वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 61
From जैनकोष
अज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमंजसा ।
स्यात्कर्तात्मभावस्य परभावस्य न क्वचित् ।।61।।
588―आत्मा में आत्मगुणों की ही परिणति की संभावना―कर्तृत्व के विषय में बहुत कुछ वर्णन के बाद यह निर्णय दिया जा रहा है कि यह जीव अपने ही भावों का कर्ता होता है, परभावों का कतई यह कर्ता नहीं होता । अपने भावों का कर्ता अज्ञान में किस तरह होता कि अपने आपको अज्ञानरूप बनाता हुआ अज्ञानी अपने में भावों का कर्ता है, और ज्ञानी किसका कर्ता है? तो ज्ञानी अपने आत्मा को ज्ञानमय बनाता हुआ अपने भावों का कर्ता है । बनाने का अर्थ कोई व्यवहार की चीज बनाने की तरह नहीं, किंतु जब अपने आपको अज्ञानस्वरूप मान लिया तो अज्ञानभाव का कर्ता है जब अपने आपको ज्ञानस्वरूप मान लिया तो अपने ज्ञानभाव का कर्ता है । यह जीव अज्ञान से किस प्रकार के भावों का कर्ता है? मैं राग करता हूँ, द्वेष करता हूँ, क्रोध करता हूँ, यों अज्ञानमय भावों का कर्ता होता है अज्ञानी । ऐसा क्यों बनता है? बात यह है कि यहाँ दो प्रकार के पदार्थ हैं―एक तो ये जीव और दूसरे ये पौद्गलिक कर्म । सो पूर्व में बाँधे हुए पौद्गलिक कर्म का विपाक आया, अनुभाग खिला सो उस समय कर्म के अनुभाग का प्रभाव कर्म में ही पड़ा निश्चय से, कर्म के अनुभाग वाली क्रिया में अभिन्न कर्म है, सो ये कर्म जैसे अपने में शक्ति भरे हुए जो उसका अनुभाग था, प्रकृति थी उसके ही अनुकूल अपने आप में अनुभाग को खिला दिया । बस यह काम तो कर्म में हुआ, पर चूंकि कर्मबंध्य में यह जीव है, और यह जीव है स्वच्छ उपयोग रूप सो वह जो कर्म खिला, वह जो अनुभाग खिला फलदानशक्ति खिली, साता असाता प्रकृति में जो भी वहाँ रागद्वेषादिक कषाय हुए उसका सान्निध्य पाकर इस आत्मा में, इस स्वच्छता में एक प्रतिफलन हुआ, उस प्रतिफलन में यह जीव जुटा हुआ है, अनादि का संस्कार है, ऐसा ही जुटता चला जा रहा है, उसको बुद्धिपूर्वक तो नहीं जान रहा, किंतु अज्ञानरूप बनकर अपने को अनुभव रहा है, सो उस कर्म विपाक को अज्ञान रूप बनाता हुआ यह अपने अज्ञान भाव का कर्ता होता है । मैं क्या हूँ, बस इसके उत्तर पर ही सब दारोमदार है, यह जीव भला है या बुरा है, शुभ भाव कर रहा है या अशुभ भाव कर रहा है या धर्मभाव कर रहा है? इन सबका निर्णय इस जीव के इस आधार पर है कि वह अपने को क्या समझ रहा?
589―जीव और कर्म का संसार में परस्पर निमित्तनैमित्तिक के योग―देखो जब कर्म में विकार हुआ, उसका सान्निध्य पाकर, निमित्त पाकर इस चैतन्य में भी विकार हुआ । चैतन्य का विकार चैतन्य से अभिन्न है, उस काल में कर्म का विकार कर्म से अभिन्न है, पर इनका परस्पर निमित्तनैमित्तिक योग अनिवार्य ढंग से अनादि से चला आ रहा है, सो यह निमित्तनैमित्तिक योग केवल इतना ही नहीं कि कर्म निमित्त होते हैं, जीव भाव नैमित्तिक होता, किंतु जब यह जीव अपने ज्ञानस्वरूप को सम्हालता है तो वहाँ कर्म में भी निर्जरण होता है, सो वह नैमित्तिक होता । तो जब कर्मविपाक आया और उस उदय काल में यह स्वच्छता का विकार बना, उपयोग में प्रतिफलन हुआ । सो वहाँ इसकी अज्ञानरूप दशा बनी, सामान्य से तो कह लो कि यह ज्ञान अज्ञानरूप बन रहा । देखो अज्ञानरूप बनने में भी ज्ञान की जरूरत है, जहाँ ज्ञान नहीं वह अज्ञानरूप नहीं बन पाता । तो यह जीव जो मिथ्या ज्ञान रूप बन रहा सो पर और आत्मा में अंतर न दिखने से, अंतर न जानने से, पर से विरक्त न होने से अब तक बन रहा, उस कर्मरस में और ज्ञानरस में मोही के कोई भेद न रहा । वह अभेद अनुभव कर रहा । जैसे नमकीन चीज का लोभी पुरुष उस खाद्य पदार्थ को खा रहा, मगर लोभ है ना ज्यादह तो उस नमक की कुछ सुध नहीं रख रहा जिसके प्रताप से वह सारा खाद्य पदार्थ स्वादिष्ट लग रहा, ऐसे ही ज्ञानरस में, कर्मरस में भी मिश्रण में वह ज्ञान कर्मरूप अपने को अनुभव कर रहा, कर रहा यह ज्ञान ही का अनुभव, मगर कषायरूप से अपने आपको अनुभव कर रहा, सो उस वक्त में यह आत्मा यह विकल्प उत्पन्न करता है कि मैं क्रोध हूँ, तब यह आत्मा इस भ्रम से कि मैं तो क्रोध हूँ, कषाय हूँ, जो भी परिस्थिति बनी, जो भी विकार बना उस विकास रूप मैं हूँ ऐसा जब भ्रम हो गया, तो जन्म मरणमय संसार की परंपरा चलती ही रहेगी । क्योंकि इस जीव ने चेतन और अचेतन में एक समानरूप से व्यवहार किया ना कि मैं क्रोधादि हूँ, देखिये क्रोध अचेतन है, मैं चेतन हूँ, और जहाँ यह बात लगायी कि मैं क्रोध हूँ तो इस क्रोधरूप से अनुभवने के कारण अब यह विकाररूप से ही परिणम रहा है इस स्थिति में बतलावो यह आत्मा किस भाव का कर्ता है? आत्मा में जो अज्ञानमय स्थिति बनी उस अज्ञानमय भाव का कर्ता है । यह केवल क्रोध की ही बात नहीं, यह ही सब कषायों की बात है ।
590―जीव पर मूल विपत्ति―क्या विपत्ति है इस जीव पर? जो विपत्ति बतायी है उस पर तो यह दृष्टि नहीं रखता, और जो विपत्ति नाममात्र को भी नहीं है उसे विपत्ति मानता है । क्या है खास विपत्ति? बस जो क्रोध, मान, माया, लोभ, जो कर्मविपाक उदय में आया उसकी झाँकी है, उसमें यह अनुभव करता है कि मैं यह हूं । गल्ती इस जीव ने की, गल्ती कर्म नहीं कर रहे, कर्म तो ईमानदारी से जैसा अनुभाग था, जो कुछ चीज था, जैसे निमित्तनैमित्तिक योग में उदय उदीरणा काल आता है वैसे विपाक को खिलाता है, गल्ती इस जीव ने क्या की कि कर्मरस को ‘यह मैं हूँ’ ऐसा अनुभव किया, सो देखो―जैसे बहिरात्मा देह में अधिक आसक्त होता, देह मैं इस तरह बोलकर जानकर मैं का अनुभव नहीं करता, किंतु देह को ही एकमात्र लक्ष्य में लेकर हूँ मैं, ऐसा अनुभव करता है । यह देह मैं हूँ ऐसा मूर्ख याने मोही लोग अनुभव नहीं करते, किंतु देह में मैं का अनुभव करना और यह देह मैं हूँ, ऐसा अनुभव करना, इन दोनों बातों में तो बड़ा अंतर है । जिसने ऐसा सोचा कि यह देह मैं हूँ उसने कम से कम दो बातें कबूल तो की । यह देह और यह मैं हूँ । जिसे मैं कहा जा रहा एक वह चीज जिसे देह कहा जा रहा एक वह चीज; पर व्यामोही पुरुष के इतना भी अंतर नहीं आता, उसके लिए देह और मैं ये दो चीजें नहीं हैं, एक ही चीज है । इसी प्रकार जो कर्मरस चेतन में आया, झलका, उसमें यह अज्ञानी इस तरह से अनुभव नहीं करता कि यह कर्मरस मैं हूँ । उसे दो की कहाँ खबर? वह तो कर्मरस में ही, उस कषाय में ही, मैं ऐसा अनुभव करता है, यह है सबसे बड़ी विपत्ति । इस विपत्ति को मिटा दें तो नियम से मोक्ष होगा, कोई रोक न सकेगा । कुछ काल बाद सम्यक् लाभ तो हुआ । सम्यक् का लाभ इस जगह है । उदय उदीरणा में जो विपाक हुआ है, अज्ञानभाव छाया है, कर्मभाव छायारूप में आया है, फिर यह मैं हूँ, ऐसा अनुभव करता, यह है बहुत बड़ी विपत्ति । संकट मिटाना है तो इन मिथ्या भावों को दूर करना पड़ेगा । इन मिथ्या भावों को दूर किए बिना कभी भी शांति का मार्ग संभव हो ही नहीं सकता ।
591―जीव पर ज्ञेय-ज्ञायकसांकर्य की विपत्ति―अच्छा, अब दूसरी तरह से और विकल्प देखो याने कितने ढंग से इस पर विपत्ति है । मूल में इस पर दो विपत्तियाँ हैं―एक तो यही जो कि अभी कहा गया है कि जो कषाय जगी जो मोह विपाक हुआ उसमें मैं हूँ ऐसा अनुभव करना यह है बहुत बड़ी विपत्ति । दूसरी विपत्ति क्या होती है जीव पर? देखो जो पदार्थ ज्ञान में आ रहे हैं, जानने में आ रहे हैं, जान लिया, मायने ज्ञेयाकार बना । यहाँ जानन विकल्प हुआ, अब जो जानन विकल्प हुआ, जो ज्ञेयाकार हुआ उस मुखेन उसमें निश्चयत: और उसके विषय में व्यवहारत: यह अनुभव करता है कि मैं यह हूँ, नाना प्रकार से अपने में नाना पोजीशनों रूप यह अपने को अनुभव करता कि मैं यह हूँ । और की तो बात क्या? जब धर्म-अधर्म द्रव्य जैसे अमूर्त पदार्थों को भी जान रहे हैं जितना जान सकते और जानन के अनुसार दूसरे को समझा रहा और देखो समझाया उसने और दूसरे ने माना नहीं, वह उल्टा बोलने लगा तो यह समझाने वाला क्यों चिड़चिड़ा बन जाता है, क्यों इसे गुस्सा बन जाती है? उसका कारण यह है कि धर्म अधर्म आकाश जैसे अमूर्त पदार्थों में भी इसने उस समय ऐसा अनुभव किया कि मैं तो धर्म हूँ, अधर्म हूँ, आकाश हूँ, जिस पदार्थ को जाना उस पदार्थ रूप अपने को अनुभव किया । कुछ सीधे ढंग से यह समझ में न आ रहा होगा कि ऐसा कौन अनुभव करता कि आकाश मैं हूं, धर्मद्रव्य मैं हूँ? मगर अंतरंग में देखो आकाश और धर्मद्रव्य के बारे में जो यहाँ ज्ञान विकल्प उठ रहे हैं, जानन हो रहा है उसको तो मैं अनुभव कर रहा कि मैं यह हूँ । जैसा कर्मरस विपाक में आया उसमें इसने अनुभव किया कि मैं क्रोध हूँ । ऐसे ही इसने ज्ञेय पदार्थ में मैं का अनुभव किया कि यह ज्ञेय पदार्थ मैं हूँ । देखिये एक अंतर । जब यह जीव किसी ज्ञेय को ही मान रहा कि मैं हूँ उसमें भी कारण कर्मविपाक का अनुभव भीतर में पड़ा हुआ है तो यहाँ अनुभव सामान्य को ज्ञानरूप बताया था और विशेष को मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्ररूप परिणमा विकार बताया, तो ये ही पुरुष अब जो पदार्थ ज्ञेय हो रहे उन पदार्थों में भी अंतरसा अनुभव नहीं कर रहे हैं कि मैं तो यह हूँ और ये बाहरी चीजें । देखिये जितना बाहरी पदार्थों का प्रतिबिंब है, झाँकी है वह यह सिद्ध कर रही है कि वे चीजें बाहर की हैं भीतर की नहीं । जैसे दर्पण के सामने उपस्थित चीजों की फोटो आयी तो वह फोटो ही बतला रही है कि वे चीजें बाहरी हैं, दर्पण की नहीं । सो यह सारा विश्व, ये सारे पदार्थ, जिनकी जितनी योग्यता ज्ञान में आ रही, तो यह ज्ञान ही यह बतला रहा कि यह दुनिया ही मुझको बढ़िया है, लेकिन देखो इस समय जान रहे हैं किसके द्वारा? इंद्रिय के द्वारा, मन के द्वारा, आत्मबल से नहीं जान रहा । तो यह जो जान रहा है सो इंद्रिय और मन के माध्यम से जान रहा । इतना बल प्रकट नहीं है इस अज्ञानी में कि यह इंद्रिय, मन की सहायता न ले, केवल आत्मीय शक्ति से जान ले, तो अब इस पर दो आफतें और चढ़ गई । एक तो ये इंद्रिय मन, दूसरे इन इंद्रिय मन के द्वारा पदार्थों का जानना सो यह उस ज्ञेय को भी अपने शुद्ध आत्मा से मिलाकर अनुभव करता और इस इंद्रिय मन में भी अपने शुद्ध आत्मा को मिलाकर अनुभव करता । विपत्ति यह चल रही है भीतर, पर इसका किसे ध्यान है? दौड़े चले जा रहे हैं बाहरी पदार्थों के संग्रह विग्रह में इतनी चीजें जोड़ लें, आनंद आ जायेगा, इसको यों मिटा दें, आनंद आ जायेगा । अरे ! बाहर में तेरा कुछ संबंध नहीं, न मिटाने से आनंद आयेगा, न जोड़ने से भीतर की समस्या सुलझ जायेगी, आनंद आयेगा तो यह अज्ञानी जीव इस ज्ञेय को इस कर्मरस को आत्मरूप बना रहा, इसी कारण अज्ञान भाव का कर्ता बन रहा है ।
592―अस्व को स्व स्वीकार करने के अपराध का दंड―अच्छा, परद्रव्य आत्मारूप बने तो यह एक इतना बड़ा अपराध है कि जिसकी फिर दंड व्यवस्था न राजा के अधीन है, न चक्रवर्ती के अधीन है, कोई भी नहीं दे सकता, इसका दंड तो एकेंद्रिय दो इंद्रिय आदिक में उत्पन्न हो होकर भोगना पड़ता है । देखो, कितना कष्ट है इस जीव को कि है तो स्वयं स्वतंत्र अपने स्वरूप वाला । प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूप वाले हुआ करते हैं, कोई किसी में मिला जुला नहीं होता, तो है तो यह अपने चैतन्यस्वरूप वाला । किसी भी पदार्थ से इसका रंचमात्र संबंध नहीं । सत्ता न्यारी है, विशुद्ध चैतन्यभावरूप है, मगर अज्ञान जो छा गया, योग्यता खोटी कर्मविपाक की झलकी इसने उस सविकार परिणाम को अपना स्वीकार कर लिया सो यह मैं विकार परिणाम को करने वाला हो गया । करनेवाला तब कहा जाता जब काम कुछ अलग से दिखाया । अभी किसी मजदूर को बुलायें और कहें देखो भाई यहाँ का यह कूड़ा करकट उठाकर वहाँ डालना है इतनी जगह साफ करना है, खैर वह मजदूर आया मगर वह एक जगह बैठा हुआ हाथ हिलाये, सिर हिलाये, गाना गाये तो इस तरह से कहीं वह कूड़ा करकट उठाने का काम तो न हो पायेगा । अब उससे कोई कहे कि तू काम क्यों नहीं करता, और वह कहे साहब तमाम काम तो कर रहे हाथ भी हिलाते, सिर भी मटकाते, गाना भी गाते । अरे यह काम करना वहाँ न कहलायेगा, वहाँ तो कूड़ा उठाकर फेंके, उस जगह की सफाई करे तब काम का करना कहा जायेगा । इसी प्रकार जो निर्विकार विशुद्ध निरुपाधि परमात्मा हैं वे क्या करते हैं? अनंत ज्ञान, अनंत आनंदरूप निरंतर वर्त रहे हैं, मगर वे यहाँ कोई काम किया जाता नहीं मालूम होता । द्रव्य है, परिणम रहा है सो ठीक है, प्रत्येक पदार्थ परिणमता है, मगर वे परमात्मा अब काम कर रहे हैं ऐसा दृष्टि में नहीं आता । वे अकर्ता हैं । और यहाँ ये जीव भी तो वैसे ही हैं जैसे कि प्रभु, विशुद्ध चैतन्यरूप केवल प्रतिभास में रहता है मगर उसने अपनी यह स्वस्थता छोड़ दी और कर्मरसरूप विकल्प करने लगा, तो लो ये कहलाये कर्ता, जो बेढंगा काम करे, दूसरा काम करे, बाहर का काम करे उसको कहते हैं कर्ता और स्वभाव के अनुरूप जो परिणमन हो रहा है वहाँ करने की बात कहाँ है? तो समझियेगा कि जो विकल्प करे उसको कर्ता कहेंगे, जो निर्विकल्प रहे उसे कर्ता न कहेंगे ।
593―अपेक्षा से अर्थ का ग्रहण―भैया ! समझने की अनेक विधियाँ होती है । यदि इतने मात्र को देखा जाये कि जो परिणम रहा सो करने वाला, तो मुक्त आत्मा भी तो परिणम रहे हैं । हाँ, वे अपने उस शुद्ध भाव के कर्ता हैं । देखिये―जब-जब जिस-जिस तरह का आशय बनता है उसके अनुसार ज्ञान चलता है । विरोध कहीं कुछ नहीं है । परमात्मा शुद्ध भाव के कर्ता हैं ऐसा कह लीजिए । ठीक है । ये मिथ्यादृष्टि जीव अपने अशुद्ध भावों के कर्ता हैं, कह लीजिए ठीक है और कभी यह भी कह सकते कि अज्ञानी कर्ता हैं, ज्ञानी कर्ता नहीं हैं । सब तरह से सब ज्ञान चलता है । जैसे कोई गेंद का चतुर खिलाड़ी बालक गेंद को हाथ से भी खेल लेता, पैर से भी खेल लेता, पीठ से भी खेल लेता, बैठकर भी खेल लेता, दौड़कर भी खेल लेता, जमीन में लोटकर भी खेल लेता, इतना अच्छा अभ्यास होता इसे, ठीक ऐसे ही ज्ञानी पुरुष भी वस्तुस्वरूप के बारे में इतना असंदिग्ध है, उतना परिपुष्ट ज्ञान वाला है कि उसे सब ओर का ज्ञान है और निश्चयज्ञान से, व्यवहार के ज्ञान से सभी प्रकार के बोध से वह लाभ लेता है स्वभावदृष्टि रखने का । उसका मूल प्रयोजन ज्ञानस्वभाव का दर्शन है । उसका यह पवित्र कार्य कैसे बन गया । उसने उससे ज्ञानस्वरूप सहज ज्ञानस्वभाव में यह मैं हूँ, ऐसा अविचल अनुभव किया, उसका प्रताप है कि ज्ञानी के सारे काम ज्ञानमय ही होते हैं और अज्ञानी जीव ने कषायोंरूप अपने को माना, श्रेयरूप अपने को माना, इंद्रिय मनरूप अपने को माना, इस कारण उसकी बड़ी विचित्र दशायें होती हैं, विडंबना बन जाती है ।
594―अपने अनुभव की पद्धति की विधि से कष्ट और शांति का परिणाम―देखो जैसे कोई पुरुष मैं भूत हूँ, मैं भूत हूँ ऐसा अनुभव करे तो वह भूत उसके सिर हो जाता है । तो वहाँ उसका ज्ञान ही इस तरह का विकल बना रहा है कि उसने उस भूत को अपना रूप मान लिया । मैं भूत हूँ, जब ऐसा अंगीकार कर लिया तो मोही ऐसे विचित्र काम कर डालता जिनको देखकर साधारण लोग बड़ा आश्चर्य मानते । इसी तरह इस आत्मा ने अज्ञान से इस कर्मरस को और अपने आत्मा को जब एक कर डाला, मैं यह हूं, जो अपने को लग रहा ना, जंच रहा ना, उसी को तो मान रहा कि मैं यह हूँ, सो उस कषाय को आत्मरूप मान लिया तो अब निर्विकाररूप अनुभव तो हो नहीं सकता और निर्विकार अनुभव के समय जो इस जीव की पवित्र वृत्ति होती है वह तो अब रही नहीं, विकार रूप अपने को अनुभवा तो यह विकार का ही कर्ता हो गया, उसके अनुरूप ही मन, वचन, काय की चेष्टायें करेगा । अच्छा और ज्ञेय पदार्थ में यह मैं आत्मा हूँ, ऐसा अनुभव से क्या दशा होगी? सो यह लौकिक दृष्टांत से देखो । कोई आदमी घर के छोटे कमरे में बैठा हुआ अपने को ऐसा ध्यान में रख रहा कि मैं तो बहुत बड़ा झोंटा हृष्ट पुष्ट और जिसके मस्तक पर बहुत बड़े-बड़े सींग लगे हैं, साथ यह भी ध्यान बन जाये कि इस कमरे का दरवाजा तो बहुत छोटा है, अब उससे निकलना बहुत मुश्किल हो रहा है तो वहाँ वह थोड़ा दुःख भी मानेगा । तो जिस ज्ञेय को आपा मान लिया अज्ञान से तो जैसे उसे व्यग्रतायें रहती हैं इसी प्रकार जगत के दिखने वाले ज्ञेय पदार्थों को जब यह मान लिया कि यह मैं हूँ तो बस उनके अनुरूप चाहेगा, उसको व्यग्रता होगी । तो देखो हर तरह से इस चैतन्यस्वरूप पर धावा हो रहा है अपनी गल्ती से, अपने विकल्प से । उस समय यह चैतन्यरस तिरस्कृत हो गया । अब इसे सुध न रही । अब यह जीव अपने को नानारूप अनुभव कर रहा, इसे संतोष कहाँ से मिले? संतोष का धाम तो यह ज्ञानमात्र स्वरूप है, ऐसा अपने आपको मान रहा तो संतोष भी रहता । अब अपने स्वरूप की तो सुध न आये फिर संतोष तृप्ति कहां से उत्पन्न हो सकती ? सो भाई अपनी भलाई करना हो तो यहाँ जो विपत्ति छा रही है अंदर में उसको दूर करियेगा अर्थात् कषायों से, ज्ञेय पदार्थों से, इंद्रिय मन से निराला सहजज्ञानस्वभाव मात्र हूँ, इस प्रकार अपने में इस अंतस्तत्त्व का अनुभव करें तो सारे संकट टल जायेंगे ।