वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 66
From जैनकोष
ज्ञानमय एव भाव: कुतो भवेद् ज्ञानिनो न पुनरन्यः ।
अज्ञानमय: सर्व: कुतोऽयमज्ञानिनो नान्य: ।।66।।
635―ज्ञानी के ज्ञानमय भाव व अज्ञानी के अज्ञानमय भाव होने के कारण की जिज्ञासा―ज्ञानी के ज्ञानमय भाव होते हैं, ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, दोनों उपयोगस्वरूप हैं, जीव हैं और दोनों में उपयोग का निरंतर परिणमन चलता है, अब ज्ञानी के तो उस उपयोग परिणमन में ज्ञानमय भाव होता है और अज्ञानी के अज्ञानमय भाव होते हैं, क्या कारण है कि ज्ञानी के ज्ञानमय भाव होते हैं और क्या कारण है कि अज्ञानी के अज्ञानमय भाव होते हैं? तो इसका उत्तर आगे दिया जायेगा, बहुत संक्षेप में यह जानें कि यह आत्मा एक पदार्थ है और पदार्थ का प्रतिसमय परिणमन कुछ न कुछ होता ही रहता है । परिणमन स्वभाव वाला है । अब यह आत्मा जिस भाव को करता है उसका ही यह कर्ता कहा जाता है । अच्छा जिस आत्मा को अपने आत्मस्वरूप का परिचय हुआ है मैं यह सहज चैतन्यमात्र हूँ, इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है वे सब मुझसे बाह्य भाव हैं, बाह्य से मेरा लाभ नहीं । मेरे स्वरूप में मेरी दृष्टि हो इससे ही लाभ है, जिसने स्वरूपत: परिचय पाया उसने स्व और पर का विवेक बनाया । मैं यह हूं, इस जीव पर सबसे बड़ा भारी संकट है तो यह है कि यह जीव निज स्वरूप को पहिचानकर जो कर्मरस है नहीं इस स्वरूप ही अपने को मानता है, तो जैसे जीव देह को आत्मा मानता तो यह समझ कर तो नहीं मानता कि यह देह है, यह मैं हूँ, देह का और मैं का दो तरह से वह विचार नहीं करता किंतु देह में ही मैं हूं इस रूप से अनुभव करता । यह अज्ञानियों का स्वरूप बताने के लिये भाषा ज्ञानियों की है । अज्ञानी जीव इस प्रकार सोचता है कि जो देह है सो मैं हूँ । यों तो ज्ञानी बतला रहे हैं कि अज्ञानी मोही जीव देह में आत्मबुद्धि करते हैं, अज्ञानी को तो देह को देखकर यही पता है कि यह ही आत्मा ये तो अज्ञानी कैसे समझ सकेगा कि, जो देह है सो मैं नहीं हूँ, उसके लिए तो कल्पित वही एक है, कि यह देह है, मुझसे भिन्न है, मैं इसको “मैं” मान रहा हूँ ऐसा चिंतन तो नहीं चल सकता अज्ञानी के इससे भी बढ़कर बात यहाँ अंतर में है कि जो कर्म का अनुभाग उदय में आया और, उस कर्मानुभाग का स्वच्छता के कारण इस योग्यता वाले जीव में प्रतिफलन हुआ तो यह उस कर्मरसरूप ही अपने को अनुभवता है । यह कर्मरस है, इसे “मैं” मानता हो ऐसा विश्लेषण नहीं है अज्ञानी के ज्ञान में किंतु कर्मरस रूप अपने को अनुभव करता है, लेकिन जिसने सही परिचय जाना कि कर्मरस यह है, ज्ञानरस यह है, यही है सहज चैतन्यरस ऐसे ज्ञानरस और कर्मरस में जिसने भेद पहिचाना उसको स्व-पर का विवेक हुआ और इस कर्मरस से अत्यंत निराला जो आत्मा का ज्ञानज्योतिस्वरूप है उसको उसने स्वीकार किया । फिर अब इसका जो भी भाव बनेगा वह ज्ञानमय भाव बनेगा । जहाँ इस ज्ञानज्योति को स्वीकार कर लिया कि मैं यह हूँ, अब वहाँ जो भी वृत्ति बनेगी वह सब ज्ञानमय वृत्ति बनेगी । हाँ, अज्ञानी के जिसने कि अंतर में यह भाव ही नहीं समझ पाया कि मैं ज्ञानरस मात्र हूँ, कर्मरस कतई नहीं हूँ, यह तो कर्म की प्रकृति है, ऐसा जिसने भेद नहीं डाल पाया उसको स्व-पर का विवेक न रहा और उस कर्मरस से निराला जो आत्मस्वरूप है उसकी दृष्टि तो अत्यंत अस्त को प्राप्त है, इसका तो नामनिशान भी नहीं है, वह तो कर्मरूप ही अपने को अनुभवता है, जैसे यहाँ किसी को क्रोध आ जाये तो अपने को क्रोधरूप ही अनुभव करता । क्रोध करते हुए खुद को मानता कि मैं यह हूँ, ऐसा हूँ, ठीक हूँ, चतुर हूँ, जो कर रहा हूँ सो ठीक कर रहा हूँ, उसको अपने आत्मा का पृथक् रूप से बोध नहीं होता इसलिए उसके अज्ञानमय भाव रहता । यह है ज्ञानी और अज्ञानी की प्रकृति । तब क्या होता है? अज्ञानी के अज्ञानमय भाव होता है, मायने मैं क्रोध हूँ, मान हूँ, माया हूँ, लोभ हूँ, जो भीतर में कषाय जगी, जो भीतर में विपरीत आशय बना तन्मात्र अपने को मानना यह ही अज्ञानी की निशानी है ।
636―अपने में अपने भाव की परख का अनुरोध―अब परख लो―हम इन सब झंझटों से निराला ज्ञान ज्योतिमात्र अपने को मान सके या नहीं । यथार्थ मान नहीं सके तो व्यर्थ के कोलाहलों से क्या लाभ मिल जायेगा? वह तो अनादि काल से करते चले आये, उनसे कोई सिद्धि न मिली । अपने को ज्ञानमात्र मानने से ही कल्याण बनेगा, और रूप मानने से कल्याण हो ही नहीं सकता । धन, वैभव, मकान, महल, इज्जत, पोजीशन आदिक की तृष्णा यह सब व्यर्थ है, क्या लाभ है इससे? थोड़े दिनों को जीवन पाया, कुछ दिन बाद मरण हो जायेगा और यह जो परपदार्थों में आत्मत्वबुद्धि की है उससे इसको जो पाप बँध हुआ उससे यह संसार में रुलना हुआ । बड़ी दयनीय स्थिति है इस जीव की । इस दुर्बुद्धि को कौन समझाये? अरे जब अपनी दुर्बुद्धि बनायी तब किसी को समझाना क्या कार्यकारी हो सकता है? ज्ञानी आचार्य संत कितना समझा रहे कि हे आत्मन् ! तू आनंदधाम है, बाहर में कुछ मत विचार, बाहर में कोई चेष्टा न कर, तू अपने में आनंद पा । तू अपने उस स्वरूप को सही समझ, पर समझ नहीं बनती । केवल पाठ पढ़ लेंगे सुवा बत्तीसी की तरह । जैसे कोई तोता यह पाठ प्रतिदिन रटता कि ऐ तोते तू पिजड़े से निकलकर नलिनी पर न बैठना, नलिनी पर बैठ भी जावे तो दाने चुगने की कोशिश न करना, दाने भी चुगे तो तू उस नलिनी में लटक कर न रह जाना, उसे छोड़कर उड़ जाना । यों पाठ तो इस तरह रोज-रोज रटता मगर होता क्या कि मौका पाकर वह तोता पिंजड़े से बाहर उड़ जाता, नलिनी पर बैठता, दाने चुगता और उस नलिनी में लटक भी जाता, और वहाँ भी पाठ वही का वही रटता रहता, क्रियायें भी सब वही की वही करता रहता । और केस नलिनी में लटक कर वह यह भ्रम करता कि इस नलिनी ने मुझे पकड़ लिया तो वह उसे छोड़ता भी नहीं । फल क्या होता कि वह तोता शिकारी के द्वारा पकड़ा जाता, तो ऐसे ही हम धर्म के नाम पर पाठ तो वही धर्म का रटते, पर क्रियायें अटपट करते । कभी दुकान में घर में किसी भी जगह यह भावना तो बनाओ कि मैं हूँ क्या और मुझे क्या करना है जीवन में, और यह जीवन समाप्त हो जायेगा तब फिर मेरा क्या हाल होगा । अरे यह मैं तो ज्ञानमात्र हूँ, पहले भी यही था, आगे भी यही रहूँगा, वस्तुस्वरूप नहीं मिट सकता । मैं ज्ञानमात्र हूँ ऐसा निर्णय तो कर लो, संसार संकटों से नियम से पार होवोगे । इन बाह्य पदार्थों के प्रति तृष्णा का रंग न चढ़ाये । इनमें तृष्णा करके न इस लोक का लाभ है न परलोक का । कहा भी तो है चक्रवर्ती की संपदा, इंद्र सारिखे भोग । काकबीटसम गिनत हैं सम्यग्दृष्टि लोग । अर्थात् सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष की दृष्टि में यह चक्रवर्ती की जैसी बड़ी संपदा और इंद्र के सारिखे भोग काकबीट के समान रहते हैं, जीर्णतृणवत् असार है, जैसे कोई सड़ा गला तिनका है तो उसमें आप कोई लाभ पा लेंगे क्या? कुछ लाभ नहीं मिलता, ऐसे ही तीन लोक की सारी संपदा से भी लाभ नहीं मिलता इस जीव को । जो अरहंत और सिद्ध हुए उन्हें भी क्या लाभ मिला था इस बाहरी समागम से । कुछ भी तो लाभ न मिला था । उन्होंने साधक दशा में आत्म-साधना की जिससे अनंत आनंद, अनंत ज्ञान पाया, पूर्ण समता प्रकट हो गई और यही निज में है, स्वरूप में है ।
637―बाह्योपयोग की उपेक्षा का लाभ―भैया ! कौन सी ऐसी अटक लगी है बीच में कि यह जीव खुद में बसी हुई अनंत संपदा को प्राप्त नहीं कर सकता । दिन भर बाह्य पदार्थों की तृष्णा में लगा रहता और अंत में मरण होने पर खाली हाथ । अरे जो कुछ थोड़े समय बाद कुछ साथ में नहीं रहना है उसको यदि इस जीवन में ही मान लो कि मेरे साथ तो कुछ है ही नहीं, मैं तो अकेला चैतन्यधन हूँ, अंतस्तत्त्व हूं, प्रसंग समागम में भी ऐसा स्वत्व मान लेवें तो इस जीव का कल्याण प्रकट है । ये सब कलायें कब आती है? जब थोड़ा यह प्रतिभास जग जाये कि मैं तो मात्र ज्ञानस्वरूप हूँ, ये हड्डी, चाम, खून, माँस आदिक मैं नहीं, देखो शरीर मैं नहीं, ऐसा एकदम सोचने में चित्त नहीं जमता और शरीर की एक-एक चीज को देखकर सोच लो- क्या यह मैं हड्डियों वाला हूं? जैसे मरघट में हड्डियां, पड़ी रहतीं, उनका कुछ महत्त्व नहीं, वैसा ही मैं भी हूँ क्या? अरे ! यह हड्डी, माँस, चाम आदिक रूप वाला मैं नहीं, मैं तो एक ज्ञानज्योतिर्मय तत्त्व हूँ, आकाश अमूर्तिक है, पर अन्य अमूर्तिक पदार्थों की अपेक्षा आकाश की समझ जरा जल्दी बन जाती है, काल द्रव्य भी अमूर्त, मगर उसकी समझ झट नहीं बनती । धर्म अधर्म द्रव्य भी अमूर्त हैं, उनकी भी समझ झट नहीं बनती । बस मान लिया, युक्ति से जान लिया, पर अन्य अमूर्तिक द्रव्यों में से आकाश के बारे में कुछ अधिक प्रकाश सा मिलता है । यह है आकाश, क्योंकि यहाँ बैठते हैं, उड़ती धूल सी दिखती है, काम चल रहा है, सब समझ में आ रहा है, तो जैसे आकाश अमूर्तिक है फिर भी वास्तव में है ना कोई चीज, उससे भी अधिक समझ बनना चाहिए जीव की, क्योंकि यह जानने वाला खुद जीव है, खुद खुद की समझ बहुत बढ़िया बना सकता है, अमूर्त हूँ और प्रतिभास प्रतिभास है, ऐसा एक पदार्थ है जो देह में सीमित है, असंख्यात प्रदेशी है, देह से निराला है, यह शस्त्रों से छेदा नहीं जा सकता, आग इसे जला नहीं सकती, पानी इसे बहा नहीं सकता, वायु इसे उड़ा नहीं सकती, अमूर्त ज्ञानघन यह मैं आत्मतत्त्व हूँ, ऐसा अपने बारे में कभी निर्णय बनावें । और यह दृष्टि भी जगे कि यह मैं ज्ञानमय आत्मतत्त्व कर क्या पाता हूँ क्या नहीं कर पाता हूं? केवल ज्ञानभाव, उपयोग, इससे आगे यह कुछ कर सकता क्या? मैं अपने स्वरूप से बाहर कुछ नहीं कर सकता, वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है कि किसी परवस्तु से किसी को कुछ मिलना नहीं मेरे से भी किसी को क्या लाभ मिलेगा? मैं अपने आपके स्वक्षेत्र में ही अपने आपको परिणमाता रहता हूँ, इसके आगे मेरा कोई कार्य नहीं जो है, सो जानता है उसके ज्ञानमय परिणमन चलता है, उसमें आत्मा को कल्याण लाभ है ।
638―अज्ञानियों की प्रत्यस्तमित स्वभाव दृष्टिता―जो अज्ञानी है, जिसको स्व-पर का कुछ विवेक नहीं जगा, कर्मरसरूप वह अपने को मान रहा है याने भीतर में यह स्वाद नहीं आ पाता कि मैं ज्ञानमात्र हूँ और ऐसा स्वाद लेता है कि मैं सुखी दुःखी मैं रंक राव मैं परिवार वाला, मैं धनी, मैं विद्वान, मैं कुटुंब वाला, मित्र वाला, पार्टी वाला, ऐसी इज्जत वाला, यों कितने ही रूप से अपने को अनुभव कर रहा, जितना कर्मजाल है उन रूपों से यह अज्ञानी जीव अनुभव कर रहा । तो ऐसे अविवेक से अज्ञान से आत्मा की ख्याति नहीं । वह तो अत्यंत दूर हो गई, उस काल में अस्त हो गई, अब इस अज्ञानी के जो भाव बनेगा वह अज्ञानमय भाव बनेगा । देखो बाहर में अगर नम्रता करें, बाहर में अगर किसी पर दया करें, बाहर किसी का उपकार करें, कुछ भी कार्य करें तो यह अज्ञानी जिसने कर्मरस, ज्ञानरस दोनों में अंतर नहीं जान पाया उसके सारे भाव अज्ञानमय हैं । अज्ञानमय भाव में रहता हुआ ही वह प्रेक्षार्ह होने पर भी दया कर रहा है । अज्ञानमय भाव में रहता हुआ ही उपकार कर रहा है, करे अच्छे काम, शुभ भाव भी कर रहा, पूजा, दान आदिक जो भी क्रियायें कर रहा, वे सब भेदविज्ञान के अभाव से अज्ञानी अज्ञान भाव से रहते हुए कर रहा । तो यह सब करता हुआ भी परिणाम उसका अज्ञानमय पाता है और उसका असर भी होता है, जैसे―मैं देखो कितना इन दीन दुखियों का उपकार कर रहा हूँ, मैंने इतना अच्छा काम कर डाला, इससे दुनिया में मेरी महिमा बनेगी । मैं अच्छे कुल में पैदा हुआ हूँ, मेरा तो यह ही काम है कि मैं दया करूं, दान करूं, परोपकार करूं, देखिये―बाहर में ये काम कुछ उचित से दिख रहे मगर इसमें भी कर्मरस के प्रति एकता लगा ली है । इससे अनंतानुबंधी आदिक कर्म प्रकृतियों का बंध होता है, देखो ज्ञानी का ज्ञानमय भाव चलता है और अज्ञानी का अज्ञानमय भाव चलता है । अज्ञानी तो कर्मबंध के अंधेरे में रहता और ज्ञानी पुरुष जिसने स्व-पर का भेद डाल रखा है मैं तो ज्ञानज्योति मात्र हूँ उसको अज्ञान का अंधेरा नहीं रहता । वह जानता है कि मैं क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक कषायों रूप नहीं, मैं ज्ञानस्वरूप हूँ ऐसा जिसने भेद कर डाला उसके ज्ञानमय भाव होता है, चूंकि अज्ञानी को अपने स्वरूप का पता नहीं इसलिए जो कर्मरस मिल रहा, रागद्वेषादिक भाव मिल रहे उनके साथ एकता कर रहा और अहंकार बना रहा । मैं यह हूँ देखो मैंने धर्मशाला बनवा दी, देखो मैंने इन लोगों के उपकार के लिए अमुक चीज खोल दी, लेकिन स्व-पर में एकत्व बुद्धि होने से उसके अहंकार जग रहा और कैसे अहंकार कि देखो यह ही मैं राग कर रहा हूँ, मैं ठीक कर रहा हूँ, यह मेरा काम है, इस प्रकार की वृत्तियाँ बन रही है, ऐसा यह मैं रोष करता हूँ, मैं राग करता हूँ, इस तरह का जो एकत्व का अध्यवसान हुआ, अज्ञान भाव हुआ, अज्ञान बन गया यह रागद्वेष को अपने रूप बना लेता है । तो कर्मकृत उपद्रव, है तो कर्म की परिणतियां, कर्म में रहने वाला अनुभाग; पर यह झलका यहाँ और इसे अपना मान लिया । कैसी फैक्ट्री चल रही है यहां, कर्म हैं, उदय में आये, अनुभाग फूटा, झलकन हुई, उस रूप उपयोग को अपना माना । सारे ये काम शीघ्र-शीघ्र चल रहे, इन कामों में बाधा ही नहीं आती, कभी कोई अंतर ही नहीं आता । बहुत ठिकाने से यह फैक्ट्री बहुत मजबूत चल रही । उसका फल है संसार में परिभ्रमण ।
639―ज्ञानी की पावनता―देखो, ज्ञानी जीव की स्थिति कैसी पावन है, उसने यह भेद डाल रखा है, कि मैं ज्ञानज्योति स्वरूप हूं, कर्मरस नहीं हूं । कर्म से अत्यंत निराला हूं । ज्ञानस्वभाव उसकी दृष्टि में आ रहा, उस ज्ञान को ही यह मैं हूँ और कुछ मैं नहीं हूँ, अपने सहज ज्ञानस्वरूप को आत्मस्वरूप स्वीकार कर रहा तो स्व की ही दृष्टि बना रहा । विकार ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व से, विकारभाव हैं ये मैं नहीं । मैं ज्ञानमात्र हूँ । यहाँ लोगों को जो यह संकोच बना रहता है कि भाई हमारा इतने लोगों में परिचय है, ये लोग हम को क्या कहेंगे । तो देखो हल्की पदवी में यह संकोच वाली बात कुछ हद तक ठीक है । उस संकोच करने वाले के लिए लाभदायक है मगर परमार्थ दृष्टि से यह संकोच इस आत्मा को भ्रष्ट करने वाला है । जब यह संकोच रहता कि इतने लोगों के बीच यदि हम कोई गलत काम करेंगे तो हमारी बड़ी हँसी होगी, समाज के बीच हम अनादर के पात्र बनेंगे, इस दृष्टि से तो वह संकोच करने वाली बात ठीक है मगर परमार्थ दृष्टि से देखें तो वह आत्महित के मार्ग में बाधक है, क्योंकि उस संकोच के कारण उसका उपयोग खींचा-खींचा फिरेगा, वह बाह्य पदार्थों के संग्रह विग्रह में पड़ जायेगा, जिससे वह अपने आत्मस्वरूप का लक्ष्य नहीं कर सकता । मैं ज्ञानमात्र हूँ ऐसा जिसका निर्णय है वह इस दृष्टि से चलित नहीं होता । अगर लोग इस स्थिति में हैं तो मुझे भी ऐसा कुछ करना चाहिए ऐसा भाव लोकदृष्टि देखकर उसके नहीं होता । मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञान में ही मुझे दृढ़ होना है, ऐसा उसके अंतरंग में पूरा निर्णय है । अब जो अपने ज्ञानस्वरूप की ओर ही धुन रख रहा, यहाँ ही अंतर्मुख रहता है वह रागद्वेष के साथ कैसे एकमेव हो सकता? उससे तो अलग ही होगा । ज्ञान को ज्ञानरस में डुबाकर रहेगा और कर्मरस को कर्मरस में डुबाकर रहूँगा ।
640―ज्ञानमग्नता की आवश्यकता का पूरण―अंदर में एक यही ज्ञानमग्नता का काम करने को पड़ा है, उसके साथ-साथ बाहर में जितने भी संयम चारित्र आदि के काम किए जा रहे वे सब इसी काम के लिए हैं । उन सब कामों को करते हुए भी, उनको करने का ध्येय नहीं है । यदि कर्मरस से हटकर ज्ञानरस में आने का ध्येय नहीं है तो ये सब बाहरी क्रियाकांड, प्रवृत्ति मात्र रह जायेंगी । हाँ उसको जरा एक गुंजाइश है कि जल्दी ही उसको समझ आ जाने का अवसर मिल सकता । जैसे कोई धनिक कंजूस है और कोई बहुत गरीब आदमी है । सो यद्यपि दान ये दोनों प्रकार के व्यक्ति नहीं दे सकते । यह बात तो दोनों में समान है मगर धनिक कंजूस के पास धन तो है । कभी उसकी दृष्टि पलट जाये, वह उदार बन जाये तो बड़ा दान भी दे सकता बड़ा त्याग भी कर सकता । ऐसे ही एक सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष और एक मिथ्यादृष्टि पुरुष की बात है । बाहरी प्रवृत्तियां तो दोनों की एक जैसी देखने को मिल सकती, जैसे देवदर्शन करना, स्वाध्याय करना, सत्संग में बैठना, गुरुजनों की सेवा करना आदि क्रियायें ज्ञानी और अज्ञानी की दोनों की एक जैसी हैं, ऐसी स्थिति में सत्य शांति का अनुभव न तो ज्ञानी पुरुष ही करता और न अज्ञानी करता, पर इतना अंतर है कि ज्ञानी पुरुष की दृष्टि कभी पलट जाये तो वह सत्यशांति का अनुभव कर सकता । जैसे कंजूस धनिक के इतना अवसर तो है कि यदि दृष्टि पलट जाये तो वह बड़ा भारी दान भी कर सकता ऐसे ही सजाना पुरुष को ऐसा अवसर तो है कि वह कभी सत्यशांति का अनुभव कर सकता ।
641―ज्ञानी का अंतःप्रतिबोध―जब भीतरी भाव को देखें तो ज्ञानी के तो ज्ञानमय भाव ही चल रहा । वह चाहे कभी थोड़ा बिगड़ भी जाये, कम कुछ क्रोध भी कर ले तो भी उसका ज्ञानमय भाव नहीं छूटता । अज्ञानी कभी बड़ा स्नेह भी कर ले, बड़ा हित भी जताये तो भी उसका अज्ञानमय भाव नहीं छूटता । जिसके अज्ञानमय भाव हैं उसके भीतर में कर्मबंध होता । ज्ञानी के भीतर में आस्रव, बंध, संवर निर्जरा चलते जैसे कि उसकी वर्तमान स्थिति है, ज्ञानमय भाव से संवर निर्जरा होती, हम आपका कर्तव्य एक मात्र यह है कि अपने आपके बारे में अधिकाधिक चिंतन करें कि मैं ज्ञानज्योति मात्र हूँ, जिसमें विकार नहीं, केवल जानन मात्र स्वच्छता मात्र प्रतिभास मात्र मैं यह हूं, मुझको कोई जानता ही नहीं, कोई पहिचानने वाला ही नहीं, फिर इस मुझ के बारे में कोई अन्य क्या कह सकता है, जो कुछ कहता होगा वह अपनी कषाय के अनुसार वचन प्रवृत्ति करता है और उसके लक्ष्य में केवल यह देह पुद्गल ही रह रहा है, कोई यदि मुझे पहिचान जाये, जैसा कि मैं सहज चैतन्यस्वभाव मात्र हूँ उसको पहचानने वाला तो खुद ज्ञानी बना, ज्ञाता दृष्टा बना, उससे अज्ञानमय प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती । अज्ञानीजन उपद्रव करते हैं तो वे अज्ञानमय भाव रख रहे हैं, उनका स्वरूप तो निरपराध है और कोई यदि ज्ञानी बन रहा है, उसके स्वरूप का जाननहार हो रहा है तो उसे उसके उपद्रव करने की भावना ही नहीं बन सकती । ज्ञानी को ऐसा अपने स्वरूप का निर्णय है और ज्ञानमय उसका भाव जगता है जिससे अहर्निश वह आनंदरस का भोग करता है । नारकी जीव (सम्यग्दृष्टि नारकी) धन्य है कि वह नरकों में घोर वेदना सह रहा, खूब कुट पिट रहा, फिर भी उसकी दृष्टि रहती है अपने ज्ञानस्वभाव की, मैं यह हूँ । देखिये इतनी सी पहिचान का कितना बड़ा प्रभाव है, इतनी बड़ी वेदना की स्थिति में रहकर भी वह अंत: में निराकुल है, क्योंकि वह अपने को कृतार्थ समझ रहा, और कोई बड़ा राजा हो, देव हो, जिसके कि कर्मरस में एकता आयी है, वह विषय भोगों के बड़े-बड़े साधन पा रहा, बड़ी संपत्ति पा रहा, सब कुछ पाकर भी उसके अंतरंग में आकुलता चलती है । ज्ञानी के ज्ञानमय भाव है, उससे वह सदा प्रसन्न है, अज्ञानी के अज्ञानमय भाव है इससे वह सदा अंदर में व्यग्र रहता है । इसी बात को यहाँ पूछा गया है इस छंद में कि क्या कारण है कि ज्ञानी के ज्ञानमय भाव ही होता, अज्ञानमय भाव क्यों नहीं होता और अज्ञानी के अज्ञानमय ही भाव होता, ज्ञानमय भाव क्यों नहीं होता ।