रतिभास मात्र काम चलना यह उपादान का विशुद्ध कार्य है, इस आत्मा का यह एक अपनी ही सत्ता के कारण होने वाला कार्य है । तो देखो प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय, धौव्य युक्त होती है । तो इस आत्मा का यह जानन काम तो निरंतर चलता आया, चलता रहेगा, इसी कारण इसका नाम आत्मा है, “अतति सततं गच्छति जानाति इति आत्मा”, जो निरंतर जानता रहे उसे आत्मा कहते हैं । तो इसका काम निरंतर जानते रहने का है, किंतु जब उपाधि का संबंध साथ है और कर्मविपाक का जब विस्फोट होता है तो यहाँ उसकी छाया हुई, कर्मरस, जो यहाँ प्रतिबिंबित हुआ सो ज्ञान की दिशा मुड़ जाती है । ज्ञान को एक सही विधि से जानने भर का काम करना चाहिए था सो वह तो हो रहा मगर उसमें कर्मरस की एक छाया आने से ज्ञान की दिशा बदल जाती है । और यह रहता तो ज्ञाता दृष्टा मगर यह विकल्पक बन जाता है । तब यह विकल्प का कार्य करता है । इस कार्य में भी इस तरह यह ध्यान रखें कि इसमें जानन तो है पर उस जानन में कर्मरस का मिश्रण है सो उसका विकल्परूप बन गया ।
445―उपादान के कार्य का सोदाहरण वर्णन―जैसे कोई सफेद बल्ब है, एक साधारण बल्ब । साधारणतया सफेद के ही रंग में ज्योति हुआ करती हैं बल्ब है, उजेला है, सफेद, है अब रहा एक हरे पीले कागज का संबंध बन गया, उपाधि बन गई, प्रकाश हरा पीला हो गया तो जो अज्ञानी जन हैं वे इस विधि को नहीं जानते । वे तो कहेंगे प्रकाश हरा है, जो समझदार हैं वे कहेंगे कि प्रकाश तो प्रकाश है और इसमें हरापन यह उपाधि का, कागज का प्रभाव है । इसी तरह इस उपादान आत्मा में जो विकल्प के काम चल रहे हैं उसमें ज्ञानी जानता है कि आत्मा का काम तो जानन है और उसमें यह कर्म रस का मिश्रण है जिससे इसकी विकल्परूप स्थिति हुई है । तो अब जाना कि उपादान का कार्य क्या है । विशुद्ध कार्य और प्रभावित कार्य, इन सब कार्यों को एक संक्षेप में लें तो यह कह लीजिये कि यह आत्मा ज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं करता । अज्ञान दशा में ज्ञान का विकल्परूप ही उपयोग करता है और ज्ञान होने पर इस ज्ञान का जाननहार स्थिति में उपयोग करता है, पर ज्ञान के सिवाय न जीव कुछ कर सका अब तक न कभी कुछ करेगा । जो कुछ करता है वह ज्ञान का ही काम करता है । बाहर के पदार्थों से इसका कुछ मतलब नहीं । यह है एक इस आत्मा का कार्य, अब इस विधि से जानना होगा कि आत्मा में जो विभाव, जो विकल्प उत्पन्न हुए हैं वे किस ढंग से बने । एक मोटा उदाहरण लें मशीन का । कोई चक्का बड़ा तेज चल रहा है । वह इतना तेज चल रहा है कि यह पता नहीं पाता कि वह चल भी रहा । बड़ा सौम्य चक्का है । कहीं ऊंचा नीचा नहीं, सही ढंग का है । बहुत फिट है । उसमें तीन चार आरे लगे हैं, खूब तेजी से चलता पर पता नहीं पड़ता कि यह चल रहा है और उस चक्के पर कोई चीज कपड़ा वगैरह पड़ जाये, या कोई रंग पड़ गया तो जो चल रहा था चक्का सो चल रहा । उस ही चलते हुए चक्के पर वह मैल दिखने लगा, वह रंग चारों ओर दिखने लगा, ऐसे ही आत्मा जानने का काम निरंतर करता रहता है उसमें तो बाधा नहीं है, क्योंकि पदार्थ का स्वरूप हैं कि पदार्थ है तो उसमें अवस्था बनती रहेगी । उसके साथ-साथ जो उपाधि की छाया है वह उस प्रकाश में मिश्रण बन गया ।
446―विभावोत्पत्ति विधान के परिचय का प्रभाव―जब यह दशा बनती कि यह जीव विकल्प कर रहा तो इन विभावों की उत्पत्ति का क्या विधान है? कैसे बन गए, रागद्वेष क्रोधादिक कितने? इस विधि का जिसको परिचय है उस परिचय का यह प्रभाव होता है कि वह उस विभाव में संलग्न नहीं होता और वह जानता है कि मैं ज्ञानरूप हूँ, ज्ञान चेतना लिये हूँ । ज्ञान को ही करता हूँ, ज्ञान को ही भोगता हूँ । ज्ञान ही मेरा सर्वस्व है । ज्ञान ही साथ आया । जो ज्ञानस्वरूप स्वयं है । ज्ञान ही चलता जायेगा । ज्ञान का ज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं है । अपनी ज्ञान चेतना की सुध कर लेता है ज्ञानी ।
447―पर के अकर्तत्व का दर्शन―यह सब बात जो विभावों की उत्पत्ति में बतलाया है उससे सही पद्धति में आप यह निरख लेंगे कि यह जीव पर का तो अत्यंत अकर्ता है, परपदार्थ का कर्ता तो त्रिकाल में होता ही नहीं । चाहे कोई मोही पुरुष घर के किसी के गुजर जाने पर, इष्ट के गुजर जाने पर सारा हल्ला मचा रहा अथवा किसी के उत्पन्न हो जाने पर वह सारी चेष्टा कर रहा, और बड़े समारोह भी कर रहा और बड़ी फैक्टरी इंडस्ट्री खूब सम्हाल रहा और दुनिया देखती कि यह बहुत बिजी हैं, और लोग कहने भी लगते कि भाई हम तो इतने काम में बिजी हैं कि मरने की भी फुरसत नहीं । खैर मरने की फुरसत तो निकल ही आती है मगर कहने का ढंग है । कुछ काम करते हुए भी बात क्या हो रही है कि जीव परमाणु मात्र में भी कुछ नहीं कर रहा है । बस अपने ज्ञान के विकल्प कर रहा है, यह कर रहा, वह कर दूँगा, बस ज्ञान के विकल्पों का चक्र चल रहा है । बाहर में कुछ नहीं कर रहा हैं तीव्र मोही भी हो, वह भी बाहर में कुछ भी करने में समर्थ नहीं, क्योंकि यह तो वस्तुस्वरूप की सीमा है । कोई भी वस्तु किसी दूसरे पदार्थ में कुछ भी करने में कभी समर्थ न था, न है, न हो सकेगा । जैसे कभी देहातों में पास-पास के दो घर वाली औरतें जिनके एक लाइन में अलग-अलग दरवाजे हैं वे अपने-अपने दरवाजे पर खड़े होकर लड़ती हैं और वे ऐसा तेज हाथ फटकार-फटकार गाली गलौज करती हैं कि देखने वाले कह उठते हैं कि अरे कहीं इनमें तेज भिड़ंत न हो जाये, मगर वे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाती, वे वहाँ ही चिल्लाती रहती जहाँ कि एक सीमा बना रखी, उससे आगे नहीं हटती । यह तो उनकी एक मोटी बात है हंसी । सब वस्तुओं ने ऐसा अपनी सीमा बना रखी है कि चाहे वे मिल जायें, केमिकल रसायन मिल जायें, कुछ से कुछ उनमें प्रभाव बन जाये, रूखी-रूखी चीजें मिला दीं और कहो उसमें चिपक जाये, इतना बड़ा प्रभाव भी बन जाये, कितना ही तेज मिश्रण हो रसायन वस्तु में भी तो प्रत्येक अणु केवल अपना ही उत्पाद कर रहा है दूसरे का नहीं । इसका प्रमाण यह है कि जगत में सब पदार्थो की सत्ता अब तक बनी हुई है । यदि एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कुछ करने लगे तो अब तक यह जगत शून्य हो जाता, इसका यह कर दिया, यह न रहा, उस कर दिया, वह न रहा । फिर क्या रहे, क्या न रहे? जो अब तक पदार्थ की सत्ता है वही यह सिद्ध कर रही है कि कोई वस्तु किसी दूसरे पदार्थ का परिणमन नहीं करता । हाँ तो मोटी बात है यह कि कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ रूप नहीं परिणमता । एक तो यह निरखना है । देखिये―मोह दूर होगा, तो प्रकाश मिलेगा वह कि जिसके बल पर संसार के संकट छूट जायेंगे । उस मोह के दूर होने के लिए इस अधिकार में दो बातों का दर्शन कराया है―एक तो यह कि कोई भी पदार्थ किसी पर पदार्थ में उसका कोई परिणमन नहीं करता, अगर दाहिने हाथ ने बायें हाथ को मोड़ दिया तो यहाँ पर भी दाहिने हाथ ने नहीं मोड़ा किंतु दाहिने हाथ ने अपने में मोड़ने की क्रिया की और उसका संबंध पाकर बाँया हाथ अपने में मुड़ा ऐसा प्रत्येक पदार्थ अपने आपका कर्ता है दूसरे का नहीं ।
448―विभाव के अकर्तृत्व का दर्शन―दूसरा दर्शन यह है कि जीव रागद्वेष विकार का कर्ता तो हो रहा मगर वस्तुत: कर्ता नहीं है । जैसे दर्पण प्रतिबिंब का करने वाला तो हो रहा, सामने कोई चीज आयी, दर्पण में प्रतिबिंब आया तो दर्पण ही तो प्रतिबिंब रूप परिणमा, सो दर्पण ने प्रतिबिंब को किया तो है पर उसका स्वरूप नहीं, स्वभाव नहीं । परिस्थिति है सामने पदार्थ आया, स्वभाव नहीं, परिस्थिति है । सामने पदार्थ आया कि वह दर्पण जो स्वच्छ था वहाँ झलक गया, मगर वह दर्पण के ऊपर ही लोट गया है । दर्पण के निजी स्वरूप में प्रतिबिंब नहीं गया । अगर प्रतिबिंब दर्पण के निजी स्वरूप में पहुंच गया होता तो वह कभी मिट ही न सकता था ऐसे ही आत्मा में जब तक अज्ञान है, तब तक इसको ज्ञान स्वच्छता में कर्मरस का प्रतिबिंब होता है । और यह अपने ज्ञानस्वरूप की भावना को तजकर इस कर्मरसरूप मानने लगता है, सो ज्ञान में कर्ता तो हुआ अपने विकल्पों का, मगर इसका स्वरूप नहीं, स्वभाव नहीं । यह अपने स्वभाव को रागद्वेष को नहीं करता । तो यह जीव सब परभाव का अकर्ता है । यह तो वस्तुत: अपने ज्ञानभाव का कर्ता है, ऐसे ज्ञातव्य इन 16 तथ्यों को पहिचान कर अब अधिकार में प्रवेश करें ।
कर्तृ-कर्म अधिकार
449―जीव और अजीव का कर्ता कर्म के वेष में प्रवेश―इस अधिकार का नाम है कर्तृकर्माधिकार । यहाँ निर्णय क्या करना है कि जीव कर्ता नहीं है, तो जीव का कर्म क्या है? जीव किसका करने वाला है । इस बात का हर विधि से निर्णय दिया गया है । इससे पहले था जीवाधिकार । जीवाधिकार में स्वतंत्र जीव स्वरूप का वर्णन था । अजीवाधिकार में यह अजीव नहीं, इस तरह सब अजीव को हटाने का वर्णन था । अब इस नाटक में इस उपयोग भूमि में अब वे ही जीव और अजीव कर्ता और कर्म का भेष रखकर आये याने अब उपयोग जीव के कर्तृत्व और कर्मत्व का निर्णय करेगा कि जीव करता किसे है और जीव को होता क्या है और अजीव भी करता किसे है और अजीव का कर्म है क्या? इस तरह कर्ता कर्म भेष में अब जीव और अजीव को देखने की प्रक्रिया चल रही है ।