वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 47
From जैनकोष
परपरिणतिमुज्झत् खंडयद्भेदवादानिदमुदितमखंडं ज्ञानमुच्चंडमुच्चै: ।
ननु कथमवकाश: कर्तृकर्मप्रवृत्तेरिह भवति कथं वा पौद᳭गल: कर्मबंध: ।।47।।
463―आत्मा का भेदभाव से परिचय―वस्तु को पहचानने के चार उपाय होते हैं । किसी भी प्रकार पदार्थ का परिचय करना हो तो चार दृष्टियों से परिचय किया जाता है, जिन चार का नाम है द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । मतलब ? द्रव्य मायने वह वस्तु पिंड पदार्थ, क्षेत्र मायने वह कितनी जगह में फैला हुआ है । काल के मायने उसकी क्या हालत हो रही है, भाव के मायने उसमें क्या गुण है । आज एक प्रारंभिक सब बात कह रहे हैं, उपयोग लगाकर सुनो, सब चित्त में उतरेगा । जैसे मानो एक घड़ी का परिचय कराना है तो इस घड़ी को चार दृष्टियों से जानेंगे―एक तो पिंड जिसे आप देख सकते हैं, यह तो हुआ द्रव्य । क्षेत्र―यह घड़ी, कितने क्षेत्र में फैली हुई है, कितनी एरिया में घड़ी रखी है । तो जो कुछ उसका आकार है वह इसका क्षेत्र है और काल―इस घड़ी की वर्तमान दशा क्या है, नई है, पुरानी है, ठीक है, ये सारी बातें कहलायी काल । काल मायने दशा और भाव―मायने इसमें क्या-क्या गुण हैं वे कहलाये भाव । किसी मनुष्य का परिचय करना है तो जो मनुष्य सामने दिख रहा वह है क्या? द्रव्य, और जितना लंबा चौड़ा फैला आकार है मनुष्य का वह उसका कहलाया क्षेत्र और उस मनुष्य की दशा कैसी है? जवान है, बूढ़ा है, क्रोधी है, यों भीतर बाहर की जिन दशाओं की जानकारी करते हैं, यह काल है, और उसमें क्या-क्या गुण है उन गुणों की पहिचान करना सो भाव है । अब आत्मा को देखो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से । द्रव्य से देखो, जो यह एक पुंज है चैतन्यपुंज, नाना पर्यायों का पिंड, जो कुछ एक वस्तु है, जिस पर कषाय का आवरण हैं जिसको हम अपने वस्तुरूप समझ रहे हैं वह क्या हुआ? द्रव्य । क्षेत्र क्या? यह आत्मा कितने में फैला है, सो सब जानते हैं कि देह प्रमाण है जीव, जितना फैलाव देह का है उतना ही फैलाव इस जीव का है । तो इसका जो निजी प्रदेश है, फैलाव है वह हुआ आत्मा का क्षेत्र और काल क्या हुआ? आत्मा की जो दशा बन रही है, तृष्णा करता है, मायाचार करता है, सरल रहता है, क्षमा रखता है, आदिक जो भी चीजें है वे कहलाती है काल, और भाव क्या कहलाता है? इस आत्मा में क्या-क्या शक्तियाँ है, क्या-क्या गुण हैं? यह तो सब जानते हैं कि आत्मा में जानने देखने की शक्ति है, विश्वास करने की शक्ति है, तो ऐसी जो इसमें शक्तियाँ हैं वे कहलाये गुण । तो अब जानें, आत्मा को भी पहिचानें । चार दृष्टियों से बताना यह एक परख की बात कह रहे हैं । इसे कह रहे हैं अध्यात्म का प्रकाश करने के लिए शुरु-शुरु की बात में जब इस तरह से जान रहे हैं हम तो आत्मा के बारे में किसी एक पर तुम स्थिर नहीं हो रहे । द्रव्य से ऐसा, क्षेत्र से ऐसा, काल से ऐसा, भाव से ऐसा यह हुई भेदवाद की एक बात ।
465―आत्मा में पर परिणिति की आलोचना―दूसरी बात काल की देखिये कि हम पर क्या अवस्थायें गुजर रही हैं, दशायें बन रही हैं, मगर वह दशा व्यग्रता क्या है, चिंता क्या है, अस्थिरता क्या हैं, शुद्ध परिणति की नहीं है तो उसका कारण क्या है? उसका कारण है कि साथ में जो कर्म लगा है उसका विपाक उदय होता है, उससे यह मलिनता जगती हैं । तो दो बातें परखना, पहली बात यह समझना कि जैसे दर्पण के सामने रखी हुई रंग बिरंगी चीज का प्रतिबिंब आया तो वह प्रतिबिंब जो दर्पण में आया वह दर्पण के निजी स्वभाव से आया क्या? नहीं आया, किंतु सामने स्थित रंग बिरंगी चीज का सन्निधान होने पर प्रतिबिंब आया तो वहाँ एक तरह यों कह लीजिए कि यह प्रतिबिंब दर्पण की एक परिणति है और एक तरह यों कह लीजिए कि दर्पण में जो यह प्रतिबिंब है यह परद्रव्य की बात है, परिणति है, पर परिणति के दो अर्थ होते हैं-एक तो खुद की परिणति और एक पर का निमित्त पाकर होने वाली परिणति । सब जानते हैं कि प्रतिबिंब हट जाता है, प्रतिबिंब मिट जाता है, दर्पण तो स्वच्छ है, तो ऐसे ही आत्मा पर कर्मोदय का एक अंधकार आता है, कर्मरस आता है और वह ज्ञान में जाना गया और ज्ञान उस रूप मानने लगा तो यह जो मलिनता है कषाय की यह पर परिणति कहलाती है याने आत्मा में अपने स्वभाव से तो ऐसी स्वच्छता है कि वह केवल जानता रहे, उसमें कोई गड़बड़ी न आये प्रभु भी जानते हैं तीनों लोकालोक को तो उसकी ओर से तो बात ईमानदारी की यह है कि यह केवल जानता ही रहे, मगर जो कोई इन अनेक ढंगों में जानता है, मायने ज्ञान की उस तरह से जो वृत्ति जगती है यह मलिनता है, और यह कर्मरस परिणति है तो इस परिणति को जब तक यह जीव अज्ञानी है और जब यह मानने लगता, समझ में आ गया कि यह तो कर्मरस है, मैं तो स्वच्छ ज्ञानस्वरूप हूँ तो अज्ञान हट जाता है ।
466―पर परिणति को त्यागता हुआ व भेदभाव को मिटाता हुआ सर्वविशुद्ध ज्ञान का अभ्युदय―यहाँ जो ज्ञानी के एक ज्ञान प्रकट हो रहा है तो वह दो बातों को करता हुआ हो रहा है, एक तो परिणति को छोड़ता हुआ और एक भेदभाव की बातों को मिटाता हुआ । दो बातें समझना है ज्ञान के लिए, जिसकी भूमिका में अभी कुछ भूमिका दी । भेद क्या किया था ? द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इन चार तरह से आत्मा को परखना, यह है भेद और परिणति क्या बताती कि जो कर्म उदय में आये, कर्मरस इस ज्ञान में आया और यह ज्ञान गड़बड़ा गया । यह गुस्सा, घमंड, लोभ आदिक रसों को जानने लगा, घमंड करने लगा, तो यह है परपरिणति । तो अब ज्ञान में जो ज्ञान प्रकट हुआ है उस ज्ञान ने पर परिणति को दूर किया कि यह मैं नहीं, जैसे प्रतिबिंब दर्पण नहीं इस प्रकार ये कषाय मैं नहीं । यों पर परिणति को छोड़ा इस ज्ञान ने और फिर भेद को भी मिटाया । जैसे अभी भेद करके समझाया था कि आत्मा को जाना द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से । द्रव्य से कैसे जाना था कि यह मैं आत्मा पदार्थ हूँ, द्रव्य से कैसे जाना था कि यह इतना लंबा और चौड़ा 5 फिट, 6 फिट के विस्तार में जितना देह का विस्तार है उतने रूप में इस ज्योति का भी विस्तार है, काल से क्या जाना था? दशा, परिणति । यह इस तरह परिणम रहा, यह इस तरह गमन कर रहा जीव और भाव से क्या जाना था? इस जीव में देखो ज्ञान की शक्ति है, दर्शन की शक्ति है, श्रद्धा की शक्ति है, सब गुणों को सम्हालने की शक्ति है । गुण जाने जा रहे यह जानना बहुत काम आता है, पर ज्यों यह ज्ञानी अपने ज्ञानस्वरूप में बढ़ता है तो यह जानना भी मिट जाता है, वहाँ एक अखंड ज्ञान जिसमें ये विकल्प न चलें कि यह द्रव्य है, यह क्षेत्र है, काल है, भाव है, उदित हुआ है ।
467―अभेदानुभव का अनुमान कराने के लिये मोहीजनों के प्रतिबोधनार्थ मोहप्रयुक्त एक दृष्टांत―जैसे जब कभी एक अंदाज के लिए बतला रहे आप कोई बहुत बढ़िया मिठाई खा रहे हो जो आपको सुहाती हो―मानो एक बहुत अच्छा हलुवा बनाया, आप उसे खा रहे हैं । तो जब तक उसको खाते हुए में यह ध्यान रख रहे कि इसमें भी अच्छा पड़ा है, बूरा अच्छा पड़ा है, सेंका अच्छा गया है तो उस समय उस मसाले के स्वाद का जो अनुभव होता है वह भी आप लोग समझ रहे होंगे और एक उस समय के भी स्वाद का आप अनुभव करते होंगे जबकि ये कोई प्रकार के विकल्प नहीं उठ रहे, बस एकतान होकर आँखें मींचकर बड़े आराम से बैठे हुए खा रहे । बताओ उसका बढ़िया स्वाद कब मालूम होता? जबकि कोई उसके प्रति विकल्प नहीं उठ रहा, बस एकतान होकर आंखें मींचकर खा रहे । तो जिस पदार्थ को भोग रहे हैं उसकी चर्चा कुछ समझ में आ रही हैं उसका अधिक स्वाद या कुछ चर्चा न करके आँखें मींचकर केवल एक हड़प के साथ केवल उसी स्वाद पर एक ध्यान देकर स्वाद ले रहे तब स्वाद अधिक आता है । भाई क्यों ऐसी स्थिति में अधिक स्वाद आया? वहाँ यह भेद मिटा दिया कि इसमें यह चीज पड़ी, इतनी पड़ी, ऐसे बनी आदि । यों आप एक अभेद जैसी स्थिति बना बैठे । अभेद कुछ नहीं हुआ, गड़बड़ वह भी है मगर मुकाबले में दृष्टांत में बता रहे हैं कि आपने एक अभेद जैसी स्थिति बनायी तो आप स्वाद अधिक मान रहे, अनुभव और अधिक हो रहा है । तो यह तो एक मोटी बात कही । चूंकि विषय के प्रसंगों में ही अधिक समय गुजारता है इसीलिए उसका दृष्टांत किया ।
468―भेदवाद को खंडित कर अभेद निज अंतस्तत्त्व के अनुभव में ज्ञान की अखंडता―बात यह बताते हैं कि आत्मा के बारे में भी जब-जब आप यह ध्यान करके सोचे कि आत्मा में तो अनंत गुण हैं, आत्मा की तो ऐसी पर्याय चल रही है, आत्मा तो इतने बड़े देह में ऐसा फैला हुआ है, इस तरह के भेद वाली बात को ध्यान में रखकर जब आप आत्मा को जान रहे तब का ज्ञान, इसको एक जगह रख दीजिए । अभी तुलना की जायेगी और एक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का भेद मिटाकर याने इन दृष्टियों का कुछ विचार न रखकर और एक परम विश्राम के साथ एक ज्ञान इसका ही ज्ञान में स्वाद लिया जा रहा हो, सारे व्यापारों को रोककर, सब इंद्रियों का व्यापार रोककर अपने ज्ञान में केवल जाननस्वरूप को ही निरखें, केवल उस सहज ज्ञान स्वभाव को ही जाने उस स्थिति में जो आत्मा का परिचय अनुभव होता हे । सो हम दो बातों में तुलना करके पूछ रहे हैं कि पहले वाला ज्ञान जो कि भिन्न-भिन्न तरीकों से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की पद्धति से जानकारी बतायी थी उसमें अद्भुत अनुभव है, आत्मानुभूति है या उन सब भेदों को समाप्त कर केवल एक ज्ञानरस का ही ज्ञान में ज्ञान किया जा रहा हो उस समय के ज्ञान में अनुभूति है बस इस अखंड ज्ञान में अनुभूति जगती है, खंड-खंड के ज्ञान में अनुभूति नहीं जगती, हालांकि जरूरत उसकी भी है । जैसे कोई बालक अ आ इ ई न पढ़े, ए बी सी डी न जाने, प्राइमरी न पास करे तो आगे बढ़ कैसे सकता है? इसलिए कभी आवश्यकता है लेकिन जब ऊँचे ओहदे के काम पर पहुंच गए तब फिर वहाँ उस प्राइमरी पाठशाला की चीज का कोई उपयोग तो नहीं करता, और पायी हुई योग्यता का उपयोग करता है हर एक कोई ऐसी ही प्रारंभिक अवस्थाओं का खंड-खंड करके आत्मा को समझ सकता है क्योंकि ऐसे भिन्न-भिन्न रूप से समझे बिना हम उस अखंड आत्मतत्त्व को नहीं जान सकते । इसलिए उस विशुद्ध अनुभूति के लिए आवश्यक है, यहाँ हर तरह से आत्मा को समझें, मगर जो ज्ञान कर्म की काट छाट करें, जो ज्ञान अपने में अद्भुत आनंद रस का पान कराये, जो ज्ञान सारे अज्ञान अंधेरे को तुरंत खतम कर दें, ऐसा ज्ञान तो बस यह है जहाँ अखंड ज्ञान ज्योति का अनुभव हो रहा है । तो ऐसी प्रचंड तेज वाली सहज ज्ञान ज्योति जहाँ प्रकट होती है वहाँ अज्ञान को अवकाश नहीं रहता । जैसे जहाँ निरावरण होकर मेघ पटल से हटकर सूर्य का उदय होता है वहाँ अंधेरे को स्थान नहीं मिलता ।
469―स्वभाव और परिणति दो रूपों में आत्मा का परिचय―हाँ देखो कुछ थोड़ा और आत्मा को परखने की पद्धति पर दृष्टिपात करिये । आत्मा को दो तरह से परखो, तीन तरह से परखो, चार तरह से परखो, 5 तरह से परखो, कई पद्धतियों में परख बतला रहे हैं ताकि परख बनने के बाद फिर हम एक अखंड ज्ञानस्वरूप को समझ सके, दो तरह से परखें आत्मा को, स्वभाव है और पर्याय है । दो बातें दिख रही इस जीव में । जीव का कोई निजी स्वभाव है और उसकी कोई दशा बन रही है । बोले हैं ना यह बात सही? स्वभाव न हो तो वस्तु क्या रही? जैसे अग्नि में गर्मी का स्वभाव नहीं है तो फिर अग्नि किसका नाम? और कोई कहे कि स्वभाव तो है, मगर उसका नाम कुछ होता ही नहीं है तो फिर स्वभाव किसका नाम? अग्नि किसका नाम, स्वभाव प्रयोजन भी क्या? ऐसे ही आत्मा में स्वभाव है क्या? चैतन्य चित्स्वरूप चेतनामात्र कह लो, इससे अधिक शब्द नहीं हो पाते और परिणति क्या है? पर्याय जो गुजर रही, हम पर गुजर रही खोटी परिणति । प्रभु पर है चित्परिणति । अच्छा से भी अच्छा विचार चले तो भी ज्ञानी की दृष्टि में यह है कि यह हमारी खोटी परिणति है, ऐसा सुनकर अचरज हो रहा होगा कि अच्छा विचार, अच्छी भावना, परोपकार के भाव, तीर्थयात्रा, वंदना, सेवा वैयावृत्ति ये भाव चल रहे, ये तो अच्छे भाव हैं, इन्हें खोटी परिणति, विभाव परिणति क्यों कहते? अरे इनसे भी और ऊँचे उठकर रहना है, अगर इसी का नाम अच्छी परिणति है तो फिर प्रभु भी ऐसा ही करे । वे क्यों वीतराग विज्ञान बन गए? जो अच्छा काम है वह छोड़ना तो न चाहिए ना? क्यों वे छोड़ते है? अरे उससे ऊपर जो एक प्रभुस्वरूप मिलता है तो उसके सामने अच्छे विचार, शुभ भाव, यह भी हमारी गलती है, और जो शुभ भावों में गलती समझ में आयी वहाँ अशुभ भावों में कौन चतुराई करेगा? वह तो उससे भी अधिक गलती है ।
470―शुभ और अशुभ दोनों कर्मों में पापरूपता का आभास―ज्ञानी की दृष्टि में पाप तो पाप है ही मगर वह तो पुण्य को भी एक प्रकार से पाप समझ रहा है । क्योंकि उसका प्रवेश विशुद्ध तत्त्व में हुआ है,, और वैसे भी इस पुण्य का करे क्या? पुण्य से हम क्या लाभ उठा पायेंगे? अगर पुण्य हुआ तो धन संपदा मिली, इज्जत प्रतिष्ठा मिली, चला बढ़ा, भाव स्वच्छंद हुए, अन्याय भी करने लगे,दूसरों को दबाने भी लगे, विषयों में भी प्रवृत्ति हुई और मन ने जो चाहा सो काम किया, पाप का बंध हुआ और उसके फल में नरक जाना पड़ा, पुण्य से क्या लाभ उठाया? पुण्य तो तब भला है जब यह धर्म कार्य में कुछ सहायक बने । वास्तविक धर्म में सहायक नहीं बनता अन्य कुछ धर्म कार्य को तो यह जीव अपने आप निरपेक्ष होकर अकेला ही करता है, मगर कुछ अधिक संपदा है, कुछ चिंता नहीं है, नहीं तो जिन मनुष्यों को खाने पीने की ही चिंता लगी है उनको तो कुछ कठिनाई है । यहाँ सब साधन हैं तो उसका सही उपयोग करना चाहिए । सत्संग में अधिक समय दें, धर्म कार्यों में अधिक समय दें―ज्ञान―वृद्धि में अपना उपयोग लगावें, ऐसा कार्य बने तो जो पुण्य मिला है, उदय में है वह भी एक काम में आ जायेगा और यदि यहाँ ज्ञान की ओर रुचि नहीं है, अपने धर्म की ओर दृष्टि नहीं है, तो यह पुण्य को गिरा देगा । जो जितना अधिक ऊंची चोटी से गिरेगा वह उतनी ही अधिक चोट खायेगा । इसी तरह पुण्य की बड़ी विभूति पाकर जो गिरेगा उसको बहुत अधिक चोट आती है ।
471―निज अंतस्तत्त्व में स्वत्व के अनुभव की ज्ञानी ी वृत्ति―मतलब स्थिति कुछ हो, परिणाम एक होना चाहिए कि मुझे सत्य ज्ञान मिले,, और मैं निज ज्ञान स्वरूप में रमूं, यह मेरी दुनिया है, यह ही मेरा सर्वस्व है, इसी में मेरा कल्याण है, अन्य कोई बात लक्ष्य में न रहे, अन्य उद्देश्य न बनावें, बस एक ऐसा ही दृढ़ भाव होना चाहिए तो ज्ञानी पुरुष के एक सहज ज्ञान का उदय होना चाहिए सो वह ज्ञान दो बातों को समाप्त कर रहा है, एक तो जो कषाय पर-परिणति हैं उस पर परिणति को छोड़ रहा है । मतलब नहीं इससे कुछ, मेरे लिए तो कलंक हैं, ये कषाय । मैं तो प्रभु की जाति का हूं, मैं तो बड़े पुरुषों के कुल का हूँ, तीर्थंकरों की संतान हूँ, चैतन्य कुल का मैं एक पदार्थ हूँ, मुझको न चाहिए विकार, मुझे न चाहिए कषाय । कषायों से बुद्धि समाप्त होती है । तब ही तो न्यायालय में पेश हुए दो वकीलों में वादी और प्रतिवादी में । जो चतुर वकील होता है वह अपने प्रतिवादी वकील से ऐसी बात छेड़ देता है कि जिससे उस दूसरे वकील को गुस्सा आ जाये । उसने क्यों ऐसी बात की कि गुस्सा आ जाये? यों की कि गुस्सा से उसकी बुद्धि मारी जायेगी और यह कुछ अपने बयान सही ढंग से पेश न कर पायेगा । गुस्सा में बुद्धि खराब हो जाती है और कुछ सूझता भी नहीं है, सच्चाई की बात जब चित्त में आती है तो उन्नति का मार्ग बन पाता है । जब तक भीतर में गुस्सा भरी रहती है तब तक न लौकिक उन्नति की बात सही चित्त में आ पाती और न अलौकिक उन्नति की बात सही चित्त में आ पाती । यह कषाय रस मेरी चीज नहीं, ये सब परिणतियां हैं, इन पर परिणतियों का मुझसे प्रयोजन नहीं, मैं तो जाननहार ही रहूंगा, कषाय न करूँगा, ऐसा एक दृढ़ संकल्प बनाता है ज्ञानी पुरुष ।
472―समस्त भेदवादों को ध्वस्त करता हुआ अखंड उच्च प्रचंड तेज का अभ्युदय―दूसरा कदम ज्ञानी का क्या बना कि जो नाना विधियों से आत्मा को परखा था, यह स्वभाव है यह पर्याय है, तीन रूप से परखा था यह द्रव्य है, यह गुण है, यह पर्याय है, चार रूप से परखा―द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से भाव को दो रूप में और परख लीजिये । भेद रूप भाव, अभेद रूप भाव । गुण और स्वभाव को सब तरह से पहिचाना । सो सब पहिचाना तो था, मगर जब यहाँ प्रचंड तेजस्वी सहज ज्ञान का उदय हुआ वहाँ भेद कुछ नहीं रहता, एक अलौकिक ज्ञान रस का अनुभव ही चलता है । जहाँ ऐसा प्रचंड तेजस्वी ज्ञानरूप का ही एक स्वाद आ रहा हो वहाँ “यह करता है यह किया जा रहा है, मैंने इसको किया” इस बात का तो अवकाश ही नहीं होता । कर्तृकर्मत्व बुद्धि की तो संभावना ही नहीं रहती । और जब कर्ताकर्म बुद्धि न रही, भीतर में अज्ञान न रहा, किसी परपदार्थ के प्रति मोह न रहा, कहीं लगाव न रहा, एक ज्ञान घन अंतस्तत्त्व का ही स्वाद लिया जा रहा है वहाँ फिर पुद्गल कर्म का बंध कैसे हो सकता है? जीव खोटे भाव करे तब ही तो विजातीय अलौकिक मायने पुद्गल कर्म इस पर हावी हो जायेंगे । यह है घर की फूट, मायने मेरा घर है चैतन्यस्वरूप, उससे हम जुदे हो गए, अलग हो गए और कर्मरस में हम शामिल हो गए तो ऐसे निज गृह की फूट में दूसरे लोगों को मौका मिलता ही है, सो यह पुद्गल कर्म का बंधन इस जीव पर धमका, तो इतना विकट जो पौद्गलिक कर्म का परिणमन हुआ तो उसका कारण क्या रहा? यह कर्ताकर्म बुद्धि, यह अज्ञान भाव सो ज्ञानज्योति प्रकट होती हुई अज्ञान को मूलत ध्वस्त कर रही है । यों सहज ज्ञान का आनंद अनुभव यह सम्यग्दृष्टि लेता है और भव-भव के बाँधे हुए कर्मों का क्षय कर रहा है, दूर कर रहा है । कर्म सबके साथ लगे हैं और इससे ही कष्ट उठाना पड़ रहा है और कर्मों को हटाने का कोई उपाय दूसरा हो ही नहीं सकता है । कर्मों को मैं हटाऊं ऐसे भाव से कर्म नहीं हटते, किंतु कर्म हैं क्या? या नहीं हैं, या क्या हो रहा है, कुछ ख्याल न रहे वहाँ और एक अपने सहज ज्ञान स्वभाव की ही उपासना रहे तो इस उपासना के प्रसाद से कर्म अपने आप दूर हो जाते हैं, लोग मिलने आये और यह उनसे पीठ फेर लें, अपने घर के कामों में लग जाये तो वे अपने आप ही भाग जाते हैं, ऐसे ही कर्मरस से पीठ फेरकर ज्ञान के अभिमुख हुए ज्ञानी पुरुष को कर्म नहीं सताते ।