वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 93
From जैनकोष
आक्रामन्नविकल्पभावमचलं पक्षैर्नयानां बिना सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम् ।
विज्ञानैकरस: स एव भगवान् पुण्य: पुराण: पुमान् ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यक्तिंचनैकोऽप्ययम् ।।93।।
803―स्वयंसमृद्ध स्वयं की प्रतीति का परिणाम―ज्ञानी जीव ने पहले तो समस्त विकल्पभावों का उल्लंघन किया और अविकल्प भाव का भी उल्लंघन करता है मायने इससे भी परे होता तो सभी प्रकार के नयपक्ष इसके छूट जाते । न अभूतार्थ का पक्ष रहा न भूतार्थ का पक्ष रहा । वह तो अपने आपमें स्वयं का आस्वाद ले रहा है याने जब ज्ञान में यह ज्ञानस्वरूप समा जाता है तो उस समय यह अपने ज्ञानस्वभाव का ही स्वाद ले रहा होता । यह तो एक विज्ञानैकरस है, अर्थात् आत्मा में मिलेगा क्या? जैसे इन दिखने वाले पदार्थों में रूप, रस, गंध, स्पर्श ये मिलते हैं तो इस आत्मा में भी कुछ मिलना तो चाहिए, क्योंकि आत्मा सत् है । तो इस आत्मा में क्या तत्त्व है, क्या स्वरूप है आत्मा का, तो बस एक ज्ञानमात्र । बस ज्ञानभाव । यह ही इसका एक स्वरूप है, ऐसा विलक्षण पदार्थ है, यह समस्त पदार्थों से विलक्षण है, यह कैसा ज्ञानमात्र है, कैसा भावात्मक पदार्थ है कि एक सत्तावान है, जाननहार है, बस जानन ही इसका सर्वस्व स्वरूप है और है सद्भूत इस आत्मा में प्रदेश भी है, अपने आपकी सत्ता रख रहे । समस्त पर से भिन्न है ऐसा यह ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व यह ज्ञानरस से भरा हुआ है, सो यह ही भगवान है, लोग प्रभु के दर्शन के लिए बड़े उतावले रहते हैं । कहते हैं―कहीं भगवान के दर्शन मिलें । तो वह भगवान् यह खुद साक्षात् भगवान है । तो इसका जो निज सहज स्वरूप है, अपने आपका जो कुछ भी स्वभाव है वह वही तो है जो प्रकट भगवंतों के है, जो अरहंत और सिद्ध का स्वरूप है वही हम आप सब आत्माओं का स्वरूप है । तो वह एक भगवान पुरुषोत्तम क्या है? ज्ञान और दर्शन । जो कुछ ज्ञानदर्शनात्मक चैतन्यस्वभाव है वह ही एक यह आत्मा-तत्त्व है । मैं क्या हूँ इसका एक ऐसा दृढ़ निर्णय हो कि अन्य सब पदार्थों से निराला नजर में आने लगे । समस्त अचेतन पदार्थों से तो जुदा है ही, पर चिदाभास विभावों से भी जुदा है यह प्रकट ज्ञान में आये ।
804―आत्ममिलन में दु:ख का अनवकाश―इस जीव को दुःख कुछ नहीं है । यह अपने आपमें सत् है । इसका अपने में अपना परिणमन है । दुःख का क्या मतलब । हर एक पदार्थ भी तो इसी तरह है, उनकी सत्ता है और उनका उनमें परिणमन है, ऐसा ही यह आत्मस्वरूप है । दुःख की क्या बात है? कहा है गुंजाइश, पर कोई अपराध करे, है तो बिल्कुल प्रकट भिन्न अन्य सब वस्तु और माने कि यह मेरा है तो उसको तो कष्ट होगा ही । समस्त चेतन जीव मुझ जीव से अत्यंत भिन्न हैं । कोई कहे कि घर में रहने वाले जीव उतने जुदे नहीं हैं जितने कि अन्य जीव जुदे हैं सो बात सही नहीं । जितने अन्य घर के लोग अन्य देश के लोग तथा कीड़ा मकोड़ा पशुपक्षी वगैरह ये जीव जैसे हमसे अत्यंत निराले हैं ठीक उतने ही पूर्ण घर में बसने वाले ये जीव हैं । यह तो एक उस गृहस्थ की अपनी अटकी हुई है कि उसका क्षुधा तृषा आदि में गुजारा बन सके सो एक कमेटी बना ली है । घर भी क्या है? एक गुजारा कमेटी । एक कमाने वाला है तो एक घर में भोजनपान की व्यवस्था बनाने वाला है, फिर और-और प्रकार, जो कुछ भी काम यह करता है उसकी ही ये सब परिस्थितियाँ हैं । सो गुजारा कमेटी है यों जानो परिवार में । उसका कुछ रंच मात्र भी चित्त में अज्ञान रहेगा तो उसका फल अनंत संसार है, आज मनुष्य हैं और मरकर हो गए एकेंद्रिय वगैरह, तो सब मटियामेट हो गया । यहाँ तो सब कुछ जान रहे थे, ज्ञान की बड़ी कलायें चल रहीं थीं, साहित्यिक ढंग भी था । अपने भाव दूसरों को बता देना पर के भाव खुद समझ लेना, ये सब बातें निभ रही थीं और फिर मरकर बन गए एकेंद्रिय आदिक, तो जैसे कि मकान बनाया और ढा गया ऐसे ही एक मनुष्यभव में आये इतनी उन्नति के शिखर पर आये और गिर गए फिर भ्रमण करने लगे । तो इस मनुष्यभव में एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि हम सबसे निराले अपने आपके स्वरूप में यह मैं हूँ ऐसा अनुभव करें, सब कष्ट दूर हो जायेंगे । इन अन्य जीवों से, अन्य अचेतन पदार्थों से यह निराला है, भिन्न है, इससे मेरा कुछ संबंध नहीं, ऐसा दृढ़ निर्णय होने से बहुत सी आकुलतायें दूर हो जाती हैं, तो शरीर में भी अपनी एकदम भिन्नता का बड़ा अभ्यास हो जाये और एकदम स्पष्ट जुदा यह जीव दिखने में आये, और शरीर से जुदा क्या, विकारों से भी जुदा । कर्म उदय में आये हैं, उनका फोटो आया है वे सब परभाव हैं, उनसे भी निराला मैं ज्ञानस्वरूप हूँ । ऐसा जब अपने सहज स्वरूप में अपना निर्णय बन जाये कि मैं यह हूँ, उसके लिए फिर कोई कष्ट नहीं है । जहाँ असावधानी हुई, सावधानी हटी कि दुर्घटना हुई । जहाँ किसी भी पर में अपना कुछ संबंध माना, समझा, बस वहीं से कष्ट होने लगा । सहज कोई कष्ट नहीं हम आपको । हम उपद्रव करते हैं और कष्ट पाते हैं, मोह और अज्ञान रखते हैं और कष्ट पाते हैं । सीधे सादे रहें जैसा स्वरूप है जैसा स्वभाव है उस ही रूप अपनी वृत्ति बनायें तो कष्ट का वहाँ फिर कोई काम नहीं । तो ऐसा आपत्तिरहित केवल विशुद्ध चैतन्य स्वरूप यह इस भगवान आत्मा में जो पूर्ण है बस यह ही एक मात्र मेरा सर्वस्व है ।
805―धर्मपरिचय से धर्मपालन की सुगमता―धर्ममार्ग पर चलना कठिन भी है सरल भी है । कठिन यों बन गया कि जब हम इन चर्म की आंखों से बाहर कुछ निरखते हैं, तो कुछ भीतर में राग तो है ही, एक तृष्णा बन जाती है और जहाँ तृष्णा है वहीं नियम से कष्ट है, तो कठिन तो यों है आत्मकल्याण का करना, आत्मस्वरूप निहारना, तृप्त होना, दुःख से दूर होना मगर, जिसको दर्शन हुए अपने प्रभु के, जिसने अपने में अपना अनुभव पाया उसके लिए तो बहुत सरल है, वह जानता है कि मैं यह हूं इतना हूँ अन्य कुछ नहीं हूँ तो उसे विकल्प नहीं जगते । तो यह ज्ञानी पुरुष अपने आपमें यह अनुभव कर रहा कि मैं ज्ञानदर्शनस्वरूप हूँ अथवा जो कुछ हूँ यह एक हूँ । दृष्टि में रख रहा है अपने स्वरूप को और अनुभव रहा है कि मैं मात्र यह एक चित् स्वरूप हूँ ।