वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 64
From जैनकोष
स्थितेत्यविघ्ना खलु पुद्गलस्य, स्वभावभूता परिणामशक्ति: ।
तस्यां स्थितायां स करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता ।।64।।
619―जीव और कर्म में एकत्व का अभाव―कर्तृकर्माधिकार के इस प्रसंग में बात यह चल रही है कि यह जो कुछ भी संसार नृत्य हो रहा है वह निमित्तनैमित्तिक विधि विधानपूर्वक हो रहा है । अर्थात् दो द्रव्य हैं―जीव और कर्म । कर्म हैं पौद्गलिक, जीव है चैतन्यस्वरूप, सो जो कर्म पहले बाँधे थे उन कर्मों का उदय आया, उनका अनुभाग फूटा, इस प्रकार कर्म में परिणमन हुआ । इस स्थिति में इस जीव ने अपने उपयोग में विकल्प बनाया, बस वही विकल्प इसका कार्य हे और इस विकल्प का यह जीव करता है, किंतु अपने उपयोग के परिणमन के अतिरिक्त अन्य द्रव्य में, कर्म में किसी भी प्रकार की अवस्था का कर्ता नहीं है, क्योंकि दो चीजें अलग-अलग हैं, कर्म अलग है, जीव अलग है, कर्म और जीव में एकता नहीं है, जीव और प्रत्यय में याने उदय में आये हुए कर्म में एकत्व नहीं है । देखो, जब एक क्षेत्रावगाही पदार्थों में, बंधक बंध्य पदार्थों में ही भिन्नता है फिर अत्यंत बाह्य पदार्थों में कोई आसक्त हो तो उसको कितना व्यामोही कहा जाये । लोग धन वैभव के पीछे होड़ लगाये दौड़ रहे हैं और अपनी बरबादी कर रहे हैं । एक कथानक एक मुख्त्यार ने बताया कि एक किसान गेहूं बेचकर आया, हजार रुपया का गेहूं बिका । ठंड के दिन थे, पूर्व रात्रि में पड़ौसी जनों के साथ एक बड़े कोंड़े पर ताप रहा था, साथ में 3 वर्ष का उसका बच्चा था । किसान हजार रु. के नोट की गड्डी लिये बच्चे को खिला रहा था । बच्चे के हाथ वह नोट की गड्डी आ गई । थोड़ा वह खेलता रहा, फिर उसने उस गड्डी को धधकती हुई आग में डाल दिया, सारे नोट जलकर राख हो गए । उस समय उस किसान को इतना क्रोध आया कि उस बच्चे को भी उस धधकती हुई आग में पटक दिया । वह बच्चा भी उसी में जल गया, तो कोई इस धन को अपना सर्वस्व मानता, कोई स्त्री पुत्रादिक को सर्वस्व मानता, कोई इस देह को ही आपा मानता । तो ये सब बातें किस कारण बनीं? मूल क्या है? मूल यह है कि इस जीव के जो इस-इस उपयोग में कर्म का नाच झलक रहा है, कर्म का नाच प्रतिबिंबित हुआ है बस अपनी सुध भूलकर चूंकि उसके नाट्य से ये जीव स्वाद तो उस ही कर्मरस का मान लेते हैं कि मैं हूँ, सो बाहरी बातों में एकता चलती है ।
620―निज को निज, पर को पर जान―भेदविज्ञान तो कर्मरस व ज्ञानरस में करना है, सो यहाँ जीवस्वरूप, कर्मप्रतिफलन, कर्मप्रतिबिंब, उदयागत ये कर्म इनमें भेद जानें । उदय में आये हुए जो कर्म हैं, प्रतिबिंब है वह और यह मैं उपयोग, ये एक नहीं, यदि ये दोनों एक हो जायें तो उसका अर्थ हुआ कि जीव और अजीव मिलकर एक ही चीज रह गए, ये अकेले-अकेले दो हैं, यह आप कैसे जानते? इस अकेले का काम इसमें ही चल रहा, इस अकेले का परिणमन इसमें ही चल रहा तब तो आप समझ रहे कि दो हैं, अगर ये दोनों एक बन जायें याने इनमें अभेद कभी हो जाये तो दोनों एक बन जायेंगे दो कहाँ रहे । सो ये दो ही हैं एक कैसे बनेंगे? यह प्रत्येक पदार्थ की बात है । देह और कर्म एक नहीं हैं, अगर एक बन जायें तो कौनसा एक रहा और कौनसा एक मिटा? कोई व्यवस्था नहीं बन सकती । सो इसी तरह मान लीजिए कि विचार विकल्प कर्म नोकर्म सभी के सभी मुझ उपयोगस्वरूप आत्मा से निराले हैं, मैं कर्म का कुछ नहीं करता । कर्म का निमित्त पाकर मैं अपने उपयोग में ही विकल्प रूप परिणमन कर रहा हूँ, अब इसका रहस्य जाना, तथ्य जाना, अंतर समझा कि मुझे कर्मरस रूप नही बनना चाहिए । मैं तो ज्ञानरूप ही रहना चाहता हूँ, अब यह बात भी देखते जाना कि कर्म भी द्रव्य है, जीव भी द्रव्य है, कर्म में भी बदलने का स्वभाव पड़ा है, जीव में भी परिवर्तन का अवस्थान करने का स्वभाव पड़ा है । जीव कर्म में कुछ नहीं करता, निमित्त भले ही है, पर कर्म में स्वयं परिणमने का स्वभाव है । तो परिणमनस्वभाव से ही कर्म परिणमते हैं । किस प्रकार परिणमते हैं, जैसा रागद्वेष भाव का सन्निधान पाया तदनुकूल यह परिणमता है, लो इन परिणमनों में विरोध नही है, यह तो उपादान की कला है कि कौनसा उपादान कैसा निमित्त पाकर किसरूप अपने में अपना कार्य बना ले । यह सब उपादान की कला है । तो इस तरह निरखें आप कि यहाँ जो जीव में कर्मबंध हुआ पड़ा है तो वस्तुत: जीव में बंधा नहीं पड़ा । कर्म में ही कर्म बंधे, पुद्गल में ही पुद्गल बंधे, पिंड पुद्गल का पुद्गल में ही बंधता मगर ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक योग है कि जीव के कषायभाव का निमित्त पाकर यह कर्मत्व आया है जीव के साथ, इस तरह बंधन को प्राप्त हुआ है ।
621―निमित्तनैमित्तिक बंधन का तथ्य―गाय का गला रस्सी से बाँध दिया तो वस्तुत: रस्सी से गला नहीं बँधा, रस्सी के एक छोर से रस्सी का दूसरा छोर बँधा है, अब इस तरह का जो छोर बँधा है ऐसा उस समय का वातावरण है कि गाय ही बँधी हई है । कहीं बाहर जा नहीं सकती । गाय के गले में रस्सी नहीं बंधी हुई है । अगर गाय के गले से रस्सी बंध ही जाये तो गाय मर जायेगी । जैसे रस्सी के एक छोर से रस्सी का दूसरा छोर बाँध दिया गया इस तरह से गाय का गला किसी पहलवान से मरोड़कर रस्सी के एक छोर से नहीं बाँधा जा सकता । यदि ऐसा किया भी जाये तो गाय मर जायेगी । तो जैसे रस्सी से रस्सी का छोर बंधा, गाय के गले से रस्सी का छोर नहीं बंधा इसी तरह कर्म में कर्म बंधे, पर ऐसा निमित्त पाकर बँधे कि इस अमूर्त जीव का और मूर्त कर्म का एक निमित्तनैमित्तिक बंधन हो गया और इस कारण अब उपचार से जीव ही मूर्तिक बन गया । मूर्तिक नहीं है जीव, मगर स्थिति ऐसी बन गई कि वह नरक आदिक भवों को धारण करता है । तो देखो उस पुद्गल कर्म में सत्त्व होने के नाते परिणमने की शक्ति है, स्वभाव भी, मगर ये पुद्गल कर्म स्वयं ही कर्मरूप नहीं परिणमें तो इसका अर्थ यह हुआ कि पुद्गल कर्म अपरिणामी हैं, वे परिणम ही नहीं सकते । परिणमना उसकी प्रकृति में ही नहीं है । ऐसा एक तरह का ठोस कल्पित कि जहाँ परिणमन ही नहीं, यों बन जायेगा । अब पुद्गल कर्म में कुछ परिणमन न हो तो संसार का अभाव है । अब जीव में यह संसरण कैसे हुआ? यह संसार नहीं आ सकता । अगर कोई यों कहे कि भाई पुद्गल कर्म स्वयं तो नहीं परिणमते मगर जीव ही उस पुद्गल को कर्मरूप परिणमा देते हैं, जो कर्म है, जिसको लोग कहते तो हैं तकदीर, भाग्य, रेखा, मगर वास्तव में क्या है, क्या प्रदेश होते हैं, क्या उसमें स्थिति होती है, क्या अनुभाग होता है, इन सबको बताने वाला कोई शासन नहीं मिला । एक जैन शासन ही कर्म की बात का प्रतिपादन करता है । कोई कहे कि पुद्गल कर्म स्वयं तो नहीं परिणमता किंतु जीव ही पुद्गल कर्म को कर्मरूप परिणमा डालता है और जब कर्मरूप वह परिणम गया तो संसार चलता रहेगा । सो जब कर्म परिणमता ही नहीं है, जीव ही परिणमा देता है तो वे यह बतलायें कि जब वह जीव परिणमा रहा है कर्मरूप, उस समय यह कर्म परिणम रहा कि नहीं परिणम रहा? खुद अपने में स्वयं परिणम रहे को यह जीव परिणमा रहा या खुद कुछ भी नहीं परिणम रहा । प्रारंभ से अंत तक भी केवल जीव ही जीव परिणमा रहा । क्या यह स्थिति है? यदि कहा जाये कि हाँ, है यह स्थिति कि कर्म द्रव्य कर्मरूप नहीं परिणम रहा, जीव ही परिणमा रहा, ऐसा जगत में कहीं भी नहीं हो सकता कि जो स्वयं न परिणमें उसे कोई परिणमा दे । न परिणमते को कोई भी दूसरा परिणमा नहीं सकता और अगर स्वयं परिणम रहा है तो देखो यह स्वरूप वस्तुस्वभाव, प्रकृति । वह परिणम रहा है तो अकेला ही तो परिणम रहा है कर्मरूप । कुम्हार के व्यापार का निमित्त पाकर मिट्टी घड़ा रूप बन रही, पर यह तो बताये कोई कि घड़ा रूप बन रही मिट्टी ही कुम्हार द्वारा की जा रही है या घड़े रूप मिट्टी परिणम ही नहीं रही और कुम्हार ने परिणमा दिया, इसके मायने है कि कुम्हार ही घड़ा बन गया, मगर ऐसा तो नहीं होता । स्वयं परिणमते हैं समस्त पदार्थ, कर्म भी स्वयं परिणमा ।
622―परिणति में परापेक्षता का अभाव―निमित्त होने पर भी परिणमा तो जरूर यह कर्मरूप, मगर जो परिणमन की बात है भीतर में सो उन परिणमन में अब यह दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता । ध्यान से सुनने की बात है । तबला को पुरुष ने बजाया, हाथ का ठोकर मारा तो उससे जो शब्द निकल रहे हैं तबले से तो इस मृदंग के बाधक हाथ का निमित्त पाकर हो तो रहा है और उस हाथ का सन्निधान बन गया फिर भी जो आवाजरूप परिणम रहा है भिद-भिद रूप, उस स्थिति में जब वह रूप परिणम रहा तो उस परिणमन में तो वह अपेक्षा नहीं रखता कि मैं तो किसी दूसरे से मिलकर यह आवाज निकालूंगा । आवाज वहाँ स्वयं ही निकलती रहती, ऐसे ही जगत में सर्वत्र निमित्तनैमित्तिक भाव हैं और वस्तु स्वातंत्र्य भी अमिट है, कोई वस्तु किसी दूसरे का परिणमन नहीं करता, तो यहाँ पुद्गल में ऐसी परिणमने की शक्ति स्वयमेव है । जब परिणमने की शक्ति वहाँ है तो जीव ने कर्म में कुछ किया तो नहीं । यह तो उस समय अपने शुभ और अशुभ भावों को ही करने वाला है, यह बात कही जा रही है निमित्तनैमित्तिक घटना में, पर जो और व्यवहार में कारण माने जाते हैं वहाँ की बात नहीं कही जा रही, अन्य कारण तो उपचरित कारण हैं, जो आश्रयभूत कारण हैं वे वास्तविक कारण नहीं हैं किंतु उपयोग उनमें फंसे तो वे कारण बनते हैं, उपयोग उनमें न फंसे तो वे कारण नहीं बनते । यह बात है आश्रयभूत कारण की जैसे किसी नौकर पर क्रोध आया, किसी निंदक पर क्रोध आया तो उस निंदक या नौकर ने क्रोध नहीं उत्पन्न किया, वे कोई भी क्रोध के निमित्त नहीं हैं, क्रोध का निमित्त तो क्रोध प्रकृति का उदय है, अन्य सब जो भी बाहरी चीजें हैं उनमें उपयोग फंसाया, विकल्प लगाया तो हमारा क्रोध व्यक्त हो गया । ये आश्रयभूत कारण हैं, ये उपचार से कहे जाते हैं, इनमें उपयोग लगाया तो उनमें कारणपने का आरोप किया जायेगा पर क्रोध प्रकृति में आरोप और उपचार की बात नहीं आती । वह तो ऐसा निमित्त कारण है कि जैसे आग पर कागज गिरा तो जल गया, निमित्तनैमित्तिक भाव है । हां तीसरा जो कारण है आश्रयभूत, वह जीव के प्रसंग में ही कारण होता है । अजीव और अजीव के प्रसंग में कोई उपचरित कारण नहीं कहलाता ।
623―आत्मस्वभाव के आलंबन का प्रताप―यह जीव जब अपनी सुध नहीं रखता, अज्ञानभाव में रहता है, तो यह कुछ से कुछ अपने में कल्पनायें बनाता और अपने में परिणाम हो रहा है, अगर दुःखों से छूटना है तो अपनी इन इंद्रिय और मन को काबू में रखना होगा । अभी तक इन इंद्रिय और मन को बेकाबू रखा इसी से संसार में दुःखी रहा, और इंद्रिय को नियंत्रित करें, मन को नियंत्रित करें, कुछ विवेक बनायें, ज्ञान प्रकाश रखें, अपने को सही समझें, दूसरे को सही समझें, वहाँ ऐसा प्रकाश जगता कि दुःख का काम नहीं । देखो, कोई भी जीव स्वयं स्वभाव में विरोधी नहीं है, सब ज्ञानस्वरूप वाले हैं, उनका स्वभाव ज्ञानमात्र है, ज्ञान की वृत्ति के लिए ही उनकी सदा तैयारी रहा करती है, लेकिन कर्म का उदय ऐसा है कि उपयोग विकल्परूप परिणमने लगा, नाना तरह की कल्पनायें करने लगा । उन कल्पनाओं से यह जीव परेशान है, दुःखी है, मगर अपने स्वभाव को निरखें, दूसरे मनुष्यों को देखकर उनमें उनके स्वभाव को निरखें । कोई तुच्छ नहीं । जीव सब परमात्मस्वरूप हैं, यह तो सब कर्मलीला है, कर्म का एक नाटक है, जो इस तरह का अंतर आ गया, और मनुष्य मनुष्य में अंतर की कुछ बात तो किया । जीवों में देखिये―कोई पशु है, कोई कीट है, कोई एकेंद्रिय है, कोई राजा है, कोई देव है, यह जो अंतर आया हे तो इस सहज परमात्मप्रभु में अंतर नहीं है । यह सब एक प्रासंगिक अंतर है । वह ज्ञानीपुरुष प्रासंगिक अंतर को महत्त्व नहीं देता, वह तो अपने स्वभाव की दृष्टि करता है । सब जीव स्वभावत: स्वतंत्र हैं । मैं वह हूँ जो हैं भगवान, जो मैं हूँ, वह हैं भगवान । अंतर यही ऊपरी जान, वे विराग यहाँ राग वितान । यों निरख रहा ज्ञानी । भगवान का स्वरूप क्या? सहज ज्ञानस्वभाव का सहज शुद्ध विकास । मेरा स्वरूप क्या? सहज ज्ञानस्वभाव । विकास नहीं है यहाँ, पर सहज विशुद्ध ज्ञानस्वभाव तो अमिट है, अनादि-अनंत है । उस ज्ञानस्वभाव का आश्रय किए बिना जीव को मुक्ति का मार्ग नहीं मिल सकता । और जितना कथन है ग्रंथों में वह सब इसीलिए है कि इस जीव में अपने स्वभाव की सुध हो और यहाँ ही आग्रह बन जाये कि मैं ज्ञानस्वभाव मात्र हूँ । मैं आनंदधाम हूँ । कष्ट, विकल्प, राग-द्वेष इन झंझटों का यहाँ स्वभाव नहीं है, मैं तो अपने स्वभावरूप ही अपने को मानूंगा । मैं और कुछ नहीं ।
624―सहजस्वभाव के सत्याग्रह में विभावों की विध्वंसता―अगर ईमानदारी से, सच्चाई से, दृढ़ता से निर्णयपूर्वक ऐसा अपने को स्वीकार करले कि मैं तो सहज चैतन्यस्वभाव मात्र हूँ, बस यहाँ स्वभाव विकास उमड़ने लगेगा और यह सब मलिनता, आच्छादितता, कर्म की बातें ये सब दूर होती चली जायेंगी । यह ही तो एक काम करने को इस जीवन में पड़ा है दूसरा कुछ काम नहीं । बाकी तो सब यह विडंबना है । एक समझ लीजिए झंझट । केवल एक गप्प कर लेना मात्र है । आज मनुष्य अनात्मा की होड़ मचा रहें हैं । कोई दुनिया में ऊँचा पद पाने की होड़ कर रहा, कोई बड़ा से बड़ा धनी बनने की होड़ कर रहा, कोई यहाँ वहाँ की बातें सीख सीखकर एक बड़ा विद्वान बनने की होड़ कर रहा, कोई किसी प्रकार अपना यश फैलाने की होड़ कर रहा । कोई बड़े-बड़े ऊँचे राष्ट्र के अधिकारी तथा कोई संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिकारी बनने की होड़ कर रहा, लेकिन यह सब क्या है? जैसे―नींद खुली तो नींद में देखा गया सपना खतम । ऐसे ही मोह की नींद खुली, आत्मा का ज्ञान जगा तो ये सब बातें स्वप्नवत् हो जाती हैं । ओहो―क्या-क्या अज्ञान चेष्टायें की थी, वह सब अज्ञान चेष्टा है । मैं तो ज्ञानस्वरूप हूँ । आज जाना, आज अनुभवा । यह मैं आनंद धाम हूँ । इसका किसी वस्तु से कोई प्रयोजन नहीं । ऐसा यह ज्ञानी जब अपने ज्ञान प्रकाश में लग रहा है तो इसको किसी भी प्रकार का कोई कष्ट न रहा । अपने को आनंदरूप अनुभव करें । ज्ञान जगने पर पता पड़ता है कि वह सब मिथ्या था । श्रावकजन, मुनिजन कोई दोष लगने पर प्रतिक्रमण करते हैं, प्रायश्चित करते हैं और वहाँ कहते हैं कि मेरे पाप मिथ्या होवो । तो क्या कहने से मिथ्या हो जाते? क्या इस प्रकार की रूचि से मिथ्या हो जाते, अथवा उसके एवज में बहुत बड़ा उपवास दंड योग धारण कर लिया, शरीर की चेष्टा कर ली तो क्या उससे मिथ्या हो जाते ? देखिये करना तो सब होता है, मगर मिथ्या होते हैं दोष तो स्वभाव दृष्टि द्वारा । उस दोष का निराकरण है, तो स्वभाव दर्शन द्वारा । यह मैं विशुद्ध चैतन्यमात्र हूँ, मेरे इस सत्त्व के कारण, परपदार्थ के संसर्ग बिना मेरे में जो बात है वह मेरा स्वरूप है । मैं तो यह हूँ । वह अपराध जो बन गया तो वह एक कर्मलीला थी, कर्मोदय था । हम उसका निमित्त पाकर उस प्रकार के विकल्प रूप बन गए पर वह सब एक विपरीत चेष्टा थी । विपरीत बुद्धि की चेष्टा थी, वह सब मिथ्या होवो । अरे स्वभाव दृष्टि आयी तो विभाव परिणति मिथ्या तो हो ही गई । मेरे उपयोग में यह बात तो आ ही गई कि वह एक व्यर्थ का झंझट बन गया । मैं तो यह ज्ञानस्वभाव मात्र हूँ । तो दोषों की शुद्धि स्वभाव दृष्टि से होती है । दोषों का निराकरण स्वभाव दृष्टि द्वारा होता है ।
625―धर्मपालन के लिये मौलिक कृत्य―धर्मपालन के लिए बस एक काम है । देखो दसों काम नहीं हैं धर्मपालन के लिए । इसने तो धर्मपालन के लिए सैकड़ों काम बना रखा है । तो उस सैकड़ों कामों के एवज में दस काम तो करने ही पड़ेंगे । सैकड़ों काम किए जायेंगे मगर मूल में स्वस्थता करने वाला है तो यह ज्ञानदीपक है । खाली लौ आग कहां से प्रकाश बना देगी, जरा मुश्किल पड़ेगा । बाती रखेंगे, मिट्टी या टीन का कोई दीपक-सा बनायेंगे उसके अंदर तैल होगा तो वह लौ जलेगी । तो लौ जलने जैसे काम के लिए ये सब बातें सहयोगी आयेगी, अंधकार को किसने मिटाया? क्या मिट्टी के दीपक ने, क्या उस तैल ने, क्या उस रूई की बाती ने उस अंधकार का विध्वंस किया? तो उस जगमगाते हुए दीपक के लौ का सन्निधान पाकर पदार्थ अंधकार अवस्था तजकर प्रकाशरूप में आये । ऐसे ही यहाँ देखें भव-भव के बाँधे हुए जो कर्म हैं, जो अनुभाग में आते, प्रबल होते उनका ऐसा अंधकार छाया चलती है, उस अंधकार का विध्वंस करने वाली सीधी साक्षात् बस यह ज्ञान ज्योति है । इस ज्ञान ज्योति को इस प्रकार उमगाने में, इस ज्ञान ज्योति की ऐसी बढ़वारी करने में चूँकि विषयकषाय इच्छा का भार लदा हुआ था उसे दूर करने का तत्काल उपाय शुभोपयोग था, शुभकर्म था, वह शुभ कार्य करना पड़ा और वहाँ किया जाना चाहिए, लेकिन वास्तविकता यह ही है कि इन कर्ममलों का, इन विभावों का साक्षात् विध्वंस करने वाला है तो ज्ञानमात्र । अपने आपको चैतन्यस्वभाव मात्र हूँ, इस प्रकार की आस्था होना, उसी में रुचि प्रीति होना और भीतर में ऐसा पौरुष होना कि मैं ज्ञातादृष्टा मात्र ही रहूँ, विकल्प न करूँ । विकल्प व्यर्थ के हैं ।
626―अध्यवसान भाव का मिथ्यापन―इसी ग्रंथ में बंधाधिकार में बताया कि तुम किसी को सुखी होने के लिए कितना ही सोचो, अरे जब उसके पाप का उदय है तो क्या वह सुखी हो जायेगा? आपके सुखी करने की ही चेष्टा उसके दुःख का कारण बनेगी । आप सोच रहे हैं कि फलाने हमारे मित्र आये हैं, मैं इन्हें खूब खिला पिला दूं । आपको उसके प्रति बड़ा प्रेम उमड़ रहा जिससे आप अनेक प्रकार के व्यंजन बनवाकर उसे खूब जबरदस्ती करके खिला दें तो उससे ही वह बड़ा कष्ट पा जाये । आप किसी के भले की कहीं चेष्टा करें मगर उसका उदय खोटा है तो आपकी चेष्टा उसके दुःख का कारण बन जाती है, तो आपके अध्यवसान ने किसी को सुखी कर पाया क्या? वे अपने कर्मोदय के अनुसार सुखी दुःखी होते हैं । मैं किसी को सुखी दुःखी नहीं बना सकता । मेरे सुख का निमित्त तो साता का उदय है ।
627―निमित्त और आश्रयभूत कारण के अंतर की समझ बिना उपदेश की विडंबना―यहाँ यह बात बहुत ध्यान में रखना चाहिए कि जो निमित्त को कुछ भी नहीं मान सकता है तो क्या गल्ती हो गई जो ऐसी बुद्धि बन गई । हमारे विकार में दो प्रकार के कारण हाजिर होते हैं एक तो निमित्त कारण और दूसरा आश्रयभूत कारण । आश्रयभूत कारण बाहरी पदार्थ हैं और निमित्त कारण कर्मोदय है । अब ये बाहरी जो कारण हैं इनको कारण कह रहे हैं, इनको निमित्त कह देते हैं, लेकिन ये वास्तव में निमित्त हैं ही नहीं । मैं इनमें उपयोग दूं तो मेरे रागद्वेष के कारण बन जाते हैं । तो चूंकि यहाँ कारणपना न रहा यहाँ झूठा कारणपना रहा, हमने बनाया तो कारण रहा एक जगह ऐसा दिखे तो वही बात निमित्त है उसमें भी कहने लगे कि भाई ये निमित्त भी ऐसे ही हैं कि हम राग करें तो ये निमित्त कहलाते हैं और राग न रहे तो निमित्त नहीं कहलाते । अरे ये निमित्त कारण हैं, इनका प्रतिबिंब होता है यहाँ और उसके संबंध में यह उपयोग विकल्परूप परिणमने लगता है । हाँ इतना वश तो है संज्ञी पंचेंद्रिय सम्यग्दृष्टि को कि वह इस समय अपने उपयोग को ज्ञानस्वभाव में ले जाये तो वह अव्यक्त विकार रहेगा, व्यक्त विकार नहीं हो सकता, निमित्तनैमित्तिक योग का परिचय कर्तृत्व समझने के लिए नहीं कराया जाता किंतु उससे हटने के लिए । यह मैं नहीं हूँ, नैमित्तिक है, हेय है, परभाव है, इससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं । तो स्वभाव में लगने को धुन बने तो इस तरह विभावों से हटकर स्वभाव में रुचि करें, यही हमारे कल्याण का मार्ग है ।